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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ
"अमात्य के कारण ही तेरा जीवन हे वे तेरे लिए पिता के ही तुल्य हे । उनका सदा सम्मान करना । "
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देवलोक मे पोट्टिला देव ने विचार किया कि तेतलिपुत्र को प्रतिबोध देना चाहिए | उसने बार-बार प्रयत्न भी किया किन्तु अमात्य सकेतो को ग्रहण न कर सका, वह राज्य कार्य में ही डूबा रहता । उसे प्रतिवोधित न होते देख पोट्टिल देव ने सोचा कि राजा अमात्य का वडा आदर करता है, अत. अमात्य भोग-विलास मे ही डूबा रहता है । किसी प्रकार राजा को अमात्य का विरोधी बनाना होगा, तभी उसे प्रतिवोध प्राप्त होगा । उस कार्य मे देव सफल भी हो गया ।
राजा ने
अस्तु, एक दिन अमात्य जब राजा के पास पहुंचा तब उसकी उपेक्षा की । अमात्य दुखी ओर चिन्तित होकर घर आया । मार्ग मे भी किसी ने उसकी ओर ध्यान नही दिया, घर पर भी उसकी उपेक्षा हुई । यह देख उसने आत्महत्या करने का निश्चय किया ।
भयंकर कालकूट विष उसने पी लिया । पर कुछ भी नही हुआ । तीक्ष्ण तलवार से उसने अपना गला काट लेना चाहा । पर कुछ भी नही हुआ ।
अशोक वाटिका में आकर उसने फांसी लगा लेने की कोशिश की । पर कुछ भी नही हुआ । रस्सी ही टूट गई ।
अब उसने एक वडी शिला अपनी गर्दन से बाधी और पानी मे कूद गया । पर अथाह जल छिछला हो गया ।
आग जलाकर उसमे कुदा, पर अग्नि ही शान्त हो गई । अमात्य विस्मित, चकित, निराश ओर दूखी ।
मोचता है— कौन विश्वास करेगा कि मैंने मरने का इतना प्रयत्न किया, किन्तु कुछ भी न हुआ वह गहन विचारो मे डूब गया ?
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उसी समय देव प्रकट हुआ । पोट्टिला का रूप धारण कर, कुछ दूर खड़े रहकर उसने कहा
"हे तेतलिपुत्र । आगे बड्डा है और पीछे हाथी का भय है। दोनो बगलों में सघन अन्धकार है। मध्य भाग मे वाणों की वर्षा हो रही है ।