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५१ भावी के गर्भ में
श्री कृष्ण ने जब सुना कि भगवान नेमिनाथ उनकी द्वारिका नगरी के वाहर उपवन मे आकर विराजे है, तो वे प्रसन्न हो गये। राजकाज तो चलता ही रहता है, जीवन-भर का वखेडा है यह-ऐसा सोचकर और प्रभु-दर्शन के लिए उत्कठित होकर वे रानी पद्मावती सहित चल पड़े ।
दर्शन, वन्दन, उपदेश-श्रवण के पश्चात् अन्य जन तो अपने-अपने घरो को लौट गये, किन्तु श्रीकृष्ण के मन मे आज कुछ जिज्ञासाएँ जाग रही थी। उनका समाधान जानने के लिए वे वही ठहर गये और उचित समय जानकर भगवान से पूछने लगे
"भन्ते । मैने अपनी इस द्वारिका नगरी को सजाने-सँवारने और समृद्ध करने मे कोई वात उठा नही रखी है । वडा परिश्रम किया है । आज यह नगरी देवलोक के समान सुशोभित एव समृद्ध है । यहाँ की प्रजा भी सुखी है। भविष्य मे इस नगरी का विनाश तो नही होगा ?"
वास्तविकता यह थी कि श्रीकृष्ण यादव कुमारो मे निरन्तर बढती जा रही सुरा और सुन्दरी के प्रति आसक्ति से आशकित हो गये थे। अत वे इसके परिणाम को जानना चाहते थे।
भगवान ने वताया--
"कृष्ण | तुम तो ज्ञानी हो । क्या तुम नही जानते कि इस ससार मे एक भी वस्तु शाश्वत नही है ? केवल आत्मा ही शाश्वत है। शेप सब कुछ तो एक न एक दिन विनाश को प्राप्त होने ही वाला है । तुम्हारी यह द्वारिका नगरी भी एक दिन विनप्ट होगी।"
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