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गॉव मे आग लगी हे ओर वन धधक रहा है। अब आयुष्मान् । विचार करो-शरण कहाँ है ?"
तेतलिपुत्र विस्मित-विमूढ ।
देव ने फिर पूण, ओर तब वह वोल उठा-"धर्म ही शरण है-धर्म ही शरण है।"
“ठीक कहते हो । सयमी, तपी, जितेन्द्रिय पुरुप को कोई भय नही है। धर्म ही शरण है।"
देव अदृश्य हो गया। तेतलिपुत्र को प्रतिवोध मिला।
शुभ परिणामो के उदय होने से उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्व भवो का ज्ञान हो जाने के बाद उसने स्वयं ही महाव्रतो को अगीकार किया और विचरण करते हुए प्रमदवन मे आया। वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे शान्तिपूर्वक विहार करते हुए उसे पहले अध्ययन किए हुए चौदह पूर्वो का सहज ही स्मरण हो आया।
शीघ्र ही तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणोय, मोहनीय और अन्तराय चार घाति कर्मों का नाश किया। उन्हे उत्तम केवलज्ञान और दर्शन की प्राप्ति हुई।
___ इस प्रकार तेतलिपुत्र ने बहुत समय तक केवलि अवस्था में रहकर अन्त मे परम सिद्धि प्राप्त की।
जो धर्म की शरण मे आया, वह स्वयं ही संसार के समस्त प्राणियो का शरणदाता बन गया।
-जातासून १४