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राजाओं का राजा
कुछ आश्चर्य की बात तो अवश्य है, किन्तु था ऐसा ही कि राजा परदेशी और जितशत्रु मे आपस मे मैनी थी।
परदेशी जितना क्रूर, अधर्मी और अहंकारी था, जितशत्रु उतना ही दयालु , धर्मनिष्ठ और सरल । दोनो राजा थे, उनकी मैत्री निभ रही थी । परदेशी कैकय देश मे श्वेताम्बिका नगरी मे शासन करता था और जितशत्रु कुणाल देश मे श्रावस्ती मे।
__ कोई भी नई वस्तु किसी एक को मिले तो वह दूसरे को अवश्य दिखाता, उपहार मे भेजता । इस प्रकार उपहारो के आदान-प्रदान के साथ दोनो राजाओ के सम्बन्ध चल रहे थे।
एक वार राजा परदेशी ने अपने मंत्री चित्त को कुछ उपहार लेकर जितशत्रु के पास भेजा । साथ ही यह भी कहा
"मंत्रिवर | तुम चतुर हो, बुद्धिमान हो । श्रावस्ती जा रहे हो तो कुछ दिन रहकर वहाँ की राजनीति का भी अध्ययन करते आना।”
राजा की आज्ञा शिरोवार्य कर चित्त श्रावस्ती पहुँवा । उपहार आदि जितशत्र को भेट कर वही ठहरा और अध्ययन करने लगा।
श्रावस्ती के सोभाग्य से उस समय वहाँ श्रमण केशी का पधारना हमा। नवान पार्श्वनाथ की परम्परा के वे विद्वान आचार्य थे। उनके
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