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हंस का जीवित कारागार
अपनी काया सभी को प्रिय है। मनुष्य इसे कंचन-काया मानता है। वह इसके मोह मे भूला-भूला फिरता है। किन्तु इसकी वास्तविकता क्या है, यह भी विचार कभी किया है ?
पुरानी कहानी है। वीतशोका नामक नगरी मे राजा 'बल' राज्य करता था। चूंकि राजा न्यायी और प्रजा का पालक था, अत नगरी का नाम सार्थक था, वहाँ किसी को कोई दुख या शोक नही था। राजा का पुत्र था महाबल । नाम के अनुरूप ही वह महावली और प्रतापी था । स्वर्ण मे सुहागे वाली बात तो यह थी कि बलवान होने के साथ ही वह विनयवान भी था । उसे अपनी शक्ति का तनिक भी अभिमान नही था ।
एक समय जब उस नगरी मे मुनि धर्मघोप पधारे तव उनके उपदेश सुनकर राजा बल को वैराग्य उपजा और वह राज्य-सिंहासन पर अपने पुत्र महावल को बिठाकर मुनि बन गया ।
महाबल राजा हो गया। उसके ज्ह वाल-मित्र ये-अचल, धरण, पूर्ण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द । महावल अव राजा था, किन्तु मित्रो की मित्रता तो वैसी ही बनी रही। सज्जन पुरुप ऐसे ही होते है । शक्ति या अधिकार के मद मे वे अपना भान कभी नहीं भूलते । महावल राज्य का कार्य अपने मित्रो की सलाह से ही करता था।
वृछ काल उपरान्त मुनि धर्मघोष विचरण करते हुए पुन उस नगरी मे पधारे । राजा महावल ने भी उनका उपदेश सुना और अपने पिता की
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