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फिर क्या हुआ
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" हे गौतम | वह ऋद्धि शरीर मे समा गई । क्या तुम्हे कूटागार का दृष्टान्त ज्ञात नही है ? देखो एक कूट (शिखर) के आकार की शाला थी । वह बाहर से गुप्त थी किन्तु भीतर से अत्यन्त विशाल थी । उसके चारो ओर कोट था । वह इतनी सुरक्षित थी कि उसमे वायु का प्रवेश भी नही हो सकता था । उसके समीप ही वडा जन-समूह रहता था। एक बार बहुत जोर से वादल उमडे ओर तूफान आया । ऐसी विषम परिस्थिति में वह सारा जन-समूह उस शाला मे घुस गया और निर्भय हो गया ।
इस प्रकार जैसे वे सब लोग उस शाला मे समा गए उसी प्रकार वह देवऋद्धि भी देव शरीर मे समा गई ।"
गोतम स्वामी इस उत्तर से सन्तुष्ट हो गए। किन्तु उनके मन मे एक और जिज्ञासा जागी । उन्होने भगवान से पूछा
"हे भगवन् 1 दर्दुर देव ने वह देवद्धि किस प्रकार को साधना द्वारा प्राप्त की ?"
केवलज्ञानी भगवान ने गौतम स्वामी की उस जिज्ञासा को भी शान्त करने के उद्देश्य से वह सारी कथा उन्हे सुनाई
" हे गौतम । इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे राजगृह नामक एक समृद्ध नगर था । उस नगर का राजा उस समय श्रेणिक था । उस नगर मे नन्द नामक एक मणिकार सेठ रहता था ।
एक वार अनुक्रम से विचरण करते हुए मैं उस नगर मे आया । वहाँ जाकर मैं गुणशील चैत्य मे ठहरा |
अन्य लोगो के साथ वह मणिकार नन्द भी मेरे दर्शन करने आया । धर्मोपदेश सुनकर वह श्रमणोपासक हो गया । कुछ समय पश्चात् मै राजगृह त्याग कर जनपद में विचरण करने लगा ।
मनुष्य का स्वभाव ऐसा है गौतम । कि यदि वह किसी कार्य को निरन्तर न करता रहे, अथवा किसी जानी हुई वात का स्मरण निरन्तर न करता रहे तो कुछ समय पश्चात् वह उसे भूल जाता है । नन्द मणिकार के साथ भी ऐसा ही हुआ । मेरे चले जाने के वाद बहुत समय तक उसे साधु