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________________ अव्यक्त आनन्दानुभूति एक नवीन आनन्दानुभूति के कारण उसके पैर पृथ्वी पर नही पड रहे थे । हवा मे उडता हुआ सा वह जंगलो मे जा पहुँचा । अपने स्वजन-साथियो से उसने सारी घटना का और जो-जो कुछ भी उसने देखा था उसका वर्णन किया । उत्सुक भीलो को भीड लग गई। उसने क्या देखा, क्या खाया, फैसे रहा इत्यादि प्रश्नो का उत्तर देते-देते वह आखिर थक गया। अनेको वस्तुओ के नाम तो उसे याद थे नही, प्रश्नो के उत्तर मे वह इतना ही कहता रहा'बहुत अच्छा, बहुत बढिया ।' वन मे पाई जाने वाली अनेक वस्तुओ के नाम ले-लेकर भील उससे पूछते-'क्या ऐसा ही था ?' किन्तु वह उत्तर देता–'नहीं, इससे हजार गुना अधिक अच्छा था, लाख गुना अधिक स्वादिष्ट था वह ' और ऐसा कहते-कहते वह खुशी से नाच उठता था। कह देता था--"क्या था, कैसा था-कुछ न पूछो । अजीव था, बहुत बढिया ।" प्रकृति के सरल पुत्र उस भील युवक मे नागरिक सौदर्य, आनन्द तथा राजमहल के सुख और वैभव को व्यक्त करने की क्षमता नही थी। वह तो मन ही मन उन अनुभूतियो का आनन्द लेकर मग्न हो रहा था। उन अनुभूतियो को शब्दो मे बाँध सकने मे वह समर्थ नही था। इसी प्रकार जव मनुष्य को आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है तो कोई भी शब्द उसे व्यक्त नही कर पाते । वह आनन्द मनुष्य के अन्तरतम को सुख से गुदगुदाता रहता है। उस नैसर्गिक, गहन सुखानुभूति मे साधक स्वय को भूला रहता है । परमानन्द मे डूबा हुआ वह भौतिक आनन्द की कल्पना भी नहीं करता, कामना तो दूर की बात रह जाती है। -औपपातिक सूत्र
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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