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________________ १७० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ हुआ यह कि एक जिन- कल्पी श्रमण नगर मे पधारे । सुभद्रा उनके आगमन के समाचार सुनकर हर्पित हुई । दर्शन करने गई । वन्दन किया । उसी समय उसने देखा कि मुनि की एक आँख मे तिनका गिर गया है, उनसे मुनि को बडी पीडा है । सुभद्रा ने आहिस्ते से, कुशलता से अपनी जीभ से मुनि की आँख का तिनका निकाल दिया । ऐसा करते समय उसके भाल पर लगा सिन्दूर मुनि के भाल पर भी लग गया । सास-ननद को सुभद्रा के माथे कलक लगाने का अवसर मिल गया । उन्होने सुभद्रा के चरित्र पर दोषारोपण करना प्रारम्भ किया । सुभद्रा का पति शकित हुआ । उसने अपनी पत्नी से कहा "मैं यह क्या सुन रहा हूँ ? तुम्हारे चरित्र मे इतना बडा दोष होगा, यह मैने नही सोचा था । क्या तुम्हारे जैन धर्म ने तुम्हे यही शिक्षा दी है ?" सुभद्रा को दुख हुआ । किन्तु उसने शान्तिपूर्वक सारी सच्ची बात अपने पति को बताते हुए कहा " आपकी शका निर्मूल है । मेरा चरित्र निर्मल है । पूज्य मुनिवर की पीडा को दूर करना मेरा धर्म था । मैंने धर्म का ही पालन किया है । मन मे भी कोई अन्यथा भाव नही आया ।" किन्तु पति के कान भरे जा चुके थे । अत उसने अपनी पवित्र पत्नी की बात को सत्य नही माना । वह फिर से बौद्ध बन गया । सुभद्रा के लिए परीक्षा की घडी उपस्थित हुई । और वह वीर, धर्मनिष्ठ, निष्कलंक नारी उस परीक्षा के लिए प्रस्तुत हो गई । परीक्षा थी— छलनी में पानी भरकर ले आना होगा ओर नगर के द्वार बन्द रहेगे । कठोर परीक्षा थी । किन्तु जो सत्य पर स्थित है, उसे चिन्ता क्या ? सुभद्रा जब छलनी मे पानी भरकर चली तो जन-समुदाय अवाक्, एकटक देखता रह गया - एक भी बूँद पानी उस छलनी में से नहीं गिरा । ओर नगर के द्वार एक-एक कर स्वत ही खुलते चले गए, मानो उन द्वारा पर अदृश्य देवता द्वारपाल के रूप में नियुक्त हो, और सती नारी का स्वागत करने हेतु वे द्वार उन्मुक्त करने जा रहे हो ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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