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________________ उपसर्गजयी कामदेव २१ किन्तु कामदेव निश्चल ही रहा । आत्मभावो मे रमण करता हुआ वह सर्प रूपी देव की बात सुनकर भी विचलित न हुआ । बार-बार दी गई सर्प को चेतावनी भी व्यर्थ गई । रोप से भरा, बल खाता हुआ सर्प आगे बढा । कामदेव के शरीर पर चढ कर गले मे ऑट डालकर उसके वक्षस्थल को निर्दयता से डस लिया । इससे कामदेव को तीव्र वेदना हुई, किन्तु वह विचलित नही हुआ । धर्मजागरणा मे वह पूर्ववत् ही लीन रहा । सत्य, साधना और सयम का प्रभाव दुष्ट से दुष्ट प्राणी पर भी पडे बिना नही रहता । लगातार तीन बार भयंकर उपसर्गो द्वारा पीडित किए जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव को स्वीकृत धर्म पर इस प्रकार दृढ रहते देखकर देव का मन अव सच्ची आत्म-ग्लानि से भर गया । पौषधशाला से बाहर आकर सर्प रूप त्याग कर अब वह अपने वास्तविक देव स्वरूप मे उपस्थित हुआ 1 दसो दिशाओ को अपनी कान्ति से प्रकाशित करता हुआ वह पौषधशाला मे आया और कामदेव को सम्बोधित करते हुए कहने लगा “श्रमणोपासक कामदेव । तू धन्य है । कृतार्थ है, कृतलक्षण है । मनुष्य जन्म का फल तेरे लिए सुफल है क्योंकि निर्ग्रन्थ वचन मे तुझे प्रतिपत्ति हुई हैं । देवराज इन्द्र ने अपनी भरी सभा मे उद्घोषित किया था"जम्बूद्वीप के भरत क्ष ेत्र की चम्पा नगरी में कामदेव श्रावक भगवान महावोर की धर्म प्रज्ञप्ति स्वीकार कर पौधशाला में कायोत्सर्ग मे लीन है । उसे धर्म पथ से विचलित करने मे कोई भी समर्थ नही है । भले ही वह महापराक्रमी देव, दानव, यक्ष, राक्षस और गन्धर्व ही क्यो न हो । " “कामदेव | मुझे देवराज इन्द्र की इस बात पर विश्वास नही हुआ था, अत मैं तेरी परीक्षा लेने आया था । देवानुप्रिय । तूने जिस धार्मिक दृढता का परिचय दिया है वह अद्भुत है । देवराज ने जो कहा था वह मैंने प्रत्यक्ष देख लिया | उनका कथन सर्वथा सत्य है । मैं तुझसे अपने द्वारा किए हुए क्रूर कर्म की क्षमा चाहता हूँ । क्षमा करो, क्योकि तुम क्षमा करने के योग्य हो ।”
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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