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वे बलिदानी
राजकुमार स्कन्दक बचपन से ही एक चपल और मेधावो वालक था । वडा होकर वह अवश्य कुछ ऐसे महान् कर्म करेगा कि जिन पर मानवता को गर्व हो सके, ऐसा विश्वास उस बालक को देखने पर सहज ही होता था।
वह श्रावस्ती के राजा जितशत्नु का पुत्र था । राजा जितशत्रु का तेज उसमे भी अवतीर्ण हुआ था। उसकी एक वहिन पुरन्दरयशा कुम्भकारकटक के राजा दण्डकी को व्याहो गई थी। भाई-वहिन दोनो ही धर्म-प्रेमी और विचारवान थे।
स्कन्दक जब युवक हो गया तव धर्म शास्त्रो का उसका ज्ञान इतना हो चुका था कि वह किसी भी पण्डित से धर्म-चर्चा कर सकता था।
__ एक वार राजा दण्डक का पुरोहित पालक श्रावस्ती आया। अपने राजा के समान ही वह भी धर्म-द्वेपी और अहकारी था। राजा और पुरोहित दोनो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे, अथवा दुष्टता के एक ही सांचे मे ढले हुए थे। कोई किसी से कम न था। उनमे से दुष्टता और क्रूरता के मन्दर्भ मे कौन सेर है और कौन सवा सेर यह कहना भी कठिन था।
पालक जव राजा जितशत्रु की राज्य सभा मे आया तो स्कन्दक के माथ उनकी धर्म-चर्चा छिड गई। अपने स्वभावानुसार पालक ने धर्म की निन्दा की । स्कन्दक ने धर्म की उत्तमता का प्रतिपादन किया और पालक के कुतकों का मुंहतोड उत्तर दिया। पालक पराजित हुआ । उसने अपने आपको अपमानित अनुभव किया अत चिढ़ गया।
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