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अव्यक्त आन
एक राजा को घूमने-फिरने का बडा शौक था। जव जी मे आता अपना अश्व सजाकर निकला पडता । एक दिन अपने साथ कुछ सैनिक लेकर, अश्व पर सवार होकर वह वन-विहार के लिए निकला। उसका अश्व पवनगामी था। हवा से बाते करता था। अन्य कोई अश्व उसकी चाल की वरावरो कर ही नही सकता था। अत देखते-देखते ही राजा बहुत आगे निकल गया और सैनिक वहुत पीछे छूट गए ।
प्रचण्ड ग्रीष्म की ऋतु थी। कडी धूप पड रही थी, हवा कानो व शरीर को जला डालना चाहती थी। पशु-पक्षी भी ठण्डी और छायादार जगत मे शरण लिए पडे थे । और तो ओर, ऐसा प्रतीत होता था मानो छाया भी छाया खोजती फिर रही हो ।
ऐसे कठिन काल मे वह राजा अकेला पड़ गया और मार्ग भूल गया । घण्टो तक वह इधर-उधर भटकता हुआ मार्ग खोजता रहा, किन्तु मार्ग मिला ही नहीं । राजा थक कर चूर-चूर हो गया। प्यास के मारे उसके प्राणो पर वन आई । ग्रीष्म की उस भयावह ऋतु मे कही एक बूंद पानी भी उसे मिला नही। उसके प्राण छटपटाने लगे। अन्त मे थक हार कर, स्वय को भगवान के भरोसे छोडकर उसने एक छायादार वृक्ष के नीचे ठहर कर विश्राम करना चाहा । किन्तु वह इतना अशक्त हो चुका था कि अश्व पर से उतर भी न सका । गिर पड़ा और मूच्छित हो गया।