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________________ पुत्र-वधू १८७ पाँच वर्प वाद धन्ना श्रेष्ठि ने फिर से अपने सम्बन्धियो तथा प्रमुख पुरजनो को बुलाया और उनके सामने ही एक-एक पुत्रवधू से शालि के दाने वापिस माँगे । बडो पूत्रवधु कोठार मे गई ओर पाँच शालि लाकर उसने दे दिए । धन्ना श्रेष्ठि ने पूछा "बहू । क्या ये वही शालि हे जो मैने तुम्हे दिए थे ?" बहू ने सच-सच कहा “नही, पिताजी । भला में उन्हे कहाँ तक सम्हालकर रखती ? ये शालि तो मैं कोठार मे से लाई हूँ।" उत्तर सुनकर श्रेष्ठि ने सोचा कि यह पुत्रवधू उसकी विशाल सम्पत्ति की रक्षा नहीं कर सकेगी। अत उन्होने उसे भविष्य मे घर की सफाई, लीपना-पोतना, गर्म जल करना आदि कार्य सौप दिए । दूसरी पूत्रवधू ने भी कोठार से शालि लाकर दे दिए और बताया"मैने उन्हे फेका नही था, खा लिया था।" श्रेष्ठि ने सोचा कि यह पुत्रवव पहिली से अधिक विचारवान अवश्य है, किन्तु फिर भी धन-सम्पत्ति की रक्षा करना उसके भी वश का नही है । इसे खाना-पीना ही अधिक प्रिय प्रतीत होता है । अत उस पुत्रवधू को पीसने-कूटने, भोजन बनाने और परोसने का कार्य सौप दिया गया । तीसरी पुत्रवधू ने मजूपा मे से शालि निकालकर जब दिए तो श्रेष्ठि ने सोचा-मेरी सम्पत्ति को रक्षा यह कर सकती है। अतः इसे रत्नआभूपण, स्वर्ण, धन-धान्य आदि सुरक्षित रखने का कार्य सौपना चाहिए। ऐसा ही किया गया। अव वारी आई चौथी और सबसे छोटो पुत्रवधू रोहिणी की। उससे जब शालि माँगे गए तब उसने कहा "पिताजी । वे शालि लाने के लिए कृपया मुझे कुछ गाडियो और छकडो की व्यवस्था करा दीजिए । मै अकेली अथवा कुछ व्यक्ति तो वे शालि ला नहीं सकेगे।" रोहिणी के इस विचित्र उत्तर को सुनकर उपस्थित सभी व्यक्ति चोके-भला शालि के पाँच दानो को लाने के लिए गाडियो और छकडो की आवश्यकता? आखिर श्रेष्ठि ने पूछा
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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