________________
सयम से सिद्धि
२७५ ___ माता-पिता ने अनेक तर्क-वितर्क देकर उन्हे समझाने का प्रयास किया, किन्तु उनके सभी तर्कों का पुत्रो ने खण्डन कर दिया। अन्त मे उन्होने भी अपने पुत्रो के साथ सयम लेने का निर्णय किया।
भृगु पुरोहित सम्पन्न था। उसके पास विराट् वैभव था। सम्पत्ति का उत्तराधिकारी न होने से प्रश्न उबुद्ध हुआ कि इसका मालिक कौन हो ? तत्कालीन परम्परा के अनुसार यह समाधान किया गया कि जिस सम्पत्ति का कोई अधिपति नही है उसका अधिपति राजा है।
महारानी कमलावती ने सुना कि भृगु पुरोहित, उसकी पत्नी यशा और उनके दोनो पुत्र विराट् सम्पत्ति को त्यागकर सयम-साधना के महामार्ग पर बढ रहे है और उनके द्वारा त्यक्त वैभव राज्यागार मे लाया जा रहा है । यह वात महारानी को पसन्द नही आई। उसने राजा से स्पष्ट गब्दो मे कहा
राजन् । वमन खाने वाले पुरुप की कभी प्रशसा नही होती । आप एक ब्राह्मण द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते है, यह कहाँ का न्याय है ? इस विराट् विश्व का सम्पूर्ण धन भी आपको मिल जाये तो भी आपकी इच्छाओ की पूर्ति नहीं होगी। धर्म के अतिरिक्त कोई भी वस्तु आपको त्राण नहीं दे सकती। जैसे पक्षिणी पिंजडे मे आनन्द की अनुभूति नही करती, वैसे ही मुझे भी इस बन्धन मे आनन्द का अनुभव नही हो रहा है । मै इसे छोडकर सयम-साधना, तप आराधना करना चाहती हूँ।
कुछ ममय रुक कर पुन रानी ने कहा-राजन् | यह धन मॉस के टुकडे के ममान है। जैसे मॉस-खण्ड पर चील, कौवे और गीध झपटते है वैमे ही धनलोलुप व्यक्ति धन पर झपटता है । हमारे लिए श्रेयस्कर यही है कि प्रस्तुत नश्वर धन को छोडकर शाश्वत धन की अन्वेपणा करे ।
रानी की बात सुनकर राजा की भावना मे परिवर्तन होता है । राजा और रानी दोनो ही भोगो से विरक्त हो जाते है । मयम को स्वीकार कर जीवन को पवित्र बनाते है।
इस प्रकार राजा, रानी, पुरोहित, पुरोहितानी व दोनो कुमारो ने नयम ने मिद्धि प्राप्त की।
-उत्तराध्ययन १४