SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . धर्म की शरण मे १४७ अमात्य जो स्वय मोहित हो चुका था, और भी विचार मे डूवा और आगे बढ गया। सध्या होते-होते तो अमात्य ने अपने अनुचर कलाद के पास भेज दिए और उसकी बेटी की मगनी करली। स्वर्णकार ने अपनी स्वीकृति सहर्प प्रदान करते हुए कहा “मेरा परम सौभाग्य | मुझ गरीव की बेटी की मांग करके अमात्य ने मुझ पर वडी कृपा की है।" शीघ्र ही अमात्य ओर पोट्टिला का विवाह हो गया। दाम्पत्य-जीवन आनन्द से चलने लगा। राजा कनकरथ अजीव आदमी था। उसे अपने राज्य, धन और अधिकार का ऐसा लोभ था कि वह अपने पुत्रो को वडा होने से पूर्व ही विकलाग कर देता था कि कही कोई पुत्र वडा और योग्य होकर उसका राज्य उससे न छीन ले। प्राय ससार मे ऐसा होता है कि पिता अपने पुत्र को अपने से भी अधिक योग्य एवं गुणवान बना हुआ देखना चाहते है । इसी मे उन्हे अपने पितृत्व की सार्थकता दिखाई देती है। किन्तु राजा कनकरथ की बुद्धि उल्टी दिशा मे दौडती थी। राजा को इस वृत्ति से रानी बडी दुखी थी ।एक बार जब जब गर्भवती थी तो उसने सोचा कि किसी प्रकार इस वार उत्पन्न होने वाली सन्तान को बचाना चाहिए । सोचते-सोचते उसने अमात्य से ही कोई उपाय खोजने के लिए कहा-"भाई, कुछ करो। राजा तो मेरे बच्चो को जीवित ही नही रहने देता । उनका अग-भग कर देता है। ऐसा जीवन भी कोई जीवन है ? कोई न कोई उपाय करो जिससे इस वार मेरी सन्तान बच जाय ।" अमात्य विचार मे पड गया। उसे कोई उपाय सूझ नही रहा था। वोला _ “महारानी | इस समय मुझे कोई मार्ग दिखाई नही दे रहा । किन्तु मैं कुछ न कुछ तो अवश्य ही करूँगा। मुझे आपके साथ पूरी सहानुभूति है।" ___“ऐसा करो अमात्य, कि इस वार पुत्र उत्पन्न होते ही तुम उसे मेरे पास से किसी न किसी प्रकार से ले जाओ, राजा की दृष्टि वचाकर, और चुपचाप, गुप्त रूप से उसका पालन करो। ईश्वर ने चाहा तो वह सकुशल
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy