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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं
भूल हो गई। क्यो की मैंने ऐसी भूल ? मुझे अपने कार्य मे अप्रमत्त नही होना चाहिए ।"
यही विचार शुद्धि करते-करते तथा एकाग्रता से मृगावती के शुभ अध्यवसायो की परिणति वढती रही । वढते-बढते सर्वोच्च बिन्दु पर पहुँचते ही मृगावती को दुर्लभ, विशुद्ध केवलज्ञान प्राप्त हो गया । मृगावती का मन-मस्तिष्क - हृदय पूर्ण ज्ञान के प्रकाश का स्रोत बन गया । विश्व का कोई पदार्थ, कोई काल अव इससे अजाना न रहा ।
रात्रि थी। बाहर सृष्टि मे घनघोर अन्धकार व्याप्त था। हाथ को हाथ न सूझे ऐसा निविड अन्धकार । उस समय उस अन्धेरे मे एक सर्प उवर आ गया । केवलज्ञान के प्रकाश से सृष्टि की सभी वस्तुओं को हस्तामलकवत् देखने वाली मृगावती ने उसे देखा और धीरे से आर्या चन्दना का हाथ उठा कर सर्प को निकल जाने दिया ।
चन्दना की नीद खुल गई । आश्चर्य हुआ उसे-मृगावती क्यो जाग रही है ? क्यो उसने उसका हाथ उठाया ? पूछा
" तुमने मेरा हाथ ऊपर क्यो उठाया ?” मृगावती ने कहा
" सर्प था । उसे धीरे से निकल जाने दिया ।"
चन्दना को और भी आश्चर्य हुआ । उसने पूछा - " किन्तु तुम्हे इस घोर अन्धकार में सर्प दिखाई कैसे दिया ? उसका बोध तुम्हे हुआ कैसे ?” मृगावती ने नम्र, शान्त स्वर मे उत्तर दिया
"अब मेरे लिए अन्धकार कही शेष नही रहा । सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है । केवल प्रकाश - शुद्ध, अखण्ड, अनन्त ।”
आर्या चन्दना एकटक मृगावती को देखती रही । सत्य को उन्होंने जान लिया ।
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