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शुभ सकल्प
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मेघमुनि इसी प्रकार कठिन से कठिनतर तप करते रहे। धीरे-धीरे काल-क्रमानुसार उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया।
तव, अन्त मे मेघमुनि ने समाधिमरण का निश्चय कर प्रभु से आज्ञा चाही। भगवान ने उचित जानकर आज्ञा दी । मेघमुनि ने समस्त मुनियो से जाने-अनजाने हुई भूलो के लिए क्षमायाचना की। यद्यपि मुनि तो समभाव मे चलते है, किसी के प्रति राग-द्वप नही रखते, किन्तु फिर भी कदाचित् कोई दोप प्रवृत्ति मे आ ही गया हो तो उसके लिए मन-वचन-काया से क्षमायाचना करना उचित है।
विपुलाचल पर्वत । शिला पर घास का नाममात्र का विछौना। मेघमुनि सिद्धो एव तीर्थकरो की स्तुति कर, अपने लिए हुए नियमो, व्रतो, प्रतिज्ञाओ की निर्दोपिता पर विचार कर, जीवनपर्यन्त आहार-जल का परित्याग कर शय्या पर एक करवट लेटे है।
एक मास तक इसी प्रकार समाधि मे मग्न रहने के पश्चात् अतीव निर्मल परिणामो के साथ मेघमुनि ने अपने आयुष्य को समाप्त किया। एक वीरपुरुप का शुभ सकल्प इस प्रकार चरमता को प्राप्त हुआ।
- ज्ञाता धर्म कथा १