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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं
“तब तो भगवन् । यदि मैं कामभोगों से मुक्त न हो सका तो मरकर सातवें नरक में ही जाऊँगा ?”
भगवान सब जानते थे । वे कोणिक के हृदय में व्याप्त अहंकार को भी जानते थे । उन्होने शान्त स्वर में, स्पष्ट कथन किया" तुम छठे नरक में जाओगे, कोणिक । "
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"क्या भते । अभी तो आपने कहा कि चक्रवर्ती कामभोगो मे आसक्त रहकर सातवं नरक मे जाते हे । तब मैं छठे नरक में क्यों जाऊँगा ?" " इसलिए कोणिक । कि तू चक्रवर्ती नहीं है ।" कोणिक अधीर हो गया, बोला
“भते ! मेरे पास इतना विपुल वैभव है, इतनी विशाल सेना है, मै इतने वडे साम्राज्य का अधिपति हैं । तब मै चक्रवर्ती क्यो नही बन
सकता ?”
भगवान ने दयापूर्ण, कोमल वचन कहे
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"कोणिक ' अहंकार ठीक नही । लालसा अच्छी नही । जो है उसमे सन्तोष मानना चाहिए। तुम्हारे पास उतने रत्न और निधि नही हे जितने एक चक्रवर्ती के पास होने चाहिए । अत: तुम उस पद को प्राप्त नही कर सकते । व्यर्थ मे भटकना नही चाहिए ।"
किन्तु कोणिक माना नही । कामना उसके कलेजे मे कुंडली मारे वैठी थी ।
कृत्रिम रत्न बना-बनाकर उसने अपना खजाना भर लिया। ओर फिर विजेता बनने के लिए तमिस्रा गुहा मे प्रविष्ट होने लगा। गुहा के प्रतिपालक देव ने निषेध किया -
"कोणिक चक्रवर्ती वारह ही होते है, और वे हो चुके है | आप चक्रवर्ती नही है । कृपया अनधिकार प्रवेश न करें। ऐसा करने पर आपका अमंगल होगा ।”
कोणिक नही माना । उसने अनधिकार प्रवेश परिणामस्वरूप देव के प्रहार से मृत्यु प्राप्त कर वह छठे
हुआ ।
करना ही चाहा । नरक में उत्पन्न
- दशवकालिक
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