SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं किन्तु मेघकुमार का हृदय तो मानो डूब ही गया था। उनके अन्तस्तल मे तो प्रभु के वचन अब भी गूंज रहे थे ओर गूंजते ही चले जा रहे थे। उन्हे प्रतीत हो रहा था मानो दिशाएं कह रही हो-मसार क्षणभगुर है। जीवन के सुख अशाश्वत है। धीरे-धीरे वे उठे और प्रभु के चरणो मे प्रणिपात कर बोले "भगवन् । मुझे तो नया जीवन मिल गया है । मसार की असारता को आज मैने जान लिया है। प्रभु । आग मुझे अपनी शरण मे लीजिए। मुझे बन्धन से मुक्ति की ओर ले चलिए।" भगवान ने शातभाव से उत्तर दिया"देवानुप्रिय । जैसे सुख उपजे वैसा ही करो।" मेघकुमार भगवान के अनुमति-सूचक शब्दो को सुनकर हर्पित होकर अपने माता-पिता के पास पहुंचे । कहा - "पूज्यपाद | आज भगवान का उपदेश मुनकर मेरी आँखे खुल गई है । ससार असार है । नश्वर है । सच्चा और शाश्वत सुख आत्मा की पूर्ण मुक्ति मे ही है। अत मै उस शाश्वत मुख की प्राप्ति हेतु प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।" वेटे की बात सुनकर माता तो मूच्छित ही हो गई। ऐसा कोमल, भोगो को छोडकर क्या वह भिक्षा मॉग-मॉगकर खाएगा? हे भगवान, क्या मेरा बेटा मुझे तडपता छोडकर चला जायगा ? उपचार हुआ। रानी धारिणी होश में आई और विलाप करने लगी। जैसे-तैसे उसे शान्त कर राजा ने कहा "वेटा | अभी तेरी आयु ही क्या है ? अभी तूने ससार का सुख भोगा ही कहाँ है ? समय आने दे, समय पर देखा जायगा।" किन्तु मेधकुमार का सकल्प अडिग था। उसने कहा "पिताजी । भगवान के सत्य वचन सुन लेने के पश्चात् अब मेरा इस माया मे लिप्त रहना सभव नहीं । आप ही सोचिए-कौन किसका पुत्र है और कौन किसका पिता या माता? ये सम्बन्ध तो इस क्षणभगुर ससार के है।"
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy