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________________ २७१ सयम का चमत्कार करते है, इनका मास वडा ही स्वादिष्ट होगा। दोनो एक-दूसरे के विचार से सहमत हो गये। एक शृगाल ने दूसरे से कहा-"सावधान हो जाओ, परस्पर वार्तालाप न करो, क्योकि कछुए वडे चतुर होते है।" दूसरे ने कहा-"तुम्हारा कथन सत्य है पर ये मक्कारी मे हमसे आगे नही वढ सकेगे।" कछुए, शृगालो की आहट पाकर रुक गये, किन्तु सरोवर इतना दूर था कि वे भागकर भी उसकी शरण मे नही पहुँच सकते थे। अत एक कछुए ने दूसरे से कहा--"भाई । सावधान हो जाओ। ये शृगाल बडे पापी है। ये हमारे प्राणो को नष्ट करने वाले है अत अपने हाथ, पैर, गर्दन व शरीर के सभी अगोपागो को इस प्रकार भीतर करलो कि इन्हे यह ज्ञात हो कि यह तो मृत है।" कछुए ने अपनी वात पूर्ण की ही थी कि दोनो शृगाल वहाँ पर आ गये । उन्होने दांतो से उन पर प्रहार किया। तीक्ष्ण पजो से उनको नोचा, इधर से उधर उलट-पुलट कर देखा, पर ढाल के सदृश ऊपर की मजबूत हड्डी पर उसका कोई असर नही हुआ । परेशान होकर एक ने दूसरे शृगाल से आँख के सकेत से कहा-अब यहाँ से धीरे से चल दो। __ पास की झाडी मे जाकर वे दोनो छिपकर बैठ गये। और पहले ने दूसरे से कहा-“जहाँ पर शक्ति काम न करती हो, वहाँ पर बुद्धि से काम लेना चाहिए। कुछ समय तक चुपचाप यहाँ पर बैठे रहो। कुछ क्षणो मे ये कछुए सरोवर की ओर जव जायेगे तव हम इन्हे दबोचकर खा लेगे।" उन दो कछुओ मे से एक कछुआ उतावले स्वभाव का था। उसके मन मे धैर्य और सयम का अभाव था। साथी ने उसे पहले ही समझा दिया था कि शृगाल पास की झाडी मे छिपे रहेगे अत हाथ, पैर, मुंह आदि दीर्घकाल तक वाहर मत निकालना । पर अपने साथी के कथन की उपेक्षा कर ज्यो ही उसने अपना एक पैर वाहर निकाला त्यो ही एक शृगाल ने लपक कर उसे अपने तीक्ष्ण दांतो से खा लिया। एक पैर खो देने के बाद भी उसे अक्ल नहीं आई । कुछ समय के पश्चात् दूसरा पैर निकाला, वह भी शृगाल ने खा लिया। इस प्रकार उसके हाथ और गर्दन सभी को शृगाल खा गये ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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