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अडिग-व्रती
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एक बार अम्वड के सात सौ शिष्य गंगा के किनारे-किनारे कंपिलपुर से पुरिमताल जा रहे थे । वह भयंकर ग्रीष्मकाल था । ग्रीष्म का ताप चतुर्दिक वनस्पतियो को झुलसा रहा था । प्राणी त्राहि-त्राहि पुकार रहे थे ।
सात सौ तपस्वियो को बहुत जोर से प्यास लग आई थी। उनके कंठ जले जा रहे थे । समीप ही गंगा की शीतल धारा प्रवाहित थी । किन्तु विना किसी गृहस्थ की आज्ञा के वे जल कैसे ग्रहण करते ?
किसी गृहस्थ के आने की वे प्रतीक्षा करते रहे और धैर्यपूर्वक भयानक तृषा को सहते रहे । किन्तु कोई नही आया । वे तपस्वी शीतल जल तो ग्रहण करते थे, किन्तु विना आज्ञा के नही ले सकते थे । अपने अस्तेय व्रत का वे इतनी कठोरता से पालन करते थे ।
प्यास बढती जा रही थी । सूर्य प्रचण्डता से तप रहा था, और पास ही शीतल गंगा वह रही थी ।
किन्तु कोई आया ही नही । न आए, तपस्वी शान्त थे । भूमि का शोधन कर वे अनशन करके लेट गए । अरिहन्त भगवान महावीर तथा गुरु अम्वड को उन्होने वही से भाव -वन्दन किया । अपने व्रतो की आलोचना की । इस प्रकार जीवन का शोधन कर, काल करके वे ब्रह्म लोक में गए । व्रत का भग उन्होंने नही किया, प्राण ही त्याग दिए ।
इसी प्रकार कालान्तर मे अम्वड भी काल करके पाँचवे ब्रह्मलोक मे गया ।
धर्मवीर, तपस्वी व्यक्ति कैसी भी परिस्थिति हो, अपने व्रत से विचलित नहीं होते । विकट से विकट स्थिति को भी वे शान्त, प्रशान्त और उपशान्त रहकर स्वीकार करते हैं ।
अम्बड का भविष्य उज्ज्वल है । सव साधन सुविधाएँ होते हुए भी वह काम-भोगो मे लिप्त नहीं होगा । जल मे वह कमलवत् रहेगा । अन्त मे नसार का परित्याग कर दीक्षित होगा । कठोर साधना, उग्र तप और सयम ने अपनी आत्मा को भावित कर, एक मास की संलेखना कर वह सिद्ध, बुड और मुक्त होगा ।
- उदवाई सूत्र