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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ
के पास भी धीरे-धीरे अपार सम्पत्ति एकत्र हो गई थी । उसकी एक ही मुसकान एव लास्य-भंगिमा पर लोग बहुमूल्य रत्नो की वर्षा कर देते थे । दोनो मित्रो को देवदत्ता की याद आई और अपने सेवको को नगरी से बाहर नन्दा नाम की पुष्करिणी में वन-विहार की पूरी तैयारी कर देने के आदेश प्रदान कर वे शीघ्र ही देवदत्ता के महालय मे जा पहुँचे ।
देवदत्ता को जब उन्होने अपनी योजना बताई तो वह प्रसन्न हुई ओर शीघ्र ही प्रस्तुत होकर बोली
" चलिए, मैं प्रस्तुत हूँ । आप महानुभावो के साथ आज के इस आनन्दमय वातावरण मे वन-विहार करने से मुझे बडी प्रसन्नता होगी । ”
रथो पर सवार होकर वे चल पडे । पुष्करिणी के किनारे बहुत समय तक वे आनन्द मे मग्न रहे । घूमते-फिरते एक स्थान पर जब वे पहुँचे तो एक मयूरी उनके पदचाप सुनकर भयभीत होकर एक स्थान से उड़कर वृक्ष की शाखा पर जा बैठी । कुतूहलवश वे लोग उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से मयूरी उडी थी । वहाँ उन्होने मयूरी के दो सुन्दर अडे देखे ।
मित्रो के मन मे विचार आया कि इन अडो को ले जाकर पाला जाय और जब उनमे से मयूर के बच्चे प्रगट हो तो उन्हे पाल-पोसकर बडा किया जाय । यह सोचकर उन्होंने वे अडे सावधानीपूर्वक उठा लिए ओर कुछ समय बाद देवदत्ता को विदाकर अपने घर लौट आए ।
दोनो मित्रो ने एक-एक अडा ले लिया था । किन्तु सागरदत्त कुछ उतावले स्वभाव का था । वह प्रतिदिन अडे के पास जाता, उसे हाथ मे लेकर देखता, कानो के पास ले जाकर उसमे से कोई आवाज आ रही है या नही, यह सुनने का प्रयत्न करता । संशय से भरा हृदय लिए वह सोचा करता-इस अडे मे से मयूर निकलेगा कि नही ? कब तक निकलेगा ? अव तक मयूर क्यो नही निकला ?
इस प्रकार अपने सशय, उतावलेपन और अधैर्य के कारण वार-बार अडे को उठाने-धरने से उसने उसे नष्ट कर दिया । अडा निर्जीव हो गया । उसमे से मयूर तो क्या, मयूर की टॉग भी नही निकली ।
उधर जिनदत्त विवेकवान था । धैर्यवान था । उसे कोई संशय भी नही था कि अडे मे से मयूर निकलेगा कि नही । उसने सावधानी से उस अंडे को मुर्गियों के अंडो के वीच रख दिया था और उसे छूता तक नही था ।