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________________ धर्म की शरण मे १४६ एक दिन उनकी अन्तेवासिनी साध्वियां भिक्षा हेतु तेतलिपुत्र के घर गई । आनन्दपूर्वक उन्हे आहार प्रदान करने के बाद पोट्टिला ने कहा“आर्याओ ' अन्य सभी सुख उपलब्ध होते हुए भी मुझे एक कष्ट है । किसी समय मैं अपने पति को वडी प्रिय थी । किन्तु अव उतनी ही अप्रिय हो गई हूं। वे मेरा दर्शन तक करना नहीं चाहते, अन्य प्रसंग की तो वात ही व्यर्थ है । आप तो नाना स्थानो में विचरण करती है, जाती है । आपके पास अनेक प्रकार की ओपध चूर्ण-गोली आदि होगी, या मन्त्र-तन्त्र होगे, जिनसे मैं अपने पति को अपनी ओर पुन आकर्षित कर सकूं। यदि हो तो कृपा करके दीजिए ।" उत्तर मिला "हम तो निर्गन्थ श्रमणियाँ है । ऐसा वचन सुनना भी हमे नही कल्पता है। दोप लगता है । हम तो तुम्हे धर्म का उपदेश ही दे सकती है जिससे तुम्हे शान्ति मिले । तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो ।” पोट्टिला ने कुछ क्षण विचार किया और फिर कहा - “आप ठीक कहती है । मुझे धर्मोपदेश दीजिए ।” आर्याओ ने उसे धर्म का मर्म समझाया । उसका समुचित प्रभाव हुआ । पोट्टिला ने सत्य का साक्षात्कार किया और आर्याओ से श्राविका धर्म अंगीकार कर लिया । पूर्ण श्रद्धा से उस धर्म का पालन करती हुई वह जीवन-यापन करने लगी । कुछ समय बाद उसे ससार से पूर्ण अरुचि हो गई और वैराग्य- रस ने उसके हृदय को सोच दिया । अपने पति से आज्ञा लेकर उसने आर्या सुव्रता से दीक्षा ले ली । शेप जीवन मे तप ध्यान की आराधना कर अन्त मे मृत्यु को प्राप्त कर वह देवलोक मे देवता के रूप मे उत्पन्न हुई । राजा कनकरथ भी समय आने पर इस संसार को छोड़ गया । अब राजा कौन हो ? उस समय तेतलिपुत्र ने समस्त राज - पुरुषो के मध्य सत्य को प्रगट किया और कहा "राज्य का उत्तराधिकारी कनकध्वज है । वह राजा का ही पुत्र है । योग्य और गुणवान भी है । " प्रजा जो चिन्तित थी, वह हर्प मे डूब गई । कनकध्वज राजा वन गया । महारानी पद्मावती ने अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा - -
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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