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________________ अमृत या विष ? २२५ और स्वाद की प्रशसा करने लगा । यह देखकर मन्त्री ने निवेदन किया-~ "महाराज । एक प्रवीण वैद्य की सलाह की अवहेलना कर आप अपने ही हाथो अपना अहित कर डालेगे। इसी फल से आप दारुण विपत्ति मे पड़े थे, यही आपके विशुचिका नामक असाध्य रोग का कारण था । वैद्यराज ने एक वार तो उस रोग से मुक्ति दिला दी किन्तु पुन रोगी होने पर स्वस्थ कर सकने मे अपनी असमर्थता भी प्रकट कर गये है । अत आप इसे दूर फेक दीजिए। ऐसा न हो कि इसी एक आम के लालच से आपका वहमूल्य जीवन खतरे मे पड जाए।" ___ राजा ने कहा- “मन्त्री । तुम निरे बुद्ध हो । एक आम की गणना इस इतने वडे शरीर मे भला कहाँ हो सकती है ? यदि एक आम खाने से ही रोग आक्रमण कर दे तो ससार के सभी व्यक्ति इससे सावधान हो जाएं। इसे विप-वृक्ष की सज्ञा दे दे । यह तो वैद्य का एक डराने वाला हौआ मात्र है।" ऐसा कहते हुए जिह्वा के स्वाद के वशीभूत वह राजा उस आम के स्वाद की प्रशसा करता हुआ उसे आखिर खा ही गया। विश्राम के पश्चात् राजा और मन्त्री पुन घोड़े पर सवार होकर राजधानी की ओर लौट पड़े । मार्ग मे ही राजा उदर-पीडा से व्याकुल हो उठा । प्रासाद तक पहुँचते-पहुँचते वह भयकर दाह से कराहने लगा । तत्काल उन पहले वाले वेद्यराज जी को बुलवाया गया। आम खाने की भयकर भूल से राजा को छटपटाता हुआ देखकर वैद्यराज जी ने अपनी असमर्थता प्रकट की और कहा "राजन् । आपने अपने ही हाथो अपने पैरो पर कुल्हाडी मार ली है । सर्वनाश हो गया। अब इस रोग को दूर करने की कोई औपधि या उपाय नहीं है।" कप्टो से कातर राजा वैद्य एव मन्त्री की अवहेलना करने की अपनी मूर्खता पर पछताता हुआ अमह्य वेदना से प्रताडित हो मृत्यु का ग्रास बन गया। क्षणिक स्वाद के प्रलोभन ने राजा का अमूल्य जीवन असमय मे हरण कर लिया। अहितकारी पदार्थों की आसक्ति कितनी दुस्सह और दारुण होती है । दुरुपयोग किये जाने पर अमृत भी विप वन जाता है। -उत्तरा०
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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