Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित
कसाय पा हु डं
( जयधवल, महा धवल )
श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
विदवतरल स्व० श्री ए फूलचन्द्र
भाग बाग्वाँ
सम्पादकौ
विद्वतग्ल स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र
प्रकाशक
भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी मथुरा (उत्तर प्रदेश )
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित
श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम्
क
सा य पा ह डं
(जयधवल, महाधवल)
तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका [सप्तमोऽधिकारः उपयोगानुयोगद्वारम्, अष्टमोऽधिकारः चतु:स्थानानुयोगद्वारम् नवमोऽधिकारः व्यञ्जनानुयोगद्वारम्, दशमोऽधिकारः दर्शनमोहोपशामनानुयोगद्वारम् ]
भाग-12 (द्वादशो दलः)
सम्पादकौ
विद्वतरत्न
- विद्वतरत्न स्व० श्री पं0 फूलचन्द्र
स्व० श्री पं0 कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्य
सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ 'सम्पादक जय महाबन्ध
प्रधानाचार्य स्यावाद महाविद्यालय सहसम्पादक, जयधवल
काशी प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी-मथुरा ( उत्तर प्रदेश)
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
[2]
प्रकाशक
भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा
कार्यालय दूरभाष : 0565 - 420711
प्रथम संस्करण 1971 (वीर निर्वाण 2497) द्वितीय संस्करण 2000 (वीर निर्वाण 2526)
-
मूलसंशोषित मूल्य 250/- रूपये
-
-
मुद्रकः नरूला ऑफसेट प्रिन्टर्स शाहदरा, दिल्ली
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
[3]
प्रथम संस्करण के प्रकाशन पर सम्पादक द्वारा अग्रलेख
कसायपाहुड के छठे भाग प्रदेशविभक्ति को पाठकों के हाथों में देते हुए हमें हर्ष होता है।। इस भाग में प्रदेशविभक्ति का स्वामित्व अनुयोगद्वारपर्यन्त भाग है। शेष भाग, स्थितिक तथा झीणाझीण अधिकार सातवें भाग में मुद्रित होगा। इस तरह प्रदेशविभक्ति अधिकार दो भागों में समाप्त होगा। सातवां भाग भी छप रहा है और उसके भी शीघ्र ही छपकर तैयार हो जाने की पूर्ण आशा है।
इस प्रगति का श्रेय मूलतः दो महानुभावों को है। कसायपाहुड के सम्पादन प्रकाशन आदि का पूरा व्ययभार डोंगरगढ़ के दानवीर सेठ भागचन्द्र जी ने उठाया हुआ है। पिछली बार संघ के कुण्डलपुर अधिवेशन के अवसर पर आपने इस सत्कार्य के लिये ग्यारह हजार रुपये प्रदान किये थे और इस वर्ष बामोरा अधिवेशन के अवसर पर पाँच हजार रुपये पुनः प्रदान किये हैं। आपकी दानशीला धर्मपत्नि श्रीमती नर्वदा बाई जी भी सेठ साहब की तरह ही उदार हैं और इस तरह इस दम्पती की उदारता के कारण इस महान् ग्रन्थराज के प्रकाशन का कार्य निर्वाध गति से चल रहा है।
सम्पादन और मुद्रण का एक तरह से पूरा दायित्व पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने वहन किया है। इस तरह उक्त दोनों महानुभावों के कारण कसायपाहुड का प्रकाशन कार्य प्रशस्त रूप में चालू है। इसके लिये मैं सेठ साहब, उनकी धर्मपत्नि तथा पण्डित जी का हृदय से आभारी हूँ।
काशी में गङ्गा तट पर स्थित स्व. बाबू छेदीलाल जी के जिन मन्दिर के नीचे के भाग में जयधवला कार्यालय अपने जन्म काल से ही स्थित है और यह सब स्व० बाबू छेदीलाल जी के पुत्र स्व० बाबू गणेशदास जी तथा पौत्र बा० सालिगराम जी और बा० स्व० ऋषभदास जी के सौजन्य तथा धर्मप्रेम का परिचायक है। अत: मैं उनका भी आभारी हूँ।
ऐसे महान् ग्रन्थराज का प्रकाशन पुनः होना संभव नहीं है। अत: जिनवाणी के भक्तों का यह कर्त्तव्य है कि इसकी एक-एक प्रति खरीद कर जिन मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों में विराजमान करें । जिनबिम्ब और जिनवाणी दोनों के विराजमान करने में समान पुण्य होता है। अत: जिन बिम्ब की तरह जिनवाणी को भी विराजमान करना चाहिये।
जयधवला कार्यालय
भदैनी, काशी वीर निर्वाण सं.- 2493
कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा. दि. जैन संघ
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[4]
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ
संक्षिप्त इतिहास सन् 1933 में महामनीषी विद्वान स्व० पं० राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ के अदम्य उत्साह और विलक्षण सूझबूझ ने एक नयी संस्था को जन्म दिया। नाम था शास्त्रार्थ संघ । इस संघ में स्व० लाला सिब्बामल जैन का सहयोग था। 1933 में अम्बाला में स्थापित इस संस्था के द्वारा देश के अनेक नगरों में धर्म-संरक्षण की भावना से जैन धर्म के आलोचकों से सार्वजनिक शास्त्रार्थ किये गये। उसका परिणाम यह. हआ कि आलोचकों ने जैन धर्म की आलोचना बन्द कर दी।
शास्त्रार्थ संघ को सबसे बड़ी विजय तब मिली, जब आलोचकों के प्रमुख सन्यासी स्वामी कर्मानन्द जी ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया और जैन धर्म की प्रमाणिकता में "ईश्वर मीमांसा' नाम की एक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन संघ ने किया है।
सन् 1940 के लगभग, संघ का स्थान अम्बाला की जगह मथुरा में हो गया। चौरासी स्थित भगवान् जम्ब स्वामी की निर्वाण स्थली के समीप पं० राजेन्द्र कमार जी और उनके सहयोगियों के द्वारा भव्य-भवन का निर्माण किया गया और संघ का नाम "शास्त्रार्थ-संघ" के स्थान पर "भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ" रखा गया। अब संघ का कार्य धर्म प्रचार था। ___उस समय संघ भवन में हर समय 10-12 विद्वान रहा करते थे और पूरे देश में होने वाले सामाजिक, धार्मिक उत्सवों में उन विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। उन्हीं दिनों संघ में एक प्रकाशन विभाग की स्थापना हुई, जिसके द्वारा अनेक समाजोपयोगी एवं धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जिनमें कैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखी गयी "जैन धर्म" नाम का ग्रन्थ अब सातवें संस्करण के रूप में छप गया है। इन्हीं के द्वारा "तत्वार्थ सूत्र" की गौरवपूर्ण हिन्दी टीका लिखी है, जिसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है।
सन् 1950 के आस-पास संघ ने स्व. पंडित हीरालाल जी शास्त्री, अमरावती (महाराष्ट्र) ए. एन. उपाध्ये की प्रेरणा से "कसायपाहुडं" (जयधवल, महाधवल) ग्रंथराज के प्रकाशन की योजना बनायी। आर्थिक अभावों के होते हुए भी स्वर्गीय पं० फूलचन्द्र जी और पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के श्रम और सूझ-बूझ से मूल ग्रन्थ का हिन्दी में सरलीकरण किया गया। जिसे संघ ने 16 भागों में प्रकाशित कराया है।
उपरोक्त महाग्रन्थ के दो संस्करण हम कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित करा चुके हैं, और अब 10 भागों का पुर्नसंस्करण प्रकाशित करा रहे हैं। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री स्वरूप चन्द जी मारसंस, आगरा का इन प्रकाशनों में हमें भरपूर सहयोग मिला है। हमारे अन्य दातारों का भी हमें आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। आज संघ संस्थापक पं० राजेन्द्र कुमार जी तथा उनके सहयोगी पं० फूलचन्द्र जी, पं० कैलाशचन्द्र जी, पं० जगमोहन लाल जी नहीं है और अब संस्थाओं के संचालन में वो उत्साह भी नहीं रहा, फिर भी हमारी भावना है कि संघ-भवन और उसके प्रकाशन विभाग को किसी न किसी प्रकार संचालित रखा जाये। संघ का मुख पत्र "जैन सन्देश' पिछले 6 दशक से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। हमारी भावना है कि समाज के उत्साहीजनों का निरन्तर सहयोग मिलता रहे और संघ भवन से यह आलोक निरन्तर प्रकाशमान होता रहे।
प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी' भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ
चौरासी, मथुरा
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
[5]
-: आभार :
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा को प्रमुख आर्ष ग्रन्थ "कसायपाहुडं" जयधवल महाधवल को सोलह भागों में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसके प्रकाशन का शुभारंभ 6 दशक पूर्व हो गया था, जिसके अन्तिम दो भाग 15 और 16 को प्रकाशित करवाने में अर्थाभाव की कमी महसूस की गई। बाद में सोलहवां भाग का प्रकाशन ब्र० श्री हीरालाल खुशालचन्द दोशी, मांडवे (सोलापुर) के आर्थिक सहयोग से किया गया। 16 भागों का वितरण क्रमशः न होने के कारण प्रथम दो और चार भाग को मथुरा में ही पुनर्प्रकाशन कराना पड़ा। अब जयधवला के 10 भागों का प्रकाशन अनिवार्य समझ कर श्री रतनलाल जी जैन, वन्दना पब्लिशिंग हाउस, अलवर (राज.) के सहयोग और परामर्श से इनका पुनर्प्रकाशन किया जा रहा है। इनके प्रकाशन में आर्थिक योगदान के लिये हमारे निम्न दानदाताओं ने उदारतापूर्वक दान देकर इस कार्य में अपना अमूल्य सहयोग दिया है इसके लिए संघ इन सभी सधर्मी बन्धुओं का आभार प्रकट करता है।
1. श्री बलवंत राय जैन, भिलाई (म. प्र.) 2. श्री स्वरूप चन्द जैन (मारसंस), आगरा (उ. प्र.) 3. श्री रतन लाल जैन, अलवर (राज.) 4. श्री ताराचन्द जैन, अलवर (राज.)
श्री ओम प्रकाश जैन, कोसीकलाँ (उ. प्र.) 6. श्री भोलानाथ जैन, आगरा (उ. प्र.).. 7. श्री निर्मल कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.) 8. श्री प्रदीप कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.) 9. श्री ज्ञानचन्द जी खिन्दूका, जयपुर (राज.) 10. कान्ता बहन मनुभाई शाह, सोजीत्रा (गुजरात) 11. श्री मनुभाई छगन लाल शाह, सोजीत्रा (गुजरात)
प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी'
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-परिचय
७ उपयोग अर्थाधिकार जयधवलाका यह बारहवां भाग है। इसमें १ उपयोग, २ चतुःस्थान, ३ व्यञ्जन और ४ सम्यक्त्व ( दर्शन मोहोपशामना ) ये चार अर्थाधिकार संगृहीत हैं। इनमें कसायप्राभृतके १५ अर्थाधिकारों से उपयोग यह सातवाँ अर्थाधिकार है। इसमें क्रोधादि कषायोंके उपयोगस्वरूपका विस्तारसे विवेचन किया गया है । इस अर्थाधिकारमें कुल ७ सूत्रगाथाएँ आई हैं। उनमेंसे पहली सूत्रगाथा 'केवचिरं उवजोगो' इत्यादि है। इसमें तीन अर्थ संगृहीत हैं । यथा
१. क्रोधादि कषायोंमेंसे एक-एक कषायमें एक जीवका कितने काल तक उपयोग होता है ? २. क्रोधादि कषायोंमेंसे किस कषायका उपयोग काल किस कषायके उपयोग कालसे अधिक होता है?
३. नरकादि गतियोंमेंसे किस गतिका जीव किस कषायमें पुनः पुनः उपयोगसे उपयुक्त होता है? अर्थात नारकी जीव अपनी पर्यायमें क्या क्रोधोपयोगसे बहुत बार परिणमता है या मानोपयोग, मायोपयोग या लोभोपयोगसे बहुत बार परिणमता है ? इसी प्रकार शेष तीन गतियोंमें भो पृच्छा करनी चाहिए।
___ इस प्रकार इस प्रथम गाथासूत्र में उक्त तीन अर्थ पृच्छारूपसे निबद्ध हैं। उनका निर्णय चूर्णिसूत्रोंके अनुसार क्रमसे करते हुए बतलाया है
१. क्रोधादि चारों कषायोंका जघन्य और उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि कषाय परिवर्तनके बिना इससे अधिक काल तक एक कषायका अवस्थान नहीं पाया जाता।
यद्यपि जीवस्थान आदिमें क्रोधका मरणकी अपेक्षा और मान, माया तथा लोभका मरण और व्याघात इन दोनोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय बतलाया है, पर कषायप्राभूतके चूर्णिसूत्रोंमें इस प्रकार चारों कषायोंके जघन्य कालका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इतना अवश्य है कि यहाँ गतियोंमें निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय अवश्य स्वीकार किया गया है। जैसे कोई नारकी नरकमें मरणके समय क्रोध कषायसे एक समय तक उपयुक्त रहा और मरकर दूसरे समयमें क्रोधकषायके साथ तिर्यञ्च या मनुष्य हो गया। इस प्रकार नरक गतिमें क्रोधकषायका निष्क्रमणकी अपेक्षा एक समय काल उपलब्ध हुआ। इसी प्रकार प्रवेशकी अपेक्षा भी क्रोध कषायका एक समय काल घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ कोई तिर्यञ्च या मनुष्य मरणसे अन्तर्मुहूर्त पूर्व क्रोधकषायरूपसे परिणत हुआ और जब क्रोधकषायके कालमें एक समय शेष रहा तब मरकर नारकी हो गया। इस प्रकार प्रवेशकी अपेक्षा भी नरकगतिमें क्रोधकषायका एक समय काल उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार शेष कषायोंका प्रवेश और निष्क्रमणकी अपेक्षा एक-एक समय काल घटित कर लेना चाहिए।
२. दूसरे अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए चूणिसूत्रोंमें क्रोधादि चारों कषायोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालके अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि मानकषायका जघन्य काल सबसे स्तोक है । उससे क्रोध, माया और लोभकषायका जघन्य काल उत्तरोत्तर विशेष अधिक है । पुनः लोभकषायके जघन्य कालसे मानकषायका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। तथा इसके उत्कृष्ट कालसे क्रोध, माया और लोभकषायका उत्कृष्ट काल उत्तरोत्तर विशेष अधिक है। यहाँ प्रवाहमान उपदेशके अनुसार विशेषका प्रमाण अन्तमुहर्त है जो कि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आगे चारों गतियों और चौदह जीवसमासोंमें इसी अल्पबहत्वको घटित करके बतलाते हुए जयधवलाकारने चूर्णिसूत्र ( पृ० २३ ) के 'तेसिं चेव उवदेसेण' पदको ध्यानमें रखकर भगवान आर्यमक्षु और नागहस्ति इन दोनोंके एतद्विषयक उपदेशको प्रवाहमान बतलाया है।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८) ३. तीसरे अर्थको स्पष्ट करते हुए चूर्णिसूत्रोंमें ओघसे और चारों गतियोंमें चारों कषायोंके पुनः पुनः होनेका क्या क्रम है इसका विस्तारसे खुलासा किया है। पुनः इसके बाद किस गतिमें किस कषायके परिवर्तनवार थोड़े या अधिक किस क्रमसे होते हैं इसका अल्पबहुत्व प्रकरणद्वारा स्पष्टीकरण किया गया है।
दूसरी सूत्रगाथा 'एक्कम्हि भवग्गहणे' इत्यादि है। इसमें दो अर्थ संग्रहीत हैं । यथा१. एक भवके आश्रयसे एक कषायमें कितने उपयोग होते हैं ? २. एक कषायसम्बन्धी एक उपयोगमें कितने भव होते हैं ?
१. इनमेंसे प्रथम अर्थको स्पष्ट करते हुए नरकगतिकी अपेक्षा बतलाया है कि एक नरकभवमें क्रोधादि चारोंमेंसे प्रत्येक कषायके उपयोग संख्यात होते हैं अथवा असंख्यात होते हैं । इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी जानना चाहिए।
आगे गाथाके उत्तरार्धमें निबद्ध दूसरे अर्थके अनुसार भवोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये उनके निर्णयका उपाय बतलाते हुए चूर्णिसूत्र में स्पष्ट किया है कि एक वर्ष में जितने क्रोध कषायके उपयोग काल हों उनसे जघन्य असंख्यात कालको भाजित कर जो लब्ध आवे उतने वर्षके एक भवमें असंख्यात क्रोधोपयोगकाल होंगे । इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायकी अपेक्षा भी जानना चाहिए। तदनुसार आगे इन कषायोंसम्वन्धी असंख्यात और संख्यात उपयोगवाले भवोंके अल्पबहुत्वका प्ररूपण किया गया है।
२. गाथाके उत्तरार्धमें निबद्ध दूसरे अर्थका दूसरे प्रकारसे स्पष्टीकरण इसप्रकार है कि एक कषायसम्बन्धी एक उपयोगमें कमसे कम एक और अधिकसे अधिक दो भव होते हैं। जिन जीवोंकी एक भवसे निष्क्रमणके साथ कषाय बदल जाती है उनके एक कषायसम्बन्धी एक उपयोगमें एक भव होता है। तथा जिन जीवोंकी एक भवसे निष्क्रमणके साथ कषाय नहीं बदलती है । किन्तु मरणके पूर्व पिछले भवमें जो कषाय थी वही उत्तर भवमें जन्मके समय अविच्छिन्नरूपसे पाई जाती है उनके एक कषायसम्बन्धी एक उपयोगमें दो भव होते हैं।
तीसरी गाथा 'उवजोगवग्गणाओ कम्मि' इत्यादि है । इसमें क्रोधादि कषाय विषयक उपयोगवर्गणाओंके प्रमाणका ओघ और आदेशसे विचार किया गया है।
उपयोगंवर्गणाएं दो प्रकारको हैं-कालोपयोगवर्गणा और भावोपयोगवर्गणा । प्रकृतमें क्रोधादि कषायोंके साथ जीवके संप्रयोग होनेको उपयोग कहते हैं तथा उसके भेदोंका नाम वर्गणा है। जघन्य उपयोगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगस्थान तक निरन्तररूपसे अवस्थित उनके भेदोंको उपयोगवर्गणा कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वे उपयोगोंके भेद काल और भाव दो प्रकारसे सम्भव हैं। उनमेंसे जघन्य उपयोगकालसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकाल तक निरन्तर रूपसे अवस्थित उनके कालकी अपेक्षा जितने भेद होते हैं उन्हें कालोपयोगवर्गणा कहते हैं। तथा तीव्र-मन्दादि भावरूपसे परिणत और जघन्य भेदसे लेकर उत्कृष्ट भेद तक छह वृद्धि क्रमसे वृद्धिंगत जितने कषाय-उदयस्थान हैं उन्हें भावोपयोगवर्गणा कहते हैं। कालोपयोगवर्गणाओंमें कषायोंके सब भेदोंका कालकी अपेक्षा विचार किया गया है और भावोपयोगवर्गणाओंमें तीव्र-मन्दादि भेदोंसे युक्त कषायउदयस्थानोंका विचार किया गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
यहाँ कालकी अपेक्षा भेद प्राप्त करनेके लिये प्रत्येक कषायके उकृष्ट कालमेंसे जघन्य कालके घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक मिलाना चाहिए । ऐसा करनेसे कालोपयोगवर्गणाओंका सब प्रमाण प्राप्त हो जाता है। तथा भावकी अपेक्षा प्रमाण प्राप्त करनेके लिये प्रत्येक कषायके असंख्यात लोकप्रमाण जो उदयस्थान हैं उन्हें ग्रहण करना चाहिए। इस दृष्टिसे मानकषायमें सबसे स्तोक उदयस्थान हैं। क्रोधकषायमें उनसे विशेष अधिक उदयस्थान हैं । मायाकषायमें उनसे विशेष अधिक उदयस्थान हैं और लोभकषायमें उनसे विशेष अधिक उदयस्थान हैं। इस प्रकार इस गाथासूत्रमें उक्त दो प्रकारको वर्गणाओंका तथा उनके स्वस्थान और परस्थान सम्बन्धी अल्पबहुत्त्वका विचार किया गया है।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ९ )
ater गाथा 'एक्कम्हि य अणुभागे' इत्यादि है । चूणिसूत्रकारके समक्ष इस गाथाका दो प्रकारका उपदेश उपलब्ध था — प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान । सर्व आचार्य सम्मत और चिरकालसे अविच्छिन्न परम्परा आये हुए उपदेशको प्रवाह्यमान उपदेश कहते हैं तथा जो सर्व आचार्य सम्मत अविच्छिन्न परम्परासे आया हुआ उपदेश नहीं है उसे अप्रवाह्यमान उपदेश कहते हैं । यहाँ ' अथवा ' कहकर भगवान् नागहस्तिके उपदेशको प्रवाह्यमान उपदेश बतलाया है और भगवान् आर्यमंक्षुके उपदेशको अप्रवाह्यमान उपदेश बतलाया है ।
उनसे अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार अनुभाग कारण है और कषायपरिणाम उसका कार्य है ऐसा भेद न कर जो कषाय है वही अनुभाग है इसप्रकार दोनोंमें एकत्व स्थापित कर गाथासूत्रका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि नरकादि गतियोंमेंसे नरकगति और देवगति एक कालमें कदाचित् एक कषाय-उपयुक्त, कदाचित् दो कषायउपयुक्त, कदाचित् तीन- कषाय उपयुक्त और कदाचित् चार- कषाय- उपयुक्त होती हैं । कारण कि नरकगतिमें क्रोधकषायका काल सब से अधिक है, इसलिए कदाचित् सब नारकी जीव यदि एक कषायसे परिणत तो वे सब क्रोधकषायरूपसे ही परिणत होंगे। और यदि दो कषायरूपसे परिणत हों तो क्रोधकषायके साथ अन्यतर कोई कषाय होगी । इसी प्रकार तीन और चार कषायोंकी अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिए । तथा देवगतिमें लोभकषायका काल सबसे अधिक है । अतः सब देवोंमें यदि एक कषाय होगी तो लोभकषाय ही होगी । और दो कषाय होंगी तो लोभके साथ अन्यतर कोई कषाय होगी । इसी प्रकार तीन और चार कषायों के विषय में भी जानना चाहिए । अब रही तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति सो इनमें सदा ही चारों कषायोंसे परिणत जीव पाये जाते हैं । प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार कषायपरिणाम ही अनुभाग नहीं है, किन्तु जो कषाय-उदयस्थान हैं वही अनुभाग है । इसप्रकार इन दोनोंमें कारण और कार्यकी अपेक्षा भेद है । कषाय-उदयस्थानस्वरूप अनुभाग कारण है और कषायपरिणाम कार्य है ।
इसप्रकार प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार कषाय और अनुभाग में भेदका निर्देश कर तथा उक्त गाथासूत्रमें आये हुए 'एक्ककालेण' पदका अर्थ कषायोपयोगाद्धास्थान करके बतलाया है कि इस गाथासूत्र में एक कषाय-उदयस्थानमें तथा एक कषायोपयोगाद्धास्थान में कौन गति होती है अथवा अनेक कषाय-उदयस्थानोंमें और अनेक कषाय-उपयोगाद्धास्थानोंमें कौन गति होती है यह पृच्छा की गई है ।
आगे इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि एक-एक कषाय-उदयस्थानमें अधिक से अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रस जीव रहते हैं । इससे ज्ञात होता है कि त्रसजीव नियमसे अनेक कषाय-उदयस्थानोंमें रहते हैं, क्योंकि सब त्रसराशि जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः उनका एक कालमें अनेक कषाय-उदयस्थानोंमें रहना युक्तिसे सिद्ध होता है ।
तथा एक-एक कषायोपयोगाद्धास्थान में अधिक से अधिक असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण त्रस जीव रहते हैं, क्योंकि सब कषायोपयोगाद्धास्थान अन्तर्मुहूर्त के समयप्रमाण है, और त्रसराशि जगप्रतर के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए एक- एक कषाय - उपयोगाद्धास्थान में असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण जीवोंका रहना बन जाता है । यद्यपि न तो सब कषाय-उदयस्थानों में त्रसजीव सदृशरूपसे पाये जाते हैं और न ही सब कषायोपयोगाद्धास्थानों में भी सोंका समान विभाग होकर पाया जाना सम्भव है तो भी समीकरण विधान के अनुसार दोनों स्थलों पर यह निर्देश किया है ।
उक्त दोनों तथ्योंसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नरकादि प्रत्येक गति में भी यह प्ररूपणा अविकल - रूपसे घटित हो जाती है । इसका विशेष खुलासा अल्पबहुत्व के निर्देशद्वारा मूलमें किया ही 1
'केवडिया उवजुत्ता' यह पाँचवीं सूत्र गाथा है । यह गाथासूत्र कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका आठ अनुयोग द्वारोंके आलम्बनसे विवेचन करनेकी सूचना देती है । वे आठ अनुयोगद्वार हैं--सत्प्ररूपणा, द्रव्य (संख्या) प्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व । गति आदि जो चौदह मार्गणास्थान हैं उनमें से कषायके सिवाय तेरह मार्गणास्थानों में उक्त आठ अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका सर्वांगीण विचार करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेष स्पष्ट्रीकरण मूलमें किया ही है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए ।
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
'जे जे जम्हि कसाए' यह छठवीं सूत्रगाथा है। वर्तमान समयमें जो अनन्त जीव क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हैं, अतीत और अनागतकालमें भी वे सब उतने ही जीव उसी प्रकार क्रोधादि कपायोंमें क्या उपयुक्त रहे हैं या उपयुक्त रहेंगे इन सब तथ्योंकी सम्भावना और असम्भावनाका विचार करनेके लिए यह सूत्रगाथा निबद्ध हई है। अर्थात इस सूत्रगाथा द्वारा इस बातकी सूचना की गई है कि जो वर्तमान समयमें क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त जीव हैं उनका अतीत और अनागत कालमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल आदिके भेदोंसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रमाण कितना है ? आगे चूर्णिसूत्रोंमें इसीका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीत समयमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल इसप्रकार तीन प्रकारका काल पाया जाता है और इसी प्रकार क्रोधकी अपेक्षा भी तीन प्रकारका काल पाया जाता है--क्रोधकाल, नोक्रोधकाल और मिश्रकाल । इतना ही नहीं, किन्तु माया और लोभको अपेक्षा भी इसी प्रकार तीन-तीन प्रकारका काल जान लेना चाहिए। यह कुल काल १२ प्रकारका होता है। यह अतीतकी अपेक्षा विचार है तथा इसी प्रकार भविष्यत् कालकी अपेक्षा भी उक्त काल बारह प्रकारका घटित कर लेना चाहिए।
___जो वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हैं वे यदि अतीत कालमें भी मानमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका मानकाल कहलाता है । जो वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हैं वे यदि अतीत कालमें मानकषायमें उपयुक्त न होकर अन्य कषायोंमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका नोमान काल कहा जावेगा और जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयक्त रहे हैं, अतीतकालमें उनमेंसे कुछ मानकषायमें और कुछ अन्य कषायोंमें उपयुक्त रहे है तो वह उनका मिश्रकाल कहा जायगा। यह अतीतकालीन मानकषायकी अपेक्षा विचार है। अतीतकालीन क्रोधादिकषायोंकी अपेक्षा भी इसी प्रकार विचार कर लेना चाहिए । वर्तमानमें जो मानकषायमें उपयुक्त है वे यदि अतीतकालमें क्रोधकषायम उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका क्रोधकाल कहा जायगा। यदि अतीतकालमें मान और क्रोधको छोड़कर अन्य दो कषायोंमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका नोक्रोधकाल कहा जायगा और यदि अतीतकालमें वे मानके सिवाय कुछ क्रोधकषायम उपयुक्त रहे हैं और कुछ माया और लोभ कषायमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका मिश्रकाल कहा जायगा। इसप्रकार वर्तमानमें मानमें उपयुक्त हुए जीवोंका अतीतकालमें क्रोधकषायकी अपेक्षा भी तीन प्रकारका काल होता है। इसी प्रकार वर्तमानमें जो मानकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीतकालमें माया और लोभकषायकी अपेक्षा भी मायाकाल, नोमायाकाल और मिश्रकाल तथा लोभकाल, नोलोभकाल और मिश्रकालके भेदसे तीन-तीन प्रकारका काल जानना चाहिए। यह वर्तमानमें जो मानकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीतकालमें चारों कषायोंकी अपेक्षा १२ प्रकारका काल है ।
__इसी प्रकार वर्तमान समयमें क्रोध, माया और लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके अतीत कालमें सब कालोंका योग क्रमसे ११, १० और ९ प्रकारका होता है। विशेष खुलासा मूलसे जान लेना चाहिए। इसीप्रकार भविष्य कालकी अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिए। इतना सब विचार करनेके बाद इन कालोंका अल्पबहुत्व बतलाकर इस गाथाका व्याख्यान समाप्त किया गया है।
सातवीं गाथा 'उवजोगवग्गणाहि य' है । इसके पूर्वार्धद्वारा कषायउदयस्थान और कषाय-उपयोगाद्धा स्थान इनमेंसे कितने स्थान जानेके बाद कौन स्थान जीवोंसे रहित होते हैं और किस गतिमें किन जीवोंसे कौन स्थान सहित होते हैं इसका विशेष विचार किया गया है। यहाँ इस बातका विचार त्रसजीवों की अपेक्षा किया गया है, क्योंकि स्थावर जीव अनन्त हैं, इसलिये स्थावरोंके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें उनका सदा निरन्तररूपसे सद्भाव बन जाता है । त्रसोंकी अपेक्षा भी विचार करते हुए इन दोनों प्रकारके स्थानोंमें जीवोंकी अपेक्षा यवमध्यकी रचना कैसे बनती है इत्यादि विशेष विचार मूलसे जान लेना चाहिए।
उक्त गाथाके उत्तरार्धद्वारा तीन श्रेणियोंका निर्देश किया गया है। वे तीन श्रेणियाँ है-द्वितीयादिका, प्रथमादिका और चरमादिका । यहाँ श्रेणिका अर्थ पंक्ति अर्थात् अल्पबहुत्वपरिपाटी है। जिस परिपाटीमें मान कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह द्वितीयादिका परिपाटी कहलाती है।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११ )
वह तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें होती है, क्योंकि उनमें मानमें उपयुक्त हुए जीव सबसे कम होते हैं । जिस अल्पबहुत्व परिपाटी में क्रोधकपायमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह प्रथमादिका परिपाटी कहलाती है । वह देवगति में होती है, क्योंकि वहाँ क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव सबसे थोड़े होते हैं। तथा जिस अल्पबहुत्व परिपाटीमें लोभकषायसंज्ञक अन्तिम कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह चरमादिका परिवाटी कहलाती है । वह नारकियोंमें होती है, क्योंकि वहाँ लोभमें उपयुक्त जीव सबसे थोड़े होते हैं ।
इस प्रकार इस गाथा सूत्रकी व्याख्यामें उक्त तीन परिपाटियोंका निर्देश करनेके बाद अल्पबहुत्वविधिका निर्देश करते हुए मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके प्रवेशकालसे क्रोधकपायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल विशेष अधिक है यह बतलाकर प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार विशेषका प्रमाण कितना है यह निर्देश करके इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण जयधवला टीकामें करके इस अर्थाधिकारको समाप्त किया गया है ।
८ चतुःस्थान अर्थाधिकार
कषायप्राभृतका आठवाँ अर्थाधिकार चतुःस्थान है । इसमें सब गाथासूत्र १६ हैं । उनमेंसे प्रथम गाथासूत्रमें क्रोधादि चारों कषायोंमेंसे प्रत्येकको चार-चार प्रकारका बतलाया गया है । यहाँ प्रत्येक कपायके इन चार भेदोंमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण आदिरूप भेद विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि उनका निर्देश प्रकृतिविभक्ति आदि अर्थाधिकारोंमें पहले ही कर आये हैं । क्रोध दो प्रकारका है - सामान्य क्रोध और विशेष क्रोध । अपने सब विशेषोंमें व्याप्त होकर रहनेबाला क्रोध सामान्य क्रोध कहलाता है और अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिरूपसे विवक्षित क्रोध विशेष क्रोध कहलाता है । इसी प्रकार मान, माया और लोभको भी दो-दो प्रकारका जानना चाहिए। इनमेंसे यहाँ सामान्य क्रोध, सामान्य मान, सामान्य माया और सामान्य लोभकी अपेक्षा प्रत्येकको अन्य प्रकारसे चार-चार प्रकारका कहा है । यहाँ अनन्तानुबन्धी आदि क्रोध, मान, माया और लोभ विवक्षित नहीं हैं । इसका कारण यह है कि अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभमें द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको छोड़कर एकस्थानीय अनुभाग नहीं पाया जाता है, अतः जिसमें समस्त विशेष लक्षण संगृहीत हैं ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ सामान्यका आलम्बन लेकर यहाँ प्रत्येकको चार-चार प्रकारका बतलाया गया है ।
दूसरी सूत्रगाथामें क्रोध और मानकषायके उदाहरणों द्वारा चार-चार भेदोंका निर्देश किया गया है । यथा -- क्रोध चार प्रकारका है— पत्थरकी रेखाके समान, पृथिवीकी रेखाके समान, बालूकी रेखाके समान और जलकी रेखाके समान । मान भी चार प्रकारका है - शिलाके स्तम्भके समान, हड्डीके समान, लकड़ीके समान और लताके समान ।
इनका अर्थ स्पष्ट है । विशेष खुलासा मूलमें किया ही है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि क्रोधकषायके उक्त चार भेदोंके स्वरूपपर प्रकाश डालने के लिए जो उदाहरण दिये गए है वे संस्काररूपसे उनके अवस्थित रहने के कालको स्पष्ट करनेके लिये ही दिये गये हैं । तथा मानकषायके उक्त चार भेदोंके स्वरूप पर प्रकाश डालनेके लिये जो उदाहरण दिये गये हैं वे मानकषाय सम्बन्धी परिणामोंके तारतम्यको दिखलानेके लिये दिये गये हैं । इसीप्रकार आगे माया और लोभ कषायके भेदोंके स्वरूपका बोध करानेके लिये भी जो उदाहरण दिये गये हैं वे भी माया और लोभ कषायके परिणामोंके तारतम्यको ध्यान में रख कर ही दिये गये हैं ।
तीसरी सूत्रगाथा में उदाहरणों द्वारा मायाके चार भेदोंका निर्देश किया गया है। यथा - माया चार प्रकारकी है— बाँसकी अत्यन्त टेढ़ी गाठोंवाली जड़के समान, मेढ़ेके सींगोंके समान, गायके मूत्रके समान और दतौनके समान ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
१२ )
चौथी सूत्रगाथा में उदाहरणों द्वारा लोभके चार भेदोंको स्पष्ट किया गया है । यथा - कृमिरागके रंगके समान, अक्षमल ( ओंगन ) के समान, धूलिके लेपके समान और हलदी से रंगे हुए वस्त्र के समान । उदाहरणों सहित इन सोलह भेदोंका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है, इसलिये वहाँसे जान लेना
चाहिए ।
पाँचवीं सूत्रगाथा द्वारा चारों कषायोंके उक्त सोलह स्थानोंमें स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा कौन स्थान किस स्थानसे कम होता और कौन स्थान किस स्थान से अधिक होता है इसका पृच्छारूप में निर्देश किया गया है ।
जयधवला टीकामें इस सूत्रगाथा की व्याख्या करते हुए स्थितिके विषयमें बतलाया है कि सब स्थितियोंमें एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय सब प्रकारके कर्मपरमाणु पाये जाते हैं ! इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जैसे किसी जीवने मिथ्यात्वकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थितिका बन्ध किया तो जैसे उक्त कर्मको अन्तिम स्थितिमें एक स्थानीय आदि चारों भेदोंको लिये हुए देशघाति और सर्वघाति कर्मपरमाणु पाये जाते हैं उसीप्रकार आबाधासे ऊपर जघन्य स्थिति में भी वे सब प्रकारके कर्मपरमाणु पाये जाते हैं ।
छठी सूत्रगाथा द्वारा इन स्थानों में प्रदेशों और अनुभागकी अपेक्षा क्या व्यवस्था है इसे स्पष्ट करने के लिये लताके समान मानकषायको विवक्षित कर बतलाया है कि अनुभागकी अपेक्षा जो जघन्य वर्गणा है अर्थात् प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा है उससे अन्तिम ( उत्कृष्ट ) स्पर्धककी जो अन्तिम वर्गणा है वह प्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन होती है और अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक होती है । यह लता के समान मानकषाय में प्रदेशों और अनुभागकी व्यवस्था है । इसी प्रकार मानकषायके शेष तीन प्रकार के अनुभाग में तथा क्रोध, माया और लोभकषायसम्बन्धी प्रत्येकके चार-चार प्रकारके अनुभाग में प्रदेशों और अनुभागकी अपेक्षा उक्त प्रकारसे स्वस्थान अल्पबहुत्व घटित कर लेना चाहिऐ ।
सातवीं सूत्रगाथाद्वारा एक स्थानसे दूसरेमें प्रदेशोंकी अपेक्षा क्या व्यवस्था है इस बातको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि लताके समान मानकषायके प्रदेशोंसे दारुके समान मानकषायके प्रदेश नियमसे अनन्तगुणे हीन होते हैं । इसी प्रकार आगे अस्थिके समान और शैलके समान मानकपाय में भी जान लेना चाहिए । अर्थात् दारुके समान मानकषायके प्रदेशोंसे अस्थि के समान मानकषायके प्रदेश अनन्तगुणे हीन होते हैं । तथा अस्थ के समान मानकषायके प्रदेशोंसे शैलके समान मानकषायके प्रदेश अनन्तगुणे हीन होते हैं ।
आठवीं गाथा द्वारा इन स्थानोंमें अनुभागकी व्यवस्था की गई है । वहाँ बतलाया है कि लताके समान मानकषायमें जो अनुभाग है उससे दारु, अस्थि और शैलके समान मानकषायमें अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्त गुण होता है विशेष व्याख्यान मूलसे जानना चाहिए । यहाँ अनुभागाग्रसे फलदान शक्तिके अनुभाग प्रतिच्छेद लिये गये हैं इतना विशेष जानना चाहिए ।
नौवीं गाथा द्वारा लतासमान आदि भेदोंकी अन्तिम वर्गणासे दारुसमान आदि भेदोंकी प्रथम वर्गणामें प्रदेशों और अनुभागकी अपेक्षा क्या व्यवस्था है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि पिछले भेदकी अंतिम वर्गणासे अगले भेदकी प्रथम वर्गणा प्रदेशोंको अपेक्षा हीन और अनुभागकी अपेक्षा अधिक होती है । यहाँ अन्तिम वर्गणा और प्रथम वर्गणाकी 'सन्धि' यह संज्ञा रखकर विचार किया गया है ।
दसवीं सूत्रगाथा द्वारा यह बतलाया गया है कि लताके समान समस्त मान और दारुके समान मानका प्रारम्भका अनन्तवाँ भाग देशघाति अनुभागरूप है तथा शेष दारुके समान मान और अस्थि तथा शैलरूप मान यह सब सर्वघाति है ।
यहाँ छठी गाथासे लेकर दसवीं गाया तक मानकपायके आलम्बनसे जो प्ररूपणा की गई है वह सब प्ररूपणा क्रोधकषाय, मायाकपाय और लोभकपायके आलम्बनसे भी करनी चाहिए, क्योंकि मानकषायके
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवान्तर भेदोंमें जो विशेषता बतलाई है वह सब क्रोध, माया और लोभकषायके अवान्तर भेदोंमें अविकल घटित हो जाती है इस बातका निर्देश ग्यारहवीं सूत्रगाथामें किया गया है ।
__बारहवीं सूत्र गाथा द्वारा अनन्तर पूर्व कहे गये सोलह स्थानोंमेंसे किस मार्गणामें कौन स्थान बध्यमान है कौन स्थान उपशान्त है, कौन स्थान उदयरूप है और कौन स्थान सत्तारूप है इस विषयकी पृच्छा की गई है।
आगे तेरहवीं और चौदहवीं गाथा द्वारा संज्ञी मार्गणा, पर्याप्त और अपर्याप्त पदके निर्देश द्वारा काय और योगमार्गणा, सम्यक्त्वमार्गणा, संयममार्गणा, दर्शनमार्गणा, ज्ञानमार्गणा, योगमार्गणा. और लेश्यामार्गणाके उल्लेख पूर्वक गाथासूत्र में आये हए 'च' शब्द द्वारा शेष सब मार्गणाओंको ग्रहण कर उनमें यथासम्भव स्थित जीव उक्त सोलह स्थानोंमेंसे किस स्थानको वेदन करता हुआ किस स्थानका बन्धक होता है और किस स्थानका वेदन नहीं करता हुआ किस स्थानका अबन्धक होता है इस विषयकी पृच्छा पन्द्रहवीं गाथा द्वारा की गई है।
सोलहवीं गाथा द्वारा संज्ञी मार्गणाको विवक्षित कर यह बतलाया गया है कि असंज्ञी जीव मानकषायके लतासमान और दारुसमान इन दो स्थानोंका ही बन्ध करता है। वह शेष दो स्थानोंका बन्ध नहीं करता, क्योंकि उसमें शेष दो स्थानोंको बाँधनेके हेतुरूप संक्लेश परिणाम नहीं पाये जाते । अर्थात् असंज्ञी जीवोंके स्वभावसे ही अस्थिसमान और शैलसमान मानकषायके बन्ध के हेतुरूप परिणाम नहीं होते।
किन्तु संज्ञो जीव एकस्थानीय अनुभागका भी बन्ध करते हैं, द्विस्थानीय अनुभागका भी बन्ध करते हैं, त्रिस्थानीय अनुभागका भी बन्ध करते हैं और चतुःस्थानीय अनुभागका भी बन्ध करते हैं, क्योंकि इनके इन स्थानोंके बन्धके योग्य संक्लेश और विशुद्धिका पाया जाना सम्भव है।
यह संज्ञीमार्गणामें बन्धकी अपेक्षा विचार है। इसी प्रकार उदय, उपशम और सत्त्वकी अपेक्षा समझ लेना चाहिए। यथा--असंज्ञी जीवोंमें उदय द्विस्थानीय ही होता है, क्योंकि इनमें शेष उदयरूप परिणामोंका होना अत्यन्त निषिद्ध है। हाँ इनमें उपशम और सत्त्व एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय चारों प्रकारका होता है। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियोंमें शुद्ध एकस्थानीय उपशम और सत्त्व सम्भव नहीं है। हाँ संज्ञियोंमें उदय, उपशम और सत्त्व एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय चारों प्रकारके पाये जाते हैं।
अब किस स्थानका वेदन करता हुआ यह जीव किस स्थानका बन्ध करता है इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि असंज्ञी जीव द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ द्विस्थानीय अनुभागका बन्ध करता है। किन्तु संज्ञी जीव एकस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ एकस्थानीय अनुभागका ही बन्ध करता है । द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागका बन्ध करता है । त्रिस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागका बन्ध करता है तथा चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ चतुःस्थानीय अनुभागका ही बन्ध करता है ।
इस प्रकार जयधवला टीकामें संज्ञी मागंणाकी अपेक्षा उक्त विशेषताओंका निरूपण करनेके बाद बतलाया है कि इसोके अनुसार शेष तेरह मार्गणाओंमें आगमानुसार उक्त विषयका विशेष विचार कर लेना चाहिए । यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि एकस्थानीय बन्ध और एकस्थानीय उदय मनुष्यगतिमें ही प्राप्त होता है, क्योंकि यह एकस्थानीय बन्ध और उदय श्रेणिमें ही पाया जाता है।
इस अर्थाधिकारमें आई हुईं सोलह सूत्रगाथाओंका यह स्वरूप निर्देश है। आचार्य यतिवृषभने इन सोलह सूत्र गाथाओंका अपने चूणिसूत्रोंमें 'चउदाणे त्ति अणिओगहारे पुव्वं गमणिज्ज सुत्तं' इस चूणिसूत्रद्वारा इनको जाननेका उल्लेखकर इन सूत्रगाथाओंके अन्तमें 'एदं सुत्तं' यह चूर्णिसूत्र रचकर उनकी समाप्ति की सूचना की है। पुनः आगे इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण करनेके लिए चतुःस्थान इस पदका अर्थविषयक निर्णय करनेके अभिप्रायसे निक्षेप योजना करते हुए उसके एककनिक्षेप और स्थाननिक्षेप ये दो प्रकार बतलाये हैं। उनमेंसे एकैकनिक्षेप पदसे क्रोधादि प्रत्येक कषायका ग्रहण किया गया है, अतः उसे पूर्वनिक्षिप्त
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
और पूर्वप्ररूपित बतलाकर स्थानपदका कितने अर्थों में निक्षेप होता है इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए उसका नामस्थान, स्थापनास्थान, द्रव्यस्थान, क्षेत्रस्थान, अद्धास्थान, पलिवीचिस्थान, उच्चस्थान, संयमस्थान प्रयोगस्थान और भावस्थान इन दस प्रकारके स्थानोंमें निक्षेप किया है। इन सब स्थानोंका स्वरूपनिर्देश मूलसे जान लेना चाहिए।
__ आगे इन स्थानोंमें नययोजना करते हुए बतलाया है कि नैगमनय इन सब स्थानोंको स्वीकार करता है । संग्रहनय और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानको स्वीकार नहीं करते। शेष सबको स्वीकार करते हैं । पलिवीचिस्थानके दो अर्थ है-स्थितिबन्धवीचारस्थान और सोपानस्थान। सो इनका क्रमसे अद्धास्थान और क्षेत्रस्थानमें अन्तर्भाव हो जानेसे इसे ये दोनों नय पृथक् स्वीकार नहीं करते। इसी प्रकार उच्चस्थानका भी क्षेत्रस्थानमें अन्तर्भाव हो जाता है । अतः उसे भी ये दोनों नय पृथक स्वीकार नहीं करते। ऋजुसूत्र नय उक्त दो, स्थापनास्थान और अद्धास्थानको स्वीकार नहीं करते । कारण कि इस नयका विषय वर्तमान समयमात्र है, और वर्तमान समयकी विवक्षामें स्थापनास्थान और अद्धास्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि समय, आवलि आदि कालभेदके बिना उनका निर्देश नहीं किया जा सकता । पलिवीचिस्थान और उच्चस्थान को भी इसी कारण यह नय स्वीकार नहीं करता।
शब्दनय नामस्थान, संयमस्थान, क्षेत्रस्थान और भावस्थानको स्वीकार करता है। अन्य बाह्य अर्थकी अपेक्षा किये विना नाम संज्ञामात्र शब्दनयका विषय होनेसे यह नय इसे स्वीकार करता है, संयमस्थान भावस्वरूप होनेसे इसे भी यह नय स्वीकार करता है। क्षेत्रस्थान वर्तमान अवगाहना स्वरूप है और भावस्थान वर्तमान पर्यायकी संज्ञा है अतः यह नय इन्हें भी स्वीकार करता है। शेष स्थानोंको यह नय स्वीकार नहीं करता।
इनमेंसे इस अर्थाधिकारमें नोआगम भावनिक्षेपस्वरूप चतुःस्थानकी अपेक्षा क्रोधादि कषायोंके सोलह उत्तर भेदोंकी प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकार स्थान पदके आलम्बनसे निक्षेप व्यवस्थाका निर्देश करनेके वाद सोलह सूत्रगाथाओंके आशयको चुणिसूत्राद्वारा स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि प्रारम्भकी चार सूत्रगाथाएँ उक्त सोलह स्थानोंके उदाहरणपूर्वक अर्थसाधनमें आई हैं। यथा--चारों ही क्रोधसम्बन्धी स्थानोंका कालकी मुख्यतासे उदाहरण देकर अर्थसाधन किया गया है, क्योंकि कोई क्रोध आशय (संस्कार) रूपसे चिरकाल तक अवस्थित रहता है और कोई क्रोध संस्काररूपसे अचिरकाल तक अवस्थित रहता है। अचिरकाल तक अवस्थित रहनेवाले क्रोधमें भी कोई तारतम्यको लिए हुए कुछ अधिक समय तक अवस्थित रहता है और कोई क्रोध अति स्वल्प समय तक ही अवस्थित रहता है। इस प्रकार कालकी अपेक्षा क्रोधकषायके अवान्तर भेदोंको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ पत्थरकी रेखाके समान क्रोध आदि चार उदाहरण दिये गये हैं। शेष मानादि कषायोंके जो स्थान लताके समान आदिको अपेक्षा बारह प्रकारके बतलाये है वे किस मान, माया और लोभकष कैसा भाव है इस लातको स्पष्ट करनेके लिये दिये गये हैं। जैसे मानकषायका भाव स्तब्धतारूप है । अतः प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे इसी भावको स्पष्ट करनेके लिये पत्थरके स्तम्भके समान आदि चार उद.हरण दिये गये हैं । मायाका भाव वक्रता है। अतः प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे उसमें तारतम्य दिखलानेके लिये वांसकी गठीली टेढ़ी-मेढ़ी जड़के समान आदि चार उदाहरण देकर मायाके अवान्तर भेदोंको स्पष्ट किया गया है । तथा लोभका भाव असन्तोपजनित संक्लेशपना है। अतः प्रकर्ष और अप्रकर्परूपसे उसमें तारतम्य दिखलाने के लिये कृमिरागके रंगके समान आदि चार उदाहरणोंद्वारा उसे स्पष्ट किया गया है।
आगे उदाहरणों द्वारा क्रोधकपायके जिन चार भेदोंको स्पष्ट किया है उनमेंसे कौन क्रोधभाव संस्काररूपसे कितने काल तक रहता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जो क्रोध अन्तर्मुहुर्तकाल तक रहता है वह जलरेखाके समान क्रोध है। जो क्रोध शल्यरूपसे अर्धमास तक अनुभवमें आता है वह वालुकी रेखाके समान क्रोध है । यहाँ तथा आगे क्रोधभावका जो अन्तर्मुहर्तसे अधिक काल कहा है वह उस जातिके संस्कारको ध्यान
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५ )
में रखकर ही कहा है। जो क्रोधभाव अर्धमाससे भी अधिक छह माह तक संस्काररूपसे रहता है वह पृथिवी - की रेखाके समान क्रोध है । और जो क्रोध संस्काररूपसे सब भवोंके द्वारा भी उपशमको नहीं प्राप्त होता है । अर्थात् जिस जीवके आलम्बनसे इसप्रकारका क्रोध हुआ है उसे देखकर जो क्रोध संख्यात, असंख्यात और अनन्त भवोंके बाद भी प्रगट हो जाता है वह पर्वतकी रेखाके समान क्रोध है । इसप्रकार यह क्रोधकषायकी अपेक्षा विचार है । इसी प्रकार शेष कषायोंकी अपेक्षा भी घटित कर लेना चाहिए |
गोम्मटसार जीवकाण्ड में चारों कषायोंको कुछे फरकके साथ उक्त सोलह उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है । जिन उदाहरणोंको भिन्नरूपसे लिया है उनमें प्रथम उदाहरण मानकषायसम्बन्धी है । कषायप्राभृतमें जिस मानभावको स्पष्ट करनेके लिये 'लताके समान' यह उदाहरण दिया है, गोम्मटसार जीवकाण्डमें उसके स्थानमें 'वेतके समान' यह उदाहरण दिया है। कषायप्राभृतमें जिस मायाभावको स्पष्ट करनेके लिये 'दतौनके समान' उदाहरण दिया है, गोम्मटसार जीवकाण्डमें उसके स्थानमें 'खुरपाके समान' उदाहरण दिया है। तथा कषायप्राभृत में जिस लोभभावको स्पष्ट करनेके लिये 'धूलिके लेपके समान' उदाहरण दिया है, गोम्मटसार जीवकाण्डमें उसके स्थान में 'शरीरके मैलके समान' यह उदाहरण दिया है। इस प्रकार कषायप्राभृतसे जीवकाण्डमें कतिपय उदाहरणों में फरक होते हुए भी आशय भेद नहीं है । कषायप्राभृतके कथनसे गोम्मटसार जीवकाण्ड में यह विशेषता अवश्य दृष्टिगोचर होती है कि जहाँ कषायप्राभृत में इन क्रोधादि चारों कषायोंमेंसे प्रत्येकका कौन अवान्तर भाव किस गतिमें उत्पन्न करनेवाला है इस बातका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता वहाँ गोम्मटसार जीवकाण्डमें यह निर्देश स्पष्टरूपसे दृष्टिगोचर होता है कि शिलाकी रेखाके समान क्रोध नरकगति में उत्पन्न करनेवाला है, पृथिवीको रेखाके समान क्रोध तिर्यञ्च गति में उत्पन्न करनेवाला है, धूलिकी रेखाके समान क्रोध मनुष्यगति में उत्पन्न करनेवाला है और जलकी रेखाके समान क्रोध देवगतिमें उत्पन्न करनेवाला है । इसप्रकार जहाँ क्रोधकी अपेक्षा उक्त प्रकारका निर्देश किया है इसी प्रकार मान, माया और लोभकी अपेक्षा समझ लेना चाहिए ।
इस प्रकार उक्त सब विषयका व्याख्यान करनेके बाद चतुःस्थान अर्धाधिकार समाप्त होता है ।
९ व्यञ्जन अर्थाधिकार
कषाय प्राभूतका नौवाँ व्यञ्जन अर्थाधिकार है । प्रकृत में व्यञ्जन यह पद 'शब्द' इस अर्थका सूचक
है । तदनुसार इस अर्धाधिकारमें क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायोंके शब्दरूपसे पाँच सूत्रगाथाओं में पर्यायवाची नाम दिये हैं । यथा -- क्रोधकषायके दस पर्यायवाची नाम-क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष और विवाद । इन पर्मायनामोंके अर्थको स्पष्ट करते हुए अक्ष माका पर्यायवाची नाम अमर्ष दिया है तथा विवादके पर्यायवाची नाम स्पर्द्ध और संघर्ष दिये हैं । पाप, अयश, कलह और वैरकी वृद्धिका हेतु होनेसे क्रोधका पर्यायवाची नाम वृद्धि है । तथा स्पर्धा और संघर्षकी मनोवृत्तिसे. दूसरोंसे उलझना विवादरूप क्रोध की भूमिका ही बनाता है, इसलिये क्रोधका पर्यायवाची नाम विवाद है । शेष कथन सुप्रतीत ही है ।
स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष,
मानकपाय के पर्यायवाची नाम हैं--मान, मद, दर्प, परिभव और उत्सिक्त । परमागममें ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, आलम्बनसे यह संसारी जीव स्वयंको दूसरोंसे अधिक मानता है, कारण सराव पिये हुए मनुष्य के समान यह जीव उन्मत्त हो जाता है, नाम है । इसी प्रकार शेष पर्यायवाची नामोंके विषय में जान लेना चाहिए । अन्य कोई विशेषता न होने से यहाँ उनका पृथक्से स्पष्टीकरण नहीं किया है।
बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठके इसलिए ऐसे भावको मान कहा है । इनके इसलिए मद भी मानका पर्यायवाची
पहले क्रोधकषायके पर्यायवाची नामोंमें 'विवाद' पदका उल्लेख कर आये हैं । उसका कारण यह है
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि जाति आदिको निमित्तकर स्वयंमें बड़प्पनका परिणाम होना यह मानकषायकी विशेषता है और परके प्रति तिरस्कार या अनादरके भावपूर्वक उसके प्रति संघर्षका भाव होना यह क्रोधकषायकी विशेषता है ।
मायाकषायके पर्यायनाम हैं--माया, सातिप्रयोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, निगृहन और छन्न । मायामें मन, वचन और कायकी प्रवृतिमें सरलता नहीं रहती है। अभिप्राय कुछ रखता है, कहता कुछ है और करता कुछ अन्य ही है। इसलिए मायाकषायमें कपटाचारकी मुख्यता है । कुटिल व्यवहार करना, वञ्चना-ठगाईका परिणाम रखना, दूसरेके ठीक अभिप्रायको जानकर उसका अपलाप करना, झूठे मन्त्र-तन्त्र आदि द्वारा अपनी आजीविका करना आदि सब मायाकषायरूप परिणाम है। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर यहाँ मायाके ये पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। उक्त पर्यायवाची नामोंकी टीका करते हुए ऐसे और भी नाम आये हैं जिनका प्रयोग मायाके अर्थमें होता है। जैसे कपट कूटव्यवहार, विप्रलम्भन, योगवक्रता, निन्हवन, दम्भ, अतिसन्धान, विश्रम्भघात । वैसे 'लोकमें दम्भ मानकषायका पर्यायवाची माना जाता है, किन्तु यहाँ उसका मायाकषायमें अन्तर्भाव किया है। मानकषायपूर्वक जो ठगनेका परिणाम होता है उसका नाम दम्भ है इस अभिप्रायसे दम्भको मायारूप स्वीकार कर लिया गया है। टीकामें इसे कल्कका पर्यायवाची नाम बतलाया है। मायामें कुटिल व्यवहारकी मुख्यता है। यही कारण है कि मायाको तीन शल्योंमें परिगणित किया गया है।
लोभकषायके पर्यायवाची नाम है-काम, राग, निदान, छन्द सुत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शाश्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा । काममें इष्ट स्त्री, पुत्र और परिग्रह आदिकी अभिलाषा मुख्य है, इसलिए कामको लोभका पर्यायवाची कहा है। राग माया और लोभ आदिरूप होते हुए भी यहाँ मनोज्ञ विषयमें अतिष्वंगविशेषको ध्यानमें रखकर रागको लोभका पर्यायवाची कहा है । जो मैं पुण्य कृत्य करता हूं उसके फलस्वरूप मुझे इष्ट भोगोपभोगकी प्राप्ति हो ऐसे भावका नाम निदान है । इसमें इष्ट विषयको प्राप्तिको अभिलाषा बनी रहनेके कारण निदानको लोभका पर्यायवाची बतलाया है। जिसके चित्तमें मिथ्यात्व और मायापरिणामके समान निदानरूप लोभपरिणाम बना रहता है वह व्रती नहीं हो सकता। इसलिए आगममें निदानको भी एक शल्य कहा है। मूल सूत्रगाथाओंमें लोभके पर्यायवाची नामोंमें एक नाम 'सुद' है। उसका अनुवाद जयधवला टीकामें 'सुत' और 'स्वत' किया है। 'सूयतेऽभिषिच्यते' इस व्युत्पत्तिके अनुसार विविध प्रकारकी अभिलाषाओंसे स्वयंको परिसिंचित करना अर्थात् पुष्ट करना सुत है इस भावको ध्यानमें रखकर सुतको लोभका पर्यायवाची कहा है तथा मूल सूत्रगाथामें आये हुए 'सुद' पदका 'स्वत' अर्थ करनेपर 'स्वस्य भावः स्वता ममता' ऐसा करके जो लोभपरिणाम ऐसी ममतारूप हो उसे लोभका पर्यायवाची 'स्वत' कहा है । प्रियका अर्थ प्रेय है। प्रेयरूप जो दोष, उसका नाम प्रयदोष है। इस प्रकार प्रेयदोषको लोभका पर्यायवाची कहा है । यद्यपि मूल सूत्रगाथामें लोभ के पर्यायवाची नाम बीस हैं ऐसा स्पष्ट कहा है, परन्तु जरधवला टीकामें इन दोनोंको समसितरूपसे प्रेय और दोषको लोभका पर्यायवाची कहा गया है। टीकामें प्रेयको दोषरूप क्यों कहा इस प्रश्नका जो समाधान किया है वह हृदयंगम करने लायक है। समाधान करते हुए वहाँ बतलाया है कि यद्यपि परिग्रह आदिकी अभिलाषा आह्लादका हेतु है, परन्तु वह संसारको बढ़ानेवाली है, इसलिये यहाँ प्रेयको दोषरूप कहा है। स्पष्ट है कि राग या अभिलाषा किसी भी प्रकारकी क्यों न हो वह एकमात्र संसारका ही हेतु होता है। आशाके दो अर्थ है-एक तो अविद्यमान अर्थकी इच्छा करना और दूसरे 'आश्यतीति आशा' व्युत्पत्तिके अनुसार स्क्यंको कृश करना । ये दोनों लोभरूप होनेसे यहाँ आशाको लोभका पर्यायवाची कहा है।
मल सत्रगाथामें लोभका पर्यायवाची नाम 'सासद' भी आया है। इसके टीकाकारने दो अर्थ किये हैं-एक साशता और दूसरा शाश्वत । आशा, स्पृहा और तृष्णा इन तीनों पदोंका अर्थ एक है। जो आशा सहित परिणाम है उसका नाम साशता है । यतः यह परिणाम लोभको अवस्थाविशेषरूप है, अतः इसे लोभका
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७ )
पर्यायवाची कहा है। दूसरे परिग्रहके ग्रहण करनेका परिणाम संसारी जीवके आगे-पीछे सदा बना रहता है, इसलिए 'सासद' पदका दूसरा अर्थ शाश्वत करके उसे लोभका पर्यायवाची कहा है। बाहय संयोगके आंशिक त्याग या पूर्ण त्यागका परिणाम लोभविशेषके कारण नहीं होता। जिनकी बुद्धि तत्त्वस्पशिनी है, जिनके उपदेश आदिसे जीवादि प्रयोजनभूत पदार्थोके भेदविज्ञानकी झलक मिलती है ऐसे परुष भी आन्तरिक इस लोभपरिणामके कारण आंशिक या पूर्ण विरति करने में असमर्थ रहते हैं, इसलिये यहाँ अविरतिको लोभका पर्यायवाची कहा है। 'विद्' धातुसे 'विद्या' शब्द बना है, प्रकृतमें उसका अर्थ वेदन करना है। लोभका जन्म वेदनके अधीन है, इसलिए विद्याको लोभका पर्यायवाची कहा है । अथवा विद्या जिस प्रकार दुराराध्य होती है इसी प्रकार लोभके पीछे लगनेवाले जीवकी स्थिति होती है। इसलिये विद्याको लोभका पर्यायवाची कहा है । इष्ट अन्न-पान आदि जितने भी उपभोगके साधन हैं उनके बार-बार भोगने पर भी जीवन में असन्तोष बना रहता है और असन्तोष लोभका पर्यायवाची नाम है। यतः इसे जिह्वेन्द्रियकी अतृप्ति मानी जाती है। इसीलिए इस साधर्म्यको देखकर जिह्वाको लोभका पर्यायवाची माना गया है। इसीप्रकार लोभके अन्य जितने पर्यायवाची नाम यहाँ दिये हैं उनका स्पष्टीकरण समझ लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ उनका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है।
जैसा कि पहले संकेत कर आये हैं इस अर्थाधिकारमें पाँच सूत्रगाथायें हैं। सूत्रगाथाओंके ठीक अनुरूप पाँच आर्याछन्द जयधवला टीकाकारके सामने रहे हैं जो सूत्रगाथाओंके व्याख्याके अन्तमें दिये गये हैं।
१०सम्यक्त्व-अर्थाधिकार यह सम्यक्त्व नामका महा अर्थाधिकार है। इस महाधिकारमें औपशमिक आदि तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें से प्रथमोपशम और क्षायिक दोनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्तिका बिचार किया गया है, इसलिए यह महाधिकार दर्शनमोहोपशामना और दर्शनमोहक्षपणा इन दो उप-अर्थाधिकारों में विभक्त हो जाता है। उनमेंसे सर्वप्रथम दर्शनमोहोपशामना अर्थाधिकारका निरूपण किया गया है। जो सूत्रगाथाएँ मात्र दर्शनमोहोपशामना नामक अर्थाधिकारसे सम्बन्ध रखती हैं वे कुल १५ हैं। उनका विवेचन चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ आचार्यने अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करणोंका विशद विवेचन करनेके बाद सबके अन्तमें किया है।
___ इस अधिकारका प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम चार प्रकारके अवतारका संक्षेपमें उल्लेख किया है। वे चार अवतार हैं-उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम । उपक्रम पाँच प्रकारका है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और यत्र-तत्रानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा यह दसवाँ अर्थाधिकार है। पश्चादानपर्वीकी और यत्र-तत्रानुपूर्वीकी अपेक्षा अनिर्धारित संख्यावाला यह अर्थाधिकार है। कषायप्राभूत यह गौण्य नामपद है। अक्षरोंकी अपेक्षा इसका प्रमाण संख्यात और अर्थकी अपेक्षा असंख्यात और अनन्त है। वक्तव्यता-स्वसमय और तदुभय वक्तव्यता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी प्ररूपणाके अविनाभावस्वरूप है। अर्थाधिकार दो प्रकारका है-दर्शनमोह-उपशामना और दर्शनमोह-क्षपणा। सम्यक्त्व पदका नाम, स्थापना आदि जितने अर्थो में निक्षेप होता है उसे करके और उन निक्षेपोंमें कौन निक्षेप किस नयका विषय है यह बतलाकर प्र भावनिक्षेपसे प्रयोयन है ऐसा समझना चाहिए। - इसके बाद अनुगमका निर्देश करते हुए अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें प्ररूपण करने योग्य 'दंसणमोह-उवसामगस्स' इत्यादि चार गाथाओंका उल्लेख किया है। इन चार गाथाओंमें जिस विषयको पुच्छा की गई है उसका निर्देश करनेके पूर्व 'दर्शनमोह-उपशामना 'अर्थाधिकारमें प्ररूपित अर्थका सर्वप्रथम उल्लेख कर देना प्रयोजनीय है। यथा-यह तो स्पष्ट है कि प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति मति-श्रुत उपयोगद्वारा ज्ञायकस्वभाव निज आत्मामें उपयुक्त होनेपर ही होती है, अतः ऐसे जीवको नियमसे संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त होना चाहिए । यही कारण है कि आगममें एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चन्द्रिय तक सभी जीव इसके ग्रहणके आयोग्य बतलाये गये हैं। असंज्ञियोंमें तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें से किसी भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं .
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ )
होती यह भी इससे स्पष्ट है । संज्ञियोंमें भी यदि वे नारकी और देव हैं तो पर्याप्त होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद ही वे इसे उत्पन्न करनेके लिए योग्य होते हैं। नारकियोंमें तो सातों नरकोंके नारकी पर्याप्त होनेपर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करने के योग्य हैं और देवोंमें चाहे वे अभियोग्य देव हों, चाहे अनभियोग्य देव हों, भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और नौवें ग्रैवेयक तकके विमानवासी देव तद्योग्य सामाग्रीके सद्भावमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके लिए अधिकारी हैं ।
मनुष्यों और तिर्यञ्चों में जो सम्मूर्च्छन जीव हैं वे तो प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके पात्र ही नहीं । गर्भजों में भी जो मनुष्य और तिर्यञ्च पर्याप्त हैं वे ही प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके अधिकारी हैं । उसमें भी कर्मभूमिज मनुष्य पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आठ वर्षके होने चाहिए तथा भोगभूमिज मनुष्य उनचास दिनके होने चाहिए, तिर्यञ्चों में भी वे दिवसपृथक्वके होने चाहिए । यहाँ दिवसपृथक्त्व शब्द सात-आठ दिनका वाची न होकर बहुत दिवसपृथक्त्वोंका वाची है ।
चारों गतियोंके जीवोंमें प्रथम सम्यक्त्त्वके ग्रहणके योग्य कौन जीव हैं इसका यह सामान्य विचार है । उसमें भी जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव हैं वे क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंसे सम्पन्न होने चाहिए। जो सादि मिथ्यादृष्टि जीव हैं उनका वेदक काल व्यतीत होने पर वे भी चार लब्धियोंसे सम्पन्न होने चाहिए । इस प्रकार इतनी योग्यतावाले भव्य जीव ही काललब्धि आनेपर स्वात्मोन्मुख स्वपुरुषार्थद्वारा प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होते हैं । वे चार लब्धियाँ हैं— क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्य लब्धि । विशुद्धि बलसे पूर्वमें, संचित हुए कमोंके अनुभाग स्पर्धकोंका प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन होकर उदीरित होना क्षयोपशमलब्धि है । प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन होकर उदीरित होनेवाले अनुभागस्पर्धकोंके निमित्त से असाता आदि अशुभ प्रकृतियोंके बन्धके विरुद्ध सातादि शुभ प्रकृतियोंके बन्धके योग्य जीवोंके परिणामोंकी प्राप्ति होना विशुद्धिलब्धि है। छह द्रव्य और नौ पदार्थोंके उपदेशका नाम देशना है । उस देशनासे युक्त आचार्य आदिका मिलना तथा उनके द्वारा उपदिष्ट अर्थके ग्रहण करने, धारण करने और विचार करनेकी शक्तिका प्राप्त होना देशनालब्धि है । तथा सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागका घात होकर उनका क्रमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिमें और द्विस्थानीय अनुभागमें अवस्थान होना प्रायोग्य लब्धि है । यहाँ अनुभागकी अपेक्षा सब कर्मोंमें पुण्यकर्म विवक्षित न होकर शेष सब कर्म लिये गये हैं इतना विशेष जानना चाहिए, क्योंकि उक्त विशुद्धिको निमित्तकर पुण्य कर्मोंका अनुभाग क्षीण न होकर वृद्धिको प्राप्त होता है ।
यहाँ देशना लब्धिके प्रसंगसे जो आचार्य आदि पदका ग्रहण किया है सो उससे मोक्षमार्ग के अनुरूप उपदेशदेते हुए सम्यदृष्टियोंका ग्रहण किया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए, क्योंकि जीवस्थानकी नौवीं चूलिकामें प्रथमादि तीन नरकोंमें ऋषियोंका गमन न होनेसे वहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन धर्मश्रवण नहीं बन सकता ? किसी शिष्य द्वारा ऐसी आशंका करनेपर आचार्यदेव वीरसेनस्वामी उक्त शंकाका समाधान करते हुए लिखते हैं कि वहाँ पूर्वभवके सम्बन्धी, धर्मके ग्रहण करानेमें लगे हुए तथा सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित ऐसे सम्यग्दृष्टि देवोंका वहाँ गमन देखा जाता है, अतः प्रारम्भके तीन नरकों में धर्मश्रवणरूप बाह्य साधन बन जाता है । उल्लेख इस प्रकार है
कथं तसं धम्मसुणणं संभवदि, तत्थ रिसीणं गमणभावा ? ण, सम्माइट्टिदेवाणं पुव्वभवसंबंधीणं धम्मपदुप्पायणे वावदाणं सयलबाधाविरहियाणं तत्थ गमणदंसणादों । पु. ६, ४३३ ।
इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टियोंके द्वारा मिला हुआ मोक्षमार्ग के अनुरूप उपदेश हो अन्य जीवोंमें प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका निमित्त होता है, अन्य मिथ्यादृष्टियों के द्वारा दिया गया उपदेश प्रथमोशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें बाह्य साधन नहीं होता ।
ये चार लब्धियाँ हैं । इन चार लब्धियोंसे सम्पन्न उक्त योग्यतावाले जीव जब काललब्धिके योगमें वस्पुरुषार्थद्वारा करणलब्धिके सन्मुख होते हैं तब वे जीव सर्वप्रथम अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धिको प्राप्त होते
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९ )
हैं। ऐसे जीवोंके प्रथम समयसे परिणाम कैसे होते हैं, योग व उपयोग आदि कौन-कौन होते हैं इत्यादि बातोंकी पृच्छा उन चार गाथाओंमें की गई है जो सामान्यरूपसे अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्ररूपणायोग्य हैं । वे चार हैं- 'दंसणमोह - उवसामगस्स' इत्यादि ९१, ९२, ९३ और ९४ क्रमांकवाली सूत्रगाथाऐं । उनमें प्रथम सूत्रगाथाका विशेष स्पष्टीकरण चूर्णिसूत्रोंमें और उनकी जयघवला टीकामें करते हुए बतलाया है कि इन जीवोंका परिणाम विशुद्धतर ही होता है, अविशुद्ध नहीं होता । केवल अधः प्रबृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर ही विशुद्धतर परिणाम नहीं होता । किन्तु अधःप्रवृत्तकरणको प्रारम्भ करनेके अन्तर्मुहूर्त पहले से ही ऐसे जीवोंका परिणाम आत्मसन्मुख उपयोग होनेसे प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए विशुद्ध से विशुद्धतर होता जाता है, क्योंकि जो मिथ्यात्वरूपी महागर्तसे निकलकर अलब्धपूर्व सम्यग्दर्शनरूपी रत्नको प्राप्त करने के सम्मुख हैं, जिन्होंने क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंकी सम्पन्नताके कारण अपनी सामर्थ्य को बढ़ाया है और जो संवेग और निर्वेदभावसे युक्त हैं ऐसे जीवोंके परिणामोंमें प्रति समय सहज ही अनन्तगुणी विशुद्धि होती है इसमें सन्देह नहीं । कर्मों ग्रहण में निमित्त रूप जीव प्रदेशोंकी परिस्पन्दरूप पर्यायको योग कहते हैं । ये जीव नियमसे पर्याप्त होते हैं, इसलिए इनके ग्यारह पर्याप्त योगोंमेंसे आहारक काययोगको छोड़कर दस पर्याप्त योगों में से कोई एक पर्याप्त योग होता है । यथा - मनोयोगके चार भेदोंमेंसे कोई एक मनोयोग होता है या वचन योगके चार भेदोंमें से कोई एक वचनयोग होता है या औदारिक काययोग या वैक्रियिक काययोग होता है ।
क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे कषाय चार प्रकारकी है। उनमें से कोई एक कषाय परिणाम होता है । इतनी विशेषता है कि एक तो ऐसे जीवोंका उपयोग परलक्षी न होकर, नियमसे आत्मलक्षी होता है, इसलिए वह कषाय परिणाम उत्तरोत्तर वर्धमान न होकर हीयमान होता है । दूसरे पूर्व संचित पापकर्मोंका अनुभाग द्विस्थानीय तो पहले ही हो गया है । साथही उसमें प्रति समय अनन्तगुणी हानि होती जाती है, इसलिए भी वहाँ होनेवाला कषाय परिणाम उत्तरोत्तर हीयमान ही होता है ।
जीवोंका जो अर्थको ग्रहण करने रूप परिणाम होता है उसे उपयोग कहते हैं । वह दो प्रकारका हैसाकार और अनाकार । अनाकार उपयोगका नाम दर्शनोपयोग है और साकार उपयोगका नाम ज्ञानोपयोग है । यतः अनाकार उपयोग अविमर्शक होनेसे सामान्यरूपसे पदार्थको ग्रहण करता है, अतः ऐसे उपयोग के कालमें विमर्शक स्वरूप जीवादि तत्त्वार्थों की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती, अतः यहाँ साकार उपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग ही स्वीकार किया गया है । उसमें भी मिथ्यात्व गुणस्थानमें तीन कुज्ञान ही सम्भव है, अतः उनमें से कोई एक उपयोग यहाँ होता है यह उक्त स्थलपर जयधवला टीकामें स्वीकार किया गया है । इस विषयकी विशेष जानकारी के लिये पृ० २०४ के विशेषार्थ पर दृष्टिपात करना चाहिए ।
इन जीवोंके उत्तरोत्तर वर्धमान पीत, पद्म और शुक्ल इन तीनों लेश्याओंमेंसे कोई एक लेश्या होती है। यह कथन तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी मुख्यतासे किया है, क्योंकि देवों और नारकियोंमें जहाँ जो लेश्या है वहाँ वह जन्मसे लेकर मरणतक नियमसे बनी रहती है, इसलिए यहाँ नारकियों और देवोंके सम्यग्दर्शन के सन्मुख होने पर कौन लेश्या होती है इसका निर्देश न कर जहाँ एक लेश्या अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं होती ऐसे मनुष्यों और तिर्यञ्चोकी अपेक्षा ही यहाँ ऐसे जीवोंके कौन लेश्या होती है इसका निर्देश किया है । ऐसे मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके अशुभ तीन लेश्याऐं तो होती ही नहीं । शुभ तीन लेश्याओं में कोई एक लेश्या नियमसे वर्धमान ही होती है । यदि अतिमंद विशुद्धिके साथ उक्त जीव सम्यग्दर्शनके सन्मुख हों तो भी उनके जघन्य पीतलेश्यारूप परिणाम देखा जाता है । नारकियोंमें कृष्ण, नील और कापोतमेंसे जिस नरक में जो अवस्थित लेश्या हो वह नियमसे हीयमान ही होती है और देवोंमें पीत, पद्म और शुक्लमेंसे जहाँ जो अवस्थित लेश्या हो वह नियमसे वर्धमान ही होती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए ।
तीनों वेदोंमेंसे अन्यतम वेद होता है। करणानुयोगमें चौदह मार्गणाओंका कथन नोआगम भावपर्यायको ध्यानमें रखकर ही किया गया है । इसलिए वेद कौन होता है ऐसी पृच्छाके होने पर जो यह उत्तर दिया
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २० )
गया है कि तीनों वेदों से कोई एक वेद होता है सो इस उत्तर द्वारा भाववेदका ही ग्रहण करना चाहिए । चूँकि प्रारम्भके पाँचवें गुणस्थानतककी प्राप्ति द्रव्यसे पुरुष, स्त्री और नपुंसक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों को भी हो सकती है, अतः जयधवलाकारने वेदके द्रव्य और भाव ऐसे भेद करके दोनों प्रकार के तीनों वेदवाले जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करते हैं उसमें कोई विरोध नहीं है यह निर्देश किया है। परमागम चार अनुयोगों में विभक्त है । उनमेंसे चरणानुयोगमें बाह्य आचारकी अपेक्षा विचार किया गया है, इसलिए उसमें द्रव्यवेद विवक्षित है और करणानुयोगमें नोआगम भावरूप जीवोंकी अर्थ- व्यंजन पर्यायें ली गई हैं, इसलिए उसमें भाववेद विवक्षित है इतना यहाँ विशेष समझना चाहिए ।
दूसरी सूत्रगाथा 'काणि वा पुव्वबद्धाणि' इत्यादि है । इसमें आठों कर्मोक प्रकृति आदिके भेदसे चारों प्रकारके सत्त्व, बन्ध, उदय और उदीरणा विषयक पृच्छाका चूर्णिसूत्रों और जयधवला टीका द्वारा विचार " किया गया है। इनमें से प्रकृति सत्त्वका विचार करते हुए जो निर्देश किया है उसके अनुसार मोहनीय कर्मकी २६-२७ या २८ प्रकृतियों की सत्ता होती है । अनादि मिथ्यादृष्टिके २६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, सादि मिथ्यादृष्टि के यथासम्भव २६, २७ या २८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । कारण स्पष्ट है । आयु कर्मकी एक भुज्यमान आयुकी अपेक्षा एककी और यदि परभव सम्बन्धी आयुका वन्ध किया हो तो दोकी सत्ता होती है । नामकर्मकी अपेक्षा आहारकचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिको छोड़कर ८८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । ज्ञानावरणादिप पांच कर्मोंके जितने अवान्तर भेद हैं उन सबकी सत्ता होती हैं ।
यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि सादि मिथ्यादृष्टिके आहारक चतुष्कका सत्त्व सम्भव है, इसलिए अन्य प्रकृतियों के साथ उनकी सत्ता भी कहनी चाहिए। इस प्रश्नका समाधान करते हुए बतलाया है कि वेदक सम्यक्त्वके कालसे आहारक शरीरको उद्वेलनाका काल अल्प है, इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सन्मुख हुए सादि मिथ्यादृष्टिके आहारक चतुष्कका सत्त्व नहीं पाया जाता ।
ऐसे जीवोंके आयुकर्मका स्थितिसत्त्व तत्प्रायोग्य होता है । तथा शेप कर्मोका स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी के भीतर होता 4
ऐसे जीवोंके अप्रशस्त कमका अनुभाग द्विस्थानीय होता है और प्रशस्त कर्मोंका चतुःस्थानीय होता है । वर्णादिचतुष्क अपने उत्तर भेदोंके साथ प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं । तथा प्रदेशसत्कर्म अजधन्य अनुत्कृष्ट होता है ।
उसी दूसरी गाथाका दूसरा चरण है- 'के वा अंसे णिबंधदि तदनुसार उक्त जीव किन प्रकृतियों के बन्धक होते हैं इसका विचार तीन दण्डकोंके द्वारा किया गया है। उन तीनों दण्डकों में समानरूपसे पाई जानेवाली प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पुरुषवेद, हास्थ, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय, जाति, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय । अब यदि अधः प्रवृत्तकरणके प्रथम समय में स्थित जीव मनुष्य और तिर्यञ्च हैं तो वे उक्त ६६ प्रकृतियोंके साथ देवगति वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आंगोपांग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र इन पाँच प्रकृतियोंका भी बन्ध करते हैं ।
यदि देव और छह पृथिवियोंके नारकी जीव हैं तो वे उक्त ६६ प्रकृतियोंके साथ मनुष्यगति, औदारिक शरीर, वज्रर्षभनाराच संहनन, औदारिक शरीर आंगोपांग, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र इन छह प्रकृतियोंका भी बन्ध करते हैं ।
यदि सातवीं पृथिवीके नारकी हैं तो वे उक्त ६६ प्रकृतियोंके साथ तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, कदाचित् उद्योत और नीचगोत्र इन ७ या ६ प्रकृतियोंका भी बन्ध करते हैं ।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१ ) स्थितिबन्ध तीनों दण्डकोंमें कही गई इन सब प्रकृतियोंका अन्तःकोड़कोड़ी प्रमाण होता है। जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका द्विस्थानीय और जो प्रशस्त प्रकृतियाँ है उनका चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध होता है।
पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कपाय, पुरुपवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक शरीर आंगोपगि, वर्णादि चार, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, यशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन ५४ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है तथा निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संथान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वजर्षभनाराच संहनन, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वो, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और नीचगोत्र इन १९ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है।
उसी दूसरी गाथाका तीसरा पाद है-'कदि आवलियं पविसंति । तदनुसार उदय-अनुदयरूपसे कितनी प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं इस पृच्छाका समाधान करते हुए बतलाया है कि पहले जितनी प्रकृतियोंकी सत्ताका निर्देश कर आये हैं वे सब उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। इतनी विशेषता है कि जिन जीवोंने परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध किया है उनको उस आयुकी आबाधा भुज्यमान आयु-प्रमाण होनेसे वह उदयावलिमें प्रवेश नहीं करती है। यहाँ इतना और विशेष जान लेना चाहिए कि परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध होते समय जितनी भुज्यमान आयु शेष रहती है उसका कदलीघात हुए विना निपेक क्रमसे भोग द्वारा ही उसकी निर्जरा होती है।
उसी गाथाका चौथा चरण है-'कदिण्हं वा पवेसगो।'-तदनुसार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें स्थित जीवोंके कितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है इस पृच्छाका समाधान करते हुए बतलाया है कि पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पाँच अन्तराय इन ३५ प्रकृतियोंकी तो नियमसे उदीरणा होती है, क्योंकि यहाँपर ये ध्रुवोदयस्वरूप प्रकृतियाँ हैं। इसलिए इनकी समानरूपसे चारों गतियोंमें उदय-उदीरणा पाई जाती है। इनके सिवाय साता और असाता इनमेंसे किसी एक प्रकृतिको चारों गतियोंमें उदय-उदीरणा पाई जाती है। इसी प्रकार चारित्र मोहनीयकी अपेक्षा ४ क्रोध, ४ मान, ४ माया और ४ लोभमेंसे कोई चार, हास्यादि दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय, जुगुप्सा या दोनों या दोनों नहीं इस प्रकृतियोंकी भी उदय-उदीरणा होती है।
अब यदि नारकी है तो उक्त प्रकृतियोंके साथ नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, वैक्रियिक शरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकोति और नीचगोत्र इन ग्यारह प्रकृतियोंकी भी उदय-उदीरणा पायी जाती है।
यदि तिर्यञ्च है तो ३ वेदोंमेंसे कोई एक वेद, तिर्यञ्चायु, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, औदारिक शरीर आंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक संहनन, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, सुभग-दुर्भगमेंसे कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय-अनादेयमेंसे कोई एक, यशःकीर्ति-अयशःकीर्तिमेंसे कोई एक तथा नीचगोत्रकी नियमसे उदय-उदीरणा होती है।
यदि मनुष्य है तो तिर्यञ्चोंके समान उदय-उदीरणा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और तिर्यञ्चगतिके स्थानमें मनुष्यायु और मनुष्यगति कहनो चाहिए। तथा मनुष्योंमें उद्योतकी उदयउदीरणा नहीं होती और गोत्रकी दोनों प्रकृतियोंमेंसे किसी एककी उदय-उदीरणा पाई जाती है।
यदि देव है तो उक्त प्रकृतियोंके साथ पुरुष या स्त्रीवेद, देवायु, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतु
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२ ) रस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इनकी नियमसे उदय-उदीरणा होती है।
यहाँ जिस गतिमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा बतलाई है, आयुको छोड़कर उन प्रकृतियोंकी तत्प्रायोग्य अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण स्थितियां अपकर्षित कर उदयमें दी जाती है और आयुओंमेंसे जिसके उदय प्राप्त जिस आयुकी जो स्थिति हो उसकी उदीरणा होती है । इसी प्रकार जिसके जिन प्रकृतियोंकी उदयउदीरणा होती है उनमेंसे प्रशस्त प्रकृतियोंकी बन्धस्थानसे अनन्तगुणी हीन चतु:स्थानीय उदीरणा होती है और अप्रशस्त प्रकृतियोंकी सत्त्वस्थानसे अनन्तगुणी हीन द्विस्थानीय उदीरणा होती है। तथा प्रदेशोंकी अपेक्षा अजघन्य-अनुत्कृष्ट उदीरणा होती है। यह उदीरणाका विचार है । इसी प्रकार उदयके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए।
के अंसे झीयदे पव्वं' यह तीसरी सत्रगाथा है। इसके पर्वार्षवारा दर्शनमोहकी उपशमना करने के सन्मुख होनेके पूर्व ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे किन कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है
और किन कर्मोंकी उदयम्युच्छित्ति हो जाती है इसकी पृच्छा की गई है और उत्तरार्ष द्वारा किस स्थानपर अन्तर करणक्रिया होती है और किस स्थानपर किन कर्मोका यह जीव उपशामक होता है यह पृच्छा की गई है।
आगे इन पृच्छाओंका चूणिसूत्रों और जयधवला टीकाद्वारा विस्तारसे समाधान करते हुए चौतीस बन्धापसरणोंका निर्देश करनेके बाद दर्शनमोहनीयके उपशामकके पृथक-पृथक गतिके अनुसार किन प्रकृतियोंका उदय होता है और कौन प्रकृतियां उदयसे व्युच्छिन्न रहती है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि निद्रादि पाँच दर्शनावरण, एकेन्द्रियादि चार जातिनामकर्म, चार आनुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त
और साधारण नामकर्म ये प्रकृतियां उदयसे व्युच्छिन्न रहती हैं। दर्शनमोहनीयके उपशमका प्रारम्भ करने वाला जीव न तो एकेन्द्रिय होता है, न विकलत्रय और असंज्ञी ही होता है और न ही अपर्याप्तक होता है। साथ ही वह साकार उपयोगवाला और जागृत होता है, अतः उसके ये प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न रहती हैं । यह ओघ निर्देश है । आदेशसे किस गतिमें किन प्रकृतियोंका किस रूपसे उदय रहला है यह मूलसे जान लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहां उसका निर्देश नहीं किया है । अन्तरकरण क्रिया भी अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें नहीं होती और न ही यह जीव यहाँपर उपशामक संज्ञाको प्राप्त होता है। आगे जहाँ अन्तरकरण क्रिया होगी और जहां जाकर यह जीव उपशामक कहलायेगा वहाँ इनका निर्देश करेंगे।
__ चौथी सूत्रगाथा है-'किंट्ठिदियाणि कम्माणि' आदि । इस द्वारा दर्शनमोहनीयका उपशामक जीव कितनी स्थितिका और कितने अनुभागका घात कर स्थितिसम्बन्धी और अनुभागसम्बन्धी किस स्थानको प्राप्त होता है यह पृच्छा की गई है। तदनुसार इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जो स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ प्रमाण है उसमें से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके बलसे संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका घात कर पूर्वको विवक्षित स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको यह जीव प्राप्त होता है । तथा अप्रशस्त कर्मोंका अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जो अनुभाग प्राप्त होता है उसके अनन्त बहभागप्रमाण अनुभागका उक्त दोनों प्रकारके परिणामोंके बलसे घात कर उसके अनन्तवें भागप्रमाण अनुभागको प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अधःवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात न होकर वे गुणश्रेणिनिक्षेपके साथ अपूर्वकरणके प्रथम समयसे प्रारम्भ होते हैं ।
इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें प्ररूपण करने योग्य चार गाथाओंके विषयका निर्देश करनेके बाद जिन तीन प्रकारके करण परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयके उपशम होनेका निर्देश किया है। उनका यहाँ विचार करते हैं।
जिन परिणामोंके द्वारा दर्शनमोह और चारित्रमोहका उपशम आदि होता है उन परिणामोंकी करण संज्ञा है । वे परिणाम तीन प्रकारके हैं-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । जिसमें विद्यमान
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३ ) जीवोंके परिणाम नीचे प्रवृत्त होते हैं उसे अधःवृत्तकरण कहते हैं। तात्पर्य यह है कि इस करणमें उपरिम ( आगे ) समयमें स्थित जीवोंके परिणाम नीचेके ( पूर्वके ) समयमें स्थित जीवोंके भी पाये जाते हैं इसलिए इनकी अधःप्रवृत्तकरण संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जिस करणमें प्रत्येक समयमें अपूर्वअसमान नियमसे अनन्तगुणरूपसे वृद्धिंगत करण-परिणाम होते हैं अर्थात् जिसस करणमें प्रत्येक समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होकर अन्य समयमें स्थित जीवोंके परिणामोंके सदृश नहीं होते हैं, उनकी अपूर्वकरण संज्ञा है। जिस करणमें एक समयमें स्थित जीवोंके परिणाममें भेद नहीं है और भिन्न समयमें स्थित जीवोंका परिणाम भिन्न ही होता है वह अनिवृत्तिकरण कहलाता है। इस प्रकार ये तीन प्रकारके फरण है । इनके सिवायसे चौथी उपशामनाता है। जिस कालविशेषमें दर्शनमोहनीय उपशान्त होकर अवस्थित रहता है उसे उपशामनाडा कहते हैं। उपशामनाया कहो या उपशम सम्यग्दृष्टिका काल कहो दोनोंका एक ही अर्थ है।
आगे इन तीन करणोंका विशेष विचार करते हुए अषःप्रवृत्तकरणके विषयमें दो अनुयोगद्वारोंका निज किया दो अनयोगदार है-अनकृष्टिप्ररूपणा और अल्पबहत्व । उसमें सर्वप्रथम बहुत्वके साधनरूपसे अनुकृष्टिका निर्देश किया है। अधःप्रवृत्तकरणका कुल काल अन्तर्मुहूर्त है और परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण है। उसमें प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समयतक पृथक-पृथक् एक-एक समयमें स्थितिबन्धापसरण आदिके कारणभूत और उत्तरोत्तर छह वृद्धिक्रमसे अवस्थित असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं। परिपाटी क्रमसे विरचित इन परिणामोंके पुनरुक्त और अपुनरुक्त भावका अनुसन्धान करना अनुकृष्टि कहलाती है। यद्यपि यह अनुकृष्टि संसारके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जाकर व्युच्छिन्न होती है, क्योंकि जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंकी ऊपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें अनुवृत्ति देखी जाती है। किन्तु यहाँ ऐसा न होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवस्थित स्थान व्यतीत होनेपर अनुकृष्टिका विच्छेद हो जाता है। यह अन्तर्मुहुर्तप्रमाण अवस्थित स्थान अध:प्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। यथा-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें नाना जीवोंकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं। पुनः दूसरे समयमें प्रारम्भके कुछ परिणामोंको छोड़कर वे ही परिणाम अन्य अपूर्व परिणामोंके साथ कुछ अधिक होते हैं। यहाँ अधिकका प्रमाण, असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानों में अन्तर्मुहर्तका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे, उतना है। इसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयतक प्रत्येक समयके परिणाम पिछले समयके परिणामोंसे साधिक होते जाते हैं। आगे इन परिणामोंकी किस प्रकार अनुकृष्टि रचना बनती है आदि सब बातोंका विशेष खुलासा मूलमें विस्तारसे किया ही है। इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए। इसीप्रकार इन परिणामोंमें विशुद्धिकी अपेक्षा स्वस्थान और परस्थानका अवलम्बन लेकर अल्पबहत्व भी जान लेना चाहिए। विशद्धिकी अपेक्षा परस्थान अल्पबहत्वका संदष्टिद्वारा पृ० २५१ में स्पष्ट स्पष्टीकरण किया है, इसलिए इसे उसके आधारसे जान लेना चाहिए। यहां इतना संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि उक्त संदृष्टिमें विवक्षित किस स्थानसे दूसरे किस स्थानकी विशद्धि अधिक है यह बतलानेके लिए जो वाणके चिह्न दिये हैं वे भूलसे उलटे लग गये है, अतः उन्हें वहीं अपने अपने स्थानपर उलट देना चाहिए । ताकि परस्थान विशुद्धिके अल्पबहुत्वका ज्ञान करने में भ्रम न होने पाये।
दूसरा अपूर्वकरण है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है जो अधःप्रवृत्तकरणके कालसे संख्यातवें भागप्रमाण है। इसके प्रत्येक समयमें नानाजीवोंकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं जो प्रत्येक समयमें विसदृश ही होते हैं । अर्थात् प्रत्येक समयके परिणाम दूसरे समयके परिणामोंसे भिन्न ही होते हैं । यहाँ प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक होती है। उससे उसी समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। प्रथम समयकी इस उत्कृष्ट विशुद्धिसे दूसरे समयको जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। उससे उसी समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इसप्रकार विशुद्धिका यह अल्पबहुत्व इस करणके अन्तिम समयतक जानना चाहिए। यहाँ अधःप्रवृत्तकरणके समान परिणामोंकी अनुकृष्टि रचना न होनेसे निर्वर्गणाकाण्डक भी.
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४ ) नहीं बनता, अतः यहाँ प्रत्येक समयमें निर्वर्गणा होती है। अर्थात् यहाँ एक समयके परिणामोंमें ही नाना जीवोंकी अपेक्षा सदृशता-विसदृशता बनती है। विवक्षित किसी भी समयके परिणामोंकी उससे भिन्न अन्य किसी भी समयके परिणामोंके साथ सदृशता नहीं बनती। दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवोंके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे कतिपय विशेषताएँ प्रारम्भ हो जाती है-(१) स्थितिकाण्डकघात । प्रत्येक स्थिति
के घातका काल अन्तर्महर्त है। इतने कालके भीतर सत्तामें स्थित आयकर्मके सिवाय अन्य कर्मोंकी स्थितिमेंसे एक काण्डकप्रमाण स्थितिका फालिक्रमसे घातकर उस अन्तर्महर्तके अन्तमें उन कर्मोंकी स्थितिको उतना कम कर देता है। इसप्रकार अपूर्वकरणके अन्तर्मुहुर्तप्रमाण कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकघात होकर अन्तमें विवक्षित सब कर्मोकी वह स्थिति अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्राप्त स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाण शेष रहती है। यहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें एक जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है और उत्कृष्ट काण्डक सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण होता है। इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण मूलसे समझ लेना चाहिए । स्थितिकाण्डकघात अधःप्रवृत्तकरणमें नहीं होता। .
(२) स्थितिबन्ध जो अधःप्रवृत्तकरणमें होता था उससे यहाँ अपूर्व होता है। तात्पर्य यह है कि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें ही उससे पहले बँधनेवाले स्थितिबन्धसे पल्योपमके संख्यातवें भागकम स्थितिका यह जीव बन्ध करता है और इतना स्थितिबन्ध अन्तर्महर्तकालतक करता रहता है । पुनः इस अन्तर्मुहूर्तके समाप्त होनेपर पल्योपमके संख्यातवें भागकम दूसरे स्थितिबन्धका प्रारम्भकर उसका भी अन्तर्मुहुर्तकालतक बन्ध करता रहता है। इसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यात हजार खण्डप्रमाण स्थितिबन्धापसरण अध:प्रवृत्तकरणके कालके भीतर होते हैं। तथा अपूर्वकरणके प्रथम समयमें पिछले स्थितिबन्धसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण कम स्थितिका बन्ध प्रारम्भ होकर एक अन्तर्मुहर्तकालतक वह होता रहता है । पुनः अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। इसप्रकार इस करणके कालके भीतर भी संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार इन स्थितिबन्धापसरणोंका कथन अनिवत्तिकरणमें भी करना चाहिए । एक स्थितिकाण्डकघातका जितना काल होता है उतना ही एक स्थितिबन्धापसरणका काल होता है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
(३) यहाँ अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर ही तीनों करणोंके कालके भीतर जो अप्रशस्त कर्म बँधते है उनका प्रत्येक समयमें द्विस्थानीय अनुभागबन्ध होकर भी वह अनन्तगुणा हीन होता रहता है और जो प्रशस्त कर्म बँधते हैं उनका प्रत्येक समयमें चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध होकर भी वह अनन्तगुणा अधिक होता रहता है। दर्शनमोहनीयको उपशमना करनेवाला जीव आयुकर्मका बन्ध नहीं करता, इसलिए उसकी अपेक्षा यह तथा स्थितिकाण्डकघात आदि कोई कथन नहीं जानना चाहिए।
४. अपूर्वकरणके प्रथम समयसे सत्तामें स्थित अप्रशस्त कर्मोका अनुभाग काण्डकघात होने लगता है। यहाँ एक-एक अनुभागकाण्डकघातका काल अन्तर्मुहूर्त होकर भी वह स्थितिकाण्डकघातके संख्यात हजारवं भागप्रमाण है। अर्थात् एक स्थितिकाण्डकघातके कालके भीतर संख्यात हजार अनुभागकाण्डकघात हो जाते हैं। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणमें भी जानना चाहिए। यह अनुभागकाण्डकघातविधि अधःप्रवृत्तकरणमें नहीं होती।
५. इसी प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समयसे आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप प्रारम्भ हो जाता है। आयुकर्मका गुणश्रेणिनिक्षेप क्यों नहीं होता इस प्रश्नका समाधान करते हुए बतलाया है कि ऐसा स्वभावसे ही नहीं होता। गुणश्रेणिनिक्षेपका प्रमाण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ अधिक है। इन दोनों करणोंके कालसे कुछ अधिकका प्रमाण कितना है इस प्रश्नका समाधान करते हए बतलाया है कि अनिवृत्तिकरणका जितना काल है उसका संख्यातवां भाग कुछ अधिकका प्रमाण हैं ।
णश्रेणिनिक्षेपको विधि मल (० २६५ ) से जान लेनी चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ गलितावशेष गुणश्रेणिनिक्षेप होता है। गुणश्रेणिनिक्षेपके प्रथम समयसे लेकर जैसे-जैसे एक-एक समय व्यतीत होता जाता है वैसे ही वैसे गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम भी उत्तरोत्तर कम होता जाता है । इसीका नाम गलितावशेष गुणश्रेणिनिक्षेप है।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५ ) इस प्रकार उक्त विशेषताओंके साथ अपूर्वकरणके कालको समाप्त कर यह जीव अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है । इसका भी काल अन्तर्मुहूर्त है । परन्तु यह काल अपूर्वकरणके कालके संख्यातवें भाग प्रमाण है। यहाँ प्रत्येक समयमें एक ही परिणाम होता है। अन्य वे सब विशेषताएँ यहाँ भी पाई जाती हैं जो अपूर्वकरणमें होती हैं। विशेष स्पष्टीकरण मूलसे जान लेना चाहिए। इस प्रकार अनिवृत्तिकरणके संख्यात बहभागप्रमाण कालके जाने पर यह जीव अन्तरकरण क्रियाके करनेके लिए उद्यत होता है। यदि अनादि मिथ्यादृष्टि है तो एकमात्र मिथ्यात्वको अन्तरकरणक्रिया करता है और सादि मिथ्यादृष्टि होकर भी मिथ्यात्वके साथ सम्यग्मिथ्यात्वको सत्तावाला है तो मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वको अन्तरकरणक्रिया करता है और यदि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीनोंकी सत्तावाला है तो तीनोंकी अन्तरकरण क्रिया करता है । जिस समय अन्तरकरण क्रियाका प्रारम्भ करता है उस समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणके कालके बराबर स्थिति निषेकोंको छोड़कर उससे ऊपरके अन्तर्महर्तप्रमाण निषेकोंका अभाव करना अन्तरकरण का यहाँ जिन निषेकोंका अभाव कर अन्तर किया जाता है उनसे नीचे अर्थात पूर्वके सब निषेकोंकी प्रथम स्थिति संज्ञा है और उनसे ऊपरके सब निषेकोंको द्वितीय स्थिति संज्ञा है। अन्तरके लिए ग्रहण किये गये निषेकोंका इन्हीं दोनों स्थितियों में निक्षेप होता है और इस प्रकार अन्तर्मुहर्त कालमें अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न हो जाती है। यह अन्तरकरण क्रियाका काल एक स्थिति काण्डकघातके कालके बराबर है। इस प्रकार जब यह अन्तरकरण क्रिया कर लेता है तब वहाँसे लेकर उपशामक कहा जाने लगता है । यद्यपि यह अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे ही उपशामक है तो भी यहाँसे उसकी यह संज्ञा विशेषरूपसे हो जाती है। इसके बाद जब तक मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति आवलि-प्रत्यावलि प्रमाण शेष रहती है तब तक आगाल-प्रत्यागाल होते रहते हैं। द्वितीय स्थितिके कर्म परमाणुओंका अपकर्षण होकर प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त होना आगाल कहलाता है और प्रथम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण होकर द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त होना प्रत्यागाल कहलाता है। जब मिथ्यात्वको प्रथम स्थिति आवलि-प्रत्यावलिप्रमाण शेष रहती है तबसे मिथ्यात्वका गुणश्रेणिनिक्षेप नहीं होता। (यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता होने पर उनका भी ग्रहण कर लेना चाहिए । ) आयुकर्मके सिवाय शेष कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप होता रहता है । यद्यपि मिथ्यात्वका गुणश्रेणिनिक्षेप तो नहीं होता, परन्तु उसकी प्रत्यावलिमेंसे एक आवलिकाल तक उदीरणा होती रहती है। जब एक आवलिकाल शेष रहता है तब वहाँसे मिथ्यात्वका उदीरणारूपसे घात नहीं होता। परन्तु जब तक मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति शेष रहती है तब तक उसका स्थिति-अनुभाग काण्डकघात होता रहता है। हाँ प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके बन्धके साथ उनकी भी परिसमाप्ति हो जाती है। यह अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव है। इसके अगले समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। यहां दर्शनमोहनीयका उदयके बिना अवस्थित रहना ही उपशम कहलाता है। यहाँ दर्शनमोहनीयका सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योंकि यहां उसका संक्रम और अपकर्षण पाया जाता है। इसलिए स्वरूप सन्मुख हो यह जीव अन्तरमें प्रवेश करनेके प्रथम समयसे लेकर ही प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। और जिस समय यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दष्टि होता है तभी मिथ्यात्वके तीन भाग करता है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । इनमेंसे प्रथम दो भाग सर्वघाति हैं और अन्तिम भाग देशघाति है। विशेष विचार मूलसे जान लेना चाहिए। यहाँ इतना विशेष और जानना चाहिए कि उक्त सम्यग्दृष्टि जीवके गुणसंक्रमके काल तक मिथ्यात्वके सिवाय शेष कर्मोका स्थितिधात, अनुभागघात और गुणश्रेणिनिक्षेप होता रहता है।
आगे पच्चीस पदवाला अल्पबहुत्व बतलाकर इस अर्थाधिकारसे सम्बन्ध रखनेवाली १५ सूत्रगाथाएँ दी गई हैं । प्रथम गाथामें बतलाया है कि चारों गतियोंका संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सकता है। दूसरी गाथामें चारों गतियोंके उक्त जीवोंका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है । तीसरी गाथामें बतलाया है कि दर्शन-मोहका उपशम करनेवाले जीवं व्याघातसे रहित होते हैं। इस क्रियाके चालू रहते हुए उपसर्गादि कितने भी व्याघातके कारण उपस्थित हों, यह जीव इस क्रियाको बिना रुकावटके
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ ) सम्पन्न करता है । बीचमें यह जीव सासादन गुणस्थानको भी नहीं प्राप्त होता। किन्तु दर्शनमोहनीयके उपशान्त होने पर उपशम सम्यक्त्वके कालमें अधिक से अधिक छह आवलि और कम से कम एक समय शेष रहने पर यह जीव अनन्तानुबन्धीमें से किसी एक प्रकृतिके उदयसे सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है। किन्तु दर्शनमोहनीयके क्षीण होने पर सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति नहीं होती। चौथी गाथामें बतलाया है कि वर्शनमोहनीयके उपशमका प्रस्थापक साकार उपयोगवाला ही होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्यम अवस्थावालेके लिए यह नियम नहीं है। इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण इस सूत्रगाथाकी टीकाके अन्तमें किया ही है, अतः इसे वहाँसे जान लेना चाहिए। चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग और बक्रियिककाययोग इन वस योगोंमेंसे किसी भी योगमें तथा मनुष्यों और तिर्योंकी अपेक्षा कम से कम तेजो केश्याको प्राप्त यह जीव दर्शनमोहका उपशामक होता है। पांचवीं गाथामें बतलाया है कि उक्त मिथ्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहका उपशम करते समय नियमसे मिथ्यात्वकर्मका उदय होता है। किन्तु दर्शनमोहकी उपशांत अवस्थामें मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं होता। तदनन्तर उसका उदय भजनीय है-होता भी है और नहीं भी होता। छटी गाथामें बतलाया है कि उपशम सम्यग्दष्टिके दर्शनमोहनीयके तीनों कर्म सभी स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उपशान्त अर्थात् उदयके अयोग्य रहते हैं। इस कालमें किसी भी प्रकृतिका उदय नहीं होता तथा वे सब स्थितिविशेष नियमसे एक अनुभागमें अवस्थित रहते है। जघन्य स्थितिविशेषमें जो अनुभाग होता है वही सब स्थितिविशेषोंमें पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। सातवीं गाथामें बतलाया है कि जब तक यह जीव दर्शनमोहनीयका उपशम करता है तब तक मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होता है। किन्तु उसकी उपशान्त अवस्थामें मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता। बादमें जब उपशान्त अवस्थाके समाप्त हो जानेके बाद यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें वह जीव आता है तो मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध होता है अन्यथा मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं भी होता। आठवीं गाथामें दर्शनमोहनीयका अबन्धक कौन जीव है इसका नियम किया गया है। नौवीं गाथामें सर्वोपशमसे उपशान्त अन्तर्मुहर्तकाल तक रहकर बादमें वर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है यह बतलाया गया है। यहाँ सर्वोपशमका तात्पर्य दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंके उदयाभावरूप उपशमसे है। दसवीं गाथामें बतलाया है कि यदि अनादि मिथ्यादृष्टि प्रथमबार सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो वह सर्वोपशमसे ही उसे प्राप्त करता है। यदि एक बार सम्यकत्वको प्राप्त करनेके बाद बहुत काल व्यतीत हो गया है तो वह भी सर्वोपशमसे ही उसे प्राप्त करता है। और यदि जल्दी ही पुनः पुनः उसे प्राप्त करता है तो वह उसे देशोपशमसे भी प्राप्त करता है और.सर्वोपशमसे भी प्राप्त करता है। यदि वेदक कालके भीतर प्राप्त करता है तो देशोपशमसे उसे प्राप्त करता है और वेदक कालके निकल जानेके बाद प्राप्त करता है तो वह उसे सर्वोपशमसे प्राप्त करता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रसंगसे सर्वोपशमका अर्थ दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमें से किसी भी प्रकृतिका उदय न होकर अनुदयरूप रहना अर्थ लिया गया है। साथ ही अनन्तानुबन्धीका भी अनुदय होना चाहिये। ग्यारहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि सम्यक्त्वके प्रथम लाभके अनन्तर पूर्व नियमसे मिथ्यात्व होता है किन्तु द्वितीयादि बार लाभके अनन्तर पूर्व मिथ्यात्व भजनीय है । बारहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि जिसके दर्शन मोहनीयकी तीन या दो प्रकृतियोंकी सत्ता होती है उसके यथासंभव दर्शनमोहनीयका संक्रम होता भी है और नहीं भी होता। किन्तु जिसके एक ही प्रकृतिकी सत्ता होती है उसके उस
संक्रम नहीं होता। तेरहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि सम्यग्दष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका नियमसे प्रदान करता है और कदाचित् नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भावका भी श्रद्धान करता है। चौदहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि मिथ्यादृष्टि जीव गुरुके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका नियमसे श्रद्धान नहीं करता। किन्तु असद्भावका उपदेश मिले चाहे न भी मिले तो भी श्रद्धान करता है। पन्द्रहवीं सूत्रगाथामें बतलाया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके साकार और अनाकार दोनों प्रकारका उपयोग पाया जाता है। किन्तु विचार पूर्वक अर्थको ग्रहण करते समय उसके साकार उपयोग ही होता है ।
यह दर्शनमोहोपशामनासे सम्बन्ध रखनेवाली १५ सूत्रगाथाओंका संक्षिप्त तात्पर्य है। विशेष स्पष्टी
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २७ ) करणके लिए मूल पर दृष्टिपात करना चाहिए। यहाँ सूत्रगाथा ९८ और १०९ में कहाँ किस प्रकार कौनकौन उपयोग सम्भव है इस विषयका निर्देश किया है सो इसे समझनेके लिए अद्धापरिमाणका निर्देश करने वाली ( १५ से २० तक) सूत्रगाथाओं पर दृष्टिपात करके प्रकृत विषयको समझ लेना चाहिए । विशेष खुलासा उक्त सूत्रगाथाओंके व्याख्यानके समय कर ही आये हैं।
यहाँ इस अर्थाधिकारकी १५ सूत्र गाथाओंमें से कषायप्राभूतकी १०४, १०७, १०८ और १०९ क्रमांकवाली गाथाएँ कर्मप्रकृति (श्वे.) में २३, २४, २५ और २६ क्रमांकसे पाई जाती है। उनमेंसे १०४ क्रमांकवाली गाथाका पूर्वार्ष ही मिलता-जुलता है। उसमें भी द्वितीय चरणमें अन्तर है। जहां कषायप्राभूतमें 'वियट्टेण' पाठ है वहाँ कर्मप्रकृतिमें 'विगिट्ठो य' पाठ है। इससे दोनोंके अर्थ में भी अन्तर हो गया है। कषायप्राभूतके उक्त पाठसे जहाँ यह ज्ञात होता है कि सम्यग्दृष्टि जीव यदि मिथ्यात्वमें जाकर पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो वह बहुत वीर्घ कालके बाद ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेका अधिकारी होता है। वहाँ कर्मप्रकृतिके उक्त पाठका उसके चूणिकार और दूसरे टीकाकारोंने जो अर्थ किया है उससे मात्र यह ज्ञात होता है कि यह प्रथमोशम सम्यक्त्व बड़े अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। यहां यह अन्तर्महत किसकी अपेक्षा बड़ा लिया गया है इसका खुलासा मलयगिरिने इन शब्दों में किया है'प्रथमस्थित्यपेक्षया विप्रकर्षश्च' अर्थात् प्रथम स्थितिकी अपेक्षा प्रथमोपशम सम्यक्त्वका यह काल बड़ा है। इस प्रकार उक्त गाथाके पूर्वार्धमें पाठ भेद होनेसे उसका उत्तरार्ध भी बदल गया है।
कर्मप्रकृतिकी २४ क्रमांककी 'सम्मबिट्टी नियमा' और २५ क्रमांककी 'मिच्छद्दिट्टी नियमा' गाथाएँ रचना और अर्थ दोनों दृष्टियोंसे कषायप्राभृतकी १०७ और १०८ क्रमांककी गाथाओंका पूरा अनुसरण करती हैं । मात्र कर्मप्रकृतिकी २६ क्रमांककी गाथा कषाययाभूतकी १०९ क्रमांककी गाथाका लगभग शब्दशः अनुसरण करती हुई भी अर्थकी अपेक्षा कुछ अन्तर है।
जयधवला टीकाकारने इस गाथाके तीसरे चरणमें आये हुए 'वंजणोग्गहम्मि' 'पदका 'विचारपूर्वकार्थग्रहणावस्थायाम्'-'विचार पूर्वक अर्थ ग्रहणकी अवस्थामें' अर्थ किया है। जब कि कर्मप्रकृतिके चूर्णिकारने इस पदका अर्थ 'व्यञ्जनावग्रह किया है। चूर्णिका समग्र पाठ इस प्रकार है
'अह वंजणोग्गहम्मि उ' त्ति–जति सागारे होति वंजणोग्गहो होइ ण अत्थोग्गहो होइ। जम्हा संसयनाणी अव्यत्तनाणी वुच्चति ।
चूर्णिकारके इस कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ईहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी बात तो छोड़िये अर्थावग्रह भी स्वीकार नहीं करते रहे। यहाँ अव्यक्त स्वरूप संशयज्ञानके अर्थ में व्यंजनावग्रह शब्दका प्रयोग हुआ है ऐसा उसके उक्त चूर्णिमें किये गये विशेष व्याख्यानसे प्रतीत होता है। इस बातको मलयगिरिने अपनी टीकामें इन शब्दोंमें स्वीकार किया है-संशयज्ञानिप्रख्यता च व्यञ्जनावग्रह एवेति।
कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्योंकी ही कृति है
श्वेताम्बर मुनि श्रीगुणरत्न विजयजीने कर्म साहित्य तथा अन्य कतिपय विषयोंके अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। उनमेंसे एक खवगसेढी ग्रंथ है। इसकी रचनामें अन्य ग्रन्थोंके समान कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिका भरपूर उपयोग हुआ है। वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परामें ऐसा कोई एक ग्रन्थ नहीं है जिसमें क्षपकश्रेणीका सांगोपाङ्ग विवेचन उपलब्ध होता हो। श्री मुनि गुणरत्नविजयजीने अपने सम्पादकीयमें इस तथ्यको स्वयं इन शब्दोंमें स्वीकार किया है-समाप्त थया वाद क्षपकश्रेणीने विषय संस्कृतमा गद्यरूपे लखवो शरू कर्यो. ४थी ५ हजार श्लोक प्रमाण लखाण थयाबाद मने विचार आव्यो के जुदा ग्रन्थोंमां छूटी छपाई वर्णवायेली क्षपक श्रेणी व्यवस्थित कोई एक ग्रन्थमां जोवामा आवती नथी. जैनशासनमां महत्त्वनी गणती 'क्षपक श्रेणी' ना जुदा जुदा ग्रन्थोंमां संगृहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओंने घणो लाभदायी बने" उनके इस वक्तव्यसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस ग्रंथके प्रणयनमें जहाँ उन्हें कषाय
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८ )
प्राभृत और उसकी चूणिका भरपूर सहारा लेना पड़ा वहाँ उनके सहयोगी तथा प्रस्तावना लेखक श्री श्वे. मुनि हेमचन्द्र विजयजी कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको अपने मनगड़न्त तर्कों द्वारा श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका संवरण न कर सके। आगे हम उनके उन कल्पित तोपर संक्षेपमें क्रमसे विचार करेंगे जिनके आधारसे उन्होंने इन दोनोंको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है। उसमें भी सर्वप्रथम हम मूल कषायप्राभृतके ग्रन्थ परिमाणपर विचार करेंगे, क्योंकि श्वे. मुनि हेमचन्द्र विजयजीने अपनी प्रस्तावना ८ पृ. २९ में कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारोंमें विभक्त १८० गाथाओंके अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओंके प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्त की है। किन्तु उसके चणि सूत्रोंपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि आचार्य श्री यतिवृषभके समक्ष पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त १८० सूत्र गाथाओंके समान कषायप्राभूतके अंगरूपसे उक्त ५३ सूत्रगाथायें भी रही हैं। इनपर कहीं उन्होंने चूणिसूत्रोंकी रचना की है और कहीं उन्हें प्रकरणके अनुसार सूत्ररूपमें स्वीकार किया है। जिनके विषयमें श्वे, मुनि हेमचन्द्र विजयजीने प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्त की है उनमेसे 'पुवम्मि पंचमम्मि दु' यह प्रथम सूत्र गाथा है जो ग्रंथके नाम निर्देशके साथ उसकी प्रामाणिकता को सूचित करती है। इसपर चूर्णिसूत्र है-'णाणप्पवादस्स पूव्वस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहडस्स' इत्यादि । अब यदि इसे कषायप्राभृतकी मूल गाथा नहीं स्वीकार किया जाता है तो (१) एक तो ग्रंथका नामनिर्देश आदि किये विना ग्रंथके १५ अर्थाधिकारोंमें से कुछका निर्देश करनेवाली नं० १३ की 'पेज्ज-दोसविहत्ती' इत्यादि सूत्रगाथासे हमें ग्रंथका प्रारम्भ माननेके लिये बाध्य होना पड़ता है जो सङ्गत प्रतीत नहीं होता । (२) दूसरे उक्त प्रथम गाथाके अभावमें नं०१३ की उक्त सूत्रगाथाके पूर्व चूर्णिसूत्रों द्वारा पाँच प्रकारके उपक्रमके साथ 'अत्थाहियारो पण्णारसविहो' इस प्रकारका निर्देश भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उक्त प्रकारसे चणि सूत्रोंकी रचना तभी संगत प्रतीत होती है जब उनके रचे जानेवाले ग्रंथका मल या चूर्णिमें नामोल्लेख किया गया हो ।
___ इस प्रकार सूक्ष्मतासे विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' इत्यादि गाथा प्रक्षिप्त न होकर अन्य १८० गाथाओंके समान ग्रंथकी मूल गाथा ही है।
दूसरी सूत्रगाथा है-'गाहासदे असीदे' इत्यादि । इसके पूर्व पाँच प्रकारके उपक्रमके भेदोंका निर्देश करते हुए अन्तिम चूणिसूत्र है-'अत्थाहियारोपण्णारसविहो।' यह वही गाथा है जिसके आधारसे यह कहा जाता है कि कषायप्राभृतको कुल १८० सूत्र गाथाएं हैं। अब यदि इसे प्रक्षिप्त माना जाता है तो ऐसे कई प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका सम्यक् समाधान इसे मूल गाथा माननेपर ही होता है । यथा
(१) प्रथम तो गुणधर आचार्यको कषायप्राभृतके १५ ही अर्थाधिकार इष्ट रहे हैं इसे जाननेका एकमात्र उक्त सूत्रगाथा ही साधन है, अन्य नहीं । क्रमांक १३ और १४ सूत्र गाथाएँ मात्र अर्थाधिकारोंका नामनिर्देश करती है। वे १५ ही हैं इसका ज्ञान मात्र इसी सूत्र गाथासे होता है और तभी क्रमांक १३ और १४ सूत्रगाथाओंके बाद 'अत्थाहियारोपण्णारसविहो अण्णण पयारेण' इस प्रकार चूणिसूत्रकी रचना उचित प्रतीत होती है।
(२) दूसरे उक्त गाथासे ही हम यह जान पाते हैं कि कषायप्राभृतको सब गाथाएँ उसके १५ अर्थाधिकारोंके विवेचनमें विभक्त नहीं है। किन्तु उनमेंसे कुल १८० गाथाएँ ही उनके विवेचनमें विभक्त हैं। उक्त गाथा प्रकृतका विधान तो करती है, अन्यका निषेध नहीं करती। यहाँ प्रकृत १५ अर्थाधिकार हैं। उनमें १८० सूत्रगाथाएं विभक्त हैं इतना मात्र निर्देश करनेके लिए आचार्य गुणधरने इस सूत्रगाथाकी रचना की है। १५ अर्थाधिकारोंसे सम्बद्ध गाथाओंका निषेध करनेके लिए नहीं।
इस प्रकार इस दूसरी सूत्रगाथाके भी ग्रंथका मूल अंग सिद्ध हो जानेपर इससे आगेकी क्रमांक ३ से लेकर १२ तकको १० सूत्रगाथाएं भी कषायप्राभृतका मूल अंग सिद्ध हो जाती है, क्योंकि उनमें १५ अर्था
सम्बन्धी १८० गाथाओंमेंसे किस अर्थाधिकारमें कितनी सूत्रगाथाएँ आई है एकमात्र इसीका विवेचन किया गया है जो उक्त दूसरी सूत्रगाथाके उत्तरार्धके अनुसार ही है। उसमें उन्हें सूत्रगाथा कहा भी गया है । यथा-'वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
हा
( २९ ) इसी प्रकार संक्रम अधिकारकी जो 'अट्ठावीस' इत्यादि ३५ सूत्रगाथाएं आई हैं वे भी मूल कषायप्राभृत ही हैं और इसीलिए आचार्य यतिवृषभने उनके प्रारम्भमें 'एत्तो पयडिट्ठाणसंकमो । तस्स पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्कित्तणा' इस चूर्णिसूत्रको रचनाकर और उनके अन्तमें 'सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए' इस चणिसूत्रकी रचनाकर उन्हें सूत्ररूपमें स्वीकार किया है ।
इस प्रकार सब मिलाकर उक्त ४७ सूत्रगाथाओंके मूल कषायप्राभूत सिद्ध हो जानेपर क्रमांक १५ से लेकर 'आवलिय अणायारे' इत्यादि ६ सूत्रगाथाएँ भी मल कषायप्राभत ही सिद्ध होती हैं, क्योंकि यद्यपि आचार्य यतिवृषभने इनके प्रारम्भमें या अन्तमें इनकी स्वीकृति सूचक किसी चूणिसूत्रकी रचना नहीं की है । फिर भी समग्र कषायप्राभूतपर दृष्टि डालनेसे और खासकर उपशमना-क्षपणा प्रकरणपर दृष्टि डालनेसे यही प्रतीत होता है कि समग्र भावसे अल्पवहत्वकी सूचक इन सूत्रगाथाओंकी रचना स्वयं गुणधर आचार्यने ही की होगी। इसके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर्थाधिकारकी क्रमांक ९८ गाथापर दृष्टिपात कीजिए।
इतने विवेचनसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभको ये मूल कषायप्राभृत रूपसे ही इष्ट रही हैं । अतः सूत्रगाथाओंके संख्याविषयक उत्तरकालीन मतभेदोंको प्रामाणिक मानना और इस विषयपर टीक-टिप्पणी करना
।। आचार्य वीरसेनने गाथाओंके संख्याविषयक मतभेदको दूर करनेके लिये जो उत्तर दिया है उसे इसी संदर्भमें देखना चाहिए।
इस प्रकार श्वे. मनि हेमचन्द्र विजयजीने कषायप्राभतका परिमाण कितना है इस पर खवगसेढि ग्रन्थकी अपनी प्रस्तावनामें जो आशंका व्यक्त की है उसका निरसन कर अब आगे हम उनके उन कल्पित तर्कोपर सांगोपांग विचार करेंगे जिनके आधारसे उन्होंने कषायप्राभतको श्वेताम्बर आम्नायका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है।
(१) इस विषयमें उनका प्रथम तर्क है कि दिगम्बर ज्ञान भण्डार मडविद्री में कषायप्राभूत मूल और उसकी चणि उपलब्ध हई है, इसलिए वह दिगम्बर आचार्यकी कृति है यह निश्चय नहीं किया जा सकता। (प्र० पृ० ३०)
किन्तु कषायप्राभूत मूल और उसकी चूणि ये दोनों मडविद्रीसे दिगम्बर ज्ञानभण्डारमें उपलब्ध हुए हैं, मात्र इसीलिए तो किसीने उन दोनोंको दिगम्बर आचार्योंकी कृति लिखा नहीं है और न ऐसा है ही। व दिगम्बर आचार्योंकी कृति हैं इसके अनेक कारण हैं। उनमेंसे एक कारण एतद्विषयक ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर आचार्योंकी शब्दयोजना परिपाटीसे भिन्न उसमें निबद्ध शब्दयोजना परिपाटी है। यथा
(अ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये सप्ततिकाचणि कर्मप्रकृति और पंचसग्रह आदिमें सवत्र जिस अर्थमें 'दलिय' शब्दका प्रयोग हआ है उसी अर्थमें दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभृत्त आदिमें 'पदेसग्ग' शब्दका प्रयोग हुआ है । यथा'तं वेयंतो बितियकिट्टीओ ततियकिट्टीओ य दलियं घेत्तूणं सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेइ ।'
सप्ततिका चूर्णि पृ० ६६ अ०। ( देखो उक्त प्रस्तावना पृ० ३२ । ) 'इच्छियठितिठाणाओ आवलियं लंघऊण तद्दलियं । सव्वेसु वि निक्खिवइ ठितिठाणेसु उवरिमेसु ॥ २॥
. -पंचसंग्रह उद्वर्तनापवर्तनाकरण 'उवसंतद्धा अंते विहिणा ओकड्डियस्स दलियस्स। अज्झवसाणणुरूवस्सुदओ तिसु एक्कयरयस्स ॥ २२॥'
-कर्मप्रकृति उपशमनाकरण पत्र १७ अब दिगम्बर परम्पराके ग्रंथों पर दष्टि डालिए
'विदियादी पूण पढमा संखेज्जगणा भवे पदसग्गे। विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसाहिया ॥ १७० ॥' क० प्रा० मूल
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३० ) 'ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओ णाम करेदि । -कषाय प्राभूत चूणि मूल पृ० ८६२ । लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि।
षट्खण्डागम धवला पु० ६. पृ० ३७९ (आ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पञ्चसंग्रहमें 'अवरित' के लिए 'अजय' या 'अजत' शब्दका प्रयोग हुआ है, किन्तु दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभूत और षट्खण्डागममें यह शब्द इस अर्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके लिये कर्मप्रकृति ( श्वे० ) पर दृष्टिपात कीजिए
वेयगसम्मद्दिट्ठी चरित्तमोहुवसमाइ चिट्ठतो।। अजउ देशजई वा विरतो व विसोहिअद्धाए।-उपश० करण ।। २७॥ इसी प्रकार पञ्चसंग्रहमें भी इस शब्दका इसी अर्थमें प्रयोग हुआ है।
इनके अतिरिक्त ,वरिसवर' 'उव्वलण' आदि शब्द हैं जो श्वेताम्बर परम्पराके कार्मिक ग्रन्थोंमें ही दृष्टिगोचर होते हैं, दिम्बर पराम्पराके ग्रंथोंमें नहीं। ये कतिपय उदाहरण हैं। इनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कषायप्राभृत और उसकी चूणि ये दोनों श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति न होकर दिगम्बर आचार्योंकी ही अमर कृति है।
. ( २ ) कषायप्राभृत और उसको चूर्णिको श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेके लिये उनका दूसरा तर्क है कि दिगम्बर आचार्यकृत ग्रन्थोंपर श्वेताम्बर आचार्योंकी टीकाएँ और श्वेताम्बर आचार्यकृत ग्रंथोंपर दिगम्बर आचार्योंकी टीकायें है आदि । उसी प्रकार कषायप्राभत मूल तथा उसकी चूणि पर दि० आचार्योंकी टीका होनेमात्रसे उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृतिरूपसे निश्चित नहीं किया जा सकता। ( प्रस्तावना पृ० ३० )
यह उनका तर्क है। किन्तु श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रन्थोंसे कषायप्राभूत और उसकी चूणिमें वर्णित पदार्थ भेदको स्पष्ट रूपसे जानते हुए भी वे ऐसा असत् विधान कैसे करते हैं इसका किसीको भी आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा । 'मुद्रित कषायप्राभूत चूणिनी प्रस्तावनामां रजू थपेली मान्यतानी समीक्षा' इस उपशीर्षकके अन्तर्गत उन्होंने पदार्थ भेदके कतिपय उदाहरण स्वयं उपस्थित किये है। इन उदाहरणोंको उपस्थित करते हुए उन्होंने कषायप्राभूतके साथ कषायप्राभत चणि कर्मप्रकृतिणि इन ग्रन्थोंके उद्धरण दिये है। किन्तु श्वेताम्बर पञ्चसंग्रहको दृष्टि पथमें लेने पर विदित होता है कि उक्त ग्रन्थ भी कषायप्राभूत चूणिका अनुसरण न कर कर्मप्रकृति चूर्णिका ही अनुसरण करता है । यथा
(१) मिश्रगुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृति भजनीय है इस मतका प्रतिपादन करनेवाली पञ्चसंग्रहके सत्कर्मस्वामित्वकी गाथा इस प्रकार है
सासयणंमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ॥ १३५ ।। कर्मप्रकृति चूणिसे भी इसी अभिप्रायकी पुष्टि होती है। (चूणि सत्ताधिकारप० ३५) [प्रदेशसंक्रम प.९४]
(२) संज्वलन क्रोधादिका जघन्य प्रदेशसंक्रम अन्तिम समयप्रबद्धका अन्यत्र संक्रम करते हुए क्षपकके अन्तिम समयमें सर्वसंक्रमसे होता है। यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है और यही मत श्वेताम्बर पंचसंग्रहका भी है। यथा
पुंसंजलणतिगाणं जहण्णजोगिस्स खवगसेढीए।
सगचरिमसमयबद्धं जं छुभइ सगंतिमे समए ॥ ११९ ।। (३) प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टिके, सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय मिथ्यात्वके तीन पुंज होनेपर एक आवलि काल तक सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रम नहीं होता यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है। पंचसंग्रह प्रकृति संक्रम गाथा ११ को मलयगिरि टीकासे भी इसी मतकी पुष्टि होती है। यथा
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्यैव चौपशमिकसम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिसत्कर्मणः आवलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न संक्रामति । -प्रकृति सं. पत्र १०
(४) पुरुषवेदकी पतद्ग्रहता कब नष्ट हो जाती है इस विषयमें कर्मप्रकृति चूर्णिकारका जो मत है उसी मतका निर्देश पंचसंग्रहणकी भलयगिरि टीकामें दृष्टिगोचर होता है। यथा
पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूपं आगालो व्यवच्छिद्यते, उदीरणा तु भवति, तस्मादेव समयादरभ्य षण्णां नोकषायाणां सत्कं दलिकं पुरुषवेदे न संक्रमयति ।
-पंच. चा० मो० ड० पत्र १९१ श्वे. पंचसंग्रहके ये कतिपय उद्धरण है जो मात्र कर्मप्रकृत्तिचूर्णिका पूरी तरह अनुसरण करते हैं, किन्तु कषायप्राभृत और उसकी चूणिका अनुसरण नहीं करते । इससे स्पष्ट है कि कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर आचार्योंने कभी भी अपनी परम्पराकी रचनारूपमें स्वीकार नहीं किया। यहां हमारे इस बातके निर्देश करनेका एक खास कारण यह भी है कि मलयगिरिके मतानुसार जिन पाँच ग्रन्थोंका पंचसंग्रहमें समावेश किया गया है उनमें एक कषायप्राभत भी है। यदि चन्द्रषिमहत्तरको पञ्चसंग्रह श्वेताम्बर आचार्यकी कृतिरूपमें स्वीकार होता तो उन्होंने जैसे कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिको अपनी रचनामें प्रमाणरूपसे स्वीकार किया है वैसे ही वे कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको भी प्रमाणरूपमें स्वीकार करते। और ऐसी अवस्थामें जिन-जिन स्थलोंपर उन्हें कषायप्राभूत और कर्मप्रकृतिमें पदार्थभेद दृष्टिगोचर होता उसका उल्लेख वे अवश्य करते। किन्तु उन्होंने ऐसा न कर मात्र कर्मप्रकृति और उसकी चूणिका अनुसरण किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि चन्द्रर्षि महत्तर कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर परम्पराका नहीं स्वीकार करते रहे।
__ यहाँ हमने मात्र उन्हीं पाठोंको ध्यानमें रखकर चर्चा की है जिनका निर्देश उक्त प्रस्तावनाकारने किया है। इनके सिवाय और भी ऐसे पाठ हैं जो कर्मप्रकृति और पंचग्रहमें एक ही प्रकारकी प्ररूपणा करते हैं। परन्तु कषायप्राभूत चूणिमें उनसे भिन्न प्रकारको प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है। इसके लिए हम एक उदाहरण उद्वेलना प्रकृतियोंका देना इष्ट मानेंगे। यथा
___ कषायप्राभृतचूर्णिमें मोहनीयकी मात्र दो प्रकृतियाँ उद्वेलना प्रकृतियां स्वीकार की गई हैं-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति । किन्तु पंचसंग्रह और कर्मप्रकृतिमें मोहनीयको उद्वेलना प्रकृतियोंकी संख्या २७ है। यथा दर्शनमोहनीय की ३, लोभसंज्वलनको छोड़कर १५ कषाय और ९ नोकषाय । कषायप्राभूतचूर्णिका पाठ
५८ सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स । (पृ० १०१) ३६ एवं चेव सम्मत्तस्स वि । (पृ० १९०) __पंचसंग्रह-प्रदेशसंक्रमका पाठ
एवं उव्वलणासंकमेण नासेइ अविरओहारं ।
सम्मोऽणमिच्छमीसे सछत्तीसऽनियट्टि जा माया ॥ ७४॥ इसके सिवाय पञ्चसंग्रहके प्रदेशसंक्रमप्रकरणमें एक यह गाथा भी आई है जिससे भी उक्त विषयकी पुष्टि होती है
सम्म-मीसाइमिच्छो सुरदुगवेउन्विछक्कमेगिदी।
सुहुमतसुच्चमणुदुर्ग अंतमुहुत्तेण अणियट्टी ॥७५ ॥ इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मिथ्यादृष्टि जीव उद्वेलना करता है, पंचानवे प्रकृतियोंकी सत्तावाला एकेन्द्रिय जीव देवद्विकको उद्वेलना करता है, उसके बाद वही जीव वैक्रियषट्ककी उद्वेलना करता है, सूक्ष्म त्रस अग्निकायिक और वायुकायिक जीव क्रमसे उच्चगोत्र और मनुष्यद्विकको उद्वेलना करता है तथा अनिवृत्तिबादर जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें पूर्वोक्त ३६ प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२ ) यहाँ पञ्चसंग्रहमें निरूपित पाठका उल्लेख किया है। कर्मप्रकृतिकी प्ररूपणा इससे भिन्न नहीं है। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पञ्चसंग्रहमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी परिगणना उद्वेलना प्रकृतियोंमें की गई है उसी प्रकार कर्मप्रकृतिमें भी उन्हें उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकार किया गया है। कर्मप्रकृति चूणिमें प्रदेशसत्कर्मकी सावि-अमादि प्ररूपणा करते हुए लिखा है___ अणताणुबंधीणं खवियकम्मंसिगस्स उव्वलंतस्स एगठितिसेसजहन्नगं पदेससंतं एगसमयं होति।
यह एक उदाहरण है । अन्य प्रकृतियोंके विषयमें मूल और चूणिका आशय इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। किन्तु जैसा कि पूर्व में निर्देश कर आये हैं कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर मोहनीयकी अन्य किसी प्रकृतिकी उद्वेलना प्रकृतिरूपसे परिगणना नहीं की गई है।
मतभेदसम्बन्धी दूसरा उदाहरण मिथ्यात्वके तीन भाग कौन जीव करता है इससे सम्बन्ध रखता है। श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें यह स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि दर्शनमोहकी उपशमना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व कर्मको तीन भागोंमें विभक्त करता है । पंचसंग्रह उपशमना प्रकरणमें कहा भी है
__ उवरिमठिइअणुभागं तं च तिहा कुणइ चरिममिच्छुदए।
देसघाईणं सम्म इयरेणं मिच्छ-मीसाइं ॥ २३ ॥ कर्मप्रकृति और उसकी चूणिमें लिखा है
तं कालं बीयठिई तिहाणुभागेण देसाइ त्थ ।
सम्मत्तं सम्मिस् मिच्छत्तं सव्वघाईओ॥ १९ ॥ चूर्णि-चरिमसमय मिच्छद्दिट्ठी से काले उवसमसम्मदिठ्ठि होहि त्ति ताहे बितीयट्टितीते तिहा अणुभागं करेति ।
अब इन दोनों प्रमाणोंके प्रकाशमें कषायप्राभूत चूणिपर दृष्टिपात कीजिए। इसमें प्रथम समयवर्ती प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीवको मिथ्यात्वको तीन भागोंमें विभाजित करनेवाला कहा गया है। यथा
१०२. चरिमसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसमसम्मत्तमोहणीओ १०३. ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा। १०४. पढमसमय उवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि ( पृ० ६२८)
यहाँ कर्मप्रकृति और उसकी चूणिके विषयमें इतना संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि गाथामें जो 'तं कालं बीयठिई' पाठ है उसका चूर्णिकारने जो अनुवाद किया है वह मूलानुगामी नहीं है। मालूम पड़ता है कि चूर्णिका प्रारम्भका भाग कषायप्राभृत चूर्णिका अनुकरणमात्र है। इतना अवश्य है कि कषायप्राभत चणिको वाक्यरचना पीछेके विषयविवेचनके अनुसन्धानपूर्वक की गई है और कर्मप्रकृति चूर्णिकी उक्त वाक्य रचना इससे पूर्वकी गाथा और उसकी चूर्णिके विषयविवेचनको ध्यानमें न रखकर की गई है। जहाँ तक कर्म प्रकृतिको उक्त मूल गाथाओंपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उन दोनों गाथाओं द्वारा दिगम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण किया गया है, किन्तु उक्त चूणि और उसकी टीका मूलका अनुसरण न करती हुईं श्वेताम्बर आचर्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण करती हैं। फिर भी यहाँ विसंगतिकी सूचक उल्लेखनीय बात इतनी है कि श्वेताम्बर आचार्योंने उक्त टीकाओंमें व अन्यत्र मिथ्यात्वके तीन हिस्से मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्वीकार करके भी उनमें मिथ्यात्वके द्रव्यका विभाग उसी समय न बतलाकर प्रथमोशम सम्यक्त्वके प्रथम समयमें स्वीकार किया है। यहाँ विसंगति यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें तो तीन भाग होनेको व्यवस्था स्वीकार की गई और उन तीनों भागोंमें कर्मपुंजका बॅटवारा प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयसे स्वीकार किया गया। .
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३३
इस प्रकार इन दोनों परम्पराओंके प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिपर दिगम्बर आचार्योंने टीका लिखो, केवल इसलिए हम उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृति नहीं कहते । किन्तु उनकी शब्दयोजना, रचना शैली, और विषय विवेचन दिगम्बर परम्पराके अन्य कार्मिक साहित्यके अनुरूप है, श्वेताम्बर परम्पराके कार्मिक साहित्य के अनुरूप नहीं, इसलिए उन्हें हम दिगम्बर आचार्योंकी अमर कृति स्वीकार करते हैं ।
अब आगे जिन चार उपशीर्षकोंके अन्तर्गत उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है उनपर क्रमसे विचार करते हैं—
( १ )
उन्होंने सर्वप्रथम 'दिगम्बर परम्पराने अमान्य तेवा कषायप्राभृत चूर्णि अन्तर्गत पदार्थो' इस उपशीर्षक अन्तर्गत क. प्रा. चूर्णिके ऐसे दो उल्लेख उपस्थित किये हैं जिन्हें वे स्वमतिसे दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध समझते हैं । प्रथम उल्लेख है - " सव्वलिंगेसु भज्जाणि ।” इस सूत्रका अर्थ है कि अतीत में सर्व लिंगोंमें बँधा हुआ कर्म क्षपकके सत्ता में विकल्पसे होता है । इस पर उक्त प्रस्तावना लेखकका कहना है कि 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने न पण होय चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां रहेल जीव पण क्षपक थई शके छे, एटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बर मान्यता थी विरुद्ध छे ।' आदि । लेखकने उक्त सूत्र परसे यह निष्कर्ष कैसे फलित कर लिया कि न पण होय, चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां कारण कि वर्तमानमें जो क्षपक है उसके अतीत कालमें कर्मबन्ध के उस लिंगमें बाँधा गया कर्म क्षपकके वर्तमान में सत्तामें नियमसे होता है या विकल्पसे होता है ? इसी अन्तर्गत शंकाको ध्यान में रख कर यह समाधान किया गया है कि 'विकल्पसे होता है ।'
अब सवाल यह है कि उक्त प्र. 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने रहेल जीव पण क्षपक थई शके छे ।' समय कौन-सा लिंग था,
इस परसे यह कहाँ फलित होता है कि वर्तमान में वह क्षपक है कि अपने सम्प्रदाय के व्यामोह और अपने कल्पित वेशसे अभिप्राय फलित करनेकी चेष्टा की है ।
किसी भी वेश में हो सकता है। मालूम पड़ता कारण ही उन्होंने उक्त सूत्र परसे ऐसा गलत
थोड़ी देरके लिये उक्त ( श्वे. ) मुनिजीने जो अभिप्राय फलित किया है यदि उसीको विचार के लिए ठीक मान लिया जाता है तो जिस गति आदिमें पूर्वमें जिन भावोंके द्वारा बाँधे गये कर्म वर्तमान में क्षपक के विकल्पसे बतलाये हैं वे भाव भी वर्तमान में क्षपकके विकल्पसे मानने पड़ेंगे । उदाहरणार्थ पहले सभ्यमिथ्यात्व में बांधे गये कर्म वर्तमानमें जिस क्षपकके विकल्पसे बतलाये हैं तो क्या उस क्षपकके वर्तमान में विकल्पसे सम्यग्मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा । यदि कहो कि नहीं, तो सम्यग्मिथ्यात्व में बँधे हुए जो कर्म सत्तारूपसे वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे होते हुए भी अतीत कालमें उन कर्मोंके बन्धके समय सम्यग्मिथ्यात्व भाव था इतना ही आशय जैसे सम्यग्मिथ्यात्व भावके विषयमें लिया जाता है उसी प्रकार सर्वलिंगों के विषयमें भी यही आशय यहाँ लेना चाहिए ।
हम यह तो स्वीकार करते हैं कि जैसे अतीत कालमें अन्य लिंगोंमें बाँधे गये कर्म वर्तमान में क्षपक के विकल्पसे बन जाते हैं वैसे ही अतीत कालमें जिनलिंग में बाँधे गये कर्मोंके वर्तमान में क्षपकके विकल्पसे स्वीकार करने में कोई प्रत्यवाय नहीं दिखाई देता । कारण कि संयमभावका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण और जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है । यथा
संमाणुवादेण संजद- सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद- परिहारसुद्धिसंजद-संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ॥ १०८ ॥ जहण्गेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०९ ॥ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिट्ट देणं ॥ ११० ॥ - खुद्दाबंध पृ० ३२१-३२२ ।
यहाँ जयधवला टीकाकारने उक्त सूत्रकी व्याख्या करते हुए 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' यह लिखकर 'सर्वलिंग' पदसे निर्ग्रन्थ लिंगके अतिरिक्त जो शेष सविकार सब लिंगोंका ग्रहण किया है वह उन्होंने क्षपक
५
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३४ )
श्रेणिपर आरोहण करनेवाला जीव अन्य लिंगवाला न होकर वर्तमानमें निर्ग्रन्थ ही होता है और इस अपेक्षासे उसके निर्ग्रन्थ अवस्था में बाँधे गये कर्म भजनीय न होकर नियमसे पाये जाते हैं यह दिखलानेके लिए ही किया है, क्योंकि जो जीव अन्तरंगमें निर्ग्रन्थ होता है वह बाह्य में नियमसे निग्रन्थ होता है। किन्तु इन दोनोंके परस्पर अविनाभावको न स्वीकार कर जो श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले इच्छानुसार वस्त्र-पात्रादि सहित अन्य वेशमें रहते हुए भी वर्तमानमें क्षपकश्रेणि आदिपर आरोहण करना या रत्नत्रयस्वरूप मुनि लिंगकी प्राप्ति मानते हैं उनके उस मतका निषेध करनेके लिए जयधवला टीकाकारने 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' पदकी योजना की है। विचार कर देखा जाय तो उनके इस निर्देशमें किसी भी प्रकारकी साम्प्रदायिकताकी गन्ध न होकर वस्तुस्वरूपका उद्घाटनमात्र है, क्योंकि भीतरसे जीवनमें निर्ग्रन्थ वही हो सकता है जो वस्त्र-पात्रादिका बुद्धिपूर्वक त्यागकर बाह्यमें जिनमुद्राको पहले ही धारण कर लेता है। कोई बुद्धिपूर्वक वस्त्र-पात्र आदिको स्वीकार करे, उन्हें रखे, उनकी सम्हाल भी करे फिर भी स्वयंको वस्त्र-पात्र आदि सर्व परिग्रहका त्यागी बतलावे. इसे मात्र जीवनकी विडम्बना करनेवाला ही कहना चाहिए। अतः वर्तमानमें जिसने वस्त्र-पात्रादि सर्व परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थ लिंग स्वीकार किया है वही क्षपक हो सकता है और ऐसे क्षपकके निर्ग्रन्थ लिंग ग्रहण करनेके समयसे लेकर बाँधे गये कर्म सत्तामें अवश्य पाये जाते हैं यह दिखलानेके लिये ही श्री जयधवला टीकाकारने अपनी टीकामें 'सर्व लिंग' पदका अर्थ 'निर्ग्रन्थ लिंग व्यतिरिक्त अन्य सब लिंग' किया है जो 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः।' इस नीतिवचनको अनुसरण करनेवाला होनेसे वर्तमानमें उपयुक्त ही है ।
दूसरा उल्लेख है-२४. 'णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छंति । २५. उजुसुदो ठवणवज्जे । (क.
णि पृ. १७) इसका व्याख्यान करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं और ऋजुसूत्र आदि चार पर्यायार्थिक नय हैं। इस विषयमें दिगम्बर परम्परामें कहीं किसी प्रकारका मतभेद नहीं दिखलाई देता। कषायप्राभूतचूर्णिकार भी अपने चूर्णिसूत्रोंमें सर्वत्र ऋजुसूत्रनयका पर्यायार्थिकनयमें ही समावेश करते हैं। फिर भी उक्त ( श्वे. ) मुनिजीने अपनी प्रस्तावनामें यह उल्लेख किस आधारसे किया है कि 'कषायप्राभूतचूर्णिकार ऋजुसूत्रनयको द्रव्यार्थिकनय स्वीकार करते हैं।' यह समझके बाहर है। उक्त कथनकी पुष्टि करनेवाला उनका वह वचन इस प्रकार है-'अहीं कषायप्राभूत चूर्णिकार ऋजुसूत्रनयनो द्रव्याथिकनयमां समावेश करवा द्वारा श्वेताम्बराचार्योनी सैद्धान्तिक परंपराने अनुसरे छे कारणके श्वेताम्बरोंमें सैद्धान्तिक परम्परा ऋजसूत्रनयनो द्रव्यार्थिक नयमां समावेश करे छे.'
__ कषायप्राभूत चूणिमें ऐसे चार स्थल हैं जहाँ निक्षेपोंमें नययोजना की गई है। प्रथम पेज्ज निक्षेपके भेदों की नययोजना करनेवाला स्थल । यथा
२४. णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छंति । २५. उजुसुदो ठवणज्जे। २६. सद्दणयस्स णामं भावो च । पृ. १७ ।
दूसरा 'दोस' पदका निक्षेप कर उन सबमें नययोजना करनेवाला स्थल । यथा
३२. णेगम-संगह-व्यवहारा सव्वे णिक्खेवे इच्छंति । ३३, उजुसुदो ठवणवज्जे । ३४. सहणयस्स णामं भावो च । पृ. १७ ।
तीसरा 'संकम' पदका निक्षेप कर उन सबमें नययोजना करनेवाला स्थल । यथा
५. णेगमो सव्वे संकमे इच्छइ । ६. संगह-ववहारा कालसंकममवणेति। ७. उजुसुदो एवं च ठवणं च अवणेइ । ८. सद्दस्स णामं भावो य । पृ. २५१ ।
चौथा 'टाण' पदका निक्षेप कर उन सबमें नययोजना करनेवाला स्थल । यथा
१०. णेगमो सव्वाणि ठाणाणि इच्छइ । ११. संगह-ववहारा पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं च अवर्णेति । १२. उजुसुदो एदाणि च ठवणं च अद्धठाणं च अवणेइ। १३. सद्दणयो णामट्ठाणं संजमट्ठाणं खेत्तट्ठाणं भावट्ठाणं च इच्छदि । पृ. ६०७-६०८
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३५ )
ये चार स्थल हैं, जिनमें कौन निक्षेप किस नयका विषय है यह स्पष्ट किया गया है । स्थापना निक्षेप
ऋजुसूत्रनयका विषय नहीं है इसे इन सब स्थलोंमें स्वीकार किया गया है । इसीसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृत चूर्णिकारने द्रव्यार्थिकनयरूपसे ऋजुसूत्रनयको नहीं स्वीकार किया है, क्योंकि सादृश्य सामान्यकी विवक्षामें हो किसी अन्य वस्तुमें अन्य वस्तुकी स्थापना की जा सकती है और सादृश्य- सामान्य द्रव्यार्थिकनयका विषय है, जिसे पर्यायार्थिकनयका भेद ऋजुसूत्रनय नहीं स्वीकार करता । अतः यह स्पष्ट है कि कषायप्राभृतचूर्णिकारने ऋजुसूत्रनयको पर्यायार्थिकनयरूपसे ही स्वीकार किया है, द्रव्यार्थिकनयरूपसे नहीं । फिर नहीं मालूम उक्त प्रस्तावनामें किस आधारसे यह विधान करनेका साहस किया है कि 'कषायप्राभृतचूर्णिकार ऋजुसूत्रनयको द्रव्यार्थिकनय में समावेश करनेके लिए श्वेताम्बर आचार्योंकी परम्पराका अनुसरण करते है ।' शायद उन्होंने अर्थनयको द्रव्यार्थिकनय समझकर यह विधान किया है । किन्तु यदि यही बात है तो हमें लिखना पड़ता है कि या तो यह उनकी नयविषयक अनभिज्ञताका परिणाम है या फिर इसे सम्प्रदायका व्यामोह कहना होगा । कारण कि जब कि आगम में द्रव्यार्थिकनयके नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों भेद अर्थनयस्वरूप ही स्वीकार किये गये हैं और पर्यायार्थिकनयके दो भेद करके उनमें से ऋजुसूत्रनयको अर्थनयस्वरूप स्वीकार किया गया है ऐसी अवस्थामें बिना आधारके उसे द्रव्यार्थिकनय स्वरूप बतलाना और अपने इस अभिप्रायसे कषायप्राभृतचूर्णिकारको जोड़ना इसे सम्प्रदायका व्यामोह नहीं कहा जायगा तो और क्या कहा जायगा ।
यों तो सातों ही नयों का विषय अर्थ वस्तु है । फिर भी उनमेंसे नैगमादि तीन नय पर्यायको गौण कर सामान्यकी मुख्यतासे वस्तुका बोध कराते हैं, इसलिए वे द्रव्यार्थिकरूपसे अर्थनय कहे गये हैं । ऋजुसूत्रनय सामान्यको गौणकर वर्तमान पर्यायकी मुख्यतासे वस्तुका बोध कराता है इसलिए वह पर्यायार्थिकरूपसे अर्थनय कहा गया है । और शब्दादि तीन नय यद्यपि सामान्यको गौणकर वर्तमान पर्यायकी मुख्यतासे ही वस्तुका बोध कराते हैं। फिर भी ऋजुसूत्रसे इन शब्दादि तीन नयोंमें इतना अन्तर है कि ऋजुसूत्रनय अर्थप्रधाननय है और शब्दादि तीन नय शब्दप्रधान नय हैं । इसलिए नैगमादि सातों नय अर्थनय और शब्दनय इन दो भेदोंमें विभक्त होकर अर्थनयके चार और शब्दनयके तीन भेद हो जाते हैं । यहाँ अर्थनयके चार भेदोंमें ऋजुसूत्रनय सम्मिलित है, मात्र इसीलिए वह द्रव्यार्थिकनय नहीं हो जायगा । रहेगा वह पर्यायार्थिक ही । षट्खण्डागम और कषायप्राभृतचूर्णि प्रभृति जितना भी दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखा गया साहित्य है वह सब एक स्वर से एकमात्र इसी अभिप्रायकी पुष्टि करता है। मालूम पड़ता है कि उक्त प्रस्तावना लेखकने दिगम्बर साहित्यका और स्वयं कषायप्राभृतचूर्णिका सम्यक् प्रकारसे परिशीलन किये बिना ही यह अनर्गल विधान किया है । यहाँ प्रसंग हम यह सूचित कर देना चाहते हैं कि श्रुतकेवली भद्रबाहुके कालमें ही वस्त्र पात्रधारी श्वेताम्बर मतकी स्थापनाकी नीव पड़ गई थी। यह इसीसे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा जिनलिंगधारी भद्रबाहुको श्रुतकेवली स्वीकार करके भी उनके प्रति अनास्था दिखलाती है और इन्हें गौण कर अपनी परम्पराको स्थूलभद्र आदिसे स्वीकार करती है।
( २ )
प्रस्तावना लेखकने 'श्वेताम्बराचार्यांना ग्रन्थोंमां कषायप्राभृतना आधार साक्षी तथा अतिदेशो' इस दूसरे उपशीर्षकके अन्तर्गत श्वेताम्बर कार्मिक साहित्यमें जहाँ-जहाँ कषायप्राभृतके उल्लेखपूर्वक कषायप्राभृत और उसकी चूणिको विषयकी पुष्टिके रूपसे निर्दिष्ट किया गया है या विषयके स्पष्टीकरणके लिए उनको साधार उपस्थित किया गया है उनका संकलन किया है । ( १ ) उनमें से प्रथम उल्लेख पंचसंग्रह ( श्वे. ) का है । इसकी दूसरी गाथामें 'शतक' आदि पाँच ग्रन्थोंको संक्षिप्त कर इस पंचसंग्रह ग्रन्थकी रचना की गई है, अथवा पाँच द्वारोंके आश्रयसे इस पंचसंग्रह ग्रन्थकी रचना की गई है यह बतलाया गया है । किन्तु स्वयं चन्द्रर्षि महत्तरने उक्त ग्रन्थकी तीसरी गाथामें वे पाँच द्वार कौनसे, इनका जिस प्रकार नामोल्लेख कर दिया है उस प्रकार गाथारूप या वृत्तिरूप अपनी किसी भी रचनामें एक 'शतक' ग्रन्थके नामोल्लेखको छोड़कर अन्य जिन चार ग्रंथोंके आघारसे इस पंचसंग्रह ग्रंथकी रचना की गई है उनका नामोल्लेख नहीं किया है । अतएव
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३६ )
एक शतक के सिवाय अन्य जिन चार ग्रन्थोंका अपने पंचसंग्रह ग्रंथ में उन्होंने संक्षेपीकरण किया है वे चार ग्रंथ कौनसे इसका तो उनकी उक्त दोनों रचनाओंसे पता चलता नहीं । हाँ उक्त ग्रंथकी 'नमिठण जिणं वीरं' इस मंगल गाथाको टीकामें मलयगिरिने अवश्य ही उन पाँच ग्रंथोंका नामोल्लेख किया है । स्वयं चन्द्रषि महत्तर अपनी रचना में पाँच द्वारोंका नामोल्लेख तो करते हैं, परन्तु उन ग्रंथोंका नामोल्लेख नहीं करते इसमें क्या रहस्य है यह अवश्य ही विचारणीय है । बहुत सम्भव तो यही दिखलाई देता है कि श्वेताम्बर परम्परामें क्षपणा आदि विधिका आनुपूर्वीसे सविस्तर कथन उपलब्ध न होनेके कारण उन्होंने कषायप्राभृत ( कषायप्राभृत में उसकी चूर्णि भी परिगणित है ) का सहारा तो अवश्य लिया होगा, परन्तु यतः कषायप्राभृत श्वेताम्बर परम्पराका ग्रंथ नहीं है, अतः पञ्चसंग्रहमें किन पाँच ग्रंथोंका संग्रह है इसका पूरा स्पष्टी - कारण करना उन्होंने उचित नहीं समझा होगा ।
( २ ) दूसरा उल्लेख शतकचूर्णिके टिप्पणका है । यह टिप्पण अभी तक मुद्रित नहीं हुए हैं। प्रस्तावना लेखकने अवश्य ही यह संकेत किया हैं कि उक्त टिप्पणमें किस कषायमें कितनी कृष्टियाँ होती हैं इस विषयकी प्ररूपणा करनेवाली कषायप्राभृतकी १६३ क्रमांक गाथा उद्धृत पाई जाती है । सो इससे यही तो समझा जा सकता है कि श्वेताम्बर परम्परामें क्षपणाविधिकी सांगोपांग प्ररूपणा न होनेसे शतकचूर्णिके कर्त्ताने किस कषायकी कितनी कृष्टियाँ होती हैं इस विषयका विशेष विवेचन प्रायः कषायप्राभृतके आधार से किया है यह समझकर ही उक्त टिप्पणकारने प्रमाणस्वरूप उक्त गाथा उद्धृत की होगी ।
( ३ ) तीसरा उल्लेख सप्ततिका चूर्णिका है । इसमें सूक्ष्मसाम्परायसम्बन्धी कृष्टियोंकी रचनाका निर्देशकर उनके लक्षणको कपायप्राभृतके अनुसार जाननेकी सूचना सप्ततिका चूर्णिकारने इसीलिए की जान पड़ती है कि श्वेताम्बर परम्परामें इसप्रकारका सांगोपांग विवेचन नहीं पाया जाता । सप्ततिका चूर्णिका उक्त उल्लेख इस प्रकार है—'तं वेयंतो बितिय किट्टीओ तइयकिट्टीओ य दलियं घेतूणं सुहुमसांपराइय किट्टीओ करेइ । तेसि लक्खणं जहा कसायपाहुडे ।'
( ४ ) चौथा उल्लेख भी सप्ततिका चूर्णिका है । इसमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में जो अनेक वक्तव्य हैं उन्हें कषायप्राभृत और कर्मप्रकृतिसंग्रहणीके अनुसार जाननेकी सूचना की गई है । सप्ततिका चूर्णिका वह उल्लेख इस प्रकार है— 'एत्थ अपुव्वकरण - अणियट्टिअद्धासु अणेगाइ वत्तव्त्रगाई जहा काय कम्पगडिसंगहणीए वा तह वत्तव्वं । सो इस विषय में इतना ही कहना है कि कर्मप्रकृतिसंग्रहणी स्वयं एक संग्रह रचना है । अतः उसमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालों में होनेवाले कार्य-विशेषोंका जो भीं निर्देश उपलब्ध होता है वह सब अन्य ग्रन्थके आधारसे ही लिया गया होना चाहिए । इस विषयमें जहाँ तक हम समझ सके हैं, कषायप्राभृतचूर्णि और कर्मप्रकृति चूर्णिकी तुलना करने पर ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि कर्मप्रकृतिचूर्णिकारके समक्ष कषाप्रप्राभृत अवश्य रही है । यथा—
१०२ चरियसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसंतदंसणमोहणीओ । १०३. ताघे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा । — कषायप्राभृतचूर्णि
अब इसके प्रकाशमें कर्मप्रकृति उपशमनाकरण गाथा १९ की चूर्णिपर दृष्टिपात कीजिएचरिमसमयमिच्छाद्दिट्ठी से काले उवसमसम्मद्दिट्ठि होहित्ति ताहे बितीर्यातीते तिझ
अणुभागं करेति ।
यहाँ कर्मप्रकृति चूर्णिकारने अपने सम्प्रदायके अनुसारं मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यके तीन भाग हो जाते हैं, इस मतकी पुष्टि करनेके लिए उक्त वाक्य रचनाके मध्य में 'होहित्ति' इतना पाठ अधिक जोड़ दिया । बाकीकी पूरी वाक्य रचना कषायप्राभृतिचूणिसे ली गई है यह कर्मप्रकृतिकी १८ और १९वीं गाथाओं तथा उनकी चूर्णियों पर दृष्टिपात करनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है ।
यह एक उदाहरण । पूरे प्रकरण पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट विदित होता है कि कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका उपशमना प्रकरण तथा क्षपणाविधि कषायप्राभृति चूर्णिके आधारसे लिपिबद्ध करते हुए
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३७ ) भी कषायप्राभृतचूर्णि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मतभेदके स्थलोंको यथावत् कायम रखा गया है । आवश्यकता होनेपर हम इस विषयपर विस्तृत प्रकाश डालेंगे ।
( ५ ) पाँचवाँ उल्लेख भी सप्ततिकाचूर्णिका है । इसमें मोहनीयके चारके बन्धकके एकका उदय होता है इस मतका सप्ततिकाचूर्णिकारने स्वीकार कर उसकी पुष्टि कषायप्राभृत आंदिसे की है। तथा साथ ही दूसरे मतका भी उल्लेख कर दिया है । सो उक्त चूर्णिकारके उक्त कथनसे इतना ही ज्ञात होता है कि उनके समक्ष कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि थी ।
इस प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थोंके पाँच उल्लेख हैं जिनमें कषायप्राभृतके आधार उसके नामोल्लेख पूर्वक प्रकृत विषयकी पुष्टि तो की गई है, परन्तु इन उल्लेखोंपरसे एक मात्र यही प्रमाणित होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दर्शन-चरित्रमोहनीयके उपशमना - क्षपणाविधिकी प्ररूपणा करनेवाला सर्वांग साहित्य लिपिबद्ध न होनेसे इसकी पूर्ति दिगम्बर आचार्योंद्वारा रचित कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिसे की गई है । परन्तु ऐसा करते हुए भी उक्त शास्त्रकारोंने उन दोनोंको श्वेताम्बर परम्पराका स्वीकार करनेका साहस भूलकर नहीं किया है । यह तो केवल उक्त प्रस्तावना लेखक श्वे. मुनि हेमचन्द्रविजयजीका ही साहस है जो बिना प्रमाणके ऐसा विधान करनेके लिए उद्यत हुए हैं । वस्तुतः देखा जाय तो एक तो कुछ अपवादोंको छोड़कर कर्मसिद्धान्तकी प्ररूपणा दोनों सम्प्रदायोंमें लगभग एक सी पाई जाती है, दूसरे जिन विषयोंकी पुष्टिमें श्वेताम्बर आचार्योंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिका प्रमाणरूपमें उल्लेख किया है उन विषयोंका सांगोपांग विवेचन श्वेताम्बर परम्परामें उपलब्ध न होनेसे ही उन आचार्योंको ऐसा करनेके लिए बाध्य होना पड़ा है, इसलिए श्वेताम्बर आचार्योंने अपने साहित्य में कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिकाप्रकृत विषयोंकी पुष्टिमें उल्लेख किया मात्र इसलिए उन्हें श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति घोषित करना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता ।
( ३ )
आगे खवगसेढिकी प्रस्तावना में 'कषायप्राभृत मूल तथा चूर्णिनी रचनानो काल' उपशीर्षकके अन्तर्गत प्रस्तावना लेखकने जो विचार व्यक्त किये हैं वे क्यों ठीक नहीं हैं इसकी यहाँ मीमांसा की जाती है
१. जिस प्रकार जयधवलाके प्रारम्भ में दिगम्बर परम्पराके मान्य आचार्य वीरसेनने तथा श्रुतावतारमें इन्द्रनन्दिने कषायप्राभृतके कर्तारूपमें आचार्य गुणधरका और चूर्णिसूत्रोंके कर्तारूपमें आचार्य यतिवृषभका स्मरण किया है इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें किसी भी पट्टावली या कार्मिक या इतर साहित्यमें इन आचार्यका किसी भी रूप में नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः इस विषय में उक्त प्रस्तावना लेखकका यह लिखना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता कि 'पट्टावली में पाटपरम्परामें आनेवाले प्रधानपुरुषोंके नामोंका उल्लेख होता है आदि । क्योंकि पट्टाबलि में पाटपरम्पराके प्रधान पुरुषोंके रूपमें यदि उनका नाम नहीं भी आया था तो भी यदि वे श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य होते तो अवश्य ही किसी न किसी रूपमें कहीं न कहीं उनके नामोंका उल्लेख अवश्य ही पाया जाता । श्वेताम्बर परम्परा में इनके नामोंका उल्लेख न पाया जाना ही यह सिद्ध करता है कि इन्हें श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य मानना युक्तियुक्त नहीं है ।
२. एक बात यह भी कही गई है कि जयधवलामें एक स्थल पर गुणधरका वाचकरूपसे उल्लेख दृष्टिगोचर होता है, इसलिए वे वाचकवंशके सिद्ध होनेसे श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य होने चाहिए, सो इसका समाधान यह है कि यह कोई ऐसा तर्क नहीं है कि जिससे उन्हें श्वेताम्बर परम्पराका स्वीकार करना आवश्यक समझा जाय । वाचक शब्दका अर्थ वाचना देनेवाला होता है जो श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिके पहलेसे ही श्रमण परम्परा में प्राचीनकाल से रूढ़ चला आ रहा है । अतः जयधवलामें गुणधरको यदि वाचक कहा भी गया है तो इससे भी उन्हें श्वेताम्बर परम्पराका आचार्य मानना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता ।
३. यह ठीक है कि श्वेताम्बर परम्परामें नन्दिसूत्रकी पट्टावलिमें तथा अन्यत्र आर्यमंक्षु और नागहस्तिका नामोल्लेख पाया जाता है और जयधवलाके प्रथम मंगलाचरणमें चूणिसूत्रोंके कर्ता आचार्य यतिवृषभको आर्यमक्षुका शिष्य और नागहस्तिका अन्तेवासी कहा गया है । परन्तु मात्र यह कारण भी आचार्य
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३८ )
यतिवृषभको श्वेताम्बर परम्पराका माननेके लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा उक्त दोनों आचार्योंको अपनी परम्पराका स्वीकार करती है उसी प्रकार दिगम्बर परम्पराने भी उन्हें अपनी परम्पराका स्वीकार किया है, जैसा कि जयधवला आदिके उक्त उल्लेखोंसे ज्ञात होता है।
एक बात और है वह यह कि नन्दिसूत्रकी पट्टावलि विश्वसनीय भी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि उसमें जिस रूपमें आर्यमंक्षु और नागहस्तिका उल्लेख पाया जाता है उसके अनुसार वे दोनों एक कालीन नहीं सिद्ध होते। श्रीमुनि जिन विजयजीका तो यहां तक कहना है कि यह पट्टावलि अधूरी है, क्योंकि इस पट्टावलिमें आर्यमंक्षु और आर्यनागहस्तीके मध्य केवल आर्यनन्दिलको स्वीकार किया गया है, किन्तु आर्यमंक्षु और आर्यनन्दिलके मध्य पट्टधर चार आचार्य और हो गये हैं जिनका ।उल्लेख इस पट्टावलिमें छुटा हुआ है । ( वी. नि. सं. और जैनका. ग. पृ. १२४ । ) .
दूसरे नन्दिसूत्रकी पट्टावलिमें अलगसे ऐसा कोई उल्लेख भी दृष्टिगोचर नही होता, जिससे आर्यमंक्षुको स्वतन्त्ररूपसे कर्मशास्त्रका ज्ञाता स्वीकार किया जाय । उसमें आर्य नागहस्तिको अवश्य ही कर्मप्रकृतिमें प्रधान स्वीकार किया गया है । इससे इस बातका सहज ही पता लगता है कि जिसने नन्दिसूत्रकी पट्टावलिका संकलन किया है उसे इस बातका पता नहीं था कि गणधर आचार्य द्वारा रची गई गाथाएँ सा आचार्य परम्परासे आर्यमंक्षुको प्राप्त हुई थीं, जब कि दिगम्बर परम्परामें यह प्रसिद्धि आनुपूर्वीसे चली आ रही है। यही बात आर्य नागहस्तिके विषयमें भी समझनी चाहिए, क्योंकि उस ( नन्दिसूत्र पट्टावलि ) में आर्य नागहस्तीको कर्मप्रकृति में प्रधान स्वीकार करके भी इन्हें न तो कषाय प्राभृतका ज्ञाता स्वीकार किया गया है और न ही उन्हें गुणधर आचार्य द्वारा रची गई गाथाएँ आचार्य परम्परासे या साक्षात् प्राप्त हुई यह भी स्वीकार किया गया है। यह एक ऐसा तर्क है जो प्रत्येक विचारकको यह माननेके लिये बाध्य करता है कि कषायप्राभृत श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति न होकर दिगम्बर आचार्योंकी ही रचना है ।
तीसरे दिगम्बर परम्परामें कषायप्राभूत और चूर्णिका जो प्रारम्भ कालसे पठन-पाठन होता आ रहा है इससे भी इस तथ्यकी पुष्टि होती है। इन्द्रनन्दिने अपने द्वारा रचित श्रुतावतारमें आचार्य यतिवृषभके चूणिसूत्रोंके अतिरिक्त दूसरी ऐसी कई पद्धिति पंजिकाओंका उल्लेख किया है जो कषायप्राभूत पर रची गई थीं (जयध. भाग. १ प्रस्तावना पू. ९ तथा १२ से)। स्वयं वीरसेनने अपनी जयधवला टीकामें ऐसी कई उच्चारणाओं, स्वलिखित उच्चारणा और वप्पदेवलिखित उच्चारणाका उल्लेख किया है जो जयधवला टीकाके पूर्व रची गई थीं। बहुत सम्भव है कि इनमें इन्द्रिनन्दि द्वारा उल्लिखित पद्धति-पंजिकाएँ भी सम्मिलित हों ( जयध. भाग १ पृ. ९ से लेकर )।
उक्त तथ्योंके सिवाय प्रकृतमें यह भी उल्लेखनीय है कि आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें प्रवाह्यमान और अप्रवाहमान इन दो प्रकारके उपदेशोंका उल्लेख पद-पद पर किया है. तथा इन दोनों प्रकारके उपदेशोंसे किसका उपदेश प्रवाहमान है और किसका उपदेश अप्रवाहमान है इस विषयका स्पष्ट निर्देश स्वयं जयधवलाकारने अपनी टीकामें किया है ( देखो प्रस्तुत भाग पृ. १८,२३-६६,७१,११६ और १४५)। सो इससे भी इस बातका पता लगता है कि कर्मविषयक किस विषयमें इन दोनों (आर्यमंक्षु और नागहस्ति) का क्या अभिप्राय था और उनमेंसे कौन उपदेश प्रवाहमान अर्थात् आचार्य परम्परासे आया हुआ था और कौन उपदेश अप्रवाह्य मान अर्थात् आचार्य परम्परासे प्राप्त नहीं था, इसकी पूरी जानकारी जयधवला टीकाकारको निःशंसयरूपसे थी।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि कषाय प्राभूत और उसके चूणिसूत्रोंके रचनाकालमें तथा जयधवला टोकाके रचना कालमें शताब्दियोंका अन्तर रहते हुए भी जयधवलाके टीकाकारने उक्त जानकारी कहाँसे प्राप्त की होगी। समाधान यह है कि यह तो जयधवला टीकाके अवलोकनसे ही ज्ञात होता है कि उसकी रचना केवल कषायप्राभूत और उसके चणिसूत्रोंके. आधारपर ही न होकर उसकी रचनाके समय इन दोनों
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचनाओंसे सम्बन्ध रखनेवाला बहुत-सा उच्चारणा वृत्ति आदि रूप साहित्य जयधवलाकारके सामने रहा है।
और इससे सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उच्चारणा वृत्ति आदि नामसे अभिहित किये गये उक्त साहित्यसे वे इस बातका निर्णय करते होंगे कि इनमेंसे कौन उपदेश अप्रवाह्यमान होकर आर्यमंक्षु द्वारा प्रतिपादित है, कौन उपदेश प्रवाह्यमान होकर आर्य नागहस्ति या दोनों द्वारा प्रतिपादित है और कौन उपदेश ऐसा है जिसके विषयमें उक्त प्रकारसे निर्णय करना, सम्भव न होनेसे केवल चूणिसूत्रोंके आधारसे प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान रूपसे उनका उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत ( १२ वें) भागमें पद-पद पर इस विषयके ऐसे अनेक उल्लेख आये हैं जिनसे प्रत्येक पाठकको उक्त कथनकी पूरी जानकारी मिल जाती है यथा
१. आर्यमंक्षुका उपदेश अप्रवाह्यमान है और नागहस्तिका उपदेश प्रवाह्यमान है । यथा
अथवा अञ्जमंखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहस्तिखवणाणमुवएसो पवाइज्जतश्रोति घेत्तव्वो। (पृ. ७१)
यहाँ उपयोग अर्थाधिकारकी ४ थी गाथाके व्याख्यानका प्रसंग है। उसमें कषाय और अनुभागकी चर्चा के प्रसंगसे आचार्य यतिवृषभने उक्त दोनों आचार्योंके दो उपदेशोंका उल्लेख किया है। उनमेंसे कषाय और अनुभाग एक हैं यह बतलानेवाले भगवान् आर्यमंक्षुके उपदेशको जयधवलाके टीकाकारसे अप्रवाह्यमान कहा है और कषाय और अनुभागमें भेद बतलानेवाले नागहस्ति श्रवणके उपदेशको प्रवाहमान बतलाया है। (पृ. ६६ और ७१-७२)
२. उक्त दोनों आचार्योंका उपदेश प्रवाह्यमान होनेका प्रतिपादक वचन-तेसिं चेव भयवंताणमअमंखु-णागहत्थिणं पसहज्जतेणुवएसेण ..."। (पृ. २३ )
___ यहाँ क्रोधादि चारों कषायोंके कालके अल्पबहुत्वको गतिमार्गणा और चौदह जीव समासोंमें बतलानेके प्रसंगसे उक्त वचन आया है । सो यहाँ चूर्णिसूत्रकारने गतिमार्गणा और चौदह जीव समासोंमें मात्र प्रवाह्यमान उपदेशका निर्देश किया है अप्रवाहमान उपदेशका नहीं। जयधवलाकारने भी चुणिसूत्रोंका अनुसरण क दोनों स्थानोंमें मात्र प्रवाह्यमान उपदेशका खुलासा करते हुए 'तेसिं चेव उपदेसेण चोद्दस-जीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि । (पृ. २३ ) इस चूर्णिसूत्रके व्याख्यानके प्रसंगसे उसमें आये हुए 'तेसिं चेव' इस पदका व्याख्यान करते हुए उक्त पदसे उक्त दोनों भगवन्तोंका ग्रहण किया है।
३. इस प्रकार उक्त दो प्रकारके उल्लेख तो ऐसे हैं जिनसे हमें उनमेंसे कौन उपदेश प्रवाहमान है और कौन उपदेश अप्रवाह्यमान है इस बातका पता लगनेके साथ जयधवला टीकासे उनके उपदेष्टा आचार्योंका भी पता लग जाता है। किन्तु चूणिसूत्रोंमें प्रवाहमान और अप्रवाहमानके भेदरूप कुछ ऐसे भी उपदेश संकलित हैं जिनके विषयमें जयधवलाकारको विशेष जानकारी नहीं थी। अतः जयधवलाकारने इनका स्पष्टीकरण तो किया है, परन्तु आचार्योंके नामोल्लेख पूर्वक उनका निर्देश नहीं किया। इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस विषयमें जयधवलाकारके समक्ष उपस्थित साहित्यमें उक्त प्रकारका विशेष निर्देश नहीं होगा, अतः उन्होंने दोनों उपदेशोंका स्पष्टीकरण मात्र करना उचित समझा। जयधवलाके आगे दिये जानेवाले इस उदाहरणसे यह स्पष्ट हो जाता है
जो एसो अणंतरपरूविदो उवएसो सो पवाइज्जदे... .... .... .... । अपवाइज्जतेण पुण उवदेसेण केरिसी पयदपरूवणा होदित्ति एवंविहासंकाए णिण्णयकरणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं । (पृ.११६)
इस उल्लेखमें दो प्रकारके उपदेशोंका निर्देश होते हुए भी चूर्णिकारकी दृष्टिमें उनके प्रवक्तारूपमें कौन प्रमुख आचार्य विवक्षित थे इसको आनुपूर्वीसे लिखित या मौखिक रूपमें सम्यक् अनुश्रुति प्राप्त न होनेके कारण जयधवलाकारने मात्र उनकी व्याख्या कर दी है।
यह है जयधवलाकी व्याख्यानशैली। इसके टीकाकारको जिस विषयका किसी न किसी रूपमें आधार मिलता गया उसकी वे उसके साथ व्याख्या करते हैं और जिस विषयका आनुपूर्वीसे किसी प्रकारका आधार उपलब्ध नहीं हुआ उसको वे अनुश्रु तिके अनुसार ही व्याख्या करते हैं। टीकामें वे प्रामाणिकताको बराबर बनाये
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४० )
रखते हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस उपदेशको उन्होंने आर्यमंक्षुका बतलाया है वह भी साधार ही बतलाया है और जिसे उन्होंने नागहस्तिका बतलाया है वह भी साधार ही बतलाया है। अतः इससे सिद्ध है कि दिगम्बर परम्परामें इन दोनों आचार्योंके उपदेशोंकी आनुपूर्वी पठन-पाठन तथा टीका-टिप्पणी आदि रूपसे यथावत् कायम रही । किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें ऐसा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता । उस परम्परामें जितना भी कार्मिक साहित्य उपलब्ध है उसमें कहीं भी अन्य गर्ग प्रभृति आचार्योंके मत-मतान्तरोंकी तरह इन आचार्योंका नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। उक्त प्रस्तावना लेखकको चाहिए कि वे इस विषयमें एक नन्दिसत्र पदावलिको निर्णायक न मानें। किन्तु अपने कार्मिक साहित्यपर भी दृष्टिपात करें। यदि वे तुलनात्मक दृष्टिसे दोनों परम्पराओंके कार्मिक साहित्यपर सम्यक रूपसे दृष्टिपात करेंगे तो उन्हें न केवल वास्तविकताका पता लग जायगा, किन्तु वे नन्दिसूत्रको पट्टावलिमें आर्यमंक्षु और नागहस्तिका उल्लेख होने मात्रसे उसके आधारपर कषायप्राभूत और उसके चूर्णिसूत्रोंको श्वेताम्बर मतका होनेका आग्रह करना भी छोड़ देंगे। ( उस परम्परामें एतद्विषयक अन्य उल्लेख नन्दिसूत्र पट्टावलिका अनुसरण करते हैं, अतः उनपर विचार नहीं किया ।)
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह सिद्ध हो जानेपर कि कषायप्राभूत और उसकी चूणि दिगम्बर आचार्योंकी अमर कृतियाँ है, चूणिसूत्रोंके रचनाकालका कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता। फिर भी इस विषयको जयधवला प्रथम भागमें कालगणनाके प्रसंगसे अत्यन्त स्पष्टरूपमें स्वीकार कर लिया गया है कि वर्तमान त्रिलोक प्रज्ञप्तिको आचार्य यतिवृषभकी कृति स्वीकार करनेपर चूर्णिसूत्रोंकी रचनाकी यह कालगणना की जा रही है। प्रस्तावना (पृ. ४६ ) के शब्द है
'हमने ऊपर जो समय बतलाया है वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति और चूणिसूत्रोंके रचयिता यतिवृषभको एक मानकर उनकी त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर लिखा है।'
अब यदि वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्ति संग्रह ग्रन्थ होनेसे या अन्य किसी कारणसे उन्हीं आचार्य यतिवृषभकी कृति सिद्ध नहीं होती है जिनकी रचना कषायप्राभृतके चूणिसूत्र हैं तो इसमें दिगम्बर परम्पराको या जयधवलाके प्रस्तावना लेखकोंको कोई आपत्ति भी नहीं दिखलाई देती। यह एक स्वतन्त्र ऊहापोहका विषय है और इस विषयपर स्वतन्त्ररूपसे ऊहापोह होना चाहिए। किन्तु इस आधारपर कषायप्राभूत या उसके चूर्णिसूत्रोंको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका अनुचित प्रयास करना शोभास्पद प्रतीत नहीं होता।
__ अपनी प्रस्तावनाके इसी प्रकरणमें उक्त प्रस्तावना लेखकने अपने साम्प्रदायिक मान्यताके आग्रहवश दिगम्बर परम्पराको एक मत बतलाकर उसकी उत्पत्ति 'दिगम्बर मतोत्पत्तिनो काल वीर सम्वत् ६०० पछी छ ।' इन शब्दों द्वारा वीर सं० ६०० के बाद बतलाई है। सो इसे पढ़कर ऐसा लगता है कि उक्त प्रस्तावना लेखकको प्रकृत विषयके इतिहासका सम्यक् अनुसन्धान करनेकी अपेक्षा बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थस्वरूप प्राचीन श्रमण परम्परा, उसके प्राचीन साहित्य और इतिहासको श्वेताम्बरीकरण करनेकी अधिक चिन्ता दिखलाई देती है । अन्यथा वे दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें कौन अर्वाचीन है और कौन प्राचीन है इसका उल्लेख किये बिना उक्त साहित्यविषयक अन्य प्रमाणोंके आधारसे मात्र गुणधर और यतिवृषभ इन दोनों आचार्यों और उनकी रचनाओंके कालका ऊपापोह करते हुए अपना फलितार्थ प्रस्तुत करते ।।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि प्रकृतमें पहले हमने ( उक्त प्रस्तावना लेखकने) उक्त दोनों आचार्योंको प्राचीन ( वीर नि० सं० ४६७ लगभगका ) सिद्ध किया है और उसके बाद दिगम्बरमतकी उत्पत्तिको वीर नि० ६०० वर्षके बादकी बतलाकर उन्हें श्वेताम्बर सिद्ध किया है। पर विचारकर देखा जाय तो किसी भी वस्तुको इस पद्धतिसे अपने सम्प्रदायको सिद्ध करनेका यह उचित मार्ग नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पूर्व में बतला आये हैं, ऐसे अन्य अनेक प्रमाण है जिनसे उक्त दोनों आचार्य तथा उनकी रचनाएँ कालकी अपेक्षा प्राचीन होनेपर भी न तो वे आचार्य श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं और न उनकी रचनाएं ही श्वेताम्बर सिद्ध होती हैं।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४१ ) अतः कषायप्राभृत मूल तथा चूणिके रचनाकालको आधार मानकर इस प्रकरणमें इनको श्वेताम्बर आचार्योकी कृति सिद्ध करनेका जो प्रयत्न किया गया है वह किस प्रकार तर्क और प्रमाण हीन है इसका सांगोपांग विचार किया।
९ सिका
आगे खवगसेढिकी प्रस्तावनामें 'कषायप्राभूत चुणिनी रचनाना काल अंगे वर्तमान सम्पादकोनी मान्यता' आदि कतिपय शीर्षकोंके अन्तर्गत प्रस्तावना लेखकने जो विचार व्यक्त किये हैं, उनकी विस्तृत मीमांसाकी तत्काल आवश्यकता न होनेसे विधिरूपसे उनमेंसे कुछ मुद्दों पर संक्षेपमें प्रकाश डाल देना आवश्यक प्रतीत होता है। ( १ ) त्रिलोक प्रज्ञप्तिके अंतमें ये दो गाथाएँ पाई जाती हैं
पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं । दट्ठ ण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाढए वसहं ।। चुण्णिस्सरूवत्थकरणसरूवपमाण होइ किं जं तं ।
अट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए । इनमेंसे प्रथम गाथा जयधवला सम्यक्त्व अधिकारके मंगलाचरणके रूपमें पाई जाती है। उसका पाठ ' इस प्रकार है
पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणहरवसहं ।
दुसहपरीसहविसहं जइवसहं धम्मसुत्तपाढरवसहं ।। इसका अर्थ है कि जिनवरवृषभ, गणधरवृषभ, गुणधरवृषभ तथा दुःसह परीषहोंको जीतनेवाले और धर्मसूत्रके पाठकोंमें श्रेष्ठ यतिवृषभको तुम सब प्रणाम करो ।
त्रिलोकप्रज्ञप्तिके अन्तमें आई हुई इस गाथाका पाठभेदके होते हुए भी लगभग यही अर्थ है। पाठभेद लिपिकारोंके प्रमादसे हुआ जान पड़ता है।
अब विचार यह करना है कि यह गाथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे उठाकर जयधवलामें निक्षिप्त की गई है या जयधवलासे उठाकर त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें निक्षिप्त की गई है। सम्यक्त्व अधिकारके प्रारम्भमें आई हई उक्त मंगल गाथाके बाद वहाँ एक दूसरी गाथा भी पाई जाती है जिसपर दृष्टिपात करनेसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त मंगलगाथा जयधवलाके सम्यक्त्व अधिकारकी ही होनी चाहिए, क्योंकि इस गाथाके पूर्वार्ध द्वारा उक्त गाथाके मंगलार्थका समर्थनकर उत्तरार्ध द्वारा विषयका निर्देश किया गया है । वह गाथा इस प्रकार है
इय पणमिय जिणणाहे गणणाहे तह य चेव मणिणाहे।
सम्मत्तसुद्धिहेउं वोच्छं सम्मत्तमहियारं ॥ वैसे वर्तमानमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ जिस रूपमें पाया जाता है वह संग्रहग्रन्थ न होकर एक कर्तृक होगा यह मानना बद्धिग्राह्य नहीं प्रतीत होता और इसीलिए जयधवलाकी प्रस्तावना ( १० ६५ टिप्पणी) में यह स्पष्ट स्वीकार कर लिया गया है कि 'वर्तमानमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ जिस रूप में पाया जाता है उसी रूपमें आचार्य यतिवषभने उसकी रचनाकी थी, इस बातमें हमें सन्देह है।'
फिर भी जयधवला सम्यक्त्व अधिकारको उक्त मंगलगाथाका 'चुण्णिस्सरूव' इत्यादि गाथाके साथ त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थके अन्तमें पाया जाना इस तथ्यको अवश्य ही सूचित करता है कि इस ग्रन्थके साथ आचार्य यतिवृषभका किसी न किसी प्रकारका सम्बन्ध अवश्य हो होना चाहिए। बहुत सम्भव है धवलामें जिस त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थका उल्लेख पाया जाता है उसकी रचना स्वयं यतिवृषभ आचार्यने की हो और उसको मिलाकर वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थका संग्रह किया गया हो। अन्यथा उक्त मंगलगाथाको वहाँ
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४२ )
लाकर रखनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। उक्त गाथाके साथ वहाँ जो 'चुण्णिस्सरूव' इत्यादि गाथा पाई जाती है उसमें आये हुए 'चुण्णिस्स' पदसे भी इस तथ्यका समर्थन होता है।
आचार्य वीरसेनने अपनी जयधवला टीकामें और इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें इसकी चर्चा नहीं की इसका कारण है। बात यह है कि कषायप्राभूत और उसके चणिसूत्रोंकी टीकाका नाम जयधवला है, अतः उसमें सम्बन्धित तथ्योंका ही खुलासा किया गया है। यही स्थिति श्रुतावतारमें इन्द्रनन्दिकी भी रही है। अतः इन दोनों आचार्योंने यदि अपनी-अपनी रचनाओंमें आचार्य यतिवृषभकी रचनारूपसे त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थका उल्लेख नहीं किया तो इससे उक्त तथ्यको फलित करने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। ( २ ) इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें आचार्य गुणधर और आचार्य धरसेनको लक्ष्यकर लिखा है
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ गुणधर और धरसेनके अन्वयस्वरूप गुरुओंके पूर्वापर क्रमको हम नहीं जानते, क्योंकि उनके अन्वय अर्थात् गुरुजनोंका कथन करनेवाले आगम ( लिखित ) और मुनिजनोंका अभाव है ।
आचार्य वीरसेनने भी श्रीधवलामें धरसेन आचार्यका और श्रीजयधवलामें गुणधर आचार्यका बहुमानके साथ उल्लेख किया है। किन्तु उन्होंने उनकी गणना पट्टधर आचार्यों में न होनेसे उनके गुरुओंका उल्लेख नहीं किया गया है। यह सम्भव है कि इसी कारणसे इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें उक्त वचन लिखा है।
किन्तु इन दोनों स्थलोंको छोड़कर अन्यत्र इन दोनों आचार्योंका तथा पुष्पदन्त और भूतवलि आचार्यका नामोल्लेख न मिलनेका कारण यह है कि एक तो दिगम्बर परम्परामें इस तरहके इतिहासके संकलित करनेकी पद्धति प्रायः इन आचार्योंके बहत काल बाद प्रारम्भ हई। कारण वनवासी निम्र दिगम्बर साधु होनेके कारण वे सब प्रकारकी लौकिक प्रवृत्तियोंसे मुक्त होकर अपना शेष जीवन स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययनमें ही व्यतीत करते रहते थे। कदाचित् ग्रन्थादिके निर्माणका विकल्प होने पर उनकी रचना करते भी थे तो उसमें नामादिके ख्यापनको प्रवृत्तिका प्रायः अभाव ही रहता था। यही कारण है कि पूर्व आचार्योंकी सभी कृतियाँ प्रायः प्रशस्तियोंसे रहित पाई जाती है। एक तो इस कारणसे उक्त आचार्यों के नामोंका उल्लेख अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है।
दूसरे ये कर्मसिद्धान्त जैसे सूक्ष्म और गहन दुरूह अर्थवाले विषयका प्रतिपादन करनेवाले पौर्व ग्रन्थ हैं। इनका अवधारण करना मन्दबुद्धिजनोंको सुगम न होनेसे अन्य साहित्यके समान इनका सर्वसुलभ प्रचार कभी भी नहीं रहा। गृहस्थोंकी बात तो छोड़िये, मुनिजनोंमें भी ऐसे मेधावी विरले ही मुनि होते आये जो इनका सम्यक् प्रकारसे अवधारण करने में समर्थ होते रहे। इसलिए भी इनके रचयिता आचार्योंका नामोल्लेख अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है। यह तो गनीमत है कि दिगम्बर परम्परामें इनका इतना इतिहास मिलता भी है। श्वेताम्बर परम्परा तो आचार्य गुणधर और यतिवृषभके नाम भी नहीं जानती। इतना ही क्यों, उस परम्परामें कर्मप्रकृति चणि, सप्ततिका, शतक तथा उनकी चणि आदि कतिपय जो भी कर्म विषयक मौलिक साहित्य उपलब्ध होता है उसका तो इतना भी इतिहास नहीं मिलता। प्रामाणिक ऐतिहासिक दृष्टिसे कल्पित अनेक उल्लेख न मिलनेकी अपेक्षा प्रामाणिक एक-दो उल्लेखका मिलना उससे कहीं अधिक हितावह है।
(३) श्रीजयधवलामें आचार्य गुणधरको पूर्वोके एकदेशके ज्ञाता होने पर भी उन्हें वाचक कहने में विसंवादकी कोई बात नहीं है। नन्दिसूत्र पट्टावलिमें आर्य नागहस्तिको पूर्वधर न लिखकर मात्र विवक्षित पूर्वके एकदेशरूप कर्मप्रकृति में प्रधान कहा गया है। फिर भी उसमें उनके यशःशील वाचकवंशकी अभिवृद्धिकी कामना की गई है।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४३ )
उपसंहार कषायप्राभृत और उसकी चूणि ये दोनों दिगम्बर आचार्योंकी अमर कृतियाँ हैं इस विषयमें पूर्वमें हम सप्रमाण ऊहापोहपूर्वक संक्षेप जो कुछ भी लिख आये हैं उन सबका यह उपसंहार है
१. कषायप्राभूत और उसकी चणिके रचनाकालसे लेकर उनकी महती टीका जयधवलाके रचनाकाल तक और उसके बाद भी दिगम्बर परम्परामें उक्त ग्रन्थ-रत्नोंका बराबर पठन-पाठन होता आ रहा है । यह इसीसे स्पष्ट है कि उनपर दिगम्बर आचार्यों द्वारा अनेक उच्चारणाएँ और पद्धति प्रभृति टीकाएँ लिखी गई हैं। तथा उन्हींके आधारसे सबके अन्तमें जयधवला टीका भी लिखी गई है तथा वर्तमान समयमें उनका हिन्दीमें रूपान्तर भी हो रहा है।
२. जयधवलामें उल्लिखित अंग-पूर्वधारियोंकी परम्परासे ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परामें तीर्थकर भगवान् महावीरसे लेकर जो परम्परा पाई जाती है उसी परम्परामें किसी समय ये आचार्य हुए हैं । अपने श्रुतावतारमें इन्द्रनन्दिने भी इसे स्वीकार किया है।
३. इन ग्रन्थरत्नोंकी भाषा, रचनाशैली और शब्दविन्यास आदिका क्रम दिगम्बर परम्पराके एतद्विषयक अन्य साहित्यके ही अनुरूप है, श्वेताम्बर परम्पराके साहित्यके अनुरूप नहीं।
४. दि० आचार्योंकी मालिकामें गुणधर और यतिवृषभ दो आचार्य भी हुए हैं । तथा उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूणिकी रचना की थी, आनुपूर्वीसे इसकी अनुश्रुति दिगम्बर परम्परामें रही आई, श्वेताम्बर परम्परा इस विषयमें बिल्कुल अनभिज्ञ रही। यह निष्कारण नहीं होना चाहिए । स्पष्ट है, श्वेताम्बर परम्पराने इन दोनों अनुपम कृतियोंको श्वेताम्बर परम्पराके रूपमें कभी भी मान्यता नहीं दी।
५. शतक और शप्ततिका आदिमें २-४ उल्लेखों द्वारा जो कषायप्राभृत्तका नामनिर्देश पाया जाता है वह केवल विषयकी पुष्टि के प्रयोजनसे ही पाया जाता है । उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है ।
स्पष्ट है कि कषायप्राभूत और उसकी चूणि दिगम्बर आचार्योकी अमर रचना है।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंगलाचरण
उपयोग अर्थाधिकार कहने की सूचना
प्रथम सूत्रगाथा और उसकी व्याख्या
दूसरी
तीसरी
इसके अन्तर्गत दो प्रकारकी उपयोग वर्गणाओंका नामनिर्देश
चौथी सूत्रगाथा और उसकी व्याख्या
इसके अन्तर्गत दो प्रकारके उपदेशोंका निर्देश पाँचवीं सूत्रगाथा और उसकी व्याख्या
छठी सातवीं
""
""
""
33
विषय-सूची
उपयोग अर्थाधिकार
19
17
"1
चूर्णिसूत्रोंद्वारा उक्त सूत्र गाथाओंके व्याख्यानको
सूचना प्रथम गाथाका विस्तृत विवेचन अद्धापरिमाण पदका अर्थ
चारों कषायोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त कालके विषयमें जीवस्थानसे चूर्णिसूत्रों का उल्लेखके आशय में अन्तरका उल्लेख गतियों में निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा
जघन्य काल एक समयका खुलासा ओघसे चारों कषायोंके कालके अल्पबहुत्वका निर्देश
पृ.सं.
१ उक्त ओघ प्ररूपणा के समान तिर्यञ्च और मनुष्यगति में जानने की सूचना
१
२
नरकगतिमें उक्त प्ररूपणा
३
६
प्रवाह्यमान उपदेशको अपेक्षा विशेष अधिक
पदसे कितना काल लेना इसका खुलासा उक्त अल्पबहुत्वविषयक आदेशप्ररूपणा प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा चारों गतियों में समुच्चयरूपसे कालविषयक अल्पबहुत्व - चौदह जीवसमासोंमें उक्त अल्पबहुत्व प्रत्येक कषायके उपयोगवारोंके क्रमका निर्देश उपयोगवार परिपाटियोंका संदृष्टि सहित विशेष
खुलासा
६
७
७
१४
१४-४२
१४
१५
९
१०
११
१५
१६
१७
१५
१९
१९
२३
२९
३०
देवगतिमें उक्त प्ररूपणा
उक्त प्ररूपणाके अनुसार नरकगतिमें कषायों के परिवर्तनवारोंके अल्पबहुत्वका निर्देश
देवगतिमें उक्त अल्पबहुत्व
तिर्यञ्च मनुष्यगति में उक्त अल्पबहुत्व द्वितीय गाथाका विस्तृत विवेचन
एक भवमें एक कषायके उपयोगोंकी संख्याके
विचारका निर्देश
नरकगति में उक्त प्ररूपणा
शेष गतियोंमें उक्त प्रकारसे जाननेको सूचना नरकगतिमें किस कषायके कितने उपयोग
होनेपर दूसरी कषायोंके कितने उपयोग होते हैं इसका स्पष्टीकरण
नरकगति के समान देवगतिमें जानने की सूचना नरकगति में उक्त उपयोगविषयक अल्पबहुत्वका सकारण निर्देश
नरकगति के समान देवगतिमें जाननेकी सूचना के साथ विशेषताका निर्देश तृतीय गाथाका विस्तृत विवेचन
उक्त समग्र गाथाके पृच्छासूत्र होनेका निर्देश तथा स्पष्टीकरण
उपयोगवर्गणाओंके दो भेदोंका निर्देश उपयोग वर्गणाका स्वरूप निर्देश
कालोपयोगवर्गुणाका स्वरूप निर्देश भावोपयोगवर्गणाका स्वरूप निर्देश
कालोपयोगवर्गणा और
स्थान दोनों एक हैं
भावोपयोगवर्गणा और कषायोदयस्थान दोनों
एक हैं
८ ३८
४० ४१
४३-६०
कषायोपयोगाद्धा
पृ. सं.
३४ ३४
३७
४३
४३
४५
४५
४९
५०
५९
६०-६५
६०
६१
६१
६२
६२
६२
६२
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ. सं.
६
सामा
६५
( ४६ ) .
पृ. सं. कषायोदयस्थानोंका अल्पबहुत्व
६२ पांचवीं गाथाका विस्तृत विवेचन ८५-९१ उक्त दोनों वर्गणाओं के साथ तीन अनुयोग उक्त गाथाके सूचनासूत्र होनका निर्देश द्वारोंके अनुगमको सूचना
६३ उस द्वारा आठ अनुयोगद्वारोंकी सूचनाका कालापयोग वर्गणाको अपेक्षा प्ररूपणानुगम ६३ निर्देश प्रमाणानुगम
६३ आठ अनुयोगद्वारों के नामोंकी गाथाके पदोंके अल्पबहुत्वानुगमके दो भेदोंका निर्देशपूर्वक
द्वारा सूचनाका निर्देश खुलासा
६३ कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका आठ अनुयोग भावोपयोगवर्गणाओंकी अपेक्षा प्ररूपणानुगम
द्वारोंके अलबम्बन द्वारा १३ मार्गणाओंप्रमाणानुगम
में अनुसन्धान करनेको सूचना व खुलासा ८८ दोनों प्रकारका अल्पबहुत्व
प्रकृतमें महादण्डक करनेकी सूचना चौथी गाथाका विस्तृत विवेचन ६५-८४
छठी गाथाका विस्तृत वि० ९१-१०८ इस गाथाके व्याख्यानमें दो प्रकारके उप
जो-जो जीव जिस कषायमें उपयुक्त है वे देशोंके पाये जानेका निर्देश
पहले क्या उसी कषायमें उपयुक्त थे अप्रवाहमान उपदेशके अनुसार कषाय और
इस पृच्छाके अनुसार विचार अनुभाग एक ही हैं इसका खुलासा
वर्तमानमें मानमें उपयुक्त हए जीवोंके मानकौन गति एक कालपें एक, दो, तीन या
की अपेक्षा अतीत कालके तीन भेद चार कषायोंमें उपयुक्त होती है इन __करके विचार पृच्छाओंके अनुसार विचार
उन्हींके क्रोधकी अपेक्षा अतीत कालके तीन नरक गतिमें उक्त पृच्छाके अनुसार विचार ६९ भेद करके विचार . नरकगतिके समानदेवगतिमें जाननेकी सूचना
उन्हींके माया व लोभकी अपेक्षा अतीत काल प्रवाहमान उपदेशके अनुसार उक्त गाथाका
के तीन भेद करके विचार विचार
वर्तमानमें मानोपयुक्त जीवोंका उक्त काल प्रवाह्यमान उपदेशका स्वरूप प्रकृतमें आर्यमंक्षका उपदेश अप्रवाह्यमान
बारह प्रकार है इसकी सूचना और नागहस्तिका उपदेश प्रवाहमान
वर्तमानमें क्रोधमें उपयुक्त हए जीवोंका उक्त इसका निर्देश
काल ग्यारह प्रकारका होता है इसका कषाय और अनुभागमें भेदका निर्देश
खुलासा तदनुसार कालशब्दके अर्थको सूचना
वर्तमानमें मायामें उपयुक्त हुए जीवोंका उक्त अतः एक कालका अर्थ एक कषायोपयोगाद्धा
काल दस प्रकारका होता है इसका
खुलासा . स्थान है यह सूचना
वर्तमानमें लोभमें उपयुक्त हए जीवोंका उक्त इसके अनुसार पृच्छाओंका निर्देश
७३
काल नौ प्रकारका होता है इसका एक-एक कषायोदय स्थानमें प्रसोंका प्रमाण निर्देश
खुलासा एक-एक कषायोपयोगाद्धास्थानमें त्रसोंके
उक्त सब कालोंके योगकी सूचना प्रमाणका निर्देश
प्रकृतमें १२ स्वस्थान पद और उनकी अपेक्षा उक्त कथनके उपसंहारका निर्देश
अल्बबहुत्वका निर्देश
१०० उक्त कथनके बाद नौ पदों द्वारा स्वस्थान
आगे ४२ पद अल्पबहत्वकी सूचना अल्पबहुत्वका निर्देश
७६ सातवीं गाथाका विस्तृत वि. १०८-१४८ छत्तीस पदों द्वारा परस्थान अल्प बहुत्वका उक्त गाथाके अनुसार दो अर्थों को सूचना १०८ निर्देश ८२ प्रथम अर्थको प्ररूपणा
१०९
७१
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
११९
११०
१४१
( ४७ ) पृ. सं.
पृ. सं. उपयोगवर्गणाओंके दो भेदोंका निर्देश
१०९ उक्त दोनों उपदेशोंके अनुसार बसोंमें कषाकषायोदयस्थानोंका लक्षण
१०९
योदयस्थानोंका निर्देश उपयोगाद्धास्थानोंका लक्षण उक्त दोनों स्थान उपयोगवर्गणा कहलाते हैं
कषायोदयस्थानोंमें यवमध्यकी अपेक्षा जीवों इसका निर्देश
का विचार
१२१ उपयोगाद्धास्थानोंसे रहित और सहित स्थानों उक्त गाथाके दूसरे अर्थको प्ररूपणा ......... का विचार
११० उक्त विषयमें तीन श्रेणियोंकी अपेक्षा प्रकृतमें प्रवाहमान और अप्रवाहमान उप
विचार देशका निर्देश उक्त अर्थपदके अनुसार यवमध्यके विषयमें
प्रकृतमें विशेषाधिकको जाननेके लिए दो ६ अनुयोगद्वारोंका निरूपण
११७ उपदेशोंकी सूचना
चतुः स्थान अर्धाधिकार मंगलाचरण
१४९ उत्तरोत्तर अन्तिम सन्धिसे अग्रिम सन्धिमें चतुःस्थान अर्थाधिकारमें सर्व प्रथम गाथा
अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पसूत्रोंके जाननेकी सूचना
१५० बहुत्वका विचार क्रोधादि प्रत्येक कषायके चार-चार भेदोंकी
दास समान मानमें देशावरण और सर्वा१५१. वरणका विचार
१६४ यहाँ अनन्तानुबन्धी आदिकी अपेक्षा वे चार
उक्त सब क्रम चारों कषायोंके चारों स्थानोंचार भेद नहीं लिये गये हैं इस विषय
में जाननेकी सूचना का खुलासा
उक्त स्थानों में से किस गतिमें कौन स्थान क्रोध और मान कषायके शक्तिकी अपेक्षा
बद्ध, बध्यमान, उपशान्त और उदीर्ण __ चार-चार भेदोंका स्पष्टीकरण
है इसका विचार मायाके शक्तिको अपेक्षा चार भेदोंका
संज्ञी आदि मार्गणाओंमें उक्त विषयका स्पष्टीकरण
विचार लोभके शक्तिको अपेक्षा चार भेदोंका
किस स्थानका वेदन करनेवाला किस स्थान स्पष्टीकरण
को बांधता है आदिका विचार उक्त १६ स्थानोंमें स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका
असंज्ञी किन स्थानोंका व संज्ञी जीव किन विचार
स्थानोंका बन्ध करता है इत्यादिका लताके समान मानमें वर्गणाओंके अल्प
विचार बहुत्वका निर्देश
चतुःस्थान पदको निक्षेपयोजना
१७२ लताके समान मानसे प्रदेशोंकी अपेक्षा दारु
एकैक निक्षेप पहले कह और कर आये हैं आदिके समान मान उत्तरोत्तर अनन्त
इसकी सूचना
१७३ गुण हीन होनेका विधान ६. स्थाननिक्षेपकी विशेष प्ररूपणा
१७३ लताके समान अनुभाग समूह और वर्गणा
नैगमनयके सब निक्षेपोंको स्वीकार करनेकी समूहकी अपेक्षा दारु आदिके समान
सूचना
१७५ मान अधिक होनेका निर्देश
संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा विचार
१७५
सूचना
१६७
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ. सं.
ऋजुसत्र नयकी अपेक्षा विचार शब्दनयकी अपेक्षा विचार प्रकृतमें भावस्थानसे प्रयोजन है इसका
खुलासा आगे सूत्रगाथाओंकी अपेक्षा स्पष्टीकरणकी
( ४८ ) पृ. सं. १७५ चारों ही क्रोधस्थानोंका कालकी अपेक्षा १७६ उदाहरणों द्वारा अर्थ साधन
शेषका भावकी अपेक्षा उदाहरणों द्वारा
अर्थसाधन
उदकराजि आदिके समान किस क्रोधका १७८
संस्कार कितने काल तक रहता है
शेषको अनुमानसे इसी प्रकार जाननेकी १७८ सूचना
. १८३
१७७
१७९
सूचना
प्रारम्भको ४ गाथाऐं १६ स्थानोंके उदा
हरणपूर्वक अर्थ साधनोंमें आई हैं इस तथ्यका निर्देश
मङ्गलाचरण क्रोधकषायके पर्यायवाची नाम मानकषायके ,. "
व्यञ्जन-अर्थाधिकार
१८५ मायाकषायके पर्यायवाची नाम १८७ लोभकषायके ,, ,
१८८ १८९
सम्यक्त्व-अर्वाधिकार मंगलाचरण
१९३ दूसरी सूत्रगाथाकी अर्थविभाषा २०७-२२० अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें चार सूत्र
उक्त जीवके प्रकृति आदिके भेदसे चारों गाथाएँ कथन योग्य १९४ प्रकारके सत्कर्मका विचार
२०७ अवतार चार प्रकारका
१९४ उक्त जीवके प्रकृति आदि भेदरूप चार उपक्रमके पाँच प्रकार
१९४ प्रकारके बन्धका निर्देश आनुपूर्वीके तीन भेद
१९४ उक्त जीवके उदयानुदयरूपसे उदयावलिमें वक्तव्यताके तीन भेद
प्रविष्ट होनेवाले कर्मोंका निर्देश अनुगमका लक्षण
१९४ यह जीव किन कर्मोंकी उदीरणा करता है उनमें से प्रथम सूत्रगाथा और उसकी व्याख्या १९५ इसका निर्देश
१९६ उक्त उदय-उदीरणाविषयक आदेश- .. तीसरी १९७ प्ररूपणाका निर्देश
२१८ चौथी
, १९८ स्थिति-अनुभाग-प्रदेश उदीरणाका निर्देश २२० प्रथम सूत्रको गाथाकी अर्थविभाषा १९९-२०६ तीसरी सूत्रगाथाकी अर्थविभाषा २२१-२३० दर्शनमोहका उपशम करनेवालेका परिणाम
दर्शनमोहका उपशम करनेके पूर्व ही . कैसा होता है इसका निर्देश
. २००
किन कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो योग कौन होता है ,
२०१
जाती है इस विषयका निर्देश २२१ कषाय कौन और कैसी होती है इसका
प्रकृत ३४ बन्धापसरणोंका निर्देश निर्देश
२०२ आदेशकी अपेक्षा प्रकृतिबन्धव्युच्छित्तिका उपयोग कौन होता है इसका निर्देश
२०३
निर्देश लेश्या कौन होती है
२०४ उक्त जीवके उदयव्यच्छित्तिको प्राप्त वेद कौन होता है ,
२०५ होनेवाली प्रकृतियोंका निर्देश
दूसरी
२२१
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
२७२
( ४९ )
पृ. सं. उक्तविषयक आदेशप्ररूपणा
२२७ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणश्रेणि निक्षेप स्थिति आदिको अपेक्षा उक्त विषयका
का प्रमाण
२६४ विचार २९ गुणश्रेणि विन्यासक्रमका निर्देश
२६५ उक्तजीव अन्तर कहां करता है और
स्थितिकाण्डक उत्कीरण काल और स्थितिउपशामक कहाँ होता है इसका निर्देश २३० बन्धगडाकी तुल्यताका निर्देश चौथी गाथाकी अर्थविभाषा २३०-२३३ एक स्थितिकाण्डक कालमें अनभाग काण्डकोंकेअपूर्व-अनिवृत्तिकरण जीवके स्थितिघात
प्रमाणका निर्देश
२६७ __अनुभागघातका निर्देश
२३१ स्थितिकाण्डकके समाप्त होने पर अनुभागअधःप्रवृत्तकरणके समयमें स्थिति अनुभाग
काण्डक और स्थितिबन्धगता समाप्त __ काण्डक घात नहीं होते इसका निर्देश २३३ होते है इसका निर्देश
२६८ दर्शनमोहका उपशम करनेवालेके तीन
अपूर्व करणके प्रथम और अन्तिम समयमें करणोंका नाम निर्देश और उनके
स्थितिसत्कर्मका विचार
२६९ लक्षण
२३३ उक्त सब विषयोंका अनिवृत्तिकरणमें विचार २७१ चौथी उपशामनाद्धाका लक्षण सहित
अन्तर करणविधि बादिका निर्देश निर्देश
२३४ दर्शनमोहनीयको जितनी प्रकृतियोंकी सत्ता अधःप्रवृत्तकरणके लक्षणका विस्तारसे
होतो है उनका अन्तर करता है . २७५ निरूपण
२३४ अन्तर करने पर जीव उपशामक कहलाता उसी प्रसंगसे अनुकृष्टिका लक्षण व प्ररूपणा २३५
है इसका निर्देश
२७६ निर्वर्गणाकाण्डकका स्पष्टीकरण २३६ आगाल-प्रत्यागाल विषयक सूचना
२७६ प्रकारान्तरसे अधःप्रवृत्तकरणके परिणाम
मिथ्यात्वकी गुणश्रेणिका विशेष निर्देश २७७ स्थानोंके खण्डोंका निर्देश
२३८ शेष कर्मोंकी गुणश्रेणिका विचार
२७९ उक्त परिणामोंका विशुद्धिविषयक स्व.
एक आवलि काल शेष रहने पर मिथ्यात्वस्थान अल्पबहुत्व
૨૪૪ का घात नहीं होता
२८० विशद्धिविषयक परस्थान अल्पबहुत्व
२४५
प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयमें अपूर्वकरणमें परिणाम पंक्ति और विशुद्धि
मिथ्यात्वके तीन खण्ड करने की विधिविषयक अल्पबहुत्व
२५२
का निर्देश अनिवृत्तिकरणमें परिणामस्थानोंका विचार २५६
मिथ्यात्वके अतिरिक्त शेष कोके विषपमें अनादि मिथ्यादृष्टि उपशामककी प्ररूपणाके
विशेष कथन कथन करनेका निर्देश
२५७
२५ पदवाला अल्पबहुत्व दण्डक अधःप्रवृत्तकरणमें होनेवाले और न होने वाले कार्योंका निर्देश
दर्शनमोहके उपशम करनेका अधिकारी कोन वहाँ अप्रशस्त और प्रशस्त कर्मोके अनु
जीव है इसका प्रथम व द्वितीय सूत्र भाग बन्धका निर्देश
गाथामें निर्देश
२५८ वहीं स्थितिबन्धविषयक निर्देश
दर्शनमोहका उपशम करते समय न होनेवाले २५६
और उसके बादमें होनेवाले कार्योंका अपर्वकरणमें स्थितिकाण्डकोंके प्रमाणका
तीसरी गाथा द्वारा निर्देश
३०२ वहीं स्थितिबन्धका विचार .
दर्शनमोहका उपशम करनेवालेके उपयोग अनुभाग काण्ड तथा तद्विषयक अल्पबहुतत्व
आदिका विचार करनेका चौथी सूत्र का विचार २६१ गाथा द्वारा निर्देश
३०४
२५८
निर्देश
२६.
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५०) पृ. सं.
पृ. सं.
उपशम करते समय मिथ्यात्वके उदयका व प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति आदि दर्शन उपशम भावका अन्त होनेपर उसके
मोहके सर्वोपशमसे होती है आदिका उदयके भजनीयपनेका पांचवीं गाथा
दसवीं गाथा द्वारा निर्देश द्वारा निर्देश
३० सम्यक्त्वकी प्रथम बार प्राप्तिके पूर्व तथा
अप्रथम लाभके पूर्व यह जीव किस-किस उपशम सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व आदि तीनों
भाववाला होता है इसका ग्यारहीं गाथा कर्मोको स्थिति व अनुभाग किस प्रकार
द्वारा निर्देश का होता है इसका छठी गाथा द्वारा
मिथ्यात्व आदिके संक्रमका बारहवीं गाथा निर्देश
द्वारा निर्देश प्रकृतमें बन्ध प्रत्ययोंका सातवीं गाथा द्वारा
सम्यग्दृष्टिकी श्रद्धाका तेरहवीं गाथा द्वारा निर्देश
३११ निर्देश
मिथ्यादृष्टिकी अन्यथा श्रद्धाका चौदहवीं दर्शनमोहका अबन्धक कौन-कौन जीव है इसका आठवीं गाथा द्वारा विचार
गाथा द्वारा निर्देश दर्शन मोहका उपशम कितने काल तक होता.
सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उपयोगोंका पन्द्रहवीं
गाथा द्वारा निर्देश है इसका तथा उसके बाद क्या होता है
उपशम सम्यग्दृष्टि आदिका आठ अनुयोग इसका नौवों गाथा द्वारा निर्देश
द्वारोके आधयसे जानने की सूचना
३१८
३२१
३२२
३२४
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिरि- जइवसहाइरियविरहय- चुण्णिसुत्तसमणिदं
सिरि-भगवंतगुरणहरभडारनोवइट्ठ
कसाय पा हु डं
तस्स
सिरि- वीरसेरणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्थ
उवजोगो णाम सत्तमो अत्थाहियारो
+::+—
णमो अरहंताणं०
जे ते केवलदंसण- णाणुवजोगेहि जुगवदुवजुत्ता ।
ते केवलिणो पणमिय वोच्छं उवजोगमणिओगं ॥ १ ॥
* 'उवजोगे त्ति अणियोगद्दारस्स सुत्तं ।
जो दर्शन और केवलज्ञान इन दोनों उपयोगोंसे युगपत् उपयुक्त हैं उन केवली जिनको नमस्कार करके उपयोग अनुयोगद्वारका कथन करता हूँ ॥ १ ॥
* अब उपयोग अनुयोगद्वारके गाथा सूत्रोंका अणुसरण करते हैं ।
१. ता० प्रती 'उवजोगेत्ति अणियोगदारस्स सुत्तं' इत्येतस्य चूर्णिसूत्ररूपेण निर्देशो न कृतः ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [उवजोगो ७ १. उवजोगे त्ति जमणिओगद्दारं कषायपाहुडस्स पण्हारसण्हमत्थाहियाराणं मज्झे सत्तमं कोहादिकसायाणमुवजोगसरूवणिरूवयं तस्सेदाणिमत्थविहासणे कीरमाणे तदवलंबणीभूदं' गाहामुत्तमणुसरामो त्ति भणिदं होदि । संपहि किं तं सुत्तमिदि सिस्साहिप्पायमासंकिय तण्णिद्देसविसयं पुच्छावक्कमाह
* तं जहा।
२. सुगमं । (१०) केवचिरं उवजोगो कम्मि कसायम्मि को व केणहिओ।
___को वा कम्मि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो ॥६३॥ 5 ३. एसा ताव उवजोगाणियोगद्दारे पडिबद्धाणं सत्तण्णं सुत्तगाहाणं मज्झे पढमा सुत्तगाहा । संपहि एदिस्से गाहाए अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एसा गाहा तिणि अत्थे परूवेइ-'केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि' त्ति भणिदे कोहादीणं कसायाणमेकेक्कम्हि कसायम्हि एगस्स जीवस्स केत्तियमेत्तकालमुवजोगो होदि ? किं सागरोवमं पलिदोवमं पलिदोवमासंखेज्जभागमावलियमावलि० असंखे०भागं संखेज्जसमए एगसमयं वा त्ति पुच्छा कदा होदि । एवं पुच्छिदे सव्वेसिं कसायाण
१. कषायप्राभृतके पन्द्रह अर्थाधिकारोंके मध्य क्रोधादि कषायोंके उपयोग स्वरूपका निरूपण करनेवाला उपयोग नामक जो सातवां अनुयोगद्वार है, इस समय उसके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए उसके आलम्बनभूत गाथासूत्रका अनुसरण करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब वह सूत्र कौन है इसप्रकार शिष्यके अभिप्रायको शंकारूपसे ग्रहणकर उसका निर्देश करनेवाले पृच्छावाक्यको कहते हैं
* वह जैसे।
२. यह सूत्र सुगम है।
* एक जीवका एक कषायमें कितने काल तक उपयोग होता है ? किस कषायका उपयोग अन्य किस कषायके उपयोगसे अधिक है और कौन जीव किस कषायमें पुनः पुनः एक उपयोगसे उपयुक्त रहता है ॥ ६३ ॥
$ ३. उपयोग अनुयोगद्वारसे सम्बन्ध रखनेवाली सात सूत्र गाथाओंमें यह पहली सूत्र गाँथा है। अब इस गाथाके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-यह गाथा तीन अर्थोंका करती है-'केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि' ऐसा कहने पर क्रोधादि कषायोंमें से एक एक कषायमें एक जीवका कितने काल तक उपयोग रहता है ? क्या सागरोपम, पल्योपम, पल्योपमके असंख्यातवें भाग, एक आवलि, एक आवलिके असंख्यातवें भाग, संख्यात समय
१. ता० प्रती -भूत इति पाठः । २. आ० प्रती एसो इति पाठः ।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा मुवजोगकालो णिव्वाघादेण जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तमिदि पुरदो भणिहिदि। एसो एगो अत्थो।
६४. 'को व केणधिगो' एवं भणिदे कोहादिकसायाणमुवजोगकाला किमण्णोणं सरिसा विसरिसा वा त्ति अप्पाबहअविधी पुच्छिदो होइ । एवमेसो विदियो अत्थो।
६५. 'को वा कम्हि कसाए' एवं भणिदे को वा जीवो णिरयादिमग्गणाविसेसपडिबद्धो कोहादीणं मज्झे कदमम्मि कसाए 'अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' मुहुर्मुहुरुपयोगेन परिणत इत्यर्थः। णेरइयो अप्पणो भवहिदीए अब्भंतरे किं कोहोवजोगेण बहुवारं परिणमइ, आहो माणोवजोगेण मायोवजोगेण लोभोवजोगेण वा ? एवं सेसासु वि गदीसु पुच्छा कायव्वा त्ति एसो एदस्स भावत्थो। एदिस्से पुच्छाए णिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तावलंबणेण कस्सामो। एवमेसो तदियो अत्थो। तदो एसा गाहा एवंविहेसु तिसु अत्थेसु पडिबद्धा त्ति सिद्धं । संपहि जहावसरपत्ताए विदियगाहाए अवयारं कस्सामो। तं जहा(११) एक्कम्हि भवग्गहणे एक्ककसायम्हि कदि च उवजोगा।
एकम्हि य उवजोगे एककसाए कदि भवा च ॥६४॥
६६. संपहि एदिस्से विदियगाहाए अत्थे भण्णमाणे पुव्वद्धे ताव एगं भवग्गहणमाधारं कादूण पुणो तम्मि एगकसाओवजोगा केत्तिया होति त्ति उवजोगे आधेयभूदे या एक समयप्रमाण काल तक उक्त उपयोग रहता है ऐसी पृच्छा की गई है। ऐसा पूछनेपर सब कषायोंका निर्व्याघातरूपसे जघन्य और उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है यह आगे कहेंगे। यह एक अर्थ है।
६४. 'को व केणधिगो' ऐसा कहने पर क्रोधादि कषायोंके उपयोगकाल परस्पर क्या सदृश हैं या विसदृश ? यह अल्पबहुत्वविधि पूछी गई है । यह दूसरा अर्थ है।
६५. 'को वा कम्हि कसाए' ऐसा कहने पर नरकादि मार्गणाविशेषसे सम्बन्ध रखने वाला कौन जीव क्रोधादि कषायोंमें से किस कषायमें 'अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' पुनः पुनः उपयोगरूपसे परिणत होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। नारकी जीव अपनी भवस्थितिके भीतर क्या क्रोधके उपयोगसे बहुत बार परिणमता है अथवा मानोपयोगसे, मायोपयोगसे या लोभोपयोगसे बहुत बार परिणमता है ? इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी पृच्छा करनी चाहिए यह इस कथनका भावार्थ है। इस पृच्छाका निर्णय आगे चूर्णिसूत्रका अवल. म्बन लेकर करेंगे। इस प्रकार यह तीसरा अर्थ है। इस प्रकार यह गाथा इस प्रकारके तीन अर्थों में प्रतिबद्ध है यह सिद्ध हुआ। अब अवसर प्राप्त दूसरी गाथाका अवतार करेंगे। यथा
एक भवको आश्रय कर एक कषायमें कितने उपयोग होते हैं, उसी प्रकार एक कषायसम्बन्धी एक उपयोगमें कितने भव होते हैं ॥६४॥
$ ६. अब इस दूसरी गाथाके अर्थका कथन करते हुए पूर्वार्धमें उपयोगको आधेय
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ कादूण पुच्छा कदा होदि। तं कथं ? 'एक्कम्हि भवग्गहणे' एवं भणिदे णिरयादीणमण्णदरभवग्गहणे त्ति वुत्तं होइ । 'एक्ककसायम्हि' एवं भणिदे कोहादीणमण्णदरकसायम्हि त्ति भणिदं होदि । 'कदि च उवजोगा' त्ति वुत्ते केत्तिया उवजोगा होंति ? किं संखेज्जा असंखेज्जा वा त्ति पुच्छिदो होइ । णिरयादिगदीसु संखेजवस्सियं असंखेजवस्सियं वा भवग्गहणमाधारभूदं ठवेदूण तत्थ कोहादिकसायाणमुवजोगपरिणमणवारा केत्तिया होंति ? किं संखेज्जा असंखेज्जा वा ? जम्हि वा णिरयादिभवग्गहणे अण्णदरकसायोवजोगा संखेजा असंखेज्जा वा जादा तम्हि सेसकसायोवजोगा केत्तिया होंति ? किं तप्पमाणा चेव होंति, आहो विसरिसपरिमाणा' त्ति जो विचारो सो वि एदिस्से गाहाए पुव्वद्धम्मि पडिबद्धो त्ति एसो एत्थ भावत्यो ।
७. 'एक्कम्हि य उवजोगे०' एदम्मि गाहापच्छिमद्धम्मि कोहादिकसायाणं संखेजासंखेजोवजोगे आधारभूदे कादण पुणो तेसु अदीदभवा केत्तिया होति त्ति भवाणभाधेयभूदाणमप्पाबहुअपुच्छा कदा होइ। तत्कथमिति चेदुच्यते 'एक्कम्हि य उवजोगे' एकस्मिन्नुपयोग इत्यर्थः । 'एक्ककसाए' क्रोधादीनामन्यतमकषायप्रतिबद्ध इति यावत् । बनाकर यह पृच्छाकी गई है कि एक भवग्रहणको आधार करके उसमें एक कषायसम्बन्धी उपयोग कितने होते हैं ?
शंका-वह कैसे? ___ समाधान–'एकम्हि भवग्गहणे' ऐसा कहने पर नरकादि गतियोंमें से अन्यतर भवमें यह कहा गया है। 'एक्ककसायम्हि' ऐसा कहनेपर क्रोधादि कषायोंमें से अन्यतर कषायमें यह कहा गया है । 'कदि च उवजोगा' ऐसा कहनेपर कितने उपयोग होते हैं ? क्या संख्यात उपयोग होते हैं या असंख्यात उपयोग होते हैं यह पूछा गया है। नरकादि गतियों में से संख्यात वर्षवाले या असंख्यात वर्षवाले भवको आधाररूपसे स्थापितकर वहाँ क्रोधादि कषायोंके उपयोग परिणमनके बार कितने होते हैं ? क्या संख्यात होते हैं या असंख्यात होते हैं ? अथवा जिस नरकादि भवमें अन्यतर कषायसम्बन्धी उपयोग संख्यात या असंख्यात हुए हैं वहाँ शेष कषायसम्बन्धी उपयोग कितने होते हैं ? क्या तत्प्रमाण ही होते हैं या विसदृश प्रमाणको लिये हुए होते हैं इस प्रकार जो विचार है वह भी इस गाथाके पूर्वाधमें प्रतिबद्ध है यह यहाँ भावार्थ है।
$ ७. 'एक्कम्हि य उवजोगे.' गाथाके इस उत्तरार्धमें क्रोधादि कषायसम्बन्धी संख्यात और असंख्यात उपयोगोंको आधार करके पुनः उनमें अतीत भव कितने होते हैं इस प्रकार आधेयभूत भवोंके अल्पबहुत्वकी पृच्छा की गई है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान—'एक्कम्हि य उवजोगे' 'एक उपयोगमें' यह इसका अर्थ है। 'एक्ककसाए' क्रोधादि कपायोंमें से अन्यतम कषायसे प्रतिबद्ध एक उपयोगमें, यह उक्त कथनका तात्पर्य
१. आ० प्रती विसरिसपरिणामा।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४]
गाहामुत्ताणं अत्थपरूवणा 'कदि भवा च' कियन्तो भवा सम्भवन्तीत्यतीते काले' इति प्रश्नः कृतो भवति । अयं पुनरत्र वाक्यार्थः-णिरयादिगदीसु एयस्स जीवस्स बहुआ भवपरिवत्तणवारा अदीदकालसंबंधिणो वदिकंता । ते च दुविधा-कोहादिकसायाणं संखेजोवजोगिगा असंखेजोवजोगिगा चेदि । तत्थेगकसायस्स किं संखेजोवजोगिगा भवा बहुगा, आहो असंखेजोवजोगिगा ति सत्थाणेण पुणो परत्थाणेण च जमप्पाबहुअविहाणं तमेदम्मि गाहापच्छिमद्धम्मि पडिबद्धमिदि। कथमेवं विहो अत्थो एत्थ समुवलब्भइ ति चे वुच्चदे-'एक्कम्मि य उवजोगे' ति एत्थतणएगसदो एगकसायविसयाणमणेगोवजोगाणं णाणाकालपडिबद्धाणं जाइदुवारेण पत्तेयत्ताणं जेण वाचओ, तेण एकस्स कसायस्स अणेगेसु उवजोगेसु अदीदकालविसएसु एगभवप्पणाए संखेजासंखेज्जभेयभिण्णेसु केत्तिया भवा होंति ? के थोवा, के वा बहुगा ति सुत्तत्थावलंबणादो पयदत्थोवलद्धी ण विरुज्झदे । एवमेदे दुवे अत्था एत्थ गाहासुत्ते पडिबद्धा ।
८. एदस्स गाहापच्छिमद्धस्स वक्खाणमेवं करेंता वि अत्थि-जहा, एक्कम्मि य उवजोगे त्ति वुत्ते एगकसायविसयाणमणेगोवजोगाणं णाणाकालसंबंधीणं गहणं ण कायव्वं, किं तु एकस्सेव उवजोगस्स अंतोमुहुत्तकालावच्छिण्णपमाणस्स गहणं कायव्वं ।
है। 'कदि भवा च' कितने भव सम्भव हैं इस प्रकार अतीत कालके विषयमें यह प्रश्न किया गया है। यहाँपर इस वाक्यका यह अर्थ है-नरकादि गतियों में एक जीवके अतीत काल सम्बन्धी बहुत परिवर्तनवार व्यतीत हो गये हैं। वे दो प्रकारके हैं-क्रोधादि कषायसम्बन्धी संख्यात उपयोगवाले भव परिवर्तनवार और असंख्यात उपयोगवाले भव परिवर्तनवार । उनमें से क्या एक कषायसम्बन्धी संख्यात उपयोगवाले भव बहुत हैं या असंख्यात उपयोगवाले भव बहुत हैं इस प्रकार स्वस्थानकी अपेक्षा और परस्थानकी अपेक्षा जो अल्पबहुत्वका विधान है वह इस गाथाके उत्तरार्धमें प्रतिबद्ध है।
शंका-इस प्रकारका अर्थ यहाँ कैसे उपलब्ध होता है ?
समाधान-'एक्कम्मि य उवजोगे' इस प्रकार यहाँपर आया हुआ एक शब्द नानाकालसम्बन्धी एक कषायविषयक अनेक उपयोगोंमें से यतः जातिद्वारा प्रत्येकका वाचक है इसलिए एक भवकी मुख्यतासे संख्यात और असंख्यात भेदवाले अतीत कालविषयक एक कषायसम्बन्धी अनेक उपयोगोंमें कितने भव होते हैं ? कौन थोड़े होते हैं और कौन बहुत होते हैं इस प्रकार सूत्रके अर्थका अवलम्बन करनेपर प्रकृत अर्थकी उपलब्धि विरोधको प्राप्त नहीं होती । इस प्रकार ये दो अर्थ इस गाथासूत्रमें प्रतिबद्ध हैं।
$ ८. गाथाके इस उत्तरार्धका व्याख्यान इस प्रकार करनेवाले भी हैं। यथा 'एक्कम्मि य उवजोगे ऐसा कहने पर एक कषाय विषयक नानाकाल सम्बन्धी अनेक उपयोगोंका ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु अन्तर्मुहूर्त कालवाले एक ही उपयोगका ग्रहण करना चाहिए । पुनः
१. ता० प्रतौ -त्यतीतकाले इति पाठः ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ पुणो तम्मि केत्तिया भवा होति ति पुच्छिदे जह० एगो भवो होदि, उक्क० दोण्णि भवग्गहणाणि त्ति वत्तव्वं । तं कथं ? एक्को तिरिक्खो मणुसो वा कोहकसायं पूरेदणंतोमुत्तमच्छिदो। पुणो अविणद्वेणेव तेण कोधोवजोगेण णेरइएसुप्पादं लहदे । एवं च लब्भमाणे एगकसायोवजोगम्हि दुवे भवा लद्धा भवंति, अण्णहा वुण एगो' चेव भवो त्ति । संपहि जहावसरपत्ताए तदियगाहाए समोदारो कीरदे । तं जहा(१२) उवजोगवग्गणाओ कम्मि कसायम्मि केत्तिया होति । __ कदरिस्से च गदीए केवडिया वग्गणा होंति ॥६५॥
६९. एसा तदियगाहा । संपहि एदिस्से अत्थपरूवणे कीरमाणे उवजोगवग्गणाओ णाम दुविहाओ हवंति-कालोवजोगवग्गणाओ च भावोवजोगवग्गणाओ च । तासिं सरूवणिदेसमुवरि कस्सामो। पुणो तासिं दुविहाणं पि वग्गणाणं परूवणा पमाणमप्पाबहुअं च ओघादेसभेयभिण्णमेदम्मि गाहासुत्ते पडिबद्धमिदि घेत्तव्वं । ण च पमाणाणुगमो एक्को चेव एत्थ पडिबद्धो त्ति आसंकणिज्जं, पमाणाणुगमस्स परूवणप्पाबहुआविणाभाविणो णिद्देसेण तेसि पि एत्थेवंतब्भावदसणादो। तत्थ 'उवजोगवग्गउसमें कितने भव होते हैं ऐसा पूछनेपर जघन्यरूपसे एक भव होता है और उत्कृष्टरूपसे दो भव होते हैं ऐसा कहना चाहिए ।
शंका-वह कैसे ?
समाधान—एक तिर्यश्च या मनुष्य क्रोधकषायको पूरकर अन्तमुहूर्त काल तक रहा पुनः अविनष्ट हुए उसी क्रोधकषायसम्बन्धी उपयोगके साथ नारकियोंमें उत्पन्न होता है । इस प्रकार उसी कषायके साथ अन्य पर्यायमें जानेपर एक कषायसम्बन्धी उपयोगमें दो भव प्राप्त होते हैं । अन्यथा एक ही भव प्राप्त होता है। अब अवसर प्राप्त तीसरी गाथाका अवतार करते हैं । यथा
* किस कषायमें कितनी उपयोगवर्गणाएं होती हैं तथा किस गतिमें कितनी उपयोगवर्गणाएं होती हैं ॥६६॥
__$९ यह तीसरी गाथा है । अब इस गाथाके अर्थका कथन करने पर उपयोग वर्गणाऐं दो प्रकारकी होती हैं-कालोपयोगवर्गणा और भावोपयोगवर्गणा। उनके स्वरूपका निर्देश आगे करेंगे। उन दोनों ही प्रकारकी वर्गणाओंकी प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ओघ और आदेशसे अलग-अलग इस गाथासूत्रमें निबद्ध है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । एक प्रमाणानुगम ही इस गाथामें निबद्ध है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्ररूपणा
और अल्पबहुत्वके अविनाभावी प्रमाणानुगमका निर्देश करनेसे उनका भी यहाँ अन्तर्भाव देखा जाता है । 'उपयोगवर्गणाएं हैं' गाथाके इस पूर्वार्ध द्वारा कालोपयोगवर्गणाओं
१. ता० प्रती अण्णहाणुएगो इति पाठः। २. आ० प्रती -वग्गणा इति पाठः ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा णाओ' होति त्ति एदेण गाहापुव्वद्धेण कालभावोवजोगवग्गणाणं पमाणपरूवणमोघेण सूचिदं । 'कदरिस्से च गदीए.' एदेण वि पच्छिमद्धेण तासिं चेवोवजोगवग्गणाणेमादेसपरूवणा सूचिदा । तदो एवंविहत्थविसेसपरूवणट्ठमेसा गाहा समोइण्णा ति सिद्धं । संपहि चउत्थगाहाए अवयारं कस्सामो । तं जहा(१३) एक्कम्हि य अणभागे एककसायम्मि एक्ककालेण ।
उवजुत्ता का च गदी विसरिसमुवजुज्जदे का च ॥६६॥
$१०. एसा चउत्थी गाहा। संपहि एदिस्से अस्थपरूवणे कीरमाणे दोहिं उवदेसेहिं इमं चउत्थगाहं वक्खाणेति । तत्थ अपवाइज्जतेणुवदेसेण भण्णमाणे 'एकम्मि य अणुभागे एककसायम्मि' ति भणिदे जो कसायो सो चेवाणुभागो जो अणुभागो सो चेव कसायो ति एदेणहिप्पाएण जो कोध-माण-माया-लोभपरिणामो सो चेवाणुभागो ति ग.............. 'यत्तविवक्खावलंबणादो। तेण एगम्हि चेव कसाए अणुभागसण्णिदे एककालेणुवजुत्ता का गदी होदि । कदरिस्से गदीए सव्वे जीवा कोहादिकसायाणमेगदरकसायम्मि चेव एगसमएणुवजुत्ताओ लब्भंति त्ति पुच्छिदं होदि । 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' एवं भणिदे दोसु तिसु चदुसु वा कसाएसु एककालेणुवजुत्ता का च गदी ए'... ' 'पुच्छा कदा होइ । एत्थ 'एक्ककालेणे त्ति' वुत्ते
और भावोपयोगवर्गणाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा ओघसे सूचित की गई है। तथा 'कदरिस्से च गदीए०' गाथाके इस उत्तरार्ध द्वारा भी उन्हीं उपयोगवर्गणाओंकी आदेशप्ररूपणा सूचित की गई है। इसलिए इस प्रकारके अर्थ विशेषका कथन करनेके लिए यह गाथा अवतीर्ण हुई है यह सिद्ध हुआ । अब चौथी गाथाका अवतार करेंगे । यथा
___ * एक अनुभागमें और एक कषायमें एक समयमें कौनसी गति सदृशरूपसे उपयुक्त होती है और कौनसी गति विसदृशरूपसे उपयुक्त होती है ॥६६॥
६ १०. यह चौथी गाथा है । अब इसके अर्थका कथन करने पर दो उपदेशोंके द्वारा इसका व्याख्यान करते हैं-उनमेंसे अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार कथन करने पर 'एक्कम्मि य अणुभागे एक्ककसायम्मि' ऐसा कहने पर जो कषाय है वही अनुभाग है और जो अनुभाग है वही कषाय है इस प्रकार इस अभिप्रायके अनुसार जो क्रोध, मान, माया और लोभपरिणाम है वही अनुभाग है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ पर उन दोनों में एकत्व विवक्षाका अवलम्बन लिया गया है। इसलिए अनुभागसंज्ञावाले एक ही कषायमें एक समयमें उपयुक्त हुई कौनसी गति है ? किस गतिमें क्रोधादि कषायोंमेंसे किसी एक कषायमें ही एक समयमें उपयुक्त हुए सब जीव पाये जाते हैं यह यहाँ पर पृच्छा की गई है। 'विसरिसमवजज्जदे का च' ऐसा कहने पर दो, तीन या चार कषायोंमें एक समयमें उपयक्त हई कौनसी गति होती है इस प्रकारकी यहाँ पृच्छा की गई है । यहाँ गाथामें 'एक्ककालेण' ऐसा
१. मूलप्रतौ चेवोवजोगवग्गणाण- इत्यत्र 'वजोग' इति पाठः त्रुटितः । ता० प्रतौ अयं पाठः नास्ति ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ एगसमएणे त्ति अत्थो थेत्तव्यो। जइ णिरुद्धगदीए सव्वो जीवरासी एगसमयम्मि एक्केणेव कसाएण परिणदो होज्ज तो सरिसमुवजुत्ता णाम होइ, अण्णहा विसरिसमुवजुत्तो ति भण्णदे, जीवसमूहवदिरित्ताए गदीए अणुवलंभादो।
११. संपहि पवाइज्जतेणुवएसेणत्थे भण्णःणे अण्णो कसायो अण्णो च अणुभागो त्ति दोण्हं भेदविवक्खियं कादूण सुत्तत्थघडावणं कीरदे । तं जहा—'एक्कम्हि अणुभागे त्ति वुत्ते एगकसायुदयट्ठाणे त्ति घेत्तव्वं । 'एक्ककसायम्हि' त्ति वुत्ते कोहादीणमण्णदरकसायस्स गहणं कायव्वं, अणुभागादो तस्स कथंचि पुधभावोवलंभादो । 'एक्ककालेणे त्ति भणिदे एगकालोवजोगवग्गणाए गहणं कायव्वं । तदो एगस्स कसायस्स एगम्मि कसायोदयहाणे एगकसायोवजोगट्ठाणे च सरिसमुवजुत्ता का च गदी होदि त्ति पुच्छासंबंधो कायव्यो । अयं पुनरत्र वाक्यार्थः-कोहादिकसायाणं मज्झे एक्केकस्स कसायस्स असंखेज्जलोगमेत्तकसायुदयट्ठाणाणि संखेज्जावलियमेत्तकसायोवजोगट्ठाणाणि च अस्थि । तत्थेगस्स कसायस्स एगकसायुदयट्ठाणे एगकसायजोगद्धट्ठाणे च एकम्मि समये उवजुत्ता का च गदी होदि । किं सव्वेसिं जीवाणमेक्कवारेण तहापरिणामसंभवो अत्थि आहो पत्थि त्ति पुच्छिदं होइ।
$ १२. 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' एवं भणिदे दोसु कसायुदयट्ठाणेसु तिसु वा कसायु-उदयट्ठाणेसु एदेण विधिणा गंतूण जाव संखेज्जासंखेज्जकसायुदयट्ठाणेसु वा कहने पर एक समयमें ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। यदि विवक्षित गतिमें सब जीवराशि एक समयमें एक ही कषायरूपसे परिगत होवे तो सदृश उपयुक्त संज्ञावाली वह जीवराशि कहलाती है, अन्यथा विसदृश उपयुक्त संज्ञावाली कही जाती है, क्योंकि जीवसमूहसे भिन्न गति नहीं पाई जाती है।
११. अब प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार यहाँ कथन करने पर अन्य कषाय है और अन्य अनुभाग है इस प्रकार दोनोंमें भेदविवक्षा करके सूत्रके अर्थको घटित करते हैं । यथा'एक्कम्हि अणुभागे' ऐसा कहने पर उसका अर्थ एक कषाय उदयस्थान लेना चाहिए। 'एक्ककसायम्हि' ऐसा कहने पर क्रोधादिमेंसे अन्यतर कषायको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अनुभागसे कषायमें कथंचित् भेद पाया जाता है। 'एक्ककालेण' ऐसा कहनेपर एक कालोपयोगवर्गणाका ग्रहण करना चाहिए। इसलिए एक कषायके एक काम उदयस्थानमें और एक कषायोपयोगस्थानमें सदृशरूपसे उपयुक्त कौन-सी गति होती है ऐसा यहाँ पृच्छाका सम्बन्ध करना चाहिए। यहाँपर पूरे वाक्यका अर्थ यह है-क्रोधादि कषायोंमेंसे एक-एक कषायके असंख्यात लोकप्रमाण कषाय उदयस्थान और संख्यात आवलिप्रमाण कषाय उपयोगस्थान होते हैं। उनमें से एक कषायके एक कषाय उदयस्थानमें और कषायसम्बन्धी कालोपयोगस्थानमें एक समयमें उपयुक्त हुई कौन-सी गति होती है। क्या सब जीवोंका एक साथ उस प्रकारका परिणाम सम्भव है या नहीं है ऐसी पृच्छा की गई है।
१२. 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' ऐसा कहने पर दो कषाय उदयस्थानोंमें या तीन कषाय उदयस्थानोंमें इस विधिसे संख्यात या असंख्यात कषाय उदयस्थानोंमें एक समयमें
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६७]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा एगकालेणुवजुत्ता का च गदी होदि । तहा दोहि कालोवजोगवग्गणाहि तीहिं वा कालोवजोगवग्गणाहिं एवं गंतूण संखेज्जासंखेजकालोवजोगवग्गणाहि वा पव्वत्तकसायुदयट्ठाणपडिबद्धाहिं एकवारेणुवजुत्ता का च गदी होदि त्ति पुच्छा कदा होदि । तदो एवंविहाहिप्पायभेदपडिबद्धेसु दोसु अत्थेसु चउत्थी गाहा पडिबद्धा त्ति सिद्धं । संपहि पंचमीए गाहाए अवयारं कस्सामो । तं जहा(१४) केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणाकसायेसु ।
केवडिया च कसाए के के च विसिस्सदे केण ॥६७॥
१३. एसा गाहा कसायोवजुत्ताणमट्ठ अणियोगद्दाराणि सूचेदि । तं कथं ? 'केवडिगा उवजुत्ता' त्ति एदेण पढमावयवेण कसायोवजुत्ताणं दव्वपमाणाणुगमो सूचिदो, कोहादिकसाएसु उवजुत्ता जीवा ओघादेसेहिं केत्तिया होंति त्ति सुत्तत्थावलंबणादो। एदेणेव संतपरूवणा वि सूचिदा त्ति घेत्तव्यं, संतपरूवणाए विणा दव्वपमाणाणुगमपवुत्तीए अणुववत्तीदो । खेत्त-पोसणाणं पि एत्थेव संगहो दट्ठव्वो, तेसिं पि दव्वपमाणपुरंगमाणं तप्परूवणाए चेव अंतब्भावाविरोहादो। एवमेदम्मि पढमे सुत्तावयवे चत्तारि अणियोगद्दाराणि णिलीणाणि होति । तहा 'सरिसीसु च वग्गणाकसायेसु' त्ति एदम्मि विदियसुत्तावयवे कसायोवजुत्ताणं णाणेगजीवाणं कालाणुगमो सूचिदो, सरिसीसु उपयुक्त हुई कौन-सो गति होती है, उसी प्रकार पूर्वोक्त कषाय उदयस्थानोंसे प्रतिबद्ध दो कालोपयोगवर्गणाओं या तीन कालोपयोगवर्गणाओंसे लेकर संख्यात या असंख्यात कालोपयोगवर्गणाओंमें एक समयमें उपयुक्त हुई कौन-सी गति होती है ऐसी पृच्छा की गई है। इस प्रकार इस प्रकारके अभिप्रायभेदसे सम्बन्ध रखनेवाले दो अर्थों में यह चौथी गाथा प्रतिबद्ध है यह सिद्ध हुआ । अब पाँचवीं गाथाका अवतार करेंगे । यथा
* सदृश कषायोपयोगवर्गणाओंमें कितने जीव उपयुक्त होते हैं तथा चारों कषायोंमेंसे एक एक कषायमें कितने जीव उपयुक्त होते हैं और कषायोंमें उपयुक्त हुए कौन कौन जीव कषायोंमें उपयुक्त हुए अन्य किन जीवोंसे विशेषताको लिये हुए पाये जाते हैं ॥६७॥
$ १३. यह गाथा कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके आठ अनुयोगद्वारोंको सूचित करती है। वह कैसे ? 'केवडिया उवजुत्ता' गाथाके इस प्रथम अवयव द्वारा कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके द्रव्यप्रमाणानुगमका सूचन किया गया है, क्योंकि क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीव ओघ और आदेशकी अपेक्षा कितने हैं इस प्रकार यहाँ सूत्रार्थका अवलम्बन लिया गया है। तथा इसी वचन द्वारा सत्प्ररूपणा सूचित की गई है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि सत्प्ररूपणाके विना द्रव्यप्रमाणानुगमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगमका यहीं पर संग्रह करना चाहिए, क्योंकि वे द्रव्यप्रमाणानुगमपूर्वक होते हैं, इसलिए उनका द्रव्यप्रमाणानुगममें अन्तर्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता । इस प्रकार सूत्रके इस प्रथम अवयवमें चार अनुयोगद्वार अन्तर्भूत हैं। तथा 'सरिसीसु च वग्गणाकसायेसु' इस प्रकार गाथासूत्रके इस दूसरे अवयवमें कषायोंमें उपयुक्त हुए नाना जीव और एक जीवविष
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
समाणासु कसायोवजोगवग्गणासु केवचिरमुवजुत्ता होंति त्ति अज्झाहारं काढूण सुत्तट्ठवक्खाणादो । पुणो एत्थेव अंतराणुगमस्स वि अंतब्भावो वत्तव्वो, कालंतराणमण्णोण्णाणुगयत्तदंसणा दो । 'केवडिगा च कसाये त्ति' एदेण वि सुत्तावयवेण चदुकसायोवजुत्ताणं भागाभागानुगमो परुविदो, सव्वजीवाणं केवडिया भागा एक्केकम्मि कमाए उवजुत्ता होंति त्ति सुत्तत्संबंधावलंबणादो । 'के के च विसिस्सदे केण' एदेण वि कसायोवजोगजुत्ताणमप्पा बहुअपरूवणा सूचिदा । के के कसायोवजुत्तजीवा केण कसायोवजुत्तजीवरासिणा सह सणियासिज्जमाणा केण गुणगारेण भागहारेण वा विसिस्संते अहिया होंति ति सुत्तत्थावलंबणादो । एवमेदेण गाहासुतेण कसायो जुत्तजीवाणं दव्यंपमाणाणुगमो कालाणुगमो भागाभागाणुगमो अप्पा बहुगागमो च मुत्तकंठं परूविदाणि । सेसाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि सूचिदाणि । संपहि छडीए गाहाए पडिबद्धत्थ परूवणमवयारणं कस्सामो । तं जहा1
१०
(१५) जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुव्वा ते । होहिंति च उवजुत्ता एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा ||६८ ||
$ १४. एसा गाहा वट्टमाणसमयम्मि कोहादिकसायोवजुत्ताणमणंताणं जीवाणमदीदाणागदकाले तेत्तियमेत्ताणं चेव णिरुद्धकसायोवजागेण परिणमण संभवासंभवयक कालानुगम सूचित किया गया है, क्योंकि 'सरिसीसु' अर्थात् समान जो कषायोपयोगवर्गणाएं हैं उनमें कितने काल तक जीव उपयुक्त होते हैं इस प्रकार अध्याहार करके सूत्रके अर्थका व्याख्यान किया है । पुनः यहींपर अन्तरानुगमका भी अन्तर्भाव कहना चाहिए, क्योंकि कालानुयोगद्वार और अन्तरानुयोगद्वारका परस्पर अनुगतपना देखा जाता है। 'केवडिगा च कसाये' सूत्र के इस अवयवद्वारा चारों कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके भागाभागानुगमका कथन किया गया है, क्योंकि सब जीवोंका कितना-कितना भाग एक-एक कपाय में उपयुक्त है, इसप्रकार यहाँ सूत्रार्थके सम्बन्धका अवलम्बन लिया गया है । 'के के च विसिस्सदे ण' इस द्वारा भी कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है । कषायों में उपयुक्त हुए कौन-कौन जीव कषायों में उपयुक्त हुई किस जीवराशिके साथ सन्निकर्ष को प्राप्त होकर किस गुणकार या भागाहार के द्वारा विशेषताको प्राप्त होते हैं अर्थात् अधिक होते हैं इस प्रकार यहाँ सूत्रार्थका अवलम्बन लिया गया है । इस प्रकार इस गाथासूत्र के द्वारा कपायों में उपयुक्त हुए जीवोंके द्रव्यप्रमाणानुगम, कालानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगमका मुक्तकण्ठ कथन किया गया है तथा शेष चार अनुयोगद्वार सूचित किये गये हैं । अब छठी गाथासे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थका कथन करनेके लिए अवतार करेंगे । यथा
* जो जो जीव जिस कषायमें उपयुक्त हैं वे सब जीव क्या अतीत कालमें उसी कपाय में उपयुक्त रहे हैं तथा क्या आगामी कालमें भी उसी कषायमें उपयुक्त रहेंगे ! इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए || ६८ ||
$ १४. वर्तमान समयमें जो अनन्त जीव क्रोधादि कषायों में उपयुक्त हैं वे सब उतने ही जीव अतीत और अनागत कालमें भी विवक्षित कषायोंके उपयोगरूपसे परिणमन करते
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९ ]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा
११
गवेसण मोण्णा । तं कथं ? 'जे जे जम्हि कसाये ०' एवं भणिदे जे जे जीवा जम्हि कसायम्मि कोहादीणमण्णदरे वट्टमाणसमयम्मि उवजुत्ता दीसंति, 'किण्णु भूदपुव्वा ते ' ते जीवा अणूणाहिया संता विवक्खियकसायोवजोगेण किंण्णु भूदपुव्वा संजादा, अदीदकाले तेणेव कसायोवजोगेण एक्कम्मि चेव समए तेत्तियमेत्ता चेव होदूण किण्णाम परिणदा त्ति पुच्छा कदा होइ । 'होहिंति च उवजुत्ता' एदेण अणागदकालविसयो पुच्छाणिसो कओ । एत्थ जइ वि उवरिमचुण्णिसुत्ते अणागयकालविसया परूवणा त्थ तो वि एसो अत्थो एदम्मि गाहासुत्तपच्छिम पडिबद्धो त्ति गहेयव्वं, मुत्तकंठमेव णिद्दित्तादो । चुण्णिसुत्ते पुण तदपरूवणा अदीदकालपरूवणादो चेव गयत्थत्तपदुपायणडुमिदि ण किं चि विरुद्धं । एवमेसो ओघपरूणाविसयो पुच्छाणिद्देसो । पुणो आदेसेण वि गदियादिमग्गणासु एसो अत्थो अणुमग्गियन्वो त्ति पदुष्पाय णट्ठमिदमाह 'एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा' ति । एवमेदस्स छट्ठगाहासुत्तस्स पडिबद्धत्थपरूवणं काढूण संपहि सत्तमगाहासुत्तस्स पडिबद्धत्थपरूवणमवयारो कीरदे—
(१६) उवजोगवग्गणाहि य अविरहिदं काहि विरहिदं चावि । पढमसमयोवजुत्तेहिं चरिमसमए च बोद्धव्वा ||७-६६ ॥
रहे हैं या करते रहेंगे इस बातकी सम्भावना और असम्भावनाका अनुसन्धान करनेके लिए यह गाथा अवतीर्ण हुई है ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान - 'जे जे जम्हि कसाए०' ऐसा कहनेपर जो जो जीव वर्तमान समय में क्रोधादिमेंसे अन्यतर जिस कषायमें उपयुक्त दिखलाई देते हैं, 'किष्णु भूदपुव्वा ते' न्यूनाधिकता से रहित वे सब जीव क्या अतीत कालमें विवक्षित कषाय में उपयुक्त थे अर्थात् अतीत कालमें एक ही समय में उतने ही वे सब जीव क्या उसी कपायके उपयोगसे परिणत रहे हैं। यह पृच्छा की गई है । 'होहिंति च उवजुत्ता' इस वचन द्वारा अनागत काल विषयक पृच्छाका निर्देश किया गया । यहाँ यद्यपि आगे चूर्णिसूत्र में अनागत काल विषयक प्ररूपणा नहीं की गई है तो भी यह अर्थ इस गाथासूत्र के उत्तरार्ध में निबद्ध है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि मुक्तकण्ठ होकर इसका गाथासूत्र में निर्देश उपलब्ध होता है। चूर्णिसूत्र तो अतीत कालविषयक प्ररूपणासे ही वह गतार्थ है, इसलिए उसका निर्देश नहीं किया है, अतः इसमें कुछ भी विरुद्ध नहीं है। इस प्रकार यह ओघप्ररूपणाविषयक पृच्छाका निर्देश है । पुनः आदेश से भी गति आदि मार्गणाओंमें इस अर्थका अनुसन्धान कर लेना चाहिए इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिए यह वचन कहा है- 'एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा' । इस प्रकार इस छठे गाथासूत्र में निबद्ध अर्थका कथन करके अब सातवें गाथासूत्र में निबद्ध अर्थका कथन करनेके लिए अवतार करते हैं
* कितनी उपयोगवर्गणाओंसे कौन स्थान युक्त पाया जाता है और कौन स्थान रहित पाया जाता है । तथा प्रथम समयमें उपयुक्त जीवोंसे लेकर अन्तिम समय तक जानना चाहिए ||७-६९ ॥
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ $ १५. एसा. सत्तमी गाहा पुव्वद्धेण चउण्हं कसायाणं कालोवजोगवग्गणासु भावोवजोगवग्गणासु च जीवेहिं विरहिदाविरहिदट्ठाणाणमोघादेसेहि विसेसियूण परूवगट्ठमोइण्णा। पच्छद्धेण वि चदुकसायोवजुत्तजीवाणं चदुगदिसंबंधेण तीहिं सेढीहिं अप्पाबहुअपरूवणट्ठमवइण्णा । एवमेदेसु दोसु अत्थेसु एसा गाहा पडिबद्धा । संपहि एदिस्से पदच्छेदमुहेण किंचि अत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा—'उवजोगवग्गणाहि य' एत्थुवजोगवग्गणागहणेण दुविहोवजोगवग्गणासहचरिदाणं जीवाणं गहणं कायव्वं, 'साहचर्यात्ताच्छब्द्यमिति' न्यायात् । तेण उवजोगवग्गणाहि 'काहि' केत्तियमेत्ताहिं 'अविरहिदं' असुण्णं कं ठाणमुवलब्भइ ? 'विरहिदं चावि' सुण्णं वा होदूण कं ठाणमुवलब्भइ त्ति सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो । अत एतदुक्तं भवति–दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ कसायउदयट्ठाणाणि च उवजोगद्धट्ठाणाणि च । एदेसु केत्तिएहिं कालोवजोगवग्गणाजीवेहिं भावोवजोगवग्गणाजीवेहिं वा कं ठाणमसुण्णं होदूण लब्भइ, कं वा ठाणं तेहिं चेव दुविहोवजोगवग्गणासहचरिदजीवेहिं सुण्णं होदूण लब्भइ त्ति एवंविहसुण्णासुण्णट्ठाणाणमोघादेसेहिं विसेसियूण परूवणट्ठमेसो गाहापुव्वद्धो समोइण्णो । . तहा 'पढमसमयोवजुत्तेहिं०' एदेण वि गाहापच्छिमद्धेण गदीओ अस्सियूण कोहादिकसायोवजोगजुत्ताणं तिविहाए सेढीए थोवबहुत्तपरूवणं सूचिदं । ण च अट्ठसु अणियोगद्दारेसु पुव्वं परूविदप्पाबहुएणेदस्स पुणरुत्तभावो आसंकणिज्जो, तत्थ सामण्णेण परूविदप्पाबहुअस्स
__१५. यह सातवीं गाथा पूर्वार्धके द्वारा चार कषायोंके कालोपयोगवर्गणाओंमें और भावोपयोगवर्गणाओंमें जीवोंसे रहित और सहित स्थानोंका ओघ और आदेशकी उपेक्षा कथन करनेके लिए आई है। तथा उत्तरार्धके द्वारा भी चार कषायोंसे उपयुक्त जीवोंके चारों गतियोंके सम्बन्धसे तीन श्रेणियोंके द्वारा अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आई है। इस प्रकार इन दो अर्थो में यह गाथा निबद्ध है। अब इसके पदच्छेदद्वारा कुछ अर्थका विवरण करते हैं। यया-'उवजोगवग्गणाहि य' यहाँ उपयोगवर्गणा पदके ग्रहण करनेसे दो प्रकारकी उपयोगवर्गणाओंसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि साहचर्यसे उस शब्द द्वारा प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है ऐसा न्याय है। इसलिए 'काहि' कितनी ही उपयोगवर्गणाओंसे 'अविरहिद' युक्त कौन स्थान प्राप्त होता है तथा 'विरहिदं चावि' उपयोगवर्गणाओंसे रहित कौन स्थान प्राप्त होता है इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध करना चाहिए। इसलिए यह तात्पर्य हुआ कि उपयोगवगंणाएं जो दो प्रकारको है-कषाय उदयस्थान और उपयोगाध्वस्थान । इनमें कितने कालोपयोगवर्गणाजीवोंसे और भावोपयोगवर्गणाजीवोंसे कौन स्थान युक्त प्राप्त होता है और कौन स्थान उन दो प्रकारको वर्गणाओंसे युक्त जीवोंसे रहित प्राप्त होता है इस प्रकार शून्य और अशून्य स्थानोंका ओघ और आदेशकी अपेक्षा कथन करनेके लिए यह गाथाका पूर्वार्ध आया है। तथा 'पढमसमयोवजुत्तेहिं' गाथाके इस उत्तरार्ध द्वारा भी गतियोंका आलम्बनकर क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके तीन प्रकारकी श्रेणिके माथ्यमसे अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा सूचित की गई है। आठ अनुयोगद्वारों में पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्वके साथ इसका पुनरुक्तपना हो जायगा ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहाँ पर सामान्यरूपसे कहे गये अल्पबहुत्वका तीन प्रकारकी श्रेणियोंको विशेषण
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
गाथा ६९]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणां तिविहाए सेढीए विसेसियूण पुणो वि परूवणे कीरमाणे पुणरुत्तदोसासंमवादो। अधवा तत्थ परूविदसंचयप्पावहुअस्स साहणभावेण पवेसप्पाबहुअपरूवणट्ठमेदमोइण्णमिदि ण को त्थि दोसो।
$ १६. एत्थ वुण गाहापच्छद्धे पदसंबंधो एवं कायव्यो-णिरयादिगदीसु पढमसमयोवजुत्तेहिं आढत्ता जाव चरिमसमयोवजुत्ता त्ति ताव जीवा 'बोद्धव्वा' अणुगंतव्वा त्ति । तत्थ 'पढमसमयोवजुत्तेहिं ति भणिदे अयं वयणविसेसो सव्वत्थोवा इदि एदमादिपदमवेक्खदे, समयसहस्स पदवाचयस्स गहणादो। चरिमसमए च बोद्धव्वा' त्ति एवं पि वयणमंते पढमाणसव्वबहुअरासिमवेक्खदे। तदो एकिस्से गदीए कसायोवजोगजुत्ताणं जीवाणं थोवपदं बहुअपदं च जाणियण जीवप्पाबहुअं कायव्वमिदि एसो एत्थ भावत्थो । तत्थ णिरयगदीए पढमसमयोवजुत्ता लोभकसायिजीवा चरिमसमयोवजुत्ता च कोधजीवा, देवगदीए कोहोवजुत्ता पढमा लोभोवजुत्ता चरिमा, तिरिक्ख-मणुस्सेसु माणोवजुत्ता पढमा. वत्तव्या, सव्व पच्छा लोभोवजुत्तजीवा वत्तव्वा । एत्थ गाहासुत्तपरिसमत्तीए सत्तण्हमंकविण्णासो किमटुं कदो? एदाओ सत्त चेव गाहाओ उवजोगाणिबना कर फिर भी कथन करने पर पुनरुक्त दोष सम्भव नहीं है । अथवा वहाँ कहे गये संचय अल्पबहुत्वके साधनरूपसे प्रवेश अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए यह वचन आया है, इसलिए कोई दोष नहीं है।
६ १६. यहाँ गाथाके उत्तरार्धमें इसप्रकार पदसम्बन्ध करना चाहिए-नरकादि गतिर्यो में प्रथम समयमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अन्तिम समयमें उपयुक्त हुए जीवों तक जीव 'बोद्धव्वा' अर्थात् जानने चाहिए। वहाँ 'पढमसमयोवजुत्तेहिं' ऐसा कहने पर यह वचनविशेष 'सव्वत्थोवा' इस प्रकार इस प्रथम पदकी अपेक्षा करता है, क्योंकि समय शब्द पदका वाची ग्रहण किया गया है। 'चरिमसमए च बोद्धव्वा' इस प्रकार यह वचन भी अन्तमें कही गई सबसे बहत राशिकी अपेक्षा करता है। इसलिए एक गतिमें कषायमें उपर
उपयुक्त हुए जीवोंके स्तोकपद और बहुत पदको जान कर जीवविषयक अल्पबहुत्व करना चाहिए इस प्रकार यह यहाँ पर भावार्थ है । वहाँ नरकगतिमें प्रथम समयमें उपयुक्त हुए लोभकषायवाले जीव और अन्तिम समयमें उपयुक्त हुए क्रोधकषायवाले जीव, देवगतिमें क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव प्रथम और लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव अन्तमें तथा तिर्यञ्च और मनुष्यगतिमें मानकषायमें उपयुक्त हुए जीव प्रथम कहने चाहिए तथा सबसे अन्तमें लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव कहने चाहिए।
शंका-यहाँ पर गाथासूत्रोंके समाप्त होने पर सातका अंकविन्यास किसलिए किया है ?
समाधान—ये सात ही गाथाएं उपयोग अनुयोगद्वारमें निबद्ध हैं, अन्य नहीं इस
१. प्रतिषु -मुवेक्खदे इति पाठः । २. प्रतिषु -मुवेक्खदे इति पाठः ।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ ओगद्दारे पडिबद्धाओ, णाण्णाओ त्ति जाणावणटुं। संपहि एदस्सेव फुडीकरणट्ठमिदमाह
* एदाहो सत्त गाहाओ।
$ १७. उवजोगाणिओगद्दारे पडिबद्धाओ त्ति भणिदं होइ । संपहि जहाकममेदेसिं गाहासुत्ताणमत्थविहासणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो उवरिमं पबंधमाह
* एदासिं विहासा कायव्वा ।
। १८. का विहासा णाम ? गाहासुत्तसूचिदस्स अत्थस्स विसेसियूण भासणं विहासा विवरणमिदि वुत्तं होइ ।
___ * 'केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि' त्ति एदस्स पवस्स अत्थो अद्धापरिमाणं।
$१९. अद्धा कालो, तस्स परिमाणं पमाणावच्छेदो एदस्स पदस्स अत्थो होइ । किं कारणं ? कियच्चिरमुपयोगः कस्मिन् कषाये भवत्येकस्य जीवस्येति प्रश्नार्थावलंबनात् ।
* तं जहा।
$२०. तमद्धापरिमाणं 'जहा' कथं होदि त्ति पुच्छा कदा भवदि । एवं पुच्छाविसयीकयस्स अद्धापरिमाणस्स ओषणिद्देसो ताव कीरदेबातका ज्ञान करानेके लिए गाथासूत्रोंके अन्तमें सात संख्याका विन्यास किया है। अब इसीका स्पष्टीकरण करनेके लिए यह चूर्णिसूत्र कहा है
* ये सात गाथाएं हैं।
$ १७. उपयोग अनुयोगद्वार में प्रतिबद्ध हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब यथाक्रम इन गाथासूत्रोंके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकारने आगेका प्रबन्ध कहा
* इनकी विभाषा करनी चाहिए। $ १८. शंका-विभाषा किसे कहते हैं ?
समाधान-गाथासूत्रोंके द्वारा सूचित हुए अर्थका विशेषरूपसे भाषण करनेको विभाषा कहते हैं । विभाषाका अर्थ विवरण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* किस कषायमें कितने काल तक उपयोग रहता है इस पदका अर्थ अद्धापरिमाण है।
. १९. अद्धा शब्द कालवाची है। उसका परिमाण अर्थात् प्रमाणावच्छेद इस पदका अर्थ है, क्योंकि किस कषायमें एक जीवका कितने काल तक उपयोग रहता है इस प्रश्नके अर्थका अवलम्बन लिया गया है।
* वह कैसे ?
$२०. वह अद्धापरिमाण 'जहा' कैसे होता है इस प्रकार पृच्छा की गई है। इस प्रकार पृच्छाके विषय हुए अद्धापरिमाणका ओघसे निर्देश सर्व प्रथम करते हैं
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१५
* कोधधा माणदूधा मायद्धा लोहदूद्धा जहण्णियाओ वि उक्कस्सियाओ वितोमुहुत्तं ।
$ २१. कोह- माण- माया - लोभाणमुवजोगकालो जहण्णओ वि उक्कस्सओ वि अंतोमुहुत्तपरिमाणो त्ति भणिदं होइ | अंतोमुहुत्तादो अन्भहियपमाणो कोहादीणमुवजोगकालो किण्णोवलब्भदे ? ण, तत्तो परं कसायपरावत्तीए विणा अवट्ठाणासंभवादो । दो एदं णव्वदे ? एदम्हादो चैव सुत्तादो । कोहादिकसायोवजोगजुत्ताणं जहण्णकालो मरण - वाघादेहिं एगसमयमेत्तो चि जीवट्टाणादिसु परूविदो सो एत्थ किण्ण इच्छिज्जदे १ ण, चुण्णिसुताहिप्पाएण तहासंभवाणुवलंभादो । एवमोघेण कोहादिकसायोवजोगजुचाणं जहण्णुकस्सकालणिद्देसो कओ । संपहि आदेसगयविसेसपरूवणमुर सुत्रमाह
* क्रोधकषायका काल, मानकषायका काल, मायाकषायका काल और लोभ कषायका काल जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है ।
२१. क्रोध, मान, माया और लोभका उपयोगकाल जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका — क्रोधादि कषायका उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक प्रमाणवाला क्यों उपलब्ध नहीं होता ? समाधान नहीं, क्योंकि कषायोंके परावर्तनके विना उससे अधिक कालतक उनका अवस्थान असम्भव है ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान - इसी सूत्र से जाना जाता है ।
शंका - क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका मरण और व्याघातसे जघन्य काल एक समयमात्र जीवस्थान आदिमें कहा है वह यहाँ पर क्यों स्वीकार नही किया जाता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रोंके अभिप्रायानुसार उस प्रकार कालको स्वीकार करना सम्भव नहीं है ।
विशेषार्थ — खुद्दाबन्ध में एक जीवकी अपेक्षा क्रोघकषायका मरणसे तथा मान, माया और लोभ कषायका मरण और व्याघात दोनों प्रकारसे जघन्य काल एक समय बतलाया है । जीवस्थानमें भी यह प्ररूपणा इसी प्रकारसे की गई है । किन्तु चूर्णिसूत्रों में इसे स्वीकार नहीं किया गया है यह उक्त शंका-समाधानका तात्पर्य है ।
1
इस प्रकार ओघसे क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश किया । अब आदेशगत विशेषका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
१. ता० प्रती अहियपमाणो इति पाठः । २. ता० प्रती अवट्ठाणसंभवो इति पाठः ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७६ * गदीसु णिखमण-पवेसणेण एगसमयो होज ।
$ २२. णिक्खमणेण ताव एगसमयो वुच्चदे-एगो गेरइयो माणादिअण्णदरकसायोवजुतो होदण द्विदो एगसमयमाउगमत्थि चि कोहोवजोगपरिणदो एगसमयमच्छिण णिक्खंतो तिरिक्खो मणुस्सो वा जादो, लद्धो कोहोवजोगस्स णिक्खमणमस्सियूण जहण्णकालो एगसमयमेनो । संपहि पवेसणेण वुच्चदे–एको तिरिक्खो मणुस्सो वा कोधकसाएण हिदो कोधद्धाए एगसमयो अत्थि चि कालं कादूण णेरइएसुववण्णो पढमसमए कोहोवजोगेण दिट्ठो, विदियसमए अण्णकसाई जादो। एवं पवेसणमस्सियूणेगसमयो लद्धो होइ । एवं सेसकसायाणं पि' जोजेयव्वं । एवं सेसासु वि गदीसु णिक्खमण-पवेसणेहि एगसमयपरूवणा कायव्वा । तदो पढमगाहाए पुव्वद्धम्मि एको अत्थो विहासिदो होदि । संपहि तत्व पडिबद्धस्स विदियस्स अत्थस्स विहासणट्ठमाह
* 'को व केणहिओ त्ति' एदस्स पदस्स अत्थो अवधाणमप्पाबहुधे ।
$ २३. पुवपरूवणादो अंतोमुहुत्तपमाणत्तेण सुणिच्छदाणं कोहादिकसायपडिबद्धजहण्णुकस्सद्धाणमोघादेसेहि जमप्पाबहुअविहाणं तमेदस्स पदस्स अत्थो ति भणिदं होइ। ... * गतियोंमें निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय होता है ।
$२२. सर्वप्रथम निष्क्रमणकी अपेक्षा एक समय कालका कथन करते हैं-एक नारकी मानादि अन्यतर कपायमें उपयुक्त होकर स्थित है, एक समय आयुमें शेष है तब क्रोधकषायके उपयोगसे परिणत हो गया तथा एक समयतक रहकर वहाँसे निकला और तिर्यञ्च या मनुष्य हो गया, इसप्रकार क्रोधकषायमें उपयुक्त होनेका निष्क्रमणकी अपेक्षा जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हो गया। अब प्रवेशकी अपेक्षा कहते हैं-एक तिर्यश्च या मनुष्य क्रोधकषायके साथ स्थित है, क्रोधकषायके कालमें एक समय शेष है तब मरकर नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, प्रथम समयमें क्रोधमें उपयुक्त होकर स्थित रहा तथा दूसरे समयमें अन्य कषायरूप से परिणत हो गया। इस प्रकार प्रवेशका आश्रयकर एक समय काल प्राप्त हुआ। इसी प्रकार शेष कषायोंके एक समयमात्र कालकी योजना कर लेनी चाहिए । इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा एक समयप्रमाण कालकी प्ररूपणा करनी चाहिए। तब प्रथम ग पाके पूर्वार्धमें कहे गये एक अर्थका व्याख्यान होता है। अब वहीं पर निबद्ध हुए दूसरे अर्थका व्याख्यान करनेके लिए कहते हैं__* किस कषायका काल किस कषायके कालसे अधिक है इस पदका अर्थ कषायोंके कालका अल्पबहुत्व है ।
$ २३. पूर्वमें की गई प्ररूपणा द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाणरूपसे सुनिश्चित क्रोधादि कषायोंसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालोंका ओघ और आदेशकी अपेक्षा जो अल्पबहुत्वका कथन है वह 'को व केणहिओ' इस पदका अर्थ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
१. ता०प्रतौ पि इति पाठो नास्ति ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * तं जहा। $ २४. तमप्पाबहुअविहाणं कथं होदि त्ति पुच्छाणिद्देसो कदो भवदि । * ओघेण माणद्धा जहणिया थोवा ।
$ २५. एत्थ 'माणद्धा जहण्णिगा' त्ति वुत्ते तिरिक्ख-मणुसाणं णिव्वाघादेण माणोवजोगजहण्णकालो अंतोमुहुत्तपमाणो घेत्तव्यो, अण्णत्थ घेप्पमाणे माणजहण्ण द्धाए सव्वत्थोवत्ताणुववत्तीदो। तदो जहणिया माणद्धा संखेज्जावलियमेत्ता होदूण सव्वत्थोवा त्ति सिद्धं । ___ * कोघरा जहणिया विसेसाहिया।
5२६. एत्थ विसेसपमाणं सुगम, पवाइज्जतेणुवएसेणद्धाणं विसेसो अंतोमुहुत्तमिदि उवरि सुत्तणिबद्धत्तादो।
* मायद्धा जहणिया विसेसाहिया । * लोभद्धा जहणिया विसेसाहिया । $ २७. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । * माणद्धा उक्कस्सिया संखेजगुणा। $ २८. एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेजरूवाणि ।
* वह कैसे ?
६२४. वह अल्पबहुत्वका विधान किस प्रकार है इस प्रकार इस सूत्रद्वारा पृच्छाका निर्देश किया गया है।
* ओघसे मानका जघन्य काल सबसे स्तोक है।
$ २५. इस सूत्रमें 'माणद्धा जहण्णिगा' ऐसा कहनेपर तिर्यश्च और मनुष्योंके निर्व्याघातरूपसे मानका जघन्य उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण लेना चाहिए, क्योंकि अन्य जीवोंमें ग्रहण करनेपर मानका जघन्य काल सबसे स्तोक नहीं बन सकता। इसलिए मानका जघन्यकाल संख्यात आवलिप्रमाण होकर सबसे स्तोक है यह सिद्ध हुआ।
* उससे क्रोधका जघन्य काल विशेष अधिक है।
$ २६. यहाँ पर विशेषका प्रमाण सुगम है, क्योंकि प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसारकालोंका परस्पर विशेष अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है यह बात आगे सूत्रमें निबद्ध की गई है।
* उससे मायाका जघन्य काल विशेष अधिक है। * उससे लोभका जघन्य काल विशेष अधिक है। ६ २७. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। * उससे मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । $ २८. यहाँ पर गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात अंक हैं।
१. ता०प्रतौ घेप्पमाणो इति पाठः ।
३
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* कोधद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया । $ २९. केत्तियमेत्तो विसेसो १ अंतोमुहुत्तमेत्तो । * मायधा उक्कस्सिया विसेसाहिया । $ ३०. केत्तियमेरोण ? अंतोमुहुतमेचेण ।
* लोभद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया ।
३१. सुगमं । संपहि एत्थ विसेसाहियपमाण मेचियं होदि चि जाणावणट्टमुवरिमं सुत्तपबंधमाह—
* पवाइज्जंतेण उवदेसेण अधाणं विसेसो अंतोमुहुत्तं ।
$ ३२. एदेणेगसमयमेत्तो विसमयमेत्तो एवं गंतूण संखेजसमयमेत्तो वा विसेसो ण होदि, किंतु अंतोमुहुत्तमेत्तो चेवे त्ति जाणाविदं । तं च अंतोमुहुत्तमणेयभेयभिण्णं - संखेज्जावलियाओ आवलि० संखे ० भागो तदसंखेज्जदिभागो चेदि । तत्थ 'वक्खाणादो विसेसपडिवत्ती' इदि णायादो आवलि • असंखे ० भागमेत्तो अद्भाविसेसो ति गेण्यिव्वो, पुव्वाइरियसंपदायस्स तहाविहत्तादो । एवमोघेण तिरिक्ख- मणुस गईणं पहाणभावेणद्धप्पा बहुअं कदं ।
* उससे क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । $ २९. शंका - विशेषका प्रमाण क्या है ? समाधान — अन्तर्मुहूर्तमात्र है ।
[ उवजोगो ७
* उससे मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । $ ३०. शंका – विशेषका प्रमाण क्या है ?
समाधान — अन्तर्मुहूर्तमात्र है ।
* उससे लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
$ ३१. यह सूत्र सुगम है। अब यहाँ विशेष अधिकका प्रमाण इतना है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार कालोंका परस्पर विशेष अन्तर्मुहूर्त है ।
$ ३२. इस वचनसे एक समयमात्र, दो समयमात्र इस प्रकार जाकर संख्यात समय मात्र विशेष नहीं है, किन्तु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है इस बातका ज्ञान कराया गया है। वह अन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकारका है - संख्यात आवलिप्रमाण, आवलिके संख्यातवें भागप्रमाण तथा आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण। उसमें भी 'व्याख्यानमे विशेषका ज्ञान होता है' इस न्यायके अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण परस्पर कषायोंके कालोंका विशेष है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पूर्वाचार्योंका सम्प्रदाय उसीप्रकारका पाया जाता है। इस प्रकार ओघसे तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिकी प्रधानता से अल्पबहुत्व कहा ।
१. ता० प्रती विस (म ) यमेत्तो इति पाठः ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१९
९३३. संपहि आदेसपरूवणाए कीरमाणाए तिरिक्ख- मणुसगदीसु णत्थि णाणत्तं । णिरयगदीए जहण्णिया लोभद्धा थोवा, जहणिया मायद्धा संखेजगुणा, जहणिया माणद्धा संखेजगुणा, जहण्णिया कोधद्धा संखेज्जगुणा, उक्कस्सिया लोभद्धा संखेजगुणा, उक्कस्सिया मायद्धा संखेजगुणा, उक्कस्सिया माणद्धा संखेञ्जगुणा, कस्सिया कोद्धा संखेज्जगुणा । एवं देवगदीए वि । णवरि विलोमेण णेदव्वं जाव उक्कस्सिया लोभद्धा संखेजगुणा त्ति । एसो चदुगदी पादेकमप्पाचहुअणिद्देसो सुत्तयारेण किण्ण कओ १ ण, उवरिमचउगइसमासप्पा बहुएणेव जाणिजदिति तदपरूवणादो ।
* तेणेव उवदेसेण चउगइसमासेण अप्पाबहुअं भणिहिदि ।
1
$ ३४. तेणेव पवाइअंतेण उवदेसेण चदुगदीओ सपिंडिऊणप्पा बहुअं कीरदित्ति भणिदं होदि । तं पुण चउगइसमासप्पाबहुअं तिविहं- जहण्णपदे उक्कस्सपदे जहण्णुकस्सपदे चेदि । तत्थ आदिल्लदुगं जहण्णुक्कस्सपदप्पाबहुअपरूवणेणेव जाणिञ्जदि सि तमेव परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* चदुगदिसमासेण जहष्णुक्कस्सपदेण णिरयगदीए जहण्णिया
$ ३३. अब आदेशकी अपेक्षा कथन करने पर तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति में कषायों के कालकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । नरकगतिमें लोभका जघन्य काल सबसे स्तोक है। उससे मायाका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उससे मानका जघन्य काल संख्यातगुणा है । उससे क्रोधका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उससे लोभका उत्कृष्ट काल संख्यात संख्यातगुणा है । उससे मायाका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । उससे मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । उससे क्रोधका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। इसी प्रकार देवगति में भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि लोभका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है इस स्थानके प्राप्त होनेतक विलोमक्रमसे जानना चाहिए ।
शंका – चारों गतियोंमें पृथक-पृथक अल्पबहुतत्वका निर्देश सूत्रकारने क्यों नहीं किया ? समाधान — नहीं, क्योंकि आगे कहे जानेवाले चारों गतियोंके समुच्चयरूप अल्पबहुत्वके कथनसे ही उसका ज्ञान हो जाता है, इसलिए सूत्रकारने चारों गतियोंमें पृथक-पृथक_ अल्पबहुत्वका निर्देश नहीं किया ।
समुच्चयरूपसे अल्पबहुत्वका
* उसी उपदेशके अनुसार चारों गतियोंमें कथन करेंगे ।
$ ३४. उसी प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार चारों गतियोंमें एक साथ अल्पबहुत्वका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु चारों गतियोंमें समुच्चयरूप वह अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है - जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्योत्कृष्टपद । उनमेंसे जघन्योत्कृष्टपदरूप अल्पबहुत्वसे आदिके दो अल्पबहुत्वोंका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसीका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* चारों गतियोंमें समुच्चयरूपसे कथन करनेपर जघन्योत्कृष्ट पदकी अपेक्षा
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ लोभद्धा थोवा।
$३५. कुदो ? णेरइएसु जादिविसेसवसेणेव दोसबहुलेसु पेजसरूवलोभपरिणामस्स चिरकालमवट्ठाणासंभवादो।
* देवगदीए जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया।
$३६. जइ वि एसा कोधद्धा देवेसु पेजबहुलेसु' सुट्ट थोवा होदि तो वि णेरइयाणं जहण्णलोभद्धादो जादिविसेसेणेव विसेसाहिया त्ति पडिवजेदव्वं । केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेजदिमागमेत्तो।।
* देवगदीए जहणिया माणद्धा संखेजगुणा ।
$ ३७. किं कारणं ? देवेसु कोहोवजोगकालादो माणोवजोगकालस्स सव्यद्धं तहाभावेणावट्ठाणणियमदंसणादो । को गुणगारो ? तप्पाओग्गसंखेजरूवाणि ।
* णिरयगदीए जहणिया मायद्धा विसेसाहिया ।
३८. एत्थ विसेसपमाणं सुगमं, अणंतरमेव परूविदत्तादो ।
* णिरयगदीए जहणिया माणद्धा संखेजगुणा । नरकगतिमें लोभका जघन्य काल सबसे स्तोक है।
३५. क्योंकि जातिविशेषके कारण ही नारकी दोषबहुल होते हैं, इसलिए उनमें पेञ्ज (प्रेम ) स्वरूप लोभपरिणामका चिरकाल तक रहना सम्भव नहीं है।
* उससे देवगतिमें क्रोधका जघन्य काल विशेष अधिक है।
३६. पेञ्जबहुल देवोंमें यद्यपि क्रोधका यह काल बहुत थोड़ा होता है तो भी नारकियोंके लोभके जघन्य कालसे जातिविशेषवश विशेष अधिक होता है ऐसा जानना चाहिए।
शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * देवगतिमें मानका जघन्य काल संख्यातगुणा है।
$ ३७. क्योंकि देवोंमें क्रोधके उपयोग कालसे मानके उपयोग कालके सर्वदा उस प्रकारसे रहनेका नियम देखा जाता है।
शंका-गुणकार क्या है ? समाधान-तत्प्रायोग्य संख्यात अंक गुणकार है। * उससे नरकगतिमें मायाका जघन्य काल विशेष अधिक है।
६ ३८. यहाँ विशेषके प्रमाणका कथन सुगम है, क्योंकि उसका कथन अनन्तर पूर्व ही कर आये हैं।
* उससे नरकगतिमें मानका जघन्य काल संख्यातगुणा है ।
१. ताप्रती -प्प(पे)ज्जबहुलेसु इति पाठः ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
$ ३९. एत्थ गुणगारपमाणं सुगमं ।
* देवगदीए जहणिया मायद्धा विसेसाहिया ।
$ ४०. केत्तियमेत्तो विसेसो १ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो ।
* मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहण्णिया माणद्धा संखेज्जगुणा । S ४१. मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहण्णिया माणोवजोगवा उहयत्थ सरिसी होदूण पुचिल्लादो संखेजगुणा त्ति वृत्तं होइ । एत्थ गुणगारो तप्पा ओग्गसंखेजरूवमेत्तो ।
* मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया । * मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहण्णिया मायद्वा विसेसाहिया । * मणुस-तिरिक्खजोणियाणं जहण्णिया लोहद्वा विसेसाहिया । ४२. दाणि सुत्ताणि सुगमाणि, ओघम्मि परूविदकारणत्तादो ।
२१
* णिरयगदीए जहण्णिया कोधद्धा संखेज्जगुणा ।
$ ४३. किं कारणं १ सुट्टु जहण्णस्स वि णेरइयाणं कोहोवजोगकालस्स मणुस
$ ३९. यहाँ पर गुणकारके प्रमाणका कथन सुगम है ।
* उससे देवगति में मायाका जघन्य काल विशेष अधिक है ।
$ ४०. शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान - - आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
* उससे मनुष्यों और तिर्यञ्चयोनि जीवों में मानका जघन्य काल संख्यातगुणा है।
$ ४१. मनुष्यों और तिर्यञ्चयोनि जीवोंमें मानका जघन्य उपयोग काल दोनों में समान होकर भी पूर्व में कहे गये कालसे संख्यातगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ पर गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात अंक है ।
* उससे मनुष्यों और तिर्यञ्चयोनि जीवोंमें क्रोधका जघन्य काल विशेष अधिक है।
* उससे मनुष्यों और तिर्यञ्चयोनि जीवोंमें मायाका जघन्य काल विशेष अधिक है ।
* उससे मनुष्यों और तिर्यञ्चयोनि जीवोंमें लोभका जघन्य काल विशेष अधिक है ।
$ ४२. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि कारणका कथन ओघप्ररूपणाके समय कर आये हैं । * उससे नरकगतिमें क्रोधका जघन्य काल संख्यातगुणा है ।
$ ४३ . क्योंकि नारकियोंमें क्रोधका सबसे जघन्य भी उपयोग काल मनुष्यों और
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ तिरिक्खजोणियाणं जहण्णलोभोवजोगद्धादो संखेज्जगुणभावेण सव्वकालमवट्ठाणणियमदंसणादो।
* देवगदीए जहणिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
४४. एत्थ विसेसपमाणं सुगमं । *णिरयगदीए उक्कस्सिया लोभद्धा संखेजगुणा ।
४५. किं कारणं १ जहण्णकालादो पुग्विल्लादो उक्कस्सकालस्सेदस्स तहाभावसिद्धीए पडिबंधाभावादो । एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेज्जरूवमेत्तो।
* देवगदीए उक्कसिया कोधद्धा विसेसाहिया। ६४६. केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो । * देवगदीए उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा। * णिरयगदीए उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। . . * णिरयगदीए उक्कस्सिया माणद्धा संखेनगुणा ।। * देवगदीए उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। $ ४७. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि, जहण्णद्धासु परूविदकारणत्तादो।
* मणुस-तिरिक्खजोणियाणमुक्कस्सिया माणद्धा संखेनगुणा । तिर्यञ्चयोनि जीवोंमें लोभके जघन्य उपयोग कालसे संख्यातगुणा पाया जाता है इस प्रकार उसके रहनेका सर्वदा नियम देखा जाता है।
* उससे देवगतिमें लोभका जघन्य काल विशेष अधिक है।
४४. यहाँ पर विशेषके प्रमाणका कथन सुगम है।। * उससे नरकगतिमें लोभका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है।
$४५. क्योंकि पूर्व में कहे गये जघन्य कालसे इस उत्कृष्ट कालके उस प्रकारसे सिद्ध होनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं पाया जाता । यहाँ गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात अंकप्रमाण है।
* उससे देवगतिमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। ४६. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे देवगतिमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे नरकगतिमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे नरकगतिमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे देवगतिमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है।
$ ४७. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि इसके कारणका कथन जघन्य कालोंका कथन करते समय कर आये हैं।
* उससे मनुष्यों और तिर्यश्चयोनि जीवोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यात- ।
गुणा है, उससे मनुष्यों और निक
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ] पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
२३ * तेसिं चेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तेसिं चेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * तेसिं चेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
४८. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * णिरयगदीए उक्कस्सिया कोधद्धा संखेजगुणा।
$ ४९. किं कारणं ? णेरइएसु सहावपडिबद्धमच्छरेसु कोहोवजोगकालस्स सुट्ट बहुत्तोवएसादो।
* देवगदीए उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
$ ५०, विसेसपमाणमेत्थ सगमं, बहुसो परविदत्तादो । एवं चदुगदिसमासप्पाबहुअं समाणिय संपहि चोद्दस जीवसमासे अस्सियूण पयदप्पाबहुअगवेसणहमुवरिमं पबंधमाह
* तेसिं चेव उवदेसेण चोद्दस-जीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि।
$ ५१. तेसिं चेव भयवंताणमज्जमखु-णागहत्थीणं पवाइज्जतेणुवएसेण चोदसजीवसमासेसु जहण्णुकस्सपदविसेसिदो अप्पाबहुअदंडओ एत्तो भणिहिदि भणिष्यत इत्यर्थः ।
* उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हीं में मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । $ ४८. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे नरकगतिमें क्रोधका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है।
$ ४९, क्योंकि स्वभावसे मत्सरवृत्तिवाले नारकियोंमें क्रोधके उपयोग कालके अति बहुत होनेका उपदेश पाया जाता है।
* उससे देवगतिमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है।
६५०. यहाँ पर विशेषका प्रमाण सुगम है, क्योंकि अनेकबार उसका कथन कर आये हैं। इस प्रकार चारों गतियोंमें समासरूपसे अल्पबहुत्वके कथनको समाप्त करके चौदह जीवसमासोंका आश्रयकर प्रकृत अल्पबहुत्वका अनुसन्धान करनेके लिए आगेके प्रबन्धको
कहते हैं
___ * अब परम्परासे आये हुए उन्हीं आचार्योंके उपदेशके अनुसार चौदह जीवसमासोंमें दण्डकका कथन करेंगे ।
___५१. उन्हीं भगवान् आर्यमंधु और नागहस्तिके प्रवाहक्रमसे आये हुए उपदेशके अनुसार चौदह जीवसमासोंमें आगे जघन्य और उत्कृष्टपदयुक्त अल्पबहुत्वदण्डकको कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ * चोदसण्हं जीवसमासाणं देव-णेरइयवजाणं जहणिया माणद्धा तुल्ला थोवा।
५२. एत्थ 'चोद्दसण्हं जीवसमासाणं' इदि वयणेण देव-णेरइयाणं पि सण्णिपंचिंदियपज्जत्तापजत्तजीवसमासंतभूदाणं गहणे पसत्ते तव्वुदासकरणटुं 'देव-णेरइयवज्जाणं' इदि भणिदं । किमर्स्ट तेसिं परिवज्जणं कीरदे ? ण, सेसजीवसमासेहिं सह तेसिं माणादि-जहण्णोवजोगद्धासारिच्छणिबंधणपच्चासत्तीए अभावपदुप्पायणटुं तहाकरणादो । तदो देव-णेरइए मोत्तूण सेसासेसजीवसमासाणं जहणिया माणद्धा सरिसी होदूण सव्वत्थोवा त्ति गहेयव्वं ।
* जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया।
$५३. एत्थाहियारवसेण चोदसण्हं जीवससासाणं देव-णेरइयवज्जाणं जहणिया कोधद्धा तुल्ला होदूण विसेसाहिया ति सुत्तत्थसंबंधो कायव्यो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तो।
* जहणिया मायद्धा विसेसाहिया । * जहणिया लोभद्धा विसेसाहिया । * सुहुमस्स अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेनगुणा ।
* देव और नारकियोंको छोड़कर चौदह जीवसमासोंमें मानका जघन्य काल परस्पर तुल्य होकर सबसे थोड़ा है।
५२. यहाँपर 'चोद्दसण्हं जीवसमासाणं' इस वचनसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पश्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवसमासोंमें अन्तर्भूत हुए देव और नारकियोंका ग्रहण प्राप्त होने पर उनका निराकरण करनेके लिए 'देव-णेरइयवज्जाणं' यह वचन कहा है।
शंका-उनका निषेध किस लिए करते हैं।
समाधान नहीं, क्योंकि शेष जीवसमासोंके साथ उनके मानादि सम्बन्धी जघन्य उपयोग कालके सदृश होनेके कारणकी प्रत्यासत्तिका अभाव है यह कहनेके लिए उस प्रकारसे सूत्रवचन निर्दिष्ट किया है। इसलिए देव और नारकियोंको छोड़कर शेष समस्त जीवसमासोंमें मानका जघन्य काल परस्पर सदृश होकर सबसे थोड़ा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
* उससे क्रोधका जघन्य काल विशेष अधिक है।
६५३. यहाँ अधिकारवश देव और नारकियोंको छोड़कर चौदह जीवसमारों में क्रोधका जघन्य काल परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक है ऐसा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिये।
शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे मायाका जघन्य काल विशेष अधिक है। * उससे लोभका जघन्य काल विशेष अधिक है। * उससे सूक्ष्म अपर्याप्तकके मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। * उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। * उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया। * बादरेइंदिय-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । * उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। * उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * सुहुमपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । * उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। * उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। * उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * बादरेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा। * उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। * उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । * उससे क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे वादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
[ उवजोगो ७
* तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । * चउरिंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्वा विसेसाहिया । * चउरिंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * चरिं दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * चउरिंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । * तेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । * चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया ।
* उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकों में मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त कोंमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । * उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों में मानका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों में क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
* चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधदूधा विसेसाहिया । * बेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * तेइंदियपज्जत्तयस्स उकस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * बेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * तेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभङ्गा विसेसाहिया । * असण्णिअपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । * तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया
* तस्सेव उक्कसिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
* असष्णिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । * तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया ।
* तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया ।
* तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * सग्णिअपत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा ।
1
* उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है * उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों में लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है 1 * उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । * उससे असंज्ञी अपर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । * उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
* उससे उन्हींमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
* उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
* उससे असंज्ञी पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
* उससे उन्हीं में क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
* उससे उन्हीं में मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
* उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है ।
* उससे संज्ञी अपर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
२७
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ * तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। * तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * सण्णिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा। * तस्सेव उक्कस्सिया कोघद्धा विसेसाहिया। * तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * तस्सेव उक्कसिया लोभद्धा विसेसाहिया।
$ ५४. सुगमो च एसो सव्वो वि अप्पाबहुअपबंधो। तदो पढमगाहाए पुव्वद्धस्स अत्थविहासा समत्ता।
* 'को वा कम्हि कसाये अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' त्ति एत्थ अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा।
५५. एत्तो गाहापच्छिमद्धस्स जहावसरपत्तस्स अत्थविहासा कायव्वा त्ति पदुप्पायणट्ठमेदं सुत्तमोइण्णं । एत्थ य गाहापच्छद्धे अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा, अभीक्ष्णमुपयोगो मुहुर्मुहुरुपयोग इत्यर्थः । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् कषाये पौनःपुन्येनोपयोग इति यावत् । तत्थोघेण ताव कसायाणमभिक्खमुवजोगपरिणामक्कमपदंसणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे संज्ञी पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है।
$ ५४. यह सब अल्पबहुत्वका प्रबन्ध सुगम है। इस प्रकार प्रथम गाथाके पूर्वाधके अर्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
* 'कौन जीव किस कषायमें निरन्तर उपयोगसे उपयुक्त रहता है' इस प्रकार इस विषयमें निरन्तर होनेवाले उपयोगकी प्ररूपणा करनी चाहिए।
५५. आगे यथावसरप्राप्त गाथाके उत्तरार्धका विशेष व्याख्यान करना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए यह सूत्र अवतीर्ण हुआ है । यहाँ गाथाके उत्तराधके अनुसार पुनः पुनः उपयोगकी प्ररूपणा करनी चाहिए। अभीक्ष्ण उपयोगका अर्थ है पुनः पुनः उपयोगका होना। एक जीवके एक कषायमें बार-बार उपयोगका होना यह इसका आशय है। उसमें सर्वप्रथम ओघसे कषायोंके पुनः पुनः उपयोग परिणामक्रमके दिखलानेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * ओघेण ताव लोभो माया कोधो माणो त्ति असंखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु सई लोभागरिसा आदिरेगा भवदि।
५६. एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे-ओघेण ताव इमस्स कसायस्स अभिक्खमुवजोगवारा थोवा, इमस्स च कसायस्स अभिक्खमुवजोगवारा बहुगा त्ति परूवणं कस्सामो त्ति जाणावणट्ठमोघणिद्देसो एत्थ कओ । तत्थ वि तिरिक्ख-मणुसगईओ चेव पहाणभावेणावलंविय पयदपरूवणा कीरदे । तं जहा-तत्थ लोभो माया कोधो माणो त्ति एदीए परिवाडीए अवट्टिदसरूवाए असंखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु तदो एगवारं लोभागरिसा अदिरित्ता भवदि । कुदो एवं ? सहावदो। एत्थागरिसा त्ति वुत्ते परियदृणवारो त्ति गहेयव्वं । एवमेसो सुत्तस्स अवयवत्थो परूविदो। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरण?मिमा संदिद्विमुहेण समुदायत्थपरूवणा कीरदे । तं कथं ? लोभो माया कोधो मागो ११११। पुणो वि लोभो माया कोधो माणो त्ति ११११। एदेण विहिणा असंखेज्जेसु परियदृणवारेसु गदेसु तदो लोहो माया कोधो माणो होदूण पुणो लोभो माया ति मायाए द्विदजीवो कोधमगंतूण पुणो पडिणियत्तिय लोभमेव गदो। लोहेण सह अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मायमुल्लंघियण कोधं गदो। पच्छा माणं गदो । तदो चाहिं कसाएहिं अवट्ठिदपरिवाडीए असंखेज्जेसु वारेसु गदेसु एगवारं लोमागरिसो
* ओघसे लोभ, माया, क्रोध, मान इस परिपाटीसे असंख्यात परिवर्तनवारोंके हो जाने पर एक बार लोभकषायका परिवर्तनवार अधिक होता है ।
६५६. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-सर्व प्रथम ओघसे इस कषायके पुनः पुनः उपयोगबार थोड़े होते हैं और इस कषायके पुनः पुनः उपयोगबार बहुत होते है इसका कथन करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्र में ओघपदका निर्देश किया है। उसमें भी तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिका ही प्रधानरूपसे अवलम्बन लेकर प्रकृत प्ररूपणा करते हैं। यथा-लोभ, माया, क्रोध, मान इस अवस्थितस्वरूप पारिपाटीसे असंख्यात परिवर्तनवारोंके होनेपर उसके बाद एक बार लोभका परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। यहाँपर आगरिसा ऐसा कहनेपर परिवर्तनवार ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार यह सूत्रका अवयवार्थ कहा। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए संदृष्टिद्वारा यह समुदायार्थप्ररूपणा करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान--लोभ, माया, क्रोध, मान ११११। पुनः लोभ, माया, क्रोध, मान ११११। इस प्रकार इस विधिसे असंख्यात परिवर्तनवारोंके हो जानेपर उसके बाद लोभ, माया, क्रोध, मान होकर पुनः लोभ और मायाके होनेपर मायामें स्थित हुआ जीव क्रोधको प्राप्त हुए विना पुनः लौटकर लोभको ही प्राप्त हुआ। तब लोभके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पुनः मायाको उल्लंघन कर क्रोधको प्राप्त हुआ। इसके बाद मानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार चारों कषायोंके साथ अवस्थित परिपाटीद्वारा असंख्यात परिवर्तनवार होनेपर एकबार लोभका परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उसकी यह
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ अदिरित्तो होदि त्ति घेत्तव्वं । तस्सेसा संदिट्ठी ३ २ २ २। अथवा पढममसंखेज्जवारमवहिदपरिवाडीए गंतूण पुणो अंतिमवारे लोभो माया कोहो च होदूण पुणो णियत्तिय लोभमेव गंतूण तदो मायं कोधं च वोलिय माणं गदो । एवं पि लोभागरिसो अहिओ होइ त्ति वत्तव्वं । एवमेसा पढमपरिवाडी सुत्ते परूविदा।।
६५७. संपहि एदेणेव सूचिदाओ असंखेज्जाओ परिवाडीओ वत्तइस्सामो। तं जहा—एगवारं लोभागरिसे अहिये जादे पुणो वि पुत्वविहाणेण लोभो माया कोधो माणो त्ति होदूण ११११ पुणो वि तहा चेव होदण ११११ एवमेदेण विहिणा असंखेज्जवारे गंतूण तदो पच्छिमवियप्पे पुव्वुत्तविहिणा चेव लोभो माया च होदूण तदो जइ लोभं चेव णियत्तिदूण पडिवज्जइ, तो लोभादो मायमुल्लंघियूण कोधो होदूण पुणो माणो होदि त्ति लोभागरिसो विदियवारमदिरित्तो लब्भदे ३ २ २ २। अह जइ लोभो माया कोधो त्ति होदण तत्तो पडिणियत्तिय लोभं पडिवज्जदि तो पुव्वं व लोभादो मायं कोधं च वोलेयण पुणो माणं पडिवज्जदि त्ति । एवं पि लोभागरिसो विदियवारमदिरित्तो समुवलब्भदे । एवमेदेण विधिणा पुणो-पुणो भण्णमाणे असंखेज्जाओ लोभपरिवाडीओ अदिरित्ता लब्भंति । ताधे सव्वपरिवाडीणमेसा संदिट्ठी ९६ ६ ६ । संदृष्टि है ३ २ २२। अथवा पहले असंख्यातवार अवस्थित परिपाटीसे जाकर पुनः अन्तिम वारके समय लोभ, माया और क्रोध होकर पुनः लौटकर लोभको ही प्राप्त होकर उसके बाद
और क्रोधको उल्लंघन कर मानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार लोभका परिवर्तनवार अधिक होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । इस प्रकार यह प्रथम पारिपाटी सूत्रमें कही गई है।
६५७. अब इसी द्वारा सूचित हुई असंख्यात परिपाटियोंको बतलाते हैं। यथा-एक बार लोभपरिवर्तनवारके अधिक होनेपर फिर भी पूर्वविधिसे लोभ, माया, क्रोध, मान ११११ इस प्रकार होकर फिर भी उसी प्रकार होकर ११११ इस प्रकार इस विधिसे असंख्यातवार जाकर उसके बाद अन्तिम विकल्प पूर्वोक्त विधिसे ही लोभ और माया होकर उसके बाद यदि निवृत्त होकर लोभको ही प्राप्त होता है तो लोभके बाद मायाको उल्लंघन कर क्रोध होकर पुनः मान होता है। इस प्रकार लोभका परिवर्तनवार दूसरी बार अतिरिक्त प्राप्त होता है-३२२२। और यदि लोभ, माया, क्रोध इस प्रकार होकर उसके बाद लौटकर लोभको प्राप्त होता है तो पहलेके समान लोभके बाद माया और क्रोधको उल्लंघनकर पुनः मानको प्राप्त होता है। इस प्रकार भी लोभका परिवर्तनवार दूसरीबार अतिरिक्त प्राप्त होता है । इस प्रकार इस विधिसे पुनः पुनः कथन करनेपर असंख्यात लोभ परिपाटियाँ अतिरिक्त प्राप्त होती हैं । तब सब परिपाटियोंकी यह संदृष्टि ९६ ६६ होती है।
. विशेषार्थ-संसारमें सकषायी तिर्यञ्चों और मनुष्योंके क्रोधादि कषायोंके परिवर्तनक्रमका यहाँ निर्देश करते हुए बतलाया है कि लोभ, माया, क्रोध, मान इस क्रमसे कषायोंका स्वभावसे परिणमन होता है। ऐसा चारों कषायोंका एकवार परिणमन हुआ इसे संदृष्टिद्वारा ११११ इस प्रकार बतलाया गया है। इस प्रकार कषायोंके परिवर्तनका यह क्रम जब असंख्यातबार
१. प्रतिषु -मुल्लंघिय इति पाठः ।
पाया
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१
गाथा ६३]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा ५८. एवमेदासु समत्तासु तदो अण्णारिसी परिवाडी पारभदि ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* असंखेज्जेसु लोभागरिसेसु अदिरेगेसु गदेसु कोधागरिसेहिं मायागरिसा अदिरेगा होइ।
५९. एदस्स सुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । संपहि समुदायत्थो वुच्चदेतं जहा-पुन्वुत्तलोभपरिवाडीसु णिट्ठिदासु तदो लोभो माया कोधो माणो ११११ । पुणो वि लोभो माया कोहो माणो त्ति एदीए अवडिदपरिवाडीए असंखेज्जेसु वारेसु गदेसु तदो लोभो माया कोधो त्ति होदूण पुणो मायाए णियत्तिय तत्थंतोमुहत्तमच्छिय पुणो कोधमुल्लंघिय माणं गदो। एवं गदे कोधागरिसेहितो मायागरिसो एगवारमदिरित्तो लद्धो । तस्स संदिट्ठी २३२२ । पुणो ९६६६ एदेण विहिणा असंखेज्जाओ लोभपरिवाडीओ समाणिय तदो एगवारमणंतरपरूविदकमेण कोधागरिसेहिंतो मायागरिसो विदियवारमदिरित्तो लब्भदे २ ३ २ २। पुणो वि ताए चेव परिवाडीए एदाओ हो लेता है तब अन्तिम परिवर्तनके समय लोभ और मया होकर क्रोधको प्राप्त हुए बिना पुनः लोभको प्राप्त होता है। तथा अन्तर्मुहूर्त काल तक लोभके साथ रह कर मायाको उल्लंघनकर क्रमसे क्रोध और मानको प्राप्त होता है। इस प्रकार चारों कषायों द्वारा अवस्थित परिपाटीके क्रमसे असंख्यातवारोंके व्यतीत होनेपर लोभका एक परिवर्तनवार अधिक होता है । अवस्थित परिपाटीक्रमसे चारों कषायोंके असंख्यात परिवर्तनवार हुए और अन्तिम परिवर्तनवारके समय लोभका एक अतिरिक्त परिवर्तनवार हुआ इसे संदृष्टि द्वारा इस प्रकार दिखलाया गया है-३२२२। यह एक क्रम है। दूसरे क्रमके अनुसार असंख्यात परिवर्तनवारोंके होनेके बाद अन्तिम परिवर्तनवार होते समय लोभ, माया और क्रोध होकर पुनः लौटकर लोभ हुआ तथा माया और क्रोधको उल्लंघनकर मानको प्राप्त हुआ । इस प्रकार पूर्वोक्त विधिसे बार-बार परिवर्तनवार होकर असंख्यात लोभ परिपाटियाँ अतिरिक्त प्राप्त होती हैं । यहाँ सब मिलाकर जितनी परिपाटियाँ हुई हैं उन्हें संदृष्टि द्वारा इस प्रकार दिखलाया गया है-९६६६।।
५८. इस प्रकार इन परिपाटियोंके समाप्त होनेपर अन्य प्रकारकी परिपाटी प्रारम्भ होती है इसका ज्ञान करानेके लिए
* इस प्रकार लोभसम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनवारोंके अतिरिक्त हो जाने पर क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे मायासम्बन्धी परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है ।
५९. इस सूत्रके अवयवोंकी अर्थ प्ररूपणा सुगम है। अब समुच्चय अर्थ कहते हैं। यथा-पूर्वोक्त लोभपरिपाटियोंके समाप्त हो जानेपर उसके बाद लोभ, माया, क्रोध, मान १ ११ १ होकर फिर भी लोभ, माया, क्रोध, मान इस अवस्थित परिपाटीके अनुसार असंख्यातवार हो जानेपर फिर लोभ, माया, क्रोध होकर पुनः मायामें लौटकर और उसरूप अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः क्रोधको उल्लंघनकर मानको प्राप्त हुआ। ऐसा होनेपर क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे मायासम्वन्धी परिवर्तनवार एकवार अतिरिक्त प्राप्त हुआ। उसकी संदृष्टि-२ ३ २ २ है। पुनः पूर्वोक्त ९६ ६ ६ इस विधिसे असंख्यात लोभ परिपाटियोंको समाप्त कर उसके बाद एकबार अनन्तर प्ररूपितक्रमसे क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे मायासम्बन्धी परिवर्तनवार दूसरी बार अतिरिक्त प्राप्त होता है। उसकी संदृष्टि
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ ९६ ६ ६ लोभागरिसाणमदिरेयपरिवाडीओ समाणिय पुणो लोभो माया कोधो माणो त्ति एवमसंखेज्जवारे गंतूण तदो मायागरिसो एगवारमहिओ लब्भदे २ ३ २२। एवमणेण विहाणेण मायागरिसा वि असंखेज्जवारमहिया लद्धा हवंति । एवमेसा विदियपरिवाडी एदेण सुत्तेण परूविदा ।
६० संपहि एदीए परिवाडीए असंखेज्जेसु मायागरिसेसु अहिएसु समइक्कतेसु तदो अण्णाए परिवाडीए पारंभो होदि त्ति जाणावणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं
* असंखेज्जेहि मायागरिसेहिं अदिरेगेहिं गदेहिं माणागरिसेहिं कोधागरिसा अदिरेगा होदि।
६६१. एत्थ वि अवयवत्थपरूवणा सुगमा त्ति तमुज्झियूण समुदायत्थं चेव वत्तइस्सामो। तं जहा-मायागरिसेसु असंखेज्जेसु अदिरित्तेसु गदेसु लोभो माया कोधो माणो त्ति ताए चेवावद्विदपरिवाडीए ९६ ६ ६ एदाओ लोभागरिसाणमदिरेयपरिवाडीओ समाणिय पुणो लोभो माया कोधो माणो त्ति असंखेज्जवारे गंतूण तत्थ २ ३ २ २ है। फिर भी उसी परिपाटीके अनुसार इन ९६ ६ ६ लोभसम्बन्धी परिवर्तनवारोंकी अतिरिक्त परिपाटियोंको समाप्त कर पुनः लोभ, माया, क्रोध, मान इस विधिसे असंख्यातवार जाकर तदनन्तर मायासम्बन्धी परिवर्तनवार एक वार अतिरिक्त प्राप्त होता है। उसकी संदृष्टि २ ३ २ २ है। इस प्रकार इस विधिसे मायासम्बन्धी परिवर्तनवार भी असंख्यातवार अधिक प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यह दूसरी परिपाटी इस सूत्र द्वारा कही गई है।
विशेषार्थ-पूर्व में लोभसम्बन्धी परिवर्तनवार अन्य कषायोंसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे अतिरिक्त किस विधिसे प्राप्त होते हैं यह बतला आये है। यहाँ मायासम्बन्धी परिवर्तनवार क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे अतिरिक्त कैसे प्राप्त होते हैं यह बतलाया गया है। टीकामें इसका जो स्पष्टीकरण किया है उससे मालूम होता है कि जब सब परिपाटियोंके अनुसार लोभसम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनवार अतिरिक्त हो लेते हैं तब एकबारमायासम्बन्धी परिवर्तनवार अधिक होता है और यह क्रम मायासम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनवारोंके अतिरिक्त होने तक चलता रहता है। यह दूसरी परिपाटी है जो इस सूत्रद्वारा सूचित की गई है।
६०. अब इस परिपाटीके अनुसार असंख्यात मायासम्बन्धी परिवर्तनवारोंके व्यतीत हो जानेपर उसके बाद अन्य परिपाटीका प्रारम्भ होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र आया है___* इस प्रकार मायासम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनवारोंके अतिरिक्त हो जानेके बाद मानसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है।
६१. यहाँ पर भी अवयवार्थ प्ररूपणा सुगम है, इसलिए उसे छोड़कर समुच्चयरूप अर्थको ही बतलावेंगे। यथा-मायासम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनवारोंके अतिरिक्त हो जानेपर लोभ, माया, क्रोध, मान इस प्रकार उसी अवस्थित परिपाटीके अनुसार ९६६६ इन लोभसम्बन्धी परिवर्तनवारोंकी अतिरिक्त परिपाटियोंको समाप्त कर पुनः लोभ, माया
१. ता०प्रतौ परिणामिदत्तादो इति पाठः ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा मायागरिसाणमदिरेगपाओग्गविसए तहा अहोदूण माणागरिसेहितो कोहागरिसा एगवारमहिया होइ २ २३ २, माणादो कोहमागंतूण पुणो लोभादिसु जहाकम परिणमिदत्तादो। एवं पुणो-पुणो कीरमाणे मायागरिसेहितो कोधागरिसा वि असंखेज्जवारमदिरित्ता समुवलद्धा हवंति । तदो एवंविहमेगं परिबत्तं कादण पुणो वि णेदव्वं जाव णिरुद्धकालो समतो ति । असंखेज्जबस्समेत्तो एत्थ णिरुद्धकालो त्ति घेत्तव्वं । एत्थ णिरुद्धकालभंतरे लोभागरिसाणं सव्वसमासो संदिट्ठीए एसो ४४ । एदे मायागरिसा ३५ । कोधागरिसा एदे ३३ । माणागरिसा च एदे ३२ । अहवा लोहादीणं परिवत्तणसंदिट्ठी एवं वा ठबेयव्वा
३२ २ २ ३ २ २ २ ३ २२२ ३२२२ ३२ २२ ३२२२ ३२२२ ३२२२ ३२२२ ३२२२ ३२२२ ३२२२
२३ २२ २३ २२ २३ २ २ २ २३२ एदं सव्वं पि असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुसे अस्सियूण परूविदं । संपहि संखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्से अस्सियूण जइ वुच्चइ तो कोह-माण-माया-लोहाणमागरिसा अण्णोण्णं पेक्खियूण सरिसा चेव हवंति । किं कारणं? असंखेज्जपरिवत्तणवारा क्रोध, मान इस विधिसे असंख्यातवार जाकर वहाँ मायासम्बन्धी परिवर्तनवारके अतिरिक्त प्राप्त होनेके स्थानपर उस प्रकार न होकर अर्थात् मायासम्बन्धी अतिरिक्त परिवर्तनवार न प्राप्त होकर मानसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवार एकबार अधिक प्राप्त होता है। उसकी संदृष्टि २ २ ३ २ है, क्योंकि तब मानके बाद ( दूसरी बार ) क्रोधको प्राप्त कर पुनः क्रमानुसार लोभादिरूपसे परिणमन करता है। इस प्रकार पुनः पुनः करनेपर मायाके परिवर्तनवारोंसे क्रोधके परिवर्तनवार भी असंख्यातवार अधिक प्राप्त होते हैं। तदनन्तर इस प्रकार एक परिवर्तन करके फिर भी विवक्षित कालके समाप्त होने तक फिर भी उक्त विधिसे परिवर्तन कराना चाहिए । यहाँ विवक्षित काल असंख्यात वर्षप्रमाण ग्रहण करना चाहिए। यहाँ पर विवक्षित कालके भीतर लोभके परिवर्तनवारोंका कुल जोड़ संदृष्टिके अनुसार : ४ है। संदृष्टिके अनुसार ये ३५ मायाके परिवर्तनवार हैं। संदृष्टिके अनुसार ये ३३ क्रोधके परिवर्तनवार हैं। तथा संदृष्टिके अनुसार ये ३२ मानके परिवर्तनवार हैं। अथवा लोभादिककी परिवर्तनसंदृष्टि इस प्रकार स्थापित करनी चाहिएलो० मा० क्रो० मा० लो० मा० क्रो० मा० लो० मा० क्रो० मा० लो० मा० क्रो० मा० ३ २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ .३ २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ । ३ २ २ २ ३. २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ ३ २ २ २ २ ३ २
यह सभी असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंको मुख्यकर कहा है। अब संख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी मुख्यतासे यदि कहते हैं तो क्रोध मान, माया, लोभके परिवर्तनवार एक-दूसरेको देखते हुए सदृश ही होते हैं, क्योंकि
و بع بع بع بع
na
१. ता०प्रतौ परिणामिदत्तादो इति पाठः ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ सरिसा होदूण जाव ण गदा ताव लोभादीणमागरिसा अहिया ण होंति त्ति सुत्तवयणादो।
* एवमोघेण ।
$ ६२. एवमेसा ओघेण चउण्हं कसायाणमभिक्खमुवजोगपरूवणा कया। एत्तो आदेशपरूवणं वत्तइस्सामो। तत्थ वि तिरिक्ख-मणुसगदीसु ओघपरूवणादो पत्थि णाणत्तमिदि तप्पदुप्षायणट्ठमप्पणासुत्तमाह
* एवं तिरिक्खजोणिगदीए मणुसगदीए च।
६३. सुगममेदमप्पणासुत्तं, विसेसाभावणिबंधणत्तादो । संपहि णिरयगदीए अभिक्खमुवजोगविसेसपदुप्पायणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* णिरयगईए कोहो माणो कोहो माणो त्ति वारसहस्साणि परियत्तिदूण सई माया परिवत्तदि। असंख्यात परिवर्तनवार सदृश होकर जब तक व्यतीत नहीं होते तब तक लोभादिकके अधिक परिवर्तनवार नहीं होते ऐसा यह सूत्रवचन है ।
विशेषार्थ—पहले यह बतला आये हैं कि जब अपनी-अपनी परिपाटि योंके अनुसार लोभके एक-एक कर परिवर्तनवार असंख्यात हो जाते हैं तब एक बार मायाका परिवर्तनवार अधिक होता है। यहाँ क्रोधका परिवर्तनवार एकवार अधिक कैसे होता है यह बतलाया गया है। क्रम यह है कि जब लोभके परिवर्तनवार असंख्यातवार अधिक हो जाते हैं तब मायाका परिवर्तनवार एकवार अधिक होता है और इस विधिसे जब मायाके परिवर्तनवार असंख्यात अधिक हो जाते हैं तब एकवार क्रोधका परिवर्तनवार अधिक होता है । आगे भी यही क्रम है। इस अन्तिम संदृष्टिके पूर्व चारों कषायोंके परिवर्तनवारोंको सूचित करनेके लिए जो संदष्टि दी है उसमें जो विधि स्वीकार की गई है उसका खुलासा यहाँ पूर्व में अंक संदृष्टि द्वारा किया ही है। उसके अनुसार अंक संदृष्टिकी अपेक्षा लोभके परिवर्तनवार ४४, मायाके परिवर्तनवार ३५, क्रोधके परिवर्तनवार ३३ और मानके परिवर्तनवार ३२ प्राप्त होते हैं।
* यह प्ररूपणा ओघसे की गई है।
$ ६२. इस प्रकार चारों कषायोंके पुनः पुनः उपयुक्त होनेकी यह प्ररूपणा ओघसे की गई है। इससे आगे आदेशप्ररूपणाको बतलावेंगे। उसमें भी तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमें ओघप्ररूपणासे आदेशप्ररूपणामें भेद नहीं है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए अर्पणा सूत्रको कहते हैं
* इसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिगतिमें और मनुष्यगतिमें जानना चाहिए।
६३. यह अर्पणासूत्र सुगम है, ओघसे इन दोनों गतियों में विशेषताका अभाव इसका कारण है। अब नरकगतिमें पुनः पुनः उपयोगविशेषका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* नरकगतिमें क्रोध-मान पुनः क्रोध-मान इस प्रकार हजारोंवार परिवर्तन होकर एकवार मायारूप परिवर्तन होता है ।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा ६४. जहा ओघपरूवणाए लोभो माया कोधो माणो त्ति एदीए अवट्ठिदपरिवाडीए असंज्जेसु आगरिसेसु गदेसु तदो अण्णारिसी परिवाडी होदि तहा एत्थ पत्थि, किंतु एत्थ णिरयगदीए कोधो माणो कोधो माणो त्ति एसा अवट्ठिदपरिवाडी। एदीए परिवाडीए वारसहस्साणि परियट्टिदूण तदो सई मायापरिवत्ती होइ । किं कारणं ? णेरइएसु अच्चंतदोसबहुलेसु कोह-माणाणं चेव पउरं संभवादो । एवं पुणो-पुणो परिवत्तमाणे मायापरिवत्ता वि संखेजसहस्समेत्ता जादा। तदो अण्णो विसरिसपरिवाडीए वियप्पो होदि त्ति पदुप्पायणट्ठमाह
* मायापरिवत्तेहिं संखेज्जेहिं गदेहिं सइं लोहो परिवत्तदि ।
६५. संखेजसहस्सेहिं मायापरिवत्तेहिं पादेकं कोह-माणाणं संखेज परिवत्तणसहस्साविणाभावीहिं गदेहिं तदो सई लोभेण परिणमदि त्ति भणिदं होदि । कुदो एवं चेव ? णिरयगदीए अच्चंतपापबहुलाए पेजसरूवलोहपरिणामस्स सुट्ट दुल्लहत्तादो । एवमेस कमो ताव जाव अप्पणो णिरुद्धभवद्विदीए चरिमसमयो त्ति । संपहि दोण्हं एदेसि सुत्ताणं संदिट्टिमुहेण समुदायत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा—णिरयगदीए संखेजवस्साउअभवे असंखेञ्जवस्साउअभवे वा कोहो माणो १ १ ० ० पुणो वि कोहो माणो त्ति २ २ ० ० एवंविहेसु संखेजसहस्सपरिवत्तणवारेसु गदेसु तदो अंतिमवारे
$ ६४. जिस प्रकार ओघप्ररूपणाकी अपेक्षा लोभ माया, क्रोध, मान इस प्रकार अवस्थित परिपाटीके अनुसार असंख्यात परिवर्तनवारोंके होनेपर तदनन्तर अन्य प्रकारकी परिपाटी होती है उस प्रकार यहाँ नहीं है, किन्तु यहाँ नरकगतिमें क्रोध-मान पुनः क्रोध मान यह अवस्थित परिपाटी है। इस परिपाटीसे हजारों वार परिवर्तन करके तदनन्तर एक बार मायारूप परिवर्तन होता है, क्योंकि नारकी जीव अत्यन्त दोषबहुल होते हैं, इसलिए उनमें क्रोध और मानकी ही प्रचुरता पाई जाती है। इस प्रकार पुनः-पुनः परिवर्तन होनेपर मायारूप परिवर्तन भी संख्यात हजार वार हो जाते हैं। तब विसदृश परिपाटीके अनुसार अन्य विकल्प होता है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* मायासम्बन्धी संख्यात हजार परिवर्तनवारोंके होनेपर एकवार लोभसम्बन्धी परिवर्तनवार होता है।
$ ६५. मायासम्बन्धी प्रत्येक परिवर्तनवार क्रोध और मानके संख्यात हजार परिवर्तनवारोंका अविनाभावी है और इस प्रकार मायासम्बन्धी संख्यात हजार परिवर्तनवारोंके होनेके पश्चात् एक वार लोभरूपसे परिणमता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-ऐसा किस कारणसे होता है ? समाधान-अत्यन्त पापबहुल नरकगतिमें प्रेयस्वरूप लोभपरिणाम अत्यन्त दुर्लभ है।
इस प्रकार यह क्रम अपनी विवक्षित स्थितिके अन्तिम समय तक चलता रहता है। अब इन दोनों सूत्रोंके समुच्चयरूप अर्थकी संदृष्टि द्वारा प्ररूपणा करेंगे। यथा--नरकगतिमें संख्यात वर्षकी आयुवाले भवमें या असंख्यात वर्षकी आयुवाले भवमें क्रोध-मान १ १ ० ० पुनः क्रोध-मान २ २ ० ० इस प्रकारके संख्यात हजार परिवर्ननवारोंके हो जानेपर अन्तिम
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ कोहो होदण माणमल्लंघिय माया एगवारं परिवत्तदि ३ २१ । पुणो वि पुव्वुत्तविहिणा चेव कोहो माणो त्ति संखेजपरियट्टणवारे गंतूण पुणो पच्छिमे वारे कोहो होदूण माणमुल्लंघिय मायाए एगवारं परिवत्तदि ३२ १० । पुणो वि एदेणेव विहिणा मायागरिसाणं पि संखेजसहस्सवारेसु समत्तेसु तदो तदणंतरपरिवाडीए कोहो होदण माणं मायं च समुल्लंघिय सई लोभेण परिणमइ ३ २ ० १ । पुणो वि एदेण विहिणा ३२१०
: मायागरिसेसु संखेजसहस्सवारं परिवत्तिदेसु पुणो कोहो होदूण माणं मायं च, वोलिय एगवारं लोभेण परिणमइ ३ २ ० १ । पुणो वि एदेणेव कमेण
संखेजसहस्समेत्तमायापरिवत्तेसु गदेसु एगवारं लोभो परिवत्तदि। ३ २ ० १ । एवं णेदव्वं जाव पुव्वणिरुद्धाउद्विदिचरिमसमयोत्ति । एत्थ सव्वसमासेण संदिट्ठी एसा
३ २ १ ० ३ २ १ ० ३ २ १ ० एत्थ कोह-माण-माया लोभा३ २ १ ० ३ २ १ ० ३२१० गरिसाणं जहाकमं सव्वपिंडो एसो २७
३ २ ० १ ३२ ० १ ३ २ ० १ १८ ६ ३ । एदेसिमप्पाबहुअं पुरदो वत्तइस्सामो। वारमें क्रोध होकर मानको उल्लंघन कर एक वार मायारूप परिवर्तन होता है। उसकी संदृष्टि है- ३ २ १०। फिर भी पूर्वोक्त विधिसे ही क्रोध, मान इस प्रकार संख्यात हजार परिवर्तनवारोंके हो जानेपर पुनः अन्तिम वारमें क्रोध होकर मानको उल्लंघन कर मायारूपसे एक बार परिवर्तन होता है। इसकी संदृष्टि है- ३ २ १ ० । फिर भी इसी पूर्वोक्त विधिसे संख्यात हजार मायासम्बन्धी परिवर्तनवारोंके भी समाप्त हो जानेपर उसके अनन्तर जो परिपाटी होती है उसमें क्रोध होकर तथा मान और मायाको उल्लंघन कर एक वार लोभ रूपसे परिणमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। फिर भी इसी विधिसे ३२१० माया परिवर्तनवारोंके. संख्यात हजार वार परिवर्तित होनेपर पुनः क्रोध होकर तथा मान और मायाको उल्लंघन कर एक वार लोभरूपसे परिणमता है । उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। फिर भी इसी क्रमसे ३२१ : मायाके परिवर्तनवारोंके संख्यात हजार वार हो जाने पर एक वार लोभरूप परिणमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। इस प्रकार पहले प्राप्त हुई आयुस्थितिके अन्तिम समय तक जानना चाहिए। यहाँ सबकी समुच्यरूप संदृष्टि यह है
३ २ १ ० ३ २ १ ० ३ २ १ ० यहाँ क्रोध, मान, माया और लोभके ३२१० ३२१० ३२१.० परिवर्तनवारोंका पूरा योग यह है
क्रो० २७ मा० १८ मा०६ लोभ ३। ३ २ ० १ ३ २ ० १ ३ २ ० १ इनका अल्पबहुत्व आगे कहेंगे।
विशेषार्थ-नरकगतिमें कषायोंके परिवर्तनका क्रम क्या है इसका विस्तृत रूपसे विचार यहाँ पर किया गया है। नारकी जीव अत्यन्त पापबहुल होते हैं, इसलिए उनमें क्रोध और मानकी बहुलता होती है। हजारों बार जब क्रोध, मान पुनः क्रोध, मान रूप परिणाम हो लेते हैं तब क्रोधके बाद मानरूप परिणाम न होकर एक बार मायारूप परि
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा ६६६. एवं णिरयगदीए अभिक्खमुवजोगसरूवणिरूवणं कादूण संपहि देवगदीए तप्परूवणसुवरिमं पबंधमाह___* देवगदीए लोभो माया लोभो माया त्ति वारसहस्साणि गंतूण तदो सइं माणो परिवत्तदि।
६७. तं जहा–देवगदीए लोभो माया लोभो माया त्ति एदेसिं दोण्हं कसायाणं वारसहस्साणि गंतूण तदो सइं माणकसायो परिवत्तदि । कुदो एवं ? पेजसरूवाणं लोभ-मायाणं तत्थ बहुलं संभवदंसणादो । तदो लोभ-मायाहि संखेजवारसहस्साणि गंतूण तदो लोभेण परिणमिय मायापाओग्गविसये तमुल्लंघिय सइं माणेण परिवत्तदि त्ति सिद्धं । एवमेदेण कमेण पुणो-पुणो कीरमाणे माणपरिवत्ता वि संखेजसहस्समेत्ता जादा । तदो अण्णारिसो परिवत्तो होदि ति जाणावण?माहणाम होता है। पुनः इसी क्रमसे हजारों वार क्रोध,मान पुनः क्रोध, मान इस रूप परिणाम होनेके बाद क्रोधरूप परिणाम होकर मानके स्थानमें मायारूप परिणाम होता है और इस विधिसे जब हजारों वार मायारूप परिणाम हो लेते हैं तब क्रोधरूप परिणामके बाद मान
और मायारूप परिणाम न होकर एक वार लोभरूप परिणाम होता है । नारकियोंके जीवनके अन्त तक यही क्रम चलता रहता है। यहाँ अंकसंदृष्टि द्वारा इसी तथ्यको समझाया गया है। अंकसंदष्टिमें ३ यह संख्या संख्यात हजारकी, २ यह संख्या दो वार की और १ यह संख एक वारकी सूचक है। अंकसंदृष्टिमें ० शून्यसे यह सूचित किया गया है कि जब क्रोधके बाद लोभरूप परिणाम होता है तब उस वार मायारूप परिणाम नहीं होता । यद्यपि उस वार मानरूप भी परिणाम नहीं होता। परन्तु मानके खानेमें मात्र २ यह संख्या रहनेसे यह बात सुतरां ख्यालमें आ जाती है।
$ ६६. इस प्रकार नरकगतिमें पुनः पुनः कषायोंके उपयोगस्वरूपका कथन करके अब देवगतिमें उसका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* देवगतिमें लोभ-माया पुनः लोभ-माया इस प्रकार संख्यात हजार वार जाकर तदनन्तर एक वार मानरूप परिवर्तन होता है ।
$ ६७. यथा-देवगतिमें लोभ-माया पुनः लोभ-माया इस प्रकार इन दोनों कषायोंके संख्यात हजार वारोंको प्राप्त होकर तदनन्तर एकवार मानकषायरूपसे परिवर्तन करता है ।
शंका-ऐसा किस कारणसे होता है ?
समाधान—प्रेयस्वरूप लोभ और मायाकी वहाँ बहुलतासे उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए लोभ और मायाके द्वारा संख्यात हजार वारोंको प्राप्त होकर उसके बाद लोभरूपसे परिणमनकर मायाके योग्य स्थानमें मायाको उल्लंघनकर एकवार मानरूपसे परिवर्तित होता है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार इस क्रमसे पुनः पुनः करनेपर मानके परिवर्तित वार भी संख्यात हजार हो जाते हैं । तदनन्तर अन्य प्रकारका परिवर्तनवार होता है इसका ज्ञान करानेके लिए कहते हैं
१. ता०प्रतो माणकसायो इति पाठः ।।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
३
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ * माणस्स संखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु तदो सइं कोधो परिवत्तदि ।
६८. माणागरिसेसु पादेक्कं लोभ-मायाणमागरिससहस्साविणाभावीसु गदेसु सई कोहेण परिवत्तदि, देवगदीए अप्पसत्थयरकोहपरिणामस्स पाएण संभवाणुवलंभादो । एवमेसो परिवत्तणकमो ताव जाव णिरुद्धाउट्ठिदिचरिमसमयो त्ति । एत्थ संदिद्विमुहेण समुदायत्थपरूवणाए णिरयगइभंगो। णवरि विवज्जासेण कायव्वमिदि । लोभसव्वसमासो एसो २७ । मायासव्वसमासो १८ । माणसव्वसमामो ६ । कोहसव्वसमासो ३ ।
६९. एवमेत्तिएण पबंधेण 'को वा कम्हि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' त्ति एदम्मि गाहापच्छिमद्धे पडिबद्धमभिक्खमुवजोगपरूवणं कादूण संपहि तव्विसयमेवमप्पाबहुअं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* एदीए परूवणाए एक्कम्हि भवग्गहणे णिरयगदीए संखेजवासिगे वा असंखेजवासिगे वा भवे लोभागरिसा थोवा ।
७०. एदीए अणंतरपरूविदाए अभिक्खमवजोगपरूवणाए अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होदि । एक्कम्हि भवग्गहणे एगभवग्गहणमहिरणं कादूणे त्ति वुत्तं ___* मानके संख्यात हजार परिवर्तनवारोंके होने पर एक वार क्रोधरूप परिवर्तन होता है।
६८. प्रत्येक मानकषायका परिवर्तनवार लोभ और मायाके संख्यात हजार परिवर्तन वारोंका अविनाभावी है, इस क्रमसे मानकषायके संख्यात हजार परिवर्तनवारोंके हो जानेपर एकवार क्रोधरूपसे परिवर्तित होता है, क्योंकि देवगतिमें अप्रशस्ततर क्रोधपरिणामकी प्रायः उत्पत्ति नहीं है । इस प्रकार प्राप्त हुई आयुके अन्तिम समय तक यह परिवर्तनक्रम होता रहता है। यहाँ पर संदृष्टि द्वारा प्ररूपणा नरकगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि विपर्यासरूपसे प्ररूपणा करनी चाहिए। संदृष्टिमें लोभ कषायका कुल योग २७ अंकप्रमाण है, मायाकषायका कुल योग १८ अंकप्रमाण है, मानकषायका कुल योग ६ अंकप्रमाण है और क्रोधकषायका कुल योग ३ अंकप्रमाण है।
विशेषार्थ-जिस प्रकार पहले नरकगतिमें क्रोधादि कषायोंके परिवर्तनवारोंका स्पष्टीकरण कर आये हैं, यहाँ देवगतिमें भी उसी प्रकार जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वहाँ क्रोध, मान, माया और लोभ इस क्रमको स्वीकार कर स्पष्टीकरण किया है। किन्तु यहाँ लोभ, माया, मान और क्रोध इस क्रमको स्वीकार कर विवेचन करना चाहिए।
६९. इस प्रकार इस प्रबन्ध द्वारा गाथाके 'को वा कम्हि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' इस उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाले पुनः पुनः उपयोगका कथन कर अब उसीके विषयभूत अल्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* इस प्ररूपणाके अनुसार एक भवग्रहणमें नरकगतिमें संख्यात वर्षवाले भवमें या असंख्यात वर्षवाले भवमें लोभके परिवर्तनवार सबसे स्तोक हैं ।
७०. अनन्तर पूर्व कही गई इस पुनः-पुनः होनेवाली उपयोगप्ररूपणाके अनुसार अल्पबहुत्वको बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। एक्कम्हि भवग्गहणे' अर्थात् एक भवग्रहण
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
गाथा ६३ ]
३९ होइ । णिरयगदीए ताव पयदपरूवणं कस्सामो, पच्छा सेसगदीणमिदि जाणावणद्वं 'णिरयदीए' त्ति वुत्तं । तत्थ वि संखेजवस्सिगे असंखेजवस्सिगे वा भवग्गहणे सरिसी एसा परूवणा त्ति पदुप्पायणटुं 'संखेजवस्सिगे वा असंखेज्जवस्सिगे वा' त्ति णिदेसो कओ। 'लोभागरिसा थोवा' लोभपरिवत्तणवारा सव्वत्थोवा त्ति भणिदं होदि । कुदो एदेसिं थोवत्तमिदि चे ? णिरयगदीए लोभपरियट्टणवाराणं सुद्दु विरलाणमुवलंभादो ।
* मायागरिसा संखेजगुणा ।
७१. कुदो ? एक्के कम्मि लोभपरिवत्ते संखेजसहस्साणं मायापरिवत्तणवाराणमुवलंभादो । को गुणगारो ? तप्पाओग्गसंखेजसहस्सरूवाणि ।
* माणागरिसा संखेजगुणा ।
७२. एत्थ वि कारणमणंतरपरूविदत्तादो सुगमं । गुणगारो च तप्पाओग्गसंखेजरूवमेत्तो।
* कोहागरिसा विसेसाहिया ।
६ ७३. केत्तियमेत्तो विसेसो ? सगसंखेजदिभागमेत्तो । लोभ-मायागरिसमेत्तेण को आधार बनाकर यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सर्व प्रथम नरकगतिमें प्रकृत प्ररूपणा करेंगे, तदनन्तर शेष गतियोंकी अपेक्षा वह प्ररूपणा करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'णिरयगदीए' यह वचन कहा है। उसमें भी संख्यात वर्षको आयुवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले भवमें यह प्ररूपणा समान है इस बातका कथन करने के लिए सूत्रमें 'संखेज्जवस्सिगे वा असंखेज्जवस्सिगे वा' यह निर्देश किया है । 'लोभागरिसा थोवा' लोभके परिवर्तनवार सबसे स्तोक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-इनका स्तोकपना किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान—क्योंकि नरकगतिमें लोभके परिवर्तनवार अत्यन्त विरल पाये जाते हैं, इससे जानते हैं कि वहाँ लोभके परिवर्तनवार सबसे स्तोक हैं।
* उनसे मायाकषायके परिवर्तनवार संख्यातगुणे हैं।
$ ७१. क्योंकि लोभके एक-एक परिवर्तनवारमें मायाके परिवर्तनवार संख्यात हजार पाये जाते हैं।
शंका-गुणकार क्या है ? समाधान-तत्प्रायोग्य संख्यात हजार अंक गुणकार है। * उनसे मानकषायके पविर्तनवार संख्यातगुणे हैं ।
$ ७२. यहाँ पर भी कारणका कथन सुगम है, क्योंकि उसका अनन्तर पूर्व कथन कर आये हैं । और गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात हजार अंकप्रमाण है।
* उनसे क्रोधकषायके परिवर्तनवार विशेष अधिक हैं । ६.७३. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-अपना संख्यातवाँ भागप्रमाण है। मानके परिवर्तनवारोंसे लोभ और
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ माणागरिसहिंतो कोहागरिसा विसेसाहिया त्ति वुत्तं होइ ।
७४. एवं णिरयोघो परूविदो। एवं सव्वासु पुढवीसु । णवरि पढमपुढवीदो अण्णत्थ संखेजवस्सियभवग्गहणालावो ण कायव्वो। संपहि देवगदीए पयदप्पाबहुअगवेसणहमाह
* देवगदीए कोधागरिसा थोवा ।
६७५.३ । णिरयगदीए लोभागरिसाणं थोवत्ते परूविदकारणमेत्थ वि परूवेयव्वं, विसेसाभावादो।
* माणागरिसा संखेनगुणा । $ ७६. ६ । एत्थ वि कारणं सुगम, णिरयगइमायागरिसेहिं वक्खाणिदत्थादो । * मायागरिसा संखेजगुणा।।
$ ७७. १८ । सुगममेदं पि सुत्तं, णिरयगदिमाणागरिसेहिं समाणपरूवणत्तादो । मायाके परिवर्तनवार मात्र क्रोधके परिवर्तनवार विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अर्थात् मानकपायके परिवर्तनवारोंमें लोभ और मायाके परिवर्तनवारोंको मिला देने पर क्रोधके परिवर्तनवार आ जाते हैं जो अपने अर्थात् क्रोधकषायके समस्त परिवर्तनवारोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसे अंकसंदृष्टिसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। अंकसंदृष्टि पहले दे ही आये हैं।
७४. इस प्रकार ओघसे नारकियोंमें प्ररूपणा की। इसी प्रकार सब पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीके सिवाय अन्य पृथिवियोंमें संख्यात वर्षवाले भवप्रहणरूप आलाप नहीं कहना चाहिए। अब देवगतिमें प्रकृत अल्पबहुत्वका अनुसन्धान करनेके लिए कहते हैं
* देवगतिमें क्रोधकषायके परिवर्तनवार सबसे थोड़े हैं।
७५. ३ । नरकगतिमें लोभकषायके परिवर्तनवारोंके स्तोकपनेका जो कारण कह आये हैं उसे यहाँ भी कहना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । तात्पर्य यह है कि देवगति प्रेयबहल गति है, इसलिए वहाँ पर क्रोधकषायके परिवर्तनवार सबसे थोड़े पाये जाते हैं । यहाँ अंकसंदृष्टि में उनकी संख्या ३ प्राप्त होती है।
* उनसे मानकषायके परिवर्तनवार संख्यातगुणे हैं ।
६ ७६. ६। यहाँ पर भी कारणका कथन सुगम है, क्योंकि नरकगतिमें मायाकषायके परिवर्तनोंके कथनके साथ उस अर्थका व्याख्यान कर आये हैं। तात्पर्य यह है कि देवोंमें क्रोधकषायका एक-एक परिवर्तनवार तब होता है जब मानकषायके संख्यात हजार परिवर्तनवार हो लेते हैं। पिछले चूर्णिसूत्रके प्रसंगसे अंकसंदृष्टि द्वारा क्रोधकषायके परिवर्तनवारोंकी संख्या ३ कल्पित की गई है। यहाँ मानकषायके परिवर्तनवारोंकी संख्या ६ कल्पित की है।
* उनसे मायाकषायके परिवर्तनवार संख्यातगुणे हैं।
$ ७७. १८ । यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि नरकगतिमें मानकषायके परिवर्तनवारोंके समान इसकी प्ररूपणा है।
विशेपार्थ—यहाँ अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा संख्यात हजारकी सहनानी ३ है। पूर्व में मान
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * लोभागरिसा विसेसाहिया । $ ७८. २७ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? सगसंखे भागभूदकोह-माणागरिसमेत्तो ।
$ ७९. एवं भवणादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति वत्तव्वं, विसेसाभावादो । संपहि तिरिक्ख-मणुसगदीसु पयदप्पाबहुअविहासणट्ठमाह
* तिरिक्ख-मणुसगदीए असंखेजवस्सिगे भवग्गहणे माणागरिसा थोवा।
६८. एत्थासंखेज्जवस्सियभवग्गहणविसेसणं संखेञ्जवस्सियभवग्गहणे पयदप्पाबहुअसंभवो पत्थि त्ति जाणावणफलं ददुव्वं, तत्थ चदुण्हं कसायाणं परिवत्तणवाराणं सरिसत्तदंसणादो । एत्थ संदिट्ठीए माणागरिसाणं पमाणमेदं ३२ ।
* कोहागरिसा विसेसाहिया। परिवर्तनवारोंकी संख्या अंकसंदृष्टिमें ६ बतला आये हैं । इसे ३ से गुणा करने पर १८ प्राप्त होते हैं। इसे ध्यानमें रख कर वास्तविक अर्थ जान लेना चाहिए ।
* उनसे लोभकषायके परिवर्तनवार विशेष अधिक हैं। ६ ७८. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान-अपने संख्यातवें भागप्रमाण जो क्रोध और मानकषायके परिवर्तनवार हैं उतना विशेषका प्रमाण है।
विशेषार्थ—यहाँ टीकामें 'सगसंखे०भागभूद' पद आया है। उसका तात्पर्य है कि लोभकषायके जितने परिवर्तनवार हैं उनके संख्यातवें भागप्रमाण । वह संख्यातवाँ भाग कितना होगा ऐसा प्रश्न होने पर बतलाया है कि क्रोध और मानकषायके जितने परिवर्तनवार हैं उतना है। अंकसंदृष्टिमें यहाँ अपने संख्यातवें भागकी सहनानी ९ का अंक है। पूर्व सूत्रके प्रसंगसे अंक संदृष्टिमें मायाकषायके परिवर्तनवारोंकी संख्या १८ दे आये हैं। उसका ९ संख्या संख्यातवां भाग है। यह क्रोध और मानके परिवर्तनवारोंकी जितनी संख्या है उतनी है। इन दोनोंका योग २७ है। इसलिए यहाँ अंकसंदृष्टिमें लोभकषायके परिवर्तनवार २७ बतलाये हैं।
$ ७९. इसी प्रकार अर्थात् देवगतिको ओघप्ररूपणाके समान भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें कथन करना चाहिए, क्योंकि उक्त प्ररूपणासे इसके कथनमें कोई अन्तर नहीं है। अब तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिमें असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर मानकषायके परिवर्तनवार सबसे थोड़े हैं ।
६८०. संख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर प्रकृत अल्पबहुत्व सम्भव नहीं है इस बातका ज्ञान करानेके इस लिए सूत्रमें 'असंखेज्जवस्सियभवग्गहणे' यह विशेषण जानना चाहिए, क्योंकि संख्यात वर्षकी आयुवाले भवमें चारों कषायोंके परिवर्तनवार समान देखे जाते हैं । यहाँ पर अंकसंदृष्टिमें मानकषायके परिवर्तनवारोंका प्रमाण यह ३२ है ।
* उनसे क्रोधकषायके परिवर्तनवार विशेष अधिक हैं ?
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
९८१. केत्तिममेत्तो विसेसो ? तप्पा ओग्गासंखेजरूवमेत्तो । किं कारणं १ असंखेजासु परिवाडी कोह- माणागरिसाणमवद्विदसरूवेण गदासु तदो सई माणा गरिसेहिंतो कोहाग रिसाणमदिरेयभावो होदि ति समणंतरमेव परूवियत्तादो । तदो माणागरसाणमसंखे० भागमेत्तो एत्थ विसेसो त्ति घेत्तव्वं ३३ ।
* मायागरिसा विसेसाहिया ।
८२. केत्तियमेत्तो विसेसो ? कोहागरिसाणमसंखे ० भागमेत्तो ३५ । * लोभागरिसा विसेसाहिया ।
९ ८३. केत्तियमेत्तेण ? मायाग रिसाणमसंखे ० भागमेत्तेण ४४ ।
एवं गाहाच्छस्स अत्थे विहासिय समत्ते पढमगाहा समत्ता भवदि ।
४२
$ ८१. शंका – विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान-तत्प्रायोग्य असंख्यातवें भागमात्र हैं, क्योंकि क्रोध और मानकषायके परिवर्तनवारोंकी अवस्थितरूपसे असंख्यात परिपाटियोंके जानेपर तदन्तर मानके परिवर्तनवारोंसे क्रोधके परिवर्तनवारोंकी एक वार अधिकता होती है यह भले प्रकार पहले ही कथन कर आये हैं । इसलिए मानकषायके परिवर्तनवारोंका असंख्यातवां भाग यहाँ पर विशेष ग्रहण करना चाहिए ३३ |
1
विशेषार्थ – अंक संदृष्टिमें विशेषका प्रमाण १ अंक स्वीकार करने पर क्रोध कषायके कुल परिवर्तनवार ३३ हुए, क्योंकि पूर्व में मानकषायके परिवर्तनवारोंकी संख्या ३२ दे आये हैं ।
* उनसे मायाकषायके परिवतनवार विशेष अधिक हैं ।
$ ८२. शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान — क्रोधकषाय के परिवर्तनवारोंका असंख्यातवां भाग विशेषका प्रमाण है ३५ । विशेषार्थ — पूर्व में अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा क्रोधकषायके परिवर्तनवार ३३ बतला आये
हैं । उनका अंख्यातवाँ भाग २ अंक प्रमाण स्वीकार कर लेनेपर मायाकषाय के परिवर्तनवारोंकी कुल संख्या ३५ प्राप्त होती है ।
* उनसे लोभकषायके परिवर्तनवार विशेष अधिक हैं ।
$ ८३. शंका - कितने मात्र से अधिक हैं ?
समाधान
- मायाकषाय के परिवर्तनवारोंके असंख्यातवें भागमात्रसे अधिक हैं ४४ । विशेषार्थ — पूर्व में अंकसंदृष्टिमें मायाकषायके परिवर्तनवार ३५ बतला आये हैं । उनका असंख्यातवां भाग ९ अंक प्रमाण स्वीकार करनेपर लोभकषायके कुल परिवर्तनवारोंकी संख्या ४४ प्राप्त होती है ।
इस प्रकार प्रथम गाथाके उत्तरार्धका व्याख्यान समाप्त होने पर प्रथम गाथाका व्याख्यान समाप्त हुआ ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
* एत्तो विदियगाहाए विभासा ।
$ ८४. तो पढमगाहाविहासणादो अणंतरमिदाणिं विदियगाहाए विहासा अहिकीरदित्ति भणिदं होइ ।
* तं जहा ।
$ ८५. सुगममेदं पुच्छावक्कं ।
४३
* एकम्मि भवग्गहणे एक्ककसायम्मि कदि च उवजोगा त्ति ।
$ ८६. एदस्स ताव गाहापुव्वद्धस्स अत्थविहासणं' कस्सामो त्ति भणिदं होइ । एदम्मि गाहापुत्र णिरयादिगदीसु संखेज्जवस्सियमसंखेज्जवस्सियं वा भवग्गहणमाहारं काढूण तत्थेगेगस्स कसायस्स केत्तिया उवजोगा होंति, किं संखेज्जा असंखेजा वा ति पुच्छाणिद्देसेण उवरिमसव्वपरूवणा संगहिया त्ति गहेयव्वं । संपहि एवं विहत्थविसेसपडिबद्धस्सेदस्स गाहापुव्वद्धस्स णिरयगइसंबंधेणत्थविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* एक्कम्मि णेरहयभवग्गहणे को होवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । ८७. एकमि रइयभवग्गहणे णिरुद्धे तत्थ कोहोवजोगा केत्तिया होंतिि संखेज्जा वा असंखेज्जा वा होंति त्ति भणिदं । तं जहा — दसवस्ससहस्सप्प हुडि कोहो -
* इससे आगे अब दुसरी गाथाकी विभाषा करते हैं ।
$ ८४. 'एत्तो' अर्थात् प्रथम गाथाका विशेष विवेचन करनेके बाद अब दूसरी गाथाका विशेष विवेचन अधिकृत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* वह कैसे ?
$ ८५. यह पृच्छावाक्य सुगम है ।
* एक भवग्रहणके भीतर एक कषायके कितने उपयोग होते हैं ।
$ ८६• सर्व प्रथम इस गाथाके पूर्वार्धका विशेष विवेचन करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । नरकादि गतियों में संख्यात वर्षवाले और असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणको आधार बना कर वहाँ एक-एक कषायके कितने उपयोग होते हैं - क्या संख्यात उपयोग होते हैं या असंख्यात उपयोग होते हैं इस प्रकार इस गाथाके पूर्वार्ध में पृच्छा के निर्देश द्वारा आगेकी समस्त प्ररूपणा संगृहीत की गई है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए। अब इस प्रकार के अर्थविशेषसे सम्बन्ध रखनेवाले गाथाके इस पूर्वार्धके अर्थका नरकगतिके सम्बन्धसे विशेष व्याख्यान करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
-
* नारकियोंके एक भवग्रहणके भीतर क्रोधकषायके उपयोग संख्यात अथवा असंख्यात होते हैं ।
$ ८७. नरकियोंके एक भवग्रहणके विवक्षित होनेपर उसमें क्रोधसम्बन्धी उपयोग कितने होते हैं ऐसी पृच्छा होने पर संख्यात अथवा असंख्यात होते हैं यह कहा है । यथा—
१. ता० प्रती अ [ अ ] विहासणं आ० प्रतो अविहासणं इति पाठः ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ जोगा संखेजा होदूण लब्भंति जाव तप्पाओग्गसंखेजवस्सियभवग्गहणं ति । पुणो तत्थुक्कस्ससंखेज्जमेत्ता कोहोवजोगा होदूण तत्तो पहुडि उवरिमसव्यभववियप्पेसु संखेज्जवस्सिएसु असंखेज्जवस्सिएसु च असंखेज्जा चेव होति । किं कारणं ? तप्पाओग्गसंखेज्जवस्साणं सव्वोवजोगे एगपुंजं कादण पुणो सरिस-बेभागे करिय तत्थेगभागं घेतूणुकस्ससंखेज्जमेत्ता कोहोवजोगा लन्भंति । सेसेगभागो वि माणादिउवजोगा होति । एदेण कारणेण एदं भवग्गहणं संखेज्जोवजोगाणं पज्जवसाणत्तेण गहियं । एदस्स तप्पाओग्गसंखेज्जवस्समेत्तभवग्गहणस्स पमाणणिण्णयमुवरि कस्सामो । एवमेसा कोहोवजोगाणं परूवणा कया । संपहि माणोवजोगाणं पयदत्थगवेसणट्ठमाह ।
* माणोवजोगा संखेजा वा असंखेजा वा।
5 ८८. 'एक्कम्मि गैरइयभवग्गहणे' इदि अहियारसंबंधो एत्य कायव्यो । सेसं सुगमं ।
* एवं सेसाणं पि।
६८९. जहा कोह-माणाणं पयदपरूवणा कया एवं माया-लोभाणं पि वत्तव्वं, विसेसाभावादो। एवं णिरयगदीए पयदपरूवणं कादूण सेसासु वि गदीसु एसो चेव कमो अणुगंतव्यो त्ति पदुप्पायणट्ठमप्पणासुत्तमाहदस हजार वर्षसे लेकर तत्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले भवमें क्रोधकषायके उपयोग संख्यात ही प्राप्त होते हैं। पुनः वहाँ क्रोधकषायके उपयोग उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण प्राप्त होकर तदनन्तर आगेके सब संख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले और असंख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले भवके भेदोंमें असंख्यात ही क्रोधसम्बन्धी उपयोग होते हैं।
शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान-तात्प्रायोग्य संख्यात वर्षों के भीतर प्राप्त हुए सब कषायोंसम्बन्धी उपयोगोंका एक पुञ्ज करके पुनः उसके परस्पर समान दो भाग करके उनमें से एक भागको ग्रहण कर उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण क्रोधकषायसम्बन्धी उपयोग होते हैं। शेष एक भागप्रमाण उपयोग भी मानादिकषायसम्बन्धी होते हैं। इस कारणसे इस भवको, संख्यात उपयोगोंकी यहाँ परिसमाप्ति हो जाती है, यह बतलानेके लिए ग्रहण किया है। इस तात्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण भवके प्रमाणका निर्णय आगे करेंगे। इस प्रकार यह क्रोधके उपयोगोंका कथन किया। अब मानसम्बन्धी उपयोगोंके प्रकृत अर्थका अनुसन्धान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* मानकषायके उपयोग संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं ।
$ ८८. नारियोंके एक भवका अधिकार होनेसे 'एक्कम्मि भवग्गहणे' इस पदका यहाँ पर सम्बन्ध कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
* इसी प्रकार शेष कषायोंकी अपेक्षा भी जानना चाहिए ।
६८९. जिस प्रकार क्रोध और मानकषायकी प्रकृत प्ररूपणा की है उसी प्रकार माया और लोभ कषायोंकी भी करनी चाहिए। इस प्रकार नरकगतिमें प्रकृत विषयकी प्ररूपणा करके शेष गतियोंमें यही क्रम जानना चाहिए इस तथ्यका कथन करनेके लिए अर्पणासूत्रको
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणी * एवं सेसासु वि गदीसु ।
९०. सुगममेदमप्पणासुत्तं, एक्कम्हि भवग्गहणे कोहादीणमुवजोगा संखेजा असंखेज्जा वा त्ति एदेण भेदाभावादो। संपहि एत्थेव सण्णियासविसेसपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ____ * णिरयगदीए जम्हि कोहोवजोगा संखेना तम्हि माणोवजोगा णियमा संखेजा।
९१. एदेण सुत्तेण णिरयगदीए कोहस्स संखेज्जोवजोगाणं णिरुंभणं कादूण तत्थ माणोवजोगा कि संखेजा असंखेजा या ति मग्गणा कीरदे। तं कथं ? जम्हि णेरइय-भवग्गहणे कोहोवजोगा संखेजा तत्थ माणोवजोगा णियमा संखेजा चेव भवंति, कोहोवजोगेसु संखेजेसु संतेसु तत्तो विसेसहीणाणं माणोवजोगाणं तहाभावसिद्धीए बाहाणुवलंभादो।
* एवं माया-लोभोवजोगा।
९२. जहा कोहोवजोगेसु संखेजेसु माणोवजोगा णियमा संखेजा जादा एवं माया-लोभोवजोगा च णियमा संखेजा त्ति वत्तव्वं, तेसु संखेजेसु संतेसु तत्तो संखेज
कहते हैं
* इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी कथन करना चाहिए ।
$ ९०. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि एक भवमें क्रोधादि कषायोंके उपयोग संख्यात या असंख्यात होते हैं इस प्रकार इस कथनसे यहाँके कथनमें कोई अन्तर नहीं है। अव इसी गतिमें सन्निकर्ष विशेषका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* नरकगतिमें जिस भवमें क्रोधकषायके उपयोग संख्यात होते हैं उस भवमें मानकषायके उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं ।
९१. इस सूत्र द्वारा नरकगतिमें क्रोधकषायके संख्यात उपयोगोंको विवक्षित कर वहाँ मानकषायके उपयोग क्या संख्यात होते हैं या असंख्यात होते हैं इस विषयका अनुसन्धान किया गया है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान- नारकियोंके जिस भवमें क्रोधके उपयोग संख्यात होते हैं वहाँ मानकषायके उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं, क्योंकि क्रोधकषायके उपयोगोंके संख्यात होने पर उनसे विशेष हीन मानकषायके उपयोगोंके संख्यात सिद्ध होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती।
* इसी प्रकार मायाकषाय और लोभ कषायके उपयोग जानने चाहिए ।
६९२. जिस प्रकार क्रोधकषायके उपयोगोंके संख्यात होने पर मानकषायके उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं उसी प्रकार माया और लोभकषायके उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि उनके संख्यात होने पर उनसे संख्यातगुणे हीन इन उपयोगों
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
गुणहीणाणमेदेसिं तहाभावसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो ।
* जम्हि माणोवजोगा संखेज्जा तम्हि कोहोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा ।
$ ९३. जम्हि णेरइयभवग्गहणे माणोवजोगा संखेज्जा तम्हि कोहोवजोगा संखेजा चेवेति णत्थि नियमो, किंतु संखेज्जा वा असंखेज्जा वा होंति । किं कारणं ? उक्कस्ससंखेज्जमेत्ते माणोवजोगेसु जादेसु तत्तो विसेसाहियाणं कोहोवजोगाणमसंखेजत्तदंसणादो । उक्कस्ससंखेजादो पुण हेट्ठा तप्पा ओग्गसंखेज मेत्तेसु जादेसु दोन्हं पि अष्पष्पणो पडिभागेण संखे जाणमुवजोगाणमुवलंभादो ।
४६
[ उवजोगो ७
* मायोवजोगा लोहोवजोगा णियमा संखेज्जा ।
९४. कुदो ? माणोवजोगेसु संखेजेस संतेसु तत्तो संखेञ्जगुणहीणाणमेदेसिं ताभावसिद्धीए णाइयत्तादो ।
* जम्हि मायोवजोगा संखेज्जा तम्हि कोहोवजोगा माणोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा ।
$ ९५. कुदो मायोवजोगेसु उक्कस्ससंखेज्जमेत्तेसु जादेसु तत्तो संखेज्जगुणाणं कोह- माणोवजोगाणमसंखेज्जत्तुवलंभादो, तत्तो संखेञ्जगुणहीणमद्धाणमोदरिय हेडा संख्यातरूप होनेकी सिद्धि निर्बाधरूपसे पाई जाती है ।
* नारकियोंके जिस भवमें मानकषायके उपयोग संख्यात होते हैं उस भवमें क्रोधकषायके उपयोग संख्यात अथवा असंख्यात होते हैं ।
९३. नारकियोंके जिस भवमें मानकषायके उपयोग संख्यात होते हैं उस भवमें क्रोधकषायके उपयोग संख्यात ही होते है यह नियम नहीं है । किन्तु संख्यात या असंख्यात होते हैं
शंका — इसका क्या कारण है ?
समाधान—मानकषायके उपयोग उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण हो जाने पर उनसे विशेष अधिक क्रोधकषायके उपयोग असंख्यात देखे जाते हैं । परन्तु उत्कृष्ट संख्यातसे नीचे तत्प्रायोग्य संख्यातप्रमाण उपयोगोंके होनेपर दोनोंके ही अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार संख्यात उपयोग पाये जाते हैं ।
* मायाकषायके उपयोग और लोभकषायके उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं । $ ९४. क्योंकि मानकषायके उपयोगोंके संख्यात होनेपर उनसे संख्यातगुणे हीन उक्त दोनों कषायोंके उपयोगोंका संख्यात सिद्ध होना न्यायप्राप्त है ।
* नारकियोंके जिस भवमें मायाकषायके उपयोग संख्यात होते हैं उस भव में क्रोधकषायके उपयोग और मानकषायके उपयोग संख्यात अथवा असंख्यात होते हैं ।
$ ९५. क्योंकि मायाकषायके उपयोगोंके उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण होनेपर उनसे संख्यातगुणे क्रोध और मानकषायके उपयोग असंख्यात पाये जाते हैं । तथा वहाँसे संख्यातगुणे हीन
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
सव्वत्थ मायोवजोगेहिं सह कोह - माणोवजोगाणं संखेजपमाणत्तुवलंभादो च । * लोभोवजोगा णियमा संखेज्जा ।
$ ९६. कुदो ? मायोवजोगेसु संखेजेंस संतेसु तत्तो संखेज्जगुणहीणाणमेदेसिं ताभावसिद्धी पिडिबंधमुवलंभादो ।
* जत्थ लोभोवजोगा संखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा माणोवजोगा मायोवजोगा भजियव्वा ।
१ ९७. लोभस्स संखेज्जोवजोगेसु णिरुद्धेसु कोहादिकसायाणमुवजोगा संखेजा वा असंखेजा वा होंति त्ति भजियव्वा । किं कारणं ? आदीदो प्पहुडि सव्वेसिं संखेजोवजोगे गच्छमाणेसु पुव्वमेव कोधस्स असंखेजोवजोगा पारंभति, तदो माणस, तदो मायाए, सव्वपच्छा लोभस्स । एदेण कारणेण लोहोवजोगेसु संखेजेस संतेसु सेसकसायाणमुवजोगा संखेज्जासंखेज्जवियप्पेहिं भयणिज्जा त्ति णत्थि संदेहो । एवं ताव कोहादिकसायाणं संखेज्जोवजोगणिरुंभणं काढूण तत्थ सेसकसायोवजोगाणं संखेज्जासंखेज्जभागविचारं काढूण संपहि तेसिं चेवासंखेज्जोवजोगणिरुंभणमुहेण सण्यासविहाणमुरिमं पबंधमाह -
* जत्थ णिरयभवग्गहणे कोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ सेसा स्थान उतरकर नीचे सर्वत्र मायाकषायके उपयोगोंके साथ क्रोध और मानकषायके उपयोग संख्यातप्रमाण ही पाये जाते हैं ।
* लोभकषायके उपयोग नियमसे संख्यात होते हैं ।
४७
$ ९६. क्योंकि मायाकषायके उपयोगोंके संख्यात होने पर उनसे संख्यातगुणे हीन इनकी उक्त प्रकारसे सिद्धि विना किसी बाधा हो जाती है ।
* नारकियोंके जिस भवमें लोभकषायके उपयोग संख्यात होते हैं वहाँ क्रोधकषायके उपयोग, मानकषायके उपयोग और मायाकषायके उपयोग भजनीय होते हैं ।
$ ९७. लोभकषायके संख्यात उपयोगोंके होनेपर क्रोधादि कषायोंके उपयोग संख्यात या असंख्यात होते हैं, इसलिए ये भजनीय हैं, क्योंकि प्रारम्भसे लेकर सभी कषायोंके संख्यात उपयोग हो जानेपर सबसे पहले क्रोधकषायके असंख्यात उपयोग प्रारम्भ होते हैं, उसके बाद मानके और उसके बाद मायाके तथा सबके अन्तमें लोभके असंख्यात संख्याको लिये हुए उपयोग प्रारम्भ होते हैं । इस कारणसे लोभके उपयोगोंके संख्यात होने पर शेष कषायोंके उपयोग संख्यात और असंख्यातरूप विकल्पोंके द्वारा भजनीय होते हैं इसमें सन्देह नहीं है । इस प्रकार सर्वप्रथम क्रोधादिकषायोंके संख्यात उपयोगोंको विवक्षित कर वहाँ शेष कषायोंके उपयोग संख्यात या असंख्यात कहाँ कितने होते हैं इसका विचार कर अब उन्हीं कषायोंके असंख्यात उपयोगोंको विवक्षित कर सन्निकर्षका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं—
* नारकियोंके जिस भवमें क्रोधकषाय के उपयोग असंख्यात होते हैं वहाँ शेष
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ सिया संखेज्जा सिया असंखेज्जा।
$९८. कुदो एवं ?कोहस्स जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तेसु उवजोगेसु जादेसु तदो विसेसाहियमद्धाणं गंतूण माणस्स असंखेज्जोवजोगाणं पारंभदंसणादो। माया-लोभाणं पि तत्तो संखेज्जगुणमद्धाणमप्पप्पणो पडिभागेण गंतूण तदो असंखेज्जोवजोगविसयसमुप्पत्तिदंसणादो। तम्हा जत्थ कोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ सेसोवजोगा सिया संखेज्जा सिया असंखेज्जा त्ति सिद्धमविरुद्धं । ..
* जत्थ मागोवजोगा असंखेजा तत्थ कोहोवजोगा णियमा असंखेजा।
६ ९९. कुदो १ कोहस्स असंखेज्जोवजोगेसु पारद्धेसु तत्तो विसेसाहियमद्धाणं गंतूण माणस्सासंखेज्जोवजोगाणं पारंभदंसणादो।।
* सेसा भजियव्वा।
$ १००. कुदो ? मायालोभोवजोगाणं णिरुद्धविसयसंखेज्जाणमसंखेज्जाणं च संभवे बाहाणुवलंभादो ।
* जत्थ मायोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा माणोवजोगा णियमा असंखेजा। कषायोंके उपयोग संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं ।
5 ९८. शंका-ऐसा किस कारणसे है ?
समाधान-क्रोधकषायके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगोंके होने पर उससे विशेष अधिक स्थान जाकर मानकषायके असंख्यात उपयोगोंका प्रारम्भ देखा जाता है। माया और लोभोंके भी उससे अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार संख्यातगुणे स्थान जाकर असंख्यात उपयोगोंके विषयकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए जहाँ क्रोधकषायके उपयोग असंख्यात हैं वहाँ शेष कषायोंके उपयोग संख्यात भी हैं और असंख्यात भी हैं यह विना विरोधके सिद्ध हुआ।
___* जिस भवमें मानकषायके उपयोग असंख्यात होते हैं वहाँ क्रोधकषायके उपयोग नियमसे असंख्यात होते हैं।
६९९. क्योंकि क्रोधकषायके असंख्यात उपयोगोंका प्रारम्भ होनेपर वहाँसे विशेष अधिक स्थान जाकर मानकषायके असंख्यात उवयोगोंका प्रारम्भ देखा जाता है।
* शेष कषायोंके उपयोग भजनीय हैं।
$ १००. क्योंकि वहाँ पर मायाकषाय और लोभकषायके उपयोगोंके संख्यात या असंख्यात होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती।
* जिस भवमें मायाकषायके उपयोग असंख्यात होते हैं वहाँ क्रोध और मानकषायके उपयोग नियमसे असंख्यात होते हैं ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
४९
$ १०१. कुदो १ तेसिं तण्णांतरीयत्तादो ।
* लोभोवजोगा भजियव्वा ।
$ १०२. किं कारणं ? मायोवजोगेसु जहण्णपरित्तासंखेज्जमे तेसु जादेसु तत्तो संखेज्जगुणमद्वाणमुवरि गंतूण लोभस्सासंखेज्जोवजोगाणमुप्पत्तिदंसणादो ।
* जत्थ लोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोह- माण- मायोवजोगा णियमा असंखेज्जा ।
$ १०३. जत्थ णिरयभवग्गहणे लोभोवजोगा असंखेज्जा जादा तम्मि णिरुद्धे सेकसायोवजोगा नियमा असंखेज्जा होंति, तेसिमसंखेज्जत्ताभावे णिरुद्ध लोभ कसायस्स वि असंखेज्जोवजोगाणमणुप्पत्तीदो । एवं ताव णिरयगदीए सव्वेसिं कसायाणं संखेज्जासंखेज्जोवजोगाणं षादेक्कं णिरुंभणं काढूण सण्णियासविही परूविदो । संपहि एसो चैव सण्णियासविसेसो देवगदीए विवजाससरूवेण जोजेयव्वो त्ति पदुप्पायणट्ठमिदमाह - * जहा णेरइयाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा ।
* जहा णेरइयाणं माणोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं मायोवजोगाणं वियप्पा |
$ १०१. क्योंकि वे उनके अविनाभावो हैं । अर्थात् क्रोध और मानके उपयोग असंख्यात होनेपर तत्प्रायोग्य स्थान जाकर ही मायाके उपयोग असंख्यात होते हैं, इसलिए मायके उपयोग असंख्यात होने पर क्रोध और मानके उपयोग असंख्यात होंगे ही यह नियम है ऐसा इनमें अविनाभाव है ।
* लोभकषायके उपयोग भजनीय हैं ।
$ १०२. क्योंकि मायाकषायके उपयोगोंके जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण होनेपर वहाँसे संख्यातगुणे स्थान आगे जाकर लोभकषायके असंख्यात उपयोगोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । * जिस भवमें लोभकषायके उपयोग असंख्यात होते हैं वहाँ क्रोध, मान और मायाकषायके उपयोग नियमसे असंख्यात होते हैं ।
$ १०३. नारकियोंके जिस भवमें लोभकषायके उपयोग असंख्यात हो जाते हैं वहाँ शेष कषायोंके उपयोग नियमसे असंख्यात होते हैं, क्योंकि यदि वे असंख्यात न हों तो विवक्षित लोभकषायके भी असंख्यात उपयोगोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार नरकगतिमें सभी कषायोंके संख्यात और असंख्यात उपयोगोंमेंसे प्रत्येकको विवक्षित कर सन्निकर्षविधि कही। अब इसी सन्निकर्षविशेषको देवगतिमें विपरीतरूपसे लगा लेना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए इस प्रबन्धको कहते हैं
* जिस प्रकार नारकियोंके क्रोधकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं। उसी प्रकार देवोंके लोभकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं ।
* जिस प्रकार नारकियोंके मानकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं उसी प्रकार देवोंके मायाकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं ।
७
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
* जहा णेरइयाणं मायोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं माणोवजो गाणं वियप्पा ।
* जहा णेरइयाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं कोहोवजो गाणं वियप्पा ।
१०४. एसिं सुत्ताणमत्थपरूवणा सुगमा । संपहि तिरिक्ख - मणुसगदीसु णत्थि एसोसणियासभेदो, तत्थ संखेज्जवस्सिये भवग्गहणे सव्वेसिमविसेसेण संखेज्जोवजोगणियमदंसणादो । असंखेज्जवस्सिये वि सव्वेसिमसंखे जोव जोगत्तेण णाणत्ताभावाद । किं कारणं १ अवद्विदपरिवाडीए सव्वेसिमसंखेज्जेसु आगरिसेसु लोभ - मायादिकमेण गदेसु सईं विसरिसपरिवाडीए तत्थुष्पत्तिणियमदंसणादो ।
$ १०५ एवमेत्तिएण पबंधेण गाहापुव्वद्धस्स अत्थविहासणं काढूण संपहि गाहापच्छिममवलंविय अदीदकालसंबंधेण भवप्पाबहुअं परूवेमाणो तदवसरकरण
५०
माह -
* जेसु रइयभवेसु असंखेज्जा को होवजोगा माण- माया-लोभोव
* जिस प्रकार नारकियोंके मायाकषायके उपयोगोंके सन्निकर्ष विकल्प होते हैं। उसी प्रकार देवोंके मानकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं ।
* जिस प्रकार नारकियोंके लोभकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं। उसी प्रकार देवोंके क्रोधकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं ।
$ १०४. इन सूत्रोंके अर्थका कथन सुगम है। अब तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति में यह सम्निकर्षभेद नहीं है, क्योंकि वहाँ संख्यात वर्षकी आयुवाले भवग्रहण के भीतर सभी कषायोंके समानरूपसे संख्यात उपयोगोंका नियम देखा जाता है । असंख्यात वर्षकी आयुवाले भव में भी सभी कषायोंके असंख्यात उपयोगरूपसे नानात्वका अभाव है, क्योंकि अवस्थित परिपाटीके द्वारा लोभ, माया आदिके क्रमसे सभी कषायोंके असंख्यात परिवर्तनवारोंके होने पर एकवार विसदृश परिपाटीके आश्रयसे वहाँ नानापनेकी उत्पत्तिका नियम देखा जाता है ।
विशेषार्थ — तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमें लोभ, माया, क्रोध और मान इस क्रम यह जीव चारों कषायोंमें असंख्यात वार तक पुनः-पुनः उपयुक्त होता रहता है, इसलिए तो संख्यात वर्षकी आयुवाले भवमें चारों कषायोंके संख्यात सदृश उपभोगभेद बतला कर वहाँ raat frषेध किया है। तथा असंख्यात वर्षकी आयुवाले भवमें भी चारों कषायों के असंख्यातवार सदृश उपयोग परिवर्तनोंके बाद ही एक बार विसदृश परिपाटीसे उपयोग परिवर्तन होना सम्भव है । इसलिए वहाँ भी चारों कषायोंके असंख्यात सदृश उपयोगों को ख्यालमें रखकर नानापनेका निषेध किया है ।
$ १०५. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा गाथाके पूर्वार्धके अर्थका स्पष्टीकरण करके अब गाथाके उत्तरार्धका अवलम्बन लेकर अतीत कालके सम्बन्धसे भवके अल्पबहुत्वको कहते हुए उसका अवसर करनेके लिए कहते हैं
* नारकियोंके जिन भवोंमें क्रोधकषायके उपयोग तथा मान, माया और
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
जोगा वा, जेसु वा संखेजा, एदेसिमट्ठन्हं पदाणमप्पाबहु |
$ १०६. एत्थ णिरयगदीए ताव पयदपरूवणं वत्तइस्सामो त्ति जाणावणटुं णेरइयभवाणमहियरणभावेण णिद्देसो कओ 'जेसु णेरइयभवेसु' त्ति । ते च अट्टभेदभिण्णा । तं जहा — कोहस्स असंखेजोवजोगिगा, माणस्सासंखेजोवजोगिगा, मायाए असंखेजोवजोगिगा, लोभस्स असंखेज्जोवजोगिगा, कोहस्स संखेजोवजोगिगा, माणस्स संखेजोवजोगिगा, मायाए संखेज्जोवजोगिगा, लोभस्स संखेजोवजोगिगा चेदि । एदेसि - महं पदाणमदीदकालसंबंधेणप्पाबहुअं कायव्वमिदि सुत्तस्स समुच्चयत्थो ।
५१
* तत्थ उवसंदरिसणाए करणं ।
$ १०७. किमुवसंदरिसणाकरणं णाम ? उवसंदरिसणाकरणं णिदरिसणकरणं frore करणमिदि एयट्ठो । कोहादिकसायाणं संखेजोवजोगिगाणमसंखेजोवजोगिगाणं च भवाणं विसयविभागजाणावणट्ट मुवसंदरिसणामुहेण किं पि अट्ठपदं पयदप्पा बहुअसाहणं वत्तइस्लामो ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो ।
* एक्कम्मि वस्से जत्तियाओ को होवजोगद्धाओ तत्तिएण जहण्णासंखेज्जयस्स भागो जं भागलद्धमेत्तियाणि वस्साणि जो भवो तम्हि लोभकषायके उपयोग असंख्यात होते हैं अथवा जिन भवोंमें ये सब उपयोग संख्यात होते हैं, उन आठों पदोंका अल्पबहुत्व इस प्रकार है ।
$ १०६. यहाँ नरकगतिमें सर्व प्रथम प्रकृत प्ररूपणाको बतलाते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए नारकियोंके भवोंका 'जेसु णेरइयभवेसु' इस प्रकार अधिकरणरूपसे निर्देश किया है । और वे भव आठ प्रकारके हैं । यथा - क्रोध कषायके असंख्यात उपयोगवाले भव, मानकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव, मायाकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव, लोभ कषायके असंख्यात उपयोगवाले भव, क्रोध कषायके संख्यात उपयोगवाले भव, मान कषायके संख्यात उपयोगवाले भव, माया कषायके संख्यात उपयोगवाले भव और लोभ कषायके -संख्यात उपयोगवाले भव । इन आठों पदोंका अतीत कालके सम्बन्धसे अल्पबहुत्व करना चाहिए इस प्रकार सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
* प्रकृतमें अब उनका निर्णय करते हैं ।
$ १०७. शंका–उपसंदर्शनाकरण पदका क्या अर्थ है ?
-
समाधान —— उपसंदर्शनाकरण, निदर्शनकरण और निर्णयकरण ये तीनों एक अर्थके वाची शब्द हैं ।
क्रोधादि कषायों के संख्यात उपयोगवाले और असंख्यात उपयोगवाले भवोंके विषयविभागका ज्ञान करानेके लिए उपसंदर्शनाद्वारा प्रकृत अल्पबहुत्वकी सिद्धि करनेवाले कुछ अर्थपदको कहेंगे यह इस सूत्रका भावार्थ है ।
* एक वर्षके भीतर क्रोध कषायके जितने उपयोगकाल होते हैं उनके द्वारा जघन्य असंख्यातको भाजित किया, जो भाग उपलब्ध आया उतने वर्षप्रमाण जो
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ असंखेजाओ कोहोवजोगद्धाओ।
$१०८. एदेण सुत्तेण कोहस्स संखेजोवजोगिगाणमसंखेज्जोवजोगिगाणं च भवग्गहणाणमुवसंदरिसणं कयं होइ। तं कथं ? एगवस्सब्भंतरे संखेजसहस्समेत्तीओ कोहोवजोगद्धाओ होति । अंतोमुहुत्तभंतरे जइ एगा कोहोवजोगद्धा लब्भइ तो एगवस्सब्भंतरे केत्तियमेत्तीयो लहामो त्ति तेरासियकमेण तासिमुप्पत्तिदंसणादो । पुणो एदाहिं एगवस्सन्भंतर-कोहोवजोगद्धाहिं जहण्णासंखेजयस्स भागो घेत्तव्यो। संखेजसहस्समेत्ताणमुवजोगाणं जइ एगवस्सपमाणं लब्भइ तो जहण्णपरित्तासंखेजमेत्ताणमुवजोगाणं केत्तियमेत्ताणि वस्साणि लहामो ति एवं तेरासियं कादूण पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जहण्णपरित्तासंखेजयस्स संखेजदिभागमेत्ताणि रूवाणि आगच्छति । पुणो एत्तियाणि वस्सागि जो भवो भागलद्धमेत्ताणि वस्साणि घेत्तण जो भवो त्ति भणिदं होदि । तम्हि असंखेजाओ कोहोवजोगद्धाओ। किं कारणं ? एगवस्सन्भंतरे जइ संखेजसहस्समेत्तीओ कोहोवजोगद्धाओ लब्भंति तो अणंतरणिहिट्ठभागलद्धमेत्तवस्सेसु केत्तियमेत्तीओ लहामो ति तेरासियं कादूण जोइदे जहण्णपरित्तासंखेजमेत्तीणं कोहोवजोगद्धाणमत्थुवलंभादो। एवमेदेण सुत्तेण कोहस्स संखेज्जासंखेजोभव होता है उसमें क्रोधके असंख्यात उपयोगकाल होते हैं।
१०८. इस सूत्र द्वारा क्रोघकषायके संख्यात उपयोगवाले और असंख्यात उपयोगवाले भवोंका निर्णय किया गया है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान—एक वर्षके भीतर क्रोध कषायके संख्यात हजारप्रमाण उपयोगकाल होते हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर यदि क्रोधकषायका एक उपयोगकाल प्राप्त होता है तो एक वर्षके भीतर कितने उपयोगकाल प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक विधिसे संख्यात हजारप्रमाण उपयोगकालोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। फिर एक वर्षके भीतर प्राप्त हुए क्रोधकषायके इन उपयोगकालोंके द्वारा जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करना चाहिए
हजार उपयोगोंका यदि एक वर्षप्रमाण काल प्राप्त होता है तो जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगोंके कितने वर्ष प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक कर फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिसे भाजित करने पर जघन्य परीतासंख्यातके संख्यातवें भाग प्रमाण अंक प्राप्त होते हैं। पुनः इतने वर्षोंका जो भव है अर्थात् पूर्वोक्त त्रैराशिक करने पर जो भाग लब्ध आया उतने वर्षोंका जो भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, उस भवमें क्रोध कषायके असंख्यात उपयोगकाल होते हैं, क्योंकि एक वर्षके भीतर क्रोधकषायके यदि संख्यात हजारप्रमाण उपयोगकाल प्राप्त होते हैं तो अनन्तर प्राप्त हुए जिस भागका निर्देश कर आये हैं तत्प्रमाण वर्षों के भीतर क्रोधकषायके कितने उपयोगकाल प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके देखने पर क्रोधकषायके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगकाल प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा क्रोधकषायके संख्यात उपयोगवाले और असंख्यात उपयोगवाले भवोंके विषयविभागका सम्यक प्रकारसे निर्णय कर दिया गया है, क्योंकि
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३
गाथा ३४]
विदियगाहामुत्तस्स अत्थपरूवणा वजोगिगाणं भवाणं विसयविभागो सम्ममुवसंदरिसिदो होदि, सुत्तुदिट्ठविसयादो उवरिमाणं सव्वेसिमेवासंखेजोवजोगियत्तदंसणादो। तत्तो हेडिमाणं च सव्वेसिं संखेजोवजोगियत्तुवलंभादो।
१०९. संपहि सेसकसायाणं पि एवं चेव संखेज्जासंखेजोवजोगिगाणं भवाणं विसयविभागो उवसंदरिसियव्वो त्ति पदुप्पायणट्ठमुवरिमसुत्तमाह___* एवं माण-माया-लोभोवजोगाणं ।।
$ ११०. जहा कोहस्स. जहण्णपरित्तासंखेजमेत्तोवजोगाणं विसओ परूविदो एवमेदेसि पि कसायाणं कायव्वं, अप्पप्पणो एगवस्सोवजोगेहिं जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स भागं घेत्तूण तत्थ भागलद्धमेत्तवस्सेहिं तदुप्पर्ति पडि विसेसाभावादो। संपहि एदस्सेवत्थस्स सुहावबोहणट्ठमेत्थ संदिट्टिमुहेण किं चि परूवणं कस्सामो। तं कथं ? तत्थ कोहस्स एगवस्सोवजोगा एदे २७, माणस्स एगवस्सोवजोगा एदे १८, मायाए एगसुत्रमें निर्दिष्ट किये गये भवसे आगेके सभी भव असंख्यात उपयोगवाले देखे जाते हैं। तथा उससे पूर्वके सभी भव संख्यात उपयोगवाले उपलब्ध होते हैं।
विशेषार्थ—नारकियोंकी कितनी आयुके किस भव तक क्यों तो क्रोध कषायके संख्यात उपयोगकाल होते हैं और आगेके सब भवोंमें क्यों असंख्यात उपयोगकाल होते हैं इस बातका इस सूत्र द्वारा सम्यक् प्रकारसे निर्णय किया गया है । सामान्य नियम यह है कि एक अन्तर्मुहूर्तके भीतर क्रोधादि कषायोंका एक उपयोगकाल होता है, इसलिए एक बर्षके भीतर संख्यात हजार उपयोगकाल हुए। इस नियमके अनुसार इन उपयोगकालोंका जघन्य परीतासंख्यातमें भाग देने पर जितने वर्ष प्राप्त होंगे उतने वर्षका जो भव होता है उसमें नियमसे असंख्यात उपयोगकाल सुघटित हो जाते हैं। स्पष्ट है कि इस भवसे कम आयुवाले नारकियोंके जितने भव होते हैं उनमें क्रोध कषायके संख्यात उपयोगकाल ही प्राप्त होते हैं और पूर्वोक्त भव सहित आगेके जितने भव होते हैं उनमें क्रोध कषायके असंख्यात उपयोगकाल ही होते हैं।
६ १०९. अब शेष कषायोंके संख्यात उपयोगवाले और असंख्यात उपयोगवाले भवोंका विषय विभाग इसी प्रकार निर्णीत करना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इसी प्रकार मान, माया और लोभकषायके उपयोगवाले भवोंका विषयविमाग जानना चाहिए।
$ ११०. जिस प्रकार क्रोध कषायके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगोंका विषय कहा उसी प्रकार इन कषायोंका भी करना चाहिए, क्योंकि एक वर्षके भीतर प्राप्त होनेवाले अपने-अपने उपयोगों अर्थात् उपयोगकालोंके द्वारा जघन्य परीतासंख्यातको भाजित कर वहाँ जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण वर्षोंके द्वारा मान, माया और लोभ कषायके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगकालोंकी उत्पत्ति होनेकी अपेक्षा उक्त कथनसे इस कथनमें कोई भेद नहीं है । अब इसी अर्थका सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिए यहाँपर संदृष्टि द्वारा कुछ कथन करेंगे।
शंका-वह कैसे ? समाधान-प्रकृतमें क्रोधकषायके वर्षके भीतर प्राप्त हुए उपयोग ये हैं-२७, मान
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
वरसोवजोगा ६, लोभस्स एगवस्सोवजोगा ३ । एदेसिं भज माणजहण्णपरित्तासंखेजमेत्तोवजोगपमाणं संदिट्ठीए अट्ठत्तरसयमेत्तमिदि गहेयव्वं १०८ । पुव्वुत्तसलागाहिं तेरा सियकमेणेदमोवट्टिय जहाकममुप्पाइदवस्साणि कोहस्स ४, माणस्स ६, मायाए १८, लोभस्स ३६ । एत्थ कोहस्स लद्धवस्त्राणि थोवाणि, माणस्स संखेजभाग भाहियाणि, मायाए संखेज्जगुणाणि, लोभस्स संखेज्जगुणाणि । तदो कोहस्स जहण्णपरित्ता - संखेज्जमेत्तोवजोगियवस्सेहिंतो संखेज्जभागन्भहियमेत्तवस्त्राणि जाव ण गदाणि ताव माणस्स जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तोवजोगा ण भवंति । माणवस्सेहिंतो संखेज्जगुणमेत्त- . वस्साणि जाव ण गदाणि ताव मायाए जहण्णपरित्तासंखेज्जमे त्तोवजोगा ण संभवंति । मायावस्सेहिंतो संखेज्जगुणमेत्तवस्त्राणि जाव ण गदाणि ताव लोभस्स जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तोवजोगा ण होंति त्ति घेत्तव्वं । तेसिमेसा संदिट्ठी
०००००१०००००००००००००००००००००००
५४
एदे कोहभवा
०-०००००१०००००००००००००००००००००००००००००००००००० • एदे
माणभवा ।
०००००००–०
एदे मायाभवा ।
०००००
०००००
००००१००००००००
०००००००
००००००
०००००००००
एदे लोभभवा ।
$ १११. एत्थ एकादो उवरिमसव्वसुण्णट्ठाणाणि असंखेज्जोवजोगिगा भवा कषायके एक वर्ष के भीतर प्राप्त हुए उपयोग ये हैं - १८, मायाकषायके एक वर्षके भीतर प्राप्त हुए उपयोग ६ हैं और लोभकषायके एक वर्षके भीतर प्राप्त हुए उपयोग ३ हैं । इनकी भज्यमान राशि जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगकाल हैं, संदृष्टिमें उसका प्रमाण एक सौ आठ १०८ ग्रहण करना चाहिए। अब पूर्वोक्त शलाकाओंके द्वारा त्रैराशिकविधिसे इसे भाजित करने पर क्रमसे उत्पन्न हुए वर्ष क्रोधकषाय के ४, मानकषायके ६, मायाकषायके १८ और लोभकषायके ३६ होते हैं । यहाँ क्रोधकषायके प्राप्त हुए वर्ष सबसे थोड़े हैं, उनसे मानकषायके वर्ष संख्यातवें भाग अधिक हैं, उनसे मायाकषायके वर्ष संख्यातगुणे हैं और उनसे लोभकषायके वर्ष संख्यातगुणे हैं । इसलिए क्रोधकषायके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोगवाले वर्षोंसे संख्यातवें भागप्रमाण अधिक वर्ष जब तक व्यतीत नहीं होते हैं तब तक मानकषायके जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण उपयोग नहीं होते हैं। मानकषायके वर्षोंसे संख्यातगुणे अधिक वर्ष जब तक नहीं व्यतीत होते हैं तब तक मायाकषायके जघन्य परीता संख्यातप्रमाण उपयोग नहीं होते हैं तथा मायाकषायके वर्षोंसे संख्यातगुणे अधिक वर्ष जब तक नहीं व्यतीत होते हैं तब तक लोभकषायके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण उपयोग नहीं होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । उनकी यह संदृष्टि है - ( संदृष्टि मूलमें दी है । )
$ १११. यहाँ पर संदृष्टिमें एक अंकसे आगेके सब शून्यस्थान असंख्यात उपयोगवाले
१. ता० प्रती - कमेण णे (ए) दमोवट्टिय इति पाठः ।
००००००००००
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
त्ति गहेयव्वा । कोहस्स असंखेजोवजोगिगा भवा पुव्वमेव पारभंति, तदो माणस्स, तदो मायाए, सव्वपच्छा लोभस्स असंखेज्जोवजो गिगा भवा पारभंति । एकादो हेडिमसव्वसुण्णट्ठाणाणि संखेोवजोगिगभवा त्ति गेहियव्वा । कोहस्स संखेजोवजोगिगा भवा पुव्यमेव समप्पंति, तदो पच्छा माण - माया - लोहाणं संखेज्जोवजोगिगभवा अप्पप्पण्णो पाओग्गमद्वाणं गंतूण जहाकमं समप्पंति त्ति घेत्तव्वं । एवमेत्तिएण पबंधेण उवसंदरिसणाकरणं समाणिय संपहि एदम्हादो साहणादो पयदप्पा बहुअपरूवणमुवरिमं पबंधमाह
५५
* एदेण कारणेण जे असंखेज्जलो भोवजोगिगा भवा ते भवा थोवा । $ ११२. जेण कारणेण सव्वपच्छा एदेसिं पारंभो तेणेदे सव्वत्थोवा त्ति भणिदं होइ । तेसिं पमाणं केत्तियं ? एगवस्सन्भंतरलोभोवजोगेहिं जहण्णपरित्तासंखे भागे हिदे तत्थ भागलद्धसंखेज्जरूवमेत्त वस्सेहिं परिहीणते त्तीसं सागरोवमपमाणा होतॄण पुणो अदीदकालप्पणाएं अनंता त्ति घेत्तव्वा पादेकमणंतवारमेदेसु भववियप्पेस एगजीवस्स समुप्पत्तिदंसणादो । तदो एदे सव्वे संभूय अनंत संखावच्छिण्णा होदूण सव्वत्थोवा ि
भवोंको सूचित करते हैं ऐसा प्रहण करना चाहिए । क्रोधकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव पहले ही प्रारम्भ हो जाते हैं । तदनन्तर मानकषायके, उनके बाद मायाकषाय के और सबके बाद लोभकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव प्रारम्भ होते हैं। एक अंकसे पूर्व के सब शून्यस्थान संख्यात उपयोगवाले भवोंके सूचक है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। क्रोधकषायके संख्यात उपयोगवाले भव पहले ही समाप्त हो जाते हैं। उसके वाद मान, माया और लोभकषायके संख्यात उपयोगवाले भव अपने-अपने योग्य स्थान तक जाकर क्रमसे समाप्त होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा उपसंदर्शनाकरणको समाप्त कर अब इस साधनके अनुसार प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इस कारणसे लोभकषायके जो असंख्यात - उपयोगवाले भव हैं वे सबसे थोड़े हैं ।
$ ११२. जिस कारण से लोभकषायके असंख्यात उपयोगवाले भवोंका सबके बाद प्रारम्भ होता है, इसलिए ये सबसे थोड़े हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका
— उनका प्रमाण कितना है ?
- एक वर्षके भीतर प्राप्त हुए लोभकषायके उपयोगोंके द्वारा जघन्य परीतासमाधानसंख्यातके भाजित करने पर वहाँ लब्ध हुए एक भागप्रमाण जो संख्यात वर्ष उनसे हीन तेतीस सागरोपममाण होकर पुनः अतीत कालकी मुख्यतासे वे अनन्त हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पृथक्-पृथक् अनन्तवार भेदवाले भवविकल्पोंमें एक जीवकी उत्पत्ति देखी जाती है ।
१. ता० प्रतौ० उबरिमसव्वसुण्णद्वाणाणि असंखेज्जोवजोगिगा भवा एदाणि दसवस्ससहस्साणि तदो समयुत्तरादिकमेण गेण्हियव्वं जाव तेसि सागरोवमाणि त्ति पुव्वमेव इति पाठः ।
२. ता० आ० प्रत्योः पण्णाए इति पाठः ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[उवजोगो७ णिदिवा ।
* जे असंखेजमायोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा ।
$११३. किं कारणं ? तत्तो पुव्वमेव एदेसिं पारंभदंसणादो। जइ वि एत्थ हेट्ठिमभववियप्पा उवरिमभववियप्पाणमसंखेज्जदिभागमेत्ता चेव तो वि णासंखेज्जगुणत्तमेदेसि विरुज्झदे, हेट्ठिमभववियप्पेसु पादेक्कमसंखेज्जपरिवाडीओ वोलाविय पुणो उवरिमभववियप्पेसु समयाविरोहेण संकंतिणियमदंसणादो। तेणुवरिमभववियप्पा दोण्हं पि समाणा होदूण पुणो हेडिमवियप्पे अस्सियूण पुचिल्लेहिंतो एदे असंखेज्जगुणा त्ति घेत्तव्वं ।
* जे असंखेजमाणोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा।
११४. एत्थ वि कारणपरूवणा सुगमा, अणंतरादीदपबंधेणेव गयत्थत्तादो। * जे असंखेजकोहोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा । ६११५. एत्थ वि कारणं अणंतरपरूविदमेव ।
* जे संखेजकोहोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा । इसलिए ये सब मिलकर अनन्त संख्यारूप होकर सबसे स्तोक है यह निर्देश किया है।
* जो मायाकषायके असंख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं।
$ ११३. क्योंकि उनसे पहले ही इनका प्रारम्भ देखा जाता है। यद्यपि यहाँ पर अधस्तन भवविकल्प उपरिम भवविकल्पोंके असंख्यातवें भागप्रमाण ही हैं तो भी ये असंख्यातगुणे हैं यह विरोधको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि अधस्तन भवविकल्पोंमें पृथक-पृथक असंख्यात परिपाटियोंको विताकर पुनः उपरिम विकल्पोंमें आगमके अनुसार संक्रान्तिका नियम देखा जाता है। इसलिए उपरिम भवविकल्प दोनोंके समान होकर पुनः अधस्तन भवविकल्पोंका आश्रयकर लोभकषायके असंख्यात उपयोगवाले भवोंसे ये असंख्यातगुणे हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-मायाकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव पहले प्रारम्भ हो जाते हैं और लोभकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव बादमें प्रारम्भ होते हैं। इसलिए मायाकषायके असंख्यात उपयोगवाले सभी भवविकल्प लोभकषायके असंख्यात उपयोगवाले भवविकल्पोंसे असंख्यातगुणे हो जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* जो मानकषायके असंख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं ।
$ ११४. यहाँ भी कारणका कथन सुगम है, अनन्तर पूर्व कहे हुए प्रबन्धसे ही उसका ज्ञान हो जाता है।
* जो क्रोधकषायके असंख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं। ___$ ११५. यहाँ पर भी वही कारण जानना चाहिए जिसका कथन इसके पूर्व कर आये हैं।
* जो क्रोधकषायके संख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं ।
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४] विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
५७ ____ ११६. असंखेज्जोवजोगिगभवाणमसंखेन्जदिभागपमाणत्तादो णेदेसिमसंखेज्जगुणत्तं घडदि त्ति णासंकणिज्ज, तहाभावे संते वि हेट्ठिमभवपरिवत्तेहिंतो उवरिमभवपरिवत्ताणमसंखेज्जगुणहीणत्तावलंबणेणासंखेज्जगुणत्तसाहणादो । तं जहा–एगो णेरइएसुप्पज्जमाणो दसवस्ससहस्साउएसुववण्णो । एवमुववण्णस्स संखेज्जोवजोगिगभवसलागा एका जादा । पुणो वि एदेणेव विहिणा दसवस्ससहस्सम्मि असंखेज्जवारमुप्पज्जिय तदो एगवारं समयुत्तरदसवस्ससहस्साउअभवम्मि उववण्णो । पुणो पुव्वणिरुद्धदसवस्ससहस्सियभवम्मि असंखेजवारमुप्पन्जिय तदो समयुत्तरभवम्मि विदियवार । मुववण्णो । पुणो वि एदेणेव विहिणा उप्पाइजमाणे समयुत्तराउअभवा वि असंखेजमेत्ता जादा । एवं संजादेसु पुणो एगवारं दुसमयुत्तराउअभवम्मि उववण्णो। पुणो पल्लट्टिय समयुत्तरभवम्मि समयाविरोहेण संखेजवारमुप्पन्जिय तदो विदियवारं दुसमयुत्तरभवम्मि उववण्णो। एवं णेदव्वं जाव दुसमयुत्तरभववियप्पा असंखेजा जादा त्ति । एवं तिसमयुत्तरादिभवेसु वि समुप्पाइय णेदव्वं जाव उक्स्ससंखेजोवजोगिगभवं पत्तो त्ति । तदो उक्कस्ससंखेजोवजोगिगभवम्मि समयाविरोहेणासंखेजवारमुप्पन्जिय पुणो एगवारं जहण्णपरित्तासंखेजमेत्तोवजोगिगभवम्मि समुप्पजइ । पुणो वि एदेण विहाणेण पुव्वुत्त
$ ११६. शंका-क्रोधकषायके संख्यात उपयोगवाले भव असंख्यात उपयोगवाले भवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए ये असंख्यातगुणे नहीं हो सकते ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसा होने पर भी अधस्तन भवपरिवर्तनोंकी अपेक्षा उपरिम भवपरिवर्तन असंख्यातगुणे हीन होते हैं, इसलिए इस तथ्यको ध्यानमें रखकर क्रोध कषायके असंख्यात-उपयोगवाले भवोंसे संख्यात-उपयोगवाले भव असंख्यातगुणे होते हैं यह सिद्ध किया है। यथा-एक जीव नारकियोंमें उत्पन्न होता हुआ दस हजारकी आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उत्पन्न हुए जीवकी संख्यात-उपयोगवाले भवकी एक शलाका हुई। फिर भी इसी विधिसे दस हजार वर्षकी आयुके साथ असंख्यातवार उत्पन्न होकर तदनन्तर एक वार एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भवमें उत्पन्न हुआ। पुनः पहलेके समान दस हजार वर्षकी आयुवाले भवमें असंख्यातवार उत्पन्न होकर तदन्तर एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भवमें दूसरी वार उत्पन्न हुआ। फिर भी इसी विधिसे उत्पन्न कराने पर एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भव भी असंख्यात हो जाते हैं । ऐसा हो जाने पर पुनः एक वार दो समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भवमें उत्पन्न हुआ। पुनः लौटकर एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भव में आगमानुसार संख्यातवार उत्पन्न होकर तदनन्तर दूसरी वार दो समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भवमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुवाले भव विकल्प असंख्यात होने तक उत्पन्न कराते रहना चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट संख्यात-उपयोगवाले भवके प्राप्त होने तक तीन समय अधिक आदि दस हजार वर्षकी आयुवाले भवोंमें भी उत्पन्न कराते हुए ले जाना चाहिए। तदनन्तर उत्कृष्ट संख्यात-उपयोगवाले भवमें आगमक उत्पन्न होकर पुनः एक वार जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण-उपयोगवाले भवमें उत्पन्न होता है।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ भवम्मि असंखेजवारमुप्पन्जिय तदो विदियवारं समयुत्तरभवम्मि समुप्पजदि । एवमेत्थ वि असंखेजवारमुववण्णो। एवं समयुत्तरादिकमेण उवरिमासंखेजोवजोगिगभवेसु वि णिरंतरमुप्पायणविहिं कादण णेदव्वं जाव तेत्तीसं सागरोवमियचरिमभवे त्ति । एदमेगं भवपरिवत्तं कादूण एवंविहा अणंता भवपरिवत्ता णेदव्वा, अदीदकालप्पणाए भवपरिवत्ताणं तप्पमाणत्तोवलंभादो । जेणेत्थ हेडिमभवपरिवत्तेहिंतो उवरिमभवपरिवत्ता असंखेजगुणहीणा जादा तेणासंखेजकोहोवजोगिगभवाणमुवरि तस्सेव संखेजोवजोगिगभवा असंखेजगुणा ति भणिदा। ___ * जे संखेजमाणोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया।
६११७. केत्तियमेत्तो विसेसो ? कोहस्स संखेजोवजोगिगभवाणमसंखेजभागमेत्तो। किं कारणं ? कोहस्स संखेजोवजोगिगमवेहितो विसेसाहियमद्धाणं विसईकरिय एदेसिमवद्विदत्तादो। ___ जे संखेन्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया ।
$ ११८. एत्थ वि सयगुणगारो जइ वि संखेजरूवमेत्तो तो.वि विसेसाहियत्तमेदं ण विरुज्झदे, हेट्ठिमभवपरिवत्तेहितो उवरिमभवपरिवत्ताणमसंखेजगुणहीणत्ते संते वि सयगुणगारस्स तत्थ पाहणियाभावादो।
फिर भी इसी विघिसे पूर्वोक्त भवमें असंख्यात वार उत्पन्न होकर तदनन्तर दूसरी बार एक समय अधिक भवमें उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस भवमें भी असंख्यात धार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक समय अधिक आदिके क्रमसे उपरिम असंख्यात-उपयोगवाले भवोंमें भी निरन्तर उत्पन्न करानेकी विधि करके तेतीस सागरोपमप्रमाण अन्तिम भवके प्राप्त होने तक उत्पन्न कराते हुए ले जाना चाहिए। यह एक भवपरिवर्तन करके इसी प्रकार अनन्त भव परिवर्तन कराने चाहिए, क्योंकि अतीत कालकी मुख्यतासे भवपरिवर्तन तत्प्रणाम उपलब्ध होते हैं। चूंकि यहाँ अधस्तन भव परिवर्तनोंसे उपरिम भवपरिवर्तन असंख्यातगुणे हीन हुए, इसलिए क्रोधकषायके असंख्यात उपयोगवाले भवोंसे उसीके संख्यात-उपयोगवाले भव असंख्यातगुणे हैं यह कहा है।
* जो मानकषायके संख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव विशेष अधिक हैं। $ ११७. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान-क्रोधकषायके संख्यात-उपयोगवाले भवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि क्रोधकषायके संख्यात उपयोगवाले भवसे विशेष अधिक अध्वानको विषयकर ये अवस्थित हैं।
* जो मायाकषायके संख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव विशेष अधिक हैं।
$ ११८. यहाँपर भी अपना गुणकार यद्यपि संख्यात अंकप्रमाण है तो भी इनका विशेष अधिक होना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि अधस्तन भवपरिवर्तनोंसे उपरिम भवपरिवर्तन असंख्यातगुणे हीन होनेपर भी अपने गुणकारकी वहाँ प्रधानता नहीं है।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६४]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * जे संखेजलोभोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया।
$ ११९. केत्तियमेत्तो विसेसो ? पुन्विल्लाणमसंखेजभागमेत्तो । एवमेदेसिमट्ठण्हं पदाणं णिरयगइपडिबद्धाणं सकारणमप्पाबहुअं परूविय संपहि देवगदीए वि एसो चेव अप्पाबहुआलावो विलोमकमेण जोजेयव्वो त्ति पदुप्पायणट्ठमप्पणासुत्तमाह
* जहा गैरइएसु तहा देवेसु । णवरि कोहादो आढवेयव्वो। ..
६१२०. जहा जेरइएसु पयदप्पाबहुआलावो को तहा देवेसु वि कायव्यो । णवरि विसेसो कोहादो आढवेयव्वो त्ति । कोहादो आढविय पच्छाणुपुन्वीए जोजेयव्यो त्ति भणिदं होइ । संपहि एदस्सेव जोजणकमप्पदंसणटुं उवरिमं पबंधमाह
* तं जहा।
१२१. सुगमं । * जे असंखेजकोहोवजोगिगा भवा ते भवा थोवा । * जे असंखेजमाणोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेनगुणा । * जे असंखजमायोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा। * जे. असंखेन्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा । * जो लोभकषायके संख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव विशेष अधिक हैं। ६ ११९. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान-पहले जो विशेषका प्रमाण बतलाया है उनके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार नरकगतिसे सम्बन्ध रखनेवाले इन आठ पदोंके अल्पबहुत्वका सकारण कथन करके अब विलोमक्रमसे देवगतिमें भी यही अल्पबहुत्व आलाप योजित कर लेना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए अर्पणासूत्रको कहते हैं
- * जिस प्रकार नारकियोंमें प्रकृत अल्पबहुत्व है उसी प्रकार देवोंमें है। इतना विशेष है कि देवोंमें क्रोधकषायसे प्रारम्भ करना चाहिए।
६ १२०. जिस प्रकार नारकियोंमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन किया है उसी प्रकार देवोंमें भी करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायसे अल्पबहुत्वका प्रारम्भ करना चाहिए । क्रोधकषायसे आरम्भ कर पश्चादानुपूर्वीसे योजना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी विषयके योजनाक्रमको दिखलानेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* वह कैसे ? $ १२१. यह सूत्र सुगम है। * जो क्रोधकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव हैं वे भव सबसे स्तोक हैं। * जो मानकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं । * जो मायाकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं । * जो लोभकषायके असंख्यात उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं ।
ADD TO
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ * जे संखेजलोभोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेजगुणा । * जे संखेजमायोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया। * जे संखेन्जमाणोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । * जे संखेजकोधोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया।
$ १२२. सुगमत्वान्नात्र किंचिद्वक्तव्यमस्ति । णवरि भवपरिवत्ते भण्णमाणे दसवस्ससहस्समादि कादूण समयुत्तरादिकमेण णेदव्वं जाव एकत्तीससागरोवमियभवे त्ति । एत्थ तिरिक्ख-मणुसगदीसु पयदप्पाबहुअमग्गणा ण संभवइ, तत्थ सव्वेसिं कसायाणं संखेजासंखेजोवजोगिगभवाणं समाणत्तेण पयदभेदाणुवलंभादो।
* विदियगाहाए अत्थविहासा समत्ता।
$ १२३. सुगममेदमुवसंहारवकं । संपहि तदियसुत्तगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* 'उवजोगवग्गणाओ कम्हि कसायम्हि केत्तिया होंति' त्ति एसा सव्वा वि गाहा पुच्छासुतं ।
$ १२४. एसा सव्वा वि तदियगाहा सपुव्वद्ध-पच्छद्धा पुच्छासुत्तमिदि भणिदं होदि। किमेदेण पुच्छिजदे ? कोहादिकसायविसयाणमुवजोगवग्गणाणं पमाणमोघादेसेहिं
* जो लोभकषायके संख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव असंख्यातगुणे हैं । * जो मायाकषायके संख्यात-उपयोगवाले भव हैं वे भव विशेष अधिक हैं। * जो मानकषायके संख्यात उपयोगवाले भव हैं बे भव विशेष अधिक हैं। * जो क्रोधकषायके संख्यात उपयोगवाले भव हैं वे भव विशेष अधिक हैं।
$ १२२. सुगम होनेसे यहाँपर कुछ वक्तव्य नहीं है। इतनी विशेषता है कि भवपरिवर्तनका कथन करनेपर दस हजार वर्षसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे इकतीस सागरोपम भव तक ले जाना चाहिए । यहाँ तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिमें प्रकृत अल्पबहुत्व प्ररूपणा सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें सभी कषायोंके संख्यात-उपयोगवाले और असंख्यातउपयोगवाले भवोंके समान होनेसे प्रकृत भेद नहीं पाया जाता।
* इस प्रकार दूसरी गाथाकी अथेविभाषा समाप्त हुई।
5 १२३. यह उपसंहारवाक्य सुगम है। अब अवसर प्राप्त तीसरी सूत्रगाथाके अर्थका व्याख्यान करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* 'उवजोगवग्गणाओ कम्हि कसायम्हि केत्तिया होति' इस प्रकार यह समस्त गाथा पृच्छासूत्र है।
$ १२४. पूर्वार्ध और उत्तरार्धके साथ यह समस्त ही तीसरी गाथा पृच्छासूत्र है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-इसके द्वारा क्या पृच्छा की गई है ?
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६५j
तदियगाहासुत्तस्स अत्यपरूवणा पुच्छिजदे । तत्थ गाहापुव्वद्धेण 'उवजोगवग्गणाओ कम्हि कसायम्हि केत्तिया होंति' त्ति ओघेण पुच्छाणिद्देसो कओ। पच्छद्धेण वि 'कदरिस्से च गदीए केवडिया वग्गणा होति' त्ति आदेसविसया पुच्छा णिहिट्ठा त्ति दट्ठव्वा, गदिमग्गणाविसयस्सेदस्स पुच्छाणिद्देसस्स सेसासेसमग्गणाणं देसामासयभावेणावट्ठाणदंसणादो।
* तस्स विहासा।
१२५. तस्सेदस्स तदियगाहासुत्तस्स कोहादिकसायाणमुवजोगवग्गणापमाणविसयपुच्छाए वावदस्स अत्थविहासा एत्तो कीरदि ति वुत्तं होइ ।
* तं जहा। $ १२६. सुगममेदं पुच्छावकं ।
* उवजोगवग्गणाओ दुविहाओ कालोवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ य।
६ १२७. उवजोगो णाम कोहादिकसाएहिं सह जीवस्स संपजोगो। तस्स वग्गणाओ वियप्पा मेदा त्ति एयट्ठो। जहण्णोवजोगट्ठाणप्पहुडि जाव उक्कस्सोवजोगट्ठाणे त्ति णिरंतरमवहिदाणं तव्वियप्पाणमुवजोगवग्गणाववएसो ति वुत्तं होइ । सो च जहण्णुकस्सभावो दोहिं पयारेहि संभवइ-कालदो भावदो च। तत्थ कालदो
समाधान-इसद्वारा ओघ और आदेशसे क्रोधादिविषयक उपयोगवर्गणाओंका प्रमाण पूछा गया है।
____ वहाँ गाथाके पूर्वार्ध द्वारा 'किस कषायमें कितनी उपयोगवर्गणाएं होती हैं। इस प्रकार ओघसे पृच्छानिर्देश किया गया है तथा गाथाके उत्तरार्ध द्वारा भी 'किस गतिमें कितनी वर्गणाएं होती हैं। इस प्रकार आदेशविषयक पृच्छा निर्दिष्ट की गई है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि गतिमार्गणाविषयक इस पृच्छा निर्देशमें शेष समस्त मार्गणाओंका देशामर्षकभावसे अवस्थान देखा जाता है ।
* अब उसकी विभाषा करते हैं।
$ १२५. क्रोधादि कषायोंकी उपयोगवर्गणाओंकी प्रमाणविषयक पृच्छामें व्याप्त हुए उस इस तीसरे गाथासूत्रकी आगे अर्थविभाषा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* वह कैसे ? ६ १२६. यह पृच्छावाक्य सुगम है।
* उपयोगवर्गणाऐं दो प्रकारकी हैं-कालोपयोगवर्गणाएं और भावोपयोगवर्गणाएँ।
६ १२७. क्रोधादि कषायोंके साथ जीवके संप्रयोग करनेको.उपयोग कहते हैं। उनकी वर्गणाऐं अर्थात् विकल्प, भेद इन सबका एक अर्थ है। जघन्य उपयोगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगस्थान तक निरन्तर अवस्थित हुए उपयोगके विकल्पोंकी उपयोगवर्गणा संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह जघन्यभाव और उत्कृष्टभाव दो प्रकारसे सम्भव है-कालकी
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
जहणोवजोगकालप्पहु डि जावुक्कस्सोवजोगकालो ति णिरंतरमवट्टिदाणं वियप्पाणं कालोवजोगवरंगणा त्ति सण्णा, कालविसयाओ उवजोगवग्गणाओ कालोवजोगवग्गणाओ त्ति गहणादो । भावदो तिव्वमंदादिभावपरिणदाणं कसायुदयद्वाणाणं
विपपहुड जावुक्कस्सवियप्पो त्ति छवड्डिकमेणावट्ठियाणं भावोवजोगवग्गणा त्ति वसो, भावविसेसिदाओ उवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ त्ति विवक्खियत्तादो | एवंविहाओ दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ एत्थाहिकयाओ त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । संपहि काओ ताओ कालोवजोगवग्गणाओ काओ वा भावोवजोगवग्गणाओ त्ति विसेसियूण परूवणडमुवरिमसुत्तद्द यमोइणं
६२
* कालोवजोगवग्गणाओ णाम कसायोवजोगद्धट्ठाणाणि ।
$ १२८. कसायाणमुवजोगो तस्स अद्धा कालपरिच्छित्ती कसायोवजोगद्धा | तिस्से द्वाणाणि जहण्णुकस्सादिवियप्पा कालोवजोगवग्गणाओ णाम । कोहादिकसायोवजोगजहण्णकालमुकस्सकालादो सोहिय सुद्धसेसम्मि एगरूवे पक्खित्ते कसायोवजोगद्धट्ठाण होंति । तेसिं कालोवजोगवग्गणाववएसो ति सुत्तत्थसंगहो ।
* भावोवजोगवग्गणाओ णाम कसायोदयद्वाणाणि ।
$ १२९. कसायाणमुदयद्वाणाणि कसायोदयट्ठाणाणि । ताणि भावोवजोगवग्गणाओ । एतदुक्तं भवति — कोहादिकसायाणमेकेकस्स कसायस्स असंखेज्जलोग
अपेक्षा और भावकी अपेक्षा । उनमेंसे कालकी अपेक्षा जघन्य उपयोगकालसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकाल तक निरन्तर अवस्थित हुए विकल्पोंकी कालोपयोगवर्गणा संज्ञा है, क्योंकि कालविषयक उपयोगवर्गणाऐं कालोपयोगवर्गणाऐं हैं ऐसा यहाँ ग्रहण किया गया है । भावकी अपेक्षा तीव्र और मन्द आदि भावोंसे परिणत हुए तथा जघन्य विकल्पसे लेकर उत्कृष्ट विकल्प तक छह वृद्धिक्रमसे अवस्थित हुए कषाय- उदयस्थानोंकी भावोपयोगवर्गणा संज्ञा है, क्योंकि भावविशिष्ट उपयोगवर्गणाऐं भावोपयोगवर्गणाऐं कहलाती हैं ऐसी यहाँ विवक्षा की गई है। इस प्रकार दो प्रकारकी उपयोगवर्गणाऐं यहाँपर अधिकृत हैं यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब वे कालोपयोगवर्गगाऐं क्या हैं और भावोपयोगवर्गणाऐं क्या हैं इस प्रकार विशेषरूप से कथन करनेके लिए आगे दो सूत्र आये हैं-
* कषायके उपयोगसम्बन्धी अद्धास्थानोंकी कालोपयोगवर्गणा संज्ञा है ।
1
$ १२८. जो कषायों का उपयोग है उसकी 'अद्धा' अर्थात् कालमर्यादा वह कषायोपयोगाद्धा है । उसके जघन्य और उत्कृष्ट आदि भेदरूप स्थानोंको कालोपयोगवर्गणा कहते हैं । क्रोधादिकषायोंके उपयोगसम्बन्धी जघन्य कालको उत्कृष्ट कालमें से घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिलानेपर कषायसम्बन्धी उपयोग अद्धास्थान होते हैं। उनकी कालोपयोगवर्गणा संज्ञा है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
* कषायोंके उदयस्थानोंकी भावोपयोगवर्गणा संज्ञा है ।
$ १२९. कषायोंके उदयस्थान कषायोदयस्थान कहलाते हैं । उनकी भावोपयोगवर्गणा संज्ञा है । इसका यह तात्पर्य है -- क्रोधादि कषायोंमेंसे एक-एक कषायके असंख्यात लोक
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६५ ]
तदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
मेत्ताणि उदयद्वाणाणि अत्थि । ताणि पुण माणे थोवाणि, कोहे विसेसाहियाणि, माया विसेसाहियाणि, लोभे विसेसाहियाणि । एदाणि सव्वाणि समुदिदाणि सगसकसा पडबद्धाणि भावोवजोगवग्गणाओ णाम, तिव्व-मंदादिभावणिबंधणत्तादोत्ति । * एदासिं दुविहाणं पि वग्गणाणं परूवणा पमाणमप्पाबहुचं च
वक्तव्वं ।
६३
$ १३०. एदा सिमणंतरणिदिट्ठाणं दुविहाणं पि वग्गणाणं काल-भावोवजोगविसयाणमेत्तो परूवणादीहिं तीहिं अणियोगद्दारेहिं अणुगमो कायव्वो, अण्णहा तव्विसयसम्मण्णाणाणुववत्तीदो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स पिंडत्थो । एदाणि च सुगमाणि ति चुण्णिसुत्तयारेण ण वित्थरिदाणि तदो एदेसिं पञ्जवट्ठियपरूवणं वत्तइस्सामो । तत्थ ताव कालोवजोगवग्गणाणं परूवणदाए ओघादेसेहिं चउन्हं पि कसायाणमत्थि कालोवजोगवग्गणाओ । पमाणाणुगमेण चउन्हं कसायाणं मज्झे तत्थ एकेकस्स कसायस्स कालोवजोगवग्गणाओ अंतोमुहुत्तमेत्तीओ होंति ।
$ १३१. अप्पाबहुअं दुविहं - सत्थान - परत्थाणभेएण । सत्थाणे ताव पयदंसव्वत्थवा कोहस्स जहण्णकालोवजोगवग्गणा । उक्कस्सकालोवजोगवग्गणा संखेजगुणा | अहवा सव्वत्थोवा कोहस्स जहणणकालोवजोगवग्गणा । वग्गणाविसेसो संजगुणो । किं कारणं ? जहण्णकालोवजोगवग्गण मुक्कस्सकालोवजोगवग्गणाए सोहिय प्रमाण उदयस्थान हैं । परन्तु मानमें वे सबसे स्तोक हैं, उनसे क्रोध में विशेष अधिक हैं, उनसे मायामें विशेष अधिक हैं और उनसे लोभमें विशेष अधिक हैं | अपने-अपने कषायसम्बन्धी ये सब मिलकर भावोपयोगवर्गणा कहलाते हैं, क्योंकि ये तीव्रभाव और मन्दभाव आदिके निमित्तसे होते हैं ।
* इन दोनों ही प्रकारकी वर्गणाओंकी प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व कहना चाहिए ।
$ १३०. अनन्तर पूर्व कही गई कालोपयोग और भावोपयोगको विषय करनेवालीं इन दोनों ही प्रकारकी वर्गणाओंका आगे प्ररूपणा आदि तीन अनुयोगद्वारोंका आश्रय कर अनुगमन करना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक सम्यग्ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता, इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । किन्तु ये सुगम हैं, इसलिए चूर्णिसूत्रकारने इनका विस्तार नहीं किया । इसलिए इनकी पर्यायार्थिक अर्थात् अलग-अलग प्ररूपणा करेंगे । सर्वप्रथम उनमें से कालोपयोगवर्गणाओंकी प्ररूपणा करनेपर ओघ और आदेशसे चारों ही कषायोंकी कालोपयोगवर्गणाऐं हैं | प्रमाणानुगमकी अपेक्षा चारों कषायों में से एक-एक कषायकी कालोपयोगवर्गणाऐं अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती हैं ।
$ १३१. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व | स्वस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है— क्रोधकी जघन्य कालोपयोगवर्गणा सबसे अल्प है। उससे उत्कृष्ट कालोपयोगवर्गणा संख्यातगुणी है । अथवा क्रोधकी जघन्य कालोपयोगवर्गणा सबसे स्तोक है। उससे वर्गणाविशेष संख्यातगुणा है, क्योंकि उत्कृष्ट कालोपयोगवर्गणामेंसे जघन्य कालोपयोगवर्गणाके घटानेपर जो शेष रहे उसके कथनका यहाँ अवलम्वन लिया गया है ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ सुद्धसेसस्स तव्ववएसावलंबणादो। वग्गणाओ विसेसाहियाओ, जहण्णकालोवजोगवग्गणाणं पि एत्थ पवेसदसणादो। एवं माण-माया-लोहाणं पि सत्थाणप्पाबहुअं कायव्वं ।
$ १३२. संपहि परत्थाणप्पाबहुए भण्णमाणे सव्वत्थोवाओ माणस्स कालोवजोगवग्गणाओ। कोहस्स कालोवजोगवग्गणाओ विसेसाहियाओ। मायाए कालोवजोगवग्गणाओ विसेसाहिया० । लोहस्स कालोवजोगवग्गणा० विसेसाहिया० । विसेसो पुण सव्वत्थावलियाए असंखेजदिभागमेत्तो । एवमेसा ओघेण परत्थाणप्पाबहुअपरूवणा कया । तिरिक्ख-मणुसगदीसु वि एवं चेव वत्तव्वं, विसेसाभावादो।
१३३. आदेसेण णेरइ० सव्वत्थोवाओ लोभस्स कालोवजोगवग्गणाओ । मायाए कालोवजोगवग्गणाओ संखेजगुणाओ । माणस्स कालोवजोगवग्गणा० संखेजगुणा० । कोहस्स कालोवजोगवग्गणा० संखेजगुणा० । एवं देवगदीए वि । णवरि कोहादो आढविय पच्छाणुपुव्वीए णेदव्व मिदि ।
६१३४. संपहि भावोवजोगवग्गणाणं परूवणे भण्णमाणे घउण्हं पि कसायाणमत्थि भावोवजोगवग्गणाओ। पमाणं वुच्चदे-चउण्हं पि कसायाणं पादेकमसंखेजलोगमेत्तीओ भावोवजोगवग्गणाओ होति । अप्पाबहुअं.दुविहं-सत्थाण-परत्थाणमेदेण । सत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा कोहस्स जहण्णभावोवजोगवग्गणा । किं कारणं ? सव्वउससे क्रोधकी कालोपयोगवर्गणाऐं विशेष अधिक हैं, क्योंकि जघन्य कालोपयोगवर्गणाओंका भी इनमें प्रवेश देखा जाता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभकषायका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व करना चाहिए।
$ १३२. अब परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेपर मानकषायकी कालोपयोगवर्गणाऐं सवसे थोड़ी हैं। उनसे क्रोधकषायकी कालोपयोगवर्गणाएं विशेष अधिक हैं। उनसे मायाकषायकी कालोपयोगवर्गणाऐं विशेष अधिक हैं और उनसे लोभकषायकी कालोपयोगवर्गणाएं विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण सर्वत्र आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार यह ओघसे परस्थान अल्पबहुत्वप्ररूपणा की। तियश्च और मनुष्यगतिमें भी इसी प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि ओघसे इनमें उक्त अल्पबहुत्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है।
१३३. आदेशसे नारकियोंमें लोभकषायकी कालोपयोगवर्गणाऐं सबसे स्तोक हैं। उनसे मायाकषायको कालोपयोगवर्गणाऐं संख्यातगुणी हैं। उनसे मानकषायकी कालोपयोगवर्गणाऐं संख्यातगुणी हैं। उनसे क्रोधकषायकी कालोपयोगवर्गणाऐं संख्यातगुणी हैं। इसी प्रकार देवगतिमें भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्रोधसे आरम्भ कर पश्चादानुपूर्वीसे जानना चाहिए।
..$ १३४. अब भावोपयोगवर्गणाओंका कथन करनेपर चारों ही कषायोंकी भावोपयोगवर्गणाएं हैं। प्रमाणका कथन करते हैं--चारों ही कषायोंमेंसे प्रत्येककी असंख्यातल भावोपयोगवर्गणाएं होती हैं । स्वस्थान और परस्थानके भेदसे अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। स्वस्थानका प्रकरण है। क्रोधकषायकी जघन्य भावोपयोगवर्गणा सबसे स्तोक है, क्योंकि
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा जहण्णकसायुदयट्ठाणस्सेक्कस्स चेव गहणादो। वग्गणाविसेसो असंखेजगुणो। को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । वग्गणाओ विसेसाहियाओ, जहण्णवग्गणाए वि एत्थंतब्भावदंसणादो । एवं माणादीणं पि वत्तव्वं ।
१३५. परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवाणि माणस्स कसायुदयट्ठाणाणि । कोहस्स कसायुदयट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मायाए कसायुदयट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोभस्स कसायुदयट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । विसेसो पुण सव्वत्थासंखेजा लोगा। एसा ओघेण भावोवजोगवग्गणाणं दुविहप्पाबहुअपरूवणा कया । एत्तो आदेसपरूवणा वि चदुगदिपडिबद्धा एवं चेव णेदव्वा, विसेसाभावादो।
* तदो तदियाए गाहाए विहासा समत्ता ।
११३६. सुगममेदं पयदत्थोवसंहारवकं । एवमेदं समाणिय संपहि चउत्थगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* चउत्थीए गाहाए विहासा।
६१३७. एत्तो चउत्थीए गाहाए अत्थविहासा अहिकया त्ति वृत्तं होइ । का सा चउत्थी गाहा ति सिस्साहिप्पायं मणेणासंकिय तण्णिद्देसकरणट्ठमाह
* 'एकम्हि दु अणुभागे एक्ककसायम्मि एककालेण । उवजुत्ता का सबसे जघन्य एक ही कषाय उदयस्थानका ग्रहण किया है। उससे वर्गणाविशेष असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण है। उससे वर्गणाऐं विशेष अधिक हैं, क्योंकि जघन्य वर्गणाका भी इसमें अन्तर्भाव देखा जाता है। इसी प्रकार मानादि कषायोंकी अपेक्षा भी उक्त अल्पबहुत्व कहना चाहिए।
$ १३५. परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है। मानकषायके कषाय-उदयस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे क्रोधकषायके कषाय उदयस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे मायाकषायके कषाय उदयस्थान विशेष अधिक हैं और उनसे लोभकषायके कषाय उदयस्थान विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण सर्वत्र असंख्यात लोकप्रमाण है। यह ओघसे भावोपयोग वर्गणाओंके दो प्रकारके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की। आगे चारों गतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली आदेशप्ररूपणा भी इसी प्रकार जाननी चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त प्ररूपणासे इसमें कोई अन्तर नहीं है।
* इस प्रकार तीसरी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई।
$ १३६. प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेवाला यह वचन सुगम है। इस प्रकार इसको समाप्त कर अब चौथी गाथाके अवसरप्राप्त अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अब चौथी गाथाकी अर्थविभाषा अधिकृत है ।
$ १३७. आगे चौथी गाथाकी अर्थविभाषा अधिकार प्राप्त है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह चौथी गाथा कौनसी है इस प्रकार शिष्योंके अभिप्रायको मनसे सोचकर उसका निर्देश करनेके लिए कहते हैं
* एक कषायसम्बन्धी एक अनुभागमें एक कालमें कौन सी गति उपयुक्त
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
होदि।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[उवजोगो ७ च गदी विसरिसमुवजुजदे का च ॥ त्ति ।
१३८. एसा सा चउत्थी गाहा त्ति वृत्तं होइ । एत्थ 'इदि'सद्दो गाहासुत्तसरूवावहारणफलो। एसा च गाहा पुच्छामुहेण संगहियासेसपयदत्थपरूवणादो तदो पुच्छासुत्तमिदि जाणावणट्ठमाह__ * एवं सव्वं पुच्छासुतं ।
$ १३९. एदं सव्वमणंतरणिद्दिट्टगाहासुत्तं सपुव्वपच्छद्धं पुच्छासुत्तमिदि भणिदं * एत्थ विहासाए दोण्णि उवएसा। .
$ १४०. एत्थ एदम्मि गाहासुत्ते विहासिज्जमाणे दोण्णि उवएसा अवलंबेयव्वा, परमगुरुसंपदायापरिच्चागेणेव वक्खाणपउत्तीए णाइयत्तादो' त्ति भणिदं होदि ।
* एक्केण उवएसेण जो कसायो सो अणुभागो।
$ १४१. एक्केण उवएसेण अपवाइज्जतेणुवएसेणे त्ति वुत्तं होइ । कुदो एदं णव्वदे ? पवाइज्जतोवएसस्स सणामणिद्देसेण पुरदो भणिस्समाणत्तादो। तत्थ जो कसायो सो अणुभागो त्ति भणंतस्साहिप्पायो ण कसायादो वदिरित्तो अणुभागो अत्थि, होती है तथा कौन सी गति विसदृशरूपसे उपयुक्त होती है ।
$ १३८. यह वह चौथी गाथा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । गाथासूत्रके स्वरूपका अवधारण करनेके प्रयोजनसे यहाँ 'इदि' शब्द आया है। यह गाथा पृच्छामुखसे समस्त प्रकृत अर्थका संग्रह कर कथन करती है, इसलिए यह पृच्छासूत्र है इस बातका ज्ञान करानेके लिए कहते हैं
* यह सब पृच्छासूत्र है।
६ १३९. अपने पूर्वार्ध और उत्तराध सहित अनंतर पूर्व कहा गया यह समस्त गाथासूत्र पृच्छासूत्र है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इस गाथाकी अर्थविभाषामें दो उपदेश पाये जाते हैं।
१४०. एत्थ अर्थात् इस गाथासूत्रका व्याख्यान करते समय दो उपदेशोंका अवलम्बन लेना चाहिए, क्योंकि परम गुरुसम्प्रदायका त्याग किये बिना ही व्याख्यानकी प्रवृत्तिका होना न्यायप्राप्त है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* एक उपदेशके अनुसार जो कषाय है वही अनुभाग है।
१४१. एक उपदेशके अनुसार अर्थात् अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान–प्रवाह्यमान उपदेशका अपने नाम के साथ चूर्णिसूत्रकार आगे स्वयं कथन करेंगे इससे उक्त तथ्य जाना जाता है।
प्रकृतमें 'जो कषाय है वही अनुभाग है' ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि अनुभाग १. ता०प्रतौ -पउत्तीए विरोहाभाबादो इति पाठः ।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७
गाथा ६६ ]
च उत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
ततो पुधभूदस्स तस्साणुवलद्धीदो । अणुभागों कारणं कसायपरिणामो तक मिदि ताणं मेदो ण वोत्तुं जुत्तो, कज्जे कारणोवयारेण ताणमेयत्तन्भुवगमादो | संपहि दस्सेव अत्थस्स पदंसणट्ठमिदमाह -
* कोधो कोधाणुभागो ।
१४२. क्रोध एव क्रोधानुभागो नान्यः कश्चिदित्यर्थः ।
* एवं माण- माया-लोभाणं ।
$ १४३. यथा क्रोध एव क्रोधानुभाग इति समर्थितमेवं मान एव मानानुभागो, मायैव मायानुभागो, लोभ एव लोभानुभाग इति वक्तव्यं, कार्यकारणयोरभेदोपचारात् ।
* तदो का च गदी एगसमएण एगकसायोवजुत्ता वा दुकसायोवजुत्ता वा तिकसायोवजुत्ता वा चदुकसायोवजुत्ता वा त्ति एवं पुच्छासुतं । $ १४४. जदो एवं कसायो चेवाणुभागो त्ति समत्थिदं तदो 'एकम्हि दु अणुभागे' इच्चादिपुच्छासुत्तस्स एवमणुगमो कायव्वो । तं जहा — णिरयादिगदीणं मज्झे का च गदी एगसमएण एगकसायोवजुत्ता वा होदि ति एसा पढमा पुच्छा, 'एक म्हि
कषायसे जुदा नहीं है, क्योंकि कषायसे पृथकू वह पाया नहीं जाता ।
शंका –अनुभाग कारण है और कषाय परिणाम उसका कार्य है इस प्रकार इनमें भेद है ?
समाधान —ऐसा कहना ठीक नहीं, कार्यमें कारणका उपचार करके उन दोनोंमें अपृथक्पना स्वीकार किया गया है। अब इसी अर्थको दिखलानेके लिए कहते हैं
* क्रोधकषाय ही क्रोधानुभाग है ।
$ १४२. क्रोधकषाय ही क्रोधानुभाग है, अन्य कुछ नहीं यह इस सूत्रका अर्थ है । * इसी प्रकार लोभ, मान और मायाकषायकी अपेक्षा कहना चाहिए ।
$ १४३. जिस प्रकार क्रोधकषाय ही क्रोधानुभाग है इस प्रकार समर्थन किया है इसी प्रकार मानकषाय ही मानानुभाग है, मायाकषाय ही मायानुभाग है और लोभकषाय ही लोभानुभाग है ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर कार्य और कारणमें अभेदका उपचार किया गया है ।
* इसलिए कौन गति एक समय में एक कषायमें उपयुक्त है, दो कषायों में उपयुक्त है, तीन कषायोंमें उपयुक्त है अथवा चारों कषायोंमें उपयुक्त है इस प्रकार यह पृच्छासूत्र है ।
$ १४४• यतः कषाय ही अनुभाग है इसका उक्त प्रकारसे समर्थन किया है, अतः 'एकहि दु अणुभागे' इत्यादि पृच्छासूत्रका इस प्रकार अनुगम करना चाहिए । यथानरकादि गतियों में से कौन सी गति एक समय में एक कषाय में उपयुक्त हैं' यह प्रथम पृच्छा
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ दु अणुभागे एककसायम्हि एककालेण उवजुत्ता का च गदी' ति एत्थेदिस्से णिबद्धत्तदंसणादो । संपहि 'विसरिसमुवजुञ्जदे का च ।' ति गाहासुत्तावयवमस्सियूण दुकसायोवजुत्ता वा, तिकसायोवजुत्ता वा, चदुकसायोवजुत्ता वा का गदी होदि त्ति एदेसि तिण्हं पुच्छाणिदेसाणमणुगमो काययो, एगकसायोवजोगविवजासलक्खणो विसरिसोवजोगो त्ति गहणादो । एवंविहपुच्छापडिबद्धत्थपदुप्पायणट्टमेदं गाहासुत्तमोइण्ण मिदि जाणावणट्ठमेदं पुच्छासुत्तमिदि भणिदं । संपहि एवंविहपुच्छाणं णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो
* तदो णिदरिसणं।
१४५. तदो पुच्छाणुगमादो अणंतरमिदाणिं णिदरिसणं णिण्णयकरणं वत्तइस्सामो त्ति वुत्तं होइ ।
* तं जहा।
* णिरय-देवगदीणमेदे वियप्पा अत्थि, सेसाओ गदीओ णियमा चदुकसायोवजुत्ताओ।
$ १४६. एदे अणंतरपरूविदा पुच्छावियप्पा तदुत्तरवियप्पा च णिरय-देवगदीणमथि । किं कारणं ? णिरयगदीए ताव कोधकसायोवजुत्तजीवरासी अद्धामाहप्पेण सव्वबहुओ होदूण णिरंतररासित्तमणुहवइ । एवं देवगदीए वि लोभोवहै, क्योंकि 'एक कषायसम्बन्धी एक अनुभागमें एक काल में कौन सी गति उपयुक्त है' इस प्रकार इस सूत्रवचनमें यह अर्थ निबद्ध देखा जाता है। अब 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' इस प्रकार गाथासूत्रके इस अंशका आश्रय कर दो कषायोंमें उपयुक्त, तीन कषायोंमें उपयुक्त अथवा चार कषायोंमें उपयुक्त कौन-कौन सी गति होती है इस प्रकार इन तीन पृच्छा निर्देशों का अनुगम करना चाहिए, क्योंकि यहाँपर गाथामें आये हुए 'विसदृश उपयोग' पदका अर्थ एक कषायके उपयोगसे विपर्यास अर्थात् भिन्न प्रकारके लक्षणवाला उपयोग ग्रहण किया गया है। इस प्रकारकी पृच्छासे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थका कथन करनेके लिए यह गाथासूत्र आया है इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह पृच्छासूत्र है इस प्रकार कहा है। अब इस प्रकारकी पृच्छाओंका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध है
* अब आगे निर्णय करते हैं।
$ १४५. 'तदो' अर्थात् पृच्छाओंके अनुगमके अनन्तर अब इनका 'णिदरिसणं' अर्थात् निर्णय करके बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* वह कैसे ?
* नरकगति और देवगतिमें ये विकल्प होते हैं, शेष गतियाँ नियमसे चारों कषायोंमें उपयुक्त होती हैं।
१४६ ये अनन्तर पूर्व कहे गये पृच्छा विकल्प और उनके उत्तरस्वरूप कहे गये विकल्प नरकगति और देवगतिमें हैं, क्योंकि नरकगतिमें तो क्रोधकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशि कालके माहात्म्यके कारण सबसे अधिक होकर निरन्तर राशिपनेका अनुभव करती है ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६ ]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा जुत्तजीवरासीए णिरंतरभावो दट्ठव्यो। तदो दोण्हमेदेसिमुभयत्थ णिरंतररासित्तादो एगकसायोवजुत्ताणं धुवभाव कादूण सेसकसाएहिं सह दु-ति-चदुसंजोगा वत्तव्वा त्ति । एदेण कारणेण णिरय-देवगदीओ एगकसायोवजुत्ताओ दुकसायोवजुत्ताओ तिकसायोवजुत्ताओ चदुकसायोवजुत्ताओ वा होति त्ति सिद्धं । सेसगदीओ णियमा एवं भणिदे तिरिक्ख-मणुसगदीओ णियमेण चदुकसायोवजुत्ताओ होति त्ति घेत्तव्वं । किं कारणं ? तत्थ चउण्हं पि कसायरासीणं धुवभावोवलंभादो । एवमेदं परूविय संपहि णिरयदेवगदीसु चउण्हं पि वियप्पाणं संभवे तत्थ कदमेण कसारण कदमो वियप्पो समुप्पजदि त्ति एदस्सत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं पबंधमुवइसइ_*णिरयगईए जइ एक्को कसायों णियमा कोहो ।
$ १४७. कुदो ? कोहोवजोगकालस्स तत्थ सव्वबहुत्तोवएसेण सव्वस्स जेरइयरासिस्स तत्थेवावट्ठाणे विरोहाभावादो। ण सेसकसायोवजोगद्धासु वि तहासंभवासंका कायव्वा, तहाविहसंभवस्स पुव्वुत्तकालप्पाबहुअसुत्तेण बाहियत्तादो ।
* जदि दुकसायो कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो।
$ १४८. दोण्हं कसायाणं समाहारेण जणिदो उवजोगो दुकसायो ति भण्णदे। सो कथमुप्पजदि त्ति भणिदे 'कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो' त्ति णिद्दिष्टुं । कोहरासिं इसी प्रकार देवगतिमें भी लोभकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशिको निरन्तर जानना चाहिए। इसलिए क्रमसे ये दोनों राशियाँ नरकगति और देवगतिमें निरन्तर राशि होनेसे एक कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंको ध्रुव करके शेष कषायोंके साथ दो संयोगी, तीन संयोगी और चार संयोगी भंग कहना चाहिए। इस कारणसे नरकगति और देवगति एक कषाय-उपयुक्त, दो कषाय-उपयुक्त, तीन कषाय-उपयुक्त अथवा चार कषाय-उपयुक्त होती हैं यह सिद्ध हुआ । शेष गतियाँ नियमसे ऐसा कहने पर तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति नियमसे चार कषायोंमें उपयुक्त होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इन दो गतियोंमें चारों ही कषायराशियाँ ध्रुवरूपसे पाई जाती हैं। इस प्रकार उक्त चूर्णिसूत्रकी व्याख्या करके अब नरकगति और देवगतिमें चारों ही विकल्पोंके सम्भव होनेपर वहाँ किस कषायके साथ कौन विकल्प बनता है इस अर्थको स्पष्ट करनेके लिए उपरिम प्रबन्धका उपदेश करते हैं
* नरकगतिमें यदि एक कषाय है तो नियमसे क्रोधकषाय होती है।
६ १४७. क्योंकि क्रोधकषायके उपयोग कालका वहाँ सबसे अधिक उपदेश होनेके कारण समस्त नारकराशिका क्रोधकषायमें अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता । पर इससे शेष कषायोंके उपयोग कालोंमें भी उस प्रकारसे सम्भव होने की आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उस प्रकारका सम्भव पूर्वमें कहे गये अल्प-बहुत्व सूत्रसे बाधित हो जाता है ।
* यदि दो कषायोंका संयोग है तो क्रोधके साथ अन्यतर एक कषाय इस प्रकार दो कषायोंका संयोग होता है।
१४८. दो कषायोंके समाहारसे उत्पन्न हुआ उपयोग दो-कषाय ऐसा कहा जाता है। वह कैसे उत्पन्न होता है ऐसी पृच्छा होने पर 'कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो'
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
धुवं काढूण तेण सह माणादीणमण्णदरं घेत्तूण दुसंजोगे कीरमाणे समुप्पञ्जइत्ति भणिदं होइ । तं कथं ? कोह- माणोवजुत्ता वा, कोह-मायोवजुत्ता वा, कोह-लोभोवजुत्ता वा ति एवमेदेतिणि दुसंजोगभंगा ३ | संपहि तिकसायोवजुत्तवियप्पपटुप्पा
यणट्टमाह
-
* जदि तिकसायो कोहेण सह अण्णदरो तिसंजोगो ।
$ १४९. तिन्हं कसायाणं संजोगो तिकसायो त्ति वुच्चदे । सो कथमुप्पाइ चि भणिदे कोण सह सेससायाणमण्णदरदोकसाए घेत्तूण तिसंजोगे कीरमाणे समुप्पञ्जदि त्ति भणिदं । तं कथं ? कोह -माण - मायोवजुत्ता वा, कोह- माण- लोभोवजुत्ता वा, कोहमाया- लोभोवजुत्ता वा ति । एवमेत्थ वि तिण्णि चैव भंगा ३ । संपहि चदुकसाय - पदुष्पायणट्टमाह
I
* जदि चउकसायो सव्वे चेव कसाया ।
$ १५०. सुगममेदं, सव्वे चैव कोहादिकसाए घेत्तूण चदुकसायोवजुत्तवियप्पुपत्ती विसंवादाभावादो । एवमेत्थ एक्को चैव भंगो होदि । एवं णिरयोघो परुविदो । यह निर्देश किया है । क्रोधराशिको ध्रुव कर उसके साथ मानादिकमेंसे अन्यतर कषायको ग्रहण कर दोका संयोग करने पर द्विसंयोगी भंग उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- वह कैसे ?
समाधान — क्रोध और मानमें उपयुक्त हुए जीव, अथवा क्रोध और मायामें उपयुक्त हुए जीव अथवा क्रोध और लोभमें उपयुक्त हुए जीव इस प्रकार ये तीन द्विसंयोगी भंग ३ होते हैं । अब तीन कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंके विकल्पोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं—
* यदि तीन कषायों का संयोग है तो क्रोधके साथ अन्यतर दो कषाय इस प्रकार तीन कषायका संयोग होता है ।
$ १४९. तीन कषायका संयोग तीन कषाय ऐसा कहा जाता है । वह कैसे उत्पन्न होता है ऐसी पृच्छा होनेपर क्रोधके साथ शेष कषायोंमेंसे अन्यतर दो कषायोंको ग्रहणकर तीनका संयोग करने पर उत्पन्न होता है ऐसा कहा है ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान - क्रोध, मान और मायामें उपयुक्त हुए जीव, अथवा क्रोध, मान और लोभ में उपयुक्त हुए जीव अथवा क्रोध, माया और लोभमें उपयुक्त हुए जीव । इस प्रकार यहाँ पर भी तीन ही भंग ३ होते हैं ।
अब चार कषायोंके कथन करनेके लिए कहते हैं
* यदि चार कषायका संयोग है तो सभी कषायें होती हैं ।
$ १५.० यह सूत्र सुगम है, क्योंकि सभी क्रोधादि कषायको ग्रहण कर चार कषायों में उपयुक्तरूप विकल्पकी उत्पत्तिमें विसंवाद नहीं है । इस प्रकार यहाँ पर एक ही भंग होता
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा एवं चेव सत्तसु पुढवीसु णेदव्वं, विसेसाभावादो। संपहि देवगदीए वि एसा चेव परूवणा लोभादो आढविय विवजाससरूवेण णेदव्वा त्ति जाणावणट्ठमिदमाह- .
* जहा णिरयगदीए कोहेण तहा देवगदीए लोभेण कायव्वा ।
१५१. जहा णिरयगइमग्गणाए कोहेण धुवभावमावण्णेण सह सेसकसाए ढोएदूण एग-दु-ति-चदुकसायोवजुत्तवियप्पपरूवणा कया एवं देवगदीए वि लोभेण सह पयदपरूवणा णिव्यामोहमणुमग्गियव्वा त्ति वुत्तं होइ । एवं ताव अपवाइजंतोवएसमस्सियूण गाहासुत्तत्थमेकेण पयारेण विहासिय पयदत्थोवसंहारवक्कमाह
* एक्केण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता भवदि।
$ १५२. सुगममेदमुवसंहारवक्कं । संपहि विदियोवएसमस्सियूण गाहासुत्तत्थं विहासिदुकामो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ____ * पवाइज्जंतण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा।
$ १५३. एत्तो पवाइजंतोवएसमवलंबिय एदिस्से चउत्थीए सुत्तगाहाए अत्थविहासणा कीरदि त्ति वुत्तं होइ । को वुण पवाइजंतोवएसो णाम ? वुच्चदे-वुत्तमेदं सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमव्वोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए है। इस प्रकार ओघसे नरकगतिमें कथन किया। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें कथन करना चाहिए, क्योंकि विवक्षित ओघ प्ररूपणासे उसमें कोई भेद नहीं है । अब देवगतिमें भी लोभसे आरम्भकर पश्चादानुपूर्वीसे यही प्ररूपणा कहनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए यह सूत्र कहते हैं____* जिस प्रकार नरकगतिमें क्रोधके साथ कथन किया है उसी प्रकार देवगतिमें लोभके साथ कथन करना चाहिए ।
$ १५१. जिस प्रकार नरकगति मार्गणामें ध्रुवपनेको प्राप्त हुए क्रोधके साथ शेष कषायोंका आश्रय कर एक, दो, तीन और चार कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके विकल्पोंका कथन किया है उसी प्रकार देवगतिमें भी लोभके साथ प्रकत प्ररूपणा निःसंशयरूपसे जान लेनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार सर्व प्रथम अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार गाथासूत्रके अर्थका एक प्रकारसे व्याख्यान करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार वाक्य कहते हैं
* एक उपदेशके अनुसार चौथी गाथाकी व्याख्या समाप्त होती है। ..$ १५२. यह उपसंहार वाक्य सुगम है । अब दूसरे उपदेशका आश्रय कर गाथासूत्रके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
* प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार चौथी गाथाका विशेष व्याख्यान करते हैं।
$ १५३ आगे प्रवाह्यमान उपदेशका आलम्बन लेकर इस चौथी सूत्रगाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-प्रवाह्यमान उपदेश किसे कहते हैं ? समाधान—यह कहा है कि जो सब आचार्योंके द्वारा सम्मत है, चिरकालसे अत्रुटित
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ पवाइजदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जंतोवएसो त्ति भण्णदे । अथवा अञ्जमंखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइजमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइजंतओ त्ति घेत्तव्यो।
* 'एक्कम्मि दु अणुभागे त्तिः जं कसायउदयहाणं सो अणुभागो
णाम ।
$ १५४. एतदुक्तं भवति, पुबिल्लपरूवणाए जो कसायो सो चेवाणुभागो त्ति विवक्खियं, कजकारणाणमन्वदिरेगणयावलंबणादो कज्जे कारणोवयारादो च । एत्थ वुण अण्णो कसायो अण्णो च अणुभागो त्ति विवक्खियं, कज्ज-कारणाणं भेदणयावलंबणादो । ण च कजं चेव कारणं होइ, विप्पडिसेहादो। तदो एवंविहाहिप्पाएण पयट्टा एसा परूवणा त्ति घेत्तव्वं । संपहि सुत्तत्थविवरणं कस्सामो । 'एकम्हि दु अणुभागे त्ति' एदेण गाहासुत्तावयवमिदि सद्दपरं परामरसिय तदो जं कसायउदयट्ठाणं सो अणुभागो त्ति तस्स अत्थणिदेसो कओ। ण कसायो चेवाणुभागो, किंतु जं कसायमुदयट्ठाणमसंखेजलोगभेयभिण्णं तमेत्थाणुभागो त्ति विवक्खियमिदि एसो एदस्स भावत्थो। ___* 'एगकालेणे त्ति' कसायोवजोगद्धट्ठाणे त्ति भणिदं होदि ।
सम्प्रदाय क्रमसे चला आ रहा है, और जो शिष्य परम्पराके द्वारा प्रवाहित किया जाता है प्रज्ञापित किया जाता है वह प्रवाह्यमान उपदेश कहा जाता है। अथवा आयमक्ष भगवानका उपदेश प्रकृतमें अप्रवाह्यमान उपदेश है और नागहस्तिक्षमाश्रमणका उपदेश प्रवाह्यमान उपदेश है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। ___* 'एक अनुभागमें' यहाँपर जो कषाय उदयस्थान है उसकी अनुभाग संज्ञा है।
$ १५४. इसका यह तात्पर्य है कि पिछली प्ररूपणामें जो कषाय है वही अनुभाग है ऐसी विवक्षा की थी, क्योंकि वहाँ कार्य और कारणमें अभेदनयका अवलम्बन लिया गया था और कार्यमें कारणका उपचार किया गया था। परन्तु यहाँ पर कषाय अन्य है और अनुभाग अन्य है यह विवक्षा की गई है, क्योंकि यहाँ कार्य और कारणमें भेदविवक्षाका अवलम्बन लिया गया है । और कार्य ही कारण नहीं होता, क्योंकि इन दोनों के एक होनेका निषेध है । इसलिए इस प्रकारके अभिप्रायसे यह प्ररूपणा प्रवृत्त हुई है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । अब सूत्रके अर्थका विवरण करते हैं—'एकम्हि दु अणुभागे' इस वचन द्वारा गाथा सूत्रके अंशके शब्दार्थका परामर्श करके तदनुसार जो कषाय-उदयस्थान है वह अनुभाग है इस प्रकार उसका अर्थनिदेश किया। कषाय ही अनुभाग नहीं है किन्तु असंख्यात लोकप्रमाण भेदोंको लिये हुए जो कपाय-उदयस्थान है वह यहाँ पर अनुभाग है ऐसी विवक्षा की है यह इस सूत्रका भावार्थ है।
* 'एगकालेण' इस पदका अर्थ कषायोपयोगाद्धास्थान है ऐसा कहा गया है।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
गाथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा $ १५५. एगकालेणे त्ति एत्थतणकालसद्दो समवायवाचओ त्ति पुबिल्लपरूवणाए वक्खाणिदो । एत्थ पुण तहा ण घेप्पइ, किंतु एसो कालसद्दो कालोवजोगवग्गणाणं वाचओ । तदो 'एगकालेणे त्ति' वुत्ते एगेण कसायोवजोगद्धट्ठाणेणे त्ति भणिदं होदि।
* एसा सण्णा। $ १५६. एसा अणंतरपरूविदा सण्णा पवाइजंतोवएसेण णायव्वा त्ति भणिदं
होइ।
* तदो पुच्छा।
$ १५७. एदं सण्णाविसेसमवलंविय तदो गाहासुत्ताणुसारेण एसा पुच्छा कायव्या त्ति वुत्तं होइ । केरिसी सा पुच्छा त्ति आसंकाए उत्तरमाह
* 'का च गदी एक्कम्हि कसायउदयट्ठाणे एकम्हि वा कसायउवजोगद्धहाणे भवे। .
१५८. णिरयादिगदीणं मझे का णाम गदी कोहादीणमण्णदरकसायपडिबद्ध एक्कम्हि चेव कसायुदयट्ठाणे एकम्हि चेव वा कसायोवजोगद्धट्ठाणे एगसमएणुवजुत्ता •भवे किमेवंविहसंभवो अस्थि वा ण वेत्ति पुच्छिदं होदि। संपहि. 'विसरिसमुवजुजदे का च' त्ति एदं चरिमावयवमस्सियणविसरिसोवजोगविसयं विदियं पुच्छावकमाह
$ १५५. एगकालेण' इस पदमें आया हुआ काल शब्द समवायवाचक है ऐसी पिछली प्ररूपणामें कह आये हैं। परन्तु यहाँ पर उस प्रकार ग्रहण नहीं करना है, किन्तु यह काल शब्द कालोपयोग वर्गणाओंका वाचक है। इसलिए 'एगकालेण' ऐसा कहनेपर उसका अर्थ एक कषायोपयोगाद्धास्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* यह संज्ञा है।
$ १५६. अनन्तर पूर्व कही गई यह संज्ञा प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* इसके बाद पृच्छा करनी चाहिए ।
$ १५७. इस संज्ञाविशेषका अवलम्बन लेकर अनन्तर गाथासूत्रके अनुसार यह पृच्छा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह पृच्छा किस प्रकार की है ऐसी आशंका होनेपर उत्तरका कथन करते हैं
___* एक कषाय उदयस्थानमें अथवा एक कषाय उपयोगाद्धास्थानमें कौन गति होती है।
$ १५८. नरकादि गतियोंमेंसे कौन गति क्रोधादिकमेंसे अन्यतर कषाय-सम्बन्धी एक ही कषाय उदयस्थानमें अथवा एक ही कषायोपयोगाद्धास्थानमें एक समयमें उपयुक्त होती है । क्या इस प्रकारका सम्भव है अथवा नहीं है यह इस पृच्छाका तात्पर्य है। अव विसरिसमुवजुज्जदे का च' इस प्रकार इस अन्तिम अंशका आश्रय कर विसदृश उपयोगविषयक दूसरे पृच्छावाक्यको कहते हैं
१०
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ ___* अथवा अणेगेसु कसायउदयहाणेसु अणेगेसु वा कसायउवजोगद्धहाणेसु का च गदी।
.६१५९. अणेगेसु कसायउदयट्ठाणेसु अणेगेसु वा कसायोवजोगट्ठाणेसु एगसमयम्मि उवजुत्ता भवे इदि पुच्छाहिसंबंधो अहियारवसेणेत्थ वि जोजेयव्यो ।
* एसा पुच्छा।
$ १६०. एसा अणंतरपरूविदा दुविहा पुच्छा एदम्मि गाहासुत्ते पडिबद्धा त्ति भणिदं होदि । एवमेदम्मि उवदेसे पुच्छाभेदमुवसंदरिसिय संपहि एदिस्से पुच्छाए णिण्णयकरणट्ठमिदमाह
* अयं णिद्द सो। ६१६१. सुगमो। * तसा एक्केकम्मि कसायुक्यहाणे आवलियाए असंखेजदिभागो ।
१६२. सो च दुविहो णिदेसो-कसायुदयहाणविसयो कसायोवजोगद्धट्ठाणविसयो च। तत्थ ताव कसायुदयट्ठाणेसु तसजीवे अस्सियूण पयदपरूवणट्ठमेदं सुत्तमोइण्णं । तं जहा-तसकाइया जीवा एककम्मि कसायुदयट्ठाणे उकस्सेण आवलि
__* अथवा अनेक कषाय उदयस्थानोंमें अथवा अनेक कषाय-उपयोगाद्धास्थानोंमें कौन गति उपयुक्त होती है।
$ १५९. अनेक कषाय-उदयस्थानोंमें अथवा अनेक कषायोपयोगाद्धास्थानोंमें एक समयमें उपयुक्त कौन गति होती है इस प्रकार अधिकारके वशसे यहाँ पर भी पृच्छाका सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
* यह पृच्छा है।
$ १६० यह अनन्तर पूर्व कही गई दो प्रकारकी पृच्छाएं इस गाथासूत्रसे प्रतिबद्ध हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस उपदेशमें पृच्छाभेदको दिखलाकर अब इस पृच्छाका निर्णय करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं
* यह निर्देश है।
$ १६१. यह सूत्र सुगम है। ___ * त्रसजीव एक-एक कषाय उदयस्थानमें अवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं।
$ १६२. यह निर्देश दो प्रकारका है-कषाय-उदयस्थानविषयक और कषायोपयोगाद्धास्थानविषयक । वहाँ सर्व प्रथम कषाय-उदयस्थानोंमें त्रसजीवोंका आश्रयकर प्रकृत विषयकी प्ररूपणा करनेके लिए यह सूत्र आया है। यया-त्रसकायिक जीव एक-एक कषाय. उदयस्थानमें उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इस वचनसे त्रसजीव नियमसे अनेक कषाय-उदयस्थानोंमें रहते हैं इस बातका ज्ञान हो जाता है, क्योंकि आबलिके
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
गीथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणो याए असंखेजदिभागमेत्ता हवंति । एदेण तसजीवा णियमा अणेगेसु कसायुदयहाणेसु अच्छंति ति जाणाविदं । किं कारणं ? आवलियाप असंखेजदिभागमेत्तजीवाणं जइ एगं कसायुदयट्ठाणमुवलब्भदे तो जगपदरासंखेजभागमेत्तस्स तसजीवरासिस्स केत्तियाणि कसायुदयट्ठाणाणि लहामो त्ति तेरासियं कादण जोइदे असंखेजसेढिमेत्ताणं कसायुदयहाणाणमागमणदंसणादो। जइ वि एत्थ सव्वेसु कसायुदयहाणेसु तसजीवाणं सरिसभावेणावट्ठाणसंभवो णत्थि तो वि समकरणं कादूण तेरासियविहाणमेदमणुगंतव्वं । जेणेवमेत्तियमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु एककालेण तसजीवरासी अच्छदि तेण पढमपुच्छाए संभवमोसारिय 'विसरिसमुवजुजदे का च' त्ति एदिस्से बिदियपुच्छाए चेव संभवो पदरिसिओ होइ । एवं णिरयादिगदीणं पि पादेक्कणिरंभणं कादूण पयदपरूवणा णिरवसेसमणुगंत्तव्वा, एक्के कम्मि कसायोदयट्ठाणे आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा होति ति एदेण भेदाभावादो। एवं कसायुदयट्ठाणेसु पयदणिद्देसं कादूण संपहि कसायुवजोगद्धहाणेसु पयदत्थपरूवणट्ठमाह
* कसायउवजोगद्धट्ठाणेसु पुण उक्कस्सेण असंखजाओ सेढीओ।
$ १६३. एकेक्कम्मि कसाए उवजोगद्धट्ठाणे तसजीवा उक्कस्सेणासंखेजदि. भागमेत्ता अच्छंति त्ति वुत्तं होदि । किं कारणं ? अंतोमुत्तमेत्तकसायोवजोगद्धट्ठाणेसु सव्यो तसजीवरासी जहापविभागमवचिट्ठदि त्ति कादूण तेरासियकमेण जोइदे असंखेजअसंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंका यदि एक कषाय-उदयस्थान प्राप्त होता है तो जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रसजीवराशिके कितने कषाय-उदयस्थान प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके देखनेपर असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंका आगमन देखा जाता है । यद्यपि यहाँपर समस्त कषाय-उदयस्थानोंमें त्रसजीवोंका सदृशरूपसे अवस्थान सम्भव नहीं है तो भी समीकरण करके यह त्रैराशिकविधान जानना चाहिए । यतः इस प्रकार इतनेमात्र कषाय-उदयस्थानों में एक कालमें त्रस जीवराशि रहती है, इसलिए प्रथम पृच्छा यहाँ सम्भव नहीं, इसलिये उसका अपसरण कर 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' इस प्रकार इस दूसरी पृच्छाकी ही यहाँ सम्भावना दिखलाई है। इसी प्रकार नरकादि गतियोंमेंसे प्रत्येक गतिको विवक्षित कर प्रकृत प्ररूपणा पूरी जाननी चाहिए, क्योंकि एक-एक कषाय-उदयस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव होते हैं इस प्रकार इस कथनकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । इस प्रकार कषाय-उदयस्थानोंमें प्रकृत विषयका निर्देश करके सब कषायोगयोगाद्धास्थानोंमें प्रकृत अर्थका कथन करनेके लिए कहते हैं_* किन्तु कषायोपयोगकालस्थानोंमें उत्कृष्टरूपसे असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण होते हैं।
$ १६३. एक-एक कषाय-उपयोगाद्धास्थानमें त्रस जीव उत्कृष्टरूपसे असंख्यातवें भागमात्र होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कषाय-उपयोगाद्धास्थानोंमें समस्त त्रसजीवराशि यया प्रविभागके अनुसार रहती है यह विधि करके त्रैराशिक
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ सेढिमेत्ताणं जीवाणमेक्कम्मि कसायुवजोगद्धट्ठाणे समुवलंभादो । जइ वि सव्वेसु कसायोवजोगद्धट्ठाणेसु समपविभागेण तसजीवरासीए अवट्ठाणसंभवो णत्थि तो वि समकरणविहाणेणेदं तेरासियमणुगंतव्वं । एत्थ वि णिरयादिगदीणं पादेकणिरंभणं कादूण पयदपरूवणा समयाविरोहेणाणुगंतव्वा । तदो एत्थ वि सो चेव भावत्थो अणेगेसु कसायोवजोगद्धट्ठाणेसु णियमा सव्वा गदी उवजजदि त्ति । संपहि एदस्स चेव भावत्थस्स फुडीकरणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ- . _* एवं भणिदं होइ सव्वगदीओ णियमा अणेगेसु कसायुदयहाणेसु अणेगेसु च कसायउवजोगद्धट्ठाणेसु त्ति ।
$१६४. कुदो पुव्वुत्तेण णाएण तहाभावसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो । एवमेदं परूविय संपहि पयदविसये जीवप्पाबहुअपदुप्पायणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* तदो एवं परूवणं कादूण णवहि पदेहि अप्पाबहुअं।
$ १६५. एवं कसायुदयट्ठाणेसु उवजोगद्धट्ठाणेसु च जीवाणमवट्ठाणकमं परूविय तदो पयदविसये तसजीवाणमप्पाबहुअमिदाणिं कस्सामो त्ति भणिदं होदि । तं कथं कीरदि त्ति भणिदे ‘णवहिं पदेहिं' कायव्यमिदि णिदिट्ठ। काणि ताणि णवपदाणि ? क्रमसे देखनेपर एक-एक कषाय-उपयोगाद्धास्थानमें असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण जीव उपलब्ध होते हैं । यद्यपि उक्त सभी कषाय-उपयोगाद्धास्थानोंमें समान प्रविभागसे त्रसजीवराशिका अवस्थान सम्भव नहीं है तो भी समीकरण विधानके अनुसार यह त्रैराशिक जानना चाहिए । यहाँपर भी नरकादि गतियोंमेंसे प्रत्येक गतिको विवक्षित कर आगमानुसार प्रकृत प्ररूपणा जानना चाहिए। इसलिए यहाँपर भी वही तात्पर्य है कि अनेक कषाय-उपयोद्धास्थानोंमें नियमसे सब गतियाँ प्रयुक्त होती हैं । अब इसी भावार्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं... * इस प्रकार पूर्वोक्त कथनका यह तात्पर्य है कि सभी गतियाँ अनेक कषाय उदयस्थानोंमें और अनेक कषाय-उपयोगकालस्थानोंमें नियमसे हैं ।
६ १६४. क्योंकि पूर्वोक्त न्यायसेउ स प्रकारसे सिद्धि निर्बाध पाई जाती है । इस प्रकार इसका कथन करके अव प्रकृत विषयमें जीव-अल्पाबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका प्रबन्ध कहते हैं
* इस प्रकार उक्त कथन करके नौ पदों द्वारा अल्पबहुत्व करना चाहिए ।
$ १६५. इस प्रकार कषाय-उदयस्थानों में और उपयोगाद्धास्थानोंमें जीवोंके अवस्थानक्रमका कथन करके तदनन्तर प्रकृत विषयमें इस समय त्रसजीवोंका अल्पबहुत्व करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह कैसे किया जाता है ऐसी पृच्छा होनेपर नौ पदोंके द्वारा करना चाहिए यह निर्देश किया है।
शंका-वे नौ पद कौन हैं ?
१ आ०प्रतौ णिवाहणुवलंभादो इति पाठः ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा माणादीणमेक्केकस्स कसायस्स जहण्णुकस्साजहण्णाणुक्कस्सभेयभिण्णकसायुदयट्ठाणपडिबद्धाणं तिण्हं पदाणं कसायोवजोगद्धट्ठाणेहिं तहा चेव तिहाविहत्तेहिं संजोगेण समुप्पण्णाणि णवपदाणि होति । तं जहा–कोहादीणमुक्कस्सकसायुदयट्ठाणे कसायोवजोगद्धाए च पडिबद्धमेक्कं पदं । तेसिं चेवुक्कस्सकसायुदयट्ठाणे जहण्णकसायोवजोगद्धाए च विदियं । उक्कस्सकसायुदयहाणे अजहण्णाणुक्कस्सकसायोवजोगद्धासु च तदियं । जहण्णकसायुदयट्ठाणे उक्कस्सकसायोवजोगद्धाए च चउत्थं । जहण्णकसायुदयट्ठाणे जहण्णकसायोवजोगदाए च पंचमं । जहण्णकसायुदयट्ठाणे अजहण्णाणुकस्सकसायोवजोगद्धट्ठाणेसु च छटुं। अजहण्णाणुकस्सकसायुदयट्ठाणेसु उक्कस्सकसायोवजोगद्धाए च सत्तमं । अजहण्णाणुक्कस्सकसायुदयट्ठाणेसु जहण्णकसायोवजोगद्धाए च अट्ठमं । अजहण्णाणुकस्सकसायुदयट्ठाणेसु अजहण्णाणुकस्सकसायोवजोगद्धट्ठाणेसु च णवममिदि । एवमेदेहिं णवहि पदेहिं तसजीवाणं थोवबहुत्त मेत्तो अहिकीरदि ति सुत्तत्थसब्भावो ।
* तं जहा।
$ १६६. सुगममेदं पुच्छावक्कं । एवं च पुच्छाविसईकयस्स अप्पाबहुअस्स माणादिकसायपरिवाडीए एसो णिद्देसो ।
* उक्कस्सए कसायुदयहाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा थोवा।
समाधान मानादि कषायोंमेंसे एक-एक कषायके जघन्य, उत्कृष्ट और अजधन्यानुत्कृष्ट इस प्रकारसे भेदरूप कषाय-उदयस्थानोंसे सम्बन्ध रखनेवाले तीन पदोंके तथा उसी प्रकार तीन रूपसे विभक्त हुए कषाय-उपयोगाद्धास्थानोंके संयोगसे उत्पन्न हुए नौ पद होते हैं। यथा-क्रोधादिके उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और कषाय-उपयोगकालस्थानमें प्रतिबद्ध पद है। उन्हींके उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और जघन्य कषाय उपयोगकालस्थानमें प्रतिबद्ध दूसरा पद है । उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें और अजघन्यानुत्कृष्ट कषाय-उपयोगकालस्थानों में प्रतिबद्ध तीसरा पद है। जघन्य कषाय-उदयस्थानमें और उत्कृष्ट कषाय उपयोगकालस्थानमें प्रतिबद्ध चौथा पद है। जघन्य कषाय उदयस्थानमें और जघन्य कषाय-उपयोगकालस्थानमें प्रतिबद्ध पाँचवाँ पद है। जघन्य कषाय-उदयस्थानमें और अजघन्यानुत्कृष्ट कषाय-उपयोगकालस्थानों में प्रतिबद्ध छठा पद है । अजघन्यानुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और उत्कृष्ट कषायउपयोगकालस्थानमें प्रतिबद्ध सातवाँ पद है। अजघन्यानुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और जघन्य कषाय-उपयोगकालस्थानमें प्रतिबद्ध आठवाँ स्थान है। अजघन्यानुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और अजघन्यानुत्कृष्ट कषाय-उपयोगकालस्थानोंमें प्रतिबद्ध नौवाँ स्थान है। इस प्रकार इन नौ पदोंके द्वारा आगे त्रसजीवोंका अल्पबहुत्व अधिकृत है यह इस सूत्रके अर्थका आशय है।
* वह कैसे ?
$ १६६. यह पृच्छावाक्य सुगम है । इस प्रकार पृच्छाके विषयभूत हुए अल्पबहुत्वका मानादि कषायोंके क्रमसे यह निर्देश है ।
* उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और उत्कृष्ट मानोपयोगकालमें जीव सबसे थोड़े हैं।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आय-उदयस्थान संज्ञा है।
७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ ... $ १६७. उक्कस्सकसायोदयट्ठाणं णाम उक्कस्साणुभागोदयजणिदो कसायपरिणामो असंखेजलोयमेयभिण्णाणमझवसाणट्ठाणाणं चरिमज्झवसाणट्ठाणमिदि वुत्तं होदि । 'उक्कस्समाणोवजोगद्धाए' त्ति वुत्ते माणकसायस्स उक्कस्सकालोवजोगवग्गणाए गहणं कायव्वं । तदो एदेहिं दोहिं उक्कस्सपदेहिं माणकसायपडिबद्धेहिं अण्णोण्णसंजुत्तेहिं परिणदा तसजीवा थोवा त्ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एदेसिं थोवत्तमवगम्मदे ? ण, दोण्हं पि उक्कस्सभावेण परिणमंताणं जीवाणं सुट्ट, विरलाणमुवएसादो। किं माणमेदेसि ? आवलियाए असंखेजदिभागो। जइ वि उक्कस्समाणोवजोगद्धाए असंखेजसेढिमेत्तजीवाणमवट्ठाणसंभवो तो वि उक्कस्सकसायुदयहाणे णिरुद्धे तत्थावलियाए असंखेजदिभागमेत्तो चेव जीवरासी होदि, पयारंतरासंभवादो ।
* जहणियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेजगुणा।
१६८. एत्थ उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे त्ति अहियारसंबंधो कायव्यो । तेण उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे जहणियाए माणोवजोगद्धाए च परिणदा जीवा पुव्वि
$ १६७. उत्कृष्ट अनुभागके उदयसे उत्पन्न हुए तथा असंख्यात लोकप्रमाण अध्यवसान स्थानों में से अन्तिम अध्यवसानस्थानरूप कषाय परिणामकी उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थान संज्ञ 'उत्कुष्ट मानोपयोगाद्धामें' ऐसा कहनेपर मानकषायकी उत्कृष्ट कालोपयोगवर्गणाका ग्रहण करना चाहिए। इसलिए मानकषायसे सम्बन्ध रखनेवाले और परस्पर संयुक्त हुए इन दोनों उत्कृष्ट पदरूपसे परिणत हुए त्रसजीव सबसे थोड़े हैं ऐसा सूत्रके अर्थका सम्बन्ध करना चाहिए।
शंका-इसका स्तोकपना किस प्रमाणसे जाता जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि दोनों ही पदोंके उत्कृष्टभावसे परिणत हुए जीव बहुत विरल होते हैं ऐसा परमागमका उपदेश है।
शंका-इनका प्रमाण क्या है ?
समाधान—इनका प्रमाण आवलिके असंख्यात भागमात्र है। यद्यपि मानकषायके उत्कृष्ट उपयोगकालमें असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण त्रसजीवोंका अवस्थान सम्भव है तो भी उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानसे युक्त उसमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही जीवराशि होती है, क्योंकि यहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ—यहाँ उदयस्थानका अर्थ कषायपरिणाम और उपयोगाद्धाका अर्थ कषायपरिणामका काल लिया है। ये दोनों जिन जीवोंके उत्कृष्ट होते है उनकी संख्या आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं पाई जाती यह उक्त कथनका तात्पर्य है। आगे भी इसी प्रकार तात्पर्य घटित कर लेना चाहिए।
* उनसे जघन्य मानकषायसम्बन्धी उपयोगकालमें स्थित हुए जीव असंख्यात गुणे हैं।
१६८. इस सूत्रमें 'उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें' अधिकारवश इस पदका सम्वन्ध कर लेना चाहिए । इससे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और मानकषायके जघन्य उपयोगकालमें
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा न्लेहितो असंखेजगुणा त्ति सुत्तत्थो । एसो वि रासी आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो चेव । किंतु उक्कस्समाणोवजोगद्धाए परिणममाणजीवेहिंतो जहण्णमाणोवजोगद्धाए परिणममाणजीवा बहुआ होति, जहण्णकालस्स पउरं संभवादो। तदो सिद्धमसंखेजगुणत्तं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो ।
* अणुकस्समजहण्णासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेजगुणा।
६ १६९. एत्थ वि पुव्वं व अहियारसंबंधो कायव्वो। तदो एसो वि जीवरासी आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो चेव होइ । होतो वि पुव्विल्लरासीदो एसो असंखेजगुणो । किं कारणं ? जहणिया माणोवजोगद्धा एयवियप्पा चेव, अजहण्णाणुकस्समाणोवजोगद्धाओ पुण अणेयवियप्पाओ । तेणेत्थ बहुवियप्पसंभवादो बहुओ जीवरासी परिणमदि त्ति सिद्धमसंखेजगुणत्तं । गुणगारो च आवलियाए असंखेजदिभागो।
मानकषायरूपसे परिणत हुए जीव पूर्वोक्त जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं इस प्रकार सूत्रका अर्य फलित हो जाता है । यह राशि भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। किन्तु उत्कृष्ट मानोपयोगकालमें परिणमन करते हुए जीवोंसे जघन्य मनोपयोगकालमें परिणमन करनेवाले जीव बहुत होते हैं, क्योंकि जघन्य काल प्रचुररूपसे पाया जाता है, इसलिये ये जीव असंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ।
शंका-गुणकार क्या है ? समाधान--गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
* उनसे अनुत्कृष्ट-अजघन्य मानकषायसम्बन्धी उपयोगकालोंमें जीव असंख्यातगुणे हैं।
$ १६९. यहाँपर भी पहलेके समान अधिकारका सम्बन्ध करना चाहिए । इसलिए यह जीवराशि भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती है । उतनी होती हुई भी पिछली राशिसे यह राशि असंख्यातगुणी है, क्योंकि मानोपयोगका जघन्य काल एक ही प्रकारका है, किन्तु अजघन्य-अनुत्कृष्ट मानोपयोगकाल अनेक भेदोंको लिये हुए है। इसलिए यहाँपर बहुत विकल्प सम्भव होनेसे बहुत जीवराशि मानकषायरूपसे परिणमन करती है, इसलिए पूर्वोक्त जीवराशिसे यह राशि असंख्यातगुणी है यह सिद्ध हुआ । यहाँ गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ—मानकषायके उत्कृष्टकाल और जघन्यकालको छोड़कर शेष समस्त काल अजघन्य-अनुत्कृष्टकालमें परिगृहीत हो जाता है। यतः इस कालके भीतर मानकषायरूपसे परिणत सब सजीवराशि नहीं ली गई है। किन्तु उत्कृष्ट मानकषायरूपसे परिणत त्रसजीवराशि ही ली गई है, इसलिए वह आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी पूर्वोक्त जीवराशिसे असंख्यातगुणी बन जाती है, क्योंकि मानकषायके जघन्यकालका प्रमाण एक समय मात्र है और अजघन्य-अनुत्कृष्टकाल असंख्यात समयप्रमाण है, इसलिए उक्तरूपसे जीवराशि बन जाती है। यहाँ सर्वत्र त्रस जीवराशिकी अपेक्षा यह अल्पबहुत्व बतलाया जा रहा है यह ध्यान रहे।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
* जहणए कसायुदयठ्ठाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज गुणा ।
$ १७०. सव्वजहण्णय मणुभागोदयद्वाणं तसजीवपाओग्गमेत्थ जहण्णकसायुदयामिदि विवक्खियं । तेण जहण्णए कसायुदट्ठाणे उक्कस्समाणोवजोगवा - पविद्धे वट्टमाण जीवरासी असंखेजगुणो त्ति सुत्तत्थ संबंधो । एसो वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो चैव, एक्केक्कम्मि कसायुदयट्ठाणे णिरुद्धे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो चैव तस जीवरासी होदि ति पुव्वमेव णिण्णीयत्तादो । णवरि उक्कस्सकसायुदट्ठाणादो जहणकसायुदयद्वाणस्स सुलहत्तेण पुव्विल्लरासीदो एसो असंखेजगुण जादो। एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज दिभागो ।
८०
* जहण्णियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज्जगुणा ।
$ १७१. एत्थ जहणकसायुदय द्वाणग्गहणमणुवट्टदे, तेणेव महिसंबंधो कायव्वोजण कसायुदट्ठाणे जहण्णियाए माणोवजोगाए च अकमेण परिणदा जीवा पुव्विल्लेहिंतो असंखेज्जगुणा ति । एत्थ कारणं सुगमं । गुणगारो च आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो ।
* अणुक्कस्समजहण्णासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेज्जगुणा । $ १७२. एसो वि जीवरासी आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो होदूण पुव्विल्लादो असंखेज्जगुणो हो । कारणं सुगमं ।
* उनसे जघन्यकषाय उदयस्थानमें और उत्कृष्ट मानकषायसम्बन्धी उपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं ।
$ १७०. सबसे जघन्य अनुभागोदयस्थान त्रसजीवोंके योग्य जघन्य कषाय-उदयस्थान है ऐसी यहाँपर विवक्षाकी गई है। तदनुसार उत्कृष्ट मानोपयोगकालसे सम्बन्ध रखनेवाले जघन्य कषायोदयस्थान में विद्यमान जीवराशि असंख्यगुणी है ऐसा यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए। यह जीवराशि भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, क्योंकि एक-एक कषाय- उदयस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही त्रसराशि होती है, इस बातका पहले ही निर्णय कर आये हैं । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट कषायोद्यस्थानसे जघन्य कषायोदयस्थान सुलभ है, इसलिए पूर्वोक्त राशिसे यह राशि असंख्यातगुणी हो जाती है । यहाँपर गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
* उनसे जघन्य मानकषायोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं ।
$ १७१. यहाँपर 'जघन्य कषाय - उदयस्थान' पदकी अनुवृत्ति होती है । इसलिए ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए । जघन्य कषाय उदयस्थानमें और जघन्य मानोपयोगकालमें युगपत् परिणत हुए जीव पिछले जीवोंसे असंख्यातगुणे हैं । यहाँपर कारणका कथन सुगम है । गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
* उनसे अनुत्कृष्ट- अजघन्य मानोपयोगकालोंमें जीव असंख्यातगुणे हैं ।
$ १७२. यह भी जीवराशि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर पिछली राशिसे असंख्यातगुणी है । कारणका कथन सुगम है ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * अणुक्कस्समजहण्णेसुअणुभागट्ठाणेमु उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेजगुणा।
६१७३. पुविल्लरासी आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो, एसो वुण असंखेज्जसेढिमेत्तो, अजहण्णाणुकस्सकसायुदयट्ठाणेसु णिरुद्धेसु तदुवलंभसंभवादो। तम्हा पुव्विल्लादो असंखेज्जगुणो जादो । गुणगारो वि असंखेज्जाओ सेढीओ।
* जहणियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेजगुणा।
$ १७४. 'अणुक्कस्समजहण्णेसु अणुभागट्ठाणेसु' त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । तेणेसो वि रासी असंखेजसेढिमेत्तो होदण पुग्विन्लादो असंखेजगुणो जादो, उक्कस्समाणोवजोगद्धापरिणदजीवेहिंतोजहण्णमाणोवजोगद्धापरिणदजीवाणं सरिसकसायुदयट्ठाणविसयाणं तहाभावसिद्धीए बाहाणुवलंभादो ।
* अणुकस्समजहण्णासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेजगुणा ।
१७५. एत्थ वि 'अणुक्कस्समजहण्णेसु' त्ति अहियारसंबंधो । सेसं सुगमं । * एवं सेसाणं कसायाणं ।
$ १७६. जहा माणकसायस्स णवहिं पदेहिं पयदप्पाबहुअविणिण्णयो को तहा कोह-माया-लोभाणं पि कायव्वो, विसेसाभावादो। संपहि एदेणेव परत्थाणप्पा
* उनसे अनुत्कृष्ट-अजघन्य अनुभागस्थानोंमें और उत्कृष्ट मानोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं।
$ १७३. पिछली राशि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, किन्तु यह राशि असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण है, क्योंकि अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानों में उनकी उपलब्धि सम्भव है। इसलिए पिछली राशिसे यह राशि असंख्यातगुणी है। गुणकार भी असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण है। . * उनसे जघन्य मानोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं।
१७४. 'अनत्कष्ट-अजघन्य अनभागस्थानों में इस पदकी पर्व मनसे अनवनि होती है । इसलिए यह राशि भी असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण होकर पिछली राशिसे असंख्यातगुणी बन जाती है, क्योंकि उत्कृष्ट मानोपयोगकालसे युक्त जीवोंसे उक्त जीवोंके समान कषायउदयस्थानके विषयभूत ऐसे जघन्य मानोपयोगकालसे युक्त जीवोंके असंख्यातगुणे सिद्ध होनेमें कोई बाधा नहीं आती।
* उनसे अनुत्कृष्ट-अजघन्य मानकषायसम्बन्धी उपयोगकालोंमें स्थित जीव असंख्यातगुणे हैं।
६ १७५. यहाँपर भी 'अनुत्कृष्ट-अजघन्य अनुभागस्थानों में इस पदका अधिकारवश सम्बन्ध कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
* इसी प्रकार शेष कषायोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए।
$ १७६. जिस प्रकार नौ पदोंके आश्रयसे मानकषायके प्रकृत अल्पबहुत्वका निर्णय किया उसी प्रकार क्रोध, माया और लोभकषायकी अपेक्षा भी करना चाहिए, क्योंकि उससे
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ बहुअं पि साहेयव्वमिदि पदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणइ
* एत्तो छत्तीसपदेहिं अप्पाबहुधे कायव्वं ।
$ १७७. एदम्हादो चेव सत्थाणप्पाबहुआदो साहेयूण परत्थाणप्पाबहुअं पि छत्तीसपदेहिं पडिबद्धं कायव्वमिदि वुत्तं होइ । तं जहा—उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए उवजुत्तजीवा थोवा । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए कोधोवजोगद्धाए परिणदजीवा विसेसाहिया । एत्थ कारणं माणद्धादो कोधद्धा विसेसाहिया, तेण रासी वि तप्पडिभागो चेव होइ त्ति वत्तव्वं । विसेसो पुण पवाइजंतोवएसेणावलियाए असंखेजदिभागपडिभागिओ। एवमुवरिमपदेसु वि विसेसाहियपमाणमणुगंतव्वं । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए मायोवजोगद्धाए परिणदजीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए लोहोवजोगद्धाए जीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे जहणियाए माणोवंजोगद्धाए जीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । उकस्सए कसायुदयट्ठाणे · जहणियाए कोहोवजोगद्धाए जीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कमायुदयट्ठाणे जहणियाए मायोवजोगद्धाए जीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे जहणियाए लोभोवजोगद्धाए जीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे अजहण्णमणुक्कस्सियासु माणोवजोगद्धासु इन तीनों कषायोंके अल्पबहुत्वके कथनमें कोई भेद नहीं है। अब इसी अल्पबहुत्वके आश्रयसे परस्थान अल्पबहुत्वकी भी सिद्धि कर लेनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अब इससे आगे छत्तीस पदोंके द्वारा अल्पबहुत्व करना चाहिए।
६ १७७. इसी स्वस्थानअल्पबहुत्वसे साधकर छत्तीस पदोंसे सम्बन्ध रखनेवाला परस्थान अल्पबहुत्व करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यथा-उत्कृष्ट कषायउदयस्थानमें और उत्कृष्ट मानोपयोगकालमें उपयुक्त हुए जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और उत्कृष्ट क्रोधोपयोगकालमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं । यहाँपर मानके कालसे क्रोधके कालका विशेष अधिक होना इसका कारण है, इसलिए जीवराशि भी उसी प्रतिभागके हिसाबसे अधिक है ऐसा यहाँ कहना चाहिए। किन्तु विशेषका प्रमाण प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना है। इसी प्रकार आगेके पदोंमें भी विशेष अधिकका प्रमाण जान लेना चाहिए। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और उत्कृष्ट मायोपयोगकालमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और उत्कृष्ट लोभोपयोगकालमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और जघन्य मानोपयोगकालमें स्थित जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और जघन्य क्रोधोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और जघन्य मायोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और जघन्य लोभोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें और अजघन्य-अनुत्कृष्ट मानोपयोगकालोंमें जीव असंख्यातगुणे
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३
गाथा ६६ ]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
जीवा असंखेञ्जगुणा । गुणगारो पुव्वत्तो चैव वत्तव्वो । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे अणुक्कस्सिया को धोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे अजहणमणुक्कस्सियासु मायोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । उक्कस्सए कसायुदट्ठाणे अजहण्णमणुक्कस्सियासु लोभोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ! आवलियाए असंखेज्जदिभागो । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सिया० कोहोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सिया० मायोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सिया० लोभोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे जहणिया० माणोवजोगद्धा० जीवा असंखेजगुणा । गुणगारो पुव्वं व वत्तव्वो । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे जहण्णिया० कोहोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे जहण्णिया० मायोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुयट्ठाणे जहणिया ० लोहोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे अजहण्णमणुक्कस्सिया० माणोवजोगवा ० जीवा असंखेजगुणा । एत्थ वि सो चेव गुणगारो । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे अजहण्णमणुकस्सिया कोहोजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे अजहण्णमणुकस्सिया मायोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे अजहण्णमणुक० लोभोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । अजहण्णमणुक० कसायुदयट्ठाणे ० हैं। गुणकार पूर्वोक्त ही कहना चाहिए। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें और अजघन्यअनुत्कृष्ट क्रोधोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थान में और अजघन्य- अनुत्कृष्ट मायोपयोगकालों में जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थान में और अजघन्य - अनुत्कृष्ट लोभोपयोगकालोंमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषाय-उदयस्थानमें और उत्कृष्ट मानोपयोगकाल में जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे जघन्य कषाय-उदयस्थान में और उत्कृष्ट प्रोवोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषाय - उदयस्थानमें और उत्कृष्ट मायोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषाय-उदयस्थानमें और उत्कृष्ट लोभोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषाय उदयस्थानमें और जघन्य मानोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार पहलेके समान कहना चाहिए । उनसे जघन्य कषाय - उदयस्थानमें और जघन्य क्रोधोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं । उनसे जघन्य कषाय-उदयस्थानमें और जघन्य मायोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं । उनसे जघन्य कषाय- उदयस्थानमें और जघन्य लोभोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषाय - उदयस्थानमें और अजघन्य अनुत्कृष्ट मानोपयोगकालों में जीव असंख्यातगुणे हैं । यहाँपर भी वही गुणकार है । उनसे जघन्य कषाय- उदयस्थानमें और अजघन्य-अनुत्कृष्ट क्रोधोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषाय-उदयस्थानमें और अजघन्य - अनुत्कृष्ट मायोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य कषायउदयस्थानमें और अजघन्य- अनुत्कृष्ट लोभोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय- उदयस्थानोंमें और उत्कष्ट मानोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं ।
1
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ उक्कस्सिया० माणोवजोगद्धा० जीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? असंखेजाओ सेढीओ । अजहण्णमणुक० कसायुदयट्ठाणे० उक्कस्सिया० कोहोवजोगद्धा. जीवा विसेसाहिया । अजहण्णमणुक० कसायुदयट्ठाणे० उक्कस्सिया० मायोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । अजहण्णमणुक० कसायुदयट्ठाणे० उक्क० लोभोव० जीवा विसे । अजहण्णमणुक्कस्सए० कसायुदयट्ठाणे० जहणिया० माणोवजोगद्धा० जीवा असंखेजगुणा। अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठा जहणिया• कोहोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया । अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठा. जहणिया० मायोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया। 'अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठा० जहणिया० लोभोवजोगद्धा० जीवा विसेसाहिया। अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठा० अजहण्णमणुक्कस्सियासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेजगुणा । अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठा० अजहण्णमणुक्कस्सियासु कोहोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठा० अजहण्णमणुक्कस्सियासु मायोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया। अजहण्णमणुक्कस्स० कसायुदयट्ठाणेसु अजहण्णमणुक्कस्सियासु लोभोवजोगद्धासु जीवा विसेसाहिया । एवमोघेण परत्थाणप्पाबहुअमेदं परूविदं। एवं चेव तिरिक्खमणुसगदीसु वि वत्तव्यं, विसेसाभावादो। णिरयगदीसु परत्थाणप्पाबहुअं चिंतिय णेदव्वं । तदो चउत्थीए गाहाए अत्थविहासा समप्पदि त्ति उवसंहारवक्कमाह
* एवं चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता । गुणकार क्या है ? असंख्यात जगच्छ्रेणिप्रमाण गुणकार है । उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषायउदयस्थानोंमें और उत्कृष्ट क्रोधोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्यअनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानों में और उत्कृष्ट मायोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और उत्कृष्ट लोभोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक है। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और जघन्य मानोपयोगकालमें जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और जघन्य क्रोधोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानों में और जघन्य मानो पयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानों में और जघन्य लोभोपयोगकालमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और अजघन्य-अनुत्कृष्ट मानोपयोगकालोंमें जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्यअनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और अजघन्य-अनुत्कृष्ट क्रोधोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और अजघन्य-अनुत्कृष्ट मायोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानोंमें और अजधन्य-अनुत्कृष्ट लोभोपयोगकालोंमें जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघसे परस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया। इसी प्रकार तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिमें भी कहना चाहिए, क्योंकि ओघकथनसे इनके कथनमें कोई भेद नहीं है। नरकगति और देवगतिमें परस्थान अल्पबहुत्वको विचारकर जानना चाहिए। इसके बाद चौथी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त होता है इस आशयके उपसंहार वाक्यको कहते हैं
* इस प्रकार चौथी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६७ ]
पंचमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणां
$ १७८. सुगममेदं पयदत्थोवसंहारवक्कं । एवमेदं समानिय संपहि पंचमगाहासुत्तस्स जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* केवडिगा उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणाकसाएसु चेति एदिस्से गाहाए अत्थविहासा ।
८५
$ १७९. सुगममेदं, एदिस्से पंचमीए गाहाए अत्थविहासा एत्तो अहिकीरदिति पदुष्पायणफलदात्तो | णवरि गाहाए पुव्वद्धमिदि सहपरमुच्चारिय तेण देसामासयेण सव्विस्से चैव गाहाए सपुच्चपच्छद्धाए परामरसो एत्थ कओ दट्ठव्वो । एसा च गाहा कोहादिकसायोवजुत्ताणं परूवणकुदाए अट्टण्हमणियोगद्दाराणं सूचणट्टमागया । तदो सूचणासुत्तमेदमिति पदुप्पायणमाह
* एसा गाहा सूचणासुत्तं ।
$ १८०. सुगमं । संपहि किमेदेण सूचिजमाणमत्थजादमिच्चासंकाए उत्तरमाह* एदीए सूचिदाणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि ।
$ १८१. एदीए गाहाए कोहादिकसायोवजोगजुत्तजीवाणं परूवणट्टदाए अट्ठ अणियोगद्दारा णि सूचिदाणि ति भणिदं होइ । संपहि काणि ताणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि ति आसंकिय पुच्छासुत्तमाह-
$ १७८. प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेवाला यह वचन सुगम है । इस प्रकार इसको समाप्त कर अब पाँचवीं सूत्रगाथा के अवसरप्राप्त अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* 'सदृश कषायोपयोगवर्गणाओंमें कितने जीव उपयुक्त हैं' इस गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हैं ।
$ १७९. यह वचन सुगम है, क्योंकि इस पाँचवीं गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान अधिकार प्राप्त है इस बातका कथन करना इसका फल है । इतनी विशेषता है कि गाथा के पूर्वार्धका शब्दपरक उच्चारण करके उससे देशामर्ष कभावसे पूर्वार्ध और उत्तरार्ध सहित पूरी गाथाका परामर्श यहाँपर किया गया जानना चाहिए। यह गाथा क्रोधादि कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंका कथन करनेके लिए आठों अनुयोगद्वारोंका सूचन करनेके लिए आई है । इसलिए यह सूचनासूत्र है इस बातका कथन करनेके लिए कहते हैं—
* यह गाथा सूचनासूत्र है ।
१८०. यह वचन सुगम है। अब इसके द्वारा क्या अर्थसमूह सूचित किया जा वाला है इस आशंकाका उत्तर देते हैं
* इसके द्वारा आठ अनुयोगद्वार सूचित किये गये हैं।
$ १८१. क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका कथन करनेके लिए इस गाथा द्वारा आठ अनुयोगद्वार सूचित किये गये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब वे आठ अनुयोगद्वार कौनसे हैं ऐसी आशंका कर पृच्छासूत्र कहते हैं—
1
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
___जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ * तं जहा। $ १८२. सुगमं ।
* संतपरूवणा दव्वपमाणं खेत्तपमाणं फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुगं च।
६१८३. एवमेदाणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि एदीए गाहाए सूचिदाणि ति वुत्तं होइ । संपहि एदस्स गाहासत्तस्स कदमम्मि अवयवे कदममणिओगद्दारं पडिबद्धमिदि एदस्स जाणावणमुवरिमं पबंधमाह
* केवडिगा उवजुत्ता त्ति दव्वपमाणाणुगमो ।
६ १८४. एम्मि गाहापढमावयवे दव्वपमाणाणुगमो पडिबद्धो त्ति भणिदं होइ, कोहादिकसायेसु उवजुत्ता जीवा केवडिया होति ति पुच्छामुहेणेत्थ तस्स पडिबद्धत्तदंसणादो।
* सरिसीसु च वग्गणा-कसाएसुत्ति कालाणुगमो ।
$ १८५. एदम्मि गाहासुत्तविदियावयवे कालाणुगमो णिबद्धो त्ति भणिदं होदि । कथमेत्थ कालाणुगमस्स णिवद्धत्तमिदि चे ? वुच्चदे-सरिसीसु च एगकसायपडिबद्धासु
* वे जैसे। $ १८२. यह वचन सुगम है।
* सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ।
६ १८३. इस प्रकार ये आठ अनुयोगद्वार इस गाथा द्वारा सूचित किये गये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस गाथासूत्रके किस अवयवमें कौनसा अनुयोद्वार प्रतिबद्ध है इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका प्रबन्ध कहते हैं
* 'कितने जीव उपयुक्त हैं। इस वचन द्वारा द्रव्यप्रमाणानुगम सूचित किया गया है।
.६ १८४. गाथाके इस प्रथम पादमें द्रव्यप्रमाणानुगम प्रतिबद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि 'क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीव कितने हैं इस पृच्छा द्वारा यहॉपर उक्त गाथावचन प्रतिबद्ध देखा जाता है।
___ * 'सदृश कषायोपयोगवर्गणाओंमें इस वचन द्वारा कालानुगम सूचित किया गया है।
१८५. गाथासूत्रके इस दूसरे पादमें कालानुगम निबद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-इसमें कालानुगमका निबद्धपना कैसे है ? समाधान–'सरिसीसुच' अर्थात् एक कषायसे सम्बन्ध रखनेवाली 'वग्गणाकसाएसु'
१ ता०प्रती भणिदं इति पाठः ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६७]
पंचमगाहामुत्तस्स अत्थपरूवणा वग्गणाकसायेसु कसायोवजोगवग्गणासु केवचिरसुवजुत्ता होंति ति सुत्तत्थावलंबणादो कालागुणमस्स पडिबद्धत्तमेत्थ दट्टव्वं ।
* 'केवडिगा च कसाए त्ति भागाभागो। ।
$ १८६. एदम्मि तदियावयबे भागाभागाणुगमो णिबद्धो ति गहेयव्वो, कम्हि कसाये कसायोवजुत्तसव्वजीवाणं केवडिया भागा उवजुत्ता होति त्ति षदसंबंधावलंबणादो ।
* 'के के च विसिस्सदे केणे' त्ति अप्पाबहुवे ।
१८७. एदम्मि गाहामुत्तचरिमावयवे अप्पाबहुआणुगमो णिबद्धो, के कसायोवजुत्ता जीवा कत्तो कसायोवजुत्तजीवरासीदो केत्तियमेत्तेण विसिस्सदे अहिया होंति त्ति पदसंबंधं कादूण सुत्तत्थावलंबणादो ।
* एवमेदाणि चत्तारि अणिओगहाराणि सुत्तणिबद्धाणि । $ १८८. कुदो १ चदुण्हमेदेसि णामणिद्देसं कादणेदम्मि गाहासुत्ते णिद्दिद्वत्तादो । * सेसाणि सूचणाणुमाणेण कायव्वाणि ।
$ १८९. सेसाणि पुण संतपरूवणादीणि चत्तारि अणिओगद्दाराणि सूचणाणुमाणेणेत्थ गहेयव्वाणि, सुत्तणिदिवाणं चउण्हमणियोगद्दाराणं देसामासयभावेणावट्ठाणदंसणादो त्ति भणिदं होइ । तम्हाएदाणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि एदीए गाहाए सूचिदाणि अर्थात् कषायोपयोगवर्गणाओंमें जीव कितने काल तक उपयुक्त होते हैं इस प्रकार सूत्रके अर्थका अवलम्बन करनेसे प्रकृतमें कालानुगम प्रतिबद्ध है ऐसा जानना चाहिए।
___ * 'किस कषायमें कौन कितनेवाँ भाग उपयुक्त हैं। इस वचन द्वारा भागाभागानुगम सूचित किया गया है।
$ १८६. गाथाके इस तृतीय पादमें भागाभागानुगम निबद्ध है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि किस कषायमें कषायसे उपयुक्त हुए सब जीवोंके कितने भाग जीव उपयुक्त होते हैं इस प्रकार पदके सम्बन्धका अवलम्बन लिया गया है।
- * “कौन-कौन कषायवाले जीव किस कषायवाले जीवोंसे अधिक होते हैं। इस वचन द्वारा अल्पबहुत्व सूचित किया गया है।
$ १८७. गाथासूत्रके इस अन्तिम पादमें अल्पबहुत्वानुगम निबद्ध है, क्योंकि कषायसे उपयुक्त हुए कौन जीव कषायसे उपयुक्त हुई किस जीवराशिसे कितने 'विसिस्सदे' अर्थात् अधिक होते हैं इस प्रकार पद सम्बन्ध करके सूत्रके अर्थका अवलम्बन लिया गया है।
* इस प्रकार ये चार अनुयोगद्वार सूत्रनिबद्ध हैं। $ १८८. क्योंकि इन चारका नामनिर्देश करके ये इस गाथासूत्रमें निर्दिष्ट किये गये हैं। * शेष अनुयोगद्वार सूचनावश अनुमानद्वारा ग्रहण कर लेने चाहिए ।।
६ १८९. किन्तु शेष सत्प्ररूपणा आदि चार अनुयोगद्वार सूचनावश अनुमानद्वारा यहाँपर ग्रहण कर लेने चाहिए, क्योंकि सूत्र में निर्दिष्ट किये गये चार अनुयोगद्वारोंका देशामर्षकभावसे अवस्थान देखा जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए ये आठ अनु
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
८८
ति सिद्धं । संपहि देहिं अट्ठहिं अणिओगद्दारेहिं कसायोवजुत्ताणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि मग्गणट्ठाणाणि होंति त्ति जाणावणट्ठमिदमाह -
* कसायोवजुत्ते अट्ठहिं अणिओगद्दारेहिं गदि - इंदिय-काय - जोग - वेदणाण-संजम - दंसण-लेस्स- भविय सम्मत्त-सण्णि आहारा त्ति एदेसु तेरससु अणुगमेसु मग्गियूण ।
$ १९० देसु गढ़ियादितेरस मग्गणट्ठाणेसु कसायोवजुत्ता जीवा अणंतरणिद्दिट्ठेहिं अट्टहिं अणिओगद्दारेहिं अणुगंतव्वा त्ति वृत्तं होइ । साम्प्रतं यथोक्तेषु मार्गणास्थानेषु यथोक्तैरनुयोगद्वारैः सदादिभिर्विशेषितान् कषायोपयुक्त। नन्वेषयिष्यामः । तद्यथा - तत्थ संतपरूवणाए दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण अत्थि कोह- माण- मायालोभोवजुत्ता जीवा । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं ।
$ १९१. दव्वपमाणानुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण कोह -माण - माया - लोभोवजुत्ता दव्वपमाणेण केवडिया १ अनंता । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण निरयगदीए णेरइया दव्वपमाणेण केवडिया ! असंखेजा । एवं सव्वरइयसव्वपंचिदियतिरिक्ख- सव्वमणुस - सव्वदेवा त्ति । णवरि मणुसपञ्जत्त - मणुसिणी -सव्वाडदेवा चदुकसायोवजुत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ९ संखेजा । एवं जाव अणाहारिति ।
योगद्वार इस गाथाद्वारा सूचित किये गये हैं यह सिद्ध हुआ । अब इन आठ अनुयोगद्वारोंके अवलम्बनसे कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंका अनुसन्धान करनेपर वहाँ ये मार्गणास्थान होते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए कहते हैं—
* कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका आठ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार इन तेरह अनुगमोंमें मार्गण करके ।
$ १९०. इन गति आदि तेरह मार्गणास्थानों में कषायोंसे उपयुक्त हुए जीव अनन्तर पूर्व कहे गये आठ अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब यथोक्त मार्गणास्थानोंमें सत् आदि यथोक्त अनुयोगद्वारोंसे विशेषताको प्राप्त हुए कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंका अन्वेषण करते हैं । यथा - उनमें से सत्प्ररूपणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय में उपयुक्त जीव हैं । इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें कथन करना चाहिए ।
$ १९१. द्रव्यप्रमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे क्रोध, मान, माया और लोभ कषायमें उपयुक्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार तिर्यश्च जीव जानने चाहिये । आदेशसे नरकगति में नारकी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्य, सब मनुष्य और सब देव जानने चाहिए। इतनी विशेषता है कि चारों कषायों में उपयुक्त हुए मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
गाथा ६७ ]
खेत्त-पोसणं जाणिण णेदव्वं ।
$ १९२. कालानुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण कोहादिकसायो जुत्ता केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं गदियादिसव्वमग्गणासु णेयव्वं ।
$ १९३. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण कोहादिकसायोवजुत्ताणं णाणाजीवे पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुतं । एवं गदियादिसु णेदव्वं ।
$ १९४. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिद्देसो–ओघेण आदेसेण य । ओघेण कोहोजुत्ता सव्वजीवा • केवडिओ भागो १ चदुब्भागो देसूणो । एवं माण- मायोवजुत्ताणं पि वत्तत्व्वं । लोभोवजुत्ता सव्वजीवा ० केवडिओ भागो ? चदुब्भागो सादिरेओ । एवं तिरिक्ख- मणुस्सेसु । आदेसेण णेरइया कोहोवजुत्ता सव्वजीवा० केवडिओ भागो ? सखेजा भागा । सेसं संखेजदिभागो । एवं सव्वणेरइय० । देवगदीए लोभोवजुत्ता सव्वजीवा ० केवडिओ भागो ? संखेजा भागा। मायादिकसायोवजुत्ता जीवा संखेजदिभागो । एवं दव्वं जाव अणाहारि ति ।
हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । क्षेत्र और स्पर्शनका जानकर कथन करना चाहिए ।
$ १९२. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघ क्रोधादि कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार गति आदि सब मार्गणाओं में जानना चाहिए ।
$ १९३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार गति आदि मार्गणाओं में जानना चाहिए ।
$ १९४. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे क्रोधमें उपयुक्त हुए जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? कुछ कम चतुर्थभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मान और माया कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका भी कथन करना चाहिए । लोभकषाय में उपयुक्त हुए जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? साधिक चतुर्थ भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार तिर्यन और मनुष्यों में जान लेना चाहिए । आदेशसे क्रोध कषायमें उपयुक्त हुए नारकी जीव सब नारकी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष कषायों में उपयुक्त हुए जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । देवगति में लोभकषाय में उपयुक्त हुए जीव सब देव जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । माया आदि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीध संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
१२
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ १९५. अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओषेण सव्वत्थोवा माणकसायोवजुत्ता जीवा । कोहकसायोवजुत्ता जीवा विसेसाहिया । मायकसायोवजुत्ता विसेसाहिया । लोभकसायोवजुत्ता विसेसाहिया। एवं तिरिक्खमणुस्सेसु । णिरयगदीए सव्वत्थोवा लोभोवजुत्ता जीवा । मायोवजुत्ता संखेजगुणा । माणोवजुत्ता जीवा संखेजगुणा। कोहोवजुत्ता संखेजगुणा । एवं देवगदीए वि । णवरि कोहादी वत्तव्वं । एवं जाव अणाहारि त्ति णेदव्वं । एवमेदेसु तेरससु अणुगमेसु संतपरूवणादीहिं कसायोवजुत्ताणं मग्गणं कादूण तदो किं कायव्वमिदि आसंकाए इदमाह
* महादंडयं च कादूण समत्ता पंचमी गाहा।।
$ १९६. चदुगदिसमासप्पाबहुअविसओ दंडओ महादंडओ ति एत्थ विवक्खिओ, एगेगगदिपडिबद्धदंडगेहिंतो एदस्स बहुविसयत्तेण तहाभावोवत्तीदो । सो च महादंडओ एवमणुगंतव्वो
$ १९७. सव्वत्थोवा मणुसगदीए माणोवजुत्ता जीवा। कोहोवजुत्ता जीवा विसेसाहिया । मायोवजुत्ता जीवा विसेसाहिया। लोभोवजुत्ता जीवा विसेसाहिया । णिरयगदीए लोभोवजुत्ता० असंखेजगुणा। मायोव० संखेजगुणा । माणोव०
$ १९५. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मानकषायमें उपयुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे माया कषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे लोभ कषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें जानना चाहिए । नरकगतिमें लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव सवसे थोड़े हैं। उनसे मायाकषायमें उपयक्त हए जीव संख्यातगणे हैं। उनसे मानकषायमें उपयुक्त हए जीव संख्यातगणे हैं। उनसे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार देवगतिमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायको आदि कर कथन करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार इन तेरह अनुगमोंमें सत्प्ररूपणा आदिके द्वारा कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका अनुसन्धान करनेके बाद क्या करना चाहिए ऐसी आशंका होनेपर यह कहते हैं
* और महादण्डक करके पाँचवीं गाथा समाप्त हुई ।
$ १०६. चारों गतियोंके समुदायरूप अल्पबहुत्वको विषय करनेवाले दण्डकको महादण्डक कहते हैं यह प्रकृतमें विवक्षित है, क्योंकि एक-एक गतिसे सम्बन्ध रखनेवाले दण्डकसे यह बहुतको विषय करनेवाला होनेसे इसे महादण्डकपना बन जाता है । और वह महादण्डक इस प्रकार जानना चाहिए
$ १९७. मनुष्यगतिमें मानकषायमें उपयुक्त हुए जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे नरकगतिमें लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीव
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६८ ]
छट्ठगाहा सुत्तस्स अत्थपरूवणा
९१
1
1
संखेजगुणा । कोहोव • संखेज्जगुणा । देवगदीए कोहोवजुत्ता असंखेजगुणा | माणोवजुत्ता संखेजगुणा । मायोवजुत्ता संखेज्जगुणा । लोभोवजुत्ता संखेज्जगुणा । तिरिक्खगदी माणोवजुत्ता अनंतगुणा । कोहोव० विसेसाहिया । मायो० विसेसाहिया । लोभोवजुत्ता विसेसाहिया । एवमेसो गरमग्गणा विसओ एगो महादंडओ | एवमिंदियमग्गणा ए वि पंचण्हमिंदियाणं समासेण चदुकसायोवजुत्ताणमप्पाबहुए कीरमाणे विदिओ महादंडगो होइ । पुणो एदेणेव विहिणा कसायमग्गणं मोत्तूण सेससव्वमग्गणासु पादेकमेगेगमहादंडओ जाणिय णेयव्वो । एवं णीदे पंचमी गाहा समता भवदि ।
* 'जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुव्वा ते ' त्ति एदिस्से - छुट्टीए गाहाए कालजोणी कायव्वा ।
$ १९८. एदेण गाहापुव्वद्धमिदि सद्दपरमुच्चारिय पच्छद्धस्स वि देसा - मासयण्णाण बुद्धीए परामरसं काढूण तदो एदिस्से छुट्टीए गाहाए अत्थविहासणटुं कालजोणी कायव्याति णिहिं । कालो चेब जोणी आसयो पयदपरूवणार कायव्वो तिवृत्तं हो । कुदो एवं १ एदिस्से गाहाए वट्टमाणसमय-माणादिकसायोवजुत्ताण
संख्यातगुणे हैं। उनसे मानकषाय में उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे देवगतिमें क्रोधकषाय में उपयुक्त हुए जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे मानकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे । उनसे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे लोभकषाय में उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तिर्यञ्चगति में मानकषाय में उपयुक्त हुए जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे क्रोधकषाय में उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे लोभकषाय में उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं । इस प्रकार यह गतिमार्गणाविषयक एक महादण्डक है । इसी प्रकार इन्द्रियमार्गणामें भी पाँच इन्द्रियोंके समुदायके साथ चार कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंका अल्पबहुत्व करनेपर दूसरा महादण्डक होता है । पुनः इसी विधिसे कषायमार्गणाको छोड़कर शेष सब मार्गणाओंमेंसे प्रत्येकके आश्रयसे एक-एक महादण्डकको जानकर ले जाना चाहिए । इस प्रकार ले जाने पर पाँचवीं गाथा समाप्त होती है ।
* 'जो जो जीव वर्तमान समय में जिस कषायमें उपयुक्त हैं क्या वे अतीत कालमें उसी कषाय में उपयुक्त थे' इस छठी गाथाकी कालके आश्रयसे प्ररूपणा करनी चाहिए ।
$ १९८. इस द्वारा गाथाके पूर्वार्धका उल्लेखपूर्वक उच्चारण करके तथा इसके उत्तरार्ध का भी देशा मर्षक न्याय से बुद्धिद्वारा परामर्श करके अनन्तर इस छठी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करनेके लिए कालयोनि करना चाहिए । प्रकृत प्ररूपणा में काल ही योनि अर्थात् आश्रय करने योग्य है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- ऐसा क्यों है ?
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
मदीदाणादका माण - णोमाण- मिस्सादिकालवियप्पपडिबद्धपमाणपरूवणाए बिद्धता । कथमेदं णव्वदे ? जे जे जीवा जम्हि कसाए वट्टमाणसमए उवजुत्ता ते तप्पमाणा चेव होतॄण किण्णु भूदपुव्वा किं माणोवजुत्ता चेव होतॄण माणकालेण परिणदा आहो मानवदिरित्तसेस कसायोवजुत्ता होदूण णोमाण कालपरिणदा, किं वा माणणोमाणेहिं जहापविभागमकमोवजुत्ता होतॄण मिस्सयकालेण परिणदा त्ति एवमादिपुच्छा हिसंबंधेण सुत्तत्थवक्खाणावलंबणादो | एत्थ गाहापुव्वद्धम्मि अदीदकालविसयो पुच्छासो पडिवो । 'होहिंति च उवजुत्ता' त्ति एदम्मि वि पच्छद्धावयवे अणागयकालविसयो पुच्छाणिदेसो णिबद्धो । एवमोघेण पुच्छाणिद्देसं काढूण तदो आदेस - परूवणाए वि किंचि वीजपदमुवइङ्कं ' एवं सव्वत्थ बोद्धव्या' ति । तदो एदिस्से छुट्टीए गाहाए कालजोणिया परूवणा कायव्वा त्ति सिद्धं ।
I
९२
[ उवंजोगो ७
समाधान —क्योंकि इस गाथा में वर्तमान समय में मानादि कषायों में उपयुक्त हुए जीवोंकी अतीत और अनागत कालमें मान, नोमान और मिश्र आदि कालके भेदोंसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रमाणकी प्ररूपणा निबद्ध है ।
शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — क्योंकि जो जो जीव वर्तमान समय में जिस कषायमें उपयुक्त हैं वे सबके सब क्या भूतपूर्व अर्थात् अतीत कालमें भी मानकषाय में ही उपयुक्त होकर क्या मानकालसे परिणत थे या मानव्यतिरिक्त शेष कषायोंमें उपयुक्त होकर नोमानकालसे परिणत थे अथवा क्या यथाविभाग मान और नोमानरूपसे युगपत् उपयुक्त होकर मिश्रकालसे परिणत थे इत्यादि पृच्छाके सम्बन्धसे सूत्रार्थके व्याख्यानका अवलम्बन लिया है, इससे जाना जाता है कि इस गाथामें उक्त प्ररूपणा निबद्ध है ।
यहाँ गाथा पूर्वार्ध में अतीतकालविषयक पृच्छाका निर्देश किया गया है तथा गाथा के उत्तरार्ध के 'होहिं ति च उबजुत्ता' इस पादमें भी अनागत कालविषयक पृच्छाका निर्देश किया गया है । इस प्रकार ओघसे पृच्छाका निर्देश करके तदनन्तर आदेशप्ररूपणासम्बन्धी भी 'एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा' इस चरणद्वारा संक्षेप में बीजपदका निर्देश किया गया है । इसलिए इस छठी गाथाकी कालके आश्रयसे प्ररूपणा करनी चाहिए यह सिद्ध हुआ ।
विशेषार्थ — कषायके चार भेदोंमेंसे वर्तमान समयमें जो जीव जिस कषाय से उपयुक्त हैं वे अतीत कालमें क्या उसी कषायसे उपयुक्त थे या भविष्य कालमें उसी कषायसे उपयुक्त रहेंगे ऐसी पृच्छा होनेपर मानकषायकी अपेक्षा इसका उत्तर तीन प्रकार से होगा । प्रथम उत्तर होगा कि वे सब जीव अतीत कालमें भी मानकषायसे उपयुक्त थे या मानकषाय से उपयुक्त रहेंगे। दूसरा उत्तर होगा कि वे सब जीव अतीत कालमें क्रोध, माया और लोभ कषायसे उपयुक्त थे या क्रोध, माया और लोभकषायसे उपयुक्त रहेंगे। तथा तीसरा उत्तर होगा कि उन जीवों में से कुछ तो क्रोध, माया और लोभकषायसे उपयुक्त थे और कुछ जीव मानकषायसे उपयुक्त थे 'या कुछ जीव तो क्रोध, माया और लोभ कषायसे उपयुक्त रहेंगे और कुछ जीव मानकपाय से उपयुक्त रहेंगे। उक्त पृच्छाके ये तीन उत्तर हैं। अतएव इस हिसाब से काल भी तीन भागों में विभक्त हो जाता है- - प्रथम उत्तर के अनुसार मानकाल, दूसरे उत्तर के अनुसार
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथ ६८]
छट्ठगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा $ १९९. संपहि पयदपरूवणाए अवसरकरण8 पुच्छावकमाह* तं जहा।
२००. सुगमं ।
* जे अस्सि समए माणोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो इदि एवं तिविहो कालो।
$२०१. जे जीवा एदम्मि वट्टमाणसमये माणोवजुत्ता अणंता होदूण दीसंति तेसिं तीदे काले तिविहो कालो वोलीणो—माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो चेदि । तत्थ जम्मि कालविसेसे एसो आदिट्ठो वट्टमाणसमयमाणोवजुत्ता जीवरासी अणूणाहिओ होदूण माणोवजोगेणेव परिणदो लब्भइ सो माणकालो त्ति भण्णइ । एसो चेव णिरुद्धजीवरासो जम्मि कालविसेसे एगो वि माणो अहोदण कोह-माया-लोमेसु चेव जहापविभागं परिणदो सो णोमाणकालो त्ति भण्णदे माणवदिरित्तसेसकसायाणं नोमानकाल और तीसरे उत्तरके अनुसार मिश्रकाल ये उनकी संज्ञायें हैं। जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायसे उपयुक्त हैं वे सबके सब यदि अतीत कालमें मानकषायसे उपयुक्त थे भविष्यकालमें मानकषायसे उपयुक्त रहेंगे तो उनके उस कालकी मानकाल संज्ञा है। इसी प्रकार जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायसे उपयुक्त हैं वे सबके सब अतीतकालमें यदि मानके सिवाय अन्य कषायसे उपयुक्त थे या अन्य कषायसे उपयुक्त रहेंगे तो उनके उस कालकी नोमानकाल संज्ञा है। तथा इसी प्रकार जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायसे उपयुक्त हैं उनमेंसे कुछ तो अतीत कालमें मानके सिवाय अन्य कषायसे उपयुक्त थे और कुछ मानकषायसे उपयुक्त थे या कुछ अन्य कषायसे उपयुक्त रहेंगे और कुछ मानकषायसे उपयुक्त रहेंगे तो उनके उस कालकी मिश्रकाल संज्ञा है। यह मानकषायको विवक्षित कर कालके भेदोंका निरूपण है । इसी प्रकार अन्य कषायोंको विवक्षित कर आगमानुसार कालके भेदोंका निरूपण कर लेना चाहिए। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जब जो कषाय विवक्षित हो तब उसके अनुसार कालके भेदोंकी संज्ञा हो जाती है। जैसे क्रोधकाल, नोक्रोधकोल और मिश्रकाल आदि।
$ १९९. अब प्रकृत प्ररूपणाका अवसर करनेके लिए पृच्छावाक्यको कहते हैं* वह जैसे ।
२००. यह सूत्र सुगम है।
* जो जीव इस समय मानकषायसे उपयुक्त हैं उनका अतीत कालमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल इस प्रकार तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ है।
६२०१. जो इस अर्थात् वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त अनन्त जीव दिखलाई देते हैं उनका अतीतकालमें तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ है-मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल। उनमें से जिस कालविशेषमें यह विवक्षित वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशि न्यूनाधिक हुए विना मानोपयोगसे ही परिणत होकर प्राप्त होती है उसे मानकाल कहते हैं । तथा यही विवक्षित जीवराशि जिस कालविशेषमें एक भी मानरूप न होकर यथाविभाग क्रोध, माया और लोभरूपसे ही परिणत हुई उस कालविशेषको नोमानकाल कहते हैं, क्योंकि मानके सिवाय शेष कषायें नोमान संज्ञाके योग्य हैं इस विवक्षाका यहाँ अवलम्बन लिया गया
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
९४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ णोमाणववएसारिहंतेणावलंबणादो । पुणो इमो चेव णिरुद्धजीवरासी जम्मि काले थोवो माणोवजुत्तो थोवो च कोह-माया-लोमेसु जहासंभवमुवजुत्तो होदण परिणदो दिट्ठो सो मिस्सयकालो णाम । तम्हा माणोवजुत्ताणमेसो सत्थाणविसयो तिविहो कालो समदिक्कतो त्ति सम्ममवहारिदं । ण केवलमेसो तिविहो चेव कालपरिवत्तो विवक्खियजीवाणं, किंतु अण्णो वि कालपरिवत्तो परत्थाणविसयो समइंकतो त्ति पदुप्पायणढमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* कोहे च तिविहो कालो।
$ २०२. तस्सेव वट्टमाणसमयमाणोवजुत्तजीवरासिस्स कोहे वि विविहो कालो अइक्कतो त्ति वुत्तं होइ । तं जहा–कोहकालो जोकोहकालो मिस्सयकालो चेदि । तत्थ जम्मि समये सो चेव वट्टमाणसमयमाणोवजुत्तजीवरासी कसायंतरपरिहारेण कोहकसाएणेव परिणदो होदणच्छिदो सो माणोवजुत्ताणं कोहकालो त्ति भण्णदे । पुणो एसो चेव जीवरासी जम्मि कालविसेसे कोह-माणेसु एक्केण वि जीवेणाहोदूण माया-लोभेसु चेव परिणदो सो माणोवजुत्ताणं णोकोहकालो त्ति विण्णायदे । पुणो माणे एगो वि जीवो अहोदण थोवो कोहोवजुत्तो थोवो च माया-लोभोवजुत्तो होदूण जम्हि काले परिणदो सो माणोवजुत्ताणं कोहमिस्सयकालो ति भण्णदे । अहवा णोकोह-मिस्सयकालेसु माणेण वि परिणामिदे ण दोसो, तेण वि परिणदस्स णोकोह
है । तथा यही विवक्षित जीवराशि जिस कालमें कुछ मानमें उपयुक्त होकर और कुछ क्रोध, माया और लोभमें यथासम्भव उपयुक्त होकर परिणत दिखाई दी उसकी मिश्रकाल संज्ञा है। इसलिए मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका स्वस्थानविषयक यह तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ यह सम्यक् प्रकारसे निश्चित किया। विवक्षित जीवोंका तीन प्रकारका केवल यही कालपरिवर्तन नहीं है किन्तु परस्थानविषयक अन्य भी कालपरिवर्तन व्यतीत हुआ है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* क्रोधकषायमें तीन प्रकारका काल होता है ।
६ २०२. वर्तमान समयमें मानमें उपयुक्त हुई उसी जीवराशिका क्रोधकषायमें भी तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यथा-क्रोधकाल नोक्रोधकाल और मिश्रकाल । उनमेंसे वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हुई वही जीवराशि जिस समयमें अन्य कषायोंका परिहार कर क्रोधकषायरूपसे परिणत होकर रही, वह मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवों का क्रोधकाल कहा जाता है । पुनः यही जीवराशि जिस कालविशेषमें एक भी जीव क्रोध और मानरूप न होकर माया और लोभ रूपसे ही परिणत हुई, वह मानमें उपयुक्त हुए जीवोंका नोक्रोधकाल जाना जाता है। पुनः एक भी जीव मानरूप न होकर थोड़ेसे जीव क्रोधकषायमें उपयुक्त होकर और थोड़ेसे जीव माया और लोभकषायमें उपयुक्त होकर जिस कालमें परिणत हुए, वह मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका क्रोधकी अपेक्षा मिश्रकाल कहा जाता है । अथवा नोक्रोधकाल और मिश्रकाल इनमें मानकषायरूपसे भी परिणमावे, दोष नहीं है, क्योंकि
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६८ ]
छट्ठगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
मिस्सत्तसंभवे विरोहाभावादो। एवमेसो वट्टमाणसमयम्मि माणोवजुत्ताणं कोहावेक्खाए वितिविहो कालो वोलीणो त्ति सिद्धं । संपहि माया - लोमेसु वि एसो चेव कमोि पदुप्पायणमाह
९५
* मायाए तिविहो कालो ।
$ २०३. माय - णोमाय - मिस्सयभेदेण तत्थ वि तिविहकालसिद्धीए णिप्पडिबंधभादो ।
* लोभे तिविहो कालो ।
$ २०४. लोभ- णोलोभ-मिस्सया मेदेण तत्थ वि तिविहकालसिद्धीए पडिबंधाणुवलंभादो । एदेसिं च कालाणं कोहभंगेणेव जोजणा कायव्वा । एवमेसो कालविभागो वमाणसमयम्मि माणोवजुत्ताण मेक्केकम्मि कसाए पादेक्कं तिविहो होदूण बारसविहो होदित्ति घेत्तव्वं । एदस्सेवत्थस्सोव संहारवक्कमुत्तरं -
* एवमेसो कालो माणोवजुत्ताणं बारसविहो । $ २०५. सुगममेदं ।
मानकषायरूपसे परिणत हुए जीवके नोक्रोध और मिश्रपना सम्भव है, इसमें कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार वर्तमान समय में मानमें उपयुक्त हुए जीवोंका क्रोधकी अपेक्षा भी यह तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ यह सिद्ध हुआ । अब माया और लोभमें भी यही क्रम है यह कथन करनेके लिए कहते हैं
* मायाकषायमें तीन प्रकारका काल होता है ।
$ २०३. क्योंकि माया, नोमाया और मिश्रके भेदसे मायाकषायमें भी तीन प्रकारके कालकी सिद्धि विना बाधाके उपलब्ध होती है ।
* लोभकषायमें तीन प्रकारका काल है ।
$ २०४. लोभ, नोलोभ और मिश्रके भेदसे लोभकषायमें भी तीन प्रकारके कालकी सिद्धि बिना बाधा उपलब्ध होती है। इन कालोंकी क्रोधकालके भंगके समान योजना करनी चाहिए। इस प्रकार यह कालविभाग वर्तमान समय में मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका एक-एक कषायमें प्रत्येकके तीन भेद होकर बारह प्रकारका होता है ऐसा यहाँपर ग्रहण करना चाहिए। अब इसी अर्थके उपसंहाररूप आगेके वाक्यको कहते हैं
* इस प्रकार मानकषाय में उपयुक्त हुए जीवोंका यह बारह प्रकारका काल है ।
$ २०५. यह सूत्र सुगम है ।
•
विशेषार्थ – पहले वर्तमान में मानकषाय परिणत जीवोंके स्वस्थानकी अपेक्षा मानकाल, tarters और मिश्रकाल ऐसे तीन भेद बतला आये हैं । यहाँ परस्थानकी अपेक्षा भेदका निरूपण करते हुए नौ भेद बतलाये गये हैं। खुलासा इस प्रकार है
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ २०६. संपहि वट्टमाणसमयकोहोवजुत्ताणं कदिविधो कालो होदि त्ति आसंकाए णिण्णयकरणट्ठमाह____* अस्सि समये कोहोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो पत्थि, णोमाणकालो मिस्सयकालो य ।
२०७. कुदो ताव माणकालो त्थि त्ति पुच्छिदे वुच्चदे-कोहरासी बहुओ, माणोवजुत्तजीवरासी थोचो होइ, अद्धाविसेसमस्सियूण माणरासीदो कोहरासिस्स विसेसाहियत्तदंसणादो। तदो वट्टमाणसमये कोहोवजुत्तो होदूण द्विदरासी अदीदकालम्मि एक्कसमएण सव्वो चेव माणोवजुत्तो होदणावट्ठाणं ण लहइ, तत्तो विसेस
नानाजीव । वर्तमानमें। अतीतकालमें
कालसंज्ञा अपेक्षा मानपरिणत मानपरिणत
मानकाल स्वस्थानकी अ० क्रो०, माया, या लो० ५० नोमानकाल कुछ मान परिणत कुछ अन्य मिश्रकाल कषाय परिणत क्रोध परिणत
क्रोधकाल परस्थानकी अ० मान, माया या लोभ ५० नोक्रोधकाल परस्थानकी अ० कुछ क्रोधप०, कुछ अन्य कषाय मिश्रकाल परिणत मायापरिणत
मायाकाल क्रोध०, मान या लोभ प० नोमायाकाल कुछ मायाप०, कुछ अन्य कषाय | मिश्रकाल परिणत लोभपरिणत
लोभकाल क्रो०, मान या मायाप० नोलोभकाल कुछ लोभप०, कुछ अन्य कषाय मिश्रकाल
परिणत $ २०६. अब वर्तमान समयमें क्रोधमें उपयुक्त हुए जीवोंका कितने प्रकारका काल होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए कहते हैं
___ * इस समयमें जो जीव क्रोधकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीत कालमें मानकाल नहीं है, नोमानकाल और मिश्रकाल है ।
$२०७. सर्व प्रथम मानकाल किस कारणसे नहीं है ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैंक्रोधकषाय परिणत जीवराशि बहुत है और मानकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशि अल्प है, क्योंकि क्रोधकषायपरिणत जीवराशिका काल अधिक है, इसलिए मानराशिसे क्रोधराशि विशेष अधिक देखी जाती है। अतः वर्तमान समयमें क्रोधमें उपयुक्त होकर स्थित हुई जीवराशि अतीतकालमें एक समयके द्वारा सबकी सब मानमें उपयुक्त होकर अवस्थानको
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६८]
छट्टगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा हीणस्सेव जीवरासिस्स तब्भावेण परिणमणदंसणादो। ण च तहा परिणममाणयस्स तस्स माणकालसंभवो अत्थि, माणकसाये चेव सव्वोवसंहारेण तदवट्ठाणाणुलंभादो । तम्हा एत्थ माणकालो पत्थि त्ति भणिदं । णोमाणकालो मिस्सयकालो य अत्थि । कि कारणं ? णिरुद्धसव्वजीवरासिस्स माणवदिरित्तसेसकसाएसु चेवावट्ठाणे णोमाणकालो होइ, माणेदरकसाएसु जहापविभागमवट्ठाणे मिस्सकालो होदि त्ति एवंविहसंभवस्स परिप्फुडमुवलंभादो।
* अवसेसाणं णवविहो कालो ।
$२०८. तेसिं चेव वट्टमाणसमयकोहोवजुत्तजीवाणं माणवदिरित्तसेसकसाएसु पादेकं तिविहकालसंभवादो तत्थ गवविहो कालो समुप्पजइ त्ति वुत्तं होइ । कुदो एवं ? वट्टमाणसमए कोहोवजुत्तसव्वजीवरासिस्स अदीदकालम्मि एगसमएण सव्वप्पणा प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि उससे विशेष हीन जीवराशिका ही मानभावसे परिणमन देखा जाता है और इस प्रकार परिणमन करनेवाली उस जीवराशिका मानकाल सम्भव नहीं है, क्योंकि समस्त राशिका उपसंहार होकर मानकषायमें ही उसका अवस्थान नहीं पाया जाता। इसलिए यहाँ मानकाल नहीं है यह कहा है। नोमानकाल और मिश्रकाल है, क्योंकि विवक्षित समस्त जीवराशिका मानकषायके सिवाय शेष कषायोंमें ही अवस्थान होनेपर नोमानकाल होता है तथा मानकषाय और अन्य कषायोंमें यथाविभाग अवस्थान होनेपर मिश्रकाल होता है, क्योंकि इस प्रकारका सम्भव स्पष्टरूपसे बन जाता है।
विशेषार्थ-वर्तमानमें जितनी जीवराशि क्रोधभावसे परिणत है उतनी सबकी सब जीवराशि अतीतकालमें एक साथ मानभावसे परिणत नहीं हो सकती, क्योंकि क्रोधकषायके कालसे मानकषायका काल अल्प है, इसलिये अपने कालके भीतर जितनी अधिक क्रोधराशिका संचय होता है, मानकालके भीतर उतनी अधिक मानराशिका संचय होना संभव नहीं है । स्पष्ट है कि वर्तमानमें जो जीव क्रोधभावसे परिणत हैं उन सबका अतीतकाल में केवल मानभावसे परिणत होना सम्भव नहीं है, इसलिए परस्थानकी अपेक्षा यहाँ मानकालका निषेध किया है । परस्थानकी अपेक्षा इन जीवोंका नोमानकाल और मिश्रकाल बन जाता है, क्योंकि यह सम्भव है कि जो वर्तमानमें क्रोधभावसे परिणत हैं वे अतीतकालमें मानकषायसे परिणत न होकर अन्य कषायरूपसे परिणत रहे हैं, इसलिए तो नोमानकाल बन जाता है
और जो वर्तमानमें क्रोधभावसे परिणत हैं वे अतीत कालमें कुछ तो मानभावसे परिणत रहे हैं और कुछ अन्य कषायरूपसे परिणत रहे हैं, इसलिए मिश्रकाल भी बन जाता है।
* अवशेष कषायोंकी अपेक्षा नौ प्रकारका काल होता है।
६ २०८. क्योंकि वर्तमान समयमें क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए उन्हीं जीवोंका मानकषायके सिवाय शेष कषायोंमेंसे प्रत्येक कषायकी अपेक्षा तीन प्रकारका काल सम्भव होनेसे वहाँ नौ प्रकारका काल उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। .
शंका-ऐसा कैसे होता है ? समाधान-क्योंकि वर्तमान समयमें क्रोधकषायमें उपयुक्त हुई सब जीवराशिका
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ कोह-माया-लोभेसु परिणमणसंभवे विरोहाणुवलंभादो । सुगममण्णं । एवमेसो णवविहो कालो, पुव्वुत्तो दुविहो माणकालो, एवमेदे घेत्तूण वट्टमाण-समयकोहोवजुत्तजीवरासिस्स एकारसविहो कालो होदि ति पयदत्थोवसंहारवक्कमुत्तरं
* एवं कोहोवजुत्ताणमेकारसविहो कालो विदिक्कतो ।
$ २०९. सुगमं । संपहि वट्टमाणसमयमायोवजुत्ताणमदीदकालमस्सियूण कदविघो कालो संभवदि त्ति पुच्छाए णिच्छयकरणट्ठमुवरिमो पबंधो
जे अस्सिं समए मायोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो, कोहकालो दुविहो, मायाकालो तिविहो, लोभकालो तिविहो ।
२१०. कुदो ताव कोह-माणकालाणमेत्थ दुविहत्तणियमो ? वट्टमाणसमयमायोवजुत्तजीवरासिस्स कोह-माणजीवरासीहितो अद्धामाहप्पेण विसेसाहियत्तदंसणादो। तम्हा णिरुद्धजीवरासिस्स माणकालो कोहकालो च णत्थि । णोमोह-णोकोह-मिस्सकालाणं चेव तत्थ संभवो त्ति सिद्धं । माया-लोभकसाएसु पुण तिविहकालसंभवो ण विरुज्झदे, णिरुद्धजीवरासिस्स तत्थ सव्वप्पणा उवसंहारसंभवादो । तम्हा एत्थ सव्व
अतीतकालमें एक साथ पूरी तरहसे क्रोध, माया और लोभरूपसे परिणमन सम्भव है, इसमें कोई विरोध नहीं आता । शेष कथन सुगम है । इस प्रकार यह नौ प्रकारका काल तथा पूर्वोक्त दो प्रकारका मानकाल इस प्रकार इनको ग्रहणकर वर्तमान समयमें क्रोधमें उपयुक्त हुई जीवराशिका ग्यारह प्रकारका काल होता है। इस प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेवाले आगेके सूत्रवचनको कहते हैं
* इस प्रकार क्रोधकषायमें उपयुक्त जीवोंका ग्यारह प्रकारका काल व्यतीत हुआ।
६२०९. यह सूत्रवचन सुगम है। अब वर्तमान समयमें मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका अतीतकालकी अपेक्षा कितने प्रकारका काल सम्भव है ऐसी पृच्छा होनेपर निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं
* जो वर्तमान समयमें मायाकषायमें उपयुक्त हैं उनके अतीतकालमें मानकाल दो प्रकारका, क्रोधकाल दो प्रकारका, मायाकाल तीन प्रकारका और लोभकाल तीन प्रकारका होता है।
$ २१०. शंका-यहाँ क्रोधकाल और मानकालके द्विविधपनेका नियम किस कारणसे है ?
समाधान-क्योंकि वर्तमान समयमें मायाकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशिका कालके माहात्म्यवश क्रोध और मानभावसे परिणत हुई जीवराशिकी अपेक्षा विशेष अधिकपना देखा जाता है, इसलिए विवक्षित जीवराशिका मानकाल और क्रोधकाल नहीं है। वहाँ नोमान, नोक्रोध और मिश्रकाल ही सम्भव है यह सिद्ध हुआ। माया और लोभकषायोंमें तो तीनों प्रकारके कालोंका सम्भव विरोधको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि विवक्षित जीवराशिका उनमें
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६८]
छट्टगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा समासेण दसविहो पयदकालो लब्भइ ति पयदत्थमुवसंहरइ
* एवं मायोवजुत्ताणं दसविहो कालो।
$ २११. सुगममेदं, अणंतरादीदपबंधेणेव गयत्थत्तादो। संपहि वट्टमाणसमयलाभोवजुत्ताणमदीदकालविसये पयदकालाणमियत्तावहारणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह
* जे अस्सिं समये लोभोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो, कोहकालो दुविहो, मायाकालो दुविहो, लोभकालो तिविहो ।
२१२. एत्थ कारणं पुव्वं व परूवेयव्वं । * एवमेसो कालो लोहोवजुत्ताणं णवविहो ।
$ २१३. सुगमं चेदं पयदत्थोवसंहारवक्कं । संपहि चदुण्हं कसायाणं सव्वपदसमासो एत्तिओ होइ त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तोवण्णासो
* एवमेदाणि सव्वाणि पदाणि बादालीसं भवति ।
$ २१४. माणादिकसाएसु जहाकम १२ ११ १० ९ एत्तियाणं पदाणमेगट्ठीकरणेण तदुप्पत्तिदंसणादो । पूरी तरहसे उपसंहार सम्भव है, इसलिए यहाँपर सब कालोंको मिलाकर दस प्रकारका प्रकृत काल प्राप्त होता है इस प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हैं
* इस प्रकार मायामें उपयुक्त हुए जीवोंके दस प्रकारका काल होता है।
$ २११. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अनन्तर अतीत हुए प्रबन्धके द्वारा इसका अर्थ ज्ञात है। अब वर्तमान समयमें लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके अतीत कालकी अपेक्षा प्रकृत कालोंकी संख्याका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* जो इस समय लोभकषायमें उपयुक्त हैं उनके अतीत कालमें मानकाल दो प्रकारका, क्रोधकाल दो प्रकारका, मायाकाल दो प्रकारका और लोभकाल तीन प्रकारका होता है। . ६ २१२. यहाँपर कारणका कथन पहलेके समान करना चाहिए।
* इस प्रकार लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके यह काल नौ प्रकारका होता है।
$ २१३. प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेवाला यह वचन सुगम है । अब चारों कषायोंके सब पदोंका योग इतना होता है इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका उपन्यास करते हैं
* इस प्रकार ये सब पद व्यालीस होते हैं।
६२१४. मानादि कषायोंमें यथाक्रम १२+ ११ + १०.+९ इतने पदोंका योग करनेपर उनकी अर्थात् ४२ पदोंकी उत्पत्ति देखी जाती है।
विशेषार्थ—पहले हम मानकषायके तीन स्वस्थान पद दिखला आये हैं। इसी प्रकार क्रोध, माया और लोभकषाय इनमेंसे प्रत्येकके तीन-तीन स्वस्थान पद जान लेना चाहिए।
१ ता०प्रती वत्तव्वं इति पाठः ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
$ २१५. एत्थ ताव बारस सत्थाणपदाणि घेत्तूणप्पा बहुअं परूवेमाणो तदवसरकरणट्ठमुवरिमं पबंधमाह -
१००
* एत्तो बारस सत्थाणपदाणि गहियाणि ।
$ २१६. एत्तो बादालीस पदपिंडादो बारस सत्थाणपदाणि ताव गहिदाणि ति वृत्तं हो । काणि ताणि सत्थाणपदाणि त्ति सिस्साहिप्पायमासंकिय सुत्तमुत्तरं भणइ* कधं सत्थाणपदाणि भवंति ?
$ २१७. किं सरूवाणि ताणि ति पुच्छिदं होइ ।
* माणोवजुत्ताणं माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो ।
$ २१८. दाणि ताव तिण्णि सत्थाणपदाणि माणोवजुत्ताणं भवंति, सेसाणं ras पदाणं कोहादिसंबंधीणं परत्थाणविसयत्ते एत्थ गहणाभावादो |
* कोहोवजुत्ताणं कोहकालो णोकोहकालो मिस्सकालो ।
सब मिलाकर १२ हुए । शेष ३० परस्थान पद जानने चाहिए। उनमें से जो वर्तमानमें मानकषायसे उपयुक्त हैं उनके ९ परस्थान पद, जो वर्तमान में क्रोधकषाय से उपयुक्त हैं उनके ८ परस्थान पद, जो वर्तमान में मायाकषायसे उपयुक्त हैं उनके ७ परस्थान पद और जो वर्तमानमें लोभकषायसे उपयुक्त हैं उनके ६ परस्थान पद इस प्रकार सब मिलाकर सब परस्थानपद ३० होते हैं । इन सबका स्पष्टीकरण सुगम है ।
$ २१५. अब यहाँपर सर्व प्रथम बारह स्वस्थान पदोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हुए उसका अवसर करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* इनमेंसे बारह स्वस्थान पदोंको ग्रहण किया है ।
$ २१६. यह जो व्यालीस पदोंका पिंड है उनमें से सर्वप्रथम बारह स्वस्थान पद ग्रहण किये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वे स्वस्थान पद कौनसे हैं इस प्रकार शिष्य के अभिप्रायानुसार आशंकारूप आगेका सूत्र कहते हैं
* वे स्वस्थान पद क्यों हैं ?
$ २१७. इस सूत्र द्वारा उनका अर्थात् स्वस्थान पदोंका स्वरूप क्या है यह पृच्छा की गई है।
* मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल ये तीन स्वस्थान पद होते हैं ।
$ २१८. मात्र ये तीन स्वस्थानपद मानकषाय में उपयुक्त हुए जीवोंके होते हैं, क्योंकि क्रोधादि कषायों से सम्बन्ध रखनेवाले शेष नौ पद परस्थानको विषय करनेवाले होनेसे यहाँ
ग्रहण नहीं किया है ।
* क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके क्रोधकाल, नोक्रोधकाल और मिश्रकाल ये तीन स्वस्थान पद होते हैं ।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६८) छट्टगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१०१ २१९. वट्टमाणसमए कोहोवजुत्ताणं पि एदाणि तिण्णि चेव सत्थाणपदाणि गहेयव्वाणि, सेसाणमट्टण्हं पदाणं परत्थाणविसयाणमेत्थ गहणाभावादो।
* एवं मायोवजत्त-लोहोवजत्ताणं पि।
$ २२०. माया-लोभोवजुत्ताणं पि एवं चेव तिण्णि तिणि सत्थाणपदाणि गहेयव्वाणि । तं जहा-मायोवजुत्ताणं मायकालो णोमायकालो मिस्सयकालो च । लोभोवजुत्ताणं लोभकालो णोलोभकालो मिस्सयकालो चेदि। एवमेदाणि चउण्हं 'कसायाणं तिण्णि तिण्णि पदाणि घेत्तूण बारस सत्थाणपदाणि होति त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो।
5२२१. संपहि एदेसिं थोवबहुत्तणिहालणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो* एदेसिं बारसण्हं पदाणमप्पाबहुअं।
$ २२२. एदेसि सत्थाणपडिबद्धाणं बारसण्हं पदाणं एत्तो अप्पाबहुअंवत्तइस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं
$ २१९. वर्तमान समयमें क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके भी ये तीन ही स्वस्थान पद ग्रहण करने चाहिए, क्योंकि परस्थानविषयक शेष आठ पदोंका इनमें ग्रहण नहीं होता।
* इसी प्रकार मायाकषाय और लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके तीन-तीन स्वस्थान पद ग्रहण करने चाहिए।
$ २२०. मायाकषाय और लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके भी इसी प्रकार तीन-तीन स्वस्थान पद ग्रहण करने चाहिए। यथा-मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका मायाकाल, नोमायाकाल और मिश्रकाल तथा लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका लोभकाल, नोलोभकाल और मिश्रकाल । इस प्रकार चार कषायोंके ये तीन-तीन पदोंको ग्रहणकर बारह स्वस्थान पद होते हैं यह प्रकृतमें विवक्षित सूत्रोंका समुच्चय अर्थ है।
विशेषार्थ-यहाँ कतिपय सूत्रों द्वारा स्वस्थानपदोंका निर्णय करते हुए जो बतलाया गया है उसका आशय यह है कि वर्तमानमें जितने जीव जिस कषायमें उपयुक्त होते हैं और उसके पूर्व भी यदि वे ही जीव उसी कषायमें उपयुक्त रहे हैं तो उन जीवोंके विवक्षित कषायविषयक उपयोगकालकी वही संज्ञा हो जाती है। जैसे पूर्व में तथा वर्तमानमें मानमें उपयुक्त हुए जीवोंके कालकी मानकाल संज्ञा तथा क्रोधमें उपयुक्त हुए जीवोंके कालकी क्रोधकाल संज्ञा आदि। तथा पूर्व में क्रोध, माया और लोभ कषायमें उपयुक्त रहे हैं और वर्तमानमें मानकषायमें उपयुक्त हैं तो उनके उस कालकी नोमानकाल संज्ञा है । इसी प्रकार अन्य कषायोंके अनुसार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए। तथा पूर्व में मानकषायके सा कषायमें उपयुक्त रहे हैं तथा वर्तमानमें मानकषायमें उपयुक्त हैं तो उनके उस कालकी मिश्रकाल संज्ञा है। यहाँ भी अन्य कषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार स्वस्थान पदोंका निर्णय कर लेना चाहिए।
६२२१. अब इन पदोंके अल्पबहुत्वका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध है* इन बारह पदोंका अल्पबहुत्व कहते हैं। ६२२२. आगे स्वस्थान सम्बन्धी इन बारह पदोंका अल्पबहुत्व बतलावेंगे इस प्रकार
१ ता० प्रती पदाणं इति पाठः ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
* तं जहा ।
$ २२३. सुगममेदं । एत्थ पयदप्पाबहुअविसए अव्युप्पण्णसोदाराणं सुहावगमसमुप्पायण मेदेसिं बारसण्डं सत्थाणपदाणमेसा संदिट्ठी
यह प्रतिज्ञावाक्य है ।
* वह जैसे ।
वट्टमाणकाले माणोवजुत्तरासिपमाणं १६, वट्टमाणकाले कोहोवजुत्तरासिपमाणं २०, वट्टमाणकाले मायोवजुत्तरासिपमाणं २५, वट्टमाणकाले लोभोवजुत्तरासिपाणं ३१ । तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले माणोवजत्तकालो एसो ३६, तेसिं चेव जीवाणमदीदकाले कोहोजुत्तकालो एसो १२, तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले मायोवजुत्त कालो एसो ४, तेसिं चैव जीवाण मदीदकाले लोभोवजुत्तकालो एसो २, तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले णोमाणकालो एसो २९१६, तेसिं चेव जीवाणमदीदकाले
कोहकालो एसो ९७२, तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले णोमायकालो एसो ३२४, तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले गोलोभकालो एसो १०८, तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले माणमिस्स कालो एसो ८७४८, तेसिं चैव जीवाणमदीदकाले कोहमिस्सयकालो एसो १०७१६, सिं चैव जीवाणमदीदकाले मायमिस्सयकालो एसो ११३७२, तेसिं चेव जीवाणमदीद - काले लोभमिस्सकालो एसो ११५९० । एवमेदीए संदिट्ठीए जाणिदसंस्काराणं सिस्साणमिदाणिं पयदप्पाबहुअमोदारइस्सामो—
* लोभोवजुत्ताणं लोभकालो थोवो ।
$ २२३. यह सूत्र सुगम है । यहाँपर प्रकृत अल्पबहुत्वके विषयमें अजानकार श्रोताओं को सुखपूर्वक ज्ञान उत्पन्न करनेके लिए इन बारह स्वस्थान पदोंकी यह संदृष्टि हैवर्तमानकाल में मानमें उपयुक्त हुई जीवराशिका प्रमाण १६, वर्तमान कालमें क्रोधमें उपयुक्त हुई जीवराशिका प्रमाण २०, वर्तमान कालमें मायामें उपयुक्त हुई जीवराशिका प्रमाण २५ तथा वर्तमान कालमें लोभमें उपयुक्त हुई जीवराशिका प्रमाण ३१ । उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें मानोपयुक्त काल यह है - ३६ । उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें क्रोधोपयुक्त काल यह है -१२ | उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें मायोपयुक्त काल यह है -४ | उन्हीं जीवोंका अतीत काल में लोभोपयुक्त काल यह है - २ | उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें नोमानकाल यह है२९१६ | उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें नोक्रोधकाल यह है ९७२। उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें नो मायाकाल यह है - ३२४ । उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें नोलोभकाल यह है - १०८ | उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें मानमिश्रकाल यह है - ८७४८ । उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें क्रोधमिश्रकाल यह है - १०७१६ । उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें मायामिश्रकाल यह है - ११३७२ । उन्हीं जीवोंका अतीत कालमें लोभमिश्रकाल यह है - ११५९० । इस प्रकार इस संदृष्टि द्वारा संस्कार प्राप्त शिष्योंके निमित्त इस समय प्रकृत अल्पबहुत्वका अवतार करेंगे --
* लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका लोभकाल सबसे थोड़ा है ।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६८] छट्टगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१०३ $ २२४. किं कारणं ? वट्टमाणसमयम्मि लोभोवजुत्तजीवरासी सेसकसायोवजुत्तजीवे अवेक्खिय बहुओ होदूण पुणो अदीदकालम्मि एक्कदो कादुमदीव दुल्लहो होइ, तेणेसो कालो अदीदकालमाहप्पेणाणतो होदण सव्वत्थोवो जादो। तस्स पमाणमेदं २।
* मायोवजुत्ताणं मायकालो अणंतगुणो ।
$ २२५. किं कारणं ? वट्टमाणसमयलोभोवजुत्तजीवरासीदो वट्टमाणसमयमावोवजुत्तजीवरासी विसेसहीणो होइ । थोवो च जीवरासी लहुमेव तत्थ परिणमदि त्ति एदेण कारणेणेसो कालो अणंतो होदूण पुव्विलकालादो अणंतगुणो त्ति सिद्धं ४ ।
* कोहोवजत्ताणं कोहकालो अणंतगुणो । $ २२६. १२, कारणं पुव्व व वत्तव्वं । * माणोवजुत्ताणं माणकालो अणंतगुणो । $ २२७. ३६, एत्थ वि कारणमणंतरपरूविदमेव । * लोभोवजुत्ताणं णोलोभकालो अणंतगुणो । $ २२८. किं कारणं ? वट्टमाणसमयलोभोवजुत्तजीवरासिस्स अदीदकालम्मि
$ २२४. क्योंकि वर्तमान समयमें लोभकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशि शेष कषायोंमें उपयुक्त जीवराशिकी अपेक्षा बहुत है। फिर भी उसे अतीत कालमें एकत्र करना अति दुर्लभ है, इसलिए यह काल अतीत कालके माहात्म्यवश अनन्त होकर भी सबसे थोड़ा है। उसका प्रमाण यह है-२।
* उससे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका मायाकाल अनन्तगुणा है।
६२२५. क्योंकि वर्तमान समयमें लोभकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशिसे वर्तमान समयमें मायाकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशि विशेष हीन है। और थोड़ी जीवराशि शीघ्र ही उस रूप परिणम जाती है, इस प्रकार इस कारणसे यह काल अनन्त होकर भी पूर्वराशिके कालसे अनन्तगुणा है यह सिद्ध हुआ । उसका प्रमाण ४ है। .
विशेषार्थ-यहाँ अनन्तका प्रमाण २, लोमकाल २; २४२-४ मायाकाल । * उससे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका क्रोधकाल अनन्तगुणा है । $ २२६. क्रोधकाल १२ । कारणका कथन पहलेके समान करना चाहिए । विशेषार्थ-लोभकाल २, मायाकाल ४; दोनोंका योग ६; ६४२ = १२ क्रोधकाल । * उससे मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका मानकाल अनन्तगुणा है। $ २२७. ३६, यहाँ भी पूर्व में कहा गया ही कारण जानना चाहिए ।
विशेषार्थ—लोभ-माया काल ६, क्रोधकाल १२, दोनोंका योग १८, १८४२=३६ मानकाल।
* उससे लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका नोलोभकाल अनन्तगुणा है। $ २२८. क्योंकि वर्तमान समयमें लोभकषायमें उपयुक्त जीवराशिका अतीत कालमें
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ लोभगमणेण विणा सेसकसाएसु थोवावट्ठाणकालो पुव्वल्लकालादो बहुओ होइ, विसयबहुत्तेण तहाविहसंपत्तीए सुलहत्तदंसणाद्रो । तदो माणोवजुत्ताणं माणकालादो एसो कालो अणंतगुणो त्ति सिद्धं १०८।
* मायोवजुत्ताणं णोमायकालो अणंतगुणो ।
$ २२९. ३२४, वट्टमाणसमयमायोवजुत्ताणमदीदकालम्मि मायमगंतूण सेस. कसाएसु चेवावट्ठाणकालो । एसो पुम्विन्लणोलोभकालं पेक्खियणाणंतगुणो । कधमेदं परिच्छिजदे ? पुविलविसयादो एदस्स विसयबहुत्तोवलंभादो। तं कधं ? पुग्विन्लविसयो णाम कोह-माण-मायासु अच्छणकालो । एसो पुण कोह-माण-लोभेसु अवट्ठाणकालो ति तेणाणंतगुणो जादो । रासीणं थोवबहुत्तं च एत्थ कारणं वत्तव्यं ।
* कोहोवजुत्ताणं णोकोहकालो अणंतगुणो।
$ २३०. ९७२ । एत्थ नि कारणमणंतरपरूविदमेव दट्ठव्वं । लोभकषायमें जानेके विना शेष कषायोंमें थोड़ा अवस्थान काल पूर्व के कालसे बहुत है, क्योंकि विषयका बाहुल्य होनेसे उस प्रकारसे कालकी प्राप्ति सुलभ देखी जाती है। इसलिए मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके मानकालसे यह काल अनन्तगुणा है यह सिद्ध हुआ। उसका प्रमाण
विशेषार्थ लोभ-माया-क्रोधकाल १८, मानकाल ३६, दोनोंका योग ५४, ५४४२ - १०८ नोलोभकाल। __ * उससे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका नोमायाकाल अनन्तगुणा है ।
$ २२९. नोमायाकाल ३२४ । वर्तमान समयमें मायामें उपयुक्त हुए जीवोंका अतीत कालमें माया कषायरूप न परिणम कर शेष कषायोंमें ही जो अवस्थान काल है उसे नोमायाकाल कहते हैं । यह पूर्वके नोलोभकालको देखते हुए अनन्तगुणा है।
शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान–पूर्वके विषयसे इसका विषय बहुत उपलब्ध होता है, इससे जाना जाता है कि नोलोभकालसे नोमायाकाल अनन्तगुणा है।
शंका-वह कैसे?
समाधान-क्योंकि क्रोध, मान और मायामें रहनेके कालको पूर्वका विषय कहते हैं, परन्तु यह क्रोध, मान और लोभमें रहनेका काल है, इसलिए उससे यह अनन्तगुणा हो गया है । तथा राशियों के अल्पबहुत्वको इसमें कारण कहना चाहिए।
विशेषार्थ-लोभ-माया-क्रोध-मानकाल ५४, नोलोभकाल १०८, दोनोंका योग १६२; १६२४२ = ३२४ नोमायाकाल ।
* उससे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका नोक्रोधकाल अनन्तगुणा है।
६२३०. नोक्रोधकाल ९७२ । कारणका कथन पहले कर आये हैं। उसे ही यहाँपर जानना चाहिए। .
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
गाथा ६८]
छट्टमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * माणोवजुत्ताणं णोमाणकालो अणंतगुणो । $ २३१. २९१६ । एत्थ वि कारणमणंतरणिदिट्टमेव । * माणोवजुत्ताणं मिस्सयकालो अणंतगुणो ।
२३२. ८७४८ । किं कारणं णोमाणकालो णाम माणवदिरित्तसेसकसाएसु णिरुद्धजीवाणमवट्ठाणकालो । तदो तिण्हमद्धाणं समासादो जेण चउण्हमद्धाणं समूहो बहुओ तेण मिस्सयकालो पुव्विल्लकालादो अणंतगुणो त्ति गहेयव्वं । अण्णं च माणोवजुत्तवट्टमाणजीवरासिस्स अब्भंतरादो जइ वि एगो जीवो णिप्पिडियणण्णकसाये पविसइ तो वि माणस्स मिस्सयकालो णाम वुच्चइ । एवं जइ वि दो जीवा अण्णकसाएसु पविसंति तो वि माणमिस्सयकालो भवइ । एदेण विहिणा संखेजासंखेजाणंतवियप्पेहि माणस्स मिस्सयकालो लब्भइ । जदो एवमणंतवियप्पेहिं पयदकालोवलंमसंभवो तदो अणंतगुणो त्ति सिद्धं ।
* कोहोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहिओ।
विशेषार्थ-लोभ-माया-क्रोध-मानकाल ५४, नोलोभकाल १०८, नोमायाकाल ३२४, तीनों कालोंका योग ४८६, ४८६४२-९७२ नोक्रोधकाल ।
* उससे मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका नोमानकाल अनन्तगुणा है ।
$ २३१. नोमानकाल २९१६ । कारणका कथन पहले कर आये हैं। उसे ही यहाँपर जानना चाहिए।
विशेषार्थ—लोभ-माया-क्रोध-मानकाल ५४, नोलोभकाल १०८, नोमायाकाल ३२४, नोक्रोधकाल ९७२, चारों कालोंका योग १४५८ । १४५८४२ = २९१६ नोमानकाल ।
* उससे मानमें उपयुक्त हुए जीवोंका मिश्रकाल अनन्तगुणा है ।
$२३२. मानकषायसम्बन्धी मिश्रकाल ८७४८, क्योंकि मानकषायके सिवाय शेष कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके अवस्थान कालकी नोमानकाल संज्ञा है। इसलिए तीन कालोंके योगसे चार कालोंका योग बहुत होता है, अतः पूर्वके कालसे मिश्रकाल अनन्तगुणा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । दूसरी बात यह है कि मानकषायमें उपयुक्त हुई वर्तमान जीवराशिसे यद्यपि एक जीव निकल कर अन्य कषायरूप परिणम जाता है तो भी मानकषायका मिश्रकाल कहा जाता है। इसी प्रकार यद्यपि दो जीव अन्य कषायरूप परिणम जाते हैं तो भी मानकषायका मिश्रकाल होता है। इस विधिसे संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकारसे मानकषायका मिश्रकाल प्राप्त होता है। यतः इस प्रकार अनन्त प्रकारसे प्रकृत कालकी प्राप्ति सम्भव है,अतः यह काल अनन्तगुणा है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-लोभ-माया-क्रोध-मानकाल ५४, नोलोभकाल १०८, नोमायाकाल ३२४, नोक्रोधकाल ९७२, नोमानकाल २९१६, इन सब कालोंका योग ४३७४ । ४३७४४२ - ८७४८ मानमिश्रकाल। ___* उससे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका मिश्रकाल विशेष अधिक है ।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
$ २३३. केत्तियमेत्तो विसेसो ? कोह - णोकोहकालेहिं परिहीणमाण- णोमाणकालतो । तं कथं १ अदीदकालसव्वपिंडादो माण- णोमाणकालेसु सोहिदेसु सुद्धसेसमेत्तो arita मिस्सकालो होइ । सो च संदिट्ठीए एत्तियो ८७४८, अदीदकालसव्वसमासो संदिट्ठीए ११७०० एत्तियमेत्तोति गहणादो । पुणो एत्थेव कोह - णोकोहकालेसु माण
माकाहिंतो अनंतगुणहीणेसु सोहिदेसु सुद्धसेसमेतो कोहमिस्स्यकालो संदिट्ठीए एत्तियमेत्तो होइ १०७१६ । एसो च माणमिस्सयकालादो माण - णोमाणकालाणमणंतभागमेत्तेण विसेसाहिओ त्ति णत्थि संदेहो । संदिगडी विसेसपमाणमेदं १९६८ ।
१०६
* मायोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहियो ।
$ २३४. ११३७२ | केत्तियमेत्तो विसेसो १ माय णोमायकालेहिं परिहीणकोहकोहकालमेत्तो । सो च संदिट्ठीए एसो ६५६ । सेसं सुगमं, अनंतरादीदसुत्त$ २३३. विशेषका प्रमाण क्या है ?
समाधान —मान और नोमान के कालोंमें से क्रोध और नोक्रोधके कालोंको कम कर देने पर जो शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान – अतीत कालसम्बन्धी सब कालोंके योगमेंसे मान और नोमानकालके कम कर देनेपर जो शेष रहे वह मानकषायका मिश्रकाल होता है और वह अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा ८७४८ इतना है, क्योंकि अतीत कालसम्बन्धी सब कालोंका योग अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा ११७०० इतना ग्रहण किया गया है । पुनः इसीमेंसे मान और नोमानकालसे अनन्तगुणे हीन क्रोध और नोक्रोधकालके घटा देनेपर जो काल शेष रहता है वह क्रोधमिश्रकाल है, जो कि अंक दृष्टिकी अपेक्षा इतना है - १०७१६ । और यह मानके मिश्रकालसे मान - नोमानकालके अनन्तवें भागमात्र अधिक है इसमें सन्देह नहीं है। संदृष्टिकी अपेक्षा विशेषका प्रमाण यह है — १९६८ ।
विशेषार्थ – (१) मानकाल ३६, नोमानकाल २९१६; दोनोंका योग २९५२ | क्रोधकाल १२, नोक्रोधकाल ९७२; दोनोंका योग ९८४ । २९५२ - ९८४ = १९६८ विशेषका प्रमाण । मानमिश्रकाल ८७४८ + १९६८ = १०७१६ क्रोध मिश्रकाल ।
(२) मान - नोमानकाल २९५२, २९५२ : ३ (अनन्त) - ९८४ मान - नोमान के कालसे अनन्तगुणा हीन क्रोध-नोक्रोधका काल । ११७०० अतीतसम्बन्धी सब कालोंका योग । ११७०० - ९८४ = १०७१६ क्रोधमिश्रकाल ।
* उससे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका मिश्रकाल विशेष अधिक है ।
$ २३४. मायाकषायका मिश्रकाल - ११३७२ ।
शंका – विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान - क्रोध और नोक्रोधके कालों में से माया और नोमायाके कालोंको कम करनेपर जो शेष रहे उतना है । संदृष्टिकी अपेक्षा उसका प्रमाण इतना है - ६५६ । शेष कथन
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०७
गाथा ६८]
छट्टगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा परूवणाए चेव गयत्थत्तादो। ___ * लोभोवजत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहियो ।
$२३५. ११५९० । केत्तियमेत्तो विसेसो ? माय-णोमायकालेहिंतो लोभणोलोभकालेसु सोहिदेसु सुद्धसेसमेत्तो। तं च सुद्धसेसपमाणमेत्थ संदिट्ठीए एत्तियमेत्तमिदि घेत्तव्वं २१८ ।
5 २३६. सव्वत्थ अप्पप्पणो काल-णोकालेसु अदीदकालादो सोहिदेसु सुद्धसेसो मिस्सयकालो होदि त्ति वत्तव्वं । सव्वेसिमदीदकालपमाणसंदिट्ठी एसा ११७०० ।
२३७. एवमेदेसि बारसण्हं सत्थाणपदाणमप्पाबहुअपरूवणा कया। संपहि सेसपरत्थाणपदाणं पि एदेसु बारससु पदेसु पवेसणं कादूण बादालीसपदपडिबद्धं परत्थाणप्पाबहुअंपि णेदव्वमिदि पदुप्पायणट्ठमिदमाह
* एत्तो बादालीसपदप्पाबहुध कायव्वं । सुगम है, क्योंकि इससे पूर्व के सूत्रमें कथनके समय ही उसका व्याख्यान कर आये हैं।
विशेषार्थ-माया नोमायाकाल ३२८, क्रोध-नोक्रोधकाल ९८४ । ९८४ - ३२८ = ६५६ विशेषका प्रमाण । क्रोधमिश्रकाल १०७१६, १०७१६ + ६५६ - ११३७२ माया मिश्रकाल ।
* उससे लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका मिश्रकाल विशेष अधिक है। $ २३५. लोभमिश्रकाल ११५२० । शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान-माय-नोमायासम्बन्धी कालोंमेंसे लोभ-नोलोभसम्बन्धी कालोंको कम कर देने पर जो शेष रहे उतना है। यहाँपर संदृष्टिकी अपेक्षा उस शेषका प्रमाण इतना २१८ ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ—माया-नोमायाकाल ३२८, लोभ-नोलोभकाल ११०; ३२८ - ११० = २१८ विशेषका प्रमाण । मायामिश्रकाल ११३७२; ११३७२ + २१८ = ११५९० लोभमिश्रकाल ।
२३६. सर्वत्र अतीत कालमेंसे अपने-अपने काल तथा नोकालको कम कर देनेपर जो शेष रहे उतना अपना-अपना मिश्रकाल होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । सबके अतीत कालके प्रमाणकी अंकसंदृष्टि यह है-११७०० ।
विशेषार्थ-अतीत काल ११७००, मान-नोमानकाल २९५२, क्रोध-नोक्रोधकाल ९८४, माया-नोमायाकाल ३२८, लोभ-नोलोभकाल ११०। ११७००-२९५२ - ८७४८ मानमिश्रकाल । ११७०० - ९८४ = १०७१६ क्रोधमिश्रकाल, ११७०० - ३२८ = ११३७२ मायामिश्रकाल, ११७०० - ११० = ११५९० लोभमिश्रकाल ।
$ २३७. इस प्रकार इन बारह स्वस्थान पदोंके अल्पबहुत्वका कथन किया। अब शेष परस्थान पदोंको भी इन बारह पदोंमें प्रविष्ट करके ब्यालीस पदसम्बन्धी परस्थान अल्पबहुत्व भी जानना चाहिए इस तथ्यका कथन करनेके लिए इस सूत्रको कहते है
* आगे ब्यालीस पदसम्बन्धी अल्पवहुत्व करना चाहिए ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ 5२३८. एत्तो बादालीसपदणिबद्धं परत्थाणप्पाबहुअं पि चिंतिय णेदव्वमिदि वुत्तं होइ । तं पुण बादालीसपदमप्पाबहुअं संपहियकाले विसिट्ठोवएसाभावादो ण सम्ममवगम्मदि त्ति ण तव्विवरणं कीरदे ।
* तदो छट्ठी गाहा समत्ता भवदि।
$ २३९. एवमेदं समाणिय संपहि सत्तमगाहाए जहावसरपत्तमत्थंविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* 'उवजोगवग्गणाहि य अविरहिदं काहि विरहियं वा वि. त्ति एदम्मि अद्ध एक्को अत्थो, विदिये अद्ध एको अत्थो; एवं दो अत्था ।.
___$ २४०. एदेण सुत्तावयवेण एदिस्से सत्तमीए सुत्तगाहाए दोसु अत्थाहियारेसु पडिबद्धत्तं परूविदं । तत्थ ताव पुव्वद्धे दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ अहिकरिय तासु जीवेहिं विरहिदाविरहिदहाणपरूवणा. णाम पढमो अत्थो णिबद्धो, उवजोगवग्गणासहचरिदाणं जीवाणमुवजोगवग्गणाववएसं कादण तेहिं विरहिदमविरहिदं वा के द्वाणं होदि त्ति पुच्छामुहेण सुत्तत्थसंबंधावलंबणादो। एत्थ 'काहिं त्ति' वुत्ते केत्तियमेत्ताहिं उवजोगवग्गणासहचरिदजीववग्गणाहिं के द्वाणमविरहिदं होदि त्ति घेत्तव्यं । अहवा उवजोगवग्गणाहिं काल-भावविसयाहिं केत्तियमेत्ताहिं गदाहिं जीवेहिं विरहिदं द्वाणं होइ, केत्तियमेत्ताहिं वा णिरंतरसरूवाहिं जीवविरहिदमद्धाणं लब्भइ त्ति पदसंबंध कादूण
$ २३८. अब ब्यालीस पदोंमें निबद्ध परस्थान अल्पबहुत्वका भी विचार कर कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। किन्तु वह ब्यालीस पदविषयक अल्पबहुत्व वर्तमान कालमें विशिष्ट उपदेशका अभाव होनेसे सम्यक् प्रकारसे ज्ञात नहीं है, इसलिए उसका विशेष व्याख्यान नहीं करते हैं।
* इस प्रकार पूर्वोक्त प्रकारसे व्याख्यान करनेपर छठी गाथा समाप्त होती है ।
$ २३९. इस प्रकार इस गाथाके व्याख्यानको समाप्तकर अब सातवीं गाथाके अवसर प्राप्त अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* 'कितनी उपयोगवर्गणाओंसे कौन स्थान अविरहित पाया जाता है और कौन स्थान विरहित पाया जाता है। इस प्रकार गाथाके इस पूर्वार्ध में एक अर्थ निबद्ध है
और गाथाके उत्तरार्धमें एक दूसरा अर्थ निबद्ध है। इस प्रकार इस गाथामें दो अर्थ निबद्ध हैं।
२४०. इस सूत्रवचन द्वारा यह सातवीं सूत्रगाथा दो अर्थाधिकारोंमें निबद्ध है यह कहा गया है। उनमेंसे सर्वप्रथम गाथाके पूर्वार्धमें दो प्रकारकी उपयोगवर्गणाओंको अधिकृत कर उनमें जीवोंसे रहित और सहित स्थानप्ररूपणा नामक प्रथम अर्थाधिकार निबद्ध है, क्योंकि उपयोग वर्गणाओंसे युक्त जीवोंकी उपयोगवर्गणा संज्ञा करके उनसे रहित या सहित कौन स्थान है इस प्रकारकी पृच्छाद्वारा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्धका अवलम्बन लिया गया है। इस गाथामें 'काहिं' ऐसा कहनेपर कितनी उपयोगवर्गणाओंसे युक्त जीववर्गणाओंसे कौन स्थान युक्त है यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए। अथवा काल और भावविषयक कितनी उपयोगवर्गणाओंके जानेके बाद जीवोंसे रहित स्थान होता है, अथवा निरन्तरस्वरूप कितनी
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथ ६९] - सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१०९ सुत्तत्थसमत्थणा कायव्वा । तदो गाहापुव्वद्धे एवंविहो एको अत्थो पडिबद्धो त्ति सम्ममवहारिदं । पच्छद्धे वि कसायोवजुत्तजीवाणं गदीयो अस्सियण तिविहाए सेढीए अप्पाबहुअपरूवणं णाम बिदियो अत्थो पडिबद्धो । एवमेदेसु दोसु अत्थविसेसेसु पडिबद्धत्तमेदस्स गाहासुत्तस्स णिरूविय संपहि 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' ति णायावलंबणेण पुव्वद्धस्स ताव विहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* पुरिमद्धस्स विहासा। $ २४१. गाहासुत्तपुरिमद्धस्स ताव विहासा कीरदि त्ति भणिदं होइ ।
* एत्थ दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ-कसायउदयट्ठाणाणि च उवजोगद्धहाणाणि च।।
२४२. एत्थ पुरिमद्धविहासणावसरे दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ होति । काओ ताओ त्ति पुच्छिदे कसायुदयट्ठाणाणि च उवजोगद्धट्ठाणाणि चेदि भणिदं । तत्थ कसायोदयट्ठाणाणि णाम कोहादिकसायाणमुदयवियप्पा पादेक्कमसंखेजलोयमेयभिण्णा। उवजोगट्ठाणाणि त्ति वुत्ते कोहादिकसायाणं जहण्णोवजोगकालप्पहुडि जावुक्कस्सतकालो त्ति एदेसि वियप्पाणं संगहो कायव्यो । एदाणि च उवजोगद्धट्ठाणाणि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि, जहण्णकालमुक्कस्सकालादो सोहिय सुद्धसेसम्मि एयरूवपक्खेवे कदे
उपयोगवर्गणाओंके द्वारा जीवोंसे रहित स्थान प्राप्त होता है इस प्रकार पदसम्बन्ध करके सूत्रके अर्थका समर्थन करना चाहिए। इस प्रकार गाथाके पूर्वार्धमें इस प्रकारका एक अर्थ प्रतिबद्ध है इसका सम्यक् प्रकारसे निश्चय किया। गाथाके उत्तरार्धमें भी कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके गतियोंके आश्रयसे तीन प्रकारकी श्रेणियोंद्वारा अल्पबहुत्वका कथन नामक दूसरा अर्थ प्रतिबद्ध है । इस प्रकार इन दो अर्थविशेषोंमें निबद्ध इस गाथासूत्रका निरूपण करके अब 'उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायका अवलम्बन लेकर सर्वप्रथम पूर्वाधका विशेष व्याख्यान करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अब पूर्वार्धका विशेष व्याख्यान करते हैं ।
$ ३४१. सर्वप्रथम गाथासूत्रके पूर्वार्धका विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* प्रकृतमें उपयोग वर्गणाएं दो प्रकारकी हैं—कषाय-उदयस्थान और उपयोगअद्धास्थान ।
$ २४२. प्रकृतमें पूर्वार्धके विशेष व्याख्यानके अवसरपर उपयोगवर्गणाएँ दो प्रकारको होती हैं। वे कौनसी हैं ऐसा पूछनेपर कषाय-उदयस्थान और उपयोग-अद्धास्थान ऐसा कहा है। उनमेंसे जो क्रोधादि कषायोंके उदय विकल्प प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण भेदोंको लिये हुए है वे सब कषाय-उदयस्थान कहलाते हैं। उपयोग-अद्धास्थान ऐसा कहनेपर क्रोधादि कषायोंके जघन्य उपयोगकालसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकाल तक इन भेदोंका संग्रह करना चाहिए । ये उपयोग-अद्धास्थान अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हैं, क्योंकि उत्कृष्ट कालमेंसे जघन्य कालको
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
११० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ तव्वियप्पुप्पत्तिदंसणादो। एवमेदाणि दुविहाणि वि द्वाणाणि उवजोगसंबंधित्तादो उवजोगवग्गणाओ त्ति एत्थ विवक्खियाणि । संपहि एदस्सेवत्थस्स णिग्गमणमुवरिमं सुत्तमाह
* एदाणि दुविहाणि वि हाणाणि उवजोगवग्गणाओ त्ति वुचंति ।
६२४३. सुगममेदं । तत्थ ताव उवजोगद्धट्ठाणेसु जीवहिं विरहिदाविरहिदहाणपरूवणमुवरिमो सुत्तपबंधो
* उवजोगद्धट्ठाणेहिं ताव केत्तिएहिं विरहिवं केहिं कम्हि अविरहिदं?
$ २४४. केत्तिएहिं उवजोगद्धट्ठाणेहिं णिरंतरसरूवेण गदेहिं जीवविरहिदं ठाणमुवलब्भइ, केहिं वा जीवेहिं कम्हि गदिविसेसे अविरहियमसुण्णं होदूण कं ठाणमुवलब्भदि त्ति एत्थ पदसंबंधो कायव्यो । एवं पुच्छाणिद्देसं कादूण तदो एसा मग्गणा एत्थ कायव्या त्ति पदुप्पायणट्ठमिदमाह
* एत्थ मग्गणा।
$ २४५. एदम्मि अत्थविसेसे एसा मग्गणा णिरयादिगदीओ अस्सियूण कायव्वा त्ति भणिदं होइ । तत्थ ताव णिरयगदीए पयदमग्गणद्वमुवरिमपबंधमाह
घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंकके मिला देनेपर उनके भेदोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार ये दोनों ही स्थान उपयोगसम्बन्धी होनेसे उपयोगवर्गणाएँ हैं ऐसा यहाँ विवक्षित किया गया है । अब इसी अर्थका विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं
* ये दोनों ही प्रकारके स्थान उपयोगवर्गणा इस नामसे कहे जाते हैं।
$ २४३. यह सूत्र सुगम है। सर्वप्रथम उनमेंसे उपयोग-अद्धास्थानोंमें जीवोंसे रहित और सहित स्थानोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* कितने उपयोग-अद्धास्थानोंके जानेके बाद कौन स्थान रहित पाया जाता है और किन जीवोंसे किस गतिविशेषमें कौन स्थान सहित पाया जाता है। ____$२४४. कितने उपयोग-अद्धास्थानोंके द्वारा निरन्तररूपसे जानेके बाद कौन स्थान जीवोंसे रहित उपलब्ध होता है और किन जीवोंसे किस गतिविशेषमें कौन स्थान सहित अर्थात् अशून्य उपलब्ध होता है इस प्रकार यहाँपर पदसम्बन्ध करना चाहिए। इस प्रकार पृच्छानिर्देश करके उसके बाद यह मार्गणा यहाँपर करनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अब प्रकृतमें उक्त विषयकी मार्गणा करते हैं।
$ २४५. इस अर्थविशेषको ध्यानमें रखकर नरकादि गतियोंके आश्रयसे यह मार्गणा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसमें सर्वप्रथम नरकगतिमें प्रकृत मार्गणाके लिए आगेके प्रवन्धको कहते हैं
१. ता०प्रती उवजोगवग्गणाणि इति पाठः ।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९ ]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
* णिरयगदीए एगस्स जीवस्स को होवजोगद्धट्ठाणेसु णाणाजीवाणं
जवमज्भं ।
$ २४६. एत्थ णिरयगइणिद्देसो सेसगईणं पडिसेहट्ठो, सव्वासिमकमेण परूवणोवायाभावाद । तत्थ वि कोहादिकसायाणं चउण्हमकमेण परूवणोवायाभावादो कोहकसायविसयमेव ताव पयदपरूवणं वत्तइस्सामो त्ति जाणावणडुमेगजीवस्स को होव - जोगट्ठाणे ति णिसो कओ । एत्थेगजीवणिद्देसो कोहोवजोगद्वाणाण मेगजीवोदाहरणमुहेण सुहाववोहणदुमिदि दट्ठव्वं । तदो एगजीवस्स कोहोवजोगट्ठाणाणमंतोमुहुत्तमेत्ताणमेगसेढिआगारेण रचणं काढूण तत्थ णाणाजीवाणमवद्वाणक मप्पदंसणमेदं वुच्चदे - णाणाजीवाणं जवमज्झमिदि । तेसु अद्धट्ठाणेसु एयजीवविसयत्तेण णिद्धारिदसरूवेसु णाणाजीवाणं जवमज्झायारेणावद्वाणं होइ ति भणिदं होइ ।
१११
$ २४७. संपहि एदस्सत्थस्स किं चि फुडीकरणं' वत्तइस्साम । तं जहाजहए उवजोगद्धट्ठाणे जीवा असंखेजसेढिमेत्ता होंति । विदिए वि उवजोगट्ठाणे जीवा असंखेजसेढिमेत्ता चेव होंति । होंता वि जहण्णट्ठाणजीवे आवलियाए असंखेजदिभागेण खंडियूणेयखंडमेत्तेण भहिया होंति । पुणो वि एण विहिणा द्वाणं पडि विसेसाहियसरूवेण गच्छमाणा भागहारमेत्तोवजोगट्ठाणाणि गंभ्रूण तदित्थोव
—
* नरकगतिमें एक जीवके क्रोधकषायसम्बन्धी उपयोग - अद्धास्थानों में नाना जीवोंकी अपेक्षा यवमध्य होता है ।
$ २४६. इस चूर्णसूत्र में 'नरकगति' पदका निर्देश शेष गतियोंके प्रतिषेध के लिए किया है, क्योंकि सभी गतियोंके एक साथ प्ररूपण करनेका कोई उपाय नहीं है । उसमें भी चारों क्रोधादि कषायों के एक साथ प्ररूपण करनेका कोई उपाय न होनेसे क्रोधकषायविषयक प्रकृत प्ररूपणाको ही सर्वप्रथम बतलाते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'एक जीवके क्रोधसम्बन्धी उपयोग-अद्धास्थानोंमें' इस पदका निर्देश किया है । यहाँपर 'एक जीव' पदका निर्देश क्रोधसम्बन्धी उपयोग-अद्धास्थानोंका एक जीवके उदाहरण द्वारा सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिए जानना चाहिए । इसलिए एक जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण क्रोधसम्बन्धी उपयोग अद्धास्थानोंकी श्रेणिरूप से रचना करके उनमें नाना जीवोंके अवस्थानक्रमको दिखलानेके लिए 'नाना जीवोंका यवमध्य' यह वचन कहा है। एक जीवके विषयरूपसे निर्धारित किये गये उन अद्धास्थानों में नाना जीवोंका यत्रमध्यके आकाररूपसे अवस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
$ २४७. अब इसी अर्थका कुछ स्पष्टीकरण करके बतलाते हैं । यथा— जघन्य उपयोगअद्धास्थान में जीव असंख्यात जगच्छू णिप्रमाण होते हैं । दूसरे भी उपयोग अद्धास्थानमें जीव असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण ही होते हैं । यद्यपि इतने होते हैं तो भी जघन्य स्थानके जीवोंकी संख्यामें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने अधिक होते हैं । फिर भी इस विधिसे प्रत्येक स्थानके प्रति विशेष अधिकरूपसे जीवोंका प्रमाण लाते हुए भागहारप्रमाण उपयोग - अद्धास्थानोंके जानेपर वहाँके उपयोग- अद्धास्थानोंमें जो जीव
१. ता०प्रतौ फुडीकारणं इति पाठः । २. ता० प्रतौ गच्छमाण इति पाठः ।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ जोगद्धट्ठाणजीवा पढमट्ठाणजीवेहिंतो दुगुणा भवंति । पुणो एदस्स दुगुणवड्ढिवाणस्सुवरि विसेसाहियसरूवेण तेत्तियमेत्तमद्धाणं गंतूण अण्णेगं दुगुणवड्ढिट्ठाणमुप्पजइ । णवरि पुयिल्लपक्खेवेहितो संपहियपक्खेवा दुगुणा होति त्ति वत्तव्वं । पुणो एदेण विहिणा आवलियाए असंखेज्जदिभागदुगुणमेत्तभागवड्ढीओ अवद्विदपक्खेवभागहारपडिबद्धाओ उवरि गंतूण तत्थेगम्मि उवजोगट्टाणे जवमझं होइ, तत्तो उवरिमट्ठाणेसु विसेसहाणिकमेण जीवाणमवट्ठाणदसणादो। णवरि जवमज्झादो हेट्ठिमसयलदुगुणवड्विट्ठाणेहितो उवरिमदुगुणहाणिट्ठाणंतराणि संखेजगुणाणि ति घेत्तव्वं, हेडिमद्धाणादो उवरिमद्धाणस्स संखेजगुणत्तादो। ण चेदमसिद्धं, उवरिमसुत्तेण तेसिं तहाभावसिद्धीदो । कि तं उवरिमसुत्तमिदि चे तस्सेदाणिमवयारो कीरदे
* तं जहा-हाणाणं संखेजदिभागे ।
६ २४८. एदमणंतरणि द्दिटुं जवमज्झट्ठाणं सयलद्धट्ठाणाणमादीदो पहुडि संखेजदिमागे समुप्पण्णमिदि वुत्तं होइ । तदो द्वाणाणं संखेजदिमागे चेव जवमज्झट्ठाणं होदूण पुणो उवरिमसयलद्धाणम्मि विसेसहाणिसरूवेणावलियाए असंखेजदिभागमेत्तगुणहाणिट्ठाणंतराणि हेट्ठिमगुणवड्डिट्ठाणेहिंतो संखेजगुणाणि समयाविरोहेण णेदव्वाणि त्ति सिद्धं । प्राप्त होते हैं वे प्रथम स्थानके जीवोंसे दूने होते हैं। पुनः इस द्विगुणवृद्धिस्थानके ऊपर विशेष अधिकरूपसे उतने ही स्थान जाकर एक दूसरा द्विगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इतनी विशेषता है कि पिछले द्विगुणवृद्धिस्थानोंके प्रक्षेपोंसे वर्तमान द्विगुणवृद्धिस्थानोंके प्रक्षेप दूने होते हैं ऐसा यहाँ कहना चाहिए । पुनः इस विधिसे अवस्थित प्रक्षेप-भागहारसे सम्बन्ध रखनेवाली आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणभागवृद्धियाँ हो जानेपर वहाँपर प्राप्त हुए एक उपयोग-अद्धास्थानमें यवमध्य होता है, क्योंकि उससे आगेके स्थानोंमें विशेष हानिके क्रमसे जीवोंका अवस्थान देखा जाता है । इतनी विशेषता है कि यवमध्यसे पूर्वके समस्त द्विगुणवृद्धिस्थानोंसे आगेके द्विगुणहानिस्थान संख्यातगुणे हैं ऐसा यहाँपर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पूर्वके अध्वानसे आगेका अध्वान संख्यातगुणा है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि आगेके सूत्रसे उनके उस प्रकारसे होनेकी सिद्धि होती है। वह आगेका सूत्र कौनसा है ऐसी आशंका होनेपर उसका इस समय अवतार करते हैं
* वह यवमध्यस्थान जितने स्थान हैं उनके संख्यातवें भागमें होता है ।
$ २४८. यह पूर्व में जो यवमध्यस्थान निर्दिष्ट कर आये हैं वह समस्त अद्धास्थानोंके प्रारम्भसे लेकर संख्यातवें भाग जानेपर उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसलिए समस्त स्थानोंके संख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर ही यवमध्यस्थान होकर पुनः आगेके समस्त अध्वानोंमें विशेष हानिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानिस्थान पिछले गुणवृद्धिस्थानोंसे समयके अविरोधपूर्वक संख्यातगुणे होते हैं यह सिद्ध हुआ ।
विशेषार्थ—यहाँपर यवमध्यस्थानके प्राप्त होने तक पूर्व में कितनी द्विगुणवृद्धियाँ होती २. ता प्रती उवरिमट्ठ गुण- इति पाठः ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
११३ २४९. संपहि जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च एगगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरमावलियाए असंखेजदिभागमेत्तं चेव होदि त्ति जाणावणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं
* एगगुणवड्डि-हाणिहाणंतरमावलियवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो।
$ २५०. आवलिया णाम पमाणविसेसो । तिस्से वग्गमूलमिदि वुत्ते तप्पढमवग्गमूलस्स गहणं कायव्वं । तस्स वि असंखेजदिभागो जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च एगगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरमवद्विदं होइ । णाणागुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ वुण असंखेजावलियपढमवग्गमूलमेत्ताओ एदम्हादो चेव साहेयव्वाओ त्ति पुध ण वुत्ताओ। एदं सव्वमदीदकालमस्सियूण परूविदं । संपहि वट्टमाणकालमस्सियूण विसेसपरूवणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
___* हेट्ठा जवमज्झस्स सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि सदा।
२५१. जवमज्झस्स हेट्ठा ताव सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि सव्वकालमवि. रहिदसरूवेण जीवहिं आबुण्णाणि चेव होति ति णिच्छओ कायव्यो, एकस्स वि गुणहाणिहाणंतरस्स जीवसुण्णस्स तत्थ संभवाणुवलंभादो। संपहि तत्थतणसव्वअद्धट्ठाणाणि हैं और उसके आगे कितनी द्विगुणहानियाँ होती हैं इस प्रमाणका निर्देश करते हुए यह बतलाया गया है कि यवमध्यस्थान जहाँ अवस्थित हैं वहाँ तक जितनी द्विगुणवृद्धियाँ होती हैं उससे आगे द्विगुणहानियाँ संख्यातगुणी होती हैं।
$ २४९. अब यवमध्यसे पूर्वमें और आगे एक गुणवृद्धिस्थान और एक गुणहानिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र आया है
* एक गुणवृद्धिस्थानान्तर और एक गुणहानिस्थानान्तर आवलिके वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
. $२५०. आवलि प्रमाणविशेषका नाम है। उसका वर्गमूल ऐसा कहनेपर उसके प्रथम वर्गमूलको ग्रहण करना चाहिए। उसके भी असंख्यातवें भागप्रमाण यवमध्यसे पूर्व एक गुणवृद्धिस्थानान्तर और उसके आगे एक गुणहानिस्थानान्तर अवस्थितस्वरूप है। अर्थात् एक आवलिके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागका जो प्रमाण है उतना प्रकृतमें एक गुणवृद्धिस्थान और एक गुणहानिस्थानका प्रमाण है। नाना गुणहानिस्थानान्तरशलाकाऐं तो असंख्यात आवलियोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं यह इसी वचनसे साध लेना चाहिए, इसलिए उनका कथन अलगसे नहीं किया है । यह सब अतीत कालका आश्रय लेकर कहा है। अब वर्तमान कालका आश्रय लेकर विशेषका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* यवमध्यके अधस्तन (पूर्व ) वर्ती सब गुणहानिस्थानान्तर सर्वदा आपूर्ण हैं अर्थात् जीवोंसे भरे हुए हैं।
$२५१. यवमध्यके पूर्ववर्ती तो सर्व गुणहानिस्थानान्तर सर्वदा अन्तरालके विना जीवोंसे आपूर्ण ही होते हैं ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए, क्योंकि उनमें एक भी गुणहानि
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे __ [ उवजोगो७ किं जीवेहिं णिरंतरमावुण्णाणि आहो गेदि एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुवरिमं सुत्तमाह
* सव्वअठ्ठाणाणं पुण असंखेज्जा भागा आवुण्णा ।
२५२. तत्थतणसव्वअद्धट्ठाणाणमसंखेजा चेव भागा जीवेहिं अविरहिदसरूवेणावुण्णा । तदसंखेजदिभागो पुण जीवेहिं विरहिदो होदूण लब्भदि त्ति वुत्तं होइ । जइएवं सव्वाणि गुणहाणिट्ठाणंतराणि आवुण्णाणि त्ति कधं पुवुत्तं घडदि त्ति णासंका कायव्वा, पादेकसव्वगुणहाणिट्ठाणंतरेसु केत्तियाणं पि अट्ठाणाणं जीवसुण्णत्ते वि तेसिं गुणहाणिहाणंतराणं समुदायविवक्खाए आवुण्णत्ताविरोहादो। एवं ताव जवमज्झादो हेट्ठा जीवेहिं विरहिदाविरहिदवाणाणं गवेसणं कादण संपहि तत्तो उवरिमेसु वि हाणेसु पयदयमग्गणमुवरिमं पबंधमाह
* उवरिमजवमज्झस्स जहण्णण गुणहाणिहाणंतराणं संखेजदिभागो आवुण्णो । उक्कस्सेण सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि । ___२५३. जहा जवमज्झादो हेट्ठा सव्वाणि गुणहाणिट्ठाणंतराणि णियमा आवुण्णाणि ण एवं जवमज्झादो उवरिमगुणहाणिट्ठाणेसु तहाविहणियमसंभवो । किंतु तत्थ जहण्णेण सब्वगुणहाणिट्ठाणंतराणं संखेजदिभागो चेव जीवेहिं आरिजदि, सेसाणं संखेजास्थानान्तर जीवोंसे रहित नहीं पाया जाता । अब वहाँके सब अद्धास्थान क्या जीवोंसे निरन्तर आपूर्ण हैं या नहीं इस प्रकारकी आशंका होनेपर निशंक करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु सर्व अद्धास्थानोंका असंख्यात बहुभाग ही आपूर्ण है।
$ २५२ वहाँके सर्व अद्धास्थानोंका असंख्यात बहुभाग ही जीवोंसे निरन्तररूपसे आपूर्ण है । उनका असंख्यातवां भाग तो जीवोंसे रहित पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यदि ऐसा है तो सब गुणहानिस्थानान्तर आपूर्ण हैं यह पूरोक्त कथन कैसे घटित होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पृथक्-पृथक् सब गुणहानिस्थानान्तरोंमेंसे कितने ही अद्धास्थान जीवोंसे रहित होनेपर भी समुदायकी विवक्षामें उन गुणहानिस्थानान्तरोंके आपूर्णपनेके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। . इस प्रकार सर्व प्रथम यवमध्यसे पूर्व के जीवोंसे रहित और सहित स्थानोंका विचार करके अब उससे उपरिम स्थानोंमें भी प्रकृत विषयका विचार करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* यवमध्यसे आगेके गुणहानिस्थानान्तरोंका जघन्यरूपसे संख्यातवाँ भाग जीवोंसे आपूर्ण है तथा उत्कृष्टरूपसे सब गुणहानिस्थानान्तर जीवोंसे आपूर्ण हैं ।
$ २५३. जिस प्रकार यवमध्यसे पूर्वके सब गुणहानिस्थानान्तर नियमसे जीवोंसे आपूर्ण हैं उस प्रकार यवमध्यसे आगेके गणहानिस्थानों में उस प्रकारका नियम नहीं देखा जाता। किन्तु उनमें जघन्यरूपसे सब गुणहानिस्थानान्तरोंका संख्यातवाँ भाग ही जीवोंद्वारा
www
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
११५
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा भागमेत्तगुणहाणिट्ठाणंतराणं जीवसुण्णाणं कदाई संभवोवलंभादो। उक्स्सेण पुण सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि लब्भंति, कदाइं सव्वाणि वि गुणहाणिट्ठाणंतराणि णिरुभियूण णेरइयाणमवट्ठाणदंसणादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो । जवमज्झादो हेट्ठा वुण ण एवंविहो जहण्णुक्कस्सपविभागो अत्थि, तत्थ सव्वकालं जहण्णदो उक्कस्सदो वि पुव्यपरूविदेण कमेण जीवाणमवट्ठाणणियमदंसणादो। तदो ण तत्थ जहण्णुकसभेदं कादण तण्णिद्देसो कओ त्ति दट्ठव्वं । संपहि जवमज्झादो उवरिमअट्ठाणाणं पि जहण्णुक्कस्सभेदेण जीवेहिं सुण्णासुण्णभावगवेसणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं
___ * जहण्णेण अद्धट्ठाणाणं संखेजदिभागो आवुण्णो । उक्कस्सेण अद्धहाणाणमसंखेजा भागा आउण्णा।
६२५४. जहण्णेण ताव अद्धट्ठाणाणं संखेजदिभागो चेव जीवेहिं आउण्णो होइ । किं कारणं ? जवमज्झादो उवरिमगुणहाणिट्ठाणंतराणं संखेजदिभागमेत्तगुणहाणिहाणंतरेसु जहण्णेणावुण्णेसु तदवयवभूदाणमट्ठाणाणं पि सव्वअट्ठाणाणं संखेजदिभागमेत्ताणमावूरणे विरोहाभावादो । उक्कस्सेण वुण णिरुद्धविसयसयलद्धट्ठाणाणमसंखेजा भागा जीवेहिं आवुण्णा होति, सव्वेसु गुणहाणिहाणंतरेसु उक्कस्सपक्खेवेजावूरिदेसु वि तदवयवभूदाणमट्ठाणाणं सगसव्वअट्ठाणाणमसंखेजदिभागमेत्ताणं
भरा जाता है, क्योंकि शेष संख्यात बहुभागप्रमाण गुणहानिस्थानान्तर कदाचित् जीवोंसे रहित पाये जाते हैं। परन्तु उत्कृष्टरूपसे सब गुणहानिस्थानान्तर जीवोंसे आपूर्ण प्राप्त होते हैं, क्योंकि कदाचित् सभी गुणहानिस्थानान्तरोंको व्याप्तकर नारकियोंका अवस्थान देखा जाता है यह प्रकृतमें सूत्रार्थका तात्पर्य है। परन्तु यवमध्यके पूर्व इस प्रकारका जघन्य और उत्कृष्टरूप विभाग नहीं है, क्योंकि वहाँ सर्वदा जघन्यरूपसे और उत्कृष्टरूपसे भी पूर्व में कहे गये क्रमके अनुसार ही जीवोंके अवस्थानका नियम देखा जाता है। इसलिये वहाँ जघन्य और उत्कृष्टका भेद करके उक्त विषयका निर्देश नहीं किया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । अब-यवर. यसे आगेके अद्धास्थानोंमें भी जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे जीवोंसे रहित और सहितपनेकी गवेषणा करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
___* जघन्यरूपसे अद्धास्थानोंका संख्यातवाँ भाग जीवोंसे आपूर्ण है तथा उत्कृष्टरूपसे अद्धास्थानोंका असंख्यात बहुभाग जीवोंसे आपूर्ण है ।
६२५४. जघन्यरूपसे तो अद्धास्थानोंका संख्यातवाँ भाग ही जीवोंसे आपूर्ण होता है, क्योंकि यवमध्यसे आगेके गुणहानिस्थानान्तरोंके संख्यातवें भागमात्र गुणहानिस्थानान्तरोंके जघन्यरूपसे जीवोंसे आपूर्ण होनेपर उनके अवयवभूत अद्धास्थानोंके भी, जो कि सब अद्धास्थानोंके संख्यातवें भागमात्र हैं, जीवोंसे परिपूर्ण होनेमें कोई विरोध नहीं आता । परन्तु उत्कृष्टरूपसे तो विवक्षित विषयसम्बन्धी सब अद्धास्थानोंके असंख्यात बहुभागस्थान जीवोंसे आपूर्ण होते हैं, क्योंकि सब गुणहानिस्थानान्तरोंके उत्कृष्ट प्रक्षेपसे आपूरित होनेपर भी उनके अवयवभूत अद्धास्थनोंमेंसे अपने सब अद्धास्थानोंके असंख्यातवें भागमात्र स्थानोंके
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ जीवसण्णाणमुवलंभसंभवे विरोहाणुवलंभादो। एवं ताव एकेणुवदेसेण जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च गुणहाणिट्ठाणाणमद्धहाणाणं च एत्तिओ एत्तिओ भागो जीवेहि अविरहिओ होइ एत्तिओ च भागो जीवविरहिओ होइ ति णिण्णयपरूवर्ण कादण संपहि एदिस्से उवएसस्स सव्वाइरियसम्मदत्तेण पहाणभावपदुप्पायणमिदमाह
* एसो उवएसो पवाइजह ।
$ २५५. जो एसो अणंतरपरूविदो उवएसो सो पवाइजदे पण्णाविञ्जदे अविसंवादसरूवेण सव्वाइरिएहिं सव्वकालमादिरिजदि त्ति वुत्तं होइ । अपवाइजंतेण पुण उवदेसेण केरिसी पयदपरूवणा होदि त्ति एवंविहासंकाए पिण्णयकरणमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* अण्णो उवदेसो सव्वाणि गुणहाणिट्ठाणंतराणि अविरहियाणि जीवहिं, उवजोगद्धहाणाणमसंखेन्जा भागा अविरहिदी।
$२५६. पवाइजंतादो अण्णो जो उवएसो अपवाइजंतो, तेण जीवविरहिदाविरहिट्ठाणपरूवणाए कीरमाणाए जवमज्झादो हेट्ठा उवरि वि भेदेण विणा एवं होदि ति वुत्तं होइ। सुगममण्णं जवमज्झादो हेहिमपुग्विल्लपरूवणाए समाणवक्खाण त्तादो।
जीवोंसे रहित उपलब्ध होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता। इस प्रकार एक उपदेशके अनुसार यवमध्यसे पूर्वके और आगेके गुणहानिस्थानों और अद्धास्थानोंका इतना इतना भाग जीवोंसे युक्त होता है और इतना भाग जीवोंसे रहित होता है इसके निर्णयका कथन करके अब यह उपदेश सब आचार्योंद्वारा सम्मत होनेके कारण प्रधान है इस बातका कथन करनेके लिये इस सूत्रवचनको कहते हैं
* यह उपदेश प्रवाह्यमान है।
६२५५. जो यह अनन्तर कहा गया उपदेश है वह प्रवाह्यमान है. प्रज्ञापित है. अविसंवादरूपसे सब आचार्य सदा उसका आदर करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। किन्तु अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार प्रकृत प्ररूपणा किस प्रकारकी है इस प्रकारकी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* अन्य उपदेश है कि सब गुणहानिस्थानान्तर जीवोंसे युक्त हैं तथा उपयोग अद्धास्थानोंका असंख्यात बहुभाग जीवोंसे युक्त है।
$ २५६. प्रवाह्यमानसे अन्य जो उपदेश है वह अप्रवाह्यमान उपदेश है। उसके अनुसार जीवोंसे रहित और सहित स्थानोंका कथन करनेपर यवमध्यसे पूर्व के और आगेके सभी स्थान भेदके विना इस प्रकारके होते हैं यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। अन्य सब कथन सुगम है, क्योंकि यवमध्यसे पूर्वको और बादकी प्ररूपणाका व्याख्यान समान है।
१ ता०प्रती सो इति पाठो नास्ति। २ ता प्रती उवयोगट्ठाणाणमसंखेज्जा भागा अविरहिया इति पाठः टीकांशस्वरूपेण मुद्रितः ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
११७ $ २५७. संपहि एदेणत्थपदेणेत्थ जवमज्झपरूवणाए तत्थेमाणि छ अणियोगद्दाराणि पदव्वाणि भवंति–परूवणा जाव अप्पाबहुए त्ति । परूवणदाए जहण्णए उवजोगट्ठाणे अत्थि जीवा, विदिये उवजोगद्धट्ठाणे अत्थि जीवा । एवं जाव उक्कस्सए उवजोगद्धट्ठाणे अत्थि जीवा । पमाणं-जहण्णए उवजोगद्धट्ठाणे जीवा केत्तिया ? असंखेजसेढिमेत्तिया भवंति । विदिए वि उवजोगट्ठाणे जीवा असंखेजसेढिमेत्ता । एवं जाव उक्कस्सट्टाणे त्ति ।
. २५८. सेढिपरूवणा दुविहा–अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा च । अणंतरोवणिधाए जहण्णए उवजोगद्धवाणे जीवा थोवा। विदिये उवजोगद्धट्ठाणे जीवा विसेसाहिया आवलियाए असंखेजदिमागपडिभागेण । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव जवमज्झे त्ति । तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव उक्स्सट्ठाणे त्ति । परंपरोवणिधाए जहण्णुवजोगद्धट्ठाणजीवेहितो आवलियाए असंखेजादिमागं गंतूण दुगुणवड्डिदा, एवं दुगुणवडिदा जाव जवमझे त्ति । तेण परं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सट्ठाणे त्ति ।
$२५९. एत्थ तिण्णि अणियोगदारेहिं परूवणा पमाणमप्पाबहुअं च । तत्थ परूवणाए अत्थि णाणादुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरसलागाओ एगदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरं च। पमाणमेगदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतरमावलियपढमवग्गमूलस्सासंखेजदिभागो । णाणादुगुण
६२५७. अब इस अर्थपदके अनुसार यहाँ यवमध्यकी प्ररूपणा करनेपर उस विषयमें प्ररूपणासे लेकर अल्पबहुत्व तकके ये छह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। प्ररूपणाके अनुसार कथन करनेपर जघन्य उपयोगाद्धास्थानमें जीव हैं, दूसरे उपयोग अद्धास्थानमें जीव हैं। इसी प्रकार यावत् उत्कृष्ट उपयोग अद्धास्थानमें जीव हैं। प्रमाण अनुयोगद्वारके अनुसार कथन करनेपर जघन्य उपयोग अद्धास्थानमें जीव कितने हैं ? असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण हैं। दूसरे भी उपयोग अद्धास्थानमें जीव असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट उपयोग अद्धास्थान तक जानना चाहिये ।
$२५८. श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य उपयोग अद्धास्थानमें जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे दूसरे उपयोग अद्धास्थानमें विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना है। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक जानना चाहिए। उसके बाद उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक विशेष हीन, विशेष हीन जानने चाहिए । परम्परोपनिधाकी अपेक्षा विचार करनेपर जघन्य उपयोग अद्धास्थानके जीवोंसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे द्विगुणवृद्धिरूप हो जाते हैं। इसी प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक द्विगुणवृद्धिरूप, द्विगुणवृद्धिरूप जानने चाहिए। उसके बाद उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक द्विगुणहीन, द्विगुणहीन जानने चाहिए ।
६२५९. यहाँ प्रकृतमें तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमेंसे प्ररूपणाकी अपेक्षा नाना द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर और द्विगुणहानिस्थानान्तर शलाकाएँ हैं तथा एक द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर और एक द्विगुणहानिस्थानान्तर शलाका है। प्रमाण-एक
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ वड्डि-हाणिट्ठाणंतरसलागाओ असंखेन्जाणि आवलियपढमवग्गमूलाणि । अप्पाबहुअंएयदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतरं थोवं । णाणादुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरसलागाओ असंखेजगुणाओ।
२६०. संपहि अवहारो वुचदे-जहण्णउवजोगट्ठाणजीवपमाणेण सव्वउवजोगद्धट्ठाणजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति १ असंखेजेण कालेण अवहिरिजंति । अथवा पलिदोवमस्स असंखेञ्जदिभागमेत्तेण कालेण अवहिरिजंति । एत्तो भागहारं विसेसहीणं कादण णेदव्वं जाव जवमझे त्ति । पुणो जवमज्झजीवपमाणेण तिण्णिगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति । एत्तो उवरि भागहारो विसेसाहियसरूवेण णेदव्यो जाव उकस्सट्ठाणे त्ति । पुणो उक्कस्सट्ठाणजीवपमाणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण कालेण अवहिरिजंति । भागाभागो जाणिय णेदव्यो ।
२६१. अप्पाबहुअं—सव्वत्थोवा उक्कस्सए उवजोगद्धट्ठाणे जीवा । जहण्णए उवजोगट्ठाणे जीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । जवमज्झाजीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । जवमज्झस्स हेडिमजीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो ।
द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर तथा एक द्विगुणहानिस्थानान्तर आवलिके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । नाना द्विगुणवृद्धिस्थानान्तरशलाकाएँ और नाना द्विगुणहानिस्थानान्तर शलाकाएँ आवलिके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं। अल्पबहुत्व-एक द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर और एक द्विगुणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक है। उससे नाना द्विगुणवृद्धिस्थानान्तरशलाकाएँ और नाना द्विगुणहानिस्थानान्तरशलाकाएं असंख्यातगुणी हैं।
६२६०. अब अवहारका कथन करते हैं-जघन्य उपयोग अद्धास्थानके जीवोंके प्रमाणसे सब उपयोग अद्धास्थानोंके जीव कितने कालके द्वारा अपहृत होते हैं ? असंख्यात कालके द्वारा अपहृत होते हैं। अथवा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा अपहृत होते हैं। इससे आगे यवमध्यके प्राप्त होने तक भागहारको विशेष हीन करके ले जाना चाहिए। पुनः यवमध्यके जीवोंके प्रमाणसे तीन गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण काल द्वारा अपहृत होते हैं। इससे आगे उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक भागहारको विशेष अधिक करके ले जाना चाहिए । पुनः उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्रमाणसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालद्वारा अपहृत होते हैं। यहाँ प्रत्येक स्थानपर विवक्षित कालको भागहार बनाकर सब उपयोग अद्धास्थानोंके जीवोंके प्रमाणको उससे भाजित कर विवक्षित स्थानकी संख्या प्राप्त की गई है। भागहारका उल्लेख मूलमें किया ही है। भागाभागका जानकर कथन करना चाहिए।
२६१. अल्पबहुत्व-उत्कृष्ट उपयोग अद्धास्थानमें जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे जघन्य उपयोग अद्धास्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार कर है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणं गुणकार है। उनसे यवमध्यसे पूर्ववर्ती स्थानोंके जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
११९
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा जवमज्झादो उवरिमजीवा विसेसाहिया । सव्वेसु द्वाणेसु जीवा विसेसाहिया। एसा णिरयगदीए कोहकसायस्स णिरुंभणं कादूण परूवणा कया। एवं सेसकसायाणं सेसगदीणं च पादेकं णिरंभणं कादूण पयदपरूवणा णिरवसेसमणुगंतव्या । तदो उवजोगद्धद्वाणपरूवणा समत्ता।
5 २६२. संपहि कसायुदयट्ठाणेसु पयदपरूवणमुवरिमो सुत्तपबंधो
* एदेहिं दोहिं उवदेसेहिं कसायउदयट्ठाणाणि णेदव्वाणि तसाणं ।
$ २६३. एदेहि उवजोगद्धट्ठाणाणमणंतरपरूविदेहिं दोहि उवदेसेहिं पवाइजंतापवाइजंतसरूवेहिं कसायुदयट्ठाणाणि णेदव्याणि त्ति वुत्तं होइ । दोण्हं पि उवदेसाणमेत्थ परूवणामेदो पत्थि । तेण दोहि मि सरिसेहिं भावोवजोणवग्गणाओ अणुमग्गियव्याओ त्ति भावत्थो । कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? सुत्ते तदुभयविसयविसेसणिदेसादसणादो । केसिं पुण जीवाणं कसायुदयट्ठाणाणि णेदव्वाणि त्ति आसंकाए तसाणमिदि णिदेसो कओ। तसजीवे अहिकरिय एसा परूवणा कायव्वा, तदण्णेसिं जीवाणमणंतसंखावच्छिण्णाणमसंखेजलोगमेत्तेसु थावरपाओग्गकसायुदयट्ठाणेसु सव्वकालं णिरंतरसरूवेण समयाविरोहेणावट्ठाणसिद्धीए अणुत्तसिद्धत्तेण तव्विसयपरूवणाए अणहियारादो । उनसे यवमध्यसे उपरिम स्थानोंके जीव विशेष अधिक हैं। उनसे सब स्थानोंके जीव विशेष अधिक हैं। नरकगतिमें क्रोधकषायकी मुख्यतासे यह प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार शेष कषायों और शेष गतियोंमेंसे प्रत्येकको मुख्यकर समस्त प्रकृत प्ररूपणा जाननी चाहिए । इसके बाद उपयोग अद्धास्थान प्ररूपणा समाप्त हुई ।
२६२. अब कषाय उदयस्थानोंमें प्रकृत प्ररूपणा करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको
* इन दोनों उपदेशोंके आश्रयसे त्रसजीवोंके कषाय उदयस्थान जानने चाहिये ।
$ २६३. उपयोग अद्धास्थानोंके विषयमें अनन्तर कहे गये इन दोनों प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान उपदेशोंके आश्रयसे कषायउदयस्थान जानने चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इन दोनों ही उपदेशोंकी अपेक्षा प्रकृतमें प्ररूपणाभेद नहीं है, इसलिए सदृश इन दोनों उपदेशोंके अनुसार भावोपयोगवर्गणाओंकी मार्गणा कर लेनी चाहिए यह उक्त कथनका भावार्थ है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि सूत्रमें इन दोनों उपदेशोंके अनुसार पृथक् पृथक् विशेष निर्देश
नहीं देखा जाता।
किन जीवोंके कषाय उदयस्थान ले जाने चाहिए ऐसी आशंका होनेपर 'तसाणं' पदका निर्देश किया है । त्रसजीवोंको अधिकृतकर यह प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उनसे अन्य स्थावर जीवोंकी संख्या अनन्त है। उनका स्थावरप्रायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण कषाय उदयस्थानोंमें निरन्तररूपसे सर्वदा आगमानुसार पाया जाना सिद्ध है, इस प्रकार अनुक्त सिद्ध होनेसे तद्विषयक प्ररूपणाका यहाँ अधिकार नहीं है। इसलिए त्रसोंकी ओघसे प्ररूपणा
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ तदो तसाणमोघपरूवणट्ठमुवरिमो परूवणापबंधो
* तं जहा।
$ २६४. सुगममेदं पुच्छावकं । संपहि एवं पुच्छाविसईकयस्थस्स परूवणं कुणमाणो तत्थ ताव कसायुदयट्ठाणाणमियत्तावहारणट्ठमुबरिमं सुत्तमाह
* कसायुदयट्ठाणाणि असंखेजा लोगा।
$ २६५. असंखेजाणं लोगाणं जत्तिया आगासपदेसा अत्थि तत्तियमेत्ताणि चेव कसायुदयट्ठाणाणि होति त्ति भणिदं होइ। ताणि च कसायुदयट्ठाणाणि जहण्णद्वाणप्पहुडि जावुकस्सट्टाणे ति छवड्डिकमेणावद्विदाणि त्ति घेतव्वं । तत्थ ताव वट्टमाणसमयम्मि तसजीवेहि केत्तियाणि द्वाणाणि आपूरिदाणि केत्तियाणि च सुण्णट्ठाणाणि त्ति एदस्स णिद्धारणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं--
* तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि आवुण्णाणि ।
$ २६६. तेसु असंखेजलोगमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु तसपाओग्गेसु वट्टमाणसमयम्मि केत्तियाणि हाणाणि तसजीवेहिं अवुण्णाणि त्ति णिहालिजमाणे जत्तिया तसा अत्थि तत्तियमेत्ताणि चेव कसायुदयट्ठाणाणि जीवेहिं अवुण्णाणि लब्भंति, एककम्मि कसायुदयट्ठाणे एकेकस्स चेव तसजीवस्स कदाइमवट्ठाणसंभवादो। णवरि तेत्तियमेत्ताणि कसायुदयट्ठाणाणि एगेगजीवाहेडियाणि णिरंतरसरूवेण ण लब्भंति, आवलियाए करनेके लिये आगेका प्ररूपणाप्रबन्ध है
* वह कैसे ?
$२६४. यह पृच्छावाक्य सुगम है। अब इस प्रकार पृच्छाके विषयभूत अर्थका कथन करते हुए वहाँपर सर्वप्रथम कषाय उदयस्थानोंके परिमाणका निश्चय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं___ * कषाय-उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं ।
$ २६५. असंख्यात लोकोंके जितने आकाशप्रदेश हैं उतने ही कषायउदयस्थान हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वे कषाय उदयस्थान जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक छह वृद्धियोंके क्रमसे अवस्थित हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उनमेंसे सर्वप्रथम वर्तमान समयमें त्रस जीवोंके द्वारा कितने उदयस्थान आपूर्ण है और कितने शून्यस्थान है इस प्रकार इस विषयका निश्चय करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* उनमेंसे जितने त्रसजीव हैं उतने स्थान त्रसजीवोंसे आपूर्ण हैं।
६२६६. उन असंख्यात लोकप्रमाण त्रसप्रायोग्य उदयस्थनोंमेंसे वर्तमान समयमें कितने ही स्थान त्रसजीवोंसे आपूर्ण हैं इस विषयका विचार करनेपर जितने त्रसजीव हैं उतने ही कषाय उदयस्थान त्रसजीवोंसे आपूर्ण प्राप्त होते हैं, क्योंकि एक एक कषाय उदयस्थानमें एक एक ही त्रसजीवका कदाचित् अवस्थान सम्भव है। इतनी विशेषता है कि उतने सब उदयस्थान एक-एक जीवके द्वारा निरन्तररूपसे अधिष्ठित होकर नहीं प्राप्त होते । किन्तु उत्कृष्टरूपसे
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२१
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा असंखेजदिभागमेत्ताणं चेव जीवसहिदाणमुक्कस्सपक्खेण णिरंतरट्ठाणाणमुवएसादो । तदो सांतर-णिरंतरकमेण तसजीवमेत्ताणि चेव कसायुदयट्ठाणाणि जीवेहिं आवुण्णाणि त्ति घेत्तव्यं । एवं ताव वट्टमाणकालविसये तसजीवमेत्ताणं हाणाणं जीवेहिं आवुण्णत्तं णिरूविय संपहि अदीदकालमस्सियूण सव्वेसु कसायुदयहाणेसु तसजीवाणमवट्ठाणकमप्पदंसणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* कसायुदयहाणेसु जवमझेण जीवा रांति ।।
5 २६७. असंखेजलोगमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु अदीदकालविसये तसजीवाणमवट्ठाणकमो केरिसो त्ति पुच्छिदे जवमझेण जीवा रांति त्ति णिद्दिष्टुं । एवं च कसायुदयट्ठाणेसु जवमज्झसरूवेण जीवाणमवट्ठाणं होदि त्ति पइण्णाय संपहि जवमज्झपरूवणाए कीरमाणाए तत्थ इमाणि छ अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति–परूवणा जाव अप्पाबहुए त्ति । तत्थ परूवणाए जहण्णए कसायुदयट्ठाणे अत्थि जीवा । एवं जावुक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे अत्थि जीवा त्ति । पमाणं-जहण्णए कसायुदयट्ठाणे जीवा जहण्णेणेको वा दो वा जावुक्कस्सेणावलियाए असंखेजदिभागो। विदियट्ठाणे वि तत्तिया चेव । एवं णेदव्वं जावुकस्सट्टाणे वि जीवा आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता त्ति । एवमेदाणि दो वि सुगमाणि त्ति सुत्ते ण परूविदाणि । संपहि सेढिपरूवणमुवरिमं पबंधमाहआवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही जीव सहित निरन्तर स्थान पाये जानेका उपदेश है। इसलिए सान्तर-निरन्तरक्रमसे त्रसजीवोंकी संख्याप्रमाण ही कषाय-उदयस्थान त्रसजीवोंसे आपूर्ण हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार सर्व प्रथम वर्तमान कालकी अपेक्षा त्रसजीवप्रमाण स्थान जीवोंसे आपूर्ण हैं इस बातका कथनकर अब अतीत कालकी अपेक्षा सब कषाय उदयस्थानोंमें अवस्थानक्रमको दिखलानेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* कषाय-उदयस्थानोंमें जीव यवमध्यके आकारसे रहते हैं।
६२६७. असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें अतीत कालकी अपेक्षा त्रसजीवोंका अवस्थानक्रम कैसा है ऐसा पूछनेपर यवमध्यरूपसे जीव रहते हैं ऐसा निर्देश किया है । और इसप्रकार कषाय-उदयस्थानोंमें यवमध्यरूपसे जीवोंका अवस्थान है ऐसी प्रतिज्ञा करके अब यवमध्यकी प्ररूपणा करनेपर वहाँ ये छह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-प्ररूपणासे लेकर अल्पबहत्व तक । उनमेंसे प्ररूपणाकी अपेक्षा जघन्य कषाय उदयस्थानमें जीव हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थान तक प्रत्येक कषाय उदय-स्थानमें जीव हैं। प्रमाण--जघन्य कषाय-उदयस्थानमें जीव जघन्यसे एक या दो से लेकर उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । द्वितीय स्थानमें भी जीव उतने ही हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थानमें भी जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं इस स्थानके प्राप्त होने तक कथन करना चाहिए। इस प्रकार ये दोनों ही अनुयोगद्वार सुगम हैं, इसलिए इनका सूत्रमें कथन नहीं किया। अब श्रेणिका कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
१. ता० प्रती एंति इति पाठः । २. ता० प्रतौ एंति इति पाठः ।
aamanawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww
१६
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[उवजोगो७ * जहण्णए कसायुदयहाणे तसा थोवा ।
६२६८, कुदो ? सव्वजहण्णसंकिलेसेण परिणममाणजीवाणं बहूणमणुवलंभादो। किंपमाणा एदे ? आवलियाए असंखेजदिमागमेत्ता । कुदो एदं परिच्छिजदे ? परमगुरूवएसादो । जइ एसा जवमज्झपरूवणा अदीदकालविसया तो जहण्णए कसायुदयट्ठाणे अणंतेहि तसजीवेहिं होदव्वमिदि णासंकणिज्जं, अदीदकाले एगसमयम्मि उक्कस्सेणावलियाए असंखेजदिभागादो अहियाणं तसजीवाणं तत्थ परिणदाणमणुवलंभादो। तदो अदीदकालविसयमेगसमयुक्कस्ससंचयं घेत्तूणेसा परूवणा पयट्टा त्ति ण किंचि विरुद्धं ।
* विदिये वि तत्तिया चेव ।
$ २६९. ण केवलमेक्कम्मि चेव जहण्णए कसायुदयट्ठाणे तसा थोवा, किंतु तत्तो विदिये वि कसायुदयट्ठाणे तेत्तिया चेव तसा होति, ण ऊणा ण वढिमा ति वृत्तं होइ । कुदो एस णियमो ? सहावदो चेय।
* जघन्य कषाय-उदयस्थानमें त्रसजीव सबसे स्तोक हैं।
६२६८. क्योंकि सबसे जघन्य संक्लेशरूपसे परिणमन करनेवाले बहुत जीव नहीं पाये जाते।
शंका-इनका प्रमाण कितना है ? समाधान-ये आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—यह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
शंका–यदि यह यवमध्यप्ररूपणा अतीत कालविषयक है तो जघन्य कषाय-उदयस्थानमें अनन्त त्रसजीव होने चाहिए।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अतीत कालविषयक एक समयमें उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक त्रसजीव उक्त स्थानमें परिणमन करते हुए नहीं पाये जाते, इसलिए अतीत कालविषयक एक समयके उत्कृष्ट संचयको ग्रहणकर यह प्ररूपणा प्रवृत्त हुई है, इसलिए कुछ भी विरुद्ध नहीं है।
* द्वितीय कषाय उदयस्थानमें भी उतने ही जीव रहते हैं।
६२६९. न केवल एक ही जघन्य कषाय-उदयस्थानमें त्रसजीव सबसे थोड़े रहते हैं। किन्तु उससे दूसरे भी कषाय-उदयस्थानमें उतने ही त्रसजीव होते हैं, न कम और न अधिक यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यह नियम किस कारणसे है ? समाधान-स्वभावसे ही यह नियम है।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९ ]
सत्तमगाद्दासुत्तस्स अत्थपरूवणा
* एवमसंखेज्जेसु लोगट्ठाणेसु तत्तिया चेव ।
$ २७०. एवमेदेण कमेण निरंतरमसंखेज्जलोगमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु जहण्णट्ठाणजीवेहिं सरिसा चैव जीवा होंति त्ति भणिदं होइ । जइ एवं कसायुदयट्ठाणेसु जवमज्झेण जीवा रांति तो ' एदिस्से पइण्णाए विघातो दुक्कदि ति णासंकणिज्जं, सव्वट्ठाणेसु णिरंतरवड्ढीए असंभवे पि तत्थ जवमज्झाकारोवदेसस्स विरोहाभावादो ।
१२३
* तदो पुणो अण्णम्हि द्वाऐ एक्को जीवो अब्भहिओ ।
$ २७१. असंखेज्जलोगमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु जहण्णट्ठाणेण सरिसपमाणजीवेहिं अहिट्ठिएस गदेसु तदो पच्छा अण्णम्हि तदित्थकसायुदयड्डाणम्मि एक्को चेव जीवो अहिओ जायदे, सहावदो चैव तत्थ तहाविवड्डीए जीवाणमवट्ठाणणि यमदंसणादो । एवमेक्केकम्मि द्वाणम्मि एगजीववड्डी होदूण पुणो तत्तो उवरि वड्डि-हाणीहिं विणा असंखेज्जलोगमे तेसु कसायुदयट्ठाणेसु तेत्तियमेत्ता चेव जीवा होंति त्ति पदुप्पायणट्ठमिदमाह -
* तदो पुण असंखेज्जेसु लोगेसु द्वाणेसु तत्तिया चेव ।
$ २७२. सुगममेदं । एवमेत्तियमेतेसु कसायुदयट्ठाणेसु अवट्ठिदपमाणा जीवा
* इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें उतने ही जीव रहते हैं ।
$ २७०. इश प्रकार इस क्रमसे निरन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें जघन्य स्थानके जीवोंके सदृश ही जीव होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- यदि ऐसा है तो 'कषाय- उदयस्थानों में यवमध्यरूपसे जीव रहते हैं' इस प्रतिज्ञाका विघात प्राप्त होता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सब स्थानों में निरन्तर वृद्धि असंभव होनेपर भी वहाँ यवमध्याकारके उपदेशमें कोई विरोध नहीं आता ।
* तदनन्तर पुनः अन्य स्थानमें एक जीव अधिक रहता है ।
$ २७१• जघन्य स्थानके सदृश प्रमाणको लिए हुए जीवोंसे युक्त असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंके जानेपर उसके पश्चात् वहाँके अन्य कषाय- उदयस्थानमें एक ही जीव अधिक रहता है, क्योंकि स्वभावसे ही वहाँ उस प्रकारकी वृद्धिके साथ जीवोंके अवस्थानका नियम देखा जाता है । इस प्रकार एक-एक स्थानमें एक जीवकी वृद्धि होकर पुनः उसके आगे वृद्धि और हानिके विना असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें उतने ही जीव होते हैं इस बातका कथन करनेके लिये कहते हैं
* तदनन्तर पुनः असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें उतने ही जीव रहते हैं । $ २७२. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार इतने कषाय-उदयस्थानों में अवस्थित प्रमाण१. ता० प्रती एंति ते इति पाठः ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ होदूण तदो अण्णम्मि तदित्थट्ठाणविसेसे एगजीवड्ढी पुव्वं व होदि त्ति जाणावण?मुवरिमसुत्तमोइण्णं
* तदो अण्णम्हि हाणे एक्को जीवो अब्भहिओ।
$ २७३. कुदो एवं चेव ? सहावदो। एत्तो पुण असंखेजलोगमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु तत्तियमेत्ता चेव जीवा होदूण तदोअण्णम्मि द्वाणम्मि तदिओ जीवो वड्ढावेयव्यो । एवं पुणो पुणो असंखेजलोगमेत्तद्धाणं गंतूणेगेगजीवं वड्ढाविय णेदव्वं जावुक्कस्सेणावलियाए असंखेजदिभागमेत्तजीवा जहण्णट्ठाणजीवेहितो संखेजगुणा समुप्पण्णा त्तिः। पुणो तम्मि उद्देसे असंखेजलोगमेत्तेसु हाणेसु तत्तियमेत्ता चेव जीवा होदूण जवमझमुप्पजदि त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स जाणावणमुवरिमं पबंधमाह
* एवं गंतूण उक्कस्सेण जीवा एकम्हि हाणे आवलियाए असंखेजदिभागो।
२७४. एवमणंतरपरूविदेणेव कमेण गंतूण एक्कम्मि हाणविसेसे आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा जहण्णहाणजीवेहिंतो संखेजगुणमेत्ता उकस्सेण वड्डिदा, तत्तो परं वड्ढीए असंभवादो। एवं वडिदे जवमज्झट्ठाणमेत्यंतरे समुप्पज्जदि ति भणिदं होदि । समुप्पज्जमाणं किमेक्कम्मि चेव ढाणे समुप्पज्जइ, आहो संखेज्जेसु वाले जीव होकर उसके बाद अन्य वहाँके स्थानविशेषमें पहलेके समान एक जीवकी वृद्धि होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र आया है
* तदनन्तर अन्य स्थानमें एक जीव अधिक रहता है। $ २७३. शंका-ऐसा ही किस कारणसे है ? समाधान—स्वभावसे ही ऐसा है ।
तदनन्तर पुनः असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें उतने ही जीव होकर उसके बाद अन्य स्थानमें तीसरा जीव बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर एक-एक जीवको बढ़ाते हुए उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए, जो जीव जघन्य स्थानके जीवोंसे संख्यातगुणे हैं। पुनः वहाँपर असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें उतने ही जीव होकर यवमध्य उत्पन्न होता है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान करानेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इस प्रकार जाकर एक स्थानमें उत्कृष्ट रूपसे जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं।
$ २७४. इस प्रकार अनन्तर ही कहे गये क्रमसे जाकर एक स्थानविशेषमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव, जो कि जघन्य स्थानके जीवोंसे संख्यातगुणे हैं, उत्कृष्टरूपसे वृद्धिंगत हो जाते हैं, क्योंकि इससे और अधिक वृद्धि होना असम्भव है। इस प्रकार वृद्धि होनेपर इस बीच यवमध्यस्थान उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यवमध्य उत्पन्न
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२५
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा असंखेज्जेसु वा त्ति एदस्स णिण्णयकरणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं
* जत्तिया एकम्हि हाणे उक्कस्सेण जीवा तत्तिया चेव अण्णम्हि हाणे । एवमसंखेजलोगट्ठाणाणि। एदेसु असंखेज्जेसु लोगेसु हाणेसु जवमझं।
२७५. सुगममेदं, उक्कस्सेणावलियाए असंखेजदिभागमेत्तेसु जीवेसु एकम्मि ठाणे वड्डिदेसु तत्तो प्पहुडि असंखेजलोगमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु तत्तियमेत्ता चेव जीवा होदूण तेसु हाणेसु जवमज्झसमुप्पत्ती होदि त्ति णिण्णयकरणफलत्तादो। संपहि जवमज्झादो उवरिमेसु हाणेसु जीवाणमवट्ठाणकमप्पदंसणझुमुवरिमं पबंधमणुसरामो
* तदो अण्णं हाणमेक्केण जीवेण हीणं । 5 २७६. तदो जवमज्झादो अण्णं द्वाणमणंतरोवरिममेक्केण जीवेण होणं होदि । * एवमसंखेजलोगहाणाणि तुल्लजीवाणि ।
$ २७७. एदेणाणंतरणिद्दिद्वेण द्वाणेण समाणजीवाणि असंखेजलोगमेत्ताणि ट्ठाणाणि णिरंतरमत्थि त्ति वुत्तं होइ ।
* एवं सेसेसु वि ठाणेसु जीवा णेदव्वा ।
होता हुआ क्या एक ही स्थानमें उत्पन्न होता है या संख्यात या असंख्यात स्थानोंमें उत्पन्न होता है इस प्रकार इस बातका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* जितने एक स्थानमें उत्कृष्टरूपसे जीव हैं उतने ही अन्य स्थानमें पाये जाते हैं । इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें जानना चाहिए। इन असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें यवमध्य है।
5२७५. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके एक स्थानमें वृद्धिंगत होनेपर वहाँसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें उतने ही जीव होकर उन स्थानोंमें यवमध्यकी उत्पत्ति होती है इस बातका निर्णय करना इसका फल है । अब यवमध्यसे आगेके स्थानोंमें जीवोंके अवस्थानक्रमके दिखलानेके लिए आगेके प्रबन्धका अनुसरण करते हैं
* तदनन्तर अन्य स्थान एक जीवसे हीन होता है।
$ २७६. तदनन्तर यवमध्यसे समनन्तर आगेका अन्य स्थान एक जीवसे हीन होता है।
* इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण स्थान तुल्य जीवोंसे युक्त हैं।
६२७७. इस अनन्तर पूर्व कहे हुए स्थानके समान जीवोंसे युक्त आगेके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान निरन्तर हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* इसी प्रकार शेष स्थानोंमें भी जीव उक्त क्रमके अनुसार ले जाने चाहिए ।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ २७८. एत्तो उवरिमेसु सेसेसु विट्ठाणेसु उक्कस्सट्टाणपजंतेसु जीवा समयाविरोहेण णेदव्या त्ति वुत्तं होइ । जहा जवमज्झादो हेट्ठा वड्डी तहा तत्तो उवरि हाणी वि जहाकमं कायव्वा त्ति एसो एदस्स भावत्थो । णवरि हेडिमद्धाणादो उवरिमद्धाणमसंखेजगुणं, हेट्ठिमगुणवड्डिट्ठाणेहिंतो उवरिमगुणहाणिट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तोवएसादो। अदो चेव जहण्णहाणजीवेहिंतो उकस्सट्ठाणजीवा असंखेजगुणहीणा त्ति एदस्सत्थविसेसस्स संदिट्टिमुहेण पदुप्पायणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं
* जहण्णए कसायुदयट्ठाणे चत्तारि जीवा, उक्कस्सए कसायुदयहाणे दो जीवा। ___$ २७९. जइ वि जहण्णए कसायुदयट्ठाणे आवलियाए असंखेञ्जदिभागमेत्ता जीवा होंति तो वि य संदिट्ठीए तेसिं पमाणं चत्तारिरूवमेत्तमिदि घेत्तव्वं । उक्कस्सए वि कसायुदयहाणे दो जीवा त्ति संदिट्ठीए गहेयव्वा । ण संदिद्विपरूवणमेदमत्थो चेव एरिसो त्ति किण्ण वक्खाणिजदे ? ण, तहा वक्खाणे कीरमाणे उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे गुणिदकम्मंसिया वि जीवा आवलियाए असंखेजदिमागमेना होति त्ति एदेण सह विरोहप्पसंगादो, जवमज्झच्छेदणयाणमसंखेजदिभागमेतीओ हेट्ठा णाणागुणहाणिसलागाओ तेसिमसंखेजा भागा उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ त्ति एत्थेव पुरदो भणिस्समाण
$ २७८. जो पूर्व में स्थान कह आये हैं उनसे आगेके उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त शेष स्थानोंमें भी आगमानुसार जीव ले जाने चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जिस प्रकार यवमध्यसे पूर्वके स्थानोंमें वृद्धि बतलाई उसी प्रकार उससे आगेके स्थानोंमें क्रमसे हानि भी करनी चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है। इतनी विशेषता है कि यवमध्यसे पूर्वके अध्वानसे आगेका अध्वान असंख्यातगुणा है, क्योंकि अधस्तन गुणवृद्धिस्थानोंसे उपरिम गुणहानिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं ऐसा उपदेश पाया जाता है। और इसीलिये जघन्य स्थानके जीवोंसे उत्कष्ट स्थानके जीव असंख्यातगुणे हीन होते हैं इस प्रकार इस अर्थविशेषका संदृष्टिद्वारा कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* जघन्य कषाय-उदयस्थानमें चार जान हैं और उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थानमें दो जीव हैं।
$२७९. यद्यपि जघन्य कषाय-उदयस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव होते हैं तो भी संदृष्टिमें उनका प्रमाण चार संख्यामात्र ग्रहण करना चाहिए । उत्कृष्ट कषायउदयस्थानमें भी दो जीव हैं इस प्रकार संदृष्टिमें ग्रहण करना चाहिए।
शंका-यह संदृष्टिरूपसे कथन न होकर वास्तवमें इसी प्रकार है अर्थात् उक्त स्थानोंमें वास्तव में इतने ही जीव हैं ऐसा व्याख्यान क्यों नहीं करते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उस प्रकारसे व्याख्यान करनेपर उत्कृष्ट कषाय-उदयस्थान में गुणितकौशिक जीव भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं इस प्रकार उक्त कथनके साथ इस कथनका विरोध प्राप्त होता है। दूसरे यवमध्यके अर्धच्छेदोके असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाएँ होती हैं और उनके असंख्यात बहुभागप्रमाण उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएँ होती हैं इस प्रकार इसी प्रकरणमें आगे कहे जानेवाले
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१२७ परंपरोवणिधासुत्तेण बाहिजमाणत्तादो च । तदो जहण्णट्ठाणे उक्कस्सट्ठाणे च जीवा अत्थदो आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता होदण पुणो संदिट्ठीए चत्तारि दोण्णि चेदि गहेयव्वा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थपरमत्थो।
२८०. एवमेदेसु जहण्णुक्कस्सकसायुदयट्ठाणजीवेसु आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तेण सिद्धेसु जवमज्झजीवा आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता त्ति सिद्धमेवेदं, ण तत्थ संदेहो कायव्वो त्ति पदुप्पायणमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* जवमझजीवा आवलियाए असंखेजदिभागो।
२८१. हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा जहण्णट्ठाणजीवेसु गुणिदेसु जवमज्झजीवा समुप्पजंति उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा उक्कस्सट्ठाणजीवेसु च गुणिदेसु जवमज्झजीवा समुप्पजंति । तदो जवमझजीवा आवलियाए असंखेञ्जदिभागो त्ति एसो एत्थ सुत्तस्स भावत्थो। एवं अणंतरोवणिधा गदा ।
२८२. संपहि एदेणेव सुत्तेण सूचिदा परंपरोवणिधा वुच्चदे। तं जहाजहण्णकसायुदयट्ठाणजीवेहितो असंखेजलोगमेत्तकसायुदयट्ठाणाणि गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवडिदा दुगुणवड्डिदा जाव जवमझे ति । तेण परमसंखेज
प्रमाण
परम्परोपनिधासूत्रके साथ उक्त कथन बाधा जाता है, इसलिए जघन्य स्थानमें और उत्कृष्ट स्थानमें जीव वास्तवमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर पुनः संदृष्टिमें क्रमसे चार और दो ग्रहण करने चाहिए यह प्रकृतमें इस सूत्रका वास्तविक अर्थ है।
६२८०. इस प्रकार जघन्य उदयस्थान और उत्कृष्ट उदयस्थानके ये जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं यह सिद्ध होनेपर यवमध्यके जीव आवलिके असंख्यातवें भाग
हा करना चाहिए इस प्रकार कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* यवमध्यके जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
६२८१. अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंको अन्योन्याभ्यस्तराशिसे जघन्य स्थानके जीवोंके गुणित करनेपर यवमध्य के जीव उत्पन्न होते हैं। तथा उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके गणित करनेपर यवमध्यके जीव उत्पन्न होते हैं। इसलिये यवमध्यके जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका भावार्थ है । इसप्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई।
२८२. अब इसी सूत्रद्वारा सूचित हुई परम्परोपनिधाका कथन करते हैं । यथा
कषाय-उदयस्थानके जीवोंसे असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थान जाकर जीव दूने हो जाते हैं । इस प्रकार यवमध्य तक जीव दूने दूने होते जाते हैं। उसके बाद असंख्यात
१ ता० प्रती असंखेज्जदिभागा इति पाठः । २. ता. प्रती उपरिमेण इति पाठः ।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ उघजोगो७ लोगमेत्तद्धाणं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सट्ठाणे त्ति ।
$ २८३. संपहि एत्थ गुणहाणिं पडि असंखेजलोगमेत्तद्धाणमवट्ठिदसरूवेण गंतूण तदो एगो जीवो अहिओ होइ । गुणहाणिअद्धाणं च सव्वत्थ सरिसं णाणागुणहाणिसलाओ आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताओ जवमज्झहेट्ठिमणाणागुणवड्डिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ असंखेजगुणाओ एगेगट्ठाणजीवपमाणमावलियाए असंखेजदिभागो अवहारकालो च अवढिदो होदि त्ति एवमेदेसिमत्थाणं मग्गणं कस्सामो। तं जहा—आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तजहण्णट्ठाणजीवपमाणं विलिय पुणो तं चेव जहण्णट्ठाणजीवपमाणं समखंडं कादूण दिण्णे तत्थ विरलणरूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावइ । संपहि एत्थ जहण्णट्ठाणप्पहुडि असंखेजलोगमेत्तेसु ढाणेसु अवट्ठिदपमाणा जीवा होदूण तदो एगट्ठाणम्मि एगो जीवो अहिओ होदि त्ति तत्थ विरलणाए पढमरूवधरिदेगजीवपमाणं वड्डावेयव्वं । एवमेदेण कमेण गंतूण विरलणरूवमत्तसव्वजीवेसु पविद्वेसु पढमदुगुणवड्ढिट्ठाणमुप्पजदि । ____२८४. पुणो इमं दुगुणवड्डिट्ठाणं पुव्विल्लअवद्विदविरलणाए उवरि समखंडं कादण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स दो दो जीवपमाणं पावदि । पुणो एत्थेगरूवधरिददोजीवा पुग्विन्लमेत्तद्धाणं गंतूण जइ वड्डाविजंति तो पढमगुणवड्डिअद्धाणेण लोकप्रमाण स्थान जाकर वे आधे रह जाते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक वे उत्तरोत्तर आधे-आधे होते जाते हैं।
$ २८३. अब यहाँपर प्रत्येक गुणहानिके प्रति असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थान अवस्थितरूपसे जाकर उसके बाद एक जीव अधिक होता है, गुणहानिका आयाम सर्वत्र सदृश है, नाना गुणहानिशलाकाएँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, यवमध्यसे अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंसे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएं असंख्यातगुणी हैं, एक-एक स्थानके जीवोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा अवहारकाल अवस्थितस्वरूप है इस प्रकार इन अर्थोंका विचार करेंगे। यथा-जघन्य स्थानसम्बन्धी आवलिके असंख्यातवें भागमात्र जीवोंके प्रमाणका विरलनकर पुनः जघन्य स्थानके जीवोंके उसी प्रमाणको समान खण्डकर देयरूपसे देनेपर वहाँ विरलनके प्रत्येक अंकके प्रति जीवोंका एक-एक प्रमाण प्राप्त होता है । अब यहाँपर जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें अवस्थित प्रमाणवाले जीव होकर उसके बाद एक स्थानमें एक जीव अधिक होता है, इसलिए वहाँपर विरलनके प्रथम अंकके प्रति स्थापित संख्यामें एक जीवका प्रमाण बढ़ा देना चाहिए। इस प्रकार इस क्रमसे जाकर विरलनके अंकप्रमाण सब जीवोंके प्रविष्ट होनेपर प्रथम द्विगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है।
$२८४. इस द्विगुण वृद्धिस्थानको पहलेके अवस्थित विरलनके ऊपर समखण्ड करके देनेपर एक-एक विरलन अंकके प्रति दो-दो जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँपर विरलनके एक अंकके प्रति स्थापित दो जीव पहलेके जितने स्थान हैं मात्र उतने स्थान जाकर
१ ता० प्रती एत्थेगेगरूप- इति पाठः ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२९
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा विदियगुणवड्डिअद्धाणं सरिसं होइ । णवरि एवमेत्थ वडावेतुं ण सकिजदे, एक्केको चेव जीवो वड्ढदि ति चुण्णिसुत्ते मुत्तकंठमुवइट्टत्तादो । तदो एगेगो चेव जीवो वड्डावेयलो । तहा वड्डाविज्जमाणे वि गुणहाणिअद्धाणमणवद्विदं होइ, पढमगुणवडिअद्धाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण बिदियदुगुणवड्डिसमुप्पत्तिदंसणादो। एवं सेसगुणवड्डीणं पि अणंतराणंतरादो दुगुण-दुगुणमद्धाणं गंतूण समुप्पत्ती वत्तव्वा । ण चेदमिच्छिज्जदे, जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च गुणवड्डि-हाणिअद्धाणाणं सरिसत्तब्भुवगमेण सह विरोहादो। तदो पयारंतरमस्सियूण एगेगजीववड्डीए वि जहा गुणवड्डिअद्धाणाणमवहिदत्तं ण विरुज्झदे तहा वत्तइस्सामो । तं जहा
$ २८५. जहण्णट्ठाणजीवपमाणविरलणाए पढमदुगुणवडिट्ठाणजीवे समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि दो दो जीवा पावंति त्ति तत्थ पढमरूवोवरि द्विददोजीवेसु एगो जीवो पढमगुणहाणिम्हि एगजीववड्डिअद्धाणस्स अद्धं गंतूण वड्ढावेयव्यो । पुणो विदियजीवो वि एत्तियमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण वड्डावेयव्यो । एवं पुणो पुणो कीरमाणे विरलणरूवमेत्तसव्वरूवधरिदेसु परिवाडीए पविद्वेसु तदो विदियदुगुणवड्डिहाणं पढमदुगुणवडिट्ठाणेण समाणमद्धाणं होदूण समुप्पज्जइ । पुणो एवं दुगुणवड्डिहाणमवहिदविरलणाए समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रुवस्स चत्तारि चत्तारि जीवा होदण
यदि बढ़ाते हैं तो द्वितीय गुणवृद्धिस्थान प्रथम गुणवृद्धिस्थानके समान होता है। इस प्रकार यहाँपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि एक-एक ही जीव बढ़ता है ऐसा चूर्णिसूत्र में मुक्तकण्ठ उपदेश दिया गया है । इसलिये एक-एक जीव ही बढ़ाना चाहिए । किन्तु इस प्रकार बढ़ानेपर भी गुणहानिअध्वान अनवस्थित हो जाता है, क्योंकि प्रथम गुणवृद्धिस्थानसे द्विगुण अध्वान जाकर द्वितीय गुणवृद्धिकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसीप्रकार शेष गुणवृद्धियोंकी भी समनन्तर पूर्व समनन्तर पूर्व द्विगुणवृद्धिसे द्विगुण द्विगुण अध्वान जाकर उत्पत्ति कहनी चाहिए। परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि यवमध्यसे पूर्वके और आगेके गुणवृद्धि और गुणहानि स्थानों सदृश स्वीकार करनेसे उक्त कथनका इस कथनके साथ विरोध आता है। इसलिये दूसरे प्रकारका अवलम्बन लेकर एक-एक जीवकी वृद्धि करते हुए भी जिस प्रकार गुणवृद्धिस्थानोंका अवस्थितपना विरोधको प्राप्त नहीं होता है उस प्रकारसे बतलाते हैं । यथा
६२८५. जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणका विरलन करनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति द्विगुणवृद्धिस्थानके जीवोंके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति दो-दो जीव प्राप्त होते हैं, इसलिवे वहाँ प्रथम अंकके ऊपर स्थित दो जीवोंमेंसे एक जीवको प्रथम गुणहानिमें एक जीवसम्बन्धी वृद्धिका जो अध्वान है उसका अर्धभाग जानेपर बढ़ाना चाहिए। पुनः दूसरे जीवको भी इतना अध्वान आगे जानेपर बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः करनेपर विरलन अंकप्रमाण सब अंकोंपर स्थापित जीवोंके क्रमसे प्रविष्ट होनेपर द्वितीय द्विगुणवृद्धिस्थान प्रथम द्विगुणवृद्धिस्थानके समान आयामवाला होकर उत्पन्न होता है । पुनः इस द्विगुणवृद्धिस्थानको अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देयम्पसे देनेपर एक-एक अंकके प्रति चार-चार जीव होकर प्राप्त होते हैं। पुनः इनके बढ़ानेपर प्रथम
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ पावंति । पुणो एदेसु वड्डाविजमाणेसु पढमदुगुणवड्डिअद्धाणम्मि एगेगजीववड्डिविसयस्स चउब्भागमेत्तद्धाणं गंतूणेगो जीवो वड्डदि त्ति वत्तव्वं । एवमुवरि वि जाणियूण भण्णमाणे अणंतरहेट्ठिमगुणहाणिम्हि वड्डिदेगजीवद्धाणादो उवरिमाणंतरगुणहाणीए वड्डाविजमाणेगजीवद्धाणमद्धद्धं होदूण गच्छइ जाव तप्पाओग्गपमाणाओ दुगुणवड्डीओ उवरि गंतूण जवमज्झट्ठाणं समुप्पण्णमिदि। _____$२८६. पुणो इमंजवमन्झट्ठाणजीवपमाणं घेत्तूण पुम्विन्लमवट्टिदविरलणं दुगुणिय विरलेयूण समखंडं करिय दिपणे विरलणरूवं पडि जवमज्झादो हेडिमाणंतरगुणहाणिम्मि एगेगरूवं पडि संपत्तजीवपमाणं होदूण पावइ । पुणो एत्थेगरूवधरिदमणंतरहेट्ठिमगुणहाणीए वड्डाविदविहाणेणासंखेजलोगमेत्तद्धाणं गंतूणेगेगजीवहाणिकमेण परिहायदि। पुणो वि एवं चेव परिहाणिं कादूण णेदव्वं जाव संपहियविरलणाए अद्धमेत्तरूवधरिदेसु सव्वेसु जहाकम परिहीणेसु जवमज्झादो उवरि पढमं दुगुणहाणिट्ठाणमुप्पणं ति । एवमेदेण विहाणेण णेदव्वं जाव तप्पाओग्गेसु गुणहाणिट्ठाणेसु गदेसु जहण्णट्ठाणजीवपमाणमवद्विदं ति । णवरि हेडिमगुणहाणीए एगजीवपरिहाणिअद्धाणादो उवरिमगुणहाणीए एगजीवपरिहीणद्धाणं दुगुण-दुगुणकमेण सव्वत्थ गच्छदि त्ति वत्तव्वं ।
२८७. एत्तो इमं जहण्णट्ठाणजीवपमाणं पुव्विल्लमवविदभागहारं विरलिय द्विगुणवृद्धिसम्बन्धी आयाममेंसे एक-एक जीवको वृद्धिसम्बन्धी आयामका चौथा भागमात्र आयाम जाकर एक जीव बढ़ता है ऐसा कहना चाहिए । इसीप्रकार आगे भी जानकर कथन करनेपर अनन्तर अधस्तन गुणहानिमें वृद्धिको प्राप्त हुए एक जीवसम्बन्धी आयामसे, तत्प्रायोग्य प्रमाणवाली द्विगुणवृद्धियाँ ऊपर जाकर यवमध्यस्थानके उत्पन्न होने तक, उपरिम अनन्तर गुणहानिमें वृद्धिको प्राप्त होनेवाले एक जीवसम्बन्धी आयामसे आधा-आधा होकर प्राप्त होता है।
$ २८६. पुनः यवमध्यस्थानके जीवोंके इस प्रमाणको ग्रहणकर पिछले अवस्थित विरलनके दूनेको विरलितकर और उसपर समान खण्डकर देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलन अंकके प्रति यवमध्यसे अधस्तन ( पूर्वकी ) अनन्तर गुणहानिमें एक-एक अंकके प्रति प्राप्त जीवोंका जितना प्रमाण है उतना होकर प्राप्त होता है । पुनः यहाँ एक अंकके प्रति प्राप्त जीवोंका प्रमाण अनन्तर अधस्तन गुणहानिमें जिस विधिसे जीवोंका प्रमाण बढ़ाया गया उसके अनुसार असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर एक-एक जीवकी हानिके क्रमसे घटता जाता है। फिर भी इसीप्रकार तबतक हानि करते हुए ले जाना चाहिए जबतक साम्प्रतिक विरलनके अंकोंपर प्राप्त अर्धभागप्रमाण सब जीवोंके क्रमसे कम होनेपर यवमध्यके ऊपर प्रथम द्विगुणहानिस्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार इस विधिसे तत्प्रायोग्य गुणहानिस्थानोंके जानेपर जघन्य स्थानके जीदोंके प्रमाणके अवस्थित होने तक ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अधस्तन गुणहानिमें एक जीवके परिहानिसम्बन्धी अध्वानसे उपरिम गुणहानिमें एक जीवसम्बन्धी परिहानिका अध्वान सर्वत्र द्विगुण-द्विगुण क्रमसे जाता है ऐसा कहना चाहिए।
$ २८७. आगे जघन्य स्थानके जीवोंके इस प्रमाणको पहलेके अवस्थित भागहारका
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१३१ समखंडं कादूण जोइजइ तो एगेगरूवस्स एगजीवद्धपमाणं होदूण पावइ । ण चेदमिच्छिञ्जदे, तहाविहवड्डीए अच्चंतासंभवेण पडिसिद्धत्तादो। एवं तरिहि एदं चेव उक्कस्सट्ठाणजीवपमाणमिदि गेण्हामो त्ति भणिदे ण एवं पि घेत्तुं सकिञ्जदे, जवमज्झस्स हेडिमगाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तोवएसस्स उवरिमसुत्तसिद्धस्स एत्थाणुववत्तीदो हेडिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमेदम्मि पक्खे सरिसत्तदंसणादो त्ति । .
२८८. पुणो संपहियविरलणाए अद्धं विरलेयण जहण्णट्ठाणजीवपमाणं समखंडं कादण दिण्णे तत्थ विरलणरूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावइ । पुणो एदिस्से विरलणाए अद्धमेत्तजीवेसु समयाविरोहेण परिहाविदेसु तत्तो अण्णं दुगणहाणिट्ठाणमुप्पजइ । पुणो इमं विरलणमद्धं करिय जहण्णट्ठाणजीवेहितो अद्धमेत्तणिरुद्धट्ठाणजीवेसु समखंडं करिय दिण्णेसु विरलणरूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावइ । एत्थ वि समयाविरोहेण असंखेजलोगमेत्तद्धाणं गंतूणेगेगजीवपरिहाणि कादूण आणिजमाणे संपहियविरलणाए अद्धमेत्तजीवेसु परिहीणेसु अण्णं दुगुणहाणिट्ठाणमुप्पजइ । एवमेदीए दिसाए गुणहाणिं पडि विरलणमद्धं कादूण णेदव्वं जाव जवमज्झछेदणयाणमसंखेजभागमेत्तगुणहाणीओ उवरि गंतूणुकस्सट्टाणजीवपमाणमवढिदं त्ति । णवरि उकस्सट्टाणे वि आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा जहा होति तहा कायव्वं, अण्णहा विरलनकर और विरलित राशिके प्रत्येक एकपर समान खण्ड करके देयरूपसे देकर यदि देखते हैं तो एक-एकका एक जीवसम्बन्धी कालका प्रमाण होकर प्राप्त होता है। किन्तु यह प्रकृतमें विवक्षित नहीं है, क्योंकि उस प्रकारकी वृद्धि अत्यन्त असम्भव होनेसे प्रतिषिद्ध यदि ऐसा है तो उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके इस प्रमाणको ही ग्रहण करते हैं ऐसा कथन करनेपर ऐसा ग्रहण करना भी शक्य नहीं है, क्योंकि यवमध्यकी अधस्तन ( पूर्ववर्ती ) नाना गुणहानिशलाकाओंसे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंके असंख्यातगुणेरूप उपदेशकी यहाँ अनुवृत्ति है, जो उपदेश आगे कहे जानेवाले सूत्रसे सिद्ध है तथा अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकार स पक्ष में सदृश देखी जाती हैं।
$२८८. पुनः साम्प्रतिक विरलनसे आधेका विरलनकर विरलित राशिके प्रत्येक एकपर जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहाँ प्रत्येक विरलनके प्रति एक-एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इस विरलनके अर्धभाणप्रमाण जीवोंके आगमके अनुसार घटानेपर वहाँसे अन्य द्विगुणहानिस्थान उत्पन्न होता है। पुनः इस विरलनको आधा करके जघन्य स्थानके जीवोंसे अर्धभागमात्र रुके हुए स्थानके जीवोंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति एक-एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँपर भी आगमानुसार असंख्यात लोकप्रमाण अध्वान जाकर एक-एक जीवकी परिहानि करके लानेपर साम्प्रतिक विरलनसे अर्धमात्र जीवोंके हीन होनेपर अन्य द्विगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस विधिसे प्रत्येक गुणहानिके प्रति विरलनको आधा करके यवमध्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण गुणहानि ऊपर जाकर उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण अवस्थित होनेतक ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थानमें भी जिस प्रकार
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ पुव्वाइरियसंपदायविरोहप्पसंगादो । एवं संजादे एगो चेव जीवो सव्वत्थ अहिओ ऊणो वा होइ, हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागार्हितो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ च असंखेजगुणाओ भवंति । गुणहाणिअद्धाणं पि सव्वत्थ सरिसमेव संजादं, गुणहाणिसलागाओ च सव्वसमासेणावलियासंखेजदिभागमेत्ताओ जादाओ। सव्वेसु हाणेसु जीवा पादेकमावलियाए असंखेजदिभागमेत्ता च जादा ति सव्वमेदं घडदे । एत्तियं पुण ण संजादं सव्वत्थावह्रिदो भागहारो होदि त्ति जहण्णट्ठाणसरिसजीवपमाणादो उवरिमभागहारस्स अद्धद्धकमेण परिहाणिदंसणादो होदु णामेदमणवद्विदभागहारत्तं, इच्छिज्जमाणत्तादो च । ण च सव्वत्थावढिदो चेव भागहारो त्ति संपदायो अस्थि, तहाणुवलंभादो । तदो जवमज्झादो हेट्ठा सव्वत्थ जहण्णट्ठाणजीवपमाणो अवडिदभागहारो जवमज्झादो उवरि वि जाव जहण्णट्ठाणजीवपमाणं पावइ ताव जहण्णट्ठाणजीवपमाणादो दुगुणमेत्तो अवविदभागहारो। तत्तो परमण वढिदो भागहारो अद्धद्धकमेण हीयमाणो गच्छइ त्ति एसो एत्थ परमत्थो।
$२८९. अधवा जवमज्झादो हेट्ठा उवरि वि सव्वत्थ उक्कस्सट्टाणजीवमेत्तो अवट्ठिदभागहारो त्ति घेत्तूण परंपरोवणिधा जाणिय णेदव्वा, तहा परूवणे कीरमाणे गुणवड्डि-हाणिअद्धाणाणं हेडिमोवरिमाणमवद्विदभावसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो सव्वत्थावद्विदभागहारब्भुवगमस्स वि एदम्मि पक्खे अविसंवाददसणादो। संपहि जवमज्झादो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव होते हैं उस प्रकार करना चाहिए, अन्यथा पूर्वाचार्योंका जो सम्प्रदाय चला आ रहा है उसके साथ विरोध होनेका प्रसंग प्राप्त होता है। ऐसा होनेपर सर्वत्र एक ही जीव अधिक या कम होता है और अधस्तन गुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा उपरिम गुणहानिशलाकाएँ असंख्यातगुणी बन जाती हैं, सर्वत्र गुणहानिअध्वान भी सदृश ही प्राप्त होता है, गुणहानिशलाकाएँ सब मिलाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हो जाती हैं तथा सब स्थानोंमेंसे प्रत्येक स्थानमें जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हो जाते हैं। इस प्रकार यह सब विधि बन जाती है। किन्त सर्वत्र अवस्थित भागहार है यह बात नहीं बनती, क्योंकि जघन्य स्थानके सदृश जीवोंके प्रमाणसे उपरिम भागहारकी अर्ध-अर्ध भागके क्रमसे हानि देखी जाती है तथा यह अनवस्थित भागहार होओ, क्योंकि यह इष्ट है । तथा सर्वत्र अवस्थित ही भागहार है ऐसा सम्प्रदाय नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। इसलिए यवमध्यसे पूर्व सर्वत्र जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणवाला अवस्थित भारहार है तथा यवमध्यके ऊपर भी जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणके प्राप्त होने तक जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणसे दूना अवस्थित भागहार है। इसके आगे अनवस्थित भागहार आधे-आधेके क्रमसे हीन होता जाता है इस प्रकार यहाँपर परमार्थ है।
$ २८९. अथवा यवमध्यसे पहले और आगे भी सर्वत्र उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्रमाणवाला अवस्थित भागहार है ऐसा ग्रहण करके परंपरोपनिधाको जानकर ले जाना चाहिए, क्योंकि उस प्रकार प्ररूपणा करनेपर अधस्तन और उपरिम गुणवृद्धिअध्वान और गुणहानि अध्वानकी अवस्थितरूपसे सिद्धि निर्बाधरूपसे पाई जाती है तथा इस पक्षके स्वीकार करनेपर सर्वत्र अवस्थित भागहारका स्वीकार अविसंवादरूपसे देखा जाता है। अब यवमध्यसे
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा हेट्ठिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमियत्तावहारणटुं सुत्तमुत्तरमोइण्णं
* जवमझजीवाणंजत्तियाणि अद्धच्छेदणाणि तेसिमसंखेजदिभागो हेट्ठा जवमझस्स गुणहाणिहाणंतराणि । तेसिमसंखेनभागमेत्ताणि उवरि जवमज्झस्स गुणहाणिहाणंतराणि ।।
२९०. एदेण सुत्तेण हेडिमणाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तं सूचिदं । संपहि एत्थ जवमज्झच्छेदणएसु अणवगएसु तेहिंतो जवमज्झादो हेट्ठिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणं पमाणावहारणं कादं ण सक्किन्जइ ति जवमज्झच्छेदणयाणमेव पमाणणिण्णयं ताव कस्सामो । तं जहाजवमज्झजीवपमाणमुक्कस्सेणावलियाए असंखेजदिभागो त्ति सुत्ते णिहिटुं, सो वुण आवलियाए असंखेजदिभागो जइ वि जिणदिवभावेण घेत्तव्यो, तो वि जहण्णपरित्तासंखेजेणावलियाए ओवट्टिदाए तत्थ भागलद्धमत्ता जवमझजीवा होति त्ति सव्वुक्कस्समावलियाए असंखेजदिमागं घेत्तूण तच्छेदणएहिंतो जवमज्झहेडिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणं पमाणसाहणमेवमणुगंतव्वं । तं कथं ? जहण्णपरित्तासंखेजयं विरलेयूणावलियाए समखंडं कादूण दिण्णाए रूवं पडि जहण्णपरित्तासंखेजपमाणं पावइ । अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणको निश्चित करनेके लिये आगेका ____ * यवमध्यवर्ती जीवोंके जितने अर्धच्छेद होते हैं उनके असंख्यातवें भागप्रमाण यवमध्यके अधस्तन ( पूर्ववर्ती ) गुणहानिस्थानान्तर होते हैं तथा उनके ( अर्धच्छेदोंके) असंख्यात बहुभागप्रमाण यवमध्यके उपरितन गुणहानिस्थानान्तर होते हैं।
$ २९०. इस सूत्रद्वारा अधस्तन गुणहानिशलाकाओंसे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएँ असंख्यातगुणी सूचित की गई हैं। अब यहाँपर यवमध्यके अर्धच्छेदोंके अवगत न होनेपर उनसे यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंका प्रमाण निश्चित करना शक्य नहीं है, इसलिए यवमध्यके अर्धच्छेदोंके ही प्रमाणका निर्णय सर्वप्रथम करेंगे । यथा-यवमध्यके जीवोंका प्रमाण उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है इस प्रकार सूत्रमें निर्देश किया है। परन्तु उस आवलिके असंख्यातवें भागको यद्यपि जैसा जिनदेवने देखा हो वैसा लेना चाहिए तो भी जघन्य परीतासंख्यातसे आवलिके भाजित करनेपर वहाँ जो भाग लब्ध आवे उतने यवमध्यके जीव होते हैं, इसलिए आवलिके सबसे उत्कृष्ट असंख्यातवें भागको ग्रहणकर उनके अर्धच्छेदोंके द्वारा यवमध्यके अधस्तन और उपरितन गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणकी सिद्धि होती है ऐसा जान लेना चाहिए।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-जघन्य परीतासंख्यातका विरलनकर उस विरलित राशिपर आवलिके असंख्यातवें भागको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक एक विरलनके प्रति जघन्य परीतासंख्यातका प्रमाण प्राप्त होता है।
सूत्र आया है
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
जोगो ७
कुदो एदं नव्वदे ! जहण्णपरित्तासंखेजयं विरलेदूण रूवं पडि तमेव दादूण वग्गिदसंवग्गिदकदे आवलिया समुप्पज्जदित्ति परियम्मवयणादो । पुणो एत्थेगरूवधरिदं मोण सेससव्वरूवधरिदजहण्णपरित्तासंखेज्जेसु अण्णोष्णन्भत्थेसु जवमज्झजीवपमाणं होइ । एवं होदि ति कादूण एदस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स छेदणयाणि उक्कस्ससंखेज्जविरलणमेत्तजहण्णपरित्तासंखेजच्छेदणएसु समुदिदेसु भवंति । जहणपरित्तासंखेज्जच्छेदएणहिं परिहीणावलियच्छेदणेसु गहिदेसु जवमज्झच्छेदणयाणि समुप्पजंति त्ति भणिदं होइ ।
$ २९१. संपहि एत्थेव एगरूवधरिदजहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयमेत्तीओ हेहिमणाणागुणहाणि सलागाओ ति घेत्तव्वं । सेसरूवूणुकस्ससंखेज विरलणमेत्तरूवोयरि दिजहण्णपरित्तासंखेज छेदणयाणि च घेत्णुवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ होंति ि गहेयव्वं । एवं च घेप्पमाणे हेट्ठिमणाणागुणहाणिसला गाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणि - सलागाओ संखेज्जगुणाओ चेव जादाओ, णासंखेजगुणाओ । ण चेदमिच्छिज्जदे, हेडिमाणागुणहाणि सलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ असंखेजगुणाओ ति पदुप्पायणपरेणेदेण सुत्तेण सह विरोहादो । तदो णेदं घडदि त्ति १ सच्चमेवेदं, जहण्णपरित्तासंखेजच्छेदणयमेत्तीस हेट्ठिमणाणागुणहाणिसला गासु घेप्पमाणीसु उवरिमणाणा
शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — क्योंकि जघन्य परीतासंख्यातका विरलनकर विरलित राशिके प्रत्येक एकपर उस राशिको देकर वर्गित संवर्गित करनेपर आवलि उत्पन्न होती है इस परिकर्मके वचनसे जाना जाता है ।
पुनः यहाँ एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको छोड़कर शेष सब अंकोंके प्रति प्राप्त जघन्य परीतासंख्यातोंके परस्पर गुणित करनेपर यवमध्यके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार होता है ऐसा समझकर आंवलिके इस असंख्यातवें भागके अर्धच्छेद उत्कृष्ट संख्यातके विरलनप्रमाण जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदों में मिलानेपर होते हैं । जघन्य परीता - संख्यातके अर्धच्छेदोंसे हीन आवलिके अर्धच्छेदोंके ग्रहण करनेपर यवमध्यके अर्धच्छेद उत्पन्न होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
$ २०१. अब इन्हीं मेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाऐं होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए तथा एक अंक कम करके शेष उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण विरलनोंके प्रति प्राप्त जघन्य परीतासंख्यातोंके अर्धच्छेदोंको ग्रहण कर उपरिम नाना गुणहानिशलाकाऐं होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। और इस प्रकार ग्रहण करनेपर अधस्तन नाना गुणहां निशलाकाओंसे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाऐं संख्यातगुणी ही होती हैं, असंख्यातगुणी नहीं ।
शंका – परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर इस कथनका अधस्तन नाना गुणहानिशलाओंसे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाऐं असंख्यातगुणी होती हैं इस प्रकार कथन करवाले इस सूत्र के साथ विरोध आता है, इसलिए यह घटित नहीं होता ?
समाधान — यह कहना सत्य है, क्योंकि जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहामुत्तस्स अत्थपरूवणा
१३५ गुणहाणिसलागाणं तत्तो संखजगणतं मोत्तूण णासंखेजगुणत्तसंभवो ति । किंतु रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजच्छेदणयमेत्तीओ हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ त्ति घेत्तूण पयदत्थसमत्थणा कायव्वा, तहा घेप्पमाणे उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तसंभवदंसणादो। तं कधं ? उक्स्स संखेजयं विरलेयूण पुव्वुत्तपमाणजवमज्झच्छेदणएसु समखंडं कादूण दिण्णेसु रूवं पडि जहण्णपरित्ताखेजच्छेदणयपमाणं होदूण पावइ । पुणो एत्थ सव्वरूवधरिदेसु एगेगरूवमवणिय पुध द्ववेयव्वं । एवं ठविदे विरलणरूवं पडि अवणि दसेसाणि रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयमेत्तरूवाणि जादाणि । सव्वरुवधरिदेसु अवणिदरूवाणि वि एकदो मेलाविदाणि उक्कस्ससंखेज्जमेत्ताणि जादाणि । पुणो एदाणि रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणएहिं भागं घेत्तूण भागलद्धसंखेजरूवाणि पुग्विल्लुक्कस्ससंखेजविरलणाए पासे विरलिय तेसु रूवेसु समखंडं करिय दिण्णेसु संपहियविरलणए वि रूवं पडि रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणयमेत्ताणि रूवाणि लद्धाणि । संपहि एत्थेगरूवधरिदरूवूणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तीओ हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ संघहियरूवधरिदमेत्तीओ दुरूवूणादिविरलणरूवधरिदमेत्तीओ च उवरिमणाणागुणहाणि सलागाओ त्ति गहेयव्वं । एवं गहिदे हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ णिस्संसयमसंखेज्जगुणाओ अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंके ग्रहण करनेपर उपरिम नाना गुणहानिशलाकाऐं उनसे संख्यातगुणी होती हैं इसे छोड़कर उनका असंख्यातगुणा होना सम्भव नहीं है। किन्तु एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंको ग्रहणकर प्रकृत अर्थका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकारसे ग्रहण करनेपर उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंका असंख्यातगुणा होना सम्भव देखा जाता है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-क्योंकि उत्कृष्ट संख्यातका विरलनकर पूर्वोक्त प्रमाण यवमध्यके अर्धच्छेदोंको समान खण्डकर देयरूपसे देनेपर प्रत्येक एकके प्रति जघन्य परीतासंख्यात अर्धच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहाँपर सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशिमेंसे एक-एक अंकको निकालकर पृथक् स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार स्थापित करनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति निकालनेके बाद शेष संख्या एक कम जघन्य परीतासंख्यात अर्धच्छेदप्रमाण अंकवाली हो जाती है। सब अंकोंके प्रति प्राप्त निकाले गये अंक भी एकत्र मिलानेपर उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण हो जाते हैं। पुनः इन्हें एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे भाजितकर भाग करनेसे जो संख्यात अंक ‘लब्ध ‘आवें उनको पहलेके उत्कृष्ट संख्यातसम्बन्धी विरलनके पास विरलितकर उन अंकोंके समान खण्डकर देयरूपसे देनेपर साम्प्रतिक विरलनके प्रत्येक एकके प्रति एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण अंक प्राप्त होते हैं। अब यहाँ एक अंकके प्रति प्राप्त एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण अधस्तन नानागुणहानिशलाकाएँ होती हैं और साम्प्रतिक अंकोंके प्रति रखी गई संख्याप्रमाण और दो अंक कम आदि विरलनके अंकोंके प्रति प्राप्त संख्याप्रमाण उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएँ होती हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। ऐसा ग्रहण करनेपर अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंसे
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ जादाओ । किं कारणं ? संखेजरूवब्भहियजहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तरूवाणमेत्थ गुणगारसरूवेण पउत्तिदसणादो । एवमेदीए दिसाए जहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयाणि दुरूवूणतिरूवूणादिकमेण परिहाविय हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाणं पमाणाणुगमो समयाविरोहेण कायव्यो जाव तप्पाओग्गसंखेज्जरूवमेत्ताओ जादाओ त्ति । तदो हेडिमणाणागणहाणिसलागाओ संखेज्जाओ होदूण उवरिमणाणागुणहाणिसलागाहिंतो असंखेज्जगणहीणाओ त्ति सिद्धं ।
$ २९२. एवं ताव जवमज्झच्छेदणयाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ तेसिमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ च उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ त्ति एदमत्थं परूविय संपहि एवंविहणाणागुणहाणिसलागाओ धरेदूण जहण्णुक्कस्सट्ठाणजीवपमाणणिण्णयं कस्सामो । तं जहा-जवमज्झादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे जहण्णपरित्तासंखेज्जस्स अद्धमुप्पज्जइ । पुणो एदेणण्णोण्णभत्थरासिणा जवमज्झजीवे ओवट्टिदेसुरूवूणुकस्ससंखेज्जमेत्तजहण्णपरित्तासंखेज्जयाणि अण्णोण्णब्भत्थाणि कादण दुगुणमेत्तं लद्धपमाणं होदि । एदं चेव जहण्णट्ठाणजीवपमाणमिदि घेत्तव्यं ।। ___$२९३. संपहि उक्कस्सट्ठाणजीवपमाणे आणिज्जमाणे तत्थ ता वपुव्वुत्तविरलणाए दोस्वधरिदछेदणएहिं परिहीणजवमज्झच्छेदणयमेत्ताओ उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएं निःशंसय असंख्यातगुणी हो जाती हैं, क्योंकि संख्यात अंक अधिक जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण अंकोंकी यहाँपर गुणकाररूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार इस पद्धतिसे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंको दो अंक कम, तीन अंक कम आदिके क्रमसे घटाकर अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणका अनुगम तत्प्रायोग्य संख्यातप्रमाण संख्याके प्राप्त होने तक आगमानुसार करना चाहिए । अतः अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाएँ संख्यात होकर वे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंसे असंख्यातगुणी हीन होती हैं यह सिद्ध हुआ।
६२९२. इस प्रकार सर्वप्रथम यवमध्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाएँ और उन्हीं अर्धच्छेदोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएँ होती हैं इस प्रकार इस अर्थका कथनकर अब इस प्रकारसे नाना गुणहानिशलाकाओंको ग्रहणकर जघन्य और उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्रमाणका निर्णय करते हैं। यथा-यवमध्यसे अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलनकर और विरलित राशिके प्रत्येक एकको दूनाकर परस्पर गुणा करनेपर जघन्य परीतासंख्यातका अर्धभाग उत्पन्न होता है । पुनः इस अन्योन्य अभ्यस्त राशिद्वारा यवमध्यके जीवोंके भाजित करनेपर जो लब्ध आता है वह एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण जघन्य परीतासंख्यातको परस्पर गणितकर जो लब्ध आवे उससे दूना होता है । यही जघन्य स्थानके जीवोंका प्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
२९३. अब उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्रमाणको लानेपर वहाँ सर्व प्रथम पूर्वोक्त विरलनके दो अंकोंके प्रति प्राप्त अर्धच्छेदोंसे हीन यवमध्यके अर्धच्छेदप्रमाण उपरिम नाना
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१३७ त्ति घेत्तूण तासिमण्णोण्णब्भत्थरासिणा जवमज्झजीवेसु पुव्वुत्तपमाणेसु ओवट्टिदेसु जहण्णपरित्तासंखेजवग्गस्स चउब्भागमेत्तमुक्कस्सट्ठाणजीवपमाणमागच्छइ । अह जइ तिरूवूणविरलणरूवधरिदमेत्ताओ उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ त्ति घेप्पंति तो तासिमण्णोण्णब्भत्थरासिणा जवमज्झट्ठाणजीवेसु भाजिदेसु जहण्णपरित्तासंखेजघणस्स अट्ठमभागमेत्तमुक्कस्सट्टाणजीवपमाणमागच्छइ । एवं णेदव्वं जाव तप्पाओग्गसंखेजरूवधरिदच्छेदणएहिं परिहीणजवमज्झच्छेदणयमेत्ताओ उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ जादाओ त्ति एवमेदेसु वियप्पेसु जिणदिट्ठभावेणुकस्सट्ठाणजीवपमाणमावलियाए असंखेजदिभागमेत्तं गहेयव्वं । अदो चेय उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे दो जीवा ति एवं पि सुत्तं संदिद्विपमाणं कादूण वक्खाणिदमिदि ण किंचि विरुज्झदे। तदो जवमज्झजीवाणं जत्तियाणि अद्धच्छेदणयाणि तेसिमसंखेजदिभागो हेट्ठा जवमज्झस्स गुणहाणिट्ठाणंतराणि तेसिमसंखेजाभागमेत्ताणि च उवरि जवमन्झस्स गुणहाणिहाणंतराणि त्ति सिद्धं ।
$ २९४. एत्थ परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि तीहिं अणियोगद्दारेहिं णाणेगगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरसलागाणमणुगमो कायव्यो । तत्थ परूवणदाए अत्थि एगजीवदुगुणहाणिट्ठाणंतरं जाणाजीवदुगुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ च पमाणमेगगुणवड्डि. हाणिवाणंतरमसंखेजा लोगा, णाणागुणहाणिहाणंतरसलागाओ आवलियाए असंखेजदिगुणहानिशलाकाओंको ग्रहणकर उनकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे पूर्वोक्त प्रमाण यवमध्यसम्बन्धी जीवोंके भाजित करनेपर जघन्य परीतासंख्यातके वर्गके चौथे भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थानसम्बन्धी जीवोंका प्रमाण आता है। और यदि तीन अंक कम विरलनकी जितनी संख्या है तत्प्रमाण उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएँ हैं ऐसा ग्रहण करते हैं तो उनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिद्वारा यवमध्यके जीवोंके भाजित करनेपर जघन्य परीतासंख्यातके घनके आठवें भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थानसम्बन्धी जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार विरलनके तत्प्रायोग्य संख्यात अंकोंके प्रति प्राप्त अर्धच्छेदोंसे हीन यवमध्यके अर्धच्छेदप्रमाण उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंके होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार इन विकल्पोंमें जिनेन्द्र देवने जैसा देखा हो उसके अनुसार उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ग्रहण करना चाहिए । और इसीलिए उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें दो जीव हैं इस प्रकार इस सूत्रका भी संदृष्टिका प्रमाण करके व्याख्यान किया है, इसलिए कुछ भी विरुद्ध नहीं है। अतः यवमध्यके जीवोंके जितने अर्धच्छेद होते हैं उनके असंख्यातवें भागप्रमाण यवमध्यके अधस्तन गुणहानिस्थानान्तर होते हैं और उनके असंख्यात बहुभागप्रमाण यवमध्यके उपरिम गुणहानिस्थानान्तर होते हैं यह सिद्ध हुआ।
$२९४. यहाँपर प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारोंके आलम्बनद्वारा नाना और एक गुणवृद्धिशलाकाओं और गुणहानिशलाकाओंका अनुगम करना चाहिए । उनमेंसे प्ररूपणाकी अपेक्षा एक जीव द्विगुणहानिस्थानान्तर और नाना जीव द्विगुणहानिस्थानान्तर शलाकाएँ हैं। प्रमाण-एक गणवृद्धि और गुणहानिस्थानान्तर असंख्यात लोकप्रमाण है तथा नाना गुणहानिस्थानान्तरशलाकाएँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्प
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
भागो । अप्पाबहुअं सव्वत्थोवा णाणागुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ । एयदुगु णवडिहाणिट्ठाणं तरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । एवं परंपरोवणिधासंबंघेण जवमज्झादो हेट्टिमोवरिमाणागुणहाणिसला गाणमियत्तावहारणं काढूण संपहि तसजीवविसयमेदं जवमज्झं पदुष्पाइदमिदि णिगमणट्ठमुत्तरमुत्तं भण
* एवं पदुप्पण्णं तसाणं जवमज्भं ।
$ २९५. जमेदमणंतर परूविदं जवमज्झं तं तसाणं पदुप्पण्णं तसजीवे अहिकरिय परूविदमिदि वृत्तं होइ । एइंदिएस एसा जवमज्झपरूवणा किण्ण होइ ? ण, तत्थ थावरपाओग्गकसायुदयट्ठाणेसु एक्केकम्मि कसायुदयट्ठाणे तेसिमणंतसंखावच्छिण्णाणमण्णारिसेण जवमज्झसण्णिवेसेणावट्ठाणदंसणादो । तदो जत्थ विरहिदाविरहिदट्ठाण संभवो तत्थेव तसजीवविसये जवमज्झमेदं पदुप्पण्णमिदि सुसंबद्धमभिहिदं । अथवा पुव्वसुत्तेण जवमज्झादो हेट्ठिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणं पमाणपरिच्छेददुवारेण जहण्णुकस्सजीवाणं पमाणं परूविदं ।
$ २९६. संपहि जहण्णुक्कस्तट्ठाणजीवेहिंतो जवमज्झजीवपमाणसाहणट्ठमिदं सुत्तमण्णमिद वक्खाणेयव्वं । तं जहा – एदमणंतरपरूविदजहण्णुक्कस्सट्ठाणजीवपमाणं जहाकमं मोवरमणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णन्भत्थरासिणा - बहुत्व - नाना गुणहानिस्थानान्तरशलाकाऐं सबसे थोड़ी हैं। उनसे एक द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानिस्थानान्तरशलाका असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । इस प्रकार परंपरोपनिधाके सम्बन्धसे यवमध्य से अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओं की संख्याका अवधारणकर अब यह यवमध्य त्रसजीवविषयक कहा गया है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं
* इस प्रकार त्रसजीवोंके कषाय-उदयस्थान-सम्बन्धी यवमध्य उत्पन्न हो जाता है। $ २९५. जिस यवमध्यका पहले कथन कर आये हैं उसका त्रसजीवोंको अधिकृतकर 'पदुप्पणं' अर्थात् कथन किया यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है ।
शंका — एकेन्द्रिय जीवों में यह यवमध्यप्ररूपणा क्यों नहीं होती ?
-
समाधान — नहीं, क्योंकि वहाँ स्थावरोंके योग्य कषाय उदयस्थानोंमेंसे एक-एक कषाय-उदयस्थानमें उनकी संख्या अनन्त होती है, इसलिए उनके यवमध्यकी रचनाका अवस्थान विसदृशरूपसे देखा जाता है, इसलिए जहाँपर जीवोंसे रहित और जीवोंसे युक्त स्थान सम्भव हैं वहीं त्रसजीवविषयक यह यवमध्य उत्पन्न हुआ है यह सुसम्बद्ध कहा है । अथवा पूर्व सूत्रद्वारा यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणका निर्णय करके उस द्वारा जघन्य और उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण कहा गया है ।
$ २९६. अब जघन्य और उत्कृष्ट स्थानके जीवोंसे यवमध्यके जीवोंके प्रमाणको सिद्ध करनेके लिये यह सूत्र आया है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए । यथा - यह अनन्तर कहा गया जघन्य और उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण क्रमसे अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्त राशि से 'पदुप्पण' अर्थात् गुणित होकर त्रसजीवोंका यवमध्य
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३९
गाथा ६९]
सत्तमगाहामुत्तस्स अत्थपरूवणा पदुप्पण्णं गुणिदं संतं तसाणं जवमज्झं होइ। जहण्णुक्कस्सट्ठाणजीवपमाणं जहाकम दोसु उद्देसेसु दृविय तत्थ जहण्णट्ठाणजीवपमाणे हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागमेत्तवारं दुगुणगुणगारेण गुणिदे उवरिमणाणागुणहाणिसलागमेत्तवारं च उक्कस्सट्ठाणजीवपमाणे दुगुणगुणगारेण गुणिदे जवमज्झट्ठाणजीवपमाणमुप्पजदि त्ति वुत्तं होइ । अहवा एवं जवमज्झछेदणयपमाणमणूणाहियं घेत्तूण विरलिय विगं कादण अण्णोण्णब्भत्थे कदे जवमज्झट्ठाणजीवपमाणमुप्पज्जदि त्ति एदस्स सुत्तस्सत्थो परूवेयव्यो, पदुप्पण्णसहस्स गुणगारपजायत्तेण रूढस्स इह ग्गहणादो। एवमणंतर-परंपरोवणिधाभेयभिण्णसेढिपरूवणा समत्ता।
२९७. संपहि एदेणेव सुत्तपबंधेण सूचिदो अवहारो भागाभागो च जाणिय णेदव्वो। तदो अप्पाबहुअं-सव्वत्थोवा उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे जीवा । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे जीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहिं परिहीणुवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्थरासिगुणगारो त्ति जमुत्तं होइ । जवमज्झजीवा संखेजगुणा। को गुणगारो ? जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धमत्तो चउभागमेत्तो अट्ठभागमेत्तो तप्पाओग्गसंखेजरूवमेत्तो वा । कुदो एदं णव्वदे ? जहण्णट्ठाणादो उवरि रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्जहोता है। जघन्य और उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्रमाणको क्रमसे दो स्थानोंमें स्थापितकर वहाँ जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणको अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंका जो प्रमाण है उतनी बार द्विगुण गुणकारसे गुणित करनेपर तथा उपरिम नाना गणहानिशलाकाओंका जो प्रमाण है उतनी वार उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्रमाणको द्विगुणगुणकारसे गुणित करनेपर यवमध्यके
प्रमाण उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अथवा यवमध्यके अर्धच्छेदोंके इस प्रमाणको न्यूनाधिकतासे रहितरूपसे ग्रहणकर और उसका विरलनकर तथा विरलनके प्रत्येक एकको दूनाकर परस्पर गुणा करनेपर यवमध्यस्थानके जीवोंका प्रमाण उत्पन्न होता है इस प्रकार इस सूत्रके अर्थका कथन करना चाहिए, क्योंकि 'पदुप्पण्ण' शब्दको 'गुणकार' अर्थमें रूढरूपसे यहाँ ग्रहण किया है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधाके भेदरूप श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई।
२९७. अब इसी सूत्र प्रबन्धद्वारा सूचित हुए अवहार और भागाभागका जानकर कथन करना चाहिए। उसके बाद अल्पबहुत्व है-उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे जघन्य कषाय उदयस्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुएन है। अधस्तन नाना गुणहानिशलाकाओंसे हीन उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंको अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनसे यवमध्यके जीव संख्यातगणे हैं । गुणकार क्या है ? जघन्य परीतासंख्यातका अर्घमागप्रमाण, चतुर्थभागप्रमाण, अष्टम भागप्रमाण अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात अंकप्रयाण है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-जघन्य स्थानसे ऊपर एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे लेकर
जीवोंका प्रमाण
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुड़े [उवजोगो७ छेदणयमादि कादूण जाव तप्पाओग्गसंखेजरूवमेत्ताओ जवमज्झादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ जिणदिट्ठभावेण घेत्तव्याओ त्ति परमगुरूवएसादो । जवमज्झादो हेडिमजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो, किंचूण दिवड्डगुणहाणिहाणंतरमिदि वुत्तं होइ । जवमज्झादो उवरिमजीवा विसेसाहिया । सुगममेत्थ कारणं । सव्वेसु द्वाणेसु जीवा विसेसाहिया, हेट्ठिमट्ठाणजीवाणमेत्थ पवेसदसणादो । एवमप्पाबहुए परूविदे कसायुदयट्ठाणेसु तसाणमोघेण विरहिदाविरहिदट्ठाणपरूवणाणुगया जवमज्झपरूवणा समत्ता भवदि । एत्तो णिरयादिगदीणं पादेक्कं णिरुभणं कादूण तसाणमादेसपरूवणा च जहागममणुगंतव्वा ।
* एसा सुत्तविहासा।
5 २९८. सत्तमीए गाहाए पुरिमद्धसुत्तस्स एसा अत्थविहासा कया त्ति वुत्तं होइ ।
* सत्तमीए गाहाए पढमस्स अद्धस्स अत्थविहासा समत्ता भवदि । ६२९९. सुगमं । * एत्तो विदियद्धस्स अत्थविहासा कायव्वा । ६३००. सुगममेदं पइण्णावक्कं ।
तत्प्रायोग्य संख्यात अंकप्रमाण यवमध्यसे अधस्तन नाना गणहानिशलाकाएँ जितनी जिनेन्द्रदेवने देखी हों उस रूपसे ग्रहण करनी चाहिए ऐसा परमगुरुका उपदेश है ।
उनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गणकार है । कुछ कम डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनसे यवमध्यसे उपरिम जीव विशेष अधिक हैं। यहाँपर कारणका कथन सुगम है। उनसे सब स्थानोंमें जीव विशेष अधिक हैं, क्योंकि इनमें अधस्तन स्थानोंके जीवोंका प्रवेश देखा जाता है। इस प्रकार अल्पबहुत्वका कथन करनेपर कषाय उदयस्थानों में
ओघसे त्रसजीवोंसे रहित और सहित स्थानोंकी प्ररूपणासे अनुगत यवमध्यप्ररूपणा समाप्त होती है । आगे नरकादि गतियोंमेंसे प्रत्येक गतिको विवक्षित कर त्रसजीवोंकी आदेशप्ररूपणा भी आगमानुसार जान लेनी चाहिए। . * यह गाथासूत्रकी अर्थविभाषा है ।
5 २९८. सातवीं गाथासूत्रके पूर्वार्धकी यह अर्थविभाषा की यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* इस प्रकार सातवीं गाथाके प्रथम अर्धभागकी अर्थविभाषा समाप्त होती है। $ २९९. यह सुगम है। * अब आगे दूसरे अर्धभागकी अर्थविभाषा करनी चाहिए । 5 ३००. यह प्रतिज्ञावाक्य सुगम है।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
गाथा ६९]
सत्तमगाहामुत्तस्स अत्थपरूवणां * तं जहा। $३०१. एदं पि सुगमं ।
* पढमसमयोवजुत्तेहिं चरिमसमए च बोद्धव्वा त्ति एत्थ तिण्णि सेढीओ।
६३०२ एदस्स गाहापच्छद्धस्स अत्थविहासणट्ठमेत्थ तिण्णि सेढीओ अप्पाबहुअसंबंधिणीओ णादव्वाओ त्ति भणिदं होइ । कधं पुण गाहापच्छद्धमेदं तिविहाए सेढीए अप्पाबहुअपरूवणम्मि पडिबद्धमिदि चे ? वुच्चदे, तं जहा-एत्थतणसमयसद्दो ण कालवाचओ, किंतु ववत्थावाचओ घेत्तव्वो। तेण पढमसमयोवजुत्तेहिं त्ति वुत्ते पढमादियाए सेढीए गहणं कायव्वं, पढमकसायादियाए ववत्थाए परिणदेहिं जीवहिं एया अप्पाबहुअसेढी णायव्वा त्ति सुत्तत्थावलंबणादो। एवं चरिमसमये च बोद्धव्वा त्ति एदेण वि चरिमादियाए सेढीए संगहो कायव्वो, चरिमकसायादियाए ववत्थाए अण्णा अप्पाबहुअसेढी बोद्धव्वा ति तदत्थावलंवणादो। जेणेदाओ दो वि सेढीओ देसामासयभावेण पयट्टाओ तेण विदियादिया वि सेढी एत्थेवंतब्भूदा ति गहेयव्वा । अथवा सम्यगीयते प्राप्यते इति समयः संपरायः कसाय इत्येकोऽर्थः। प्रथमश्चासौ समयश्च
* वह जैसे। $ ३०१. यह सूत्रवचन भी सुगम है।
* प्रथमादिका श्रेणि या प्रथम आदि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके द्वारा और अन्तिमादिका श्रेणि या अन्तिमादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंकेद्वारा अल्पबहुत्व जानना चाहिए । इस प्रकार प्रकृतमें तीन श्रेणियाँ कही गई हैं।
३०२. गाथाके इस उत्तरार्धके अर्थका विशेष व्याख्यान करनेके लिये यहाँपर अल्पबहुत्वसे सम्बन्ध रखनेवाली तीन श्रेणियाँ जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-गाथाका यह उत्तरार्ध तीन प्रकारकी श्रेणियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अल्पबहुत्वके कथनमें कैसे प्रतिबद्ध है ?
समाधान-कहते हैं, यथा-इसमें आया हुआ 'समय' शब्द कालवाचक नहीं है, किन्तु व्यवस्थावाचक ग्रहण करना चाहिए। इसलिये 'पढमसमयोवजुत्तेहिं' ऐसा कहनेपर प्रथमादिका श्रेणिका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रथम कषाय आदिरूप व्यवस्थासे परिणत हुए जीवोंके द्वारा एक अल्पबहुत्व श्रेणि जाननी चाहिए, इस प्रकार प्रकृतमें सूत्रार्थका अवलम्बन लिया है। इसी प्रकार 'चरिमसमए च बोद्धव्वा' इस प्रकार इस वचनद्वारा भी चरमादिका श्रेणिका संग्रह करना चाहिए, क्योंकि अन्तिम कषाय आदिरूप व्यवस्थामें अन्य अल्पबहुत्व श्रेणि जाननी चाहिए इस प्रकार उक्त वचनके अर्थका अवलम्बन लिया है। यतः ये दोनों ही श्रेणियाँ देशामर्षकभावसे प्रवृत्त हुई हैं, इसलिए द्वितीयादिका श्रेणि भी यहाँपर अन्तर्भूत है, अतः उसे भी ग्रहण करना चाहिए । अथवा जो 'सं सम्यक्रूपसे 'ईयते' अर्थात्
१. ता० प्रती तेण वि विदियादिया इति पाठः । २. ता प्रती संपराय कषाय इति पाठः ।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ प्रथमसमयः प्रथमकषाय इत्यर्थः । एवं चरिमसमय इत्यत्रापि बोद्धव्यं । शेषं पूर्ववद्वथाख्येयं । तदो कसायोवजुत्ताणं तीहिं सेढीहिं अप्पाबहुअपरूवणट्ठमेदं गाहापच्छद्धमोइण्णमिदि सिद्धं । एवमेदस्स गाहापच्छद्धस्स पडिबद्धत्थपरूवणं कादूण संपहि ताओ काओ तिण्णि सेढीओ त्ति आसंकाए पुच्छासुत्तमुत्तरं भणइ
* तं जहा।
३०३. सुगमं । * विदियादिया पढमादिया चरिमादिया ३।।
६३०४. एवमेदाओ तिण्णि सेढीओ त्ति भणिदं होइ । का सेढी णाम १ सेढी पंती अप्पाबहुअपरिवाडि ति एयत्थो। तत्थ जम्मि अप्पाबहुअपरिवाडिम्मि माणसण्णिदविदियकसायोवजुत्ते आदि कादूण थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा विदियादिया णाम । सा वुण तिरिक्ख-मणुसेसु होइ, तत्थ माणोवजुत्ताणं थोवभावेण सव्वहेट्ठिमत्तदंसणादो । तहा जम्हि अप्पाबहुअपरिवाडिम्मि कोहसण्णिदपढमकसायोवजुत्ताणं थोवभावेण पढमणिद्देसेण पढमादिया णाम । सा वुण देवगदीए होइ, तत्थ कोहोवजुत्ताणं सव्वहेडिमत्तदंसणादो। तहा जम्हि थोवबहुत्तपरिवाडीए लोभसण्णिदचरिमकसायोवप्राप्त होता है वह समय अर्थात् सम्पराय-कषाय कहलाता है इस प्रकार समय शब्दका यह एक अर्थ है । तथा प्रथम जो समय वह प्रथम समय है। प्रथम कषाय यह उसका अर्थ है। इसी प्रकार 'चरिमसयय' इस पदमें भी जानना चाहिए । शेष व्याख्यान पहलेके समान करना चाहिए। इसलिए कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका तीन श्रेणियोंद्वारा अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये गाथाका उत्तरार्ध आया है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार गाथाके इस उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थका कथनकर अब वे तीन श्रेणियाँ कौनसी हैं ऐसी आशंका होनेपर आगेके पृच्छासूत्रको कहते है
* वह जैसे। $ ३०३. यह सूत्रवचन सुगम है। * द्वितीयादिका श्रेणि, प्रथमामिका श्रेणि और चरमादिका श्रेणि ३ । $ ३०४. इस प्रकार ये तीन श्रेणियाँ हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-श्रेणि किसे कहते हैं ? समाधान-श्रेणि, पंक्ति और अल्पबहुत्वपरिपाटी ये तीनों पद एकार्थक हैं।
उनमेंसे मानसंज्ञावाली दूसरी कषायसे उपयुक्त जिस अल्पबहुत्व परिपाटीसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह द्वितीयादिका परिपाटी कहलाती है। परन्तु वह तिर्यश्चों और मनुयोंमें होती है, क्योंकि उनमें मानकषायसे उपयुक्त हुए जीवोंका स्तोकभावसे सबसे अधस्तनपना देखा जाता है । तथा जिस अल्पबहुत्वपरिपाटीमें क्रोध संज्ञावाली प्रथम कषायसे उपयुक्त हुए जीवोंका स्तोकपनेकी अपेक्षा प्रथम पदका निर्देश किया गया है वह प्रथमादिका परिपाटी कहलाती है। परन्तु वह देवगतिमें होती है। तथा जिस अल्पबहुत्वपरिपाटीमें लोभसंज्ञावाली अन्तिम कषायसे उपयुक्त हुए जीवोंका सबसे स्तोकपना है वह
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१४३ जुत्ताणं सव्वत्थोवभावो सा चरिमादिया णाम। चरिमो कसायो आदी जिस्से अप्पाबहुअसेढीए सा चरिमादिया त्ति समासावलंबणादो। सा वुण जेरइएसु होइ, तत्थ लोभोवजुत्ताणं सव्वत्थोवभावे पवुत्तिदसणादो। एवमेदाओ तिण्णि चेव अप्पाबहुअसेढीओ पयदविसये संभवंति, पयारंतरस्स तत्थाणुवलंभादो। एत्थ ताव विदियाए सेढीए साहणट्टमेसा संदिट्ठी
०००००००००००० माणोवजुत्तद्धा । ०००००००००००००००० कोहोवजुत्तद्धा । ०००००००००००००००००००० मायोवजुत्तद्धा ।
००००००००००००००००० लोभोवजुत्तद्धा । संपहि एदीए संदिट्ठीए पयदत्थसाहणमुवरिमं चुण्णिसुत्तपबंधमणुसरामो* विदियादियाए साहणं ।
$३०५. तत्थ ताव विदियादियाए सेढीए जीवप्पाबहुअपरूवणस्स साहणं तप्पवेसणकालपडिबद्धमप्पाबहुअं कस्सामो त्ति वुत्तं होइ ।
* माणोवजुत्ताणं पवेसणयं थोवं ।
६३०६. तिरिक्ख-मणुस्सेसु माणोवजुत्ताणं पवेसणकालो उवरिमपदविवक्खिओ चरमादिका परिपाटी कहलाती है। चरम कषाय है आदिमें जिस अल्पबहुत्वश्रेणिके वह चरमादिका इस प्रकार प्रकृतमें समासका अवलम्बन लिया है। परन्तु वह नारकियोंमें होती है, क्योंकि उनमें लोभसे उपयुक्त हुए जीवोंकी सबसे स्तोकरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार प्रकृत विषयमें ये तीन ही अल्पबहुत्वश्रेणियाँ सम्भव हैं, क्योंकि प्रकृतमें इनके सिवाय दूसरा प्रकार नहीं उपलब्ध होता है। यहाँपर सर्वप्रथम द्वितीयादिका श्रेणिके साधन करनेके लिये यह संदृष्टि है
०००००००००००० मानोपयोगकाल । ०००००००००००००००० क्रोधोपयोगकाल । ०००००००००००००००००००० मायोपयोगकाल । ०००००००००००००००००००००००० लोभोपयोगकाल । अब इस संदृष्टिद्वारा प्रकृत अर्थका साधन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धका अनुसरण * अब द्वितीयादिका श्रेणिकी अपेक्षा साधन करते हैं।
६३०५. वहाँ सर्वप्रथम द्वितीयादिका श्रेणिको अपेक्षा जीव अल्पबहुत्वके कथनका साधन करेंगे अर्थात् जीवोंके प्रवेशकालसे सम्बन्ध रखनेवाले अल्पबहुत्वको कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल सबसे थोड़ा है। $ ३०६. तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल उपरिम
करते है इस संदृष्टिद्वारा प्रकृती
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ थोवो त्ति भणिदं होदि । कथं पुनः प्रवेशनशब्देन प्रवेशकालो गृहीतुं शक्यत इति नाशंकनीयम्, प्रविशन्त्यस्मिन् काले इति प्रवेशनशब्दस्य व्युत्पादनात् ।
* कोहोवजुत्ताणं पवेसणगं विसेसाहियं ।
$३०७. केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो। एवं मायालोभोवजुत्ताणं एत्तो जहाकमेण पवेसणकालाणं विसेसाहियत्तमणुगंतव्वं, सुत्तस्सेदस्स देसामासयभावेण पयट्टत्तादो। जदो एवं पवेसणकालाणं माणादिपरिवाडीए विसेसाहियभावो तिरिक्ख-मणुसेसु तदो तकालसंचिदमाणादिकसायोवजुत्ताणं पि तहाभावसिद्धि ति परिप्फुडमेवेदं विदियादियाए साहणमिदि सिद्धं, पवेसणकालाणुसारेण संचयसिद्धीए णाइयत्तादो । एदम्मि पुण पक्खे अवलंबिज्जमाणे 'एसो विसेसो एक्केण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागो' त्ति उवरिमाणंतरसुत्तं ण घडदे, पवेसणकालम्मि पलिदोवमासंखेज्जदिभागपडिभागियस्स विसेसस्स सव्वप्पणा संभवाणुवलंभादो। तदो णेदं पवेसणकालाणमप्पाबहुअपरूवयं सुत्तं किंतु कसायोवजोगद्धासु समयं पडि ढुकमाणजीवाणं पवेसणस्स थोवबहुत्तपरिक्खणट्टमेदं सुत्तमोइण्णं इदि घेत्तव्वं ।
३०८. तं जहा-माणोवजुत्ताणं षवेसणयं थोवं, कोहोवजुत्ताणं पवेसणयं पदोंको देखते हुए सबसे थोड़ा है।
शंका-प्रवेशन शब्दसे प्रवेशकालका ग्रहण कैसे शक्य है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस कालमें जीव प्रवेश करते हैं इस प्रकार प्रवेशन शब्द प्रवेशकालके अर्थमें व्युत्पादित किया गया है।
* उससे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल विशेष अधिक है।
$३०७. विशेषका प्रमाण कितना है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार आगे मायाकषाय और लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल विशेष अधिक जान लेना चाहिए, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षकभावसे प्रवृत्त हुआ है। यतः इस प्रकार मानकषायसे लेकर परिपाटी क्रमसे तिर्यश्चों और मनुष्यों में प्रवेशकालका विशेष अधिकपना है, इसलिये उस कालमें संचित हुए मानादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके भी विशेष अधिकपनेकी सिद्धि स्पष्टरूपसे बन जाती है यह 'विदियादियाए साहणं' इस सूत्रसे स्पष्टरूपसे सिद्ध है, क्योंकि प्रवेशकालके अनुसार संचयकी सिद्धि न्यायप्राप्त है। परन्तु इस पक्षके अवलम्बन करनेपर 'यह विशेष एक उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप है' इस प्रकार यह उपरिम अनन्तर सूत्र नहीं बनता है, क्योंकि प्रवेशकालमें पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप विशेष सब प्रकारसे उत्पत्ति नहीं बन सकती। इसलिए यह प्रवेशकालोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेवाला सूत्र नहीं है, किन्तु कषायोंके उपयोगकालोंके भीतर प्रत्येक समय में प्राप्त होनेवाले जीवोंके प्रवेशके अल्पबहुत्वकी रक्षा करनेके लिये यह सूत्र आया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
६३०८. यथा-मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेश सबसे थोड़ा है। उससे
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९ ]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१४५
विसेसाहियमिदि वृत्ते पढमसमये माणोवजुत्तो होदूण पविसमाणजीवरासीदो तम्मि चैव पढमसमये कोहोवजुत्तो होदूण पविसमाणजीवरासी विसेसाहिओ होदि ति अत्थो तव्वो । एवं विदियादिसमएस वि दोन्हं कसायोवजुत्तरासीणं सण्णियासं काढूण दव्वं जाव चरिमसमयोवजुत्ता ति । णवरि माणोवजुत्ताणं चरिमसमयादो उवरि विसेसाहियमद्धाणं गंतूण कोहोवजुत्ताणं चरिमसमयो होदि त्ति वत्तव्वं । एवं मायालोभाणं पिवतव्वं । जेणेवं समयं पडि ढुक्कमाणमाणोवजुत्तरासीदो पडिसमयसुवक्कममाणको होवजुत्तरासी विसेसाहिओ अद्धाणविसेसो च जेण अत्थि तेण कारणेण तदत्थासंगलिदजीवरासिसंचओ वि तदणुसारिओ चेव होदि ति सुव्वतमेवेदं विदियादिए साहणं । एदं वक्खाणमेत्थ पहाणभावेणावलंवेयव्वं, अविरुद्धसरूवत्तादो ।
* एसो विसेसो एक्केण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागो ।
$ ३०९. जो एसो अणंतरपरुविदो विसेसो माणोवजुत्ताणं पवेसणादो कोहोवजुत्ताणं पवेसणयं विसेसाहियमिदि सो किं हेट्ठिमरासिस्स संखेजदिभागमेत्तो असंखेज्जदिभागमेत्तो वा अनंतभागमेत्तो वा ? असंखेज्जदिभागमेत्तो वि होंतो किमावलियाए
क्रोधकषाय में उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल विशेष अधिक है ऐसा कहनेपर प्रथम समय में मानकषाय में उपयुक्त होकर प्रवेश करनेवाली जीवराशिसे उसी समयमें क्रोधकषायमें उपयुक्त होकर प्रवेश करनेवाली जीवराशि विशेष अधिक होती है यह अर्थ प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी दोनों कषायोंमें उपयुक्त हुई जीवराशिका सन्निकर्ष करके अन्तिम समय में उपयुक्त हुई जीवराशिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके अन्तिम समयसे ऊपर विशेष अधिक काल जाकर क्रोधकषाय में उपयुक्त हुए जीवोंका अन्तिम समय होता है ऐसा कहना चाहिए । इसी प्रकार मायाकषाय और लोभकषायकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए । यतः इस प्रकार प्रत्येक समय में प्राप्त होनेवाली मानकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशिसे प्रत्येक समय में प्राप्त होनेवाली क्रोधकषाय में उपयुक्त हुई जीवराशि विशेष अधिक होती है और यतः अध्वान विशेष होता है इस कारणसे वहाँपर संकलित जीवराशिका संचय भी उसीके अनुसार ही होता है इस प्रकार यह द्वितीयादिका श्रेणिका साधन सुव्यक्त ही है । इस व्याख्यानका यहाँपर प्रधानरूपसे अबलम्बन करना चाहिए, क्योंकि यह व्याख्यान अविरुद्धस्वरूप है ।
* यह विशेष एक उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप है।
$ ३०९. मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके प्रवेशसे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेश विशेष अधिक है इस बातको बतलानेवाला जो यह अनन्तर कहा गया विशेष है वह क्या अधस्तन राशिके संख्यातवें भागप्रमाण है या असंख्यातवें भागप्रमाण है या अनन्तवें भागप्रमाण है ? असंख्यातवें भागप्रमाण होता हुआ भी क्या आवलिके असंख्यातवें भागके
१९
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ असंखेजदिभागपडिभागिओ आहो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागिओ, किंवा अण्णपडिभागिओ त्ति संपहारणाए तव्विसयणिण्णयजणणट्ठमेदं सुत्तमोइण्णं ।
___$ ३१०. तं जहा–एत्थ वे उवएसा–पवाइजंतओ अपवाइजंतओ चेदि । तत्थ ताव एक्केण अपवाइजंतएण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागिओ एसो विसेसो घेत्तव्यो, समयं पडि माणोवजुत्ताणं पवेसणरासिं जहावुत्तेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागेण खंडेयूणेयखंडमेत्तेण कोहोवजुत्ताणं पवेसणस्स तत्तो विसेसाहियत्तभुवगमादो संचयस्स वि एसो चेव पडिभागो एदम्मि उवएसे वत्तव्यो, संचयस्स सव्वत्थ पवेसाणुसारित्तदंसणादो अद्धा विसेसस्स एदम्मि पक्खे अविवक्खियत्तादो । अधवा संचयस्स एसो पडिभागो ण जोजेयव्यो, अद्धाविसेसस्सेव तत्थ पहाणत्तोवलंभादो।
* पवाइज्जंतेण उवदेसेण आवलियाए असंखेजदिभागो।
$३११. विसेसो त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे, पडिभागो त्ति च, तेणेवमहिसंबंधो कायव्यो—माणोवजुत्ताणं पवेसणरासिमावलियाए असंखेजदिमागपडिभागेण भागं घेत्तूण तत्थ भागलद्धमत्तेण कोहोवजुत्ताणं पवेसणरासी तत्तो विसेसाहिओ त्ति एसो चेव उवएसो एत्थ पहाणभावेणावलंबेयव्यो, पव्वाइजमाणत्तादो।
प्रतिभागस्वरूप है या पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप है या क्या अन्य प्रतिभागस्वरूप है ऐसी आशंका होनेपर उस विषयका निर्णय करनेके लिए यह सूत्र आया है।
$ ३१०. यथा-इस विषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं—प्रवाह्यमान उपदेश और अप्रवाह्यमान उपदेश । उनमेंसे सर्वप्रथम एक अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप इस विशेषको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक समय में मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंकी प्रवेशराशिको पूर्वोक्त पल्योपमके असंख्यातव भागरूप प्रतिभागसे भाजितकर जो एक भाग प्राप्त हो उतना क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेश मानकषायमें प्रवेश करनेवाली जीवराशिसे विशेष अधिक स्वीकार किया गया है तथा संचयका भी यही प्रतिभाग इस उपदेशके अनुसार कहना चाहिए, क्योंकि सर्वत्र संचय प्रवेशके अनुसार देखा जाता है तथा इस पक्षमें कालविशेषकी विवक्षा नहीं की गई है। अथवा संचयका यह प्रतिभाग नहीं लेना चाहिए, क्योंकि कालविशेषकी ही वहाँ प्रधानता पाई जाती है।
* प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार विशेष आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
$ ३११. विशेष इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है और प्रतिभाग पदकी भी, इसलिए ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए कि मानकषायमें प्रवेश करनेवाली राशिको आवलिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे भाजितकर वहाँ जो भाग लब्ध आवे उतनी क्रोधकषायमें
ए जीवोंकी प्रवेशराशि उससे विशेष अधिक होती है इस प्रकार यही उपदेश यहाँपर प्रधानभावसे लेना चाहिए, क्योंकि यह प्रवाह्यमान उपदेश है।।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणां $३१२. संपहि एदेण पवेसणप्पाबहुएण साहिदसंचयप्पाबहुअमोघेण तिरक्खमणुसगईसु च एवमणुगंतव्वं-सव्वत्थोवा माणोवजुत्ता। कोहोवजुत्ता विसेसाहिया । मायोवजुत्ता विसेसाहिया । लोभोवजुत्ता विसेसाहिया । सव्वत्थ विसेसपमाणमणंतरपरूविदत्तादो सुगमं । एवं विदियादिया सेढी समत्ता ।।
३१३. संपहि एदेण देसामसयसुत्तेण सूचिदपढम-चरिमादियाणं पि साहणं कादूण तदो संचयप्पावहुअं कायव्वं । तं जहा-देवगदीए कोहोवजुत्ता थोवा । माणोवजुत्ता संखेजगुणा । मायोवजुत्ता संखेजगुणा । लोभोवजुत्ता संखेजगुणा, तदद्धाणं तप्पवेसणस्स च तहाभावेणावट्ठाणादो। एसा पढमादिया सेढी। एवं चरमादिया वि णेदव्वा । णवरि णिरयगइसंबंधेण देवगइविवजासेण तदुच्चारणं कायव्वं । जइ वि एदं जीवविसयमप्पाबहुअं पुव्वमट्ठसु अणिओगद्दारेसु परूविञ्जमाणेसु विहासिदं चेव तो वि पवेसणसंबंधेण विसेसपमाणावहारणमुहेण च विसेसयूणेत्थ परूवणादो ण पुणरुत्तदोसावयारो । एवमप्पाबहुए समत्ते सत्तमीए सुत्तगाहाए पच्छद्धस्स अत्थविहासा समत्ता । संपहि एवमेदेसु सत्तसु गाहासुत्तेसु विहासिय समत्तेसु एत्थेवुवजोगाणिओगद्दारपरिसमत्ती जायदि ति जाणावणमुत्तरमुवसंहारवक्कं
एवमुवजोगो ति समत्तमणिओगद्दारं । ३१२. अब इस प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्वसे साधा गया संचयसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघसे तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिमें इस प्रकार जानना चाहिए-मानकषायमें उपयुक्त हुए जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं। उनसे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक है तथा उनसे लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव विशेष अधिक हैं । सर्वत्र विशेषका प्रमाण अनन्तर कहा गया होनेसे सुगम है। इस प्रकार द्वितीयादिका श्रेणि समाप्त हुई।
६३१३. अब इस देशामर्षक सूत्रसे सूचित हुई प्रथमादिका और चरमादिका श्रेणियोंका भी साधनकर उसके बाद संचयसम्बन्धी अल्पबहुत्व कर लेना चाहिए । यथा-देवगतिमें क्रोधकषायमें उपयुक्त हए जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे मानकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं, उनसे मायाकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं तथा उनसे लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका काल और उनका प्रत्येक समयमें प्रवेश उसी प्रकार देखा जाता है। यह प्रथमादिका श्रेणि है। इसी प्रकार चरमादिका श्रेणि भी जाननी चाहिए। इतनी विशेषता है नरकगतिके सम्बन्धसे उसका कथन देवगतिके विपरीतरूपसे करना चाहिए । यद्यपि यह जीवविषयक अल्पबहुत्व पहले आठ अनुयोगद्वारोंके कथनके समय कह आये हैं तो भी प्रवेशके सम्बन्धसे विशेष प्रमाणके अवधारणद्वारा विशेषरूपसे यहाँपर कथन करनेसे पुनरुक्त दोषका अवतार नहीं होता है। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर सातवीं सूत्रगाथाके उत्तरार्धके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हआ। अब इस प्रकार इन सात गाथासूत्रोंका व्याख्यान समाप्त होनेपर यहींपर उपयोग अनुयोगद्वारकी समाप्ति हो जाती है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका उपसंहार वाक्य है
इस प्रकार उपयोगसंज्ञक सातवाँ अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमणिदं
सिरि-भगवंतगुरणहर भडारनोवइट्ठ
कसाय पा हुर्ड
तस्स
सिरि-वीरसेरणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्थ
चाणमिदि अट्टमो अत्थाहियारो
-::+
णमो अरहंताणं०
णिङ्कवियचउट्ठाणं पणट्ठकम्मट्ठदुट्ठखिचे । वोच्छामि चउट्ठाणं जिणपरमेट्ठि पणमियूण ॥ १ ॥
जिसने अनुभागसम्बन्धी चार स्थानोंको निष्ठापितकर लिया है और जिसने आठ कर्मरूपी दुष्ट शत्रुकी चेष्टाको नष्ट कर दिया है. ऐसे श्री जिन परमेष्ठीको प्रणामकर चतुःस्थान अनुयोगद्वारका कथन करता हूँ ॥ १ ॥
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[उवजोगो७ १. उवजोगपरूवणाणंतरं किमट्ठमेदं चउट्ठाणसण्णिदमणिओगद्दारमोइण्णमिदि चे ? वुच्चदे-कोहादिकसायाणमुवजोगो एयवियप्पो ग होइ, किंतु एग-वि-तिचउट्ठाणमेयभिण्णकसायाणुभागोदयजणिदत्तादो पादेक्कं चउप्पयारो होदि त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स णिदरिसणोवणयमुहेण पदुप्पायणट्टमेदमणियोगद्दारमोइण्णं, तहाभूदत्थविसेसपदुप्पायणम्मि गाहासुत्ताणमुवरिमाणं पडिबद्धत्तदंसणादो। अदो चेव चउट्ठाणसण्णा एदस्स सुसंबद्धा । लदासमाणादिभेयभिण्णाणं चदुण्हं द्वाणाणं समाहारो चउट्ठाणं तप्परूवयमणियोगद्दारं पि चउट्ठाणमिदि, गोण्णपदणामावलंबणादो। एवमेदेण संबंधेणागदस्सेदस्स अणियोगद्दारस्स विहासणहमेत्थ गाहासुत्तावयारो कीरदे
* चउट्ठाणे त्ति अणियोगदारे पुव्वं गमणिज्जं सुत्।
२. चउट्ठाणे ति जमणिओगद्दारं कसायपाहुडस्स पण्हारसण्हमत्थाहियाराणं मज्झे अट्ठमं तस्सेदाणिमत्थविहासणमहिकीरदे । तत्थ य पुव्वं पढममेव ताव गमणिजमणुगंतव्वं, सुत्तं गुणहराइरियमुहकमलविणिग्गयमणंतत्थगन्भं गाहासुचमिदि वुर्ग होइ । जइ वि एत्थ सोलस सुनगाहाओ उवरि भणिस्समाणाओ तो वि सुलत्थजाइदुवारेण तासिमेयनमत्थि चि एयवयणणिदेसो ण विरुज्झदे ।
१. शंका–उपयोग अनुयोगद्वारके कथन करनेके बाद चतुःस्थान संज्ञावाला यह अनुयोगद्वार किसलिये आया है ?
समाधान-कहते हैं, क्रोधादि कषायोंका उपयोग एक प्रकारका नहीं होता, किन्तु कषायोंका अनुभाग एक, दो, तीन और चार प्रकारके भेदोंमें विभक्त है, अतः उसके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण कषायोंका उपयोग प्रत्येक चार प्रकारका है इसप्रकार इंसप्रकारके अर्थविशेषका दृष्टान्तोंद्वारा कथन करनेके लिये यह अनुयोगद्वार आया है, क्योंकि आगेके गाथासूत्रोंका उस प्रकारके अर्थविशेषके कथनके रूपमें सम्बन्ध देखा जाता है और इसीलिये इस अनुयोगद्वारकी चतुःस्थान संज्ञा सुसम्बद्ध है।
लतासमान आदि भेदोंमें विभक्त चार स्थानोंका समाहार चतुःस्थान है और उसका कथन करनेवाला अनुयोगद्वार भी चतु:स्थान है, क्योंकि इस संज्ञाके करनेमें गौण्यपदका अवलम्बन लिया है। इस प्रकार इस सम्बन्धसे प्राप्त हुए इस अनुयोगद्वारका कथन करनेके लिये यहाँ गाथासूत्रोंका अवतार करते हैं
* चतुःस्थान नामक अनुयोगद्वारमें सर्वप्रथम गाथासूत्र जानना चाहिए।
६२. कषायप्राभृतके पन्द्रह अर्थाधिकारों से चतुःस्थान नामका जो आठवाँ अनुयोगद्वार है, उसका इस समय अर्थ सहित व्याख्यान करते हैं। उसमें 'पुन्वं' अर्थात् प्रथम ही गाथासूत्र 'गमणिज्ज' अर्थात् जानना चाहिए। यहाँपर सूत्रपदसे तात्पर्य गुणधर आचार्यके मुख-कमलसे निकला हुआ अनन्त अर्थ गर्भित गाथासूत्र है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यद्यपि यहाँपर आगे १६ सोलह सूत्रगाथाएं कही जायगीं तो भी सूत्ररूप अर्थकी एक जाति है इस अपेक्षा उनमें एकपना है, इसलिये एकवचन निर्देश विरोधको प्राप्त नहीं होता।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूषणा
गाथा ७० ]
१५१ ___ * तं जहा।
६३. सुगममेदं पुच्छावक्कं । एवं पुच्छाविसईकयाणं गाहासुत्ताणं जहाकममेसो सरूवणिद्देसो(१७) कोहो चउव्विहो वुत्तो माणो वि चउव्विहो भवे ।
माया चउव्विहा वुत्ता लोहो वि य चउव्विहो ॥१-७०॥
६४. एसा ताव पढमा सुत्तगाहा । एदीए कोह-माण-माया-लोहाणं पादेक्कं चउन्विहत्तमेत्तं पइण्णादं । एत्थ कोहो चउव्विहो ति वुत्ते किमणंताणुबंधिपञ्चक्खाणापच्चक्खाण-संजलणभेएण कोहस्स चउव्विहत्तमहिप्पेदं, आहो पयारंतरेणे त्ति ? ण ताव अणंताणुबंधिकोहादिभेएण चउविहत्तमेत्थ विवक्खियं, तहाविहस्स भेदणिद्देसस्स पयडिविहत्तिआदिसु पुत्वमेव सुणिण्णीदत्तादो उवरिमपरूवणाए तप्पडिबद्धत्तदसणादो च । किंतु एग-वि-ति-चउट्ठाणमेयभिण्ण-कसायाणुभागोदयजणिदणग-पुढविबालुगोदरारायिसरिसपरिणाममेदेण कोहस्स चउप्पयारत्तमेत्थ विवक्खियं, तहाविहमेदपरूवणाए चेव उवरिमाणं गाहासुत्ताणं पडिबद्धत्तदंसणादो। एवं माण-माया-लोभाणं पि अपयदमेदचउक्कणिवारणमुहेण पयदचउम्मेदपरूवणं कायव्वं ।
* वे जैसे।
$ ३. यह पृच्छावाक्य सुगम है । इसप्रकार पृच्छाके विषयको प्राप्त हुई गाथासूत्रोंका यह क्रमसे स्वरूपनिर्देश है
* क्रोध चार प्रकारका कहा गया है, मान भी चार प्रकारका है, माया चार प्रकारकी कही गई है और लोभ भी चार प्रकारका है ॥१-७०॥
६४. सर्वप्रथम यह पहली सूत्रगाथा है। इस द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ इनमेंसे प्रत्येककी चार प्रकारके होनेकी प्रतिज्ञा की गई है।
शंका-यहाँपर क्रोध चार प्रकारका है ऐसा कहनेपर क्या अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और संज्वलनके भेदसे चार प्रकारका क्रोध अभिप्रेत है या प्रकारान्तरसे वह चार प्रकारका अभिप्रेत है ?
समाधान–यहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिके भेदसे वह चार प्रकारका विवक्षित नहीं है, क्योंकि उस प्रकारके भेदोंका निर्देश प्रकृतिविभक्ति आदिमें पहले ही अच्छी तरहसे निर्णीत कर आये हैं तथा आगेकी प्ररूपणामें उनका सम्बन्ध देखा जाता है। किन्तु कषायोंका अनुभाग एक, दो, तीन और चार स्थानोंके भेदसे विभक्त है, अतः उसके उदयसे नगराजि, पृथिवीराजि, बालुकाराजि, उदकराजिके समान परिणामोंके भेदसे क्रोधके चार प्रकार यहाँ विवक्षित हैं, क्योंकि उस प्रकारके भेदोंके कथनमें ही उपरिम गाथासूत्रोंका सम्बन्ध देखा जाता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभके भी अप्रकृत भेदचतुष्कके निवारणद्वारा प्रकृत भेदचतुष्कका कथन करना चाहिए।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७
९५. एत्थ कोहो दुविहो— सामण्णकोहो विसेस कोहो चेदि । तत्थाणंताणुबंधिआदिविसेसविवखाए विणा जं सव्वविसेससाहारणं कोहसामण्णं तं सामण्णकोहो णाम, तव्विवरीदसरूवो विसेसकोहो ति भण्णदे, अनंताणुबंधिआदिविसेसविवक्खाणिबंधत्तादो। एत्थ वुण सामण्ण कोहावेक्खाए चउव्विहत्तमेदं परूविदं, अनंताणुबंधिआदिविसेसपणाए पादेक्कं तेसिं चउव्विहत्ताणुवलंभादो । किं कारणं १ अनंताणुबंधिपच्चक्खाणापच्चक्खाणकोहाण मेगट्ठाणपरिहारेण वि-ति-चउट्ठाणाणं चैव संभवदंसणादो । ततः संगृहीताशेषविशेषलक्षणं क्रोधसामान्यमाश्रित्य चातुर्विध्यमेतद्व्यवस्थितमिति सूक्तं । एवं मानादीनामपि वाच्यम् ।
१५२
(१८) जग पुढवि वालुगोदयराईसरिसो चउव्विहो कोहो ।
सेलघण- अट्ठि- दारुअ-लदासमाणां हवदि माणो ॥२- ७१ ॥
-
§ ६. एसा विदियगाहा । एदीए कोह - माणकसायाणं णिदरिसणोवणयणमुहेणं पादेक्कं चउन्हं मेदाणं णामणिदेसो कओ । तं जहा – ' णग - पुढवि ० ' एवं भणिदे राइसदस्स सरिससद्दस्स च पादेकमहिसंबंध काढूण णगराइसरिसो पुढविराइसरिसो वालुअराइसरिसो उदयराइसरिसो चेदि कोहो चउन्विहो होदि ति सुत्तत्थसमत्थणा
$५. यहाँपर क्रोध दो प्रकारका है - सामान्य क्रोध और विशेष क्रोध । उनमें से अनन्तानुबन्धी आदि विशेषकी विवक्षा विना जो सब विशेषोंमें साधारण क्रोध सामान्य है वह क्रोध सामान्य कहलाता है और उससे विपरीत स्वरूपवाला विशेष क्रोध कहा जाता है, क्योंकि यह संज्ञा अनन्तानुबन्धी आदि विशेषकी विवक्षानिमित्तक है, परन्तु यहाँपर सामान्य क्रोध की अपेक्षासे यह चार प्रकारका कहा है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी आदि विशेषकी मुख्यतासे प्रत्येक उनकी चार प्रकार से उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान क्रोधोंके एक स्थानका परिहारकर द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थानरूप अनुभागकी ही उत्पत्ति देखी जाती है । इसलिये जिसने अपने समस्त विशेषोंका संग्रह किया है ऐसे लक्षणवाले क्रोधसामान्यका आश्रयकर क्रोधकी चतुर्विधता व्यवस्थित है यह ठीक ही कहा है । इसी प्रकार मानादिकके विषयमें भी कथन करना चाहिए ।
* क्रोध चार प्रकारका है— नगराजिसदृश, पृथिवीराजिसदृश, वालुकाराजि - सदृश और उदकराजिसदृश । मान भी चार प्रकारका है— शैलघनसमान, अस्थिसमान, दारुसमान और लतासमान ॥२-७१ ॥
$६. यह दूसरी गाथा है । इसमें क्रोधकषाय और मानकषायके उदाहरणद्वारा प्रत्येकके चार भेदोंका नामनिर्देश किया गया है । यथा - 'णग- पुढवि०' ऐसा कहनेपर 'राजि' शब्दका और 'सदृश' शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करके नगराजिसदृश, पृथिवीराजिसदृश, वालुका जिसदृश और उदकराजिसदृश क्रोध चार प्रकारका है इस प्रकार सूत्रके अर्थका समर्थन
१. ता०प्रतौ सेसो कोहो [ दि] त्ति इति पाठः । २, ता०प्रतौ निदरिसणोवमुहेण इति पाठः ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५३
गाथा ७१]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा कायव्वा । तत्थ णगराइसरिसो त्ति वुत्ते पव्वदसिलाभेदसरिसो कोहपरिणामो घेत्तव्यो । एदं सव्वकालमविणाससाधम्मं पेक्खियूण णिदरिसणं भणिदं । जहा पव्वदसिलामेदो केण वि कारणंतरेण समुन्भूदसरूवो पुणो ण कदाई पयोगंतरेण संधाणमागच्छह, तदवत्थो चेव चिट्ठदि । एवं जो कोहपरिणामो कस्स वि जीवस्स कम्हि वि पुरिसविसेसे समुप्पण्णो ण केण वि पयोगंतरेणुवसमं गच्छइ, णिप्पडिकारो होदूण तम्मि भवे तहा चेवावचिट्ठदे, जम्मंतरं पि तज्जणिदसंसकारो अणुबंधदि, सो तारिसो तिव्वयरो कोहपरिणामो णगराइसरिसो त्ति भण्णदे।।
७. एवं पुढविराइसरिसो वि वत्तव्यो । णवरि पुन्विल्लादो एसो मंदाणुभागो, चिरकालमवट्टिदस्स वि एदस्स पुणो पयोगंतरेण संधाणुवलंभादो'। तं जहागिम्हकाले पुढविभेदो पुढवीए रसक्खयेण फुटुंतीए पयट्टो। पुणो पाउसकाले जलप्पवाहेणावूरिज्जमाणो तक्खणमेव संधाणमागच्छइ । एवं जो कोहपरिणामो चिरकालमवट्टिदो वि संतो पुणो वि कारणंतरेण गुरुवदेसादिणा उवसमभावं पडिवजदि सो तारिसो तिव्वपरिणामभेदो पुढविराइसरिसो ति विण्णायदे । एत्थ उभयत्थ वि राइसद्दो अवयवविसरणप्पयभेदपज्जायवाचओ घेत्तव्यो ।
८. तहा वालुगराइसरिसो ति वुत्ते णदीपुलिणादिसु वालुगरासिमझकरना चाहिये । उनमेंसे नागराजिसदृश ऐसा कहनेपर पर्वतशिलाभेदसदृश क्रोध परिणाम लेना चाहिए । सर्व कालोंमें अविनाशरूप साधर्म्यको देखकर यह उदाहरण कहा है। जैसे पर्वतशिलाभेद किसी भी दूसरे कारणसे उत्पन्न होकर पुनः कभी भी दूसरे उपायद्वारा सन्धानको प्राप्त नहीं होता, तदवस्थ ही बना रहता है। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम किसी भी जीवके किसी भी पुरुषविशेषमें उत्पन्न होकर किसी भी दूसरे उपायसे उपशमको नहीं प्राप्त होता है, प्रतीकार रहित होकर उस भवमें उसी प्रकार बना रहता है, जन्मान्तरमें भी उससे उत्पन्न हुआ संस्कार बना रहता है, वह उस प्रकारका तीव्रतर क्रोधपरिणाम नगराजिसदृश कहा जाता है।
६७. इसीप्रकार पृथिवीराजिसदृश क्रोधका भी व्याख्यान करना चाहिए। इतनी
ता है कि पूर्वके क्रोधसे यह मन्द अनुभागवाला है, क्योंकि चिरकाल तक अवस्थित होने पर भी इसका पुनः दूसरे उपायसे सन्धान हो जाता है। यथा-ग्रीष्मकालमें पृथिवीका भेद हुआ अर्थात् पृथिवीके रसका क्षय होनेसे वह भेदरूपसे परिणत हो गई। पुनः वर्षाकालमें जलके प्रवाहसे वह दरार भरकर उसी समय संधानको प्राप्त हो गई। इसीप्रकार जो क्रोधपरिणाम चिरकाल तक अवस्थित रहकर भी पुनः दूसरे कारणसे तथा गुरुके उपदेश आदिसे उपशमभावको प्राप्त होता है वह उस प्रकारका तीव्र परिणामभेद पृथिवीराजिसदृश जाना जाता है । यहाँ दोनों स्थलोंपर भी 'राजि' शब्द अवयवके विच्छिन्न होनेरूप भेद पर्यायका वाचक लेना चाहिए।
$८. उसीप्रकार 'वालुकाराजिसदृश' ऐसा कहनेपर नदीके पुलिन आदिमें वालुका
१ ता०प्रती सं [ बं ] धाणुवलंभादो इति पाठः । . २०
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चउट्ठाणं ८ समुट्टिदरेहासमाणो कोहो त्ति घेत्तव्वो। एदमप्पयरकालावट्ठाणं पेक्खियूण भणिदं । तं जहा—णदीपुलिणादिसु वालुअरासिमझे पुरिसप्पयोगेणण्णदरेण वा केणचि कारणजादेण समुट्ठिदा रेहा जहा पवणाभिघादादिणा कारणंतरेण लहुमेव पूणो' समभावं गच्छदि एवं कोहपरिणामो वि मंदुत्थाणो गुरुवएसपवणपेल्लिदो संतो सव्वलहुमेवोवसमं गच्छमाणो वालुगराइसरिसो त्ति भण्णदे।
६९. एवमुदयराइसरिसो वि कोहो अणुगंतव्यो । णवरि एदम्हादो वि मंदयराणुभागो थोवयरकालावट्ठाणो च सो गहेयव्यो, पाणीयमज्झसमुद्विदाए रेहाए पयोगंतरेण विणा तक्खणमेव विणासदसणादो । एत्थ उहयत्थ वि राइसद्दो रेहापजायवाचओ घेत्तव्यो । एवं कोहस्स चउण्हं हाणाणमवट्ठाणकालस्स थोवबहुत्तमस्सियूण णिदरिसणोवणयणं कदं । एवं माणस्स वि चउण्हं ठाणाणं गाहापच्छद्धाणुसारेणाणुगमो कायव्वो । णवरि 'सेलघण' एवं भणिदे सिलाथंभसमाणो माणो त्ति घेत्तव्यो, समाणसहस्स पादेकमभिसंबंधावलंबणादो। अतिस्तब्धभावापेक्षया चैतत् प्रतिपादितम् । एवमस्थि-दारु-लतासमानानामप्यर्थो वाच्यः । सर्वत्र च स्तब्धतालक्षणस्य भावस्य प्रकर्षाप्रकर्षभावापेक्षया निदर्शनोपनयः कृत इति प्रतिपत्तव्यम् ।।
राशिके मध्य उत्पन्न हुई रेखाके समान क्रोध ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यह अल्पतर काल तक रहता है इसे देखकर कहा है। यथा-नदीके पुलिन आदिमें वालुकाराशिके मध्य पुरुषके प्रयोगसे या अन्य किसी कारणसे उत्पन्न हुई रेखा जैसे हवाके अभिघात आदि दूसरे कारणद्वारा शीघ्र ही पुनः समान हो जाती है अर्थात् रेखा मिट जाती है। इसीप्रकार क्रोधपरिणाम भी मन्दरूपसे उत्पन्न होकर गुरुके उपदेशरूपी पवनसे प्रेरित होता हुआ अतिशीघ्र उपशमको प्राप्त हो जाता है । वह क्रोध वालुकाराजिके समान कहा जाता है।
६९. इसी प्रकार उदकराजिके सदृश भी क्रोध जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इससे भी मन्दतर अनुभागवाला और स्तोकतर काल तक रहनेवाला वह जानना चाहिए, क्योंकि पानीके भीतर उत्पन्न हुई रेखाका विना दूसरे उपायके उसी समय ही विनाश देखा जाता है । यहाँ उभयत्र 'राजि' शब्द रेखाका पर्यायवाची लेना चाहिए। इस प्रकार क्रोधके चारों स्थानोंके अवस्थानकालके अल्पबहुत्वका आश्रयकर उदाहरणका उपनयन किया। इसी प्रकार मानके भी चारों स्थानोंका गाथाके उत्तरार्धके अनुसार अनुगम करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि 'सेलघण' ऐसा कहनेपर शिला स्तम्भके समान मान लेना चाहिए, क्योंकि समान शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करनेका अवलम्बन लिया है। अतिस्तब्धभावकी अपेक्षा यह उदाहरण कहा गया है। इसी प्रकार अस्थि, दारु और लताके समान मानकषायका भी अर्थ कहना चाहिए । सर्वत्र स्तब्धतालक्षणभावके प्रकर्ष-अप्रकर्षपनेकी अपेक्षा उदाहरणोंका उपनय किया है ऐसा जानना चाहिए ।
१. ता०प्रतो पुणो व इति पाठः ।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ७३ ]
तदिय- चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
(१६) वंसीजण्डुगसरिसी मेंढविसाणसरिसी य गोमुत्ती । अवलेहणी समाणा माया वि चउव्विहा भणिदा ॥ ३-७२ ॥
१५५
१०. एसा तदियगाहा मायासंबंधीणं चउण्डं ठाणाणं णिदरिसणोवणय दुवारेण पदुपायणडुमागया । तं जहा - 'वंसीजण्डुगसरिसि' त्ति वृत्ते वेलुवमूल- जरढवं कंकुरगंठिसरिसी पढमा माया त्ति घेत्तव्वं । एदं च वंकभावस्स णिपडियारत्तमस्सियूण परूविदं । यथैव हि वेणुमूलग्रन्थिर्मृत्वा शीर्त्वापि नर्जुकर्तुं पार्यते एवं मायापरिणामोऽप्यतितीव्रवक्रभावपरिणतो निरुपक्रम इति । तहा 'मेंढविसाणसरिसि' त्ति विदिया मायावत्था । एसा पुचिल्लादो मंदाणुभागा, मेषविषाणस्यातिवलितवक्रतराकारेण परिणतस्याप्यग्नितापादिभिरुपायान्तरैः प्रगुणीकर्तुं शक्यत्वात् । तथा गोमूत्रसदृशी अवलेहनीसमाना च माया यथाक्रमं वक्रभावस्य हानितारतम्ययोगाद्वक्तव्येति । तत्रावलेहनी नाम दन्तधावनकाष्ठयष्टिर्जिह्वा मलशोधनी वा गृहीतव्या ।
(२०) किमिरागरत्तसमगो अक्खमलसमो य पंसुलेवसमो । हालिद्दवत्थसमगो लोभो वि चउव्विहो भणिदो ॥४-७३॥ $ ११. एसा चउत्थगाहा लोभस्स चउण्डं ठाणाणं' निदरिसणपरूवणट्टमागया । * माया भी चार प्रकारकी कही गई है— वाँसकी जड़के सदृश, मेढ़ेके सींगके सदृश, गोमूत्र के सदृश और अवलेखनीके सदृश || ३-७२॥
I
$ १०. यह तीसरी गाथा मायासम्बन्धी चार स्थानोंके उदाहरण के निर्देश द्वारा कथन करनेके लिये आई है । यथा - 'वंसीजण्हुगसरिसी' ऐसा कहनेपर बाँसकी जड़की पुरानी कठोर टेढ़ी-मेढ़ी अंकुरयुक्त गाँठके सदृश पहली माया होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसके टेढ़ापनके निष्प्रतीकारपनेका आश्रयकर उक्त उदाहरण दिया है । जैसे बाँसके जड़की गाँठ नष्ट होकर तथा शीर्ण होकर भी सरल नहीं की जा सकती है इसी प्रकार अति तीव्र वक्रभावसे परिणत मायापरिणाम भी निरुपक्रम होता है । उसी प्रकार 'मेंढविसाणसरिसी' अर्थात् मेढ़ेके सींगके सदृश मायाकी दूसरी अवस्था है । यह पूर्वकी मायासे मन्द अनुभागवाली होती है, क्योंकि अतिवलित वक्रतररूपसे परिणत हुए भी मेढ़ेके सींगको अग्निके ताप आदि दूसरे उपायोंद्वारा सरल करना शक्य है । तथा गोमूत्रसदृश और अवलेखनीसदृश मायाका क्रमसे वक्रभाव के हानिके तारतम्य के सम्बन्धसे कथन करना चाहिए । यहाँपर अवलेखनी पदसे दाँतोंको साफ करनेवाला लकड़ीका टुक्रड़ा विशेष अर्थात् दातुन या जीभके मलका शोधन करनेवाली जीभी लेना चाहिए ।
* लोभ भी चार प्रकारका कहा गया है— कृमिरागके सदृश, अक्षमलके सदृश, पांशुलेपके सदृश और हारिद्रवस्त्र के सदृश ||४-७३।।
$ ११. यह चौथी गाथा लोभके चार स्थानोंके उदाहरणोंके कथन करनेके लिये आई १. ता० प्रती चउट्ठाणाणं इति पाठः ।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चट्ठा
"
तं जहा - कृमिरागो नाम कीटविशेषः । स किल यद्वर्णमाहारविशेषमभ्यवहार्यते तद्वर्णमेव सूत्रमतिश्लक्ष्णमात्मनो मलोत्सर्गद्वारेणोत्सृजति तत्स्वाभाव्यात् । तेन च सूत्रेण वस्त्रान्तराण्यनेकवर्णानि महार्घाणि च तंतुवायै रूयन्ते । तेषां स वर्णरागो यद्यपि जलकलशसहस्रेणाव्यवच्छिन्नधारेण प्रक्षाल्यते, क्षारोद कैर्बहुविधैः क्षार्यते तथापि न शक्यते विश्लेषयितुं मनागपि, अतिनिकाचितस्वरूपत्वात् । किं बहुना, अग्निना दह्यमानस्यापि तदनुरक्तस्य वस्त्रस्य भस्मसाद्भावमापन्नस्य स वर्णरागोऽप्र हेयत्वात्तथैवावतिष्ठते । एवं लोभपरिणामोऽपि यस्तीव्रतरो जीवस्य हृदयवर्ती न शक्यते परासइतुं स उच्यते कृमिरागरक्तसमक इति ।
तव्यः......
$ १२. तथान्यो लोभपर्यायोऽस्मान्निकृष्टवीर्यस्तीत्रावस्था परिणतोऽक्षमलसमयि• 'रथचक्रस्य शकटतुम्बस्य वा धारणं' काष्ठमक्षमित्युच्यते । तस्य मलमक्षमलं । अक्षांजन स्नेहाद्रितमषीमलं इति यावत् । तद्यथैवातिचिक्कणत्वान्न शक्यते सुखेन विश्लेषयितुं तथैवायमपि लोभपरिणामो निधत्तरूपेण जीवहृदयमवगाढो न विश्लेषयितुं शक्य इति । $ १३. तृतीयो लोभप्रकारः पांशुलेपसम इत्यभिधीयते । यथैव पांशुलेपः पादलग्नः सुखेनापसार्यते सलिलप्रक्षालनादिभिर्न चिरमवतिष्ठते तद्वदयमपि लोभभेदो
1
है । यथा— कृमिरोग कीट विशेषको कहते हैं। वह नियमसे जिस वर्णके आहारको ग्रहण करता है वह उसी वर्णके अति चिक्कण डोरेको अपने मलके त्यागने के द्वारसे निकालता है, क्योंकि उसका वैसा ही स्वभाव है । और उस सूत्रद्वारा जुलाहे अति कीमती अनेक वर्णवाले नाना वस्त्र बनाते हैं । उनके उस वर्णके रंगको यद्यपि हजार कलशोंकी सतत धारा द्वारा प्रक्षालित किया जाता है, नाना प्रकार के क्षारयुक्त जलों द्वारा धोया जाता है तो भी उसे थोड़ा भी दूर करना शक्य नहीं है, क्योंकि वह अति निकाचितस्वरूप होता है । बहुत कहने से क्या, अग्निसे जलाये जानेपर भी भस्मपनेको प्राप्त हुए उस कृमिरागसे अनुरक्त हुए वस्त्रके उस वर्णका रंग कभी भी छूटने योग्य न होनेसे वैसा ही बना रहता है । इसी प्रकार जीवके हृदयमें स्थित अतितीव्र जो लोभपरिणाम भी कृश नहीं किया जा सकता वह कृमिरागके रंगके सदृश कहा जाता है ।
$ १२. तथा अन्य लोभ निकृष्ट वीर्यवाला और तीव्र अवस्थापरिणत होता है, वह अक्षमलके सदृश कहा जाता है । रथके चकेको या गाड़ीके तुम्बको धारण करनेवाली लकड़ी अक्ष कहलाती है और उसका मल अक्षमल है। अक्षांजनके स्नेह से गीला हुआ मषीमल यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसे जैसे अति चिक्कण होनेसे सुखपूर्वक दूर करना शक्य नहीं है उसी प्रकार यह भी लोभपरिणाम निधत्तस्वरूप होनसे जीवके हृदयमें अवगाढ़ होता है, इसलिए उसे दूर करना शक्य नहीं है ।
$ १३. तीसरा लोभका प्रकार धूलके लेपके सदृश कहा जाता है । जिस प्रकार पैर में लगा हुआ धूलिका लेप पानीके द्वारा धोने आदि उपायद्वारा सुखपूर्वक दूर कर दिया जाता
१. ताप्रती - तुम्बस्यावधारणं इति पाठः ।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ७४ ]
पंचमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१५७
मन्दायमानस्वभावो न चिरतरकालमवतिष्ठते । पूर्वस्मादनन्तगुणहीनसामर्थ्यः सन् कियन्मात्रादपि कालादल्पेनापि यत्नेनापैतीति ।
$ १४. मन्दतरस्तु लोभस्य तुरीयोsवस्थाविशेषो हारिद्रवस्त्रसमक इति व्यपदिश्यते । हरिद्रया रक्तं वस्त्रं हारिद्रं तेन समो हारिद्रवस्त्रसमकः । यथैव हरिद्राद्रवरंजितस्य वस्त्रस्य स वर्णरागो न चिरं तत्रावतिष्ठते, वातातपादिभिरभिहन्यमानमात्र एवोड्डीयते । एवमयं लोभप्रकारो मन्दतमानुभागपरिणतत्वान्न चिरमात्मन्यवतिष्ठते, क्षणमात्रादेव विश्लेषमियर्तीति । तदेवं प्रकर्षाप्रकर्षवत्तीव्र-मन्दावस्थाभेदभिन्नत्वाल्लोभोऽपि चतुर्विधो भणित इति गाथार्थः ।
(२१) एदेसिं ट्ठाणाणं चदुसु कसाएसु सोलसह पि ।
कं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदे सग्गे ॥५-७४ ॥
$ १५. समनंतरनिर्दिष्टानामेषां स्थानानां षोडशभेदभिन्नानां स्थित्यनुभवप्रदेशैरल्पबहुत्वनिर्धारणार्थमिदं सूत्रमारभ्यते । तद्यथा - 'एदेसिं ट्ठाणाणं' एतेषामनन्तरनिर्दिष्टानां स्थानानामित्यर्थः । ' चदुसु कसाएसु' चतुर्षु कषायेषु प्रत्येकं चतुर्भेदभिन्नत्वात् षोडशसंख्यावच्छिन्नानामित्यर्थः । 'कं केण होइ अहियं' कं ट्ठाणं केण ट्ठाणेण सह सणियासिजमाणं द्विदि-अणुभाग- पदेसेहिं हीणमहियं वा होदित्ति पुच्छाहै, वह चिरकाल तक नहीं ठहरता है, उसीके समान उत्तरोत्तर मन्दस्वभाववाला यह लोभका भेद भी चिरकाल तक नहीं ठहरता है । पिछले लोभसे अनन्तगुणी हीन सामर्थ्यवाला होता हुआ कुछ ही कालमें थोड़ेसे भी यत्नसे दूर हो जाता है ।
$ १४. तथा लोभकी मन्दतर चौथी अवस्थाविशेष है । वह हरिद्रावस्त्र के समान कहा गया है । हलिदीसे रंगा गया वस्त्र हारिद्र कहलाता है । उसके समान हारिद्रवस्त्रसदृश कहलाता है । जैसे हलिदीके द्रवसे रंगे गये वस्त्रका वह वर्णरंग चिरकाल तक नहीं ठहरता, वायु और आप आदिके निमित्तसे ही उड़ जाता है । इसी प्रकार यह लोभका भेद मन्दतम अनुभागसे परिणत होनेके कारण चिरकाल तक आत्मामें नहीं ठहरता, क्षणमात्रमें ही दूर हो जाता है । इस प्रकार प्रकर्ष और अप्रकर्षवाले तीव्र और मन्द अवस्थाके भेदसे विभक्त होनेके कारण लोभ भी चार प्रकारका कहा गया है यह इस गाथाका अर्थ है ।
* चारों कषायोंके इन सोलह स्थानों में स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा कौन स्थान किस स्थानसे अधिक होता है और कौन स्थान हीन होता है ।।५-७४॥
$ १५. समनन्तर कहे गये सोलह स्थानो में विभक्त इन स्थानोंके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए इस सूत्रका आरम्भ करते हैं यथा - 'एदेसिं ट्ठाणाणं' इन समनन्तर पूर्व कहे हुए स्थानोंके यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'चदुसु कसासु' चार कषायोंमेंसे प्रत्येकके चार भेदों में विभक्त होनेके कारण सोलह संख्यारूप यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'कं केण होइ अहियं' कौन स्थान किस स्थानके साथ सन्निकर्षको प्राप्त होता हुआ 'स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा हीन होता है या अधिक होता
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चट्ठा
सो को हो । तत्थ ट्ठिदिं पडुच्च सव्वेसि द्वाणाणं हीणाहियभावगवेसणा णत्थि । किं कारणं १ सव्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु अप्पप्पणो चउण्हं ट्ठाणाणमविसेसेण समुवलंभादो' । तं जहा - चालीससागरोवमकोडाको डिमेत्तकसायुकस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स चरिमट्ठिदिएग-वि-ति-चउट्ठाण विसेसिददेससव्वधादिपरमाणू सव्वे चैव लब्भंति, आबाहाबाहिराणंतरजहणट्टिदीए वि तेसिमविसेसेण संभवो । एदेण कारणेण सुत्ते ट्ठिदिमस्सियूण पयदत्थपरिमग्गणा ण कया । एगट्ठाणाणुभागो उकस्सट्ठिदीए वि लब्भइ, चउट्ठाणाणुभागो जहणविदीए विलब्भइ त्ति एसो तहा ण षरूवेंतस्स सुत्तयारस्सा हिप्पायो ति भणिदं होइ । संपहि अणुभाग - पदेसे समस्सियूण सत्थाण- परत्थाणकमेण पयदट्ठाणाणमप्पा बहुअपरूवणङ्कं गाहासुत्तपबंधमणुसरामो
(२२) माणे लदासमाणे उक्कस्सा वग्गणा जहण्णादो ।
हीणा च पदेसग्गे गुणेण णियमा अनंतेण ॥६-७५ ॥
$ १६. एसा सुत्तगाहा माणस्स लदासमाणद्वाणं घेत्तूण पदेसग्गेग सत्थाणप्पाबहुअपरिक्खण मोइण्णा । तं कथं १ 'माणे' माणकसाए । किंविधे १ 'लदासमाणे '
है' इस प्रकार यहाँ पृच्छाका निर्देश किया गया है। उनमें से स्थितिकी अपेक्षा सभी स्थानोंके - अधिकनेका अनुसन्धान नहीं है, क्योंकि सभी स्थितिविशेषोंमें अपने-अपने चारों स्थान विना विशेषता के पाये जाते हैं । यथा - कषायोंकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिको बाँधनेवाले जीवके अन्तिम स्थिति में एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय विशेषताको लिये हुए देशघाति और सर्वघाति सब प्रकार के परमाणु पाये जाते हैं तथा आबाधा बादकी समनन्तर जघन्य स्थितिमें भी वे अविशेषरूपसे सम्भव हैं । इस कारण से सूत्र में स्थितिकी अपेक्षा प्रकृत अर्थकी गवेषणा नहीं की गई है। एकस्थानीय अनुभाग उत्कृष्ट स्थिति में भी प्राप्त होता है और चतुःस्थानीय अनुभाग जघन्य स्थितिमें भी प्राप्त होता है यह उस प्रकार कथन नहीं करनेवाले सूत्रकारका अभिप्राय है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब अनुभाग और प्रदेशोंका आलम्बनकर स्वस्थान और परस्थानके क्रमसे प्रकृत स्थानोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये गाथासूत्रके प्रबन्धका अनुसरण करते हैं
लताके समान मानमें उत्कृष्ट वर्गणा अर्थात् अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा जघन्य वर्गणासे अर्थात् प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणासे प्रदेशोंकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणी हीन है । किन्तु अनुभागकी अपेक्षा जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा नियमसे अनन्तगुणी अधिक है || ६ - ७५ ॥
$ १६. यह सूत्रगाथा मानके लतासमान स्थानको ग्रहणकर स्वस्थान अल्पबहुत्वकी परीक्षा करनेके लिए आई है ।
शंका- वह कैसे ?
१. ता० प्रती संभवुवलंभादो इति पाठः । २. ता० प्रती परिरक्खणट्टमोइण्णा इति पाठः ।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ७५ ]
छट्ठगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१५९
लदास माणट्टाणावट्टिदे जाव 'उक्कस्सा वग्गणा' चरिमफद्दयचरिमवग्गणा त्ति वृत्तं होइ । 'जहण्णादो हीणा च पदेसग्गे' अणुभागं पेक्खियूण जा जहण्णवग्गणा पढमफद्दयादिवग्गणा तत्तो णिरुद्धुकस्सवग्गणा पदेसग्गेण हीणा होदि ति वृत्तं होइ । केत्तियमेत्तेण हीणा त्ति वृत्ते 'गुणेण णियमा अणतेण' णिच्छएणानंतगुणहीणा होदि ति गहेयव्वा । किं कारणं १ लदासमाणजहण्णवग्गणादो अभवसिद्धिएहिंतो अनंतगुणं सिद्धाणंतभागमेयाणि उवरि गंतूण एगं पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमुप्पञ्जइ । पुणो अणेण विहिणा अभवसिद्धिएहिंतो अनंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तगुणहीणाओ गंतूण तस्सेवप्पणो उक्कसवग्गणा होदि । एवं होदि ति कादूणुकस्सवग्गणा जहण्णवग्गणादो पदेसग्गं पेक्खियूणानंतगुणहीणा होदि त्ति णत्थि संदेहो । अणुभागेण पुण पयदजहण्णवग्गणादो उकस्वग्गणा णिच्छपणानंतगुणा त्ति घेत्तव्या । कथमेदं सुत्तेणाणुवहट्ठमुवलब्भदे ? ण, 'हीणा च पदेसग्गे' ति एत्थतण 'च' सद्देण पदेसग्गं पेक्खियूण जहा - उत्तेण गुणगारेण हीणा होदि अहिया च अणुभागेणे त्ति सुत्तत्थ संबंधावलंबनादो । एवं सेसपण्णारसहं पि द्वाणाणमप्पप्पणो जहण्णुक्कस्सवग्गणाओ घेत्तूण सत्थाणेण सणियासो काव्वो ।
समाधान – 'माणे' अर्थात् मानकषाय में । किस प्रकार के मानकषाय में ? लता के समान स्थान से युक्त मानकषाय में । 'उक्कस्सा वग्गणा' उत्कृष्ट वर्गणा अर्थात् अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'जहण्णादो होणा च पदेसग्गे' - अनुभागकी अपेक्षा जो जघन्य वर्गणा है अर्थात् प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा है उससे विवक्षित उत्कृष्ट वर्गणा प्रदेशोंकी अपेक्षा हीन होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कितने प्रमाण में हीन होती है ऐसी आशंका होनेपर 'गुणेण णियमा अनंतेण' अर्थात् नियमसे अनन्तगुणी हीन होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि लता के समान जघन्य वर्गणासे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र स्पर्धक ऊपर जाकर एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर उत्पन्न होता है । पुनः इस विधि से अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागमात्र गुणहीन स्थान जाकर उसीकी अपनी उत्कृष्ट वर्गणा उत्पन्न होती है । इस प्रकार होती है ऐसा समझकर उत्कृष्ट वर्गणा जघन्य वर्गणासे प्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन होती है इसमें सन्देह नहीं है। अनुभागकी अपेक्षा तो प्रकृत जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा निश्चयसे अनन्तगुणी है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
शंका — सूत्रद्वारा नहीं उपदिष्ट की गई यह बात कैसे उपलब्ध होती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि 'हीणा च पदेसग्गे इस प्रकार यहाँ आये हुए 'च' शब्दसे प्रदेशोंकी अपेक्षा पूर्वोक्त गुणकारके क्रमसे हीन होती है, परन्तु अनुभागकी अपेक्षा उसी गुणकारके कमसे अधिक होती है इस प्रकार यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्धका अवम्बन लिया गया है । इसी प्रकार शेष पन्द्रह स्थानोंकी अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट वर्गणाओंको ग्रहणकर स्वस्थानकी अपेक्षा सन्निकर्ष करना चाहिए ।
विशेषार्थ- - मानकषाय में चार प्रकारका अनुभाग पाया जाता है । उसमेंसे लताके
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चउट्ठाणं ८ १७. संपहि माणस्स चउण्हं द्वाणाणं परत्थाणप्पाबहुअपरूवणद्वमुवरिमगाहासुत्तमोइण्णं(२३) णियमा लदासमादो दारुसमाणो अणंतगुणहीणो।
सेसा कमेण हीणा गुणेण णियमा अणंतेण ॥७-७६॥
१८. पुव्वसुत्तादो माणग्गहणमिहाणुवट्टदे, पदेसग्गेणे त्ति च, तेणेवमहिसंबंधो कायव्यो । णियमा णिच्छएण लदासमाणादो माणादो दारुअसमाणो माणो पदेसग्गेणाणंतमुणहीणो होदि त्ति । एसो वुण एत्थ भावत्थो-लदासमाणसव्वपदेसपिंडादो दारुअसमाणसव्वपदेसपिंडो अणंतगुणहीणो त्ति । किं कारणं ? लदासमाणजहण्णवग्गणादो दारुअसमाणजहण्णवग्गणा पदेसग्गावेक्खाए अणंतगुणहीणा। पुणो लदासमाणविदियवग्गणादो दारुअसमाणविदियवग्गणा अणंतगुणहीणा। एवमणेण विधिणा गंतूण लदासमाणुक्कस्सबग्गणादो दारुअसमाणुक्कस्सवग्गणा अणंतगुणहीणा भयदि । एवं होदि त्ति कादूण लदासमाणसव्वपदेसपिंडादो दारुअसमाणसव्वपदेसपिंडो अणंतगुणहीणो त्ति सिद्धं । ण च तत्थतणफयाणं बहुत्तमवलंबिय पयदविवज्जासणं समान अनुभागमें प्रदेशों और अनुभागकी अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्वकी क्या व्यवस्था है इसका यहाँ सूत्र गाथा द्वारा स्पष्ट विवेचन किया गया है । इसी प्रकार मानकषायके शेष तीन प्रकारके अनुभागमें तथा क्रोधकषाय, मायाकषाय और लोभकषायके प्रत्येक चार-चार प्रकारके अनुभागमें इस प्रकार सब मिलाकर पन्द्रह प्रकारके अनुभागमें प्रदेशों और अनुभागकी अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए।
$ १७. अब मानकषायके चारों स्थानोंके परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है
___ लता समान मानसे दारु समान मान प्रदेशोंकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणा हीन है। शेष मान अर्थात् अस्थिसमान और शैलसमान मान भी क्रमसे अर्थात् पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा आगे-आगेका मान प्रदेशोंकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणा हीन है ॥७-७६॥
१८. पिछले गाथासूत्रसे प्रकृतमें 'मान' पदकी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए और 'पदेसग्गेण' पदकी भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए, उसके अनुसार इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए-णियमा' अर्थात् निश्चयसे लतासमानमानसेदारुसमान मान प्रदेशोंकी अपेक्षाअनन्तगुणा हीन होता है । इसका प्रकृतमें यह भावार्थ है कि लताके समान समस्त प्रदेशपिण्डसे दारुके समान समस्त प्रदेशपिण्ड अनन्तगुणा हीन है, क्योंकि लताके समान जघन्य वर्गणासे दारुके समान जघन्य वर्गणा प्रदेशपिण्डकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन होती है। तथा लताके समान दूसरी वर्गणासे दारुके समान दूसरी वर्गणा अनन्तगुणी हीन होती है। इस प्रकार इस विधिसे जाकर लताके समान उत्कृष्ट वर्गणासे दारुके समान उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी हीन होती है। इस प्रकार होनेकी व्यवस्था है, इसलिये लताके समान समस्त प्रदेशपिण्डसे दारुके समान समस्त प्रदेशपिण्ड़ अनन्तगुणाहीन है यह सिद्ध हुआ। किन्तु वहाँके स्पर्धकोंके बहुतपने
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ७७] अट्ठमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१६१ जुत्तं, दोसु वि ढाणेसु अप्पप्पणो आदिवग्गणपमाणेण दिवड्डगुणहाणिमेत्तेसु संतेसु तत्थ फंद्दयगुणगारस्स पयदविवज्जासणं पडि सामर्थ्याभावादो।
१९. संपहि जहा लदासमाणादो दारुअसमाणो अणंतगुणहीणो जादो, एवं दारुअसमाणसव्वपदेसपिंडादो अत्थिसमाणसव्वपदेसपिंडो अणंतगुणहीणो। तत्तो वि सेलसमोणसव्वपदेसपुंजो अणंतगुणहीणो त्ति एदस्सत्थविसेसस्स पदुप्पायणहूँ गाहापच्छद्धणिद्देसो, 'सेसा कमेण हीणा गुणेण णियमा अणंतेणे' ति वुत्ते सेसाणमणुभागहाणाणं जहाकमं पदेसग्गेणाणंतगुणहीणत्तसिद्धीए जहावुत्तेण गाएण णिव्वाहमुवलंभादो। (२४) णियमा लदासमादो अणुभागग्गेण वग्गणग्गेण ।
सेसा कमेण अहिया गुणेण णियमा अणंतेण ॥७७॥
$ २०. एदेण सुत्तेण लदासमाणाणुभागट्ठाणादो सेसट्टाणाणमणुभागस्स जहाकमणंतगुणत्तं परविदं । तं जहा–'णियमा' णिच्छएण 'लदासमादो लदासमाणसण्णिदमाणाणुभागट्ठाणादो सेसा दारुअसमाणादयो कमेण जहाकममहिया होति त्ति सुत्तसंबंधो कायव्यो । केण ते तत्तो अहिया त्ति पुच्छिदे 'अणुभागग्गेण वग्गणग्गेणे'
www
का अवलम्बन लेकर प्रकृत विषयका विपर्यास करना युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों ही स्थानोंमें अपनी-अपनी आदि वर्गणाके प्रमाणसे डेढ़ गुणहानि मात्र होनेपर वहाँ स्पर्धकरूप गुणकारमें प्रकृत विषयके विपर्यास करनेकी सामर्थ्य नहीं है ।
१९. अब जैसे लताके समान प्रदेशपिण्डसे दारुके समान प्रदेशपिण्ड अनन्तगुणा हीन है इसी प्रकार दारुके समान समस्त प्रदेशपिण्डसे अस्थिके समान समस्त प्रदेश पिण्ड अनन्तगुणा हीन है तथा उससे भी शैलके समान समस्त प्रदेशपिण्ड अनन्तगुणा हीन है। इस प्रकार इस अर्थविशेषके कथन करनेके लिये गाथाके उत्तरार्धका निर्देश किया है, क्योंकि 'सेसा कमेण हीणा गुणे, णियमा अणंतेण' ऐसा कहने पर शेष अनुभागस्थानोंके क्रमसे प्रदेशसमूहकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीनपनेकी सिद्धि पूर्वोक्त न्यायके अनुसार निर्बाध बन जाती है।
लताके समान मानसे शेष स्थानीय मान अनुभागसमूहकी अपेक्षा और वर्गणासमूहकी अपेक्षा क्रमशः नियमसे अनन्तगुणित अधिक होते हैं ।।७७।।
२०. इस सूत्र द्वारा लताके समान अनुभागस्थानसे शेष स्थानोंका अनुभाग क्रमसे अनन्तगुणा कहा गया हैं। यथा-'णियमा' अर्थात् निश्चयसे 'लदासमादो' अर्थात् लताके समान संज्ञावाले मानके अनुभागस्थानसे 'सेसा' अर्थात् दारु आदि के समान अनुभागस्थान 'कमण' यथाक्रम अधिक होते हैं इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । किसकी अपेक्षा वे उससे अधिक होते हैं ऐसा पूछने पर 'अणुभागग्गेण' वग्गणग्गेण' यह
३. ता०प्रती अहिया
१. ता०प्रती सुत्ते इति पाठः। २. ता०प्रती णियमा इति पाठः । इति पाठः । ४. ता० प्रतौ समाणादो इति पाठः।
२१
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चउहाणं ८ त्ति वुत्तं । एत्थ अग्गसदो समुदायत्थवाचओ, अणुभागसमूहो अणुभागग्गं वग्गणासमूहो वग्गणग्गमिदि । अधवा अणुभागो चेव अणुभागग्गं, वग्गणाओ चेव वग्गणग्गमिदि घेत्तव्वं । तेण लदासमाणमाणस्स सव्वाविभागपलिच्छेदपिंडादो दारुअसमाणसव्वाविभागपलिच्छेदकलायो अहिओ होदि । लदासमाणसव्यवग्गणसमूहादो वि दारुअसमाणसव्ववग्गणसमूहो अहिओ होइ । एवमट्टि-सेलसमाणाणं पि वत्तव्यगिदि सुत्तत्थसब्भावो । संपहि केत्तिएण ते अहिया, किं गुणेण, आहो विसेसेणे त्ति आसंकाए इदमाह 'गुणेणे त्ति' । एदेण विसेसाहियत्तं पडिसिद्धं दट्ठव्वं । तत्थ किं संखेज्जगुणेण, किमसंखेज्जगुणेण, किं वा अणंतगुणेणे त्ति आसंकाए णिराकरणमिदं बुत्तं 'णियमा' णिच्छएणाणतगुणव्भहिया एदे जहाकम होति ति । एत्थ दोवारं णियमसदुच्चारणं किं फलमिदि चे बुच्चदे-लदासमाणट्ठाणादो सेसाणं जहाकममणुभागरग्गणग्गेहिं अहियत्तमेत्तावहारणफलो पढमो णियमसदो । विदियो वि तेसिमणंतगुणअहियत्तमेव, ण विसेसाहियत्तं, णावि संखेज्जासंखेज्जगुणब्भहियत्तमिदि अवहारणफला । एवं पुव्बिन्लदो-सुत्तेसु उपरिमाणंतरे सुत्ते च णियमसच्चारणाए सहलत्तं वक्खाणेयव्यं ।
२१. अयं पुनरत्र वाक्यार्थ:-लदासमाणजहण्णवग्गणाविभागपलिच्छेदेहितो दारुअसमाणजहण्णवग्गणाविभागपलिच्छेदा अणंतगुणा। लदासभाणविदियवग्गणाकहा है । यहाँपर 'अग्र' शब्द समुदायरूप अर्थका वाचक है। तदनुसार अनुभागसमूहका नाम अनुभागान और वर्गणासमूहको नाम वर्गणाग्र हुआ। अथवा अनुभागका ही नाम अनुभागाग्र है और वर्गणाओंका नाम ही वर्गणाम है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। तदनुसार लताके समान मानके समस्त अविभागप्रतिच्छेदपिण्डसे दारुके समान सब अविभागप्रतिच्छेदपिण्ड अधिक है । इसीप्रकार लताके समान सब वर्गणासमूह से भी दारुके समान सब वर्गणासमूह अधिक है। इसी प्रकार अस्थि और शैलसमान अनुभागस्थानों और वर्गणासमूहोंके विषयमें भी कथन करना चाहिये । इस प्रकार यह इस सूत्रका अर्थ है। अब वे अनुभागस्थान कितनी मात्रा अधिक है, क्या गुणकाररूपसे अधिक हैं या विशेषरूपसे अधिक हैं ऐसी आशंका होनेपर 'गणेण' यह वचन कहा है। इससे विशेष अधिक हैं इसका निषेध जानना चाहिए। वहाँ क्या वे संख्यातगुणे अधिक है, क्या असंख्यातगुणे अधिक हैं या क्या अनन्तगणे अधिक हैं ऐसी आशंका होनेपर निराकरण करनेके लिए 'णियमा निश्चयसे ये यथाक्रम अनन्तगुणे अधिक है यह कहा है।
शंका-यहाँपर सूत्र में दोबार 'नियम' शब्दके उच्चारणका क्या फल है ? समाधान-कहते --ताके समान स्थानसे होप दारु आदिके अनुभागसमूह और वर्गणासमूह इन दोनों की अपेक्षा यथाक्रम अधिक होते हैं इस बातका अवधारण करना प्रथम नियम शलाके हेनेका फल है। दूसरे भी 'लियम' शब्दका में स्थान अनन्तगुणे ही हैं, विशेष अधिक नहीं हैं और न संख्यातशुणे या असंख्यातगुणे अधिक हैं इस बातका निश्चय करना फल है । इस प्रकार पिछले दो सूत्रोंमें और आगेके समनन्तर सूत्र में 'नियम' शब्दके उच्चारणकी सफलताका व्याख्यान करना चाहिए।
$ २१. यहाँपर पूरे कथनका यह तात्पर्य है-लताके समान जघन्य वर्गणाले अविभागप्रतिच्छेदोंसे दारुके समान जघन्य वर्गाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। लताके समान
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ७८ ] णपमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१६३ विभागपलिच्छेदेहितो दारुअसमाणविदियवग्गणाविभागपलिच्छेदा अणंतगुणा । एवं णेदव्वं जाव लदासमाणुक्कस्सवग्गणाविभागपलिच्छेदेहितो दारुअसमाणुकस्सवग्गणाविभागपलिच्छेदा अणंतगुणा जादा त्ति । एवं होदित्ति कादूण लदासमाणसव्वाणुभागाविभागपलिच्छेदेहिंतो दारुअसमाणसव्वाणुभागाविभागपलिच्छेदा अणंतगुणा भवंति । एवं दारुअसमाणादो अद्विसमाणाणुभागो अणंतगुणो। तत्तो वि सेलसमाणाणुभागो अणंतगुणो।
5 २२. वग्गणाणं पुण भण्णमाणे लदासमाणाविभागपलिच्छेदुत्तरकमेण वड्डिदसव्यवग्गणदीहत्तादो दारुअसमागाविभागपलिच्छेदुत्तरकमेण वड्डिदसव्ववग्गणादीहत्तमणंतगुणं । तत्तो अद्विसमाणाणुभागसव्यवग्गण दीहत्तभणंतगुणं । तत्तों सेलसमाणसव्वाणुभागवग्गणदीहत्तमणंतगुणं होदि ति । एत्थ सव्वत्थाविभागपलिच्छेदगुणगारो सव्वजीवेहिंतो अणंतगुणो । वग्गणागुणगारो च अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो। संपहि लदासमाणचरिमसंधीदो दारुअसमाणपढमसंधी अणुभागग्गेण पदेसग्गेण च कधं होदि, एवं सेससंधीओ कथं होंति ति एवंविहासंकाणिरायरणद्वमुत्तरं गाहासुत्तमोइण्णं(२५) संधीदो संधी पुण अहिया णियमा च होइ अणुभागे।
हीणा च पदेसग्गे दो वि य णियमा विसेसेण ॥७॥ दूसरी वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे दारुके समान दूसरी वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । इस प्रकार लताके समान उत्कृष्ट वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे दारुके समान उत्कृष्ट वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं इस स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर अनुभागकी व्यवस्थाके अनुसार यह क्रम निश्चित होता है कि लताके समान समस्त अनुभाग-अविभागप्रतिच्छेदोंसे दारुके समान समस्त अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार दारुके समान अनुभागसे अस्थिके समान अनुभाग अनन्नगुणा है। उससे भी शैलके समान अनुभाग अनन्तगुणा है।
२२. परन्तु वर्गणाओंकी अपेक्षा कथन करनेपर लताके समान अविभागप्रतिच्छेदोंके उत्तरोत्तर क्रमसे बढ़ी हुई सब वर्गणाओंके आयामसे दारुके समान अविभागप्रतिच्छेदोंके उत्तरोत्तर क्रमसे बढ़ा हुआ सब वर्गणाओंका आयाम अनन्तगुणा है। उससे अस्थिके समान अनुभागसम्बन्धी सब वर्गणाओंका आयाम अनन्तगुणा है। तथा उससे शैलके समान अनुभागसम्बन्धी समस्त वर्गणाओंका आयाम अनन्तगुणा है। यहाँपर सर्वत्र अविभागप्रतिच्छेदोंका गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है और वर्गणाओंका गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। अब लताके समान अन्तिम सन्धिसे दारुके समान प्रथम सन्धि अनुभागसमूह और प्रदेशसमूहकी अपेक्षा कैसी होती है तथा इसी प्रकार शेष सन्धियाँ कैसी होती हैं इस प्रकार इस तरहकी आशंकाका निराकरण करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है
उत्तरोत्तर अन्तिम सन्धिसे आगेकी प्रथम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा तो नियमसे विशेष अधिक होती है और प्रदेशोंकी अपेक्षा नियमसे विशेष हीन होती है। इस
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चउट्ठाण ८
$ २३. लदासमाणचरिमवग्गणा दारुअसमाणपढमवग्गणा च दो वि संधि ति । एवं सेससंधीणं पि अत्थो वत्तव्वो । तम्हा विवक्खियचरिमसंधीदो विवक्खियपढमसंधी अणुभागावेक्खाए णियमा अहिया होइ, पदेसावेक्खाए च हीणा होइ । होंती विदो विय अणुभाग - पदेसे पेक्खियूण णियमा विसेसेण अनंतभागेग हीणा अहिया च होइ ति सुत्तत्थसंबंधो। एत्थ 'विसेसेणे' त्ति सामण्णणिद्देसेण संखेज्जासंखेज्जभागपरिहारेणानंतभागो चेव घेप्पइ ति कधमवगम्मदे ? ण, वक्खाणादो तहाविहविसेसपडिवत्तदो । एवं ताव माणसंधीणं चउण्हं द्वाणाणमणुभाग- पदे से अस्सियूण सत्थानपरत्थाणेहिं थोवबहुत्तमुहेण सण्णियासं काढूण संपहि तेसिं चेव चदुण्हं द्वाणानं द्वाणसण्णाए णिण्णीदसरूवाणं घादिसण्णामुहेण देस-सव्वघाइभावगवेसणट्ठमुवरिमं गाहासुत्तमोइणं
१६४
(२६) सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होइ दारुअसमाणे । हेट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं ॥७८॥ $ २४. संपहिएदं सुत्तमस्सियूण माणस्स लदासमाणादिट्ठाणाणं घादिसण्णाए प्रकार सर्वत्र दोनों सन्धियोंमें जानना चाहिए ||७८ ||
$ २३. लताके समान अन्तिम वर्णणा और दारुके समान प्रथम वर्गणा ये दोनों भी सन्धि कहलाती हैं । इसी प्रकार शेष सन्धियोंका भी अर्थ कहना चाहिये । इसलिये विवक्षित अन्तिम सन्धिसे विवक्षित प्रथम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अधिक होती है और प्रदेशोंकी अपेक्षा हीन होती है। ऐसी होती हुई भी दोनों ही सन्धियाँ अनुभाग और प्रदेशों की अपेक्षा क्रमशः नियमसे अनन्तवें भाग अधिक और अनन्तवें भाग होन होती हैं इस प्रकार यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है |
शंका -- प्रकृत में 'विसेसेण' ऐसा सामान्य निर्देश होनेसे संख्यातवें भाग और असंख्यातवें भाग के परिहार द्वारा अनन्तवाँ भाग ही ग्रहण किया जाता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
-
समाधान — नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकार के विशेषका ज्ञान होता है । इस प्रकार सर्व प्रथम मानकषायकी सन्धियोंके चारों स्थानोंका अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकार से अल्पबहुत्वद्वारा सन्निकर्ष करके अब स्थान संज्ञारूपसे निर्णीतस्वरूप उन्हीं चारों स्थानोंकी घातिसंज्ञाद्वारा देशघातिपने और सर्वघातिपनेका अनुसन्धान करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है
दारुके समान मानमें प्रारम्भके एक भाग अनुभागको छोड़कर शेष सब अनन्त बहुभाग तथा उत्कृष्ट अनुभाग सर्वावरणीय है। उससे पूर्वका लता समान अनुभाग और दारुका अनन्त भाग अनुभाग देशावरण है तथा दारुसमान अनुभागसे आगेका सब अनुभाग सर्वावरण है ॥७९॥
$ २४. अब इस सूत्र का आलम्बन लेकर मानकषायके लतासमान आदि स्थानोंकी
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८०] एक्कारसगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१६५ अणुगमं कस्सामो । तं जहा-सव्वावरणीयं पुण सव्वावरणीयमेव होइ। किं तमिदि वुत्ते 'उक्कस्सं दारुअसमाणे' जमुक्कस्समणुभागट्ठाणं तं णियमा सव्वघाइ त्ति बुत्तं होइ । ण केवलं दारुअसमाणे उकस्साणुभागो चेव सव्वघादी, किंतु दारुअसमाणस्स हेट्ठिमाणंतिमभागं मोत्तण सेसाणमणंताणं भागाणं सव्वघादित्तमदेण सुत्तेण णिद्दिट्टमिदि घेत्तव्वं, पुण सदस्स समुच्चयढे पवुत्तिअवलंबणादो। अथवा दारुअसमाणे उक्कस्सं सव्वावरणमिदि वुत्ते दारुअसमाणस्स अणंता भागा सव्वावरणं होति त्ति अत्थो घेत्तव्वो, अणंताणं भागाणमुक्कस्सत्तसिद्धीए विरोहाभावादो। तदो दारुअसमाणस्स अणंता भागा सव्वघादि त्ति सिद्धं । 'हेट्ठा देसावरणं' एदेण वयणेण दारुअसमाणस्स हेहिमाणंतिमभागो लदासमाणभागो च सव्वो देसघादि त्ति घेत्तव्यो, तस्स सव्वघायणसत्तीए अभावादो। 'सव्वावरणं च उवरिल्लं । एदेण वि दारुअसमाणादो उवरिल्लमट्ठिसमाणं सेलसमाणं च सव्वमेव णियमा सव्वघादि त्ति जाणावियं, तिव्य-तिव्वयरभावेणावट्टिदस्स तदुभयस्स तहाभावविरोहाभावादो। (२७) एसो कमो च माणे मायाए णियमसा दु लोभे वि।
सव्वं च कोहकम्मं चदुसु ठाणेसु बोद्धव्वं ॥८॥
$२५. जो एसो कमो अणंतरमेव 'माणे लदासमाणे इच्चेदं गाहासुत्तमादि घातिसंज्ञाका अनुगम करेंगे । यथा-'सव्वावरणीयं पुण' अर्थात् सर्वावरणीय ही है। वह सर्वावरणीय कौन है ऐसा पूछने पर 'उक्कस्सं दारुसमाणे' अर्थात् दारुके समान मानमें जो उत्कृष्ट अनुभागस्थान है वह नियमसे सर्वघाति है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। केवल दारुके समान मानमें उत्कृष्ट अनुभाग ही सर्वघाति नहीं है, किन्तु दारुके समान मानके सबसे प्रारम्भके अनन्तवें भागप्रमाण अनुभागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभाग सर्वघाति है यह इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि सूत्रमें आये हुए पुनः शब्दकी समुच्चयरूप अर्थमें प्रवृत्तिका अवलम्बन लिया गया है। अथवा दारुके समान मान में उत्कृष्ट सवोवरण ऐसा कहनेपर दारुके समान मानका अनन्त बहभाग अनुभाग सर्वावरण है यह अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अनन्त बहुभाग अनुभागके उत्कृष्टपनेकी सिद्धि होनेमें विरोधका अभाव है। इसलिये दारुके समान मानका अनन्त बहुभाग अनुभाग सर्वघाति है यह सिद्ध हुआ। 'हेट्ठा देसावरणं' इस वचनसे दारुके समान मानका अधस्तन अर्थात् सबसे प्रारम्भका अनन्तवाँ भाग अनुभाग और लताके समान अनुभाग सब देशघाति है ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसमें सर्वघातिपनेरूप शक्तिका अभाव है । 'सव्वावरणं च उवरिल्लं' इस वचनसे भी दारुके समान अनुभागसे आगेका अस्थिके समान और शैलके समान सब अनुभाग नियमसे सर्वघाति है ऐसा ज्ञान कराया गया है, क्योंकि यह दोनों प्रकारका अनुभाग तीव्र और तीव्रतर भावसे अवस्थित है, इसलिये उसके वैसा होनेमें विरोध नहीं आता।
जो यह क्रम पिछली सूत्र गाथाओंमें कह आये हैं वह सब मान, माया, लोभ तथा क्रोधसम्बन्धी चारों स्थानोंमें निरवशेषरूपसे नियमसे जानना चाहिए ॥८॥
$ २५. जो यह क्रम अनन्तर पूर्व ही 'माणे लदासमाणे' इत्यादि गाथासूत्रसे लेकर
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चउट्ठाणं ८ कादूण जाव 'सव्वावरणीयं पुण' एसा गाहा त्ति माणकसायमहिकिच्च परूविदो सो चेव कमो अपरिसेसो मायाए वि चउण्हं द्वाणाणं जहाकम जोजेयव्यो । ण केवलं मायाए, किंतु णियमसा दु णिच्छएणेव लोभे वि परूवणिज्जो। ण केवलं मायालोभाणं चेव एसो कमो, किंतु सव्वं पि कोहकम्मं जं चदुसु हाणेसु णग-पुढविसमाणादिभेयभिण्णेसु द्विदं तं पि एदेणेव कमेण बोद्धव्वमिदि भणिदं होइ । एवमोघेण चउण्हं कसायाणं पादेक्कं चउब्भेयभिण्णेसु हाणेसु पयदपरूवणं कादूण संपहि गदियादिमग्गणासु एदेसि हाणाणं बंध-संतादिविसेसिदाणं गवेसणट्ठमुवरिमं गाहासुत्तपबंधमाह(२८) एदेसि ठाणाणं कदमं ठाणं गदीए कदमिस्से।
बद्धं च बज्झमाणं उपसंतं वा उदिण्णं वा ॥१॥
$ २६. एदेसिमणंतरणिहिट्ठाणं सोलसण्हं ठाणाणमादेसपरूवणाए कीरमाणाए कदमिस्से गदीए कदमं ठाणं होइ । किमविसेसेण सव्वासु गदीसु सव्वेसिं हाणाणं संभवो आहो अत्थि को विसेसो त्ति पुच्छियं होइ । एदेसि हाणाणं बंध-संत-उदयोवसमेहिं विसेसिदाणं पादेक्कं गदीसु अणुगमो कायव्यो त्ति जाणावणट्ठमेदं वुत्तं 'बद्धं च बज्झमाणं' इच्चादि । 'बद्धं च' णिव्वत्तिदबंधं होदण बंधविदियादिसमएसु संतकम्मभावेणावद्विदं कदमं ठाणं कदमिस्से गदीए होदि ? 'बज्झमाणं' तकालियबंधपरिणामेण 'सव्वावरणीयं पुण' इस गाथा पर्यन्तकी गाथासूत्रोंमें मानकषायको अधिकृत कर कह आये हैं वही सब क्रम मायाकषायमें भी चारों स्थानों में क्रमसे योजित कर लेना चाहिए । केवल मायामें ही नहीं, किन्तु 'णियमसा' अर्थात् निश्चयसे लोभकषायमें भी कहना चाहिए। केवल लोभकषाय और मायाकषायमें ही यह क्रम नहीं है, किन्तु जो समस्त क्रोधकर्म नगसमान और पृथिवीसमान आदि भेदोंमें विभक्त चार स्थानोंमें स्थित है उसे भी इसी क्रमसे जान लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार ओघसे चारों कषायोंमेंसे प्रत्येक कषायके चार भेदोंमें विभक्त स्थानों में प्रकृत कथन करके अब गति आदि मार्गणाओंमें बन्ध और सत्त्व आदिकी अपेक्षा विशेषताको प्राप्त हुए स्थानोंकी गवेषणा करनेके लिये आगेके गाथासूत्र प्रबन्धको कहते हैं
इन पूर्वोक्त चारों स्थानोंमेंसे किस गतिमें कौन स्थान बद्ध है, कौन स्थान बध्यमान है, कौन स्थान उपशान्त है और कौन स्थान उदीर्ण है ॥८१॥
२६. अनन्तर पूर्व कहे गये इन सोलह स्थानोंकी आदेश प्ररूपणा करनेपर किस गतिमें कौन स्थान है ? क्या विशेषता किये विना सब गतियों में सब स्थान सम्भव हैं या कोई विशेषता है यह इस गाथासूत्रद्वारा पूछा गया है। भावसे विशेषताको प्राप्त हुए इन स्थानोंमेंसे प्रत्येक स्थानका गतियोंमें अनुगम करना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिये यह वचन कहा है-'बद्धं च बज्झमाणं' इत्यादि । 'बद्धं च' अर्थात् निवृत्त बन्ध होकर बन्धके बाद द्वितीयादि समयोंमें सत्त्व कर्मरूपसे अवस्थित कौन स्थान किस गतिमें होता है ? इसी प्रकार 'वज्झमाणं' अर्थात् तत्काल बन्धरूप
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८३ ] चोदसगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१६७ विसेसियं होदूण गवकबंधसरूवेणावद्विदं वा कदमं ठाणं कदमिस्से गदीए होदि ? 'उवसंतं वा' एत्थाणुदयलक्खणो उवसमो विवक्खिओ, तेणाणुदयसरूवं होदणुवसंतभावेण द्विदं कदमं ठाणं कम्हि गदीए होइ ? 'उदिण्णं वा' एदेण वि सुत्तावयवेण उदयावत्थाविसेसिदं होदूण कं ठाणं कदमिस्से गदीए होदि ति पुच्छाणिदेसो कदो होदि । तदो एदं सव्वं पुच्छासुत्तमेव । एदिस्से पुच्छाए विसेसणिण्णयमुवरि चरिमगाहासुत्तसंबंधेण कस्सामो(२८) सण्णीसु असण्णीसु य पज्जत्ते वा तहा अपज्जत्ते ।
सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेय बोद्धव्वा ॥२॥
$ २७. एत्थ 'सण्णीसु असण्णीसु य' इच्चेदेण सुत्तावयवेण सण्णिमग्गणा पयदपरूवणाविसेसिदा गहिया । 'पज्जत्ते वा तहा अपज्जत्ते । एदेण वि सुत्तावयवेण काइंदियमग्गणाणं संगहो कायव्वो। 'सम्मत्ते मिच्छत्ते' एदेण वि गाहापच्छद्धेण सम्मत्तमग्गणा सूचिदा, तब्भेदाणं मुत्तकंठमिहोवएसादो। तदो एदेसु मग्गणाविसेसेसु कदमं ठाणं बंधोदयादिविसेसिदं होइ ति पुच्छाण संबंधो एत्थ वि कायव्यो । (३०) विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा अणागारे ।
सागारे जोगम्हि य लेस्साए चेव बोद्धव्वा ॥८३॥ परिणामसे विशेषताको प्राप्त होकर नवक बन्धस्वरूपसे अवस्थित कौन स्थान किस गतिमें होता है ? 'इसी प्रकार 'उवसंतं वा' इस वचनसे यहाँपर अनुदय लक्षणरूप उपशम विवक्षित है, इसलिये अनुदयस्वरूप होकर उपशान्तभावसे स्थित कौन स्थान किस गतिमें होता है ? तथा इसी प्रकार 'उदिण्णं वा' सूत्रके इस वचन द्वारा भी उदय अवस्थासे विशेषताको प्राप्त होकर कौन स्थान किस गतिमें होता है इस प्रकार पृच्छानिर्देश किया है, इसलिये यह सब पृच्छासूत्र ही है । इस पृच्छाका विशेष निर्णय आगेके अन्तिम गाथासूत्रके सम्बधसे करेंगे
पूर्वोक्त बद्ध आदि विशेषताओंसे युक्त ये सोलह स्थान यथासम्भव संज्ञियोंमें, असंज्ञियोंमें, पर्याप्तमें, अपर्याप्तमें, सम्यक्त्त्वमें, मिथ्यात्वमें और मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) में जानना चाहिए ।।८२॥
२७. इस गाथासूत्र में 'सण्णीसु य' इस सूत्र वचन द्वारा प्रकृत प्ररूपणासे विशेषताको प्राप्त हुई संज्ञी मार्गणा ग्रहण की गई है । 'पज्जत्ते वा तहा अपज्जत्ते' इस सूत्रवचन द्वारा भी काय और इन्द्रिय मार्गणाका संग्रह करना चाहिए । 'सम्मत्ते मिच्छत्ते' इत्यादि गाथाके उत्तरार्ध द्वारा भी सम्यक्त्व मार्गणा सूचित की गई है, उसके भेदोंका यहाँ पर मुक्तकण्ठ होकर उपदेश दिया गया है। इसलिये मार्गणाके इन भेदोंमें बन्ध और उदय आदिसे विशेषताको प्राप्त हुआ कौन स्थान होता है इस प्रकार पृच्छाओंका सम्बन्ध यहाँ पर भी
पूर्वोक्त बद्ध आदि विशेषताओंसे युक्त वे ही सोलह स्थान विरतिमें, अविरतिमें, विरताविरतमें, अनाकार उपयोगमें, साकार उपयोगमें, योगमें और लेश्यामें तथा गाथासूत्र में आये हुए 'चेव' पदसे अनुक्त शेष मार्गणाओंमें भी जानना चाहिए ।।८३॥
करना चाहिए।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चउट्ठाणं ८ ६२८. एसा गाहा वृत्तसेसासु संजमादिमग्गणासु पयदहाणाणं मग्गणाए बीजपदभूदा । तं जहा--'विरदीय अविरदीए' इच्चेदेण पढमावयवेण संजममग्गणा णिरवसेसा गहेयव्वा । 'तहा अणागारे' त्ति भणिदे दंसणमग्गणा घेत्तव्या । 'सागारे' त्ति भणिदे णाणमग्गणा गहेयव्वा । 'जोगम्हि य एवं भणिदे जोगमग्गणा घेत्तव्या । 'लेस्साए' त्ति वयणेण लेस्समग्गणाए गहणं कायव्वं । एत्थतण 'चेव' सद्देणावुत्तसमुच्चयटेण वुत्तसेससव्वमग्णाणं संगहो कायव्यो। तदो एदेसु मग्गणाभेदेसु कदमं ठाणं होइ त्ति पुव्वं व पुच्छाहिसंबंधो एत्थ वि कायव्यो । एदस्स णिण्णयमुवरि कस्सामो । (३१) कं ठाणं वेदंतो कस्स व ठाणस्स बंधगो होइ।
कं ठाणमवेदंतो अबंधगो कस्स ठाणस्स ॥४॥
$ २९. एदं गाहासुत्तमोघेणादेसेण च चउण्हं कसायाणं सोलसण्हं ठाणाणं बंधोदएहिं सण्णियासपरूवणट्ठमागयं । तं कधं ? 'कं ठाणं वेदंतो' एदेसि सोलसण्हं ट्ठाणाणं मज्झे कदमं हाणमणुभवंतो 'कस्स हाणस्स बंधगो होइ', किमविसेसेण सव्वेसिमाहो अस्थि को विसेसो त्ति पुच्छा कदा होइ। 'कं ठाणमवेदंतो' कदमं ठाणमणणुभवंतो कस्स वा ट्ठाणस्स अबंधगो होइ त्ति एसो वि पुच्छाणिद्देसो चेव । एदस्स भावत्थो--
$ २८. यह गाथा पूर्व में कही गई मार्गणाओंसे शेष रही संयम आदि मागणाओंमें प्रकृत स्थानोंकी मार्गणाके लिये बीज पदभूत है । यथा-'विरदीय अविरदीए' इत्यादि प्रथम वचन द्वारा समस्त संयम मार्गणाको ग्रहण करना चाहिए । 'तहा अणागारे' ऐसा कहने पर दर्शनमार्गणाको ग्रहण करना चाहिए । 'सागारे' ऐसा कहने पर ज्ञानमार्गणाको ग्रहण करना चाहिए । 'जोगम्हि य' ऐसा कहने पर योगमार्गणाको ग्रहण करना चाहिए । तथा 'लेस्साए' इस वचनसे लेश्यामार्गणाको ग्रहण करना चाहिए । यहाँ गाथा सूत्रमें आया हुआ 'चेव' शब्द अनुक्त मार्गणाओंका समुच्चय करनेवाला होनेसे कही गई मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाओंका संग्रह करना चाहिए । इसलिये इन मार्गणाके भेदोंमें कौन स्थान होता है इस प्रकार यहाँ भी पृच्छाका सम्बन्ध कर लेना चाहिए । इस विषयका निर्णय आगे करेंगे।
किस स्थानका वेदन करनेवाला कौन जीव किस स्थानका बन्धक होता है और किस स्थानका वेदन नहीं करनेवाला कौन जीव किस स्थानका अबन्धक होता है ।।८४॥
$ २९. यह गाथासूत्र ओघ और आदेशसे चार कपायोंके सोलह स्थानोंसम्बन्धी बन्ध और उदयके सन्निकर्षका कथन करनेके लिए आया है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान--'कं ठाणं वेदंतो' इस वचन द्वारा इन सोलह स्थानोंमेंसे किस स्थानका अनुभव करनेवाला जीव किस स्थानका बन्धक होता है, क्या अविशेषरूपसे सब स्थानोंका बन्धक होता है या कोई विशेष है यह पृच्छा की गई है। 'कं ठाणमवेदंतो' अर्थात् किस स्थानका अनुभव नहीं करनेवाला जीव 'कस्स वा ठाणस्स अबंधगों' अर्थात् किस स्थानका
१. ता०प्रतो णिरुद्धट्ठाणो एदेण इति पाठः ।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८५ ]
सोलसमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
कोहादिकसायाणं एगट्ठाण - विट्ठाण - तिट्ठाण चउट्ठाणाणि वेदयमाणो निरुद्धद्वाणोदएण काणि द्वाणाणि बंध, काणि वा ण बंधइ ? अवेदयमाणो वा केसि ठाणाणमबंधगो होदि ति एसो अत्थविसेसो वंधोदयाणं सण्णियाससरूवो एहि परूवेयव्वोत्ति एदस्स विसेसणिण्णय मुवरिमगाहासुत्तसंबंधेण कस्सामो-
१६९
(३२) असण्णी खलु बंधइ लदासमाणं च दारुयसमगं च ।
—
सण्णी चदुसु विभज्जो एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥ (१६) ८५ ॥ ३०. एसा सोलसमी गाहा । संपहि एदं गाहासुत्तमस्सियूण पुव्वणिद्दिट्ठाणं सव्वासिमेव पुच्छाणं णिरागीकरणमत्थमग्गणा कीरदे । तत्थ ताव सण्णिमग्गणाए पयदत्थमग्गणं सुत्ताणुसारेण कस्सामो। तं जहा- -' असण्णी खलु बंधई' एवं भणिदे जो असण्णी जीवो सो बंधइति पदसंबंधो कायव्वो । किं बंधदित्ति भणिदे लदासमाणं च दारुसमगं च दाणि दोसु विद्वाणाणि बंधदित्ति वृत्तं होइ । एदेण सेसाणं दोन्हं द्वाणाणं तत्थ सव्वत्थ बंधाभावो पदुप्पाइदो, तत्थ तत्र्यंधकारणसव्वसंकिलेसाभावादो । तदभावो वि कुदो ? जादिविसेसादो । तदो लदासमाण- दारुअस माणसण्णिदाणं दोन्हमेवाणुभाग
अबन्धक है इस प्रकार यह भी पृच्छा निर्देश है । इसका भावार्थ - क्रोधादि कषायोंके एक स्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला जीव विवक्षित स्थानके उदय के साथ किन स्थानोंका बन्ध करता है और किन स्थानोंका बन्ध नहीं करता । अथवा किस स्थानको वेदन नहीं करनेवाला जोव किन स्थानोंका बन्ध नहीं करता इस प्रकार बन्ध और उदयके सन्निकर्षस्वरूप इस अर्थ विशेषका यहाँ कथन करना चाहिए इस विशेषका निर्णय आगेके गाथासूत्र के सम्बन्ध से करेंगे
असंज्ञी जीव नियमसे लतासमान और दारुसमान इन दो अनुभागस्थानोंको बाँधता है । बन्धकी अपेक्षा संज्ञी जीव चारों स्थानोंमें भजनीय है । इसी प्रकार शेष मार्गणाओं में स्थानोंका अनुगम करना चाहिए || (१६) ८५ ॥
३०. यह सोलहवीं गाथा है । अब इस गाथासूत्रका अवलम्बन लेकर पूर्व में निर्दिष्ट की गई सभी पृच्छाओंका निराकरण करनेके लिये अर्थविषयक मार्गणा करते हैं । उसमें सर्वप्रथम संज्ञी मार्गणामें प्रकृत अर्थकी मार्गणा सूत्रके अनुसार करेंगे । यथा - ' असण्णी खलु बंधइ' ऐसा कहने पर जो असंज्ञी जीव है वह बाँधता है इन पदोंका परस्पर सम्बन्ध करना चाहिए । 'किं बंधदि' ऐसा कहने पर लतासमान और दारुसमान इन दोनों ही स्थानोंको बाँधता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे शेष दो स्थानोंका उन सबमें बन्धका अभाव है यह कहा गया है, क्योंकि उनमें उन दो स्थानोंके बन्धके कारणरूप सब प्रकारके संक्लेशपरिणामोंका अभाव है ।
शंका- उनका अभाव किस कारणसे है ?
समाधान-जातिविशेषके कारण उनका अभाव है । अर्थात् असंज्ञी जीवोंके स्वभावसे ही ऐसे संक्लेश परिणाम नहीं होते जिनको निमित्तकर अस्थिसमान और शैलसमान स्थानोंका उनके बन्ध होवे ।
२२
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चउट्ठाणं ८ द्वाणाणमसण्णीसु बंधो होइ, गाण्णेसिमिदि सिद्धं । एदेसि च दोण्हं द्वाणाणमविभत्तसरूवाणमेवासण्णीसु बंधो होदि त्ति घेत्तव्वं, विभत्तसरूवेण तत्थ तेसिं बंधासंभावादो ।
३१. संपहि सण्णीसु कथं होइ त्ति आसंकाए इदमाह-'सण्णी चदुसु घिभज्जो' सण्णी खलु चदुसु वि अणुभागहाणेसु बंधेण भयणिज्जो-सिया एगट्टाणियं, सिया विट्ठाणियं, सिया तिहाणियं, सिया चउट्ठाणियमणुभागं बंधदि ति । किं कारणं ? चउण्हं ठाणाणं बंधकारणविसुद्धि-संकिलेसाणं तत्थ संभवं पडि विरोहाभावादो। एदेण बंधमस्सियूण सण्णिमग्गणाविसयपुव्विल्लपुच्छाए अत्थणिण्णओ दरिसिदो। एदीए दिसाए उदयोवसंत-संताणं पि तत्थ णिण्णयो मग्गियव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासियत्तादो । तं कथं ? असण्णीसु उदयो विट्ठाणं चेव, सेसोदयपरिणामाणमेत्थ अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो। उवसंतं संतं च एगट्ठाण-विट्ठाण-तिहाण-चउहाणं भवदि । णवरि एगट्ठाणस्स सुद्धस्स संभवो णत्थि त्ति पुव्वं व वत्तव्यं । सण्णीणं पुण संतमुवसंतमुदयो च सव्वाणि चेव हाणाणि होति त्ति घेत्तव्वं ।
$ ३२. संपहि 'कं ठाणं वेदंतो कस्स व ढाणस्स बंधगों होदि' ति एदिस्से
इसलिए लतासमान और दारुसमान संज्ञावाले दोनों ही अनुभागस्थानोंका असंज्ञियोंके बन्ध होता है, अन्य दो स्थानोंका बन्ध नहीं होता यह सिद्ध हुआ। अविभक्तस्वरूप इन दोनों ही स्थानोंका असंज्ञियोंमें बन्ध होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि विभक्तरूपसे उन स्थानोंका उनमें बन्ध होना असम्भव है।
३१. अब संज्ञी जीवोंमें किस प्रकारका बन्ध होता है ऐसी आशंका होनेपर यह वचन कहते हैं-'सण्णी चदुसु विभज्जो' संज्ञी जीव चारों ही अनुभागस्थानोंमें नियमसे बन्धकी अपेक्षा भजनीय है-कदाचित् एकस्थानीय, कदाचित् द्विस्थानीय, कदाचित् त्रिस्थानीय और कदाचित् चतुःस्थानीय अनुभागको बाँधता है, क्योंकि उनमें चारों ही स्थानोंके बन्धके कारण विशुद्धि और संक्लेशरूप परिणाम सम्भव है, इसमें कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार इस वचन द्वारा बन्धका अवलम्बन लेकर संज्ञीमार्गणाविषयक पिछली पृच्छाके अर्थका निर्णय दिखलाया। इसी दिशाद्वारा उदय, उपशम और सत्त्वका भी संज्ञी मार्गणामें निर्णय कर लेना चाहिए, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षक है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-असंज्ञियोंमें उदय द्विस्थानीय ही होता है, क्योंकि शेष उदयरूप परिणामोंका उनमें अत्यन्त अभाव होनेसे उनका वहाँ निषेध किया है। असंज्ञियोंमें उपशम और सत्त्व एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है। इतनी विशेषता है कि इनमें शुद्ध एकस्थानीय उपशमस्थान और सत्त्वस्थान नहीं होता यह कथन यहाँ पूर्वके समान करना चाहिए। परन्तु संज्ञियोंमें सत्त्व, उपशम और उदयरूप सभी स्थान होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
$३२. अब 'कं ठाणं वेदंतो कस्स व ट्ठाणस्स बंधगो होदि इस प्रकार इस पृच्छाका १. ताप्रती उदयोवसंताणं इति पाठः ।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८५] सोलसमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१७१ पुच्छाए णिण्णयमेदं चेव देसामासियसुत्तमस्सियूण सण्णिमग्गणाए कस्सामो । तं कथं ? असण्णी बिट्ठाणमणुभागं वेदंतो णियमा विट्ठाणमणुभागं बंधइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो। सण्णिपंचिंदियो एगट्ठाणमणुभागं वेदंतो णियमा एगट्ठाणमेव बंधइ, ण सेसाणि । विट्ठाणं वेतो' विट्ठाण-तिहाण-चउट्ठाणाणि बंधइ । तिहाणं वेदेंतो तिट्ठाणचउट्ठाणाणि बंधइ । चउट्ठाणं वेदेंतो णियमा चउट्ठाणं बंधइ, सेसाणमबंधगो त्ति एदेण 'कं ठाणमवेदेंतो अबंधगो कस्स हाणस्से' त्ति एवं पि वक्खाणिदं दट्टव्वं । किं कारणं ? एगट्ठाणमवेदेंतो एगट्ठाणस्स अबंधगो इच्चादिवदिरेगपरूवणाए एदेणेव गयत्थत्तदंसणादो।
३३. संपहि एदेणेव गयत्थाणं सेसमग्गणाणं पि एदीए दिसाए अणुगमो कायव्यो ति जाणावणद्वमुत्तरो सुत्तावयवो 'एवं सव्वत्थ कायवं'। जहा सण्णिमग्गणाए हाणाणमेसा अत्थमग्गणा कया, तहा चेव सेसगदियादितेरसमग्गणासु वि ट्ठाणाणमणुमग्गणा समयाविरोहेण कायव्वा त्ति भणिदं होइ । तं जहा—तिरिक्खगदीए सण्णि-असण्णिभंगं जाणियण वत्तव्वं । णिरय-मणुस-देवगदीसु वि सण्णिभंगं जाणियण णेदव्वं । णवरि मणुसगदीदो अण्णत्थ एगट्ठाणस्स बंधोदया सुद्धा ण निर्णय इसी देशामर्षक सूत्रका अवलम्बन लेकर संज्ञीमार्गणामें करेंगे।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-असंज्ञी जीव द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे द्विस्थानीय अनुभागको बाँधता है, क्योंकि उनमें प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। संजी पञ्चेन्द्रिय जीव एकस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे एकस्थानीय अनुभागको ही बाँधता है, शेष अनुभागोंको नहीं बाँधता। द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको बाँधता है। त्रिस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय अनुभागको बाँधता है। तथा चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे चतुःस्थानीय अनुभागको बाँधता है । 'वह शेष स्थानोंका अबन्धक होता है।' यहाँ इस कथन द्वारा 'कं ठाणमवेदंतो अबंधगो कस्स हाणस्स' इस प्रकार इस वचनका भी व्याख्यान कर दिया ऐसा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि एकस्थानीय अनुभागका वेदन नहीं करनेवाला जीव एकस्थानीय अनुभागका बन्धक नहीं होता इत्यादि व्य तिरेकमुखसे की गई प्ररूपणाका इसी कथनद्वारा ही सम्यक् प्रकारसे अर्थबोध देखा जाता है ।
३३. अब इसी कथन द्वारा ही जिनके अर्थका ज्ञान हो गया है ऐसी शेष मार्गणाओंका भी इसी दिशा द्वारा अनुगम कर लेना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका यह सूत्रवचन आया है-'एवं सव्वत्थ कायव्वं ।' जिस प्रकार संज्ञीमार्गणामें स्थानोंकी अर्थविषयक मार्गणा की उसी प्रकार शेष गति आदि तेरह मार्गणाओंमें भी स्थानोंकी मार्गणा परमागमके अविरोध पूर्वक करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यथा-तिर्यश्चगतिमें संझी और असंज्ञीके भंगको जानकर कथन करना चाहिए । नरकगति, मनुष्यगति और देवगतिमें भी संज्ञीमार्गणाके भंगको जानकर कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि
१. ता०प्रतौ विट्ठाणं बंधतो ( वेदंतो ) इति पाठः ।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ चउट्ठा ८
लब्भंति । एवमिंदियादिमग्गणासु वि जाणियूण पयदपरूवणा कायव्वा । तदो सोलसण्डं गाहात्ताणं समुक्तिणा समत्ता भवदि ।
* एदं सुतं ।
$ ३४. एवमेदं सोलससंखाविसेसिदं गाहासुत्तं समुक्कित्तिदमिदि वृत्तं हो । * एत्थ अत्थविहासा ।
३५. एवं समुक्कित्तिदाणं गाहासुत्ताणमेतो अत्थविहासा कीरदि त्ति भणिदं हो । तत्थ ताव पुव्यमेव चउट्ठाणे ति पदस्स णिक्खेवपरूवणद्वमुवरिमं सुत्तपबंधमाह - * चउठ्ठाणे ति एक्कगणिक्खेवो च द्वाणणिक्खेवो च ।
$ ३६. 'चउट्ठाणस्से' ति पदस्स अत्थविसयणिण्णयजणणमेत्थ णिक्खेवो कीरदे । सो चणिक्खेवो दम्म विसए दुविहो होइ - 'णिक्खेवो द्वाणणिक्खेवो' इदि । तत्थ एक्कगणिक्खेवो णाम चदुसदस्स अत्थभावेण विवक्खियाणं लदास माणादिट्ठाणाणं कोहादिकसायाणं वा एक्केक्कं घेत्तूण णाम- दुवणादिभेदेण णिक्खेवपरूवणा । द्वाणणिक्खेवो नाम तेसिं अन्योगाढसरूवेण विविक्खियाणं वाचओ जो द्वाणसद्दो तस्स अत्थविसयणिण्णयजणणङ्कं णाम- दुवणादिभेदेण परूवणा । एवमेदेसु दोसु णिक्खेवेसु एकगणिraat youमेव गयत्थो त्ति जाणावेमाणो इदमाह -
मनुष्यगति के सिवाय अन्य उक्त दो गतियोंमें केवल एकस्थानीय अनुभागका बन्ध और उदय नहीं प्राप्त होता । इसी प्रकार इन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें भी जानकर प्रकृत प्ररूपणा करनी चाहिए । इस प्रकार इतने कथनके बाद सोलह गाथासूत्रों की समुत्कीर्तना समाप्त होती है ।
* यह गाथासूत्र है ।
$ ३४. इस प्रकार सोलह संख्या विशिष्ट इस गाथासूत्रका समुत्कीर्तन किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अब इसकी ( सोलह संख्याविशिष्ट इस गाथासूत्रकी ) अर्थविभाषा करते हैं ।
$ ३५. इस प्रकार उल्लिखित किये गये इन गाथासूत्रोंकी आगे अर्थविभाषा करते हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसमें सर्व प्रथम पहले ही 'चतुःस्थान' इस पदविषयक निक्षेपका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* 'चतुःस्थान' इस पदका एकैकनिक्षेप और स्थाननिक्षेप करना चाहिए ।
३६. चतुःस्थान इस पदका अर्थविषयक निर्णय उत्पन्न करनेके लिये यहाँपर निक्षेप करते हैं और वह निक्षेप इस विषय में दो प्रकारका है -- एकैकनिक्षेप और स्थाननिक्षेप | उनमें से 'चतुः' शब्द के अर्थरूपसे विवक्षित लतासमान और दारुसमान आदि स्थानोंकी अथवा क्रोधादि कषायोंकी, एक-एकको ग्रहणकर नाम और स्थापना आदिके भेदसे निक्षेपरूप प्ररूपणा करना एकैकनिक्षेप है । तथा परस्पर मिलितरूपसे विवक्षित उन्हींका वाचक जो 'स्थान' शब्द है उसके अर्थविषयक निर्णयका ज्ञान करनेके लिये नाम और स्थापना आदि के भेद से प्ररूपणा करना स्थाननिक्षेप है । इस प्रकार इन दो निक्षेपोंमेंसे एकैकनिक्षेप पूर्व में ही गतार्थ है इस बातका ज्ञान कराते हुए इस सूत्र को कहते हैं
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिक्खेववत्थपरूवणा
* एक्कगं पुत्र्वणिक्खित्तं पुव्वपरूविदं च ।
$ ३७. एत्थ एकगसद्देण कोहादीणमेक्वेक्कस्स कसायस्स वा गहणं लदासमाणादीर्ण वा द्वाणाणमेगेगस्स णिरुद्धट्ठाणस्स गहणमिदि । तत्थ जइ ताव कोहादीणमेगेगस्स कसायस्स गहणमिह विवक्खियं तो एक्कगं पुव्वणिक्खित्तं पुव्वपरूविदं चेदि, दाणिं तणिक्खेव परूवणा वा अहिकीरदे । किं कारणं ? गंथस्सादीए कस । यणिक्खेवाबसरे कोहादिकसायाणं पादेकं णाम-दुवणादिभेदेण बहुवित्थरेण णिक्खित्तत्तादो, पेजदोसादिअणियोगद्दारेसु तेसिं पबंधेण परूविदत्तादो च । अह जड़ लदासमाणादि
I
पक्कं गहणं विवक्खियं तो वि एकगं पुव्वणिक्खित्तं पुण्वपरूविदं चैव भवदि । तं कथं ? लदासमाणादिभेयभिण्णस्स माणस्स णिक्खेवो कीरमाणो सामण्णमाणणिक्खेवेणेव गयत्थो होइ, सामण्णादो एयंतेण पुधभूदविसेसाणुवलंभादो | एवं कोहादीणं पि णग - पुढविआदीहिं विसेसिदाणमेहि कीरमाणो णिक्खेवो सामण्णकोहादिणिक्खेवेणेव पुव्वपरूविदेण गयत्थो ति एवमेक्कगणिक्खेवं पुव्वपरूविदत्तादो समुज्झियूण द्वाणणिक्खेवं करेमाणो इदमाह–
गाथा ८५ ]
* ट्ठाणं णिक्खिविदव्वं ।
$ ३८. ट्ठाणमिदाणिं णिक्खिवियव्वं, पुव्वमपरूवियत्तादो त्ति भणिदं होइ ।
१७३
* एकैकनिक्षेप पूर्व-निक्षिप्त है और पूर्व प्ररूपित है ।
$ ३७. प्रकृत में एकैक शब्दसे क्रोधादिमें से एक-एक कषायका ग्रहण किया है अथवा लतासमान आदि स्थानोंमेंसे एक-एक विवक्षित स्थानका ग्रहण किया है । उनमें से यदि सर्वप्रथम क्रोधादिमें से एक-एक कषायका ग्रहण यहाँपर विवक्षित है तो एक-एक कषाय पूर्व - निक्षिप्त है और पूर्व-प्ररूपित है, इसलिये इस समय उनका निक्षेप और प्ररूपणा अधिकृत नहीं है, क्योंकि ग्रन्थ के आदिमें कषायोंके निक्षेपके समय क्रोधादि कषायोंका पृथक-पृथक नाम और स्थापना आदिके भेदसे बहुत विस्तार के साथ निक्षेप कर आये हैं तथा पेज्ज-दोस आदि अनुयोगद्वारोंमें उनका प्रबन्धरूपसे कथन कर आये हैं । और यदि लतासमान आदि स्थानों का पृथक-पृथक ग्रहण विवक्षित है तो भी एक-एक स्थान पूर्वनिक्षिप्त है और पूर्व - प्ररूपित ही है ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान---लतासमान आदि के भेदसे भेदको प्राप्त हुए मानकषायका निक्षेप करते हुए सामान्य मानके निक्षेपसे ही वह गतार्थ है, क्योंकि सामान्यसे विशेष एकान्त से पृथक् नहीं उपलब्ध होता । इसी प्रकार नग, पृथिवी आदिकी अपेक्षा विशेषताको प्राप्त हुए क्रोधादिकका भी इस समय किया जानेवाला निक्षेप पूर्व में कहे गये सामान्य क्रोधादिके निक्षेपसे ही गतार्थ है, इसलिए पूर्व में कहा गया होनेसे एकैक निक्षेपको छोड़कर स्थानविषयक निक्षेपको करते हुए इस सूत्र को कहते हैं
* स्थान पदका निक्षेप करना चाहिए |
३८. इस समय स्थान पदका निक्षेप करना चाहिए, क्योंकि इसका पहले कथन नहीं किया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चउट्ठाणं८ * तं जहा। . $३९. सुगमं ।
* णामट्ठाणं ट्ठवणट्ठाणं दव्वट्ठाणं खेत्तट्ठाणं अद्धट्ठाणं पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं संजमट्ठाणं पयोगट्ठाणं भावहाणं च ।
४०. तत्थ जीवाजीवमिस्सभेयभिण्णाणमभंगाणं णिमित्तंतरणिरवेक्खा ट्ठाणसण्णा णामट्ठाणमिदि भण्णदे । 'निमित्तांतरानपेक्षं संज्ञाकर्म नामेति' वचनात् । सम्भावमसब्भावसरूवेणेदं ठाणमिदि ठविजमाणं ठवणाहाणं णाम । दव्वट्ठाणमागमणोआगमभेदेण दुविहं । तत्थागमदव्वट्ठाणं णोआगमजाणुगसरीर-भवियदव्वट्ठाणं च सुगमं । तव्वदिरित्तणोआगमदव्वट्ठाणं हिरण्ण-सुवण्णादिदव्वाणं भूमियादिसु ठविञ्जमाणाणं अवट्ठाणं। खेत्तट्ठाणं णाम उड्ड-मज्झ-तिरियलोगाणमप्पप्पणो संठाणविसेसेणाकिट्टिमसरूवेणावट्ठाणं । अद्धट्ठाणं णाम समयावलिय-खण-लव-मुहुत्तादिकालवियप्पा । पलिवीचिट्ठाणं णाम द्विदिबंधवीचारहाणाणि सोवाणट्ठाणाणि वा भण्णंति । उच्चट्ठाणं णाम पव्वदादयमुच्च पदेसो। एत्थेव णीचट्ठाणस्स वि अंतब्भावो वत्तव्वो। मान्यस्थानं वोच्चस्थानमिति व्याख्येयं । संजमट्ठाणमिदि वुत्ते सामाइयच्छेदोवट्ठावणादिसंजमलद्धिट्ठाणाणि पडिवादादिभेयभिण्णाणि घेत्तव्वाणि । संजमविसेसिदपमत्तादिगुणट्ठाणाणि
* वह जैसे। $३९. सुगम है।
* नामस्थान, स्थापनास्थान, द्रव्यस्थान, क्षेत्रस्थान, अद्धास्थान, पलिवीचिस्थान, उच्चस्थान, संयमस्थान, प्रयोगस्थान और भावस्थान ।
४०. उनमें से जीव, अजीव और मिश्रके भेदसे भेदको प्राप्त हुए आठ भंगोंकी अन्य निमित्तकी अपेक्षा किये विना स्थान संज्ञा रखना नामस्थान ऐसा कहा जाता है, क्योंकि 'दूसरे निमित्तकी अपेक्षा किये विना संज्ञाकर्मको नाम कहते हैं' ऐसा वचन है। यह स्थान है' इस प्रकार सद्भाव और असद्भावरूपसे स्थापना करनेको स्थापनास्थान कहते हैं । आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यस्थान दो प्रकारका है। उनमें से आगमद्रव्यस्थान सुगम है तथा नोआगम द्रव्यस्थानके ज्ञायकशरीर और भावी ये भेद सुगम हैं। तथा भूमि आदिमें रखे जानेवाले चाँदीसोना आदिके अवस्थानको तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यस्थान कहते हैं। ऊवलोक, मध्यलोक और तिर्यग्लोकका अपने-अपने अकृत्रिमस्वरूप संस्थान विशेषरूपसे अवस्थानका नाम क्षे है। समय, आवलि, क्षण, लव और मुहूर्त आदि कालके भेदोंका नाम अद्धास्थान है। स्थितिबन्धसम्बन्धी वीचारस्थानोंको अथवा सोपानस्थानोंको पलिवीचिस्थान कहते है । पर्वत आदि उच्चप्रदेशका नाम उच्चस्थान है। यहींपर नीचस्थानका भी अन्तर्भाव कहना चाहिए । अथवा मान्यस्थानका नाम उच्चस्थान है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। संयमस्थान ऐसा कहनेपर प्रतिपातादि भेदसे अनेक प्रकारके सामायिक और छेदोपस्थापना आदि संयमलब्धिस्थानोंको ग्रहण करना चाहिए। अथवा संयमको अपेक्षा विशेषताको प्राप्त हुए प्रमत्त आदि गुणस्थानोंको ग्रहण करना चाहिए । मन, वचन और कायका प्रयोगलक्षण योग
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८५ ]
णिक्खेवत्थ परूवणा
१७५
वा । पयोगट्ठाणं णाम मण वचि - कायपयोगलक्खण जोगड्डाणमिदि घेत्तव्वं । भावड्डाणं दुविहं आगम-णोआगमभेदेण । आगमदो भावद्वाणं सुगमं । णोआगमभावद्वाणं णाम असंखेज्जलोगमेत्त कसायुदयद्वाणाणि ओदइयादिभाववियप्पा वा । एवं णिक्खेवपरूवणं काढूण संपहिएदेसिं णिक्खेवाणं णयविभागपरूवण मुवरिमपबंधमाह - * गमो सव्वाणि द्वाणाणि इच्छइ ।
४१. किं कारणं ? तव्त्रिसए सामण्ण-विसेसप्पये वत्थुम्मि सव्वेसिं णिक्खेवाणं संभवं पडि विरोहाभावादो ।
* संग्रह-ववहारा पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं च अवर्णेति ।
४२. संगहो ताव संक्खित्तत्थग्गहणलक्खणो' पलिवीचिट्ठाण मट्ठाणे पविसदि त्ति पुध तं णेच्छदि । किं कारणं ? ट्ठिदिबंधवीचारट्ठाणाणमद्भाविसेसत्तादो । सोवाणट्ठाणेसु विघे माणेसु तेसिं खेत्तट्ठाणे पवेसदंसणादो । तथा उच्चट्ठाणं पि खेत्तट्ठाणे पविसदि त्ति पुध णेच्छदि, तस्स खेत्तभेदत्तादो । एवं ववहारो वि, तस्स एदम्मि विसए संगण समाणाहिप्पायत्तादो ।
* उजुसुदो एदाणि च ठवणं च अद्धद्वाणं च अवणेइ ।
स्थानका नाम प्रयोगस्थान है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । आगम और नोआगमके भेदसे भावस्थान दो प्रकारका है । आगमकी अपेक्षा भावस्थान सुगम है। असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानों अथवा औदयिक आदि भावोंके भेदोंका नाम भावस्थान है । इसप्रकार निक्षेपका कथन कर अब इन निक्षेपोंका नयविभागसे कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* नैगमनय सब स्थानोंको स्वीकार करता है ।
-
$ ४१. क्योंकि उसके विषयरूप सामान्य विशेषात्मक वस्तुमें सभी निक्षेपोंके सम्भव होनेके प्रति विरोधका अभाव है ।
* संग्रहनय और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानका अपनयन करते हैं ।
$ ४२. संग्रहनय संग्रहरूप अर्थका ग्रहण लक्षणवाला है । इस नयकी अपेक्षा पलिवीचि - स्थानका अद्धास्थानमें अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये उसे पृथक्से नहीं स्वीकारता, क्योंकि स्थितिबन्धसम्बन्धी वीचारस्थान अद्धाविशेषरूप हैं। सोपानस्थानरूप भी ग्रहण करनेपर उनका क्षेत्रस्थानमें प्रवेश देखा जाता है । तथा उच्चस्थानका भी क्षेत्रस्थानमें प्रवेश हो जाता है, इसलिए उसे पृथक स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह क्षेत्रका एक भेद है । इसी प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षासे भी जानना चाहिए, क्योंकि उसका इस विषय में संग्रहनय के समान अभिप्राय है ।
* ऋजुसूत्रनय उक्त दोनोंका तथा स्थापनास्थान और अद्धास्थानका अपनयन १. ता० प्रती कित्तत्थ - इति पाठः ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चउट्ठाणं ८ $४३. किं कारणं ? वट्टमाणसमयमेतविसयत्तादो। ण च वट्टमाणसमयप्पणाए दवणट्ठाणाणं संभवो अत्थि, कालभेदेण विणा तेसिमसंभवादो । तदो वट्टमाणमेत्तुज्जुवत्थग्गाहिणो एदस्स विसये ढवणट्ठाणमट्ठाणं पुव्युत्तण्णाएण पलिवीचि-उच्चट्ठाणाणि च ण संभवंति सिद्धं । * सद्दणयो णामहाणं संजमहाणं खेत्तट्ठाणं भावहाणं च इच्छदि ।
४४. होउ णाम पलिवीचि-उच्चट्ठाणाणमेस्थासंभवो, संगह-ववहारेहिं चेव तेसिमोसारियत्तादो! तहा अद्धट्ठाण-ट्ठवणट्ठाणाणं पि असंभवो, उजुसुदविसए चेव तेसिमवत्थुत्तमुवगयाणमेत्थ संभवविरोहादो । कथं पुण दव्व-पयोगट्ठाणाणमुजुसुदे संभवंताणमेत्थावत्थुत्तमिदि ? बुच्चदे–ण ताव दव्वट्ठाणस्सेत्थ संभवो, सुद्धपज्जवट्ठिये एदम्मि णये पडिसमयविणासिपजायं मोत्तूण दव्वस्स संभावाणभुवगमादो। ण उजुसुदेण वियहिचारो, एदम्हादो तस्स थूलविसयत्तब्भुवगमादो। तहा पयोगट्ठाणं पि एत्थ ण संभवइ । किं कारणं? पयोगो हि णाम मण-वचि-कायाणं परिप्फंदलक्खणो किरियाभेदो । ण च सो एत्थ संभवइ, खणक्खयिणो भावस्स समयमणवट्ठिदस्स किरियापजायकरता है।
$ ४३. क्योंकि ऋजुसूत्रका विषय वर्तमान समयमात्र है। और वर्तमान समयकी विवक्षामें स्थापनास्थान और अद्धास्थान सम्भव नहीं हैं, क्योंकि कालभेदको स्वीकार किये विना उनको स्वीकार करना असम्भव है । इसलिये वर्तमानमात्र ऋजु अर्थको ग्रहण करनेवाले इस नयके विषयमें स्थापनास्थान और अद्धास्थान तथा पूर्वोक्त न्यायसे पलिवीचिस्थान और उच्चस्थान सम्भव नहीं हैं यह सिद्ध हुआ।
* शब्दनय नामस्थान, संयमस्थान, क्षेत्रस्थान और भावस्थानको स्वीकार करता है।
४४. शंका-इस नयके विषयरूपसे पलिवीचिस्थान और उच्चस्थान सम्भव मत होओ, क्योंकि संग्रहनय और व्यवहारनयके द्वारा ही उनका अपसरण कर दिया गया है।
या अद्धास्थान और स्थापनास्थान भी सम्भव मत होओ, क्योंकि ऋजुसूत्रके विषयरूपसे ही अवस्तुपनेको प्राप्त हुए उनका इस नयके विषयरूपसे सम्भव होनेमें विरोध है। परन्तु ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यस्थान और प्रयोगस्थान सम्भव हैं, उनका इस नयमें अवस्तुपना कैसे बनता है ?
समाधान-द्रव्यस्थान तो इस नयमें सम्भव नहीं है, क्योंकि शुद्ध पर्यायार्थिकरूप इस नयमें प्रति समय विनाशको प्राप्त होनेवाली पर्यायको छोड़कर द्रव्य इस नयके विषयरूपसे नहीं स्वीकार किया गया है।
ऋजुसूत्रके साथ व्यभिचार नहीं आता, क्योंकि इसकी अपेक्षा उसका स्थूल विषय स्वीकार किया गया है। उसी प्रकार प्रयोगस्थान भी इस नयमें सम्भव नहीं है, क्योंकि मन, वचन और कायके परिस्पन्दलक्षण क्रियाभेदका नाम प्रयोग है, परन्तु वह इस नयमें सम्भव नहीं है, क्योंकि क्षणक्षयी और एक समयके बाद अनवस्थित रहनेवाले भावमें क्रियापर्यायरूप
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७७
गाथा ८५]
णिक्खेवत्थपरूवणा परिणामाणुववत्तीदो । तथा चोक्तं
क्षणिकाः सर्वसंस्काराः अस्थितानां कुतः क्रिया।
भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं चैव सोच्यते ॥ इति॥ तम्हा एदेण सुद्धपजवणयाहिप्पाएण पयोगट्ठाणस्स वि एत्थासंभवो चेवे त्ति । एवमेदेसि पि परिहारेण गाम-संजम-खेत्त-भावट्ठाणाणि चेव एसो इच्छदि ति सुत्ते वुत्तं । तं कधं १ णामट्ठाणमेसो ताव पडिवज्जइ, बज्झत्थणिरवेक्खट्ठाणसण्णामेत्तस्स तन्विसए पञ्चक्खमुवलंभादो । संजमट्ठाणं वि इमो इच्छदि, तस्स भावसरूवत्तादो। खेत्त-भावट्ठाणाणि पुण एसो पडिवज्जइ चेव, ण तत्थ विसंवादो अत्थि, वट्टमाणोगाहणलक्खणस्स खेत्तस्स कसायोदयसरूवभावस्स च तव्विसए परिप्फुडमुवलंभादो। तदो सिद्धमेदेसि णिक्खेवाणमेत्थ संभवो ति । एवं एदेसु णिक्खेवेसु केणेत्थ पयदमिथासंकाए इदमाह
* एत्थ भावहाणे पयदं ।
$ ४५. एदेसु णिक्खेवेसु अणंतरमेव पवंचिदेसु णोआगमदो भावणिक्खेवेण पयदं, लदासमाणादिट्ठाणाणं णिक्खेवंतरपरिहारेण तत्थेवावट्ठाणदंसणादो। एवं ताव परिणामकी उत्पत्ति नहीं बनती। कहा भी है
सब संस्कार क्षणिक हैं, अस्थित उनमें क्रिया कैसे बन सकती है ? जिनकी उत्पत्ति है वही क्रिया है और वही कारक कहा जाता है ॥१॥
___इसलिये इस शुद्ध पर्यायाथिक नयके अभिप्रायसे प्रयोगस्थान भी इसमें असम्भव ही है। इस प्रकार इन स्थानोंके परिहारद्वारा यह नय नामस्थान, संयमस्थान, क्षेत्रस्थान और भावस्थान इनको ही स्वीकार करता है ऐसा सूत्र में कहा है। . शंका-वह कैसे ?
समाधान-नामस्थानको तो यह स्वीकार करता है, क्योंकि बाह्य अर्थकी अपेक्षा किये विना स्थानसंज्ञामात्र उसके विषयरूपसे प्रत्यक्ष उपलब्ध होती है। संयमस्थानको भी यह स्वीकार करता है, क्योंकि वह (संयमस्थान ) भावस्वरूप है। क्षेत्रस्थान और भावस्थानको तो यह स्वीकार करता ही है, उसमें विसंवाद नहीं है, क्योंकि वर्तमान अवगाहनालक्षण क्षेत्रकी और कषायके उदयस्वरूप भावकी उसके विषयरूपसे स्पष्ट उपलब्धि होती है । इसलिए इन निक्षेपोंका इसमें सम्भव है यह सिद्ध हुआ।
__इस प्रकार इन निक्षेपोंमेंसे किस निक्षेपसे यहाँ ( इस अनुयोगद्वारमें ) प्रयोजन है इस प्रकारकी आशंका होनेपर इस सूत्रको कहते हैं
* प्रकृतमें भावस्थानसे प्रयोजन है।
$ ४५. अनन्तर पूर्व कहे गये इन निक्षेपोंमेंसे नोआगमभावनिक्षेपसे प्रयोजन है, क्योंकि लतासमान आदि स्थानोंका दूसरे निक्षेपोंके परिहारद्वारा नोआगम भावनिक्षेपमें
२३
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८ जयधवलासहिदे कायपाहुडे
[चउहाणं८ सुत्तविहासावसरे चेय द्वाणणिक्खेवं णयपरूवणाणुगयं कादण संपहि गाहासुत्ताणमत्थविहासणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो इदमाह
* एत्तो सुत्तविहासा।
६४६. पुव्वं सुत्तविहासं पइण्णाय तमपरूविय णिक्खेवो काउमाढत्तो। तदो तेणंतरिदाये तिस्से पुणो वि अणुसंधाणं कादूण तप्परूवणमिदं सुत्तमारद्धं ।
* तं जहा।
४७. सुगम ।
* आदीदो चत्तारि सुत्तगाहाओ एदेसिं सोलसराहं हाणाणं णिवरिसणउवणये।
४८. तत्थ ताव आदीदो पहुडि चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासिज्जते । ताओ पुण कम्हि अत्थविसेसे पडिबद्धाओ ति आसंकाए इदमुत्तरं 'एदेसिं सोलसण्हं हाणाणं णिदरिसणोवणए पडिबद्धाओ त्ति' पढमगाहाए कयमेदणिद्देसाणं सोलसण्हं हाणाणं सेसगाहाहिं तीहिं णिदरिसणोवणयस्स परिप्फुडमुवलंभादो। जइ एवं चत्तारि सुत्तगाहाओ णिदरिसणोवणए पडिबद्धाओ ति कथमिदं घडदे, तिण्हमेव सुत्तगाहाणं तत्थ अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकार सर्वप्रथम गाथासूत्रोंके विशेष व्याख्यानके अवसरपर ही नयप्ररूपणासे अनुगत स्थानविषयक निक्षेपप्ररूपणा करके अब गाथासूत्रोंका विशेष व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकार इस सूत्रको कहते हैं
* इससे आगे गाथासूत्रोंकी विभाषा करते हैं ।
$ ४६. पूर्वमें गाथासूत्रोंके विशेष व्याख्यानकी प्रतिज्ञा करके उसकी प्ररूपणा किये विना निक्षेप करनेके लिये आरम्भ किया । इसलिये उसके बाद उसका फिर भी अनुसन्धान करके उसका कथन करनेके लिये इस सूत्रका आरम्भ किया है।
* वह जैसे ? $ ४७. यह सूत्र सुगम है।
* आदिसे लेकर चार सूत्र गाथाएँ इन सोलह स्थानोंके उदाहरणपूर्वक अर्थ साधन करनेमें आई हैं।
४८. उनमेंसे सर्वप्रथम आदिसे लेकर चार सूत्रगाथाओंका विशेष व्याख्यान करते हैं । परन्तु वे चारों सूत्रगाथाएँ किस अर्थमें प्रतिबद्ध हैं ऐसी आशंका होनेपर यह उत्तर दिया है-इन सोलह स्थानोंके उदाहरणपूर्वक अर्थसाधनमें प्रतिबद्ध हैं, क्योंकि प्रथम गाथाद्वारा जिन भेदोंका निर्देश किया गया है ऐसे सोलह स्थानोंका शेष तीन गाथाओंद्वारा उदाहरणपूर्वक अर्थसाधन स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है।
शंका-यदि ऐसा है तो चार सूत्रगाथाएँ उदाहरणपूर्वक अर्थसाधनमें प्रतिबद्ध हैं १. ता०प्रतौ काल (किमट्ठ) माढत्तो इति पाठः । २. ता प्रती त्ति पढ़मगाहा पढमगाहाए इति पाठः ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८५..]
सुत्तविभास
१७९
पडिबद्धत्तदंसणादोत्ति णासंकणिज्जं णिदरिसणोवणयहं कीरमाणमेदणिसस्स वि तव्विसयत्तेण तहाभावोवयारादो । को णिदरिसणोवणयो नाम : णिदरिसणं दिहंतो उदाहरणमिदि यो । णिदरिसणस्स उवणओ णिदरिसणोवणओ, दिट्ठतमु हेण त्थ साधणमिदि भणिदं होइ । तत्थ ताव कदमेण साधम्मेण केसि द्वाणाणं णिदरिसणोवणओ एत्थ विवक्खिओ ति एदस्स जाणावणडुमुत्तरमुत्तद्दय मोइण्णं—
* कोहट्ठाणं चउण्हं पि कालेण णिदरिसणउवणओ कओ ।
$ ४९. कोहकसायस्स ताव चउन्हं पि द्वाणाणं णग - पुढविसमाणादिभेदेण जो णिदरिसणोवणओ कओ सो कालेण कालसाहम्ममासेज कओ त्ति वृत्तं होइ, चिराचिरतदवड्डाणकालसाहम्मावेक्खाए तत्थ तहाभूदणिदरिसणस्स उवणीदत्तादो । एदस्स पुण णिण्णय मुवरिमचुण्णिसुत्तसंबंधेण कस्सामो ।
* सेसाणं कसायाणं बारसण्हं द्वाणाणं भावदो णिदरिसणउवणभो कओ ।
यह कैसे बन सकता है, क्योंकि तीन सूत्रगाथाएं ही उक्त अर्थमें प्रतिबद्ध देखी जाती हैं ? समाधान—ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उदाहरणोंद्वारा साधन
करनेके लिये जो भेदोंका निर्देश किया गया है वह भी प्रकृत अर्थको विषय करता है, इसलिये उस प्रकार के भावका उपचार किया गया है ।
शंका - निदर्शनोपनय किसे कहते हैं ?
ン
समाधान -- निदर्शन, दृष्टान्त और उदाहरण ये एकार्थवाची शब्द हैं । निदर्शनके उपनयको निदर्शनोपनय कहते हैं, अर्थात् दृष्टान्तोंद्वारा अर्थका साधन करना यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
---
उनमें से सर्वप्रथम किस साधर्म्यद्वारा किन स्थानोंका उदाहरणपूर्वक अर्थसाधन यहाँ किया गया है, इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके दो सूत्र अवतीर्ण हुए हैं* चारों ही क्रोध-स्थानोंका कालकी मुख्यतासे उदाहरण पूर्वक अर्थसाधन किया गया है ।
$ ४९. क्रोध कषायके तो चारों ही स्थानोंका नगसमान और पृथिवीसमान आदि भेदरूपसे जो उदाहरणपूर्वक अर्थसाधन किया गया है वह 'कालेण' अर्थात् कालविषयक साधर्म्यका आश्रय लेकर किया गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि चिरकाल और अचिरकाल तक जो क्रोधका अवस्थान होता है उसका इस प्रकारके कालके साथ साधर्म्य बन जानेसे इस अपेक्षासे क्रोधकषायके भेदोमें उस प्रकारके उदाहरण संग्रह किये गये हैं । परन्तु इसका निर्णय आगे आनेवाले चूर्णिसूत्रोंके सम्बन्धसे करेंगे ।
* शेष कषायोंके बारह स्थानोंका भावकी मुख्यतासे उदाहरणपूर्वक अर्थ - साधन किया गया है ।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चउट्ठाणं ८ ५०. सेसाणं माणादीणं तिण्हं कसायाणं जाणि हाणाणि लदासमाणादिमेदेण बारससंखावच्छिण्णाणि तेसिं भावदो भावमासेज णिदरिसणोवणओ कदो । तं जहामाणस्स भावो थद्धत्तं, तस्स सेलघणादिणिदरिसणभेदेण पयरिसापयरिसजुत्तस्स तहा चेय द्वाणसण्णा अणुमग्गिया। मायाए भावो वक्कंतमणुज्जुगदा, तस्स वि वंसिजण्हुआदिणिदरिसणोवणयमुहेण तब्भावस्स तारतम्मसंभवो णिदरिसिदो । लोमभावो असंतोसजणिदा संकिलिट्ठदा, तस्स वि किमिरागरत्तादिणिदरिसणोवण्णासमुहेण जहाभावमेव समत्थणा कया त्ति । संपहि कोहट्ठाणाणं चउण्हं पि कालेण णिदरिसणोवणओं कओ ति जं पुन्वसुत्ते पइण्णादं तस्स वित्थारत्थपरूवणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* जो अंतोमुहुत्तिगं णिधाय कोहं वेदयदि सो उदयराइसमाणं कोहं वेदयदि।
५१. जो जीवो अंतोमुहुत्तियं भाव णिधाय धरेयूण कोधं वेदयदि सो उदयराइसमाणं चेव कोहं वेदयदि । किं कारणं ? उदयराईए व्व तस्स चिरतरकालावट्ठाणेण विणा तकालमेव विलयदंसणादो। एसो च कोहकसायवेदो वेदिजमाणो जीवस्स ण किंचि संजमघादं कुणइ, मंदाणुभागत्तादो । किन्तु संजमस्स अच्चंतसुद्धिं पडिबंधइ, तत्थ पमादादिमलुप्पायणे वावदत्तादो ।
५०. शेष मानादि तीन कषायोंके लतासमान आदि भेदसे बारह संख्यारूप जो स्थान हैं उनका 'भावदो' भावका आश्रय लेकर उदाहरण पूर्वक अर्थसाधन किया गया है। यथा-मानका भाव स्तब्धता है। शैलघन आदि जितने उदाहरणभेद हैं उनके समान प्रकर्ष और अप्रकर्षयुक्त उस मानकी उसी प्रकार स्थानसंज्ञा योजित की गई है। मायाका भाव अनर्जुगत वक्रता है, इसलिये वांसकी जड आदि उदाहरणोंके ग्रहणद्वारा मायाके भी उस भावका तारतम्य बन जाता है यह दिखलाया गया है। लोभभाव असन्तोषजनित संक्लेशपना है, अतः कृमिराग आदि उदाहरणोंके उपन्यासद्वारा लोभका भी जैसा भाव है उसका समर्थन किया गया है । अब क्रोधके चारों ही स्थानोंका कालकी मुख्यतासे उदाहरणपूर्वक अर्थसाधन किया गया है ऐसा जो पूर्वसूत्रमें प्रतिज्ञा कर आये हैं उसके अर्थका विस्तारपूर्वक कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
____ * जो अन्तर्मुहूर्त काल तक क्रोधभावको धारण कर उसका वेदन करता है वह उदकराजिके समान क्रोधका वेदन करता है।
६५१. जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक होनेवाले भावको धारण कर क्रोधका वेदन करता है वह उदकराजिके समान ही क्रोधका वेदन करता है, क्योंकि उदकराजिके स चिरकाल तक अवस्थानके विना उसी समय विलय देखा जाता है। वेदनमें आता हुआ यह क्रोधकषायरूप वेद जीवके कुछ भी संयमघातको नहीं करता, क्योंकि यह मन्द अनुभागस्वरूप होता है । किन्तु संयमको अत्यन्त शुद्धिका प्रतिबन्ध करता है, क्योंकि उसका प्रमादादिरूप मलके उत्पन्न करने में व्यापार होता है।
१. ता०प्रतौ तद्धत्तं इति पाठः । २. ता०प्रती णिदरिसणेवणमओ इति पाठः ।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८५] सुत्तविभासा
१८१ ____ * जो अंतोमुहुत्तादीदमंतो अद्धमासस्स कोधं वेदयदि सो वालुवराइसमाणं कोहं वेदयदि।।
५२. जो वुण अंतोमुहुत्तकालमुल्लंघिय अंतो अद्धमासस्स कोहं वेदयदि सो णियमा वालुवराइसमाणं कोहमणुहवदि त्ति घेत्तव्वं । कुदो १ वालुअराईए व्व तस्स कोहपरिमाणस्स अंतोमुहुत्तमुल्लंघिय अद्धमासस्स अंतो अवट्ठाणदंसणादो । एदं च कसायोदयजणिदकलुसपरिणामस्स सल्लभावेण परिणदस्स तेतियमेत्तकालावट्ठाणं पेक्खियण भणिदं, अण्णहा कोहोवजोगावट्ठाणकालस्स उक्कस्सेण वि अंतोमुहुत्तमेत्तपमाणपरूवयसुत्तेण सह विरोहप्पसंगादो। एसो च कोहपरिणामभेदो वेदिजमाणो जीवस्स संजमघादं करिय संजमा जमे जीवं ठवेइ त्ति. णिच्छओ कायव्यो ।
* जो अद्धमासादीदमंतो छण्हं मासाणं कोधं वेययदि सो पुढविराइसमाणं कोहं वेदयदि ।
५३. जो. खलु जीवो अद्धमासं बोलिय छण्हं मासाणमंतो कोहं वेदयदि सो पुढविराइसमाणं तदियं कोधं वेदयदि, तजणिदसंसकारस्स पुढविभेदस्सेव अंतो छण्हं
विशेषार्थ— यहाँ यह बतलाया है कि जो उदकराजिके समान मन्द अनुभागस्वरूप क्रोधका वेदन करता है उसका अनुभव में आनेवाला वह क्रोध परिणाम संयमका घात करने में तो समर्थ नहीं है, किन्तु संयमकी अत्यन्त शुद्धिका प्रतिबन्ध कर मलको उत्पन्न करता
है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बुद्धिपूर्वक मात्र संज्वलनकषायका सद्भाव जहाँ तक ' सम्भव है जीवके वहीं तक प्रमाद दशा होती है। सातवें आदि चार गुणस्थानोंमें संज्वलन कषाय है पर अबुद्धिपूर्वक है, इसलिये इनमें अप्रमाद दशा कही गई है। अन्यत्र (श्रीधवलामें) जो पाँच महाव्रत आदिरूप परिणामोंको भी अप्रमाद कहा है उसका भी आशय यही है।
* जो अन्तर्मुहूर्तके बाद अर्धमासके भीतर तक क्रोधका वेदन करता है वह वालुकाराजिके समान क्रोधका वेदन करता है ।
५२. परन्तु जो जीव अन्तर्मुहूर्त कालको उल्लंघन कर अर्धमासके भीतर तक क्रोधका वेदन करता है वह नियमसे वालुकाराजिके समान क्रोधका अनुभव करता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वालुकाराजिके समान उस क्रोधपरिणामका अन्तर्मुहूर्तको उल्लंघन कर अर्धमासके भीतर तक अवस्थान देखा जाता है। और यह, कषायके उदयसे उत्पन्न हुए शल्यरूपसे परिणत कलुषपरिणामके उतने काल तक अवस्थानको देखकर, कहा है। अन्यथा क्रोधोपयोगके अवस्थान कालके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कथन करनेवाले सूत्रके साथ विरोधका प्रसंग आता है । यह क्रोध परिणामका भेद अनुभवमें आता हुआ संयमका घात करके जीवको संममासंयममें स्थापित करता है ऐसा निश्चय करना चाहिए।
* जो अर्धमासके बाद छहमाहके भीतर तक क्रोधका वेदन करता है वह पृथिवीराजिके समान क्रोधका वेदन करता है ।
५३. जोजीव नियमसे अर्धमासको बिताकर छह माहके भीतर तक क्रोधका वेदन करता है वह पृथिवीराजिके समान तृतीय क्रोधका वेदन करता है क्योंकि उससे उत्पन्न हुआ संस्कार
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चउट्ठाणं ८ मासाणमवट्ठाणदंसणादो। एत्थ वि पुव्वं व कसायपरिणामस्स सल्लीभूदस्स एत्तियमेत्तकालावट्ठाणं समत्थेयव्वं, अण्णहा सुत्तविरोहादो। एसो च कोहपरिणामो वेदिजमाणो जीवस्स संजमासंजमं घादिय सम्मत्तमेत्ते जीवं ठवेदि ति । एसो तदिओ कोहनेदो पुविल्लादो तिव्वाणुभागो दट्टव्वो। ....
* जो सव्वेसिं भवेहिं उवसमं ण गच्छइ सो पव्वदराइसमाणं कोहं वेदयदि।
५४. तं जहा.- एक्कस्स जीवस्स कम्हि वि जीवे समुप्पण्णो कोहो सन्लीभूदो होदण हियये द्विदो, पुणो संखेजासंखेजाणंतेहि भवेहिं तं चेव जीवं दळूण पको, गच्छइ, तजणिदसंसकारस्स णिकाचिदभावेण तेत्तियमेत्तकालावट्ठाणे विरोहाभावादो । सो तारिसो कोहपरिणामो पव्वयराइसमाणो त्ति भण्णदे, पव्वयसिलामेदस्सेव तस्सागंतेण वि कालेण पुणो संधाणाणुवलंभादो। एसो वुण कोहपरिणामो वेदिजमाणो जीवस्स सम्मत्तं पि घादिय मिच्छत्तभावे ठवेह त्ति । सव्वतिव्वाणुभागो एसो चउत्थो कोहमेदो त्ति जाणावणट्टमेत्थ सुत्तपरिसमत्तीए चउण्हमंकविण्णासो कओ। एवं ताव कोहस्स चउण्हं ठाणाणं कालेण णिदरिसणोवणयं कादूण संपहि एदीए दिसाए सेसाणं कसायाणं ठाणमेदेसु भावदो णिदरिसणोवणओ गाहासुत्ताणुसारेण अणुगंतव्वो ति
पृथिवीभेदके समान छह माहके भीतर तक अवस्थित देखा जाता है। यहाँपर भी कषायपरिणाम शल्यरूपसे मात्र इतने काल तक अवस्थित रहता है इसका पहलेके समान समर्थन करना चाहिए । अन्यथा सूत्रके साथ विरोध आता है। और यह क्रोध परिणाम अनुभवमें आता हुआ जीवमें संयमासंयमका घात कर जीवको सम्यक्त्वमें स्थापित करता है। यह तीसरा क्रोधभेद पूर्वके क्रोधसे तीव्र अनुभागवाला जानना चाहिए।
* जो सब भवोंके द्वारा उपशमको नहीं प्राप्त होता है वह पर्वतराजिके समान क्रोधका वेदन करता है।
५४. यथा-एक जीवके किसी भी जीवमें उत्पन्न हुआ क्रोध शल्य होकर हृदयमें स्थित हुआ, पुनः संख्यात, असंख्यात और अनन्त भवोंके द्वारा उसी जीवको देखकर प्रकृष्ट क्रोधको प्राप्त होता है, क्योंकि उससे उत्पन्न हुए संस्कारके निकाचितरूपसे उतने कालतक अवस्थित रहनेमें विरोधका अभाव है। वह उक्त प्रकारका क्रोधपरिणाम पर्वतराजिके समान कहा जाता है, क्योंकि पर्वत-शिलाभेदके समान उसका अनन्त कालके द्वारा भी पुनः सन्धान नहीं उपलब्ध होता। वेदनमें आता हुआ यह क्रोधपरिणाम जीवके सम्यक्त्वका भी घात कर उसे मिथ्यात्वभावमें स्थापित करता है। सबसे तीव्र अनुभागवाला यह चौथा क्रोधभेद है इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहाँ सूत्रके अन्तमें चार अंकका विन्यास किया है । इस प्रकार सर्वप्रथम क्रोधके चारों स्थानोंका कालकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधन करके अब इसी दिशाद्वारा शेष कषायोंके स्थानभेदोंमें भावकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधन
५. ता०प्रती [प] कोघं इति पाठः ।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ८५] सुत्तविभासा
१८३ जाणावणमुवरिमं सुत्तमाह
* एदाणुमाणियं सेसाणं पि कसायाणं कायव्वं ।
६५५. एदीए दिसाए सेसकसायाणं पि भावेण णिदरिसणोवणओ गाहासुत्ताणुसारेण णेदव्वो त्ति भणिदं होह । एवं चउण्हं सुत्तगाहाणमत्थविहासणं कादूण पयदत्थमुवसंहरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एवं चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासिदाओ भवंति।
$ ५६. एवं ताव आदीदो प्पहुडि चत्तारि सुत्तगाहाओ सोलसण्हं हाणाणं काल-भावेहिं णिदरिसणोवणए पडिबद्धाओ विहासियाओ । एदीए दिसाए सेसवारसगाहाओ वि जाणियूण विहासियव्वाओ ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो।
एवं चउट्ठाणे ति समत्तमणिओगद्दारं । श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलांछनम् ।
जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ गाथासूत्रोंके अनुसार जानना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार उदाहरणों द्वारा अनुमान करके शेष कषायोंका भी अर्थसाधन करना चाहिए।
६५५. इस दिशाद्वारा शेष कषायोंका भी भावकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधन गाथासूत्रोंके अनुसार कर लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार चार सूत्रगाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हए आगेके सूत्रको कहते हैं
* इस प्रकार चार सूत्रगाथाओंका विशेष व्याख्यान किया।
६५६. इस प्रकार सर्वप्रथम आदिसे लेकर जो चार सूत्रगाथाऐं सोलह स्थानोंके काल और भावकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधनमें प्रतिबद्ध हैं उनका विशेष व्याख्यान किया । इसी पद्धतिसे शेष बारह गाथाओंका भी जानकर विशेष व्याख्यान करना चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है।
इस प्रकार चतुःस्थान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्स
सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं सिरि-भगवंतगुरणहरभडारोवइलैं कसा य पाहुड
तस्स सिरि-वीरसेरणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्थ वंजणे ति अणियोगद्दारं
-+:+
णमो अरहंताणं वंजण-लक्खणभूसियमणंजणं तं जिणं णमंसित्ता ।
वंजणसुत्तत्थमहं समासदो वण्णइस्सामि' ॥ * वंजणे त्ति अणिओगद्दारस्स सुत्। -
जो व्यञ्जन और लक्षण चिन्होंसे विभूषित हैं और जो विगत अञ्जन हैं अर्थात् द्रव्यमल और भावमलसे रहित हैं उन जिनदेवको नमस्कारकर मैं व्यञ्जनसूत्रोंके अर्थका संक्षेपमें वर्णन करूँगा ॥१॥ .
* अब व्यञ्जन अनुयोद्वारके गाथासूत्रोंका विशेष व्याख्यान करते हैं। : १. ता प्रती वग्णइस्सामो (मि ) इति पाठः ।
२४
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वंजणं ९,
$ १. चउन्हं कसायाणमेयट्ठपरूवणमोइण्णस्स' वंजणे ति अणिओगद्दारस्स विहासण गाहासुत्तसमुक्कित्तणं कस्सामो त्ति भणिदं होइ । णवरि एदम्मि अणि - योगद्दारे पंचसुत्तगाहाओ पडिबद्धाओ 'वियंजणे पंच गाहाओ' त्ति भणिदत्तादो । तासिं जाइदुवारेणेयवयणणिसो एत्थ कओ त्ति दट्ठव्वो । एवं गाहासुत्त समुक्कित्तणं पइण्णाय तण्णिसं कुणमाणो पुच्छावक्कमिदमाह -
१८६
* तं जहा ।
$ २. सुगममेदं पुच्छावकं । एवं पुच्छाविसईकयाणं गाहासुत्ताणं पयदत्थाहियारपडिबद्धाणं जहाकममेसो सरूवणिद्देसो
(३३) कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण कलह वड्ढी य ।
झंझा दोस विवादो दस कोहेयट्टिया होंति ॥ १ ८६ ॥
$ ३. एसा पढमसुत्तगाहा कोहकसायस्स एगट्टपरूवणट्ठमागया । तं जहाक्रोधः कोपो रोषः अक्षमा संज्वलनः कलहो वृद्धिः झंझा द्वेषो विवाद इत्येते दश क्रोधपर्यायशब्दाः एकार्थाः प्रतिपत्तव्याः । तत्र क्रोध - कोप- रोषाः धात्वर्थसिद्धत्वात्
१. चारों कषायोंके पर्यायवाची नामोंका कथन करनेके लिये उपस्थित हुए व्यञ्जन इस अनुयोगद्वारका विशेष व्याख्यान करनेके लिये गाथासूत्रोंका समुत्कीर्तन करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इतनी विशेषता है कि इस अनुयोगद्वार में पाँच सूत्रगाथाऐं प्रतिबद्ध हैं, क्योंकि पहले 'वियंजणे पंच गाहाओ' इस प्रकारका वचन कह आये हैं । उनका जातिद्वारा यहाँ एकवचन निर्देश किया है ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार गाथासूत्रोंके उल्लेखकी प्रतिज्ञा करके उनका निर्देश करते हुए इस पृच्छासूत्रको कहते हैं
* वह जैसे ।
$ २. यह पृच्छावाक्य सुगम है। इस प्रकार पृच्छाके विषय किये गये तथा प्रकृत अर्थाधिकार में प्रतिबद्ध गाथासूत्रों का यथाक्रम यह स्वरूपनिर्देश है
* क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, अंज्ञा, द्वेष और विवाद arah ये दश एकार्थक नाम हैं ॥१-८६ ॥
$ ३. यह प्रथम सूत्रगाथा क्रोधकषायके एकार्थक नामोंके कथन करनेके लिये आई है । यथा- कोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, संज्ञा, द्वेष और विवाद ये दश क्रोध के पर्यायवाची शब्द एकार्थक जानने चाहिए। उनमें से क्रोध, कोप और रोष शब्द धात्वर्थनिष्पन्न होनेसे सुबोध हैं । अर्थात् उक्त तीनों शब्द क्रमसे क्रुधू, कुप और रुष धातुओंसे बने हैं, अतः जिस-जिस अर्थ में ये धातुऐं प्रसिद्ध हैं वही इन शब्दोंका अर्थ है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । क्षमारूप परिणामका न होना अक्षमा है । इसीका दूसरा नाम
१. ता० प्रती - मेयद्वाणपरूवणट्टमोइण्णस्स इति पाठः । २. ता० प्रती क्रोध (व) इति पाठः ।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
थागा ८७] माणकस्सयस्स पज्जायणामाणि
१८७ सुबोधाः। न क्षमा अक्षमा अमर्ष इत्यर्थः। सम्यक् ज्वलतीति संज्वलनः स्व-परोपतापित्वमेतेन क्रोधाग्ने प्रतिपादितम् । कलहः प्रतीत एव । वर्धन्ते अस्मात् पापायश:कलह-वैरादय' इति वृद्धिः क्रोधकषायः, सर्वेषामनर्थानां तन्मूलत्वात् । झंझा नाम तीव्रतरसंक्लेशपरिणामः, तद्धेतुत्वात् क्रोधकषायोऽपि तथा व्यपदिश्यते । द्वेषः अप्रीतिरन्तःकालुष्यमित्यर्थः । विरुद्धो वादः विवादः स्पर्द्धः संघर्ष इत्यनर्थान्तरम् । एवमेते दश पर्यायशब्दाः क्रोधकषायस्य भवन्तीति गाथार्थः ।
क्रोधः कोपो रोषः संज्वलनमथाक्षमा तथा कलहः ।
झंझा-द्वेष-विवादो वृद्धिरिति क्रोधपर्यायाः ॥ १ ॥ (३४) माण मद दप्प थंभो उक्कास पगास तध समुक्कस्सो।
अत्तुक्करिसो परिभव उस्सिद दसलक्खणो माणो ॥२-८७॥
६४. एषा द्वितीयगाथा क्रोधानन्तरनिर्देशाईस्य मानकषायस्यैकार्थनिरूपणार्थमागता । तद्यथा-मानो मदो दर्पः स्तम्भः उत्कर्षः प्रकर्षः समुत्कर्षः आत्मोत्कर्षः परिभव उत्सिक्त इत्येवं दशलक्षणो मानः प्रत्येतव्यः, दशास्य पर्यायशब्दा इत्युक्तं भवति । तत्र जात्यादिभिरात्मानं आधिक्येन मननं मानः। तैरेवाविष्टस्य सुरापीतस्येव
अमर्ष है यह इसका तात्पर्य है । जो भले प्रकार जलता है, इसलिये क्रोधका एक नाम संज्वलन है, क्योंकि यह स्व और परको संतप्त करनेवाला है। इससे क्रोध एक प्रकारकी अग्नि है यह कहा गया है । कलहका अर्थ प्रतीत ही है। इससे पाप, अयश, कलह और वैर आदि वृद्धिको प्राप्त होते हैं, इसलिए क्रोधकषायका एक नाम वृद्धि है, क्योंकि सभी अनर्थोकी जड़ क्रोध है । तीव्रतर संक्लेश परिणामका नाम झंझा है, उसका हेतु होनेसे क्रोधकषाय भी उस नामसे व्यपदिष्ट की जाती है। द्वषका अर्थ अप्रीति है, आन्तरिक कलुषता यह इसका तात्पय है। विरुद्ध वादका नाम विवाद है। स्पर्धा और संघर्ष ये इसके नामान्तर हैं। इस प्रकार ये दश क्रोधकषायके पर्यायवाची शब्द हैं यह इस गाथाका अर्थ है।
क्रोध, कोप, रोष, संज्वलन, अक्षमा, कलह, झंझा, द्वेष, विवाद और वृद्धि ये क्रोधके पर्यायवाची शब्द हैं ॥१॥
* मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव और उत्सित इन दश लक्षणवाला मान है ॥२-८७॥
४. यह दूसरी गाथा क्रोधके बाद निर्देशके योग्य मानकषायके एकार्थवाची शब्दोंके कथन करनेके लिये आई है । यथा-मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष आत्मोत्कर्ष, परिभव और उसिक्त इस प्रकार दश लक्षणवाला मान जानना चाहिए। मानके ये दश पर्यायवाची शब्द हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनमेंसे जाति आदिके द्वारा अपनेको
१. ता०प्रतो पापाशयः कलहवेरादय इति पाठः।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वंजणं ९ मदनं मदः । तदुबृंहिताहंकारस्य दर्पणं दर्पः। तदुत्थापितगर्वस्खलद्गद्गदालापस्य सभिपातावस्थस्येव स्तब्धीभवतः स्तम्भनं स्तम्भः । तथोत्कर्ष-प्रकर्ष-समुत्कर्षाः विज्ञेयाः, तेषामप्यभिमानपर्यायत्वेन रूढत्वात् । आत्मन उत्कर्षः आत्मोत्कर्षः । आत्मोत्कर्षः अहमेव जात्यादिमिरुत्कृष्टो न मत्तः परतरोऽन्योस्तीत्यध्यवसायः। परिभवनं परिभवः परावमान इत्यर्थः । आत्मोत्कर्ष-परपरिभवाभ्यामुद्गत सन्नुत्सिंचति गर्वितो भवतीत्युसिक्तः । एवमेते दश मानकषायस्य पर्यायशब्दाः ।
स्तम्भ-मद-मान-दर्प-समुत्कर्ष-प्रकर्षाश्च ।
आत्मोत्कर्ष-परिभवा उत्सित्तश्चेति मानपर्यायाः ॥ २॥ (३५) माया य सादिजोगो णियदी वि य वेचणा अणुज्जुगदा ।
गहणं मणुण्णमग्गण कक्क कुहक गृहण च्छण्णो ॥३-८८॥
६५. माया सातिप्रयोगो निकृतिवंचना अनृजुता ग्रहणं मनोज्ञमार्गणं कन्कः कुहकं निगृहनं छन्नमित्येते मायापर्यायाः । एतैः शब्दैर्वाच्यो योऽर्थः स मायाकषाय इत्युक्तं भवति । तत्र माया कपटप्रयोगः । सातियोगः कूटव्यवहारित्वं । निकृतिवंचना
अधिक मानना मान है । उन्हीं जाति आदिके द्वारा आविष्ट हुए जीवका मदिरा पान किये हुए जीवके समान उन्मत्त होना मद है। उससे अर्थात् मदसे बढ़े हुए अहंकारका दर्प होना दर्प है। सन्निपात अवस्थामें जिस प्रकार मनुष्य स्खलितरूपसे यद्वा-तद्वा बोलता है उस प्रकार मदवश उत्पन्न हुए दर्पसे स्खलित यद्वा-तद्वा बोलते हुए स्तब्ध हो जाना स्तम्भ है। उसी प्रकार उत्कर्ष, प्रकर्ष और समुत्कर्ष ये तीनों मानके पर्यायवाची नाम घटित कर लेने चाहिए, क्योंकि ये तीनों शब्द भी अभिमानके पर्यायवाचीरूपसे रूद हैं। अपने उत्कर्षका नाम आत्मोत्कर्ष है । मैं ही जाति आदिरूपसे उत्कृष्ट हूँ, मुझसे अन्य कोई दूसरा उत्कृष्ट नहीं है इस प्रकारके अध्यवसायका नाभ आत्मोकर्ष है। दूसरेको परिभवनं अर्थात् नीचा दिखाना परिभव है, दूसरेका अपमान करना यह इसका तात्पर्य है। अपने उत्कर्ष और दूसरेके परिभवके द्वारा उद्गत ( उद्धत ) होता हुआ उत्सिंचति अर्थात् गर्वित होना उसिक्त कहलाता है। इस प्रकार ये दश मानकषायके पर्यायवाची नाम हैं।
स्तम्भ, मद, मान, दर्प, समुत्कर्ष, उत्कर्ष , प्रकर्ष, आत्मोकर्ष, परिभव और उसिक्त ये मानके पर्यायवाची शब्द हैं ॥२॥
* माया, सातियोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कन्क, कुहक, गूहन और छन्न ये ग्यारह मायाकषायके पर्यायवाची नाम हैं ॥३-८॥
६५. माया, सातिप्रयोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, निगूहन और छन्न ये मायाके पर्याय हैं। इन शब्दोंके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह मायाकषाय है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनमेंसे कपटप्रयोगका नाम माया है। कुटिल व्यवहारका नाम सातियोग है। वञ्चना-ठगनेके अभिप्रायका नाम निकृति है।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८९
गाथा २० ]
लोभकसायस्स पज्जायणामाणि मिप्रायः। वंचना विप्रलम्भनं । अनृजुता योगवक्रता । ग्रहणं मनोज्ञार्थ परकीयमुपादाय निन्हवनं । गहनं चान्तर्गतवंचनाभिप्रायस्य निभृताकारेण गूढमंत्रता। मनोज्ञमार्गणं मनोज्ञस्यार्थस्य परतो मिथ्याविनयादिभिरुपचारैः स्वीकरणाभिप्रायः । कल्को दम्भः। कुहकमसद्भूत-मंत्र-तंत्रोपदेशादिभिर्लोकोपजीवनम् । निगृहनं अन्तर्गतदुराशयस्य बहिराकारसंवरणम् । छन्नं छाप्रयोगोऽतिसन्धान विश्रम्भघातादिरित्यर्थः । त एते मायापर्याया एकादश प्रतिपत्तव्याः ।
___ मायाथ सातियोगो निकृतिरथो वंचना तथाऋजुता ।
ग्रहणं मनोज्ञमार्गण-कल्क-कुहक-गूहनच्छन्नम् ॥ ३ ॥ (३६) कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज्ज दोसो य ।
णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य ॥४-८॥ (३७) सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हाय विज्ज जिब्भा य।
लोभस्त णामधेज्जा वीसं एगढ़िया भणिदा ॥५-०॥
६६. काम-राग-निदान-छंद-सुत-प्रेय-दोषप्रभृतयः त एते लोभस्य नामधेयत्वेन रूढा विंशतिरेकार्थाः शब्दाः पूर्वसूरिभिरुपवर्णिताः प्रत्येतव्याः इति संक्षेपतः सूत्रार्थः । तत्र कमनं कामः इष्टदारापत्यादिपरिग्रहाभिलाष इति प्रथमो लोभपर्यायः। रंजनं रागो विप्रलन्भनका नाम वञ्चना है। योगकी कुटिलताका नाम अनृजुता है । दूसरेके मनोज अर्थको प्राप्त कर उसका अपलाप करनेका नाम ग्रहण है। और इसका अर्थ गहन करने पर उसका तात्पर्य है-भीतरी वञ्चनाके अभिप्रायका निभृताकाररूपसे गूढ मंत्र करना। मिथ्या विनय आदि उपचारों द्वारा दसरेसे मनोज्ञ अर्थके स्वीकार करनेके अभिप्रायका नाम मनोझमागेण है । दम्भका नाम कल्क है । झूठे मन्त्र, तन्त्र और उपदेश आदि द्वारा लोकका उपजीवन करना कुहक है। भीतरी दुराशयका बाह्यमें संवरण करना ( छिपाना ) निगूहन है। छद्मप्रयोग करना छन्न है । अतिसन्धान और विश्रम्भघात आदि छन्न कहलाता है यह इसका तात्पर्य है । ये सब ग्यारह शब्द मायाके पर्यायवाची जानने चाहिए।
माया, सातियोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोहमार्गण, कल्क, कुहक, गूहन और छन्न ये मायाके पर्यायनाम हैं ॥३॥
* काम, राग, निदान, छन्द, सुत या स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शास्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा ये बीस लोभके एकार्थक नाम कहे गये हैं ॥४, ५-८९, ९१॥
६. काम, राग, निदान, छन्द, सुत, प्रेय और दोष आदि ये सब लोभके नामधेयरूपसे रूढ़ बीस एकार्थक शब्द पूर्वाचार्योद्वारा कहे गये जानने चाहिए यह संक्षेपमें गाथासूत्रोंका अर्थ है। उनमेंसे काम शब्दकी व्युत्पत्ति है-कमनं कामः । इष्ट स्त्री और इष्ट पति या पुत्र
१. ताप्रतो -प्रयोग इति सन्धानं इति पाठः ।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वंजणं ९ मनोज्ञविषयाभिष्वंग इति द्वितीयः। जन्मान्तरसम्बन्धेण निधीयते संकल्प्यत इति निदानम् । परोपभोगसमृद्धिदर्शनात् संक्लिष्टतरस्यात्मनो जन्मान्तरेऽपि कथं नामैवं भोगसम्पन्नता मे स्यादित्यनागतप्रार्थनायामभिसन्धानमित्यर्थः । छंदनं छंदो मनोऽनुकूलविषयानुबुभूषायां मनःप्रणिधानमिति यावत् । सूयतेऽभिषिच्यते विविधविषयाभिलाषकलुषसलिलपरिषेकैरिति सुतो लोभः । अथवा स्वशब्दः आत्मीयपर्यायवाची, स्वस्य भावः स्वता ममता ममकार इत्यर्थः। सास्मिन्नस्तीति स्वतो लोभः । प्रिय व इति प्रेयः । प्रेयश्चासौ दोषश्च प्रेयदोषो लोभः । कथं पुनरस्य प्रेयत्वे सति दोषत्वम् , विप्रतिषेधादिति चेत्, १ न, आह्नादनमात्रहेतुत्वापेक्षया परिग्रहाभिलाषस्य प्रेयत्वे सत्यपि संसारप्रवर्धनकारणत्वाद्दोषतोपपत्तेः । स्नेहनं स्नेहः, इष्टे वस्तुनि सानुरागं मनसः प्रणिधानमित्यर्थः । एवमनुरागोऽपि व्याख्येयः। अविद्यमानस्याथेस्याशासनमाशेत्यपरो लोभपर्यायः। अथवा आश्यति तनूकरोत्यात्मानमित्याशा लोभ इति आदि परिग्रहकी अभिलाषाका नाम काम है। यह लोभका प्रथम पर्यायनाम है। रागशव्दकी व्युत्पत्ति है-रंजनं रागः । मनोज्ञ विषयके अभिष्वंगका नाम राग है । यह लोभका दूसरा पर्यायनाम है । जन्मान्तरके सम्बन्धसे निधीयते अर्थात् संकल्प करनेका नाम निदान है। दूसरेके उपभोगकी समृद्धिके देखनेसे जो अत्यन्त संक्लेशको प्राप्त होता है तथा ऐसा विचार करता है कि मेरे जन्मान्तरमें भी इस प्रकारकी भोगसम्पन्नता कैसे होगी इस प्रकार अनागत विषयकी प्रार्थनामें अभिसन्धानका होना निदान है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। छन्द शब्दकी व्युत्पत्ति है-छन्दनं छन्दः। मनके अनुकल विषयके बार-बार भोगनेमें मनके प्रणिधानका नाम छन्द है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। नाना प्रकारके विषयोंके अभिलाषरूप कलुषित जलके सिंचनोंद्वारा सूयते अर्थात् परिसिंचित करना सुत नामका लोभ है। अथवा 'स्व' शब्द आत्मीय पर्यायका वाची है। 'स्व' का जो भाव वह स्वता कहलाता है। इससे ममता या ममकार लिया गया है। वह जिसमें है वह स्वत नामका लोभ है। जो प्रिय के समान है वह प्रेय कहलाता है। प्रेय जो दोष वह प्रेय-दोष नामका लोभ है।
शंका-इसके प्रेयरूप होनेपर दोषपना कैसे बन सकता है, क्योंकि दोनोंके एक होनेका निषेध है ?
समाधान नहीं, आह्नादन मात्र हेतुपनेकी अपेक्षा परिग्रहकी अभिलाषाके प्रेयरूप होनेपर भी संसारके बढ़ानेका कारणपना होनेसे उसमें दोषपना बन जाता है ।
स्नेह शब्दकी व्युत्पत्ति है-स्नेहनं स्नेहः । इष्ट वस्तुमें अनुराग सहित मनका प्रणिधान होना स्नेह है यह इसका तात्पर्य है। इसी प्रकार अनुरागका भी व्याख्यान करना चाहिए । अविद्यमान अर्थकी आकांक्षा करना आशा नामका दूसरा लोभका पर्यायवाची नाम है। अथवा जो आश्यति अर्थात् आत्माको कृश करता है वह आशा नामका लोभ है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। इच्छा पदकी व्युत्पत्ति है-एषणं इच्छा। बाह्य और आभ्यन्तर
१. ता०प्रतौ-याननुभषायां इति पाठः। २. ता०प्रती प्रेयो दोषो इति पाठः । ३. ता०प्रती -दोषोपपत्तेः इति पाठः । ४. ता०प्रतो तमूत्करोत्या- इति पाठः ।
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९० ]
लोभकसायरस पज्जायणामाणि
१९१
व्याख्येयम् । एषणमिच्छा, बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाभिलाष इत्यर्थः । मूर्च्छनं मूर्च्छा, तीव्रतरः परिग्रहाभिष्वंग इत्यर्थः । गर्द्धनं गृद्धिः परिग्रहेषूपात्तानुपात्तेष्वतितृष्णेत्यर्थः । $ ७. साम्प्रतं द्वितीयगाथार्थ उच्यते । 'सासण-पत्थण- लालसेत्यादि - सहाशया वर्तत इति शासस्तस्य भावः साशता, सस्पृहता सतृष्णतेत्ययमपरो लोभपर्यायः । अथवा शश्वद्भवः शाश्वतो लोभः । कथं पुनरस्य शाश्वतिकत्वमिति चेदुच्यतेपरिग्रहोपादानात्प्राक्पश्चाच्च सर्वकालमनपायात् शाश्वतो लोभः । aayi प्रार्थना धनोपलिप्सेत्यर्थः । लालसा गृद्धिरित्यनर्थान्तरम् । विरमणं विरतिः । न विद्यते विरतिरस्येति अविरतिः । अथवा अविरमणमविरतिरसंयम इत्यनर्थभेदः । तद्धेतुत्वादविरतिर्लोभ परिणामः, सर्वेषामेव हिंसानामविरमणभेदानां लोभकषायनिबन्धनत्वादिति । तर्षणं तृष्णा विषयपिपासेत्यर्थः । 'विज्ज जिब्भा य' विद्या जिह्वेत्यपि तस्यैव पर्यायद्वयमवगन्तव्यम् । तद्यथा— - वेदनं विद्या लोभ इत्यर्थः, तदधीनजन्मत्वाल्लोभोऽपि तथोपचर्यते, 'लोभो लामेन वर्धते' इति वचनात् । अथवा ' विद्येव विद्या । क इहोपपरिग्रहकी अभिलाषाका नाम इच्छा है यह इसका तात्पर्य है । मूर्च्छा पदकी व्युत्पत्ति हैमूर्च्छनं मूर्च्छा । परिग्रहसम्बन्धी अति तीव्र अभिष्वंगका नाम मूर्च्छा है यह इसका तात्पर्य है । गृद्धि की व्युत्पत्ति है - गर्द्धनं गृद्धिः । उपात्त और अनुपात्त परिग्रहोंमें, अत्यधिक तृष्णाका नाम गृद्धि है यह इसका अर्थ है ।
.4 62
§ ७. अब सासण-पत्थण-लालसा इत्यादि दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं- आशाके साथ जो रहता है वह शास कहलाता है और उसके भावका नाम शासता है । स्पृहा सहितपना और तृष्णा सहितपना इसका तात्पर्य है । यह लोभका दूसरा पर्यायनाम है । अथवा जो शश्वत हो वह शाश्वत कहलाता है । यह भी लोभका एक नाम है ।
शंका – इसका शाश्वतिकपना कैसे बन सकता है ?
७.
समाधान - परिग्रहके ग्रहण करनेके पहले और बादमें सदा बना रहनेके कारण लोभ शाश्वत कहलाता है ।
1
प्रकृष्टरूपसे अर्थन अर्थात् चाहना प्रार्थना है, प्रकृष्टरूपसे धनकी चाह करना यह इसका अर्थ है । लालसा और गृद्धि ये एकार्थवाची शब्द हैं। विरति शब्दकी व्युत्पत्ति हैविरमणं विरतिः । जिसमें विरति नहीं है उसका नाम अविरति है । अथवा अविरति शब्दकी व्युत्पत्ति है - अविरमणं अविरतिः । अविरति और असंयम इनमें अर्थभेद नहीं है । उसका हेतु होनेसे अविरति लोभपरिणामस्वरूप है, क्योंकि हिंसासम्बन्धी अविरमण अर्थात् अविरतिके सभी भेद लोभकषायनिमित्तक होते हैं। तृष्णा शब्दकी व्युत्पत्ति है - तर्षणं तृष्णा । विषयसम्बन्धी पिपासाका नाम तृष्णा है यह इसका तात्पर्य है । विद्या और जिह्वा ये दोनों भी लोभके ही दो पर्याय नाम जानने चाहिए । यथा - विद्याकी व्युत्पत्ति है- वेदनं विद्या । यहाँ पर विद्या पदसे लोभ लिया गया है यह इसका अर्थ है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति वेदनके अधीन है, इसलिये लोभ भी विद्यारूपसे उपचरित किया गया है । लोभ लाभसे बढ़ता है
१. ता० प्रती - पादात्प्राक्पश्चाच्च इति पाठः । २. ता० प्रती अथवा इति पाठो नास्ति ।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चउट्ठाणं ८ मार्थः १ दुराराधत्वम् । एवं जिह्वव जिह्वेत्यसंतोषसाधर्म्यमाश्रित्य लोभपर्यायत्वं वक्तव्यम् । एवमेते लोभकषायस्य विंशतिरेकार्थाः पर्यायाः शब्दाः व्याख्याताः ।
कामो रागनिदाने छंद सुता प्रेय दोषनामानः । स्नेहानुराग आशा मूर्च्छच्छागृद्धिसंज्ञाश्च ॥ ४ ॥ साशता प्रार्थना तृष्णा लालसाविरतिस्तथा । विद्या जिह्वा च लोभस्य पर्यायाः विंशतिः स्मृताः ॥ ५ ॥
. एवं वंजणे ति समत्तमणिओगद्दारं ।
ऐसा वचन भी है । अथवा विद्याके समान होनेसे लोभका नाम विद्या है।
शंका-प्रकृतमें उपमारूप अर्थ क्या है ? .. समाधान दुराराधपना प्रकृतमें उपमार्थ है। अर्थात् जिस प्रकार विद्याकी आराधना कष्टसाध्य होती है उसी प्रकार लोभका आलम्बनभूत भोगोपभोग कष्टसाध्य होनेसे प्रकृतमें लोभको कष्टसाध्य कहा गया है।
इसी प्रकार लोभ जिह्वाके समान होनेसे जिह्वास्वरूप है, यहाँ असंतोषरूप साधर्म्यका आश्रयकर जिह्वा लोभका पर्यायवाची नाम है ऐसा कहना चाहिए। इस प्रकार लोभके इन एकार्थवाची शब्दोंका व्याख्यान किया।
काम, राग, निदान, छन्द, सुत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, मूर्छा, इच्छा, गृद्धि, साशत, प्रार्थना, तृष्णा, लालसा, अविरति, विद्या और जिह्वा ये बीस लोभके पर्यायवाची नाम स्मृत किये गये हैं।
इस प्रकार व्यंजन नामका अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्समण्णिदं सिरि-भगवंतगुरणहरभडारोवइलैं
कसा य पाहु डं
तस्स
सिरि-वीरसेरणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्य सम्मत्तमणिओगद्दारं
-+ +
णमो अरहंताणं पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणहरवसहं । दुसहपरीसहविसहं जइवसहं धम्मसुत्तपाढरवसहं ॥१॥ इय पणमिय जिणणाहे गणणाहे तह य व मुणिणाहे ।
सम्मत्तसुद्धिहेउं वोच्छं सम्मत्तमहियारं ॥२॥ जिनवरवृषभ, गणधरवृषभ, गुणधरवृषभ और दुःसह परीषहोंको जीतनेवाले तथा धर्मसूत्रके पाठकोंमें श्रेष्ठ ऐसे यतिवृषभको तुम सब प्रणाम करो ॥१॥
इस प्रकार जिननाथ, गणनाथ और मुनिनाथको प्रणाम कर सम्यक्त्वशुद्धिके निमित्तरूप सम्यक्त्व अधिकारका मैं कथन करता हूँ ॥२॥
१. ताप्रती पाठरवसहं इति पाठः ।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० * कसायपाहुडे सम्मत्ते त्ति अणिओगद्दारे अधापवत्तकरणे इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयव्वाओ।
११. एदस्स सम्मत्तसण्णिदमहाहियारस्स उवक्कमादिभेयभिण्णचउविहावयारपरूवणट्ठमेदं सुत्तमागयं । तं जहा, चउन्विहो एत्थावयारो-उवक्कमो णिक्खेवो भयो अणुगमो चेदि । तत्थ उवक्कमो पंचविहो—आणुपुब्बी णामं पमाणं वत्तव्वदो अत्थाहियारो चेदि । तत्थाणुपुब्वी तिविहा पुव्वाणुपुव्वीआदिभेदेण । एत्थ पुव्वाणुपुवीए दसमो एसो अत्थाहियारो । पच्छाणुपुव्वीए छट्ठो। जत्थ-तत्थाणुपुवीए अणिद्धारिदसंखाविसेसो एसो अस्थाहियारो त्ति वत्तव्वं । णामं पमाणं च सुगम । वत्तव्वदा ससमयो तदुभयं वा, सम्मत्तपरूवणाए तप्पडिवक्खपरूवणाविणाभावित्तादो। अत्थाहियारो दुविहो—दसणमोहस्सुवसामणा खवणा चेदि, दोण्हमेदेसिं सम्मत्ताहियारजोणित्तादो। णिक्खेव-णयोवक्कमपरूवणा जाणिय कायव्वा ।।
२. इदाणिमणुगमं वत्तइस्सामो । को अणुगमो णाम ? पयदाहियारस्स वित्थारपरूवणटुं तदवलंबणीभूदगाहासुत्ताणुसरणमणुगमो त्ति इह विवक्खिओ। यदाह'अधापवत्तकरणे इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयव्वाओ' ति । एतदुक्तं भवतिसम्मत्ते त्ति अणियोगद्दारस्स अत्थविहासणे कीरमाणे दंसणमोहस्सुवसामणा पुव्वमेव
* कषायप्राइतके सम्यक्त्व नामक अनुयोगद्वारके अन्तर्गत अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी इन चार सूत्रगाथाओंका कथन करना चाहिए।
१. इस सम्यक्त्वसंज्ञक महाधिकारके उपक्रम आदि भेदरूप चार प्रकारके अवतारका कथन करनेके लिये यह सूत्र आया है । यथा-प्रकृतमें अवतार चार प्रकारका है-उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम। उनमेंसे उपक्रम पाँच प्रकारका है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । उनमेंसे पूर्वानुपूर्वी आदिके भेदसे आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है। प्रकृत में पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा यह दसवाँ अर्थाधिकार है, पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा यह छटा अर्थाधिकार है और यत्र-तत्रानुपूर्वीकी अपेक्षा अनिर्धारित संख्यावाला यह अर्थाधिकार है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिए। नाम और प्रमाण ये दोनों सुगम हैं। वक्तव्यता स्वसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता जानना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्वकी प्ररूपणा उसकी प्रतिपक्ष प्ररूपणाके अविनाभावस्वरूप है। अर्थाधिकार दो प्रकारका है-दर्शनमोहोपशामना और दर्शनमोहक्षपणा, क्योंकि ये दोनों अर्थाधिकार सम्यक्त्व अधिकारके योनिस्वरूप हैं। निक्षेप, नय और उपक्रमका विशेष कथन जानकर करना चाहिए।
६२. अब अनुगमको बतलाते हैं। शंका-अनुगम किसे कहते हैं ?
समाधान—प्रकृत अधिकारका विस्तारपूर्वक कथन करनेके लिये उसके अवलम्बनस्वरूप गाथासूत्रोंके अनुसरण करनेको अनुगम कहते हैं ऐसा अर्थ प्रकृतमें विवक्षित है। जैसा कि कहा है-'अधःप्रवृत्तकरणके विषयमें इन चार सूत्र गाथाओंका कथन करना चाहिए।' इसका यह तात्पर्य है-सम्यक्त्व इस अधिकारके अर्थका विशेष व्याख्यान करने पर दर्शन
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९१] दसणमोहोवसामणा
१९५ परूवेयव्वा, तत्थेव सम्मत्तुप्पत्तिववहारस्स रूढत्तादो। तत्थ य पण्णारस सुत्तगाहाओ गुणहराइरियमुहकमलविणिग्गयाओ पडिबद्धाओ। तत्थ वि तिण्णि करणाणि अधापवत्तकरणादिभेदेण । तेसिं लक्खणं पुरदो भणिस्सामो।
३. तत्थ ताव अधापवत्तकरणे इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ पण्णारस-मूलगाहाबहिन्भूदाओ। तस्सेव दंसणमोहोवसामगस्स तदहिमुहावत्थापरूवणप्पियाओ पुव्वमेत्थ परूवेयव्याओ, तप्परूवणाए विणा पण्णारसमूलगाहाणमत्थविहासाए अणवयारादो ति एत्थ जइ वि सामण्णेण अधापवत्तकरणे इमाओ सुत्तगाहाओ परूवेयव्वाओ त्ति वुत्तं . तो वि अधापवत्तकरणपढमसमए इमाओ परूवेयव्वाओ त्ति वक्खाणेयव्वं । कुदो ? एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणपढमसमए परूविदाओ त्ति पुरदो भणिस्समाणचुण्णिसुत्तणिबंधोवसंहारवक्कादो तारिसविसेसणिण्णयोवलद्धीए । संपहि काओ ताओ गाहाओ त्ति आसंकाए पुच्छापुव्वमुत्तरं पबंधमाह
* तं जहा।
६४. सुगममेदं गाहासुत्तावयारावेक्खं पुच्छावक्कं । एवं पुच्छाविसईकयाणं गाहासुत्ताणं जहाकममेसो सरूवणिद्देसो(३८) दंसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे ।
जोगे कसायउवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥१॥ मोहोपशामनाका सर्वप्रथम कथन करना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिरूप व्यवहार उसीमें रूढ़ है । उसमें गुणधर आचार्यके मुखकमलसे निकली हुई पन्द्रह सूत्रगाथाएं प्रतिबद्ध हैं। उसमें भी अधःप्रवृत्तकरण आदिके भेदसे ये तीन करण होते हैं। उनके लक्षणोंका कथन आगे करेंगे।
३. उनमें सर्वप्रथम अधःप्रवृत्तकरणके विषयमें ये चार सूत्रगाथाएं हैं जो पन्द्रह मूल गाथाओंसे बहिर्भूत हैं । वे दर्शनमोहका उपशम करनेवाले उसी जीवके उसके अभिमुख होनेरूप अवस्थाका प्ररूपण करती हैं, उनका सर्वप्रथम यहाँ प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि उनका प्ररूपण किये विना पन्द्रह मूलगाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान नहीं हो सकता । इस प्रकार यहाँपर यद्यपि अधःप्रवृत्तकरणके विषयमें इन सूत्रगाथाओंका कथन करना चाहिए ऐसा सामान्यरूपसे कहा है तो भी अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें इनका कथन करना चाहिए ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि ये चार सूत्रगाथाएं अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके विषयमें कही गई हैं ऐसा आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसम्बन्धी उपसंहार वाक्यसे उक्त प्रकारके विशेष निर्णयको उपलब्धि होती है। अब वे कौन-सी गाथाएँ हैं ऐसी आशंका होनेपर पृच्छापूर्वक उत्तर प्रबन्धको कहते हैं- .
* वह जैसे ।
६४. गाथासूत्रोंके अवतारकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छावाक्य सुगम है। इस प्रकार पृच्छाके विषयरूपसे विवक्षित गाथासूत्रोंका क्रमसे यह स्वरूपनिर्देश है।
* दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है, किस योग, कषाय और उपयोगमें विद्यमान उसके कौनसी लेश्या और वेद होता है ॥९१॥
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ५. एसा गाहा सणमोहउवसामगस्स तदुम्मुहावत्थाए पयट्टमाणस्स परिणामविसेसपरूवणटुं तस्सेव जोग-कसायोवजोग-लेस्सा-वेदभेदाणं च परूवणट्ठमोइण्णा । तत्थ ताव पुव्वद्धण' 'दसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे', किं विसुद्धो विसुद्धयरो संकिलिट्ठो संकिलिट्ठयरो वा ति विसोहि-संकिलेसावेक्खो पुच्छाणिद्देसो कओ दट्ठव्यो । पच्छद्धेण वि 'जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे' किमविसेसेण सव्वेसिमेव जोगकसायोवजोगादिमेदाणमेदस्स संभवो, आहो अत्थि को विसेसो त्ति तव्विसयविसेसणिण्णयावेक्खो पुच्छाणिद्देसो कओ होइ । एवं पुच्छिदत्थविसयविसेसणिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंधेण कस्सामो, सुत्तसिद्धस्स अत्थस्स पुध परूवणाए फलविसेसाणुवलंभादो। एवं ताव पढमगाहाए संखेवेणुत्थाणत्थपरूवणं काढूँण संपहि विदियगाहाए अवयारं कस्सामो(३८) काणि वा पुव्वबद्धाणि के वा अंसे णिबंधदि।
कदि आवलियं पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो॥२॥
६६. एसा विदिया गाहादसणमोहउवसामगस्स णाणावरणादिकम्माणं संतकम्मबंधोदयावलियपवेसोदीरणाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविसयाणं पुच्छामुहेण परुवटुं ओइण्णं । तं जहा—'काणि वा पुव्यबद्धाणि' त्ति एसो सुत्तस्स पढमावयवो, सव्वेसिं
५. दर्शनमोहके उपशमके सन्मुख हुई अवस्थामें प्रवृत्त हुए दर्शनमोहके उपशामक जीवके परिणामविशेषका कथन करनेके लिये तथा उसीके योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेदके भेदोंका कथन करनेके लिये यह गाथा आई है। उनमेंसे सर्व प्रथम पूर्वार्धके 'दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है। इस वचन द्वारा क्या विशुद्ध होता है, या विशुद्धतर होता है, संक्लिष्ट होता है या संक्लिष्टतर होता है ? इस प्रकार विशुद्धि और संक्लेशको अपेक्षा पृच्छाका निर्देश किया हुआ जानना चाहिए । तथा उत्तरार्धके 'किस योग, कषाय और उपयोगमें विद्यमान उसके लेश्या और वेद कौनसा होता है इस वचनद्वारा क्या सामान्यसे सभी योग, कषाय, और उपयोगादिके भेद इसके सम्भव हैं या कोई विशेषता है इस प्रकार उक्त पृच्छाविषयक विशेष निर्णयकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छाका निर्देश किया है। इस प्रकार पूछे गये अर्थका विशेष निर्णय आगे चूर्णिसूत्रके सम्बन्धसे करेंगे, क्योंकि सूत्रसिद्ध अर्थकी पृथक् प्ररूपणामें फलविशेष नहीं पाया जाता। इस प्रकार सर्व प्रथम प्रथम गाथा द्वारा संक्षेपसे उत्थानिकारूप अर्थका कथन करके अब दूसरी गाथाका अवतार करते हैं
* दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके पर्वबद्ध कर्म कौन-कौन हैं, वर्तमानमें किन कर्माशोंको बाँधता है, कितने कर्म उदयावलिमें प्रवेश करते हैं और यह किन कर्मोका प्रवेशक होता है ॥९२॥
६. यह दूसरी गाथा दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके ज्ञानावरणादि कर्मसम्बन्धी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक सत्कर्म, बन्ध, उदयावलिप्रवेश और उदीरणाका पृच्छामुखसे कयन करनेके लिये आई है। यथा-'काणि वा पुत्वबद्धाणि' यह
१. ताप्रती पुव्वद्धण वि इति पाठः । २. ता०प्रती-विसे सियाणं इति पाठः।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
थागा ९३ ]
दंसणमोहोवसामणां
१९७
कम्माणं पयडि-ट्ठिदि-अणु भाग-पदेससंतकम्मपरूवणाए पडिबद्धो । कधं पुण 'काणि वा पुव्वबद्धाणि' ति सामण्णणिदेसेण पयडि-ट्ठिदि- अणुभाग-पदेसविसेसोवलद्धी होदित्ति ? दमेत्थासंकणिज्जं, सामण्णणिसे सव्वेसिं विसेसाणं संगहे विरोहाभावादो । 'के वा अंसे णिबंधदि' ति एसो सुत्तस्स विदियावयवो तेसिं चेत्र पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसविसेसियणवगबंधसरूवणिरूवडमोइण्णो, अंससद्दस्स पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेसविसेसवाचिणो इह गहणादो । 'कदि आवलियं पविसंति त्ति एसो सुत्तस्स तदियावयवो सव्वेसिमेव कम्माणं मूलुत्तरपयडिमेयभिण्णाणं ट्ठिदिक्खयजणिदोदयावलिय पवेसगवेसणवणवद्धो । उदयाणुदयसरूवेण उदयावलियं पविसमाणपयडिगवेसणे एसो सुत्तावयवो पडिबद्धो त्ति भावत्थो । 'कदिण्डं वा पवेसगो' एसो चउत्थो गाहासुतावयवो सव्वेसिं कम्माणमुदीरणामुहेण उदयावलियं पवेसिज्जमाणपयडीणं परूवणाए पडिबद्धो । एदं च सव्वं पुच्छासुतं । एदिस्से पुच्छाए णिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंघेण कस्सामो । संपहि तदियगाहाए अवयारं कस्सामो ।
(४०) के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा ।
अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ॥ ६३ ॥
गाथासूत्रका प्रथम अवयव सभी कर्मोंके प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मके कथन करनेमें प्रतिबद्ध है ।
शंका- 'पूर्वबद्ध कर्म कौन हैं' इस प्रकार सामान्य निर्देश द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविशेषकी उपलब्धि कैसे होती है ?
समाधान – यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, सामान्य निर्देशमें सभी विशेषोंका संग्रह होने में कोई विरोध नहीं आता ।
'के वा अंसे णिबंधदि' यह गाथासूत्रका दूसरा अवयव उन्हीं कर्मोंके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविशेषरूप नवकबन्धके स्वरूपके निरूपणके लिये आया है, क्योंकि यहाँ पर अंश शब्द प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविशेषका वाची ग्रहण किया गया है । 'कदि आवलियं पविसंति' यह गाथासूत्रका तीसरा अवयव मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक प्रकारके सभी कर्मों के स्थितिक्षयजन्य उदयावलिप्रवेशके अनुसंधानके लिये निबद्ध किया गया है । उदय और अनुदयरूपसे उदयावलिमें प्रवेश करनेवाली प्रकृतियोंके अनुसंधान में गाथासूत्रका यह अवयव प्रतिबद्ध है यह इसका भावार्थ है । 'कदिण्डं वा पवेसगो' गाथासूत्रका यह चौथा अवयव सभी कर्मोंकी उदीरणा द्वारा उदयावलिमें प्रविष्ट कराई जानेवाली प्रकृतियोंकी प्ररूपणामें प्रतिबद्ध है । यह सब पृच्छासूत्र है। इस पृच्छाका निर्णय आगे चूर्णिसूत्रके सम्बन्धसे करेंगे । अब तीसरी गाथाका अवतार करते हैं
दर्शनमोहके उपशमके सन्मुख होनेपर पूर्व ही बन्ध और उदयरूपसे कौनसे कर्मांश क्षीण होते हैं ? आगे चलकर अन्तरको कहाँ पर करता है और कहाँ पर किन-किन कर्मोंका
१. ता० प्रती - गवेसणो इति पाठः ।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगहारं १० ७. एसा तदियसुत्तगाहा पुव्वद्धेण सव्वेसि कम्माणं पयडि-द्विदि-अणुभागपदेसविसेसिदबंधोदएहिं झीणाझीणत्तगवेसणट्ठमागया। के कर्मांशाः प्रकृति-स्थित्यनुभवे-प्रदेशविशेषिताः दर्शनमोहोपशमनोन्मुखावस्थायां पूर्वमेव भीयन्ते, के वा न क्षीयन्त इति सूत्रे पदसम्बन्धावलंबनात् । तहा पच्छद्धेण वि पुरदो भविस्समाणमंतरं कम्हि उद्देसे होइ, केसि वा कम्माणं कम्हि उद्देसे एसो उवसामगो होदि त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स पुच्छामुहेण परूवणाए पडिबद्धा । एवंविहाणं च पुच्छाणिद्देसाणं णिरारेगीकरणमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंधेण कस्सामो । संपहि जहावसरपत्ताए चउत्थगाहाए एसो अवयारो(४१) किं टिदियाणि कम्माणि अणुभागेमु केसु वा।
ओवहिदूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥४॥
$ ८. एदिस्से चउत्थगाहाए पुव्वद्धण विदियगाहाए परूविदद्विदि-अणुभागसंतकम्माणं पुच्छामुहेणाणुवादं कादूर्ण तदो पच्छद्रेण हिदि-अणुभागखंडयपरूवणाए बीजपदमुवइ8 । दसणमोहउवसामगो कम्हि उद्देसे काणि हिदि-अणुभागविसेसिदाणि कम्माणि ओवट्टेयूण कं ठाणमवसेसं पडिवज्जइ, द्विदीए केत्तिए भागे विणासेयूण कइत्थं भागं उपशामक होता है ? ॥१३॥
$ ७. यह तीसरी गाथा पूर्वार्ध द्वारा सभी कर्मोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविशिष्ट बन्ध और उदयरूपसे झीण-अक्षीणपनेके अनुसन्धान करनेके लिए आई है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविशिष्ट कौनसे कांश दर्शनमोहके उपशनके सन्मुख होनेकी अवस्था में पहले ही क्षीण हो जाते हैं और कौनसे कर्म क्षीण नहीं होते हैं इस प्रकार सूत्रमें पदोंके सम्बन्धका अवलम्बन लिया है। तथा उत्तरार्धद्वारा भी आगे होनेवाला अन्तर किस स्थान पर होता है और किन कर्मोंका किस स्थानपर यह उपशामक होता है इस तरह इस प्रकारका अर्थविशेष पृच्छाद्वारा प्ररूपणामें प्रतिबद्ध है। तथा इस प्रकारके पृच्छानिर्देशोंका खुलासा आगे चूर्णिसूत्रके सम्बन्धसे करेंगे। अब क्रमसे अवसर प्राप्त चौथी गाथाका यह निर्देश है
__* दर्शनमोहका उपशम करनेवाला जीव किस स्थितिवाले कर्मोंका तथा किन अनुभागोंमें स्थित कर्मोंका अपवर्तन करके शेष रहे उनके किस स्थानको प्राप्त होता है ॥१४॥
८. इस चौथी गाथाके पूर्वार्धद्वारा दूसरी गाथामें कहे गये स्थितिसत्कर्मों और अनुभाग सत्कर्मोंका पृच्छाद्वारा अनुवाद करके अनन्तर उत्तरार्ध द्वारा स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकसम्बन्धी प्ररूपणाके बीजपदका निर्देश किया है। दर्शनमोहका उपशामक जीव किस स्थानपर स्थितिविशेष और अनुभागविशेषसे युक्त किन कर्मोंका अपवर्तन कर अवशिष्ट किस स्थानको प्राप्त होता है, क्योंकि स्थितिके कितने भागोंका विनाश कर कितने
१. ता०प्रतौ -स्थित्यनुभाव इति पाठः ।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
१९९ परिसेसेइ, अणुभागस्स वा केत्तिये भागे ओवट्टेदूण केवडियं भागमुवसेसेदि त्ति सुत्तत्थसंबंधावलंबणादो । एवमेदेसिं गाहासुत्ताणमुत्थाणत्थपरूवणं कादूण संपहि एदेसि वित्थारत्थपरूवणट्ठमुत्तरं चुण्णिसुत्तपबंधमणुसरामो ।
* एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पढमसमए परूविदवाओ।
६९. एवं भणंतस्सायमहिप्पाओ-एदाओ सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणपढमसमयादो हेहिमोवरिमावत्थासु पडिबद्धत्थपरूवणाए णिबद्धाओ। तम्हा दोण्हमवट्ठाणं साहारणभावेण मज्झावत्थाए मज्झदीवयसरूवेणेदासिं परूवणं कायव्वमिदि जाणावणट्ठमेदाओ गाहाओ अधापवत्तकरणपढमसमए परूवेयव्वाओ त्ति भणिदं होइ। संपहि 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' त्ति णायमवलंबिय पढमं ताव पढमगाहामुत्तत्थं विहासिदुकामो इदमाह
* तंजहा।
१०. सुगमं । * 'दंसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे' त्ति विहासा।
११. एदस्स ताव पढमगाहापुव्वद्धस्स अत्थविहासा एण्हिमहिकीरदि त्ति वुत्तं होइ। भागको शेष बचाता है तथा अनुभागके कितने भागोंका अपवर्तन कर कितने भागको शेष बचाता है इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्धका अवलम्बन लिया गया है। इस प्रकार इन गाथासूत्रोंके उत्थानिकारूप अर्थका कथन कर अब इनके विस्तारपूर्वक अर्थका कथन करनेके लिए आगेके चूर्णिसूत्रके प्रबन्धका अनुसरण करते हैं___ * ये चार सूत्रगाथाएँ अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें कहनी चाहिए।
६९. ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है-ये सूत्रगाथाएँ अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे पूर्वकी और बादकी अवस्थाओंमें प्रतिबद्ध अर्थको प्ररूपणा करनेमें निबद्ध हैं, इसलिये दोनों अवस्थाओंके लिये साधारण ऐसी मध्यकी अवस्थामें मध्यदीपकरूपसे इनका कथन करना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिये ये गाथाएं अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें कथन योग्य हैं यह कहा है । अब 'उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायका अवलम्बन लेकर सर्वप्रथम प्रथम गाथासूत्रके अर्थका विशेष व्याख्यान करनेकी इच्छासे इसे कहते हैं
* वह जैसे। $ १०. यह सूत्र सुगम है। * 'दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है ?' इसकी विभाषा ।
$ ११. सर्वप्रथम प्रथम गाथाके इस पूर्वाधके अर्थका विशेष व्याख्यान इस समय अधिकृत करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० * तं जहा। $ १२. सुगमोऽयं यथाप्रतिज्ञातार्थविषयः प्रश्नोपन्यासः । * परिणामो विसुद्धो।।
६ १३. दंसणमोहउवसामगस्स परिणामो विसुद्धो चेव होइ, गाविसुद्धो त्ति सुत्तत्थसंबंधो। विशुद्धतरोऽस्य परिणाम इत्युक्तं भवति । अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसयमधिकृत्यैतत्प्रतिपादितं भवति । न केवलमधःप्रवृत्तकरणप्रारंभसमय एवास्य परिणामो विशुद्धिकोटिमवगाढः, अपि तु प्रागप्यन्तर्मुहूर्तात्प्रभृति विशुध्यन्नेवायमागत इति प्रदर्शनार्थमुत्तरसूत्रमासूत्रयत् सूत्रकारः___ * पुव्वं पि अंतोमुहुत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो आगदो।
१४. कुत एवमिति चेत् ? मिथ्यात्वग दतिदुस्तरादात्मानमुद्धर्तुमनसोऽस्य सम्यक्त्वरत्नमलब्धपूर्वमासिसादयिषोः प्रतिक्षणं क्षयोपशमोपदेशलब्ध्यादिभिरुपबृंहितसामर्थ्यस्य संवेग-निर्वेदाभ्यामुपर्युपरि उपचीयमानहर्षस्य समयं प्रत्यनन्तगुणविशुद्धिप्रतिपत्तेरविप्रतिषेधात् ।
* वह जैसे। ६ १२. यथा प्रतिज्ञात अर्थको विषय करनेवाला यह प्रश्नका उपन्यास सुगम है। * परिणाम विशुद्ध होता है। .
६ १३. दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम विशुद्ध ही होता है, अविशुद्ध नहीं होता इस प्रकार सूत्रका अथके साथ सम्बन्ध है । इसका परिणाम विशुद्धतर होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयको अधिकृत कर यह कहा है। केवल अधःप्रवृत्तकरणके प्रारम्भके समयमें ही इसका परिणाम विशुद्धिरूप कोटिको स्पर्श नहीं करता, किन्तु इसके पूर्व ही अन्तर्मुहूर्तसे लेकर विशुद्ध होता हुआ वह आया है इस बातको बतलानेके लिये सूत्रकारने इस सूत्रकी रचना की है
* अधःप्रवृत्तकरणके पूर्व ही अन्तर्मुहूर्तसे लेकर अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ वह आया है।
5 १४. शंका-ऐसा किस कारणसे है ?
समाधान-क्योंकि जो अति दुस्तर मिथ्यात्वरूपी गर्तसे उद्धार पानेके मनवाला है, जो अलब्धपूर्व सम्यक्त्वरूपी रत्नको प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छावाला है, जो प्रति समय क्षयोपशमलब्धि और देशनालब्धि आदिके बलसे वृद्धिंगत सामर्थ्यवाला है और जिसके संवेग
और निर्वेदके द्वारा उत्तरोत्तर हर्ष में वृद्धि हो रही है उसके प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिकी प्राप्ति होनेका निषेध नहीं है।
विशेषार्थ-संसारी जीवके मिथ्यात्वको भूमिकामें सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेके सन्मुख होनेकी पूर्व तैयारी किस प्रकारकी होती है यह यहाँ स्पष्टरूपसे बतलाया गया है। संसार
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दसणमोहोवसामणा
२०१ १५. एवं ताव गाहापुव्वद्धमस्सियूण परिणामस्स विसुद्धभावं पदुप्पाइय संपहि गाहापच्छद्धावलंबणेण जोगादिविसेसपरूवणटुं सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* जोगे त्ति विहासा।
१६. जोगे त्ति' पदस्स एण्हि अत्थविहासा कीरदि त्ति भणिदं होइ ।
* अण्णदरमणजोगो वा अण्णदरवचिजोगो वा ओरालियकायजोगो वा वेउव्वियकायजोगो वा। और संसारके कारणोंके प्रति जिसके चित्तमें उदासीनता आई है वही जीव सम्यग्दर्शनका प्राप्त करनेका अधिकारी है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए यहाँ सर्व प्रथम यह बतलाया गया है कि जो अति दुस्तर मिथ्यात्वरूपी गर्त में से निकलना चाहता है। किन्तु इतना विचार करने मात्रसे कि संसार और संसारके कारण हितकर नहीं, इस जीवको संसारसे छुटकारा नहीं मिल सकता । इसके लिये उसके चित्तमें निरन्तर मोक्ष और मोक्षके कारणोंके प्रति उत्तरोत्तर भीतरसे आदरभाव होना चाहिए। यह तभी सम्भव है, जब कि यह जीव मिथ्यात्वसेवनके कारणरूप बाह्य साधन कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्रोंकी सेवा-अध्ययन आदि छोड़कर परमार्थस्वरूप देव, गुरु और परमागमकी सेवा-स्वाध्याय आदिमें सावधान बने । जब भीतरसे यह जीव हर्षातिरेकसे आपूरित होकर परमार्थस्वरूप देव और गुरुकी उपासना तथा परमागमके श्रवण-मननमें निरन्तर सावधान रहता है तब उसके उत्तरोत्तर परिणामोंमें विशुद्धि होकर भीतर क्रिया-परिणाम द्वारा जो बाह्य लाभ होता है उस लाभको ही परमागममें चार लब्धियोंकी प्राप्ति कहा है। वे चार लब्धियाँ ये हैं-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि
और प्रायोग्यलब्धि । उनका स्वरूप इस प्रकार है-परिणामोंकी विशुद्धिवश पूर्वमें संचित हुए कर्मोंके अनुभागस्पर्धकोंके प्रति समय अनन्तगुणे हीन होकर उदीरित होनेका नाम क्षयोपशमलब्धि है। प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन होकर उदीरणाको प्राप्त हुए अनुभाग स्पर्धकोंके निमित्तसे ऐसे परिणामोंका होना जो साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धके निमित्त हैं और असाता आदि अशुभ कर्मोके बन्धके विरुद्ध हैं, विशुद्धिलब्धि है । छह द्रब्य और नौ पदार्थोके उपदेशका नाम देशना है । उस देशनासे परिणत आचार्य आदिको उपलब्धि तथा उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण और विचार करनेरूप शक्तिकी प्राप्तिका नाम देशनालब्धि है। तथा सब कोकी.उत्कष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागका घात कर उन्हें क्रमसे अन्तःकोडाकोडी सागरोपमप्रमाण स्थितिके भीतर और द्विस्थानीय अनुभागमें स्थापित करना प्रायोग्यलब्धि है। जो जीव उक्त चार लब्धियोंके सद्भावमें अन्तस्तत्त्वके मननपूर्वक उत्तरोत्तर परिणामोंकी विशुद्धिद्वारा सम्यक्त्व ग्रहणके सन्मुख हो वह अधःकरण परिणामोंको प्राप्त होता है, उसके इन चार लब्धियोंका सद्भाव नियमसे होता है यह समग्र कथनका तात्पर्य है।
६ १५. इस प्रकार सर्व प्रथम गाथाके पूर्वार्धका आश्रय कर परिणामकी विशुद्धिका कथन कर अब गाथाके उत्तरार्धके अवलम्बन द्वारा योग आदि विशेषोंका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* 'योग' इस पदकी विभाषा ।
$ १६. इस समय 'योग' इस पदका विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* अन्यतर मनोयोग, अन्यतर वचनयोग, औदारिक काययोग या वैक्रियिक काययोगहोता है।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० ६ १७. जोगो णाम जीवपदेसाणं कम्मादाणणिबंधणो परिप्फंदपज्जाओ। सो च तिविहो-मणजोगो वचिजोगो कायजोगो चेदि । तत्थ मणजोगो चउन्विहो सच्चमोस-सच्चमोसासच्चमोसमेदेण । एवं वचिजोगो वि चउन्विहो वत्तव्यो । कायजोगो वि सत्तविहो होइ । एवमेदेसु जोगभेदेसु दंसणमोहोवसामगस्स कदमो जोगो होदि त्ति भणिदे मणजोगभेदेसु ताव अण्णदरो मणजोगो होइ, चउण्हं' पि तेसिमेत्थ संभवे विरोहाणुवलंभादो । एवं वचिजोगभेदाणं पि वत्तव्वं । कायजोगो पुण ओरालियकायजोगो वेउब्वियकायजोगो वा होइ, अण्णेसिमिहासंभवादो। एदेसि दसण्हं पज्जत्तजोगाणमण्णदरेण जोगेण परिणदो पढमसम्मत्तुप्पायणस्स जोग्गो होइ, ण सेसजोगपरिणदो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थणिण्णओ ।
* कसाये त्ति विहासा। ६१८. सुगमं । * अण्णदरो कसायो। 5 १९. दंसणमोहोवसामगस्स कोहादीणं चउण्हं कसायाणं मझे अण्णदरो
६ १७. जीवप्रदेशोंकी कर्मोके ग्रहणमें कारणभूत परिस्पन्दरूप पर्यायका नाम योग है। वह योग तीन प्रकारका है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। उनमेंसे सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्य-मृषामनोयोग और असत्य-मृषामनोयोगके भेदसे मनोयोग चार प्रकारका है। इसी प्रकार वचनयोग भी चार प्रकारका कहना चाहिए। काययोग भी सात प्रकारका है। इस प्रकार योगके इन भेदोंमेंसे दर्शनमोहके उपशामकके कौनसा योग होता है ऐसा कहने पर उसका यह समाधान है कि मनोयोगके भेदोंमेंसे तो अन्यतर मनोयोग होता है, क्योंकि उन चारोंके ही यहाँ प्राप्त होनेमें किसी प्रकारका विरोध नहीं पाया जाता । इसी प्रकार वचनयोगके भेदोंका भी कथन करना चाहिए। परन्तु काययोग औदारिककाययोग या वैक्रियिककाययोग होता है, क्योंकि अन्य काययोगोंका प्राप्त होना असम्भव है। इन दस पर्याप्त योगोंमेंसे अन्यतर योगसे परिणत हुआ जीव प्रथम सम्यक्त्वके प्राप्त करनेके योग्य होता है, शेष योगोंसे परिणत हुआ जीव नहीं इस प्रकार यहाँ पर सूत्रार्थका निर्णय है।
विशेषार्थ—जो जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है वह संज्ञी पञ्चन्द्रिय होनेके साथ पर्याप्त भी होना चाहिए यह इस कथनसे स्पष्ट ज्ञात होता है, क्योंकि उक्त दश प्रकारके योग पर्याप्त अवस्थामें ही पाये जाते हैं। • * 'कषाय' इस पदकी विभाषा। $ १८. यह सूत्र सुगम है। * अन्यतर कषाय होती है। $ १९. दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके क्रोधादि चार कषायोंमेंसे अन्यवर
१. ता०प्रती चउन्विहं इति पाठः ।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] . दसणमोहोवसामणा
२०३ कसायपरिणामो होदि त्ति भणिदं होइ, तेसिमेक्कस्स वि पयदविसए विरोहाणुवलंभादो। तत्थ किमेसो वड्डमाणकसायपरिणामो आहो हायमाणकसायपरिणामो त्ति एदिस्से आसंकाए णिरारेगीकरणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ
* किं सो वड्ढमाणो हायमाणो त्ति ? णियमा हायमाणकसायो ।
२०. किं कारणं ? विसुद्धीए वड्डमाणस्सेदस्स वड्डमाणकसायत्तेण सह विरोहादो । तदो कोहादिकसायाणं विट्ठाणाणुभागोदयजणिदं तप्पाओग्गं मंदयरकसायपरिणाम मणुभवंतो एसो सम्मत्तमुप्पाएदुमाढवेइ त्ति सिद्धो सुत्तस्स समुदायत्थो ।
* उवजोगे त्ति विहासा।
२१. कः पुनरुपयोगो नाम ? उपर्युक्तेऽनेनेत्युपयोगः, आत्मनोऽर्थग्रहणपरिणाम इत्यर्थः । स पुनद्वैधा व्यवतिष्ठते साकारतरभेदात् । तत्र साकारो ज्ञानोपयोगः । अनाकारो दर्शनोपयोगः । तद्भदाश्च मतिज्ञानादयश्चक्षुर्दर्शनादयश्च । तत्रायं कतरेणोपयोगेन परिणतः सन् प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयतीत्यत्रोत्तरमाहकषायपरिणाम होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि उनमेंसे एकका भी प्रकृत विषयमें विरोध नहीं पाया जाता। उनमेंसे यह क्या वर्धमान कषाय परिणामवाला होता है या हीयमान कषाय परिणामवाला होता है। इस प्रकार इस आशंकाका निराकरण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* क्या वह वर्धमान कषायवाला होता है या हीयमान कषायवाला होता है ? नियमसे हीयमान कषायवाला होता है ।
२०. क्योंकि विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाले इसके वर्धमान कषायके साथ रहनेका विरोध है, इसलिए क्रोधादि कषायोंके द्विस्थानीय अनुभागके उदयसे उत्पन्न हुए तात्प्रायोग्य मन्दतर कषाय परिणामका अनुभवन करता हुआ सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके लिये आरम्भ करता है इस प्रकार इस सूत्रका समुदायरूप अर्थ सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ—पहले क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंके स्वरूप निर्देशके प्रसंगसे प्रायोग्य लब्धिका स्वरूप निर्देश कर आये हैं । उसीसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो जीव सम्यक्त्व ग्रहणके स
सन्मख होता है उसके अन्य कर्मोंके समान मोहनीय कर्मका अनुभाग विशद्धिवश द्विस्थानीय हो जाता है। उसमें भी प्रति समय उसमें अनन्तगुणी हानि होती जाती है, इसलिये इस जीवके हीयमान कषायपरिणामका ही उदय रहता है यह सिद्ध होता है।
* 'उपयोग' इस पदकी विभाषा। $ २१. शंका उपयोग किसका नाम है ?
समाधान—जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है । आत्माके अर्थके प्रहणरूप परिणामका नाम उपयोग है यह उक्त कथनका अर्थ है।
वह उपयोग साकार और अनाकारके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे साकार झानोयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग है। तथा उनके क्रमसे भेद मतिज्ञानादि और चक्षुदर्शनादिक हैं। उनमेंसे यह दर्शन मोहका उपशामक जीव किस उपयोगसे परिणत होता हुआ प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है ऐसा प्रश्न होनेपर यहाँ उसका उत्तर देते हुए कहते हैं
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
- २०४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदार १० ___ * णियमा सागारुपजोगो ।
___$ २२. कुतोऽयं नियमश्चेत् १ अनाकारोपयोगेनाविमर्शकेन सामान्यमात्रावग्राहिणा विमर्शात्मकतत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिं प्रत्यभिमुखीभावानुपपत्तेः । मदि-सुदअण्णाणेहिं विभंगणाणेण वा परिणदो होदूग एसो पढमसम्मत्तुप्पायणं पडि तेण पयह त्ति सिद्धं ।
* लेस्सा त्ति विहासा। ६२३. सुगमं । * तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणं णियमा वड्डमाणलेस्सा। * नियमसे साकार उपयोग होता है। $ २२. शंका-यह नियम किस कारणसे है?
समाधान—क्योंकि अविमर्शक और सामान्यमात्रप्राही चेतनाकार उपयोगके द्वारा विमर्शकस्वरूप तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता । इसलिए मति-श्रुत अज्ञानरूपसे या विभंगज्ञानरूपसे परिणत होकर यह जीव प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके प्रति उस उपयोगद्वारा प्रवृत्त होता है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ—सर्व प्रथम यहाँ दर्शनके स्वरूपका निर्देश करके यह बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति सन्मुखपना ज्ञानोपयोग कालमें ही सम्भव है दर्शनोपयोग कालमें नहीं, क्योंकि जब यह जीव जीवादि नौ पदार्थोके स्वरूपका निर्णय करनेके साथ अपने साकार उपयोग परिणामके द्वारा ज्ञायकस्वरूप त्रिकाली आत्माके सन्मुख होता है तभी उसके सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिकी सन्मुखता कही जा सकती है। ऐसे जीवके उस समय मति-श्रुताज्ञान होने पर भी वह कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासरूप न होकर आगम, गुरुउपदेश और तत्त्वको स्पर्श करनेवाली युक्तिके बलसे यथावस्थित जीवके स्वरूपको अनुगमन करनेवाला ही होता है। ऐसे जीवके चार लब्धियोंमें देशनालब्धिके स्वीकार करनेका प्रयोजन भी यही है। यहाँ टीकाकारने मति-श्रुत साकार उपयोगके साथ विभंगज्ञानका भी उल्लेख किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि टीकाकार मति-श्रुत साकार उपयोगके समान विभंगज्ञानके द्वारा भी सम्यग्दर्शनके सन्मुख होनेकी पात्रता मानते हैं। किन्तु धवलामें इसी प्रसंगसे 'मदि-सुदसागारवजुत्तो' पद द्वारा उसे मति-श्रुतसाकार उपयोगवाला ही बतलाया है। मतिज्ञान और श्रुवज्ञान अविनाभावी हैं और नय विकल्प श्रुवज्ञानमें ही सम्भव हैं, इसलिए ऐसे जीवको मति-श्रुत साकार उपयोगवाला कहना वो युक्तियुक्त है, परन्तु विभंग उपयोगवाला क्यों कहा यह विचारणीय है। मालूम पड़ता है कि जो नारकी आदि जीव विभंगज्ञानसे पूर्वभव आदिको जान कर पश्चात् मति-श्रुत साकार उपयोगके बलसे आत्माके सन्मुख होता है उसकी अपेक्षा टीकाकारने यह कथन किया है।
* लेश्या इस पदकी विभाषा । $ २३. यह सूत्र सुगम है। * पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंमेंसे नियमसे कोई एक वर्धमान लेश्या होती है।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२०५ २४. तेउ-पम्म-सुकलेस्साणमण्णदरा णियमा वड्डमाणलेस्सा एदस्स होदि, ण हायमाणा त्ति वुत्तं होइ । एदेण किण्ह-णील-काउलेस्साणं हाममाण-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणं च पडिसेहो कओ ददुव्यो। एत्थ चोदगो भणइ–ण एस वड्डमाणसुहतिलेस्साणियमो एत्थ घडदे, गेरइएसु सम्मत्तुप्पायणे वावदेसु असुहतिलेस्साणं पि संभवोलंभादो ? ण एस दोसो, तिरिक्ख-मणुस्से अस्सिणेदस्स सुत्तस्स पयदृत्तादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसु सम्मत्तं पडिवज्जमाणेसु सुह-तिलेस्साओ मोत्तूणण्णलेस्साणं संभवो अस्थि, सुठु वि मंदविसोहीए सम्म पडिवज्जमाणस्स तत्थ जहण्णतेउलेस्साणियमदंसणादो । कुदो वुण देव-णेरइयाणमिह विवक्खा ण कया त्ति चे १ ण, तेसिमवद्विदलेस्समावपदुप्पायणडमेत्य परियडमाणसव्वलेस्साणं तिरिक्ख-मणुस्साणं चेव पहाणतेण विवक्खियत्तादो।
* वेदो य को भवे त्ति विहासा।
२४. पीत, पन और शुक्ल लेश्याओंमेंसे नियमसे कोई एक वर्धमान लेश्या इसके होती है, इनमेंसे कोई भी लेश्या होयमान नहीं होती यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस वचन द्वारा इस जीवके कृष्ण, नील और कपोत लेश्याका तथा हीयमान पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याका प्रतिषेध किया गया जान लेना चाहिए।
शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि यह जो वर्धमान शुभ तीन लेश्याओंका नियम यहाँ पर किया है वह नहीं बनता, क्योंकि नारकियोंके सम्यक्त्वकी उत्पत्ति करनेमें व्यापृत होने पर अशुभ तीन लेश्याएं भी सम्भव पाई जाती हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तिर्यश्नों और मनुष्योंकी अपेक्षा यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है । और तिर्यञ्चों तथा मनुष्योंके सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय शुभ तीन लेश्याओं को छोड़कर अन्य लेश्याएं सम्भव नहीं हैं, क्योंकि अत्यन्त मन्द विशुद्धि द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके वहाँ पर जघन्य पीत लेश्याका नियम देखा जाता है।
शंका-परन्तु यहाँपर देव और नारकियोंकी विवक्षा क्यों नहीं की ? ... समाधान नहीं, क्योंकि उनके अवस्थित लेश्याभावका कथन करनेके लिये यहाँपर परिवर्तमान सब लेश्यावाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी हो प्रधानरूपसे विवक्षा की गई है।
विशेषार्थ-चूर्णिसूत्र में उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके वर्धमान मात्र पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं ही क्यों स्वीकार की गई हैं, जब कि नारकियोंके इस अवस्थामें एक भी शुभ लेश्या नहीं होती। यह एक प्रश्न है। समाधान यह है कि नारकियों और देवोंमें जिसके जो लेश्या होती है वह अवस्थितस्वरूप होती है, इसलिये उल्लेख न करनेपर भी उसका ज्ञान हो जाता है। यहाँ प्रश्न तो यह है कि तिर्यञ्च और मनुष्यगतिमें एक ही जीवके परिवर्तनक्रमसे छहों लेश्याएं सम्भव हैं क्या ? अतः यहाँ यह बतलाया गया है कि तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें उपशमसम्यक्त्वके सन्मुख होनेपर तीन शुभ लेश्याओंमेंसे कोई एक लेश्या होती है।
* वेद कौन होता है इस पदकी विभाषा ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० ___२५. 'वेदो य को भवे' त्ति जं गाहासुत्तस्स चरिमं पदं तस्सेदाणिमत्थविहासा कीरदि त्ति भणिदं होइ। ___ * अण्णदरो वेदो।
२६. तिण्हं वेदाणमण्णदरो वेदपरिणामो सम्मत्तुप्पत्तीए वावदस्स होइ, दव्वभावेहिं तिण्हं वेदाणमण्णदरपज्जाएण विसेसियस्स तदुप्पायणे विरोहाभावादो । 'दसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे' त्ति एत्तिएणेव सुत्तेण पज्जत्तं जोग-कसायोवजोग-लेस्सा-वेदाणं पि परिणाममेदाणं तत्थेवंतब्भावो ति णासंकणिज्जं, संकिलेसविसोहिभेदाणं चेव परिणामग्गहणेण तत्थ विवक्खियत्तादो । एदं च सुत्तं देसामासयं, तेण गदि-इंदियादिविसया च विहासा एत्थ कायव्वा । एवमेदीए पढमगाहाए दंसणमोहउवसामगस्स विसोहिलक्खणो परिणामो जोग-कसायोवजोगादिविसेसा च परूविदा । एदेणेव गाहासुत्तेणेदस्स खओवसम-विसोहि-देसण-पाओग्गसण्णिदाओ चत्तारि लद्धीओ करणलद्धिसव्वपेक्खाओ सूचिदाओ, ताहि विणा दंसणमोहोवसामणाए पवुत्तिविरोहादो ।
5२५. 'वेदो य को भवे' यह जो गाथासूत्रका अन्तिम पद है उसके अर्थका इस समय विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* कोई एक वेद होता है।
६२६. सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें व्याप्त हुए जीवके तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेदपरिणाम होता है, क्योंकि द्रव्य और भावकी अपेक्षा तीन वेदोंमेंसे अन्यतर वेदपर्यायसे युक्त जीवके सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें व्याप्त होनेमें विरोधका अभाव है।
शंका-'दर्शनमोहके उपशामकके परिणाम कैसा होता है।' इतना मात्र सूत्र पर्याप्त है, क्योंकि योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेद ये जितने भी परिणामभेद हैं इनका उसीमें अन्तर्भाव हो जाता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उक्त सूत्रमें संक्लेश और विशुद्धिरूप परिणामभेद ही परिणामपदके ग्रहण करनेसे विवक्षित किये गये हैं। यह सूत्र देशामर्षक है, 'इसलिये गति, इन्द्रिय आदि विषयक विशेष व्याख्यान यहाँ पर करना चाहिए ।
इस प्रकार इस प्रथम गाथा द्वारा दर्शनमोहके उपशामकके विशुद्धिलक्षण परिणाम तथा योग, कषाय, उपयोग आदि भेदोंका व्याख्यान किया। तथा इसी गाथासूत्रद्वारा इस जीवके करणलब्धि सव्यपेक्ष क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्यसंज्ञक चार लब्धियाँ सूचित की गई हैं, क्योंकि उनके विना दर्शनमोहके उपशम करनेरूप क्रियामें प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
विशेषार्थ-वेद निरूपणके प्रसंगसे यहाँ पर टीकाकारने द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकारके वेदोंका निर्देश किया है। यह ठीक है कि जो द्रव्यसे स्त्री, पुरुष और नपुंसक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव है वह भी प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य है और जो भावसे स्त्री, पुरुष और नपुंसक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव है वह भी प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य है । परन्तु मूल गाथासूत्र में और उसका विशेष व्याख्यान करनेवाले चूर्णिसूत्रमें मात्र भाववेदकी अपेक्षा
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०७
गाथा ९४ ]
दसणमोहोवसामणा * काणि वा पुव्वबद्धाणि त्ति विहासा।
5 २७. 'काणि वा पुव्वबद्धाणि' त्ति जं विदियगाहाए पढमं बीजपदं तस्सेदाणिमत्थविहासा पत्तावसरा त्ति वुत्तं होइ ।
* एत्थ पयडिसंतकम्मं ट्ठिदिसंतकम्ममणुभागसंतकम्मं पदेससंतकम्मं च मग्गियव्वं ।
२८. एदम्मि पदे सव्वकम्मविसयाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेससंतकम्माणं मग्गणा कायव्वा त्ति वुत्तं होइ । संपहि एदं बीजपदं णिबंधणं कादण चउण्हमेदेसिं संतकम्माणं मग्गणं कस्सामो। तं जहा-तत्थ ताव पयडिसंतकम्ममणुमग्गिज्जदे । मूलपयडीणमट्टण्हं पि संतकम्मसरूवेणेत्थ संभवो अत्थि । उत्तरपयडीणं पि ही कथन किया गया है इतना यहाँ विशेष समझना चाहिए । यहाँ एक यह प्रश्न भी उठाया गया है कि गाथासूत्रके परिणामो केरिसो हवे' इस वचनमें जो परिणाम पद आया है उसीसे योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेदका ग्रहण हो जाता है, ऐसी अवस्था में इन सब भेदोंका अलगसे उल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं थी। इसका समाधान यहकर किया गया है कि उक्त वचनमें परिणाम पद केवल संक्लेश और विशुद्धिको सूचित करनेके लिये आया है, इसलिये उक्त भेदोंका अलगसे निर्देश किया गया है। इसके बाद टीकामें यह बतलाया गया है कि यह सूत्र देशामर्षक है, इसलिए जो अनुक्त मार्गणाऐं यहाँ सम्भव हों उन्हें भी जान लेना चाहिए। यथा-गतिमागणाकी अपेक्षा तियञ्च, नारकी, मनुष्य और देव चारों गतियोंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्भव है। इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय, कायमार्गणाकी अपेक्षा त्रसकायिक, संयम मार्गणाकी अपेक्षा असंयमी, भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्य, सम्यक्त्व मार्गणाकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि, संज्ञीमार्गणाकी अपेक्षा संज्ञी और आहार मार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीव ही प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य है, अन्य नहीं। अन्त में यह सूचित किया गया है कि जो करणलब्धि द्वारा प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होता है उसके क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंका सद्भाव नियमसे होता है । इसका आशय यह है कि जिसने परमार्थ स्वरूप देव, गुरु और आगमके प्रति श्रद्धावनत हो गुरुमुखसे तत्त्वार्थका उपदेश ग्रहण किया है और जो तत्प्रायोग्य विशद्धि सम्पन्न हो क्षयोपशम आदि लब्धियोंसे वर्तमानमें युक्त है वहीं आत्मसन्मुख हो अधःकरण आदि परिणाम प्राप्त करनेका अधिकारी है, अन्य नहीं।
* 'पूर्वमें बंधे हुए कर्म कौन-कौन हैं इस पदकी विभाषा ।
$२७. काणि वा पुव्वबद्धाणि' यह जो दूसरी गाथाका प्रथम बीजपद है उसके अर्थका विशेष व्याख्यान इस समय अवसर प्राप्त है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ___ * यहाँ पर प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मका मार्गण करना चाहिए।
२८. इस पदमें सभी कर्मविषयक प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसत्कर्मोंका मार्गण करना चाहिए यह कथन किया गया है
रना चाहिए यह कथन किया गया है। अब इस बीजपदको निमित्त कर इन चारों प्रकारके सत्कर्मोका मार्गण करेंगे। यथा-उनमेंसे सर्वप्रथम प्रकृति सत्कर्मका मार्गण करते हैं। आठों ही मूलप्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे यहाँ पर सम्भव हैं। उत्तर प्रकृतियों में भी ज्ञानावरणकी
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[सम्मत्ताणियोगद्दारं १० णाणावरणपंचपयडीओ, दंसणावरणणवपयडीओ, वेदणीयस्स दुवे पयडीओ, मोहणी - यस मिच्छत्त- सोलसकसाय णवणोकसाया त्ति छन्वीसं पयडीओ संतकम्मं, अणादियमिच्छादिट्ठिस्स सादिमिच्छादिट्ठिस्स छव्वीस संतकम्मियस्स वा तदुवलंभादो | अहवा सम्मत्तेण विणा मोहणीयस्स सत्तावीसं पयडीओ संतकम्मं होइ, सम्मत्तमुव्वेलिय उवसमसम्मत्ता हिमुहम्मि तदविरोहादो । अथवा सम्मत्तेण सह अट्ठवीससंतकम्मं हो, वेदगपाओग्गकालं वोलिय सम्मत्तमणिल्लेवियूंण उवसमसम्मत्ताहि - हम्म तहाविहसंभवदंसणादो । आउअस्स एक्का वा दो वा पयडीओ संतकम्मं । तं कधं १ जह बद्धपरभवियाउओ उवसमसम्मत्तं पडिवजह तदो दो पयडीओ । अध अबद्धपरभवियाओ तदा एया पयडी अण्णदरा जा भुंजमाणिया ति । णामस्स चदु दि-पंचजादि - ओरालिय- वेडव्विय- तेजाकम्मइयसरीर - तेसिं चेव, बंधण-संघाद छसंठाणाहारवज-दोणिअंगोवंग - छसंघडण - वण्ण-गंध-रस - फास - चदुआणु पुव्वि - अगुरुअलहुअउवघाद- परघादुस्सास- आदावुज्जोव - दोविहायगइ-तस - थावरादिदसजुअल - णिमिणं चेदि एदासि पयडीणं संतकम्ममत्थि । गोदस्स दुवे पयडीओ णीचुच्चाग़ोदमिदि । अंतरा - इस पंच पयडीओ । एदासि पयडीणं पयडिसंतकम्ममत्थि, सेसाणं णत्थि । पुव्वु
२०८
पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियाँ, वेदनीयकी दो प्रकृतियाँ तथा मोहनीयकी मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये छव्वीस प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि तथा छवीस प्रकृतियाँ सत्कर्मवाले सादि मिथ्यादृष्टिके इनका सद्भाव पाया जाता है । अथवा सादि मिध्यादृष्टिके सम्यक्प्रकृतिके विना मोहनीयकी सत्ताईस प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उनके होनेमें कोई विरोध नहीं है । अथवा सम्यक्त्वके साथ अट्ठाईस प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालको ' उल्लंघन कर जिसने सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना नहीं की है ऐसे उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उक्त प्रकार से अट्ठाईस प्रकृतियोंका सद्भाव देखा जाता है । उक्त जीवके आयुकर्मकी एक या दो प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं।
शंका- वह कैसे ?
समाधान-यदि जिसने परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध किया है ऐसा जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो दो प्रकृतियाँ होती हैं। और जिसने परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध नहीं किया है ऐसा वह जीव है तो मुज्यमान अन्यतर एक प्रकृति होती है ।
नामकर्मको चार गति, पाँच जाति, औदारिक- वै क्रियिक-तैजस-कार्मण शरीर, उन्हींके बन्धन और संघात, छह संस्थान, आहारक अंगोपांगको छोड़कर दो आंगोपांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायगति, त्रस-स्थावर आदि दश युगल और निर्माण ये प्रकृतियाँ सत्कर्मरूप हैं। गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ नोचगोत्र और उच्चगोत्र सत्कर्मरूप हैं। तथा अन्तराय कर्मकी पाँच प्रकृतियाँ सत्कर्मरूप हैं । इन प्रकृतियोंका प्रकृतिसत्कर्म है, शेष प्रकृतियोंका नहीं है ।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२०९
पाइदेण सम्मत्तेण आहारसरीरं बंधिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण कालेणुवसमसम्मत्तं पडिवज्जमाणस्साहारदुगसंतकम्ममेत्थ किण्ण लब्भदे ? ण, आहारसरीरमणुव्वेल्लिय तस्स उवसमसम्मत्तपाओग्गत्ताणुवभादो । कुदो एवं १ वेदगपाओग्गकालादो आहारसरीरुव्वेन्लणकालस्स थोवभावोव एसादो । एदासिं चैव पयडीणमाउअवजाणं द्विदिसंतकम्ममंतोकोडाकोडीए, आउआणं च तप्पा ओग्गमणुगंतव्वं ।
$ २९. अणुभागसंतकम्मं पि अप्पसत्थाणं कम्माणं पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीय - असादवेदणीय - मिच्छत्त- सोलसकसाय - णवणोकसाय - सम्मत-सम्मामिच्छत्त- णिरयगइ - तिरिक्खगइ एइंदियादिचदुजादि- पंचसंठाण - पंचसंघडण - अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास- णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि उवघाद - अप्पसत्थविहायगहथावर-सुडुम-अपजत्त-साहारण सरीर - अथिर-असुभ - दुर्भाग- दुस्सर- अणादेज्ज - अजसगित्तिणीचा गोद - पंचतराइयाणं विट्ठाणियाणुभागसंतकम्मिओ ।
शंका – पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ आहारकशरीरका बन्धकर पुनः मिथ्यात्वमें जाकर तत्प्रायोग्य असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके आहारकद्विक सत्कर्म यहाँ क्यों उपलब्ध नहीं होता ?
समाधान नहीं, क्योंकि आहारकशरीरकी उद्वेलना किये विना उसके उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता नहीं बनती ।
शंका- ऐसा किस कारण से है ?
समाधान —क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालसे आहारकशरीर के उद्वेलनाका काल स्तोक है ऐसा परमागमका उपदेश पाया जाता है। आयुकर्मके अतिरिक्त इन्हीं प्रकृतियोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ाकाड़ीके भीतर होता है । आयुकमका तत्प्रायोग्य स्थितिसत्कर्म जानना चाहिए ।
विशेषार्थ- - प्रथम उपशमसम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके आहारकचतुष्क और तीर्थकर इं प्रकृतियोंका सत्त्व सम्भव नहीं है । आहारकचतुष्कका सत्व क्यों नहीं पाया जाता इसका स्पष्टीकरण तो टीकामें किया ही है। ऐसे जीव के तीर्थंकर प्रकृतिका इसके पूर्व बन्ध ही नहीं होता, इसलिये उसका सत्त्व भी सम्भव नहीं है । शेष सब कथन सुगम है ।
$ २९. अब अनुभागसत्कर्मको बतलाते हैं - जो अप्रशस्त कर्म पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण - गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, 'अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्मवाला होता है ।
♡
विशेषार्थ – पहले प्रायोग्यलब्धि के काल में ही अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग द्विस्थानीय हो जाता है यह स्पष्ट कर आये हैं और उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ जीव प्रायोग्यलब्धि सम्पन्न होता ही है, अतः इसके भी सत्ता में स्थित अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग द्विस्थानीय
२७
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ३०. पसत्थाणं पि पयडीणं सादावेदणीय-मणुसग्गइ-देवगइ-पंचिंदियजादिओरालियसरीर-वेउन्विय०-तेजा-कम्मइयसरीर-तेसिं चेव बंधण-संघाद-समचउरससंद्वाणओरालिय - वेउव्यियअंगोवंग-बअरिसहसंघडण-पसत्थवण्णादिचउक्क -मणुस०-देवगइपाओग्गाणुपुस्वि-अगुरुअलहुअ - परघादुस्सास-आदावुजोव - पसत्थविहायगइ - तस-बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिण - उच्चागोदाणमेदेसि चउट्ठाणाणुभागसंतकम्मिओ । पदेससंतकम्म पि जासिं पयडीणं पयडिसंतकम्ममत्थि तासिमजहण्णाणुक्कस्सयं पदेससंतकम्मं भाणियव्वं ।
$३१. एवं ताव विदियगाहाए पढमावयवमस्सियूण पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेससंतकम्मणिरूवणं कादूण संपहि पयडियादिबंधसरूवावहारणहूँ गाहाए विदियावयवमवलंबिय परूवणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो इदमाह
* के वा अंसे णिबंधदि त्ति विहासा।
5 ३२. सुगममेदं । जानना चाहिए । विशुद्धिवश इसके त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय अनुभागका घात हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्ब है।
$३० सातावेदनीय, मनुष्यगति, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर तैजसशरीर, कार्मणशरीर, तथा उन्हींके बन्धन और संघात, समचतुरस्रसंस्थान,
औदारिक शरीर आगोपांग, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णादि चार, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्र इन प्रशस्त प्रकृतियोंके चतुःस्थानीय अनुभागसत्कर्मवाला होता है। प्रदेशसत्कर्म भी जिन प्रकृतियोंका इसके प्रकृतिसत्कर्म है उनका अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म कहना चाहिए।
विशेषार्थ--यहाँ पर प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके सत्तामें स्थित प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग चतुःस्थानीय बतलाया है। इसका कारण यह है कि इन प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका विशुद्धिवश घात नहीं होता, किन्तु प्रति समय विशुद्धिको वृद्धि होनेसे उक्त प्रकृतियोंके अनुभागकी प्रति समय अनन्तनुणी वृद्धि देखी जाती है। ऐसा जीव न तो उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका स्वामी है और न ही जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी है, इसलिये इसके जितनी प्रकृतियोंकी सत्ता है उनका अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है यह स्पष्ट ही है ।
३१. इस प्रकार सर्व प्रथम दूसरी गाथाके प्रथम अवयवके आश्रयसे प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसतर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मका कथन कर अब प्रकृतिबन्ध आदि बन्धस्वरूपका निश्चय करनेके लिये गाथाके दूसरे अवयवका अवलम्बन लेकर कथन करते हुए चूर्णिसूत्रकार इस सूत्रको कहते हैं
* प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ जीव किन कर्माशोंका बन्ध करता है इस पदकी विभाषा ।
३२. यह सूत्र सुगम है।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२११
* एत्थ पयडिबंधो द्विदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो च मग्गियव्वो ।
३३. एदम्मि समणंतरणिदिट्ठबीजपदे चउण्हमेदेसिं बंधाणमणुमग्गणा कायव्वात्ति वृत्तं होइ । संपहि एदेण बीजपदेण सूचिदत्थविहासणं कस्सामो । तत्थ ताव पडबंधणिसे तिणि महादंडया परूवेयव्वा । तं जहा - - पंचणाणावरणीय
सणावरणीय सादा वेदणीय-मिच्छत्त- सोलसकसाय- पुरिसवेद - हस्स- रइ-भय-दुगुंछ- देवगदि - पंचिंदियजादि - वेउव्विय - तेजा - कम्मइयसरीर - समचउरससंङ्काण - वेउच्चिय अंगोवंगवण्णादिचउक्क - देवगदिपाओग्गाणुपुव्वि-अंगुरुअलहुआदिच उक्क-पसत्थविहायगदि - तसादिचउक-थिरादिछक्क—णिमिण - उच्चा गोद - पंचंतराइयाणं बंधगो अण्णदरो मणुसो वा मसिणी वा पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ वा । एसो पढमो महादंडओ ।
९ ३४. संपहि विदिओ वुच्चदे । तं जहो – पंचणाणावरण-णवदंसणावरणसादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय- पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा- मणुसगइ-पंचिंदिय
* प्रकृतमें प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका मार्गण करना चाहिए |
$ ३३. समनन्तर पूर्व कहे गये इस बीजपद में इन चार बन्धोंका अनुमार्गण करना चाहिए यह कहा गया है । अब इस बीजपद द्वारा सूचित किये गये अर्थका विशेष व्याख्यान करेंगे । उनमें से सर्व प्रथम प्रकृतिबन्धका निर्देश करते हुए तीन महादण्डकोंका कथन करना चाहिए । यथा— पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वर्णादिचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका अन्यतर मनुष्य, मनुष्यिनी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी जीव बन्धक होता है । यह प्रथम महादण्डक है ।
विशे - जो मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिवाला या पञ्च न्द्रिय तिर्ययोनिनी जीव प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होता है उसके नामकर्म की परावर्तमान अप्रशस्त प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, केवल देवगतिके साथ बँधनेके योग्य प्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । इसी प्रकार वेदनीय कर्मकी अपेक्षा भी जानना चाहिए, क्योंकि ऐसा जीव असातावेदनीयका बन्ध नहीं करता। मोहनीयकी अपेक्षा न स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका ही बन्ध करता है और न अरति और शोकका ही बन्ध करता है । यहाँ टीकामें पंञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि पद छूटा हुआ, प्रतीत होता है, अतः उसमें आये हुए 'पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ' पदसे संज्ञी पञ्च न्द्रिय पर्याप्त गर्भोत्पन्न तीनों वेदवाले तिर्यञ्चों का ग्रहण करना चाहिए। इन सब जीवोंके ऐसी अवस्था में आयुकर्मका बन्ध नहीं होता ।
$ ३४. अव दूसरे दण्डकका कथन करते हैं । यथा - पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति,
१. ता०प्रतौ तं जहा इति पाठो नास्ति । २. ताप्रती हस्स-रदि इति पाठो नास्ति ।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दार १० जादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वारिसह० संघडण - ओरालियअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुन्वि-अगुरुअलहुआदिचउक०-पसत्थविहायगदि-तसादि४ -थिरादि६ -णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणमेदासिं पयडीणं बंधगो अण्णदरो देवो वा छप्पुढविणेरइओ वा । एसो विदिओ महादंडओ।
६ ३५. संपहि तदिओ महादंडओ वुच्चदे । तं जहा-पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-सादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ०-तिरिक्खगइपंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुअलहुआदि४ -उज्जोवं सिया पसत्थविहायगइ-तसादिचउक्क-थिरादिछक्क-णिमिण-णीचागोद-पंचंतराइयाणमेदासिं पयडीणं बंधओ अण्णदरो अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइओ। एवमेसो पयडिबंधो परूविदो।
पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, औदारिकशरीर आंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, सादि चार, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका अन्यतर देव तथा छह पृथिवियोंका नारकी जीव बन्धक होता है । यह दूसरा महादण्डक है।
विशेषार्थ-जिन विशेषताओंका प्रथम महादण्डकके समय निरूपण कर आये हैं वे सब यहाँ भी यथासम्भव जान लेनी चाहिए । इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए कि मनुष्यगति नामकर्मके बन्धके साथ संहनन नामकर्मका भी बन्ध होने लगता है, इसलिए प्रथम सम्यक्त्व के सन्मुख हुए किसी भी देव और छह पृथिवियोंके नारकीके प्रशस्त स्वरूप वर्ऋषभनाराचसंहननका भी बन्ध होता है।
३५. अब तीसरे महादण्डकका कथन करते हैं। यथा-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान,
औदारिकशरीर आंगोपांग, वर्षमभनाराच संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, कदाचित् उद्योत ( का बन्धक होता है ), प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चार, स्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका सातवीं पृथिवीका अन्यतर नारकी बन्धक होता है । इस प्रकार यह प्रकृतिबन्ध कहा गया है।
विशेषार्थ-प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ सातवीं पृथिवीका नारकी जीव नामकर्मको यद्यपि अन्य सब प्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध करता है। परन्तु वह एकान्तसे भवसम्बन्धी परिणामवश तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वो और नीच गोत्रका बन्धक होनेसे प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होने पर भी मात्र इन्हींका बन्ध करता है । तथा तिर्यश्चगतिके साथ उद्योत प्रकृतिका भी बन्ध सम्भव होनेसे कदाचित् इसका भी बन्ध करता है। शेष कथन सुगम है।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१३
गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा ३६. द्विदिबंधो वि एदासिं चेव पयडीणमंतोकोडाकोडीमेत्तो चेव होदि, विसुद्धयरस्सेदस्स तत्तो अब्भहियद्विदिबंधासंभवादो। अणुभागबंधो वि एदेसु महादंडएसु जाओ अप्पसत्थाओ पयडीओ तासिं वेढाणिओ, सेसाणं पसत्थाणं चउट्ठाणिओ।
३७. पदेसबंधो वि पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ -तिरिक्खगइ-मणुसगइ -पंचिंदियजादि-ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्ख-मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी-अगुरुअलहुआदि४--उज्जोव-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-जसगित्तिणिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणमेदासि पयडीणमणुकस्सओ। णिहाणिद्दा-पयलापयलाथीणगिद्धी-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४-देवगइ - वेउब्वियसरीर - समचउरससंठाण - वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वारिसह०संघडण-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-पसत्थविहायगइ-सुभगसुस्सरादेज्ज-णीचागोदाणमेदासिं पयडीणमुक्कस्सगो अणुक्कस्सगो वा पदेसबंधो। एवं विदियगाहासुत्तस्स विदियावयवमस्सियूण बंधमग्गणं कादूण संपहि पयडीणमुदयावलियपवेसापवेसगवेसणहूँ सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* कदि आवलियं पविसंति त्ति विहासा। ३८. दंसणमोहउवसामगस्स उदयावलियमुदयाणुदयसरूवेण पविसमाणीओ
३६. स्थितिबन्ध भी इन्हीं अर्थात् तीनों महादण्डकोंमें कही गई प्रकृतियोंका अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण ही होता है, क्योंकि यह विशुद्धतर परिणामोंसे युक्त होता है, इसलिए इसके उससे अधिक स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । अनुभागबन्ध भी इन तीनों महादण्डकोंमें जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका द्विस्थानीय होता है तथा शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका चतुःस्थानीय होता है।
$ ३७. प्रदेशबन्ध भी पाँच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, पञ्च न्द्रियजाति
औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीरआंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तियेश्वगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चा
दि चार, उद्योत, त्रस, बाद प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, यश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरआंगोपांग, वर्षभनाराचसंहनन, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। इस प्रकार दूसरे गाथासूत्रके दूसरे अवयवका आश्रय कर बन्धका अनुमार्गण कर अब प्रकृतियोंके उदयावलिमें प्रवेश और अप्रेवशका अनुसन्धान करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* 'कितनी प्रकृतियाँ आवलिमें प्रवेश करती हैं' इस पदकी विभाषा । $ ३८. दर्शनमोहके उपशामक जीवके उदय और अनुदयरूपसे उदयावलिमें प्रवेश
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० पयडीओ मूलुत्तरमेयभिण्णाओ कदि होंति त्ति एदस्स पुच्छाणिद्देसस्स णिण्णयविहाणट्ठमिदाणिमत्थविहासा कीरदि ति सुत्तत्थसंबंधो।
* मूलपयडीओ सव्वाओ पविसंति । $ ३९. किं कारणं ? सव्वासिमेव मूलपयडीणमेत्युदयदंसणादो। * उत्तरपयडीओ वि जाओ अत्थि ताओ पविसंति ।
४०. विजमाणाणमुत्तरपयडीणमेत्युदयाणुदयसरूवेणुदयावलियाणुप्पवेसे पडिबंधाभावादो। णवरि आउअस्स कम्मस्स एया पयडी विज्जमाणिया अबद्धपरभवियाउअस्स सा णियमा उदयावलियं पविसदि। बद्धपरभवियाउअस्स पुण दो पयडीओ विजमाणाओ होंति, तत्थ झुंजमाणस्सेव परभवियाउअस्स वि विजमाणत्तं पडि विसेसाभावादो उदयावलियप्पवेसे अइप्पसते तण्णिवारणहमिदमाह___* वरि जइ परभवियाउअमत्थि तं ण पविसदि ।
४१. किं कारणं? जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तमेवसेसभुजमाणाउअस्सेव सम्मत्तग्गहणपाओग्गत्तादो। . करनेवाली मूल और उत्तरके भेदसे अनेक प्रकारकी प्रकृतियाँ कितनी होती हैं इस प्रकार इस पृच्छानिर्देशका निर्णय करनेके लिये इस समय अर्थविभाषा करते हैं इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है।
* मूल प्रकृतियाँ सब प्रवेश करती हैं। $ ३९ क्योंकि सभी मूल प्रकृतियोंका प्रकृतमें उदय देखा जाता है । * उत्तर प्रकृतियाँ भी जो सत्स्वरूप हैं वे प्रवेश करती हैं।
$ ४०. विद्यमान उत्तर प्रकृतियोंके प्रकृतमें उदय-अनुदयरूपसे उदयावलिमें प्रवेश होने में रुकावटका अभाव है। इतनी विशेषता है कि जिसने परभवंसम्बन्धी आयुकर्मका बन्ध नहीं किया है उसके आयुकर्मकी एक प्रकृति सत्तामें विद्यमान है और वह नियमसे उदयावलिमें प्रवेश करती है। तथा जिसने परभवसम्बन्धी आयुकर्मका बन्ध कर लिया है उसके सत्कर्मरूपसे दो प्रकृतियाँ पाई जाती हैं। इसलिये भुज्यमान परभवसम्बन्धी आयुके समान उसके भी विद्यमानपनेकी अपेक्षा विशेषताका अभाव होनेसे उदयावलिमें प्रवेश करनेरूप अतिप्रसंग होनेपर उसका निवारण करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
____ * इतनी विशेषता है कि यदि परभवसम्बन्धी आयु है तो वह उदयावलिमें प्रवेश नहीं करती।
४१. क्योंकि जिसके जघन्यरूपसे भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही भुज्यमान आयु शेष है उसके प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणकी योग्यता होती है।
विशेषार्थ—ऐसा नियम है कि जो जीव परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध करता है उसके . बध्यमान आयुका आबाधाकाल बन्धके समय जितनी भुज्यमान आयु शेष हो उतना होता है । तथा जो जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसका प्रथम सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेके
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दसणमोहोवसामणा
२१५ ४२. एवं विदियगाहाए तदियावयवस्स अस्थविहासं समाणिय संपहि चउत्थावयवमस्सियूण मूलुत्तरपयडीणमुदीरणाणुदीरणगवेसणहमुत्तरं पबंधमाह
* कदिण्हं वा पवेसगो त्ति विहासा।
४३. कदिण्हं वा पयडीणं मूलुत्तरभेयभिण्णाणमेसो पवेसगो होइ उदीरणासरूवेणे त्ति एवं पयस्सेदस्स पुच्छावक्कस्स अत्थविहासा एण्हिं कीरदि त्ति वुत्तं होइ ।
* मूलपयडीणं सव्वासिं पवेसगो।।
४४. मूलपयडीणं ताव सव्वासिमेव एसो पवेसगो होइ, सव्वासिमेव तासिं उदीरणाए पवेसिजमाणाणं णिप्पडिबंधमुवलंभादो ।
___ * उत्तरपयडीणं पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-मिच्छत्त-पंचिंदियज्ञादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरगलहुग-उवघादपरघादुस्सास-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-णिमिणपंचंतराइयाणं णियमा पवेसगो।
४५. किं कारणं ? एदासि पयडीणमेत्थ धुवोदयत्तदंसणादो । कालमें तथा प्रथम सम्यक्त्वके कालमें मरण नहीं होता। यही कारण है कि यहाँ पर प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके पर भवसम्बन्धी आयुका उदयावलिमें प्रवेशका निषेध किया है।
४२. इसप्रकार दूसरी गाथाके तीसरे अवयवके अर्थका विशेष व्याख्यान करके अब चौथे अवयवका आश्रयकर मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी उदीरणा और अनुदीरणाके अनुसन्धान करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं. * वह कितनी प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है ।
४३. मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक प्रकारकी कितनी प्रकृतियोंका यहजीव उदीरणारूपसे प्रवेशक होता है इस प्रकार इस रूपसे प्रवृत्त हुए पृच्छावाक्यके अर्थका इस समय विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। . * मूल प्रकृतियोंको सबका प्रवेशक होता है।
४४. मूल प्रकृतियोंका तो सबका ही यह जीव प्रवेशक होता है, क्योंकि सभी मूल प्रकृतियाँ विना रुकावटके उदीरणारूपसे प्रवेश करती हुई पाई जाती हैं।
* उत्तर प्रकृतियोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादरं, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका नियमसे प्रवेशक होता है।
६४५. क्योंकि ये प्रकृतियाँ प्रकृतमें ध्रुवोदय देखी जाती हैं।
विशेषार्थ-प्रथम सम्यक्त्व ग्रहणके सन्मुख हुए किसी भी गतिके जीवके अधःकरणके प्रथम समयमें पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका नियमसे उदय होता है और इनका यहाँ उदय होनेका नियम है, इसलिये इनकी यहाँ उदीरणा होने में कोई रुकावट नहीं पाई जाती।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* सादासादाण मण्णदरस्स पवेसगो ।
४६. किं कारणं १ एदासिं दोण्डं पयडीणं परावत्तमाणोदयाणमकमेण पवेसणे संभवावलंभादो |
२१६
[ सम्ताणियोगद्दारं १०
* चदुण्हं कसायाणं तिन्हं वेदाणं दोन्हं जुगलाणमण्णदरस्स पवेसगो । $ ४७. किं कारणं १ परोप्परविरुद्धाणमेदेसिं जुगवं पवेसेदु म सक्कियत्तादो । * भय-दुगुंछाणं सिया पवेसगो ।
९ ४८. किं कारणं १ तदुदयविरहिदावत्थाए वि संभवदंसणा दो । पवेसगो वि सिया अण्णदरस्स पवेसगो, सिया दोन्हं पि पवेसगो त्ति घेत्तव्वं ।
* चउण्हमाउआणमण्णदरस्स पवेसगो ।
$ ४९. किं कारणं १ चउण्हमेदेसिं पडिणियदगइविसेसपडिबद्धाणं कम्मोदययमदंसणादो |
* चदुण्हं गइणामाणं दोन्हं सरीराणं छण्हं संठाणाणं दोन्हमंगोवंगाणमण्णदरस्स पवेसगो ।
$ ५०. एत्थ अण्णदरगहणस्स गदि -आदीहिं पादेक्कमहिसंबंधो कायव्वो । सेसं सुगमं ।
* साता और असाता इनमेंसे किसी एकका प्रवेशक होता है ।
$ ४६. क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ परावर्तमान उदयस्वरूप हैं, इसलिये इनका युगपत् प्रवेशक होना सम्भव नहीं है ।
* चार कषाय, तीन वेद और दो युगलोंमेंसे अन्यतर एक-एकका प्रवेशक होता है ।
- $ ४७. क्योंकि ये प्रकृतियाँ परस्पर विरुद्ध हैं, इसलिये इनका युगपत् प्रवेश करना शक्य नहीं है ।
* भय और जुगुप्साका कदाचित् प्रवेशक होता है ।
$ ४८. क्योंकि उनकी उदयसे रहित अवस्था भी देखी जाती है । यदि प्रवेशक होता भी है तो कदाचित् किसी एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है और कदाचित् दोनों ही प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए ।
* चारों आयुओं में से किसी एक आयुकर्मका प्रवेशक होता है ।
$ ४९. क्योंकि ये चारों आयु पृथक्-पृथक् प्रतिनियत गतिविशेषसे प्रतिबद्ध हैं, इसलिये तदनुसार ही उस उस आयुकर्मके उदयका नियम देखा जाता है ।
* चार गतिनाम, दो शरीर, छह संस्थान और दो आंगोपांग इनमेंसे अन्यतर एक-एकका प्रवेशक होता है।
$ ५०. यहाँ पर अन्यतर पदका गति आदि प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । शेष कथन सुगम है ।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२१७ * छण्हं संघडणाणं अण्णदरस्स सिया।
६५१. पवेसगो त्ति एत्थ अहियारसंबंधो, तेण छण्हं संघडणाणमण्णदरस्स सिया एसो पवेसगो, सिया च ण पवेसगो ति सुत्तत्थसंबंधो कायव्यो । जइ तिरिक्खो मणुस्सो वा पढमसम्मत्तं पडिवज्जइ तो एदेसिमण्णदरस्स णियमा पवेसगो होइ । अह देवो णेरइओ वा उवसमसम्मत्ताहिमुहो होइ तो णियमा एदेसिमपवेसगो। ति घेत्तव्वं । ___ * उज्जोवस्स सिया।
५२. पवेसगो त्ति पुव्वं व अहियारसंबंधो एत्थ कायव्यो। कुदो वुण उजोवस्स सिया पवेसगत्तमिदि चे ? ण, पंचिंदियतिरिक्खेसु चेव केसि पि जीवाणं तदुदहन्लाणं तप्पवेसयत्तदसणादो।
* दो विहायगइ-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेव-अणावेजजसगित्ति-अजसगित्ति० अण्णदरस्स पवेसगो ।
* छह संहननोंमेंसे कदाचित् किसी एकका प्रवेशक होता है ।
६५१. 'पवेसगो' इस पदका यहाँ पर अधिकारवश सम्बन्ध कर लेना चाहिए, इसलिये छह संहननोंमेंसे यह जीव किसी एकका कदाचित् प्रवेशक होता है और कदाचित् प्रवेशक नहीं होता इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए। यदि तिर्यश्च अथवा मनुष्य प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो इनमेंसे किसी एकका नियमसे प्रवेशक होता है। और यदि देव अथवा नारकी उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख होता है तो नियमसे इनका अप्रवेशक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-वैक्रियिकशरीरका संस्थान तो होता है पर संहनन नहीं होता, अतः यहाँ देव और नारकियोंको छहों संहननोंमेंसे किसी एक भी प्रकृतिका प्रवेशक नहीं कहा है।
* उद्योतका कदाचित् प्रवेशक होता है। $ ५२. 'पवेसगो' इस पदका पहलेके समान अधिकारवश सम्बन्ध करना चाहिए । शंका-परन्तु उद्योतका कदाचित् प्रवेशकपना कैसे बनता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें ही उद्योतके उदयसे युक्त किन्हीं जीवोंके उद्योतका प्रवेशकपना देखा जाता है ।
विशेषार्थ-यहाँ नारकी, मनुष्य और देवोंमें उद्योतका उदय-उदीरणा सम्भव नहीं है, केवल तिर्यश्चोंमें ही, उनमें भी किन्हीं तिर्यञ्चोंमें ही उसका उदय-उदीरणा सम्भव है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर 'उद्योतका कदाचित् प्रवेशक होता है, यह सूत्र वचन कहा है।
* दो विहायोगति, सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय और यश कीर्तिअयशःकीर्ति इन युगलोंमेंसे किसी एक-एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है ।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
५३. देसि पंचहं जुगलाणं पादेक्कमण्णदरस्स पवेसगो एसो होदि ति सुत्तत्थसमुच्चयो । सुगममण्णं ।
* उच्च-णीचागोदाणमण्णदरस्स पवेसगो ।
२१८
५४. सुगममेदं । एवमोघेण पयडिउदीरणा परूविदा । एवं चेव पयडि - उदयस विमग्गणा कायव्वा, विसेसाभावादो ।
५५. संपहि सुतणिट्ठस्सेवत्थस्स पवंचीकरणट्टमादेससंबंधि किंचि परूवणं कस्साम । तं जहा - - आदेसेण चदुसु वि गदीसु णाणावरणीयस्स पंच वि पयडीओ उदयं पविसंति पवेसिजंति च । दंसणावरणीयस्स चत्तारि पयडीओ वेदणीयस्स सादासादाणमदरस चसु वि गदीसु उदयोदीरणाओ हवंति । मोहणीयस्स दस णव अहं वा पडीओ चदुसु गदीसु उदयोदीरणासरूवेण वेदिजंति । चदुण्हमाउआणं जत्थ गदीए जं जति तत्थ वेदगो उदीरगो च ।
$ ५६. णामस्स जइ रहओ तो णिरयगइ - पंचिदियजादि - वेडव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-हुंडसंठाण-वेउव्वियअंगोवंग - वण्ण-गंध-रस- फास - अगुरु अलहुअ -उवघाद- परघादुस्सास
$ ५३. यह जीव इन पाँच प्रत्येक युगलमें से किसी एक-एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है, इस प्रकार यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । शेष कथन सुगम है ।
विशेषार्थ — देवों में सूत्रोक्त सभी शुभ और नारकियों में अशुभ प्रकृतियोंका उदयउदीरणा होती है । किन्तु इनको छोड़कर अन्य दो गतिके जीवोंमें उक्त युगलों से प्रत्येक युगलसम्बन्धी प्रशस्त या अप्रशस्त किसी एक-एक प्रकृतिका उदय उदीरणा सम्भव है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है |
* उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनमेंसे किसी एक - एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है ।
$ ५४. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार ओघसे प्रकृति- उदीरणाका कथन किया । इसी प्रकार प्रकृत- उदयका भी अनुमार्गण कर लेना चाहिए, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता
विशेषार्थ — प्रकृत में ऐसा समझना चाहिए कि दर्शनमोहकी उपशमनाके सन्मुख हुए जीवके चारों गतियोंमें यथासम्भव अधःकरणके प्रथम समय में जिन प्रकृतियोंका उदय है उन्हींकी उदीरणा भी है. यही कारण है कि यहाँ उदय और उदीदणा में विशेषता न होनेका विधान किया है ।
$ ५५. अब सूत्रनिर्दिष्ट ही अर्थका विस्तार से कथन करनेके लिये आदेश सम्बन्धी कुछ प्ररूपणा करेंगे । यथा - आदेशसे चारों ही गतियोंमें ज्ञानावरणकी पाँचों ही प्रकृतियाँ उदय रूपसे प्रविष्ट होती हैं और प्रविष्ट कराई जाती हैं । दर्शनावरणकी चारों ही प्रकृतियोंका तथा सातावेदनीय और असातावेदनीयमेंसे किसी एकका चारों ही गतियोंमें उदय और उदीरणा होती है । मोहनीयकी दस, नौ या आठ प्रकृतियाँ चारों गतियोंमें उदय और उदीरणारूपसे वेदी जाती हैं। चारों आयुओंमेंसे जिस गतिमें जो आयु वेदी जाती है उसका उस गति में वेदक और उदीरक होता है ।
$ ५६. नामकर्मकी अपेक्षा यदि नारकी है तो नरकगति, पचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस,
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२१९ अप्पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादेज-अजसगित्ति-णिमिणमिदि एदासि उणत्तीसहं पयडीणं वेदगो उदीरगो च । तहा णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णेरइओ वेदगो होइ।।
६५७. अह जइ तिरिक्खो तिरिक्खगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर० छण्हं संठाणाणमेकदरं ओरालियअंगोवंग० छसंघडणाणं एक्कदरं वण्णादि४अगुरुअलहुआदि४० उज्जोवं सिया दोण्हं विहायगदीणमेक्कदरं तसादि४-थिराथिर-सुभासुभसुभग-दूभगाणमेकदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं आदेजणादेज्जाणमेकदरं जसगित्तिअजसगित्तीणमेक्कदरं णिमिणं चेदि एदासि पयडीणं तीसेक्कत्तीससंखाविसेसिदाणं पवेसगो होइ । पुणो णीचागोद-पंचंतराइयाणं च पवेसगो होइ ।
५८. अह जइ मणुसो तदो एदाओ चेव पयडीओ उज्जोववज्जाओ मणुसगइसहगदाओ वेदयदि । णवरि णीचुचागोदाणमेकदरमिह वत्तव्वं ।।
५९. जइ देवो देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउन्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्बियसरीरअंगोवंग-वण्णादि४ -अगुरु०४ - पसत्थविहायगदि-तसादि४-थिरास्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और निर्माण इन उनतीस प्रकृतियोंका वेदक और उदीरक होता है।
६५७. और यदि तिर्यञ्च है तो तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिक शरीर आंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णादि चार, अगुरुलघु आदि चार, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, त्रसादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमेंसे कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय-अनादेयमेंसे कोई एक, यश-कीर्ति-अयशःकीर्तिमेंसे कोई एक और निर्माण इन तीस और इकतीस संख्याविशिष्ट प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है । तथा नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है।
विशेषार्थ-जिन संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंके उद्योतका उदय और उदीरणा होती है वे इकतीस प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं और जिनके नद्योत प्रकृतिका उदय और उदीरणा नहीं होती वे तीस प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं । शेष कथन सुगम है।
६५८. और यदि मनुष्य है तो उद्योतको छोड़कर मनुष्यगतिके साथ इन्हीं प्रकृतियोंका वेदन करता है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर नीचगोत्र और उच्चगोत्रमेंसे किसी एक प्रकृतिका कथन करना चाहिए ।
विशेषार्थ—मनुष्योंमें तिर्यश्चगतिका उदय न होकर मनुष्यगति नामकर्मका उदय होता है, इसलिये यहाँ टीकामें 'मणुसगइसहगदाओं' ऐसे पाठका उल्लेख किया है। शेष कथन सुगम है।
६५९. और यदि देव है तो देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्णादि चार, अगुरुलघु आदि
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
थिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सरादेज्ज - जसगित्ति - णिमिणणामाणमुच्चागोद - पंचंतराइएहिं सह
पवेसगो वेदगो च होइ ।
२२०
६०. संपहि देण सुत्तेण सूचिदट्ठिदि - अणुभाग - पदेसोदयोदीरणाणं पि किंचि अणुगमं कस्साम । तं जहा – एदासि चेव पयडीणमाउअवज्जाणं अंतोकोडाको डिमेत्तद्विदीओ आउआणं च तप्पाओग्गाओ हिदीओ ओकड्डियूणुदए देदि एसा ट्ठिदिउदीरणा । ६१. अणुभागुदीरणा वि पसत्थाणं पयडीणमेत्थ णिद्दिट्ठाणं चउट्ठाणिया बंधाणादो अनंतगुणहीणा, अप्पसत्थाणं विट्ठाणिया संतद्वाणादो अनंतगुणहीणा । पदेसुदीरणा वि एदासिं चैव पयडीणमजहण्णाणुकस्सिया होई । एवमुदयो वि अणुगंतव्व । एवं विदियाए सुत्तगाहाए अत्थविहासा समत्ता ।
चार, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, • यशःकीर्ति और निर्माणका उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके साथ प्रवेशक और वेदक होता है ।
$ ६० अब इस सूत्रद्वारा सूचित हुए स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन तीनोंके उदय और उदीरणाका कुछ अनुगम करेंगे । यथा आयुकर्मको छोड़कर इन्हीं प्रकृतियोंकी अन्त:कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितियाँ और आयुकर्मकी तत्प्रायोग्य स्थितियाँ अपकर्षित कर उदय में दी जाती हैं । यह स्थिति उदीरणा है ।
विशेषार्थ - - यहाँ चारों आयुओं की स्थितिकी अपकर्षण द्वारा उदीरणा कही गई है । इसपर यह प्रश्न होता है कि क्या नारकी, भोगभूमिज तिर्यन और मनुष्य तथा देवोंकी आयुकी भी अपकर्षणद्वारा उदीरणा होती है ? यदि होती है तो परमागममें इन जीवों को अनपवर्त्य आयुवाला क्यों कहा गया है ? समाधान यह है कि इन जीवों की भुज्यमान आयुका भोग तो पूरा होता है । परन्तु इन आयुओंके यथा सम्भव प्रत्येक निषेकमें कुछ ऐसे परमाणु होते हैं जो उपशम, निधत्त और निकाचितरूप नहीं होते, उनकी भोगकालमें उदीरणा सम्भव होनेसे यहाँ चारों आयुओंकी अपकर्षण द्वारा उदीरणा कही गई है। शेष कथन सुगम है।
$ ६१. अनुभाग उदीरणा भी यहाँ निर्दिष्ट की गई प्रशस्त प्रकृतियोंकी चतुःस्थानीय होती है जो बन्धस्थानसे अनन्तगुणी होन होती है । अप्रशस्त प्रकृतियोंकी द्विस्थानीय होती है, जो सत्त्वस्थानसे अनन्तगुणी हीन होती है । प्रदेश उदीरणा भी इन्हीं प्रकृतियोंकी अजघन्य अनुत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार उदय भी जानना चाहिए । इस प्रकार दूसरी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ ।
विशेषार्थ -- प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके होता है, इसलिये यहाँ प्रशस्त प्रकृतियोंकी अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय होकर भी वह बन्धस्थान से अनन्तगुणी हीन बतलाई है । यहाँ उदयको भी उदीरणाके समान जाननेकी सूचना की है। उसका आशय यह है कि जिन प्रकृतियोंकी यहाँ उदीरणा है उन्हींका उदय भी है। जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षण आदि प्रयोगके विना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं उन कर्मस्कन्धोंकी उदय संज्ञा है और जो बड़ी स्थिति में स्थित कर्म अपकर्षण द्वारा फल देनेके सन्मुख किये जाते हैं उनकी उदीरणा संज्ञा है । प्रकृतमें ऐसा समझना चाहिए कि जिस गतिमें दर्शनमोहके उपशमके सन्मुख हुए जीवके जिन कर्मोंका उदय है उनकी उदीरणा अवश्य होती है। शेष कथन सुगम है ।
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दसणमोहोवसामणा
२२१ ६२. संपहि तदियसुत्तगाहाए जहावसरपत्तमवयारं कस्सामो । तं जहा* 'के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा' त्ति विहासा।
६३. एदस्स तदियगाहासुत्तपुव्वद्धस्स अत्थविहासा इदाणिं कायव्वा ति वुत्तं होइ । एसो च तदियगाहापुव्बद्धो दसणमोहउवसामगस्स सव्वेसिं कम्माणं पयडिहिदि-अणुभाग-पदेसे अस्सियूण बंधोदएहिं झीणभावगवेसणट्ठमागओ । तत्थ ताव पयडीणं वंधवोच्छेदकमपदंसणट्ठमिदमाह
* असादावेदणीय इत्थि-णqसयवेद-अरदि-सोग-चदुआउ० - णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठाण-पंचसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वि-आदावअप्पसत्थविहायगइ - थावर-सुहुम-अपजत्त-साहारण-अथिर-असुभ-दूभगदुस्सर-अणादेज-अजसगित्तिणामाणि एदाणि बंधेण वोच्छिण्णाणि ।
६४. एदासिं सुत्तणिद्दिवाणं पयडीणं दसणमोहोवसामगस्स पुव्वमेव जहाक बंधबोच्छेदो जायदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एदेसि कम्माणं बंधवोच्छेदकमंवत्तइस्सामो । तं जहा-तत्थ ताव अभवसिद्धियपाओग्गविसोहीए विसुज्झमाणस्स तप्पाओग्गअंतोकोडाकोडिमेतद्विदिबंधावत्थाए णत्थि एकस्स वि कम्मस्स पयडिबंधबोच्छेदो। एत्तो उवरिमंतोमुहुत्तं गंतूण सागरोवमपुधत्तमेत्तमोसरियण अण्णं द्विदिं बंधमाणस्स तकाले
$ ६२. अब तीसरी गाथाके अवसर प्राप्त अवतारको करेंगे । यथा
* 'दर्शनमोहके उपशमकालसे पूर्व बन्ध और उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे कांश क्षीण होते हैं इसकी विभाषा ।
$ ६३. इस तीसरे गाथासूत्रके पूर्वार्धके अर्थका विशेष व्याख्यान इस समय करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह तीसरी गाथाका पूर्वार्ध दर्शनमोहके उपशामकके सब कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका आश्रयकर बन्ध और उदयकी अपेक्षा क्षीणपनेका अनुसन्धान करनेके लिये आया है। उनमें से सर्व प्रथम प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्तिके क्रमको दिखलानेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
___ * दर्शनमोहके उपशामकके असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चार आयु, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश कीर्ति ये प्रकृतियाँ बन्धसे पहले ही व्युच्छिन्न हो जाती हैं।
६४. सूत्रमें निर्दिष्ट की गई इन प्रकृतियोंकी दर्शनमोहके उपशामक जीवके पहले ही क्रमसे बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इन कर्मोंके बन्धव्युच्छित्तिके क्रमको बतलावेंगे। यथा-वहाँ जो अभव्योंके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्धकी अवस्था में एक भी कर्मके - प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्ति नहीं होती। इससे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० णिरयाउअबंघो वोच्छिञ्जदे । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण बंधमाणस्स तिरिक्खाउअबंधबोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण बंधमाणस्स मणुस्साउअं बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण बंधमाणस्स देवाउअबंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण बंधमाणस्स णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वी एकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियण सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणमण्णोण्णाणुगयाणमेक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण सुहुम-अपज्ज०-पत्तेयसरीराणमण्णोण्णाणुगयाणमेक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तं गंतूण बादर-अपज्ज०-साहारणसरीराणमण्णोण्णाणुगयाणमेक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण बादर-अपज्ज०-पत्तेयसरीराणमण्णोण्णाणुगयाणमेक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण बेइंदियजादि-अपज्जत्ताणमण्णोण्णसंजोगेण बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियण तीइंदिय-अपज्ज० अण्णोण्णसंजुत्ताणं बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियण चउरिदिय०-अपज्ज० अण्णोणसजुत्ताणं बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिऊण असण्णिपंचिंदिय०-अपज्ज. अण्णोणसंजुत्त० बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण सण्णिपंचिंदिय० अपज्ज. अण्णोण्णसंजुत्त० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियण सुहुम-पज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं परोप्परसंजोगेण स्थिति घटाकर अन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उस समय नरकायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके तिर्यञ्चायुको बन्धव्युच्छित्ति होती है। उसके आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके मनुष्यायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य अनुगत सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरकी एक साथ वन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य अनुगत सूक्ष्म, अपर्याप्त
और प्रत्येक शरीरकी एकसाथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य अनुगत बादर, अपर्याप्त और साधारण शरीरकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य अनुगत बादर, अपर्याप्त और प्रत्येकशरीरकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य अनुगत द्वीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त नामकर्मकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर अन्योन्य संयुक्त त्रीन्द्रिय और अपर्याप्त नामकर्मकी एक साथ बन्धव्यु.च्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य संयुक्त चतुरिन्द्रिय जाति और अपर्याप्त नामकर्मकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० अन्योन्य संयुक्त असंज्ञो पश्चेन्द्रिय और अपर्याप्तनामकर्मकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर परस्पर संयक्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त नामकर्मकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
माथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२२३ बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण सुहुम-पज्जत्त-पत्तेयसरीर० परोप्परसंजुत्ताणं बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियूण बादर-पज्जत्त-साहारणसरीराणं परोप्परसंजोगविसेसिद० बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरएइंदिय-आदाव-थावरणामाणं छण्हं पयडीणमेकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं
ओसरियण बीइंदिय०-पज्जत्ताणं बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियण तीइंदिय-पज्जत्ताणं बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियण चउरिदिय०-पज्जत्तबंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण असण्णिपंचिंदिय०-पन्ज० बंधवोच्छेदो । तदो' सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोवसण्णिदाणं तिण्हं पयडीणमेक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवपुधत्तं ओसरिदूण णीचागोदस्स बंधवोच्छेदो। णवरि सत्तमपुढिविणेरइयमस्सियूण तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-णीचागोदाणं बंधवोच्छेदो पत्थि । अदो चेव सुत्ते तेसिं बंधवोच्छेदो अणुवइट्ठो। तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियूण अप्पसत्थविहायगइ-दूभग-दुस्सर-अणा
सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० परस्पर संयुक्त सूक्ष्म, पर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० परस्पर संयुक्त सूक्ष्म, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर नामकर्मकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० परस्पर संयुक्त बादर, पर्याप्त और साधारण शरीर नामकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर० बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, एकेन्द्रियजाति, आतप
और स्थावर नामकर्म इन छह प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके द्वीन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके त्रीन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मकी बन्धव्यच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके चतुरिन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके असंज्ञी पञ्चेन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और उद्योत इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमप्रथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करवेवाले जीवके नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीके नारकीके तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती और इसीलिये सूत्र में इनकी बन्धव्युच्छित्तिका निर्देश नहीं किया। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, और अनादेय इन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर
१. ता०प्रती बंधवोच्छेदो । [तदो सागरो० पुधत्त. ओसरि० सण्णिपज्ज. बंध.] तदो इति पाठः।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० देजणामाणमक्कमेण बंधबोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण हुंडसंठाण - असंपत्तसेवट्टसंघडण ० एदासिं दोन्हं पयडीणमेकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण णवंस० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरिदूण वामणसंठाणकीलियसंघडणाणं दोन्हं पयडीणमेक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण खुजसं ठाण- अद्धणारायण० दोण्हमेदासि पयडीणं एकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरिदूण इत्थि वेदबंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदुण सादिसंठाण - नारायणसरीर ० दोन्हं पि पयडीणं एकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० पुध० णग्गोधपरि०-वजणारायणसरीरसंघ० दोण्णं पि एक्कदो बंध० । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियूण मणुसगइ - ओरालियसरीर-तदंगोवंग- वज्ञरिसहसंघडण - मणुस
पाओग्गाणुपुवि० दासि पंचण्हं पयडीणं एक्कदो बंधवोच्छेदो । एदं तिरिक्खमणुस्से पडुच्च परूविद, देव - णेरइएस एदासि बंधविच्छेदाणुवलंभादो । अदो चैव सुत्ते दास बंधवोच्छेदो अणुवइट्ठो, सुत्तस्स च चउगइसामण्णावेक्खाए पयट्टत्तादो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण असादावेदणीय - अरदि- सोग - अथिर-असुह-अजसगित्ति
२२४
माणमेदासि पडणं जुगवं बंधवोच्छेदो । जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधपाओग्गाणं पि एदासिमेत्थ बंधवोच्छेदपरूवणा ण विरुज्झदे । किं कारणं ? सव्वविसुद्धस्सेदस्स बन्ध करनेवाले जीवके हुंडसंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती हैं। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके नपुंसकवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके वामनसंस्थान और कीलिक संहनन इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचसंहनन इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके स्वातिसंस्थान और नाराचसंहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान और वज्रनाराचसंहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आंगोपांग, वज्रर्षभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन पाँच प्रकृयियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । यह तिर्यों और मनुष्योंकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि देवों और नारकियोंमें इन पाँच प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं पाई जाती और इसीलिये सूत्रमें इनकी बन्धव्युच्छित्तिका निर्देश नहीं किया है, क्योंकि यह सूत्र चतुर्गति सामान्यकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घंटाकर बन्ध करनेवाले जीवके असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति इन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । यद्यपि ये प्रकृतियाँ प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक बन्धके योग्य हैं फिर भी यहाँ इनकी बन्धव्यु च्छित्तिका कथन विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उन प्रकृतियोंके बन्धके
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] - दसणमोहोवसामणा
२२५ तब्बंधपाओग्गसंकिलेसविसयमुल्लंघियूण तप्पडिवक्खपयडिबंधणिबंधणविसोहीए वड्डमाणस्स तब्बंधवोच्छेदे विरोहाणुवलंभादो। एवमोघेण पयडीणं बंधवोच्छेदो सुत्ताणुसारेण परूविदो।
६५. संपहि आदेसमुहेण पयडिबंधझीणाझीणत्तविसयं किंचि परूवणं कस्सामो । तं जहा—आदेसेण चदुसु वि गदीसु णाणावरणीयस्स णत्थि पयडिबंधझीणदा। एवं दसणावरणीयस्स वि वत्तव्वं । वेदणीयस्स असादं बंधेण झीणं, णो सादं । मोहणीयस्स इत्थि-णqसय-अरदि-सोगा बंधेण झीणा, सेसाओ मोहपयडीओ बंधेण णो झीणाओ। आउअस्स चत्तारि वि पयडीओ बंधेण झीणाओ। णामस्स जइ णेरइयो पढमाए जाव छट्टि पुढवि त्ति तस्स णिरयगइ-तिरिक्खगइ-देवगइ-एइंदियबेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियजादि-वेउव्विय-आहारसरीर-पंचसंठाण -दोण्णिअंगोवंग-पंचसंघडण-णिरय-तिरिक्ख-देवाणुपुग्वि-आदावुजोव-अप्पसत्थविहायगदि-थावर-सुहुम-अपज्ज०साहारण-अथिर-असुभ-दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्ति-तित्थयरणामा त्ति एदाओयोग्य संक्लेशका उल्लंघन कर उनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके बन्धके निमित्तरूप विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए सर्वविशुद्ध इस जीवके उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता । इस प्रकार ओघसे सूत्रके अनुसार प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति कही।
विशेषार्थ—यहाँ सामान्यरूपसे चारों गतियोंमें घटित हों इस अपेक्षाको मुख्यकर ये चोंतीस बन्धापसरण कहे गये हैं । जिन प्रकृतियोंके विषयमें कुछ अपवाद है उनका निर्देश यथास्थान टीकामें किया ही है । उदाहरणार्थ सातवें नरकका नारकी जीव प्रथम सम्यक्त्वके प्राप्त करनेके सन्मुख होनेके पूर्व भी तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वो और नीचगोत्रका ही नियमसे बन्ध करता रहता है तथा ऐसी भूमिकामें भी उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। इसलिये इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति करनेवाले दो बन्धापसरण सातवें नरकमें नहीं बनते । इसी प्रकार प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होनेके पूर्व ही तिर्यञ्चों और मनुष्योंके मनुष्यगति आदि पाँच प्रकृतियोंकी यथास्थान नियमसे बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिये यह बन्धापररण केवल तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी अपेक्षा कहा है। शेष कथन सुगम है।
६५. अब आदेशद्वारा प्रकृतिबन्धसम्बन्धी क्षीण अक्षीणपनेविषयक कुछ प्ररूपणा करते हैं । यथा-आदेशसे चारों ही गतियोंमें ज्ञानावरणीयके प्रकृतिबन्धका विच्छेद नहीं है। इसी प्रकार दर्शनावरणकी अपेक्षा भी कहना चाहिए। वेदनीयकी असाताप्रकृति बन्धसे विच्छिन्न है, सातावेदनीय नहीं। मोहनीयकर्मकी स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक बन्धसे विच्छिन्न हैं, शेष मोह प्रकृतियाँ बन्धसे विच्छिन्न नहीं होती। आयुकर्मकी चारों ही प्रकृतियाँ बन्धसे विच्छिन्न हैं। नामकर्मकी यदि प्रथम पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकका नारको है तो उसके नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, पाँच संस्थान, दो आंगोपांग, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति और तीर्थंकर ये प्रकृतियाँ बन्धसे विच्चिन्न हैं, शेष नहीं। गोत्रकर्मकी नीचगोत्र
२९
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० पयडीओ बंधेण झीणाओ, ण सेसाओ । गोदस्स णीचागोदं बंधेण वोच्छिण्णं, णेदरं । अंतराइयस्स णत्थि एत्थ पयडिबंधस्स झीणदा। सत्तमाए एवं चेव । णवरि उज्जोवं सिया बंधेण झीणं सिया णोझीणं । तिरिक्खगइ-तप्पाओगाणु०-णीचागोदाणि च बंधेण णोझीणाणि । मणुसगइ-तप्पाओग्गाणुपुन्वि-उच्चागोदाणि बंधेण झीणाणि ।
६६. जइ तिरिक्खो मणुस्सो वा तो तस्स णामस्स देवगदि-पंचिंदियजादिवेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियअंगोवंग-वण्णादि४-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि - अगुरुलहुआदि४ - पसत्थविहायगदि-तसादि४ -थिरादि६ - णिमिणणामाणि मोत्तूण सेसाणि बंधेण झीणाणि । गोदस्स णीचागोदं बंधेण झीणं । सेसं पुव्वं व वत्तव्यं । देवगदीए पढमपुढविभंगो । एसा पयडिबंधझीणदा णाम ।।
६७. एदासिं चेव पयडीणं पयडिझीणदाए समुट्ठिाणं द्विदिबंधझीणदा च अणुमग्गियव्वा । अज्झीणबंधाणं पि पयडीणमंतोकोडाकोडीदो उवरिमट्ठिदिबंधवियप्पाणं झीणदा समयाविरोहेणाणुगंतव्वा । एवमणुभाग-पदेसविसए वि एमो अत्थो जोजेयव्वो। एवं ताव पयडिवंधवोच्छेदं द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधवोच्छेदगम्भं परूविय संपहि पयडिविसयमुदयवोच्छेदं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* पंचदंसणावरणीय-चदुजादिणामाणि चदुआणुपुग्विणामाणि प्रकृति बन्धसे विच्छिन्न है, उच्चगोत्र नहीं। अन्तरायकर्मके प्रकृतिबन्धका विच्छेद यहाँ नहीं है। सातवीं पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उद्योतप्रकृति कदाचित् बन्धसे विच्छिन्न है, कदाचित् विच्छिन्न नहीं है। तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र ये बन्धसे विच्छिन्न नहीं हैं । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र ये बन्धसे विच्छिन्न हैं। __$ ६६. यदि तिर्यश्च और मनुष्य है तो उसके नामकर्मकी देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्णादिचतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, सादि चार, स्थिरादि छह और निर्माण इन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष प्रकृतियाँ बन्धसे विच्छिन्न हैं। गोत्रकर्मकी नीचगोत्र प्रकृति बन्धसे विच्छिन्न है। शेष कथन पहलेके समान कहना चाहिए । देवगतिमें पहली पृथिवीके समान भंग है। यह प्रकृतिबन्धसम्बन्धी विच्छिन्नताका निर्देश है।
६६७. प्रकृतिबन्धविच्छिन्नतारूपसे निर्दिष्ट इन्हीं प्रकृतियोंकी स्थितिबन्धकी अपेक्षा विच्छिन्नताका अनुमार्गण कर लेना चाहिए। तथा जिन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती उन प्रकृतियोंकी अन्तःकोड़ाकोड़ीसे उपरिम स्थितिबन्धविकल्पोंकी विच्छिन्नता समय के अविरोधरूपसे जान लेना चाहिए। इसीप्रकार अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके विषयमें भी यह अर्थ योजित करना चाहिए । इस प्रकार स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी बन्धव्युच्छित्ति जिसमें गर्भित है ऐसे प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्तिका कथन कर अब प्रकृतिविषयक उदयव्युन्छित्तिका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* पाँच दर्शनावरण, चार जाति नामकर्म, चारों आनुपूर्वी नामकर्म तथा
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२२७
आदाव-थावर - सुहुम-अपज्जत-साहारणसरीरणामाणि एदाणि उदएण वोच्छिष्णाणि ।
$ ६८. एत्थ पंचदंसणावरणीयणिदेसेण णिद्दामेदाणं पंचण्हं गहणं कायव्वं, तेसमेत्युदय वोच्छेदो । किं कारणं ? दंसणमोहुवसामगस्स सागर - जागारावत्थस्स तदुदयपरिणामविरोहा दो । एवं चदुजादिआदीणं पि सुत्तणिद्दिट्ठपयडीणमुदय वोच्छेदो वतव्वो ।
1
$ ६९. एवमोघेण परूविदस्सेदस्सत्थस्स पुणो वि फुडीकरणट्टमादेसपरूवणा कीरदे । तं जहा – आदेसेण चदुसु गदीसु वि पंचणाणावरणीयाणं णत्थि उदयेण झीदा । दंसणावरणीयस्स चत्तारि पयडीओ उदएण अज्झीणाओ । वेदणीयस्स सादासादाणं णत्थि उदएण झीणदा । मोहणीयस्स सव्वासि पयडीणं णत्थि उदएण झीणदा । णवरि णेरइएस इत्थि - पुरिसवेदाणमुदएण झीणदा । देवेसु णपुंसय वेदस्स उदएण झीणदा वत्तव्या । आउस्स सव्वासि पयडीणं णत्थि उदयवोच्छेदो । णवरि
नाककर्म ये प्रकृतियाँ उदयसे
आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर व्युच्छिन्न होती हैं ।
$ ६८. यहाँ सूत्र में पाँच दर्शनावरण पदके निर्देशसे निद्रादि पाँच भेदोंका ग्रहण करना चाहिए, उनकी इसके उदय व्युच्छित्ति है, क्योंकि साकार उपयोग और जागृत अवस्थाविशिष्ट दर्शनमोह - उपशामकके इन पाँच निद्रादिके उदयरूप परिणामका विरोध है । इसी प्रकार सूत्रमें निर्दिष्ट की गई चार जाति आदि प्रकृतियोंकी उदय के अभावका भी कथन करना चाहिए ।
विशेषार्थ दर्शन मोहका उपशामक वही जीव हो सकता है जो संज्ञी, पचेन्द्रिय और पर्याप्त होकर जीवादि नौ पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानके साथ अपने साकार उपयोग द्वारा जीवादि नौ पदार्थों में अनुस्यूत एकमात्र जीवपदार्थके अनुमननके सन्मुख हो । ऐसा जीव नियमसे जागृत होता है, इसलिये तो उसके निद्रादि पाँच दर्शनावरण प्रकृतियोंके उस कालमें उदयका निषेध किया है। साथ ही उसके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त एकमात्र यही जीवसमास होता है, इसलिये उसके एकेन्द्रिय आदि चार जाति आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियोंके उदयका निषेध किया है। यहाँ सूत्रमें पाँच दर्शनावरण आदिके मात्र उदयका निषेध किया है । परन्तु इससे इन प्रकृतियोंकी उदीरणाका भी निषेध जान लेना चाहिए, क्योंकि कुछ अपवादों को छोड़कर सर्वत्र उदीरणा उदयकी अविनाभाविनी होती है ।
६९. इस प्रकार ओघसे कहे गये इस अर्थका फिर भी स्पष्टीकरण करनेके लिये आदेशप्ररूपणा करते हैं । यथा - आदेशसे चारों ही गतियोंमें पाँच ज्ञानावरण प्रकृतियोंका उदयविच्छेद नहीं है । दर्शनावरणकी चार प्रकृतियोंका उदयविच्छेद नहीं है । वेदनीय की साता और असाता इन दोनों प्रकृतियोंका उदयविच्छेद नहीं है । मोहनीयकी सब प्रकृतियोंका उदयविच्छेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि नारकियों में स्त्रीवेद और पुरुषवेदका उदय नहीं होता । तथा देवोंमें नपुंसकवेदका उदय नहीं होता ऐसा कहना चाहिए। आयुकी सभी
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० एकम्मि आउए गदिविसेससंबंधेण णिरुद्धे तत्थ सेसाणमुदएण झीणदा त्ति वत्तव्वं ।
७०. णामस्स जइ णेरइओ, णिरयगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-हुंडसंठाण-वेउब्वियअंगोवंग-वण्ण४ - अगुरुअलहुअ४ - अप्पसत्थविहाय० - तस४थिराथिर-सुहासुह-भग-दुस्सर-अणादेज-अजसगित्ति-णिमिणणामाओ एदाओ पयडीओ उदएण अज्झीणाओ, सेसाओ झीणाओ।
७१. जइ तिरिक्खो, तिरिक्खगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर० छण्हं संठाणाणमेक्कदरं ओरालियअंगोवंग० छण्हं संघडणाणमेक्कदरं वण्ण४-अगुरुलहुअ४ उज्जोवं सिया० दोण्हं विहायगदीणमेक्कदरं तसादिचउक्क० थिराथिर-सुभासुभ० सुभगदूभगाणमेक्कदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जस-अजसगित्तीणमेक्कदरं णिमिणं च एदाओ पयडीओ तिरिक्खस्स उदएण अझीणाओ। सेसाओ पयडीओ उदएण झीणाओ । मणुस्सस्स वि मणुसगदि-पंचिंदियजादि० एवं तिरिक्खभंगेण णेदव्वं । णवरि उज्जोववजं ।
5 ७२. जइ देवो, देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियअंगोवंग-वण्ण४ - अगुरुलहुअ४ - पसत्थविहायगइ - तस४ - थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-जसगित्ति-णिमिणमिदि एदाओ पयडीओ उदएण अज्झीप्रकृतियोंका उदयविच्छेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि गतिविशेषके सम्बन्धसे एक आयुके उदय रहनेपर उसके शेष आयुओंका उदय नहीं होता ऐसा कहना चाहिए।
७०. यदि नारकी है तो नामकर्मकी नरकगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोग ति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण नामवाली ये प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, शेष प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न हैं अर्थात् शेष प्रकृतियोंका उसके उदय नहीं होता।
७१. यदि तिर्यश्च है तो तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक, औदारिक शरीर आंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक,
सादिचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमेंसे कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय-अनादेयमेंसे कोई एक, यश कीर्ति-अयश कीर्तिमेंसे कोई एक और निर्माण ये प्रकृतियाँ तिर्यश्चके उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, शेष प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न हैं, अर्थात् शेष प्रकृतियोंका उसके उदय नहीं होता। मनुष्यके भी मनुष्यगति और पञ्चेन्द्रियजाति इत्यादि रूपसे तिर्यश्चके समान जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उद्योत प्रकृतिका उदय नहीं होता।
७२. थदि देव है तो देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति और निर्माण नामवाली ये प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, शेष प्रकृतियाँ उदयसे
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२९
गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा णाओ, सेसाओ झीणाओ।
७३. गोदस्स जइ रइओ तिरिक्खो वा णीचागोदमुदयादो अज्झीणमुच्चागोदं झीणं । जइ मणुसो, णीचुच्चागोदाणमेक्कदरं झीणं । जइ देवो, उच्चगोदं उदएण अज्झीणं, णीचागोदं झीणं । चदुसु वि गदीसु पंचंतराइयाणि उदएण णो झीणाणि । एसा ताव पयडिउदयझीणदा सुत्ताणुसारेण मग्गिदा ।
६७४. जाओ पयडीओ जत्थ उदएण अज्झीणाओ तत्थ तासिमंतोकोडाकोडिमेत्ता द्विदी उदएण अज्झीणा। सेसाणं पयडीणं सव्वाओ द्विदीओ उदएण झीणाओ। एसा हिदिउदयझीणदा णाम । जाओ अप्पसत्थपयडीओ उदएण अज्झीणाओ तासिं विट्ठाणिओ अणुभागो संतादो अणंतगुणहीणो उदएण अज्झीणो । जाओ पसत्थपयडीओ उदएण अज्झीणाओ तासि पयडीणं चउहाणिओ अणुभागो बंधादो अणंतगुणहीणसरूवो उदयादो अज्झीणो, सेसाणं झीणत्तं । एसा अणुभागझीणदा णाम । पदेसझीणदा वि जाओ पयडीओ उदएण अज्झीणाओ तासिं पयडीणमणुकस्सयं पदेसग्गमुदयादो अज्झीणं, सेसाणि ज्झीणाणि । एत्थेव पयडिआदीणमुदीरणादो वि झीणाझीणत्तमेदीए दिसाए अणुगंतव्वं । एवं तदियगाहापुव्वद्धस्स अत्थविहासा समत्ता। विच्छिन्न हैं, अर्थात् उनका उदय नहीं होता।
६७३. यदि नारकी और तिर्यश्च है तो गोत्रकर्मकी नीचगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, उच्चगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न है। यदि मनुष्य है तो नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनमेंसे कोई एक प्रकृति उदयसे विच्छिन्न है। यदि देव है तो उच्चगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न नहीं है, नीचगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न है। यह प्रकृति उदयविच्छिन्नता है जिसका सूत्रके अनुसार विचार किया।
७४. जो प्रकृतियाँ जहाँ पर उदयसे अविच्छिन्न हैं वहाँ उनकी अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थिति उदयसे अविच्छिन्न है । शेष प्रकृतियोंकी सब स्थितियाँ उदयसे विच्छिन्न हैं । यह स्थिति उदयविच्छिन्नता है। जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ उदयसे अविच्छिन्न हैं उनका द्विस्थानीय अनुभाग सत्त्वसे अनन्तगुणा हीन होकर उदयसे अविच्छिन्न है। जो प्रशस्त प्रक्रतियाँ उदयसे अविच्छिन्न हैं उन प्रकृतियोंका चतुःस्थानीय अनुभाग बन्धसे अनन्तगुणा हीनस्वरूप होकर उदयसे अविच्छिन्न है, शेष प्रकृतियोंका अनुभाग उदयसे विच्छिन्न है। यह अनुभाग विच्छिन्नता है। प्रदेशविच्छिन्नता-जो प्रकृतियाँ उदयसे अविच्छिन्न है उन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशपिण्ड उदयसे अविच्छिन्न है, शेष प्रकृतियाँ प्रदेशपिण्डकी अपेक्षा उदयसे विच्छिन्न हैं। यहीं पर प्रकृति आदिकी उदीरणाकी विच्छिन्नता और अविच्छिन्नताको भी इसी दिशासे जान लेना चाहिए। इस प्रकार तीसरी गाथाके पूर्वाधके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ।
विशेषार्थ—यहाँ चूर्णिसूत्र में दर्शनमोहके उपशमके सन्मुख हुए जीवके निद्रादिक पाँचका अनुदय बतलाया है। उसका कारण देते हुए टीकामें बतलाया है कि ऐसा जीव नियमसे जागृत होता है। किन्तु धवला टीकामें ऐसे जीवको दर्शनावरणकी चार या निद्रा
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
$ ७५. संपहि तप्पच्छद्धस्स अत्थविहासणट्ठमिदमाह -
* 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ति विहासा । ९ ७६. एदस्स गाहापच्छद्धस्स एहिमत्थविहासा अहिकीरदि ति भणिदं होइ । * ण ताव अंतरं उवसामगो वा पुरदो होहिदि त्ति ।
किंतु
७७. ण ताव इदानीमंतरकरणमुपशमकत्वं वा दर्शनमोहस्य विद्यते, तदुभयं पुरस्तादनिवृत्तिकरणं प्रविष्टस्य भविष्यतीत्ययमत्र सूत्रार्थसद्भावः । एवं तदियTerr अत्थविहासा समत्ता ।
२३०
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ ७८. संपहि चउत्थगाहाए अत्थ विहासणट्ठमिदमाह -
प्रचला इनमें से किसी एक प्रकृतिके साथ पाँच प्रकृतियोंका वेदक कहा है । धवला टीकाका वह उल्लेख इस प्रकार है
चक्खुदंसणावरणीयमचक्खुदंसणावरणीय मोहिदंसणावरणीय केवलदंसणावरणीयमिदि दुहं दंसणावरणीयाणं वेदगो, णिद्दा-पयलाणं एक्कदरेण सह पंचण्हं वा वेदगो ।
२. मोहनीयकर्मके प्रसंगसे यहाँ मोहनीय कर्मकी सभी प्रकृतियोंका उदय बतलाया है। सो उसका यह आशय है कि उक्त जीवके सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिको छोड़कर आगमानुसार सभी प्रकृतियोंका उदय सम्भव है । यथा - मिथ्यात्व, चारों क्रोध, या चारों मान, या चारों माया या चारों लोभ, तीन वेदोंमें से कोई एक वेद, हास्य- रति और अरति-शोक इन दो युगलों में से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा इस प्रकार १० का, या भय
समें एक विना ९ का, या दोनोंके बिना ८ का उदय होता है ।
३. दूसरे यहाँ उदयागत प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका उदय बतलाया है, किन्तु धवला टीका में उदयगत प्रकृतियोंके अजघन्य - अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका वेदक बतलाया है । यथाउदइल्लाणं पयडीणमजहण्णाणुक्कस्सपदेसाणं वेदगो ।
_ ७५. अब उसके उत्तरार्धके अर्थकां विशेष व्याख्यान करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* उक्त जीव 'अन्तर कहाँ पर करता है और कहाँ पर किन-किन कर्मोंका उप'शामक होता है' इस पदकी विभाषा ।
७६. तीसरी गाथाके इस उत्तरार्धके अर्थका इस समय विशेष व्याख्यान अधिकार प्राप्त है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें न तो अन्तरकरण होता है और न ही यहाँ पर वह उपशामक होता है, आगे जाकर ये दोनों कार्य होंगे ।
$ ७७. इस समय दर्शनमोहका न तो अन्तरकरण होता है और न ही उपशामकपना ही पाया जाता है, किन्तु ये दोनों आगे अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके होंगे यह यहाँ सूत्रके अर्थका तात्पर्य है । इस प्रकार तीसरी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ । $ ७८. अब चौथी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करनेके लिये इस सूत्रको
कहते हैं
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३१
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
* किं ठिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवद्देयूण साणि कं ठाणं पडिवज्जदि ति विहासा ।
$ ७९. एदिस्से चउत्थगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणमिदाणि कस्सामोति gists |
* द्विदिघादो संखेज्जा' भागे घादेदूण संखेज्जदिभागं पडिवज्जइ । § ८०, अधापवत्तकरणचरिमसमयविसयादो ठिदिसंतकम्मादो अंतोकोडा कोडिसागरोवमपमाणादो अपुव्वाणियद्विकरणपरिणामेहिं संखेज्जे भागे जहाकमं संखेजस हस्से हिं ठिदिखंडयघादेहिं घादिदूण तदो पुव्वणिरुद्धठिदीए संखेज्जदिभागमेसो पडिवज्जदित्ति भणिदं होइ ।
* अणुभागघादो अणते भागे घादिदूण अनंतभागं पडिवज्जइ ।
$ ८१. अप्पसत्थाणं कम्माणं अणुभागस्साणंते भागे अपुव्वाणियट्टिकरणपरिणामेहिं घादिय तदणंतिमभागमेसो पडिवञ्जदि त्ति वृत्तं होइ । संपहि दे दो वि घादा अधापवत्तकरणं वोलिय अपुव्वकरणपढमसमय पहुडि पयट्टंति त्ति जाणावणट्ठसुतरसुत्तमाह
* 'उक्त जीव किस स्थितिवाले कर्मोंका और किन अनुभागों में स्थित कर्मोंका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है' इसकी विभाषा ।
§ ७९. यथा अवसर प्राप्त इस चौथी गाथाके अर्थका इस समय विशेष व्याख्यान करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* स्थितिघात – संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितियोंका घातकर संख्यातवें भागको प्राप्त होता है ।
§ ८०. अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जो स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण है उसमेंसे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके बलसे यथाक्रम संख्यात हजार स्थिति काण्डकघातोंके द्वारा संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका घातकर पहलेकी विवक्षित स्थिति संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको यह प्राप्त होता है यह उक्त कथनका पर्य है ।
* अनुभागघात – अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागका घातकर अनन्तवें भागप्रमाण अनुभागको प्राप्त होता है ।
$ ८१. अप्रशस्त कर्मोंके अनुभागके अनन्त बहुभागका अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके बलसे घातकर उसके अनन्तवें भागप्रमाण अनुभागको यह प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब ये दोनों ही घात अधःप्रवृत्तकरणको उल्लंघन कर • अपूर्वकरणके प्रथम समयसे प्रवृत्त होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
१. ताप्रतो ट्ठिदिया दो संखेज्जे इति पाठोः ।
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० * तदो इमस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे वट्टमाणस्स पत्थि हिदिघादो वा अणुभागघादो वा । से काले दो वि घावा पवत्तीहित्ति ।
८२. जदि एसो पडिसमयमणंतगुणाए विसोहीए सुट्ठ वि विसुज्झमाणो संतो द्विदि-अणुभागखंडयघादपाओग्गविसोहीओ ण पावदि, हेट्ठा चेव वद्ददि, तदो इमस्स चरिमसमयाधापवत्तकरणभावे वट्टमाणस्स पत्थि द्विदिघादो अणुभागधादो वा। किंतु से काले अपुव्वकरणं पविट्ठपढमसमए दो वि एदे द्विदि-अणुभागविसयघादा गुणसेढिणिक्खेवादिसहगदा पवत्तीहिंति । तम्हा तत्थेव तप्परूवणं कस्सामो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो।
___ * अतः अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान इस जीवके स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता, किन्तु तदनन्तर समयमें दोनों ही घात प्रवृत्त होंगे ।
६८२. यद्यपि यह जीव प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी विशुद्धिसे अत्यन्त विशुद्ध होता हुआ भी स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातके योग्य विशुद्धिको नहीं प्राप्त होता, नीचे ही रहता है, इसलिये अधःप्रवृत्तकरणभावमें विद्यमान इसके स्थितकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं होता। किन्तु तदनन्तर समयमें अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट होनेपर गुणश्रेणिनिक्षेप आदिके साथ स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात प्रवृत्त होंगे, इसलिये वहीं पर उनका कथन करेंगे यह इस सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ-क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंसे संयुक्त जो जीव दर्शनमोहका उपशम करनेके सन्मुख होकर अधःप्रवृत्तकरणमें प्रविष्ट होता है उसके प्रथम समयसे लेकर इस करणके अन्तिम समय तक प्रत्येक समयके परिणामोंमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है। इस जीवके अपने कालके भीतर प्रत्येक समयमें अप्रशस्त कर्मोंका अनन्तगुण हीन द्विस्थानीय और प्रशस्त कोका अनन्तगुणा चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध होता रहता है । तथा एक स्थितिबन्धका समय पूर्ण होनेपर दूसरा स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कम होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। इसी क्रमसे तीसरा, चौथा आदि जानना चाहिए । इसप्रकार इस करणमें संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण होते हैं। किन्तु इन परिणामोंको निमित्तकर स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुण-श्रेणि रचना और गुणसंक्रम ये चार आवश्यक नहीं होते। यहाँ अपूर्वकरणमें स्थिति काण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुणश्रेणि रचना होती है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उपरितन एक काण्डक-प्रमाण स्थितिका फालिक्रमसे अन्तर्मुहूर्तकालमें घात करना स्थितिकाण्डकघात कहलाता है, अप्रशस्त प्रकृतियोंके उपरितन एक काण्डक प्रमाण बहुभाग अनुभागका फालिक्रमसे अन्तर्मुहूर्तकालमें घात करना अनुभागकाण्डकघात कहलाता है। आयुके सिवाय शेष कोंके उपरितन स्थितियों में स्थित कर्मपुंजमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग द्रव्य प्राप्त हो, उसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर प्राप्त हुआ एक भागप्रमाण उदयवाली प्रकृतियोंका द्रव्य उदयावलिमें निक्षिप्त करना तथा उदयवाली व अनुदयवाली शेष प्रकृतियोंके द्रव्यको गुणितक्रमसे उदयावलिके अनन्तर समयवर्ती निषेकसे लेकर गुणश्रेणिशीर्ष तक निक्षिप्त करना गुणश्रेणि रचना कहलाती है। इन सबका विशेष विचार आगे किया ही हैं । यहाँ मात्र उनका स्वरूप बतलानेके लिये संक्षेपमें निर्देश किया है।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२३३
* एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पढमसमए परूविदाओ ।
९ ८३. गयत्थमेदं सुतं । संपहि 'दंसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे' इच्चेदं सुत्तपदमस्सियूण दंसणमोहोवसामगस्स करणलद्धिपरूवणट्ट मुवरिमो पबंधो । * दंसणमोहउवसामगस्स तिविहं करणं ।
$ ८४. येन परिणामविशेषेण दर्शन मोहोपशमादिर्विवक्षितो भावः क्रियते निष्पाद्यते स परिणामविशेषः करणमित्युच्यते । तं पुण करणमेत्थ तिविहं होइ त्ति देण सुत्तेण जाणाविदं । संपहि तेसिं तिण्डं करणाणं णामणिद्देसं कुणमाणो पुच्छावकमाह* तं ज्रहा ।
८५. सुगमं ।
-
* अधापवत्तकरणमपुव्वकरणमणियहिकरणं च ।
$ ८६. एवमेदाणि तिण्णि करणाणि एत्थ होंति त्ति भणिदं होइ । संपहि एदेसिं तिन्हं करणाणं किंचि अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहो – जम्हि वट्टमाणस्स जीवस्स करणपरिणामा अधो हेट्ठा पवत्तंति तमधापवत्तकरणं णाम । एदम्मि करणे उवरिमसमयपरिणामा हेट्ठिमसमयेसु वि व ंति त्ति भणिदं होइ । समयं पडि अपुव्वा
* इन चार गाथाओंकी अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में प्ररूपणा करनी चाहिए ।
$ ८३. यह सूत्र गतार्थ है । अब 'दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है ।' इस प्रकार इस सूत्र पदका आलम्बन लेकर दर्शनमोहके उपशामककी करणलब्धिका कथन करनेके लिये आगेका प्रबन्ध कहते हैं
* दर्शनमोहके उपशामकके तीन करण होते हैं ।
$ ८४. जिस परिणामविशेषके द्वारा दर्शनमोहका उपशमादिरूप विवक्षित भाव किया जाता है अर्थात् उत्पन्न किया जाता है वह परिणाम करण कहलाता है । वह करण यहाँ पर तीन प्रकारका होता है यह इस सूत्र द्वारा ज्ञात कराया गया है । अब उन तीन करणोंका नामनिर्देश करते हुए पृच्छावाक्यको कहते हैं—
* वे जैसे ।
$ ८५. यह सूत्र सुर्गम है ।
* अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण |
$ ८६. इस प्रकार ये तीन करण यहाँपर होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इन तीन करणोंके अर्थका किंचित् प्ररूपण करते हैं । यथा - जिस करणमें विद्यमान जीवके करणपरिणाम 'अधः' नीचे अर्थात् उपरितन ( आगे के ) समयके परिणाम नीचे ( पूर्व ) के समय के परिणामों के समान प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवृत्तकरण है । इस करण में उपरिम समयके परिणाम नीचेके समयों में भी पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जिस
१. ता०प्रतो तं जहा इति पाठो नास्ति । ३०
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
असमाणा णियमा अनंतगुणसरूवेण वडिदा करणा परिणामा जम्हि तमपुव्वकरणं नाम । एत्थतणपरिणामा पडिसमयमसंखेजलोगमेत्ता होणण्णसमयद्विदपरिणामेहिं सरिसा ण होंति त्ति भावत्थो । जम्हि वट्टमाणाणं जीवाणमेगसमयम्हि परिणाममेदो णत्थि तमणियकिरणं णाम । एदेसिं करणाणं विसेसणिण्णयमुवरि कस्सामो । एवमधापवत्तादिकरणाणं णामणिद्देसं काढूण संपहि एदेसिं तिण्हमद्धाहिंतो उवरि उवसामणद्धा होइ चि जाणावणट्टमुत्तरमुत्तमोइण्णं
* चउत्थी उवसामणद्धा ।
§ ८७, का उवसामणद्धा णाम १ जम्हि अद्भाविसेसे दंसणमोहणीयमुवसंतावण्णं होण चिट्ठा सा उवसामणद्धा ति भण्णदे । उवसमसम्माइट्टिकालो त्ति भणिदं होइ । * एवेसिं करणाणं लक्खणं ।
९ ८८. एदेसिं करणाणं लक्खणपरूवणं इदाणि कस्सामो चि भणिदं होइ । तत्थ ताव जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायादो अधापवतकरणलक्खणं पढममेव परूविजदे । तत्थ दोण्णि अणिओगद्दाराणि – अणुकट्टिपरूवणा अप्पाबहुअं चेदि । एत्थ ताव सुतणिबद्धस्स अप्पाबहुअस्स साहणट्ठमणुकद्विपरूवणं कस्सामो । तं जहाअधापवत्तकरणपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति ताव पादेकमेकेकम्मि समये
करणमें प्रत्येक समयमें अपूर्व अर्थात् असमान नियमसे अनन्तगुणरूपसे वृद्धिंगत करण अर्थात् परिणाम होते हैं वह अपूर्वकरण है। इस करणमें होनेवाले परिणाम प्रत्येक समय में असंख्यात लोकप्रमाण होकर अन्य समयमें स्थित परिणामोंके सदृश नहीं होते हैं यह उक्त कथनका भावार्थ है । जिस करणमें विद्यमान जीवोंके एक समयमें परिणामभेद नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है | इन करणोंका विशेष निर्णय ऊपर करेंगे। इस प्रकार अधःप्रवृत्त आदि करणोंका नामनिर्देश करके अब इन तीनोंके कालसे ऊपर ( आगे ) उपशामनकाल होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र आया है
1
* चौथी उपशामनाद्धा है ।
९ ८७. शंका-उपशामनाद्धा किसे कहते हैं ? .
समाधान — जिस कालविशेषमें दर्शनमोहनीय उपशान्त होकर अवस्थित होता है उसे उपशामनाद्धा कहते हैं । उपशमसम्यग्दृष्टिका काल यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अब इन करणोंका लक्षण कहते हैं ।
$ ८८. इन करणोंके लक्षणका कथन इस समय करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ' उसमें भी सर्वप्रथम 'उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायके अनुसार प्रथम ही अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहते हैं। उसमें दो अनुयोगद्वार हैं- अनुकृष्टिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । यहाँ सर्वप्रथम सूत्रमें निबद्ध किये गये अल्पबहुत्वका साधन करनेके लिये अनुत्कृष्टका कथन करेंगे । यथा - अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक पृथक
१. ताप्रती - णाववविदा इति पाठः ।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२३५ असंखेअलोगमेत्ताणि परिणामट्ठाणाणि छवड्डिकमेणावद्विदाणि द्विदिबंधोसरणादीणं कारणभूदाणि अस्थि । तेसिं परिवाडीए विरचिदाणं पुणरुत्तापुणरुत्तभावगवेसणा अणुकट्टी णाम । अनुकर्षणमनुकृष्टिरन्योन्येन समानत्वानुचिंतनमित्यनान्तरम् । सा वुण संसारपाओग्गेसु हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणादिपरिणामेसु पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण वोच्छिादि, जहण्णढिदिबंधपाओग्गपरिणामाणमुवरि पलिदोवमासंखेजदिभागमेत्तहिदिविसेसेसु अणुवुत्तोए तत्थ दसणादो। इह वुण तहा ण होइ, किंतु अंतोमुहुत्तमेत्तमवट्ठिदमद्धाणं सगद्धाए संखेजदिमागं गंतूणाणुकट्टिवोच्छेदो होदि । तत्कथमिति चेत् ? उच्यते-अधापवत्तकरणपढमसमए असंखेचलोगमेत्ताणि परिणामहाणाणि होति । पुणो विदियसमए ताणि चेव परिणामट्ठाणाणि अण्णेहिं अपुव्वेहिं परिणामट्ठाणेहिं विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तो विसेसो १ असंखेज्जलोगपरिणामट्ठाणमेत्तो पढमसमयपरिणामट्ठाणाणमंतोमुहुत्तपडिभागिओ। एवमेदेण पडिभागेणे समयं पडि विसेसाहियाणि कादूण णेदव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति । पृथक् एक-एक समयमें छह वृद्धियोंके क्रमसे अवस्थित और स्थितिबन्धापसरणादिकके कारणभूत असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं । परिपाटीक्रमसे विरचित इन परिणामोंके पुनरुक्त और अपुनरुक्त भावका अनुसन्धान करना अनुकृष्टि है । 'अनुकर्षणमनुकृष्टिः' अर्थात् उन परिणामोंकी परस्पर समानताका विचार करना यह अनुकृष्टिका एकार्थ है। परन्तु वह संसारके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानादिरूप परिणामोंके रहते हए पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल ऊपर जाकर व्युच्छिन्न होती है, क्योंकि जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणामों के सद्भावमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंकी अनुवृत्ति वहाँ देखी जाती है। परन्तु यहाँ पर वैसा नहीं होता, किन्तु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवस्थित कालके, जो कि अपने अर्थात् अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है, व्यतीत होनेपर अनुकृष्टिका विच्छेद होता है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान—कहते हैं-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं । पुनः दूसरे समयमें वे ही परिणामस्थान अन्य अपूर्व परिणामस्थानोंके साथ विशेष अधिक होते हैं।
शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान-प्रथम समयके परिणामस्थानोंमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम प्राप्त होते हैं उतना है।
इस प्रकार इस प्रतिभागके अनुसार प्रत्येक समयमें विशेष अधिक परिणामस्थान करके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक ऐसा ही जानना चाहिए।
विशेषार्थ--जिसमें आगेके समयोंमें होनेवाले परिणामोंकी पिछले समयके परिणामों के साथ समानता दिखलाई जाती है उसका नाम अनुकृष्टि है। यह अनुकृष्टि संसार अवस्थाके
१. ता०प्रती-मेदेण परिणामेण पडिभागेण इति पाठः।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे | सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ ८९. संपहिएदेसिं परिणामट्ठाणाणं पढमसमयप्पहुडि उवरि जहाकमं विसेसाहियकमेण ठेवणा एवमणुगंतव्वा । तं जहा -- -पढमसमय अधापचत्त करणस्य जाणि परिणामट्ठाणाणि ताणि अंतोमुहुत्तस्स जत्तिया समया तत्तियमेत्ताणि खंडाणि कायव्वाणि । किंपमाणमेदमंतो मुहुत्त मिदि पुच्छिदे सगद्धाए संखेजदिभागमेत्तं । तमेव णिव्वग्गणकंडयमिदि घेत्तव्वं । विवक्खिय समयपरिणामाणं जत्तो परमणुकट्टिवोच्छेदों तं णिव्वग्गणकंडयमिदि भण्णदे | संपहि एदाणि खंडाणि किमण्णोष्णं सरिसाणि, आहो विसरिसाणिति पुच्छिदे सरिसाणि ण होंति, विसरिसाणि चेवे त्ति घेत्तव्त्रं, अण्णोष्णं पेक्खियूण जहाकममेदेसिं विसेसाहियकमेणावद्वाणदंसणादो । एसो विसेसो अंतोमुहुत्तपडिभागिओ । पुणो एदाणि चेव परिणामट्ठाणाणि पढमखंडवज्जाणि विदियसमए परिवाडिमुल्लंघिय ठवेयव्वाणि । णवरि अण्णाणि च अपुव्वाणि परिणामट्ठाणाणि असंखेज्जलोग मेत्ताणि पढमसमय चरिमखंड परिणामेहिंतो अंतोमुहूतपडिभागेण
२३६
परिणामों में भी पाई जाती है और अधःप्रवृत्तकरण परिणामों में भी पाई जाती है । अन्तर इतना है कि संसार अवस्थामें इस अनुत्कृष्टिका काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है क्योंकि जघन्य स्थितिबन्धके योग्य जो परिणाम होते हैं उनके सद्भावमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणस्थितिविशेषोंकी उपलब्धि देखी जाती है । परन्तु अधःप्रवृत्तकरण में इस अनुकृष्टिका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र अवस्थितस्वरूप है, क्योंकि यह काल अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं, उनमेंसे प्रारम्भके एक खण्डप्रमाण परिणामोंको छोड़कर दूसरे समय में भी अन्य अपूर्व परिणामस्यानोंके साथ वे परिणामस्थान पाये जाते हैं। इस प्रकार यह क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिए | इस विषयका विशेष खुलासा आगे करेंगे ।
$ ८९. अव प्रथम समयसे लेकर यथाक्रम विशेष अधिकके क्रमसे इन परिणामस्थानोंकी स्थापना इस प्रकार जाननी चाहिए। यथा - अधः प्रवृत्तकरणके प्रथम समय में जो परिणामस्थान होते हैं उन्हें अन्तर्मुहूर्त कालके जितने समय हैं मात्र उतने खण्डप्रमाण करना चाहिए । शंका- इस अन्तर्मुहूर्तका क्या प्रमाण है ?
समाधान – अपने कालके संख्यातवें भागप्रमाण है ।
ant निर्वणाकाण्ड है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । विवक्षित समयके परिणामोंका जिस स्थान से आगे अनुकृष्टिका विच्छेद होता है वह निर्वर्गणाकाण्डक कहा जाता है । अब ये खण्ड परस्पर क्या सदृश होते हैं या विसदृश होते हैं ऐसा पूछने पर सदृश नहीं होते हैं, विसदृश ही होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि एक-दूसरेको देखते हुए ये यथाक्रम विशेष अधिकक्रमसे ही अवस्थित देखे जाते हैं। यह विशेष अन्तर्मुहूर्त का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना है । पुनः प्रथम खण्डको छोड़कर इन्हीं परिणामस्थानोंको दूसरे समय में परिपाटीको उल्लंघन कर स्थापित करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इस दूसरे समय में असंख्यात लोकप्रमाण अन्य अपूर्व परिणामस्थान होते हैं जो प्रथम समय के अन्तिम खण्डके १. ता० प्रती प्रायः सर्वत्र 'कंडय' स्थाने 'खंडय' इति पाठः । २. ता० प्रती जत्तो परमाणाणुक
विच्छेद इति पाठः ।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२३७ विसेसाहियाणि । एत्थ चरिमखंडभावेण ठवेयव्वाणि । एवं ठविदे विदियसमयए वि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि चेव परिणामखंडाणि लद्धाणि हवंति । एवं तदियादिसमएसु वि परिणामट्ठाणविण्णासो जहाकम कायव्यो जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति ।
-
परिणामोंसे अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने विशेष अधिक होते हैं। उन्हें यहाँ अन्तिम खण्डरूपसे स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करने पर दूसरे समयमें भी अन्तमुहूर्तप्रमाण परिणामखण्ड प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार तृतीय आदि समयोंमें भी परिणामस्थानोंकी रचना अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक क्रमसे करनी चाहिए ।
विशेषार्थ-जिस करणमें ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम पिछले समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके सदृश होते हैं, उस करणको अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं। इसका काल अन्तमुहूर्त है और इस करणमें होनेवाले परिणामोंका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण है। फिर भी इसके प्रथम समयके योग्य परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं, दूसरे समयके योग्य परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इसी प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि ये प्रत्येक समयके परिणाम उत्तरोत्तर सदृश वृद्धिको लिये हुए विशेष अधिक हैं । यह अधःप्रवृत्तकरणके स्वरूपनिर्देशके साथ उसके काल और उसके प्रत्येक समयमें होनेवाले परिणामोंकी क्रमवृद्धिको लिये हुए किस प्रकार कहाँ कितने परिणाम होते हैं इसका सामान्य निर्देश है । आगे इस करणके प्रत्येक समयमें परिणामस्थानोंकी व्यवस्था किस प्रकार है इसे स्पष्ट करके बतलाते हैं। ऐसा नियम है कि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में जितने परिणाम होते हैं वे अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण खण्डोंमें विभाजित हो जाते हैं। जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक प्रमाणको लिये हुए होते हैं। यहाँ पर उन परिणामोंके जितने खण्ड हुए, निर्वर्गणाकाण्डक भी उतने समयप्रमाण होता है, जिसकी समाप्तिके बाद दूसरा निर्वर्गणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। आगे भी इसी प्रकार जानना चाहिए । इसका स्वरूपनिर्देश टीकामें किया ही है। यहाँ जो प्रथम खण्डसे दूसरे खण्डको और दूसरे आदि खण्डोंसे तीसरे आदि खण्डोंको विशेष अधिक कहा है सो उस विशेषका प्रमाण तत्प्रायोग्य अन्तमुहूर्तका भाग देने पर प्राप्त होता है। ये सब खण्ड परस्परमें समान न होकर विसदृश ही होते हैं, क्योंकि आगे-आगे प्रत्येक खण्ड विशेष अधिक प्रमाणको लिये हुए होता है। इन खण्डोंमेंसे प्रथम खण्डगत परिणाम तो अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें ही पाये जाते हैं। शेष अनेक खण्ड और तद्गत परिणाम दूसरे समयमें स्थित जीवोंके भी होते हैं। साथ ही यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण अन्य अपूर्व परिणाम भी होते हैं जो अन्तिम खण्डरूपसे दूसरे समयमें होते हैं। ये अपूर्व परिणाम प्रथम समयके अन्तिम खण्डमें तत्प्रायोग्य अन्तर्महर्तका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने अधिक तीसरे समयमें दूसरे समयके जितने खण्ड और तद्गत परिणाम हैं उनमेंसे प्रथम खण्ड
और तद्गत परिणामोंको छोड़कर वे सब प्राप्त होते हैं। साथ ही यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण अन्य अपूर्व परिणाम भी प्राप्त होते हैं जो अन्तिम खण्डरूपसे तीसरे समयमें पाये जाते हैं। इसी प्रकार इसी प्रक्रियासे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक चौथे आदि समयोंमें भी परिणामस्थानोंकी व्यवस्था जान लेनी चाहिए। आगे इस विषयको उदाहरण देकर संदृष्टि द्वारा और भी स्पष्ट किया गया है। अतः यहाँ मात्र संक्षेपमें निर्देश किया है।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ९०. अथवा अधापवत्तकरणपढमसमयपरिणामट्ठाणाणमेवं खंडणविहाणमणुगंतव्वं । तं जहा-विदियसमयजहण्णपरिणामेण सह जं समाणं पढमसमयपरिणामट्ठाणं तत्तो हेडिमासेसपरिणामट्ठाणाणि घेत्तूण पढमसमए पढमखंडं भवदि । पुणो तदियसमयजहण्णपरिणामेण सह सरिसं जं पढमसमयपरिणामट्ठाणं तत्तो हेडिमासेसपुव्वगहिदसेसपरिणामट्ठाणाणि घेत्तूण तत्थेव विदियखंडपमाणं होइ। एवमेदेण कमेण गंतूण पुणो पढमणिव्वग्गणकंडयचरिमसमयजहण्णपरिणामेण सह पढमसमयपरिणामट्ठाणेसु जं परिणामट्ठाणं सरिसं भवदि तत्तो हेट्टिमासेसपुव्वगहिदसेसपरिणामट्ठाणाणि घेत्तण पढमसमए दुचरिमखंडपमाणं होइ । तत्तो उवरिमसेसासेसविसोहिट्ठाणेहिं चरिमखंडपमाणमुप्पज्जइ । एवं च कदे अधापवत्तकरणद्धं संखेज्जखंडे कादूण तत्थेयखंडम्मि जत्तिया समया तत्तियमेत्ताणि चेव खंडाणि जादाणि । एवं विदियादिसमएसु वि पादेकमंतोमुहुत्तमेत्तखंडाणि जहावुत्तेण विहाणेणाणुगंतव्वाणि जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति । संपहि एवं परूविदासेसपरिणामट्ठाणाणमेसा संदिट्ठी ।
१०००००००००००१००००००००००००१००००००००००००० ०००००००००००। १००००००००००१०००००००००००१००००००००००००१००००००००००।
१००००००००००००००००००००१००००००००००००००००००००००००
१००००००००१०००००००००१००००००००००१०००००००००००।
६९०. अथवा अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके परिणामस्थानोंकी खण्डविधिको इस प्रकार जानना चाहिए । यथा-दूसरे समयके जघन्य परिणामके साथ प्रथम समयका जो परिणामस्थान समान होता है उनसे भिन्न पूर्वके समस्त परिणामस्थानोंको ग्रहणकर प्रथम समयमें प्रथमखण्ड होता है । पुनः तीसरे समयके जघन्य परिणामके साथ प्रथम समयका जो परिणामस्थान समान होता है उससे पूर्वके पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामोंसे शेष बचे हुए परिणामस्थानोंको ग्रहण कर वहीं दूसरे खण्डका प्रमाण होता है। इस प्रकार इस क्रमसे जाकर पुनः प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयके जघन्य परिणामके साथ प्रथम समयके परिणामस्थानोंमें जो परिणामस्थान सदृश होता है उससे पूर्व के पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामोंसे शेष बचे हुए परिणामस्थानोंको ग्रहणकर प्रथम समयमें द्विचरम खण्डका प्रमाण होता है तथा उससे आगेके शेष समस्त विशुद्धिस्थानोंके द्वारा अन्तिम खण्डका प्रमाण उत्पन्न होता है। और ऐसा करने पर अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यात भाग करके उनमेंसे एक भागमें जितने समय होते हैं उतने ही खण्ड हो जाते हैं । इसी प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक द्वितीयादि समयोंमें भी पृथक्-पृथक् पूर्वोक्त कही गई विधिसे अन्तमुहूर्तप्रमाण खंड जानने चाहिए। इस प्रकार कहे गये समस्त परिणामस्थानोंकी यह संदुष्टि है।
(संदृष्टि मूलमें दी है)
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा
.:
२३९
१००००००००००००००००००००००००००१००००००००००। १००००००१०००००००१००००००००१०००००००००। १०००००१००००००१०००००००१००००००००। १००००१०००००१००००००१०००००००।
विशेषार्थ—यहाँ संदृष्टि में अधःप्रवृत्तकरणका काल आठ समयप्रमाण स्वीकार करके प्रत्येक समयके परिणामोंको खण्डरूपसे चार-चार भागोंमें विभाजित किया गया है। संदृष्टिमें १ यह संख्या प्रत्येक खण्डकी सूचक है और शून्य उस-उस खण्डमें कितने-कितने परिणामस्थान हैं इसके सूचक हैं। अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें कुल परिणामस्थान २२ हैं जो चार खंडोंमें विभाजित हैं । उनमेंसे प्रथम खण्डमें ४, द्वितीय खण्डमें ५. तृतीय खण्डमें ६ और चौथे खण्डमें ७परिणामस्थान स्वीकार किये गये हैं। यद्यपि अर्थसंदृष्टिकी अपेक्षा प्रत्येक समयके परिणामस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं, अतः प्रत्येक खण्डमें भी वे परिणामस्थान असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होते हैं, परन्तु यहाँ अंक संदृष्टिकी अपेक्षा उक्त प्रकारसे खण्डों और परिणामस्थानोंकी स्थापना की गई है। अधःप्रवृत्तकरणके दूसरे समयमें प्रथम समयके प्रथम खण्डमें विवक्षित परिणामस्थान तो नहीं होते, प्रथम समयके शेष तीनों खण्डोंमें विभाजित शेष सब परिणामस्थान होते हैं । तथा इनके सिवाय असंख्यात लोकप्रमाण अन्य अपूर्व परिणामस्थान भी होते हैं, संदृष्टिमें जिनकी रचना अन्तिम खण्डरूपसे ८ स्वीकार की गई है। इस प्रकार दूसरे समयमें कुल परिणामस्थान २६ कल्पित किये हैं। प्रथम खण्डमें ५, द्वितीय खण्डमें ६, तृतीय खण्डमें ७ और चतुर्थ खण्डमें ८ इस प्रकार अंकसदृष्टिकी अपेक्षा कुल परिणामस्थान स्वीकार किये गये हैं । इनमेंसे दूसरे समयके प्रथम खण्डके ५ परिणामस्थान प्रथम समयके दूसरे खंडके ५ परिणामस्थानोंके समान है। दूसरे खण्डके ६ परिणामस्थान प्रथम समयके तीसरे खण्डके ६ परिणामस्थानोंके समान हैं तथा तीसरे खण्डके ७ परिणामस्थान प्रथम समयके चौथे खण्डके ७ परिणामस्थानोंके समान हैं। यहाँ दूसरे समयमें प्राप्त होनेवाले परिणामस्थान प्रथम समबमें प्राप्त होनेवाले परिणामस्थानोंके समान होनेसे इसीका नाम अनुकृष्टि है । दूसरे समयके अन्तिम खण्डमें जो परिणामस्थान विवक्षित किये गये हैं वे प्रथम समयके सब परिणामस्थानोंसे विलक्षण हैं। प्रथम समयमें उनमेंसे एक भी परिणामस्थान नहीं पाया जाता । अधःप्रवृत्तकरणके तीसरे समयमें प्रथम समयके प्रथम और द्वितीय खण्डके तथा द्वितीय समयके प्रथम खण्डके परिणामस्थानोंके समान परिणामस्थान तो नहीं पाये जाते, प्रथम और द्वितीय समयके शेष सब खण्डोंके परिणामस्थानोंके समान परिणामस्थान पाये जाते हैं । कारण यह है कि प्रथम समयके दूसरे खण्डके परिणामस्थानोंके समान परिणामस्थान तो दूसरे समय तक ही पाये जाते हैं, इसलिये इनका तीसरे समयमें न पा जाना युक्तियुक्त ही है। किन्तु प्रथम समयके अन्तिम दो खण्डोंके परिणामस्थानोंके समान परिणामस्थान द्वितीय समयके द्वितीय और तृतीय खण्डोंके समान होनेसे उनकी अनुवृत्ति तृतीय समयके प्रथम और द्वितीय खण्डरूपसे भी देखी जाती है। तृतीय समयके तीसरे खण्डमें तत्सदृश ही परिणामस्थान होते हैं जो द्वितीय समयके अन्तिम खण्डमें पाये जाते हैं। इस प्रकार तीसरे समयके प्रथम खण्डमें, ६, दूसरे खण्डमें , तीसरे खण्डमें ८ और चौथे खण्ड में ९ परिणामस्थान होते हैं, जो सब मिलाकर ३० होते हैं। इसी प्रकार चौथे आदि समयोंमें भी परिणामस्थान और उनके खण्डोंकी व्यवस्था जान लेनी चाहिए। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि प्रथम समयके चार खण्डोंमें विभाजित जो परिणामस्थान हैं उनमेंसे प्रथम
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० ६९१. संपहि एदीए संदिट्ठीए अणुकट्टिपरूवणं कस्सामो । तं जहा–अधापवत्तकरणपढमसमयपढमखंडपरिणामा उवरिमसमयपरिणामेसु केहिं मि समाणा ण होति । तत्थेव विदियखंडपरिणामा विदियसमयपढमखंडपरिणामेहिं सरिसा । एवमेत्थतणतदियादिखंडपरिणामाणं पि तदियादिसमयपढमखंडपरिणामेहिं जहाकम पुणरुत्तभावो अणुगंतव्वो जाव पढमसमयचरिमखंडपरिणामा पढमणिव्वग्गणकंडयचरिमसमयपढमखंडपरिणामेहि पुणरुत्ता होदूण णिट्टिदा ति । एवं अधापवत्तकरणविदियादिसमयपरिणामखंडाणं पि पादेकं णिरंभणं कादूण तत्थतणविदियादिखंडपरिणामाणं णिरुद्धसमयादो उवरिमसमयणणिव्वग्गणकंडयमेत्तसमयपंतीणं पढमखंडपरिणामेहिं पुणरुत्तभावो परूवेयव्यो । णवरि सव्वत्थ पढमखंडपरिणामा अपूणरुत्तभावेणावसिट्ठा दट्ठव्या । खण्डके परिणामस्थान तो प्रथम समयमें ही होते हैं । द्वितीय खण्डके परिणामस्थानोंके सदृश परिणामस्थान प्रथम समयके समान द्वितीय समयमें भी पाये जाते हैं। तीसरे खण्डके परिणामस्थानोंके सदृश परिणामस्थान प्रथम समयके समान द्वितीय और तृतीय समयमें भी पाये जाते हैं तथा चौथे खण्डके परिणामस्थानोंके सदृश परिणामस्थान प्रथम समयके समान दूसरे, तीसरे और चौथे समयमें भी पाये जाते हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । यतः प्रथम समयके परिणामस्थानोंके सदृश परिणामस्थान चौथे समय तक ही पाये जाते हैं, अतः उक्त विधिसे प्रथम समयके परिणामस्थानोंकी चौथे समय तकके परिणामस्थानोंके साथ सदृशता और विसदृशता होनेसे इन परिणामस्थानोंकी अनुकृष्टि चौथे समयसे लेकर प्रथम समय तक बनती है। निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण भी इतना ही है । इससे आगे दूसरा निवर्गणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। विवक्षित समयके परिणामोंका जिस स्थानसे आगे अनुकृष्टिका विच्छेद होता है उनका नाम निर्वगणाकाण्डक है। जैसे अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा प्रथम समयके परिणार्मोकी चौथे समयसे आगे अनुकृष्टिका विच्छेद है, इसलिये यहाँ निर्वर्गणाकाण्डक चार समय प्रमाण हुआ। इस अपेक्षासे इससे आगे दूसरा निर्वर्गणाकाण्डक प्रारम्भ होता है । इसी प्रकार अर्थसंदृष्टिकी अपेक्षा अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक जान लेना चाहिए।
६९१. अब इस संदृष्टिका आलम्बन लेकर अनुकृष्टिका प्ररूपण करेंगे। यथा-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसम्बन्धी प्रथम खण्डके परिणाम उपरिम समयसम्बन्धी परिणामों मेंसे किन्हीं भी परिणामोंके समान नहीं होते हैं। वहीं पर दूसरे खण्डके परिणाम दूसरे समयके प्रथम खण्डके परिणामोंके समान होते हैं। इसी प्रकार यहाँके अर्थात् प्रथम समयके तीसरे आदि खण्डोंके परिणामोंका भी तृतीय आदि समयोंके प्रथम खण्डके परिणामोंके साथ क्रमसे पुनरुक्तपना तब तक जानना चाहिए जब जाकर प्रथम समयसम्बन्धी अन्तिम खण्डके परिणाम प्रथम निर्वगणाकाण्डकके अन्तिम समयके प्रथम खण्डके परिणामों के साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते हैं। इसी प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके द्वितीयादि समयोंके परिणामखंडोंको भी पृथक-पृथक विवक्षित कर वहाँके द्वितीय आदि खण्डगत परिणामोंका विवक्षित समय ( द्वितीय आदि समय ) से लेकर ऊपर एक समय कम निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण समयपंक्तियों के प्रथम खण्डके परिणामोंके साथ पुनरुक्तपनेका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र प्रथम खण्डके परिणाम अपुनरुक्तपनेसे अवशिष्ट जानने चाहिए। अर्थात् प्रत्येक समय
१. ता०प्रती परूवेमो इति पाठः ।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२४१
1
एवं चैव । विदियणिव्वग्गणकंडय परिणामखंडाणं तदियणिव्वग्गणखंडय परिणामखंडे हिं पुणरुत्तभाव काढूण दव्वं । एत्थ वि पढमखंडपरिणामा चेव अपुणरुत्तभावेण पडिसिद्धा त्ति । एदेणेव कमेण तदिय - चउत्थ- पंचमादिणिव्वग्गणकंडयाणं पि अनंतरोवरिमणिव्वग्गणकंडएहि पुणरुत्तभावं काढूण णेदव्वं जाव दुचरिमणिव्वग्गणकंडय - पढमादिसमय सव्वपरिणामखंडा पढमखंडवज्जा चरिमणिव्वग्गणकंडय परिणामेहिं पुणरुत्ता होण णिट्टिदा ति । संपहि चरिमणिव्वग्गणकंडय परिणामाणं पि सत्थाणे पुणरुत्ता पुणरुत्तभावगवे सणा समयाविरोहेण कायव्वा ।
६९२. अधवा एवमेत्थ सण्णियासो कायव्वो । तं कधं ? पढमसमए जं पढमखंडं तमुवरि केण वि सरिसं ण होइ । पुणो पढमसमयविदियखंडं विदियसमयपढमखंडं च दो विसरिसाणि । पुणो पढमसमयतदियखंडं विदियसमय विदियखंडं च दो विसरिसाणि । एवं गंतूण पुणो पढमसमयचरिमखंडं विदियसमयदुचरिमखंडं च
के प्रथम खण्डके परिणाम अगले समयके किसी भी खण्ढके परिणामोंके सदृश नहीं होते । इसी प्रकार दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकके परिणामखण्डोंका तीसरे निर्वर्गणाकाण्डकके परिणामखण्डों के साथ पुनरुक्तपना जानना चाहिए । किन्तु यहाँपर भी प्रथम खण्डके परिणाम ही अपुनरुक्तरूपसे अवशिष्ट रहते हैं । इसी क्रमसे तीसरे, चौथे और पाँचवें आदि निर्वर्गणाकाण्डकोंके भी अनन्तर उपरिम निर्वगणाकाण्डकोंके साथ पुनरुक्तपना वहाँ तक जानना चाहिए जब जाकर द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डकके प्रथमादि समयोंके सब परिणामखण्ड प्रथम खण्डको छोड़कर अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डकके परिणामोंके साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते हैं। अब अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डकके परिणामोंके स्वस्थानमें पुनरुक्त-अपुनरुक्तपनेका अनुसन्धान परमागमके अविरोधपूर्वक करना चाहिए ।
विशेषार्थ – यहाँ निर्वर्गणाकाण्डकके आश्रयसे पूर्व - पूर्व समयके परिणामोंकी उत्तरोत्तर आगे-आगेके परिणामोंके साथ किस प्रकार सदृशता और विसदृशता है यह बतलाया गया है । उदाहरणार्थ प्रथम समयके प्रथम खण्डके परिणाम अगले समयोंके किसी भी खण्डके परिणामों सदृश नहीं हैं। इसी प्रकार दूसरे आदि समयोंके प्रथम खण्डके परिणामोंके विषय में भी जान लेना चाहिए। वे भी उत्तरोत्तर आगे-आगेके समयोंके किसी भी खण्डके परिणामोंके सदृश नहीं हैं। शेष परिणामोंके विषय में ऐसा जानना चाहिए कि प्रथम समय के द्वितीय खण्डके परिणाम तथा दूसरे समयके प्रथम खण्डके परिणाम परस्पर सदृश हैं । इसीप्रकार आगे भी संदृष्टिके अनुसार जान लेना चाहिए ।
$ ९२. अथवा यहाँपर इस प्रकार सन्निकर्ष करना चाहिए । शंका- वह कैसे ?
समाधान- प्रथम समय में जो प्रथम खण्ड है वह ऊपर किसीके साथ भी सदृश नहीं है । पुनः प्रथम समयका दूसरा खण्ड तथा दूसरे समयका प्रथम खण्ड दोनों ही सदृश हैं । पुनः प्रथम समयका तीसरा खण्ड और दूसरे समयका दूसरा खण्ड ये दोनों सदृश हैं । इसी प्रकार जाकर पुनः प्रथम समयका अन्तिम खण्ड तथा दूसरे समयका द्विचरम खण्ड ये
३१
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० दो वि सरिसाणि । एवं विदियसमयपरिणामखंडाणं तदियसमयपरिणामखंडाणं च सण्णियासो कायव्यो। एवमुवरि वि अणंतराणंतरेण सण्णियासविहाणं जाणियण णेदव्वं । एवमणुकट्टिपरूवणा गया। दोनों सदृश हैं । इसी प्रकार दूसरे समयके परिणामखण्डोंका और तीसरे समयके परिणामखण्डोंका सन्निकर्ष करना चाहिए । इसी प्रकार ऊपर भी पिछलेकी तदनन्तरके साथ सन्निकर्षविधि जानकर कथन करना चाहिए। इस प्रकार अनुकृष्टिप्ररूपणा समाप्त हुई।
विशेषार्थ—यहाँपर आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व तथा अनुकृष्टि रचनाका स्पष्ट ज्ञान करनेके लिये अंकसंदृष्टि दी जाती है । अधःप्रवृत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त है जो अंकसंदृष्टिमें यहाँ १६ स्वीकार किया गया है। कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं, जो यहाँ ३०७२ स्वीकार किये गये हैं। ये सब परिणाम प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर समान वृद्धिको लिये हुए हैं। इस हिसावसे यहाँ समान वृद्धि या चयका प्रमाण ४ है। प्रथम स्थानमें वृद्धिका अभाव है, इसलिये प्रथम समयको छोड़कर १५ समयोंमें क्रमशः चयकी वृद्धि हुई है, अतः एक कम सब समयोंके आधेको चय और समयोंकी संख्यासे गुणित करनेपर १६ - १ = १५; १५:२= १५, १५४४४ १६ = ४८० चयधनका प्रमाण होता है । इसे सर्वधन ३०७२ में से घटाकर शेष २५९२ में सब समयोंका भाग देनेपर १६२ लब्ध आता है। यह प्रथम समयके परिणामोंका प्रमाण है । पुनः प्रथम समयके कुल परिणामोंकी संख्या १६२ में चयका प्रमाण ४ मिलानेपर दूसरे समयके सब परिणामोंकी संख्या १६६ होती है। इसमें चयका प्रमाण ४ मिलानेपर तीसरे समयके सब परिणामोंकी संख्या १७० होती है। इसी हिसाबसे प्रत्येक समयमें चयप्रमाण परिणामोंकी वृद्धि करते हुए अन्तिम सययमें सब परिणामोंकी संख्या २२२ होती है। इस प्रकार १६ समयोंमें विभाजित इन परिणामोंका कुल योग ३०७२ होता है। इसका आशय यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रथम समयमें कुल १६२ परिणाम होते हैं, दूसरे समयमें १६६ और तीसरे समयमें १७० परिणाम होते हैं। एक समयमें एक जीवके एक ही परिणाम होता है, इसलिये यहाँ प्रत्येक समयमें उस उस समयके ये परिणाम नाना जीवोंके होते हैं, ऐसा कहा गया है ।
यह तो अधःप्रवृत्तकरणके कालमें उसमें होनेवाले सब परिणामोंका विभागीकरण किस प्रकारसे है इसका विचार हुआ। अब ऊपरके समयोंमें स्थित जीवोंके परिणामोंकी नोचेके समयों में स्थित जीवोंके परिणामोंके साथ सदृशता और विसदृशता किस प्रकारसे है यह बतलानेके लिए अनष्टि रचना करते हैं। अधःप्रवृत्तकरणके प्रत्येक समयके जितने परिणाम हैं उनके अन्तर्मुहूर्तके जितने समय हैं उतने खण्ड करे । यह अन्तर्मुहूर्त अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। इस हिसाबसे संख्यातका प्रमाण ४ स्वीकार कर उसका भाग १६ में देने पर ४ लब्ध आये । निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण भी इतना ही है, अतः प्रत्येक समयके परिणामोंको चार-चार खण्डोंमें विभाजित करना चाहिए । उसमें भी प्रथम खण्डसे द्वितीय खण्ड, द्वितीय खण्डसे तृतीय खण्ड और तृतीय खण्डसे चतुर्थ खण्ड विशेष अधिक है । यहाँ विशेष या चयका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तका भाग निर्वर्गणाकाण्डकके प्रमाणमें देने पर जो लब्ध आवे उतना है। पहले अंकसंदृष्टिमें निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण ४ बतला आये हैं। अन्तमुहूर्तका प्रमाण भी इतना ही है । अतः अन्तर्मुहूर्तका प्रमाण ४ का भाग निर्वर्गणाकाण्डक
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दसणमोहोवसामणा
- २४३
के प्रमाण ४ में देने पर लब्ध १ आया। यही प्रकृतमें विशेषका प्रमाण है। इस हिसाबसे यहाँ प्रथम खण्डमें तो वृद्धिका प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरे खण्डमें प्रथम खण्डसे १ संख्या की वृद्धि हुई है, तीसरे खण्डमें प्रथम खण्डसे २ संख्याकी और चौथे खण्डमें प्रथम खण्डसे ३ संख्याकी वृद्धि हुई है, क्योंकि प्रथम खण्डसे उत्तरोत्तर द्वितीयादि खण्डोंमें एक-एक अंककी वृद्धि स्वीकार करनेपर उन खण्डोंमें वृद्धिको प्राप्त हुई संख्या उक्तप्रमाण ही प्राप्त होती है। इस प्रकार प्रकृतमें चय धनका कुल योग ६होता है। इसे प्रथम समयके परिणाम १६२ मेंसे घट देनेपर कुल १५६ परिणाम शेष रहे। इसमें खंडप्रमाण संख्या ४ का भाग देने पर ३९ प्रथम खण्डके परिणामोंका प्रमाण होता है। तथा द्वितीयादि खण्डोंका प्रमाण क्रमसे ४०, ४१ और ४२ होता है । यह प्रथम समय के परिणामोंकी खण्डोंमें रचना किस प्रकार है इसका क्रम है । इसी विधिसे द्वितीयादि समयोंके परिणामोंकी ४-४ खण्डोंमें रचना कर लेनी चाहिए । आगे इसीको अंकसंदृष्टिकी रचना द्वारा स्पष्ट करते हैं
समयका परिणामोंका क्रम नं० प्रमाण
प्रथम खण्ड द्वितीय खण्ड तृतीय खण्ड चतुर्थ खण्ड
१६२
४१
४३
१६६ १७०
१७४
१७८ १८२ १८६ १९० १९४ १९८ २०२ २०६ २१० २१४ २१८ २२२
अर्थसंदृष्टिको स्पष्ट करनेके लिये यह अंकसंदृष्टि कल्पित की गई है। इसे देखनेसे विदित होता है कि प्रथम समयके प्रथम खण्डके जो ३९ परिणाम हैं वे मात्र प्रथम समयमें ही किन्हीं जीवोंके पाये जाते हैं द्वितीयादि समयोंमें नहीं। प्रथम समयके द्वितीय खण्डके जो ४० परिणाम है वे किन्हीं जीवोंके प्रथम समय में भी पाये जाते हैं और किन्हीं दूसरे समयमें भी पाये जाते हैं । इससे अगले समयोंमें नहीं। प्रथम समयके तृतीय खण्डके
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दार १०
$ ९३. संपहि अप्पात्रहुअपरूवणं कस्सामो । तं च दुविहमप्पाचहुअं सत्थाणपरत्थाणभेदेण । तत्थ ताव सत्थाणप्पा बहुअं कस्सामा । तं जहा - अधापवत्तकरणपढमसमयम्मि पढमखंडजहण्णपरिणामो थोवो । तत्थेव विदियखंडजहण्णपरिणामो अनंतगुणो । तदियखंडजहण्णपरिणामो अनंतगुणो । एवं णेदव्वं जाव चरिमखंडजहणपरिणामो अनंतगुणो त्ति । एवं पढमसमयपरिणामखंडाणं जहण्णपरिणाम
२४४
णाणि चैव अस्सिऊण सत्थाणप्पा बहुअं कदं । संपहि पढमसमयम्मि पढमखंडस्स उक्कस्सपरिणामो थोवो । तत्थेव विदियखंडउक्कस्सपरिणामो अनंतगुणो । तदियखंडकस्सपरिणामो अनंतगुणो । एवमुवरि वि णेदव्वं जाव चरिमखंडउकस्स परिणामो अतगुणोति । एवं पढमसमय सव्वखंडाण मुक्कस्सपरिणामे अस्सियूण सत्थाणप्पाबहुअं भणिदं । एवं चैव विदियसमय पहुडि खंडं पडि ट्ठिदजहण्णुकस्स परिणामाणं सत्थाणप्पाचहुअमणुगंतव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो ति । तदो सत्थाणप्पाबहुअं गदं । संपहि परत्थाणप्पा बहुअपरूवणट्टमुवरिमं सुत्तपबंधमाह -
जो ४१ परिणाम हैं वे प्रथम समयके समान द्वितीय और तृतीय समय में भी पाये जाते हैं, इससे अगले समय में नहीं और इसी प्रकार प्रथम समयके चौथे खण्डके जो ४२ परिणाम हैं वे प्रथम समग्र से लेकर चौथे समय तक ही पाये जाते हैं, इससे अगले समयों में नहीं । इस प्रकार प्रथम समयके परिणामोंकी अनुकृष्टि उक्त अंक संदृष्टिके अनुसार चौथे समय तक बनती है, इससे आगे नहीं । तथा चौथे समयसे आगे प्रथम समय में पाये जानेवाले परिणामों की निर्वृत्ति हो जाती है, इसलिये इससे आगे प्रथम समयके परिणामोंकी व्युच्छित्ति हो जाने से निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण भी ४ समयप्रमाण ही प्राप्त होता है । यह प्रथम समयके परिणामोंकी व्यवस्था है । द्वितीयादि समयों में पाये जानेवाले परिणामोंकी व्यवस्था भी उक्त पद्धति से कर लेनी चाहिए, विशेष वक्तव्यं न होनेसे यहाँ पृथक-पृथक मीमांसा नहीं की है । शेष स्पष्टीकरण मूलसे ही हो जाता है ।
§ ९३. अब अल्पबहुत्वका कथन करेंगे । वह अल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें से सर्वप्रथम स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करेंगे। यथाअधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में प्रथम खण्डका जघन्य परिणाम सबसे स्तोक है। उससे वहीं पर द्वितीय खण्डका जघन्य परिणाम अनन्तगुणा है। उससे वहीं पर तीसरे खण्डका जघन्य परिणाम अनन्तगुणा है । इस प्रकार वहीं पर अन्तिम खण्डका जघन्य परिणाम अनन्तगुणा है इस स्थानके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । इस प्रकार मात्र प्रथम समयके परिणामखण्डोंके जघन्य परिणामस्थानोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्व किया । अब प्रथम समय में प्रथम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम स्तोक है। उससे वहीं पर दूसरे खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है। उससे वहीं पर तीसरे खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है । इसी प्रकार आगे भी अन्तिम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है इस स्थानके प्राप्त होने तक कथन करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम समय के सब खण्डोंके उत्कृष्ट परिणामोंका आलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया। इसी प्रकार दूसरे समय से लेकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक प्रत्येक खण्डके प्रति प्राप्त जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व जानना चाहिए । इसके बाद स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन समाप्त
T
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ |
दंसणमोहोवसामणा
* अधापवत्तकरणपढमसयए जहण्णिया विसोही थोवा । $ ९४. किं कारणं ? एत्तो अण्णस्स जहण्णवि सोहिद्वाणस्स अधापवत्तकरणविस अणुवलंभादो ।
२४५
* विदियसमए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा ।
९५. कुदो ? पढमसमयजहण्णविसोहिडाणादो छडाणकमेणासंखेज्जलोगमेत्तविसोहिडांणाणि समुल्लंघियूण डिदविदियखंडजहण्ण विसोहिट्ठाणस्स विदियसमए जहणभावदंसणादो ।
* एवमंतोमुहुत्तं ।
$ ९६. एवमेदेण कमेण जहण्णविसोहीओ चेव पडिसमयमणंतगुणकमेण णेदव्वाओ जाव अंतोमुहुत्तमुवरिं चडिदूण द्विदपढमणिव्वग्गणकंडय चरिमसमओ भणिदं होदि ।
हुआ । अब परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं* अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक है ।
$ ९४. क्योंकि इससे कम अन्य जघन्य विशुद्धिस्थान अधःप्रवृत्तकरणमें नहीं
पाया जाता ।
* उससे दूसरे समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है ।
$ ९५. क्योंकि प्रथम समयके जघन्य विशुद्धिस्थान से षट्स्थानक्रमसे असंख्यात लोकमात्र विशुद्धिस्थानोंको उल्लंघन कर स्थित हुए दूसरे खण्डके जघन्य विशुद्धिस्थानका दूसरे समय में जघन्यपना देखा जाता है ।
विशेषार्थ — अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयका जो दूसरा खण्ड है तत्सदृश ही दूसरे समयका प्रथम खण्ड है । जैसा कि पूर्वोक्त अंक संदृष्टिसे स्पष्ट ज्ञात होता है । इन दोनों स्थानोंकी जघन्य विशुद्धि समान होकर भी यह प्रथम समय के प्रथम खण्डकी जघन्य विशुद्धिसे षट्स्थान पतितक्रमसे अनन्तगुणी है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । जीवकाण्ड ज्ञानमार्गणाके अन्तर्गत श्रुतज्ञान प्ररूपणा के समय पर्यायज्ञानके ऊपर पर्यायसमास ज्ञानके वृद्धि क्रमको बतलानेके लिये जो षट्स्थानपतित वृद्धिका निर्देश किया है उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए ।
* इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक जानना चाहिए ।
$ ९६. इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर स्थित हुए प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक इस क्रमसे जघन्य विशुद्धिका ही प्रति समय अनन्तगुणितक्रमसे कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ — अधःप्रवृत्तकरण में प्रत्येक निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है जो अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय से लेकर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समय तक प्रथम समयकी जघन्य विशुद्धिसे दूसरे समय
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ६ ९७. संपहि एत्तो उवरि किंचि णाणत्तमत्थि त्ति तप्पदुप्पायणट्ठमिदमाह* तदो पढमसमए उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा।
$ ९८. किं कारणं ? पुबिल्लजहण्णविसोही णाम अधापवत्तकरणपढमसमयविसोहिट्ठाणाणं चरिमखंडस्सादिविसोही । एसा वुण तत्थेवुक्कस्सविसोही, तत्तो असंखेजलोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणि छट्ठाणवड्डिदसरुवाणि वोलिय समवद्विदा । तदो पुचिल्लजहण्णविसोहीदो एसा अणंतगुणा जादा ।
* जम्हि जहणिया विसोही णिट्ठिदा तदो उवरिमसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा। की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है । दूसरे समयको जघन्य विशुद्धिसे तीसरे समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है तथा तीसरे समयकी जघन्य विशुद्धिसे चौथे समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है । इस प्रकार निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समय तक पूर्व-पूर्वके समयकी जघन्य विशुद्धिसे अगले-अगले समयकी जघन्य विशुद्धि उत्तरोत्तर अनन्तगुणी जाननी चाहिए यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा यहाँ निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण ४ है । निर्वर्गणाकाण्डकको प्रत्येक समयकी यह जघन्य विशुद्धि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके प्रथमादि खण्डगत जघन्य विशुद्धियोंके सदृश होनेसे निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समय तक इसका जघन्यपना देखा जाता है यह उक्त अंकसदृष्टिसे भले प्रकार ज्ञात होता है।
$ ९७. अब इससे ऊपर कुछ नानात्व है उसका कथन करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* उससे प्रथम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है।
$ ९८. क्योंकि इससे समनन्तर पूर्व जो जघन्य विशुद्धि बतला आये हैं वह तो अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके विशुद्धिस्थानोंके अन्तिम खण्डकी आदिकी विशुद्धि है और यह ( प्रकृत सूत्र निर्दिष्ट ) वहींपर उत्कृष्ट विशुद्धि है जो उक्त जघन्य विशुद्धिसे छह स्थान क्रमसे वृद्धिरूप असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानोंको उल्लंघनकर अवस्थित है, इसलिए अनन्तर पूर्वकी जघन्य विशुद्धिसे यह अनन्तगुणी हो गई है।
विशेषार्थ-प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धि और अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके अन्तिम खण्डकी जघन्य विशुद्धि सदृश है यह समनन्तर पूर्व ही बतला आये हैं । यहाँ प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके अन्तिम खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धिको जो अनन्तगुणा बतलाया है सो इससे उसी खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धि लेनी चाहिए, क्योंकि प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसम्बन्धी अन्तिम खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होना युक्तियुक्त है। अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयका अन्तिम खण्ड ४२ अंक प्रमाण है। चौथे समयके प्रथम खण्डका भी यही प्रमाण है । अतः स्पष्ट है कि प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धिसे प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है।
* पूर्वमें जहाँ जघन्य विशुद्धि समाप्त हुई है उससे उपरिम समयमें जघन्य विशुद्धि (प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे) अनन्तगुणी है ।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
1
$ ९९. एत्थ 'जन्हि जहण्णिया विसोही णिट्टिदा' त्ति वयणेण पढमणिव्वग्गणकंडयचरिमसमयस्स परामरिसो कओ । तमवहियं काढूण जहण्णविसोहिद्वाणाणमणंतगुणवड्डिकमेण पुव्वं परुविदत्तादो । उदो उवरिमसमए चित्ते विदियणिव्वग्गणकंडयपढमसमयो घेत्तव्वो । एत्थतणजहण्ण विसोही पढमसमयउक्कस्स विसोहीदो अनंतगुणा हो । किं कारणं ? पढमसमयउक्कस्सविसोही नाम विदियसमयदुचरिमखंडचरिमपरिणामेण समाणा होदूण उव्वंकभावेणावट्ठिदा । एसा वुण जहणणविसोही तत्थतणचरिमखंडजहण्णपरिणामेण अहंकसरूवेण समाणा । तेणाणंतगुणा जादा ।
२४७
* विदियसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा ।
$ १००. किं कारणं ? पुव्विल्लजहण्णविसोही णाम विदियसमयचरिमखंडस्स जहण्णपरिणामो । एसो वुण तत्तो असंखेजलोगमेत्तछट्टाणाणि समुल्लंघियूण दिविदियसमयचरिमखंडउक्कस्सविसोहि ति । तेण कारणेणाणंतगुणा जादा ।
९९. यहाँ अर्थात् उक्त सूत्र में 'जम्हि जहणिया विसोही णिट्ठिदा' इस वचनसे प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयका परामर्श किया गया है। इसे मर्यादा करके जघन्य विशुद्धिस्थानोंका अनन्तगुणी वृद्धिके क्रमसे पहले ही कथन कर आये हैं । उससे उपरि समय ऐसा कहने पर दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकका प्रथम समय लेना चाहिए । यहाँकी 'जघन्य विशुद्धि प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अनन्तगुणी होती है, क्योंकि प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्ध द्वितीय समय के द्विचरम खण्डके अन्तिम परिणामके सदृश होकर ऊर्वक पने से अवस्थित है और यह जघन्य विशुद्धि वहीं ( दूसरे समय ) के अन्तिम खण्डके अष्टांकस्वरूप जघन्य परिणामरूपसे अवस्थित है । इसलिए अनन्तगुणी हो गई है।
विशेषार्थ - द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके प्रथम समयकी जो जघन्य विशुद्धि है उसके समान ही अधःप्रवृत्तकरणके द्वितीय समय के अन्तिम खण्डकी जघन्य विशुद्धि है जो अधःप्रवृत्तिकरण के प्रथम समयके अन्तिम खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अनन्तगुणी है । इसका कारण यह है कि अधः प्रवृत्तकरणके प्रथम समय के अन्तिम खण्डकी यह उत्कृष्ट विशुद्धि द्वितीय समय के उपान्त्य खण्डके अन्तिम परिणामके सदृश ऊर्वकप्रमाण है और इससे उसी समयके अन्तिम खण्डकी जघन्य विशुद्धि अष्टांकस्वरूप होनेसे अनन्तगुणी है ।
* उससे दूसरे समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है ।
$ १००. क्योंकि पूर्वको जघन्य विशुद्धि दूसरे समय के अन्तिम खण्डके जघन्य परिणामस्वरूप है, परन्तु यह उससे असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर स्थित हुए दूसरे समय के अन्तिम खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धि है, इसलिये यह उससे अनन्तगुणी हो जाती है ।
विशेषार्थ – यहाँ पर दूसरे समय से अधःप्रवृत्तकरणका दूसरा समय लिया गया है । इसके अन्तिम खण्डकी जो जघन्य विशुद्धि है उतनी ही द्वितीय निर्वर्गणाकाण्ड प्रथम समयकी जघन्य विशुद्धि है ये दोनों विशुद्धियाँ परस्पर समान हैं, अतः उससे चूर्णिसूत्र में अधःप्रवृत्तकरण के दूसरे समयके अन्तिम खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धिको जो अनन्तगुणा बतलाया है वह युक्तियुक्त ही है, क्योंकि पूर्वकी जघन्य विशुद्धि उसी खण्डके प्रथम परिणामस्वरूप
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
* एवं
समयो त्ति ।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णिव्वग्गणकंडयमंतो मुहुत्तद्धमेरां
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० अधापवत्तकरणचरिम
णिव्वग्गणकंडयमवडिदं
$ १०१. एवमेदीए दिसाए अंतोमुहुत्तद्धमेत्तमेगं कादूण जहण्णुकस्सपरिणामाणमुवरिमहेडिमाणमप्पा बहुअं कायव्वं जाव सव्वणिव्वग्गणकंडयाणि जहाकममुल्लंघियूण पुणो दुचरिमणिव्वग्गणकंडेय चरिमसमयउक्क स्सवि सोहीदो अधापवत्तकरणचरिमसमए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा होदूण जहण्णविसोहीणं पञ्जवसाणं पत्ते त्ति । एद्दूरं जाव एगंतरिदजहण्णुक्कस्सविसो हिट्ठाण पडिबद्धाए पयदप्पाबहुअपरूवणाए णत्थि णाणत्तमिद वृत्तं होइ ।
१०२. संपहि देण सुत्तेण सूचिदत्थस्स किंचि विवरणं कस्सामो । तं जहापढमणिव्वग्गणकंडय विदियसमए उक्कस्सविसोहीदो उवरि विदियणिव्वग्गणकंडय विदियसमए जहणविसोही अनंतगुणा । एदम्हादो उवरि पढमणिव्वग्गणकंडयतदियसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । एदिस्से उवरि विदियणिव्वग्गणकंडय तदियसमए
है और यह उत्कृष्ट विशुद्धि उसी खण्डके अन्तिम परिणामस्वरूप है जो षट्स्थानपतित असंख्यात लोकप्रमाण वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुई है ।
* इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण एक (प्रत्येक) निर्वर्गणाकाण्डकको अवस्थित कर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय तक अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
$ १०१. इस प्रकार इस पद्धतिसे अन्तर्मुहूर्त' कालप्रमाण एक निर्वर्गणाकाण्डकको अवस्थित कर उपरिम और अधस्तन जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंका अल्पबहुत्व करना चाहिए। और यह सब अल्पबहुत्व सब निर्वर्गणाकाण्डकोंको क्रमसे उल्लंघन कर पुनः द्विचरमनिर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होकर जघन्य विशुद्धिका अन्त प्राप्त होने तक करना चाहिए। इतने दूर तक जो एक-एक निर्वर्गणाकाण्डक के अन्तरसे जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानोंसे प्रतिबद्ध प्रकृत अल्पबहुत्व कहा है उसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका पर्य है ।
विशेषार्थ — यह परस्थान अल्पबहुत्व बतलानेका प्रकरण है, इसलिये पूर्वमें ऊपर और नीचे के परिणामोंकी विशुद्धिका जो अनुकृष्टि पद्धतिसे अल्पबहुत्व बतलाया गया है वह आगे के परिणामोंमें किस प्रकारका है यह बतलानेके लिए यह सूत्र आया है । इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण आगे श्री जयधवला जीमें स्वयं किया ही है ।
$ १०२. अब इस सूत्रसे सूचित हुए अर्थका कुछ विवरण करेंगे । यथा - प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक के दूसरे समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे ऊपर दूसरे निर्वर्गणाकाण्डक के दूसरे समयकी जघन्य त्रिशुद्धि अनन्तगुणी है । इससे ऊपर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक के तीसरे समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है। इससे ऊपर दूसरे निर्वर्गकाण्डकके तीसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है। इससे ऊपर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके चौथे समयकी उत्कृष्ट
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
२४९
गाथा ९४ ]
दसणमोहोवसामणा जहण्णविसोही अणंतगुणा । तत्तो पढमणिव्वगणकंडयचउत्थसमए उक्कसविसोही अणंतगुणा। एवं जाणिऊण णेदव्यं जाव विदियणिव्वग्गणकंडयचरिमसमए जहण्णविसोही अणंतगुणा जादा ति । एवमणंतरोवरिमणिव्वग्गणकंडयजहण्णपरिणामाणमणंतरहेट्ठिमणिव्वग्गणकंडयुक्कस्सपरिणामेहिं जहाकममणुसंधाणं कादूण णेदव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमए जहणिया विसोही दुचरिमणिव्वग्गणकंडयचरिमसमयुक्कस्सविसोहीदो अणंतगुणा होदूण जहण्णविसोहीणं पज्जवसाणं पत्ता त्ति ।।
१०३. संपहि एत्तो उवरि चरिमणिव्वग्गणकंडयमेत्ताणमुक्कस्सपरिणामाणं चेव अप्पाबहुअं णेदव्वमिदि पदुप्पायणमुत्तरं पबंधमाह
* तदो अंतोमुहुत्तमोसरियूण जम्हि उक्कस्सिया विसोही णिहिता तत्तो उवरिमसमए उकस्सिया विसोही अणंतगुणा।। विशुद्धि अनन्तगुणी है। इस प्रकार जानकर दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है इसके प्राप्त होने तक अल्पबहुत्व करते जाना चाहिए। इस प्रकार अनन्तर उपरिम निर्वर्गणाकाण्डकके जघन्य परिणामोंका अनन्तर अधस्तन निर्वर्गणाकाण्डकके उत्कृष्ट परिणामोंके साथ क्रमसे अनुसन्धान करते हुए अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धि द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डक्के अन्तिम समयकी उत्कष्ट विशुद्धिसे अनन्तगुणी होकर जघन्य विशुद्धियोंके अन्तको प्राप्त होती है इस स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-पहले द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके प्रथम समयकी जघन्य विशुद्धिसे प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयको उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है यह बतला आये हैं। यहाँ इससे आगे अल्पबहुत्वका क्या क्रम है यह सूचित करते हुए बतलाया है कि प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयको उत्कृष्ट विशुद्धिसे द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि ऊर्वकस्वरूप है और द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धि अष्टांकस्वरूप है। इसलिए यह उससे अनन्तगुणी है। तथा इससे आगे अर्थात् द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धिसे प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके तीसरे समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि यह उत्कृष्ट विशुद्धि पूर्वको जधन्य विशुद्धिसे षट्स्थानपतितक्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण वृद्धिके हो जानेपर प्राप्त होती है । इस प्रकार ऊपरके तथा नीचेके निर्वर्गणाकाण्डकोंके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिके अल्पबहुत्वका विचार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धिके प्राप्त होने तक इसी क्रमसे करना चाहिए। यह जघन्य विशुद्धि उपान्त्य निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अनन्तगुणी है।
१०३. अब इससे ऊपर अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण उत्कृष्ट परिणामोंका ही अल्पबहुत्व करते हुए ले जाना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
. * पुनः अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसे अन्तर्मुहूर्त नीचे आकर जहाँ उत्कृष्ट विशुद्धि समाप्त हुई है उससे उपरिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है ।
३२
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगहारं १०
$ १०४. एत्थ 'जम्हि उद्देसे उक्कस्सिया विसोही गिट्टिदा' ति णिद्देसेणेदेण दुचरिमणिव्वग्गणकंडयचरिमसमयो परामरसिओ, तत्थतणुक्कस्सविसोहीदो उवरि अधापवत्तचरिमसमय जहण्णविसोहीए अनंतगुणभावेण पुव्वं परुविदत्तादो । 'तदो उवरिमसमये' त्ति वृत्ते चरिमणिव्वग्गणकंडयपढमसमयस्स गहणं कायव्वं, तत्थतणुक्कस्सविसोही पुव्विल्लजइण्णविसोहिट्ठाणादो अनंतगुणा त्ति वृत्तं होइ । एत्थ कारणं सुगमं । * एवमुक्कस्सिया विसोही ऐदव्वा जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति ।
२५०
६ १०५. एवमुक्कस्सिया चैव विसोही अनंतराणं पेक्खियूणानंतगुणा णेयंव्वा । केदूरमिदि वृत्ते जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति पयदप्पा बहुअपरूवणाए मजादासो को । सेसं सुगमं ।
$ १०४. यहाँ 'जिस स्थान पर उत्कृष्ट विशुद्धि समाप्त हुई है' इस प्रकार इस निर्देशसे द्विरम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयका परामर्श किया गया है। उस स्थानकी उत्कृष्ट • विशुद्धिसे ऊपर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयकी जघन्य विशुद्धिका अनन्तगुणेरूपसे पहले कथन कर आये हैं। 'उससे ऊपरके समय में' ऐसा कहने पर अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक प्रथम समयका प्रहण करना चाहिए। उस स्थानकी उत्कृष्ट विशुद्धि पूर्वके जघन्य विशुद्धि - स्थानसे अनन्तगुणी होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ पर कारणका कथन सुगम है ।
विशेषार्थ – पहले द्विरम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयकी जो जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी बतला आये हैं उससे अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डकके प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है यह इस सूत्रका भाव है । कारण यह है कि यह जघन्य विशुद्धिसे षट्स्थान पतित असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंकी वृद्धि होने पर प्राप्त होती है ।
* इस प्रकार उत्कृष्ट विशुद्धिका यह क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । .
$ १०५. इस प्रकार समनन्तर पूर्व समयोंको देखते हुए उत्कृष्ट विशुद्धि ही अनन्तगुणी लेजानी चाहिए। कितनी दूर तक ले जानी चाहिए ऐसा कहने पर 'अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक' इस प्रकार प्रकृत अल्पबहुत्वप्ररूपणाकी मर्यादाका निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है ।
विशेषार्थ – यहाँ पूर्व में निर्दिष्ट की गई कल्पित अंक संदृष्टिको ध्यान में रखकर अनेक जीवोंके आश्रयसे विशुद्धिसम्बन्धी उक्त अल्पबहुत्वको स्पष्ट करते हैं। समझो एक जीव है जो अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में विशुद्धिवश १ संख्याक परिणामको प्राप्त हुआ उसकी विशुद्धि सबसे जघन्य होगी। अब एक ऐसा दूसरा जीव है जो दूसरे समयमें ४० संख्याक जघन्य परिणामको प्राप्त हुआ। उसकी विशुद्धि पूर्वकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी होगी । अब एक ऐसा तीसरा जीव है जो ८० संख्याक जघन्य परिणामको तीसरे समय में प्राप्त हुआ ।
१. ता० प्रती जिसे इति पाठः ।
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा
२५१
उसकी विशुद्धि पूर्वको विशुद्धिसे अनन्तगुणी होगी। अब एक ऐसा जीव है जो चौथे समय १२१ संख्याक जघन्य परिणामको प्राप्त हआ। उसकी विशद्धि पर्वको विशदिसे अनन्तगुणी होगी। यहाँ सर्वत्र षट्स्थान पतित क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंके बाद तत्तत्स्थानसम्बन्धी यह जघन्य विशुद्धिस्थान प्राप्त होता है ऐसा समझना चाहिए । अब एक ऐसा जीव है जो अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें ही १६२ संख्याक उत्कृष्ट परिणामको प्राप्त हुआ। उसकी उत्कृष्ट विशुद्धि पूर्वको जघन्य विशुद्धिसे अनन्तगुणी होगी। इस विशुद्धिको भी अनन्तगुणी पूर्वोक्त प्रकारसे जान लेना चाहिए । अब एक ऐसा जीव है जो द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके प्रथम समयमें १६३ संख्याक जघन्य परिणामको प्राप्त हुआ। उसको जघन्य विशुद्धि पूर्वकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अनन्तगुणी है। यहाँ पूर्वकी उत्कृष्ट विशुद्धि ऊर्वकस्वरूप है और प्रकृत जघन्य विशुद्धि अष्टांकस्वरूप है, इसलिये उससे यह अनन्तगुणी है। अब एक ऐसा जीव है जो अधःप्रवृत्तकरणके द्वितीय समयमें २०५ संख्याक उत्कृष्ट परिणामको प्राप्त हुआ। उसकी उत्कृष्ट विशुद्धि पूर्वकी जघन्य विशुद्धिसे अनन्तगुणी है। अब एक ऐसा जीव है जो द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकके द्वितीय समयमें २०६ संख्याक जघन्य परिणामको प्राप्त हुआ। उसको जघन्य विशुद्धि पूर्वकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अनन्तगुणी है। अब एक ऐसा जीव है जो अधःप्रवृत्तकरणके तीसरे समयमें २४९ संख्याक उत्कृष्ट परिणामको प्राप्त हुआ। उसकी उत्कृष्ट विशुद्धि पूर्वकी जघन्य विशुद्धिसे अनन्तगुणी है। यह एक क्रम है जिसे ध्यानमें लेकर परस्थानसम्बन्धी पूरे अल्पबहुत्वको समझ लेना चाहिए । अब यहाँ इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिये कोष्ठक दे रहे हैं
ज० ज. ज. ज. ज. ज. ज. ज. ज. ज.
१ ४० ८० १२१ १६३ २०६ २५० २९५ ३४१ ३८८ (१)१ २ ३ ४ (२) ५ ६ ७ ८ (३) ९ १०
WIM
(१) १ २
१६२ २०५ उ. उ.
३ २४९ उ.
४ (२)५ २९४ ३४० उ. उ.
६ ७ ३८७ ४३५ उ. उ.
४३६ ११
४८५ ५३५ १२ (४) १३
५८६ १४
६३८ १५
६९१ १६ ।
७
८ (३) ९ ४८४ ५३४
उ. स.
१० ५८५
उ.
११ ६३७
उ
१२ (४) १३ . ६९० ७४४
उ. उ. .
१४ ७९९ उ.
१५ ८८५ उ.
१६ ९१२ उ.
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० $१०६. एवमधापवत्तकरणविसोहीणमप्पाबहुअमुहेण परूवणं कादूण संपहि पयदत्थमुवसंहरेमाणो सुत्तमिदमाह
* एदमधापवत्तकरणस्स लक्खणं ।
$१०७. एदमणंतरपरूविदमणुकट्टिलक्खणमधापवत्तकरणस्स लक्खणं दट्ठन्वमिदि भणिदं होदि । एवमेदमुवसंहरिय संपहि अपुव्वकरणलक्खणपरूवणमिदमाह
* अपुवकरणस्स पढमसमए जहणिया विसोही थोवा।
$१०८. एत्थ ताव अपुव्वकरणद्धमंतोमुहुत्तपमाणं समयभावेण द्वविय तत्थ परिणामाणमवट्ठाणकम सुत्तसूचिदं वत्तइस्सामो। तं जहा-तत्थ तिण्णि अणिओगदाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं च । तत्थ परूवणदाए अत्थि अपुवकरणपढमसमए परिणामट्ठाणाणि । एवं णेदव्वं जाव चरिमसमओ ति । परूवणा गया । पमाणं-एकक्कम्मि समए परिणामट्ठाणाणि असंखेजा लोगा । पमाणं गदं ।
$ १०९. अप्पाबहुअं दुविहं–विसोहीणं तिव्व-मंदप्पाबहुअं परिणामपंति१. यहाँ १ से लेकर १६ तककी संख्या अधःप्रवृत्तकरणके समयोंकी सूचक है। २. ब्रेकेट के भीतरकी संख्या निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सूचक है। प्रत्येक निर्वर्गणाकाण्डक
४-४ समयोंका है। . ३. १, ४० आदि संख्या उस उस समयके उस उस संख्याक परिणामकी सूचक है। ४. यहाँ जघन्यसे जघन्य, जघन्यसे उत्कृष्ट, उत्कृष्टसे जघन्य और उत्कृष्टसे उत्कृष्ट ___ प्रत्येक स्थान अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए है।
६१०६. इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशुद्धियोंके अल्पबहुत्वद्वारा कथन करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* यह अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण है।
$ १०७. यह अनन्तर पूर्व कहा गया अनुकृष्टिका लक्षण अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इसका उपसंहार कर अब अपूर्वकरणके लक्षणका कथन करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं
* अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक है ।
$ १०८. यहाँ पर सर्वप्रथम अपूर्वकरणके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालको समयरूपसे स्थापित कर वहाँ परिणामोंके सूत्र द्वारा सूचित हुए अवस्थानक्रमको बतलावेंगे। यथाप्रकृतमें तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमेंसे सर्वप्रथम प्ररुपणा अनयोगद्वारको बतलाते हैं-अपर्वकरणके प्रथम समयमें परिणामस्थान है। इसी प्रकार अन्तिम समय तक कथन करते हुए ले जाना चाहिए । प्ररूपणा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। प्रमाण-एक-एक समयमें परिणामस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। प्रमाण अनुयोद्वार समाप्त हुआ।
$ १०९. अल्पबहुत्व दो प्रकार है-विशुद्धियोंकी तीव्रता-मन्दतासम्बन्धी अल्पबहुत्व
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२५३
दीहत्तप्पा बहुअं चेदि । तत्थ ताव पढमसमयप्पहुडि परिणामपंतीण मायामस्स थोवबहुत्तविधिं वत्तइस्सामो । तं जहा - अपुव्वकरणपढमसमए परिणामपंतिआयोमो थोवो । विदियसमए विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जलोगपरिणामट्ठाणमेत्तो । होतो वि पढमसमयपरिणामपंतिमंतो मुहुत्तमेत्तखंडाणि काढूण तत्थ एयखंडमेत्तो । एवमणंतरावणिधाए विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव चरिमसमयपरिणामपंतिआयामो त्ति । णवरि समए समए अपुव्वाणि चैव परिणामट्ठाणाणि । संपहि विसोहीणं तिव्वमंददाये अप्पा बहुअं सुत्ताणुसारेण कस्सामो । तं जहा - - 'अपुव्वकरणपढमसमए जहण्णविसोही थोवा' एवं भणिदे अपुव्वकरणपढमसमए असंखेज्जलोगमेत्तविसोहिट्ठा णाणं मझे जा जहणिया विसोही सा सव्वमंदाणुभागा ति वृत्तं होइ ।
* तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा ।
$ ११०. तत्थेवापुव्वकरणपढमसमए जा उक्कस्सिया विसोही असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणाणि समुन्लंघियूणावट्ठिदा सा पुव्विल्लजहण्णविसोहीदो अनंतगुणा त्ति वृत्तं होइ । * विदियसमए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा ।
और परिणामसम्बन्धी पंक्तियोंकी दीर्घतासम्बन्धी अल्पबहुत्व | उनमें से सर्वप्रथम प्रथम समयसे लेकर परिणामोंकी पंक्तियोंके आयामकी अल्पबहुत्वविधिको बतलावेंगे | यथा— अपूर्वकरणके प्रथम समयमें परिणामोंकी पंक्तिका आयाम सबसे स्तोक है। उससे दूसरे समयमें विशेष अधिक है ।
शंका- विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान—असंख्यात लोकप्रमाण जो परिणामस्थान हैं तत्प्रमाण है । इतना होता हुआ भी प्रथम समयकी परिणामों की पंक्तिके, अन्तर्मुहूर्तके जितने समय हों उतने खण्ड करने पर उनमें एक खण्डप्रमाण है ।
इस प्रकार अनन्तरोपनिधाका आश्रयकर विशेषाधिक क्रमसे अन्तिम समयके परिणामोंकी पंक्तिके आयामके प्राप्त होनेतक कथन करते हुए ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रत्येक समय में अपूर्व ही परिणामस्थान प्राप्त होते हैं। अब विशुद्धियों की तीव्रतामन्दताके अल्पबहुत्वको सूत्रके अनुसार करेंगे । यथा - 'अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक है' ऐसा कहने पर अपूर्वकरणके प्रथम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थानोंके मध्य जो जघन्य विशुद्धि है वह सबसे मन्द अनुभागवाली है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
2
* वहीं पर उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है ।
$ ११०. वहीं पर अर्थात् अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जो उत्कृष्ट विशुद्धि है वह असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर अवस्थित है । वह पूर्वकी जघन्य विशुद्धिसे अनन्तगुणी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* उससे दूसरे समय में जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है ।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ १११. किं कारणं ? असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्टाणाणि अंतरिदूणेदिस्से समुपपत्तिअब्भुवगमादो ।
२५४
* तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा ।
$ ११२. तत्थेवापुष्वकरणविदियसमए जा उक्कस्सिया विसोही सा अणंतरपरूविदजहण विसोहीदो अनंतगुणा त्ति भणिदं होइ । एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । * समये समये असंखेज्जा लोगा परिणामट्ठाणाणि ।
६ ११३. अपुव्वकरणद्धाए सव्वत्थ समयं पडि असंखेज्जलोगमेत्ताणि परिणामद्वाणाणि देणप्पा बहुअविहिणा अवट्टिदा त्ति भणिदं होइ ।
* एवं णिव्वग्गणा च ।
$ ११४. जत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण णिरुद्धसमयपरिणामाणमणुकट्टी वोच्छिदि तमेव णिव्वग्गणकंडयं णाम । एत्थ पुण समये समये चेव णिव्वग्गणकंडयं घेत्तव्वं, विवक्खिय समयपरिणामाणमुवरि एगम्मि वि समए संभवाणुवलंभादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो ।
* एवं अपुव्यकरणस्स लक्खणं ।
$ ११५. एदमणंतरपरूविदं समए समए अणुकट्टि वोच्छेदलक्खणमपुव्वकरणलक्खणमवहारेयव्वमिदि वृत्तं होइ ।
$ १११. क्योंकि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंके अन्तरसे इसकी उत्पत्ति स्वीकार गई है।
* वहीं पर उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है ।
$ ११२. वहीं पर अर्थात् अपूर्वकरणके दूसरे समयमें जो उत्कृष्ट विशुद्धि होती है वह अनन्तरपूर्व कही गई जघन्य विशुद्धिसे अनन्तगुणी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ पर भी कारणका कथन पहलेके समान करना चाहिए ।
* प्रत्येक समय में असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं ।
$ ११३. अपूर्वकरणके कालमें सर्वत्र प्रत्येक समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं यह बात इस अल्पबहुत्व के द्वारा निश्चित होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * और इसी प्रकार प्रत्येक समय में निर्वर्गणा होती है ।
$ ११४. जितने स्थान ऊपर जाकर विवक्षित समयके परिणामोंको अनुकृष्टिका विच्छेद होता है उसीका नाम निर्वर्गणाकाण्डक है । परन्तु यहाँ अपूर्वकरणके प्रत्येक समय में निर्वर्गणाकाण्डकको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि विवक्षित समयके परिणाम ऊपरके एक भी समयमें सम्भव नहीं हैं यह इस सूत्र का भावार्थ है ।
* यह अपूर्वकरणका लक्षण है ।
$ ११५ अनन्तर पूर्व कहा गया यह प्रत्येक समय में अनुकृष्टिका विच्छेदस्वरूप अपूर्वकरणका लक्षण जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] .
दसणमोहोवसामणा
२५५
विशेषार्थ-यहाँ अपूर्वकरणके स्वरूपका निर्देश करते हुए बतलाया है कि अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्त है जो अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। इस कालमें कुल परिणामोंका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण होकर भी प्रत्येक समयके परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं । जो प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक प्रत्येक समयमें सदृश वृद्धिको लिये हुए हैं । प्रथम समयके असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना प्रत्येक समयमें वृद्धि या चयका प्रमाण है । यहाँ प्रत्येक समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम है इसकी सिद्धि प्रत्येक समय में प्राप्त होनेवाली विशुद्धिके अल्पबहुत्वको ध्यानमें रख कर की गई है, क्योंकि प्रथम समयकी जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक है । उससे उसी समयमें प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर प्राप्त होती है, इसलिये अनन्तगुणी है। उससे दूसरे समयमें प्राप्त होनेवाली जघन्य विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर प्राप्त होती है, इसलिये अनन्तगुणी है । तथा उससे उसी समयमें प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर प्राप्त होती है, इसलिये अनन्तगुणी है। इसी प्रकार
गे भी प्रत्येक समयमें जघन्य और उत्कृष्ट विशद्धिका यह अल्पबहुत्व अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । यहाँ प्रत्येक समयकी जघन्य विशुद्धिसे उसी समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिको और उस समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अगले समयकी जघन्य विशुद्धिको उक्त प्रकारसे अनन्तगुणी बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि अपूर्वकरणके प्रत्येक समय में असंख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं । वे सब परिणामस्थान प्रत्येक समयके अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं, इसलिये यहाँ भिन्न समयवाले जीवोंकी तद्भिन्न समयवाले जीवोंके साथ अनुकृष्टि तो बनती ही नहीं। किन्तु एक समयवाले जीवोंके परिणामोंमें सदृशता-विसदृशता बन जाती है । इसलिये अपूर्वकरणमें एक समयवाली ही निर्वर्गणा स्वीकार की गई है। खुलासा इस प्रकार है कि जो अनेक जीव एक साथ अपूर्वकरणमें प्रवेश करते हैं उनके परिणाम परस्परमें सदृश भी हो सकते हैं और विसदृश भी। किन्तु भिन्न समयवाले जीवोंके परिणाम विसदृश ही होते हैं । अब अपूर्वकरणके उक्त स्वरूपको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ कल्पित अंकसंदृष्टि दी जाती है
कुल परिणामोंकी संख्या–४०९६; अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण ८; चयका प्रमाण १६; नियम यह है कि एक कम पदके आधेको पद और चयसे गुणित करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। यथा-८- १ =७२-४८x१६ = ४४८; इसे सर्वधन ४०९६ मेंसे कम करने पर ४०९६-४४८ = ३६४८ शेष रहे । इसमें ८ का भाग देने पर ३६४८८= ४५६ लब्ध आये। यह अपूर्वकरणके प्रथम समयके कुल परिणाम हैं । इनमें उत्तरोत्तर एक-एक चय १६ जोड़ने पर दूसरे समयसे लेकर आठवें समय तक प्रत्येक समयका द्रव्य क्रमसे ४७२, ४८८, ५०४, ५२०, ५३६, ५५२, और ५६८ होता है । प्रत्येक समयमें होनेवाले ये परिणाम नाना जीवोंकी अपेक्षा कहे गये हैं, क्योंकि एक समयमें एक जीवका परिणाम एक ही होता है, दूसरे जीवका भी उसी समय यह परिणाम हो सकता है और उससे भिन्न परिणाम भी हो सकता है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें नाना जीवोंके परिणाम परस्पर सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते हैं, इसलिये इसका अपूर्वकरण यह नाम सार्थक है। इसमें भिन्न-भिन्न समयवाले जीवोंके परिणामोंमें परस्पर अनुकृष्टि नहीं बनती यह हम पहले ही बतला आये हैं, इसलिये इस करणमें प्रत्येक समयमें पृथक्-पृथक् निर्वर्गणाकाण्डक स्वीकार किया गया है।
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ६ ११६. संपहि अणियट्टिकरणस्स लक्खणट्ठपरूवणमुत्तरसुत्तमाह
* अणियट्टिकरणे समए समए एक्केक्कपरिणामट्ठाणाणि अणंतगुणाणि च ।
११७. अणियट्टिकरणपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ ति ताव एक्केक्कं चेव परिणामट्ठाणं होइ । तत्थेगसमयम्मि परिणामभेदाभावेहिं होतं पि समयं पडि अणंतगुणकमेणेवावडिदं दट्ठव्वं, तत्थ पयारंतरासंभवादो। तम्हा अणियट्टिकरणम्मि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि चेव परिणामट्ठाणाणि अणंतगुणसरूवेणावट्ठिदाणि होति ति एसो एदस्स सुत्तस्स मावत्यो।
* एदमणियट्टिकरणस्स लक्खणं ।
5 ११८. सुगममेदमुवसंहारवक्कं । ___६ ११६. अब अनिवृत्तिकरणके लक्षणके अर्थका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* अनिवृत्तिकरणके प्रत्येक समयमें एक-एक परिणामस्थान होता है तथा वे सब परिणामस्थान उत्तरोत्तर अनन्तगुणित होते हैं।
६११७. अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक एक-एक परिणामस्थान ही होता है। वहाँ एक समयमें परिणाम भेद नहीं है, फिर भी प्रत्येक समयमें होने वाला वह परिणाम उत्तरोत्तर अनन्तगुणित क्रमसे ही अवस्थित है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि वहाँ दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। इसलिये अनिवृत्तिकरणमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही परिणामस्थान अनन्तगुणितस्वरूपसे अवस्थित हैं यह इस सूत्रका भावार्थ है।
* यह अनिवृत्तिकरणका लक्षण है। ६ ११८. यह उपसंहारवाक्य सुगम है।
विशेषार्थ—यहाँ अनिवृत्तिकरणके स्वरूपका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इस करणका काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है जो अपूर्वकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। पहले अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणमें अपने-अपने कालके भीतर होनेवाले सब परिणामोंका योग असंख्यात लोकप्रमाण बतला आये हैं और प्रत्येक समयमें होनेवाले परिणाम भी उत्तरोत्तर सदृश वृद्धिरूपसे अवस्थित असंख्यात लोकप्रमाण बतला आये हैं। किन्तु वह व्यवस्था अनिवृत्तिकरणमें नहीं है। किन्तु इस करणका जितना काल है उसमें होनेवाले परिणाम भी उतने ही हैं जो उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए हैं। तात्पर्य यह है कि यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा भी विवक्षित समयमें वही परिणाम होता है जो दूसरे आदि जीवोंका उस समयमें पहले अतीत कालमें हुआ है, वर्तमान समयमें है या भविष्यमें होगा। इसमें न तो गतिभेद बाधक है, न लेश्याभेद बाधक है, न संस्थानभेद बाधक है और न वेदभेद ही बाधक है। एक समयमें स्थित नाना जीवोंका एक ही परिणाम होता है और भिन्न समयमें स्थित जीवोंका भिन्न ही परिणाम होता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि इस
१. ता०प्रतो -कमेण वावड्डिदं इति पाठः ।
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२५७
$ ११९. एवं तिन्हं करणाणं लक्खणं परूविय संपहि देहिं करणेहिं अणादियमिच्छादिट्ठिस्स दंसणमोहोवसामणाविहाणं परूवेमाणो तव्त्रिसयमेव पइण्णाबक्कमाह* अणादियमिच्छादिट्ठिस्स उवसामगस्स परूवणं वत्तइस्सानो ।
$ १२०. दंसणमोहउवसामणाए पट्टवगो अणादियमिच्छाइट्ठी वा होज्ज सादियमिच्छाइट्ठी वा वेदगपाओग्गभावं वोलिय अट्ठावीसं सत्तावीसं छव्वीसाणमण्णदरकम्मंसिओ होण पुणो सम्मत्तग्गहणाहिमुहो होज्जं ति । तत्थ ताव अणादियमिच्छादिट्ठिमस्सियूण परूवणं वत्तइस्सामो, सादियमिच्छादिट्ठिउवसामयपरूवणाए तप्परूवणादो चे गयत्थत्तदंसणादोत्ति भणिदं होइ
* तं जहा ।
करणके कालके जितने समय हैं, परिणाम भी उतने ही हैं, न न्यून हैं और न अधिक हैं । ऐसा होते हुए भी ये परिणाम उत्तरोत्तर अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे ही अवस्थित हैं । इसका आशय यह है कि जिस प्रकार अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणके एक समय में होने वाले परिणामों में उत्तरोत्तर अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि आदि बन जाती है । उस प्रकारकी व्यवस्था यहाँ एक समयवर्ती परिणामभेद न होनेके कारण इन परिणामोंकी न होकर यहाँ प्रथम समय के परिणामसे दूसरे समयका परिणाम तथा द्वितीयादि समयोंके परिणामोंसे तृतीयादि समयोंके परिणाम उत्तरोत्तर अनन्तगुणी वृद्धिको लिये हुए ही हैं । इस प्रकार यह अनिवृत्तिकरणका स्वरूप है ।
$ ११९. इस प्रकार तीनों करणोंके लक्षणोंका कथन कर अब इन करणोंके द्वारा अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकर्मकी उपशामनाविधिका कथन करते हुए तद्विषयक ही प्रतिज्ञावाक्यको कहते हैं
* अब अनादि मिथ्यादृष्टि उपशामककी प्ररूपणा बतलाते हैं ।
$ १२०. दर्शनमोहकी उपशामनाका प्रस्थापक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव भी होता है और वेदकसम्यक्त्वके योग्य भावको उल्लंघन कर अट्ठाईस, सत्ताईस तथा छव्वीस इनमें से अन्यतर प्रकृतियोंकी सत्तावाला होकर सादि मिथ्यादृष्टि भी सम्यक्त्व ग्रहण के अभिमुख होता है। उ सर्व प्रथम अनादि मिध्यादृष्टि जीवके आश्रयसे कथन करेंगे, क्योंकि सादि मिथ्यादृष्टि उपशामककी प्ररूपणाका ज्ञान अनादि मिथ्यादृष्टि उपशामककी प्ररूपणासे ही होता हुआ देखा जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ – सभी सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके पात्र नहीं होते । किन्तु जिन्होंने कमसे कम वेदकसम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको उल्लंघन कर लिया है ऐसे मोहनीयकर्मकी २८, २७ या २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीव ही दर्शनमोहनीय की उपशामना करनेमें समर्थ होते हैं । यहाँ यद्यपि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयको उपशामना किस प्रकार करते हैं यह प्रमुखता से बतलाया जा रहा है, पर उससे सादि मिध्यादृष्टि जीवोंके दर्शनमोहनीयकी उपशामना किस प्रकार से होती है इसका मी ज्ञान हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है |
* वह जैसे ।
३३.
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० १२१. सुगम ।। ___* अधापवत्तकरणे हिदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा गुणसेढी वा गुणसंकमो बा णत्थि, केवलमणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झदि ।।
$ १२२. किं कारणमेत्थ द्विदिखंडयघादादीणमभावो चे? ण, अधापवत्तविसोहीणं तहाविहसत्तीए असंभवादो। तम्हा केवलमेसो पडिसमयमणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झदि, ण पुण डिदिखंडयादिकज्जकरणक्खमो त्ति सिद्धं ।
* अप्पसत्थकम्मंसे जे बंधइ ते दुह्राणिये अणंतगुणहीणे च, पसत्थकम्मंसे जे बंधइ ते च चउट्ठाणिए अणंतगुणे च समये समये।
६१२३. जइ वि ऐसो द्विदिखंडयघादादिकज्जविसेसं ण कुणइ तो वि ण एदस्स पडिसमयमणंतगुणविसोहिपरिणामो णिप्फलो, समयं पडि अप्पसत्थ-पसत्थपयडीण
६१२१. यह सूत्र सुगम है।
* अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम नहीं होता। केवल वह प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता जाता है।
१ १२२. शंका-इस. करणमें स्थितिकाण्डकघात आदिका अभाव होनेका क्या कारण है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि अधःप्रवत्तकरणमें प्राप्त होनेवाली विशुद्धियोंमें उसप्रकारको शक्तिका अभाव है, इसलिये बह केवल प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता जाता है । परन्तु वह काण्डकघात आदि कार्य करनेमें समर्थ नहीं होता यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ—अधःप्रवृत्तकरणके प्रत्येक समयके परिणामोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा तो यथासम्भव षट्स्थान पतित वृद्धिस्वरूप विशुद्धि बन जाती है, परन्तु प्रथम समयके विवक्षित परिणामसे दूसरे समयका विवक्षित परिणाम नियमसे अनन्तगुणी विशुद्धिसे युक्त होता है यह सब पहले प्रथमादि समयोंमें प्राप्त होनेवाली विशुद्धियोंके अल्पबहुत्वके कथनके प्रसंगसे वतला ही आये हैं। फिर भी इन परिणामोंमें स्थितिकाण्डकघात आदिरूप कार्य करनेकी सामर्थ्य नहीं पाई जाती यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* यह जीव जिन अप्रशस्त कर्मांशोंको बाँधता है उन्हें समय समयमें द्विस्थानीय अनन्तगुणी हीन अनुभाग शक्तिसे युक्त बाँधता है। तथा जिन प्रशस्त कर्माशोंको बाँधता है उन्हें समय समयमें चतु:स्थानीय अनन्तगुणी अनुभागशक्तिसे युक्त बाँधता है।
१२३. यद्यपि यह जीव स्थितिकाण्डकघात आदि कार्यविशेषको नहीं करता है तो भी इसका प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिस्वरूप होनेवाला परिणाम निष्फल नहीं है, क्योंकि
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५९
गाथा ९४ ]
दसणमोहोवसामणा मणुभागबंधोसरणतदुक्कस्सीकरणलक्खणफलविसेसोवलंभादो त्ति वुत्तं होइ ।
___ * हिदिबंधे पुण्णे पुण्णे अण्णं हिदिबंधं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागहीणं बंधदि।
१२४. एतदुक्तं भवति-अधापवत्तकरणपढमसमए चेव तदणंतरहेद्विमसमयट्ठिदिबंधादो तप्पाओग्गंतोकोडाकोडिपमाणादो पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागेण परिहीणमण्णहिदिबंधमाढवेइ । पुणो एदं हिदिबंधमंतोमुहुत्तकालमवद्विदसरूवेण बंधमाणो तब्बंधगद्धा परिछिज्जदे, तत्तो अण्णं द्विदिबंधं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण परिहीणमाढविय तं पि अंतोमुहुत्तकालमवढिदसरूवेण बंधइ । एवमेदेण कमेण पुण्णे पुण्णे द्विदिबंधे अण्णं दिदिबंधं पलिदोवमस्स संज्जदिभागेण- परिहीणं कादण बंधमाणो सगद्धाए संखेज्जसहस्समेत्ताणि द्विदिबंधोसरणाणि करेदि त्ति ।
उससे अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागबन्धापसरण लक्षण और प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धका उत्कृष्टीकरणलक्षण फलविशेष पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-इस जीवके पहले नरकादि किस गतिमें किन प्रकृतियोंका बन्ध होता है यह बतला आये हैं। यहाँ यह बतलाया है कि जिस गतिसम्बन्धी इस अवस्थामें जिन प्रकृतियोंका बन्ध होता है उनमेंसे अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध द्विस्थानीय होकर भी प्रत्येक समयमें अनन्तगुणा हीन होता जाता है और प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध चतुःस्थानीय होकर भी प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी वृद्धिरूप होता जाता है।
* एक-एक स्थितिबन्धके पूर्ण पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन अन्य-अन्य स्थितिबन्धको बाँधनेके लिये आरम्भ करता है।
१२४. उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें ही उससे अनन्तर पूर्व अधस्तन समयमें होनेवाले तत्प्रायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्धसे पल्योपर पा संख्यातवां भाग हीन अन्य स्थितिबन्धको आरम्भ करता है। पुनः इस स्थितिबन्धको अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थितरूपसे बाँधनेबालेके उसका बन्धकाल क्षीण हो जाता है । पुनः उससे पल्योपमका संख्यातवां भागप्रमाण न्यून अन्य स्थितिबन्धका आरम्भकर उसे भी अन्तर्मुहूर्तकालतक अवस्थितरूपसे बाँधता है। इसप्रकार इस क्रमसे स्थितिबन्धके पुनः पुनः पूर्ण होनेपर पल्योपमका संख्यातवां भागप्रमाण हीन अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भकर बन्ध करता हुआ उक्त जीव अधःप्रवृत्तकरण कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण करता है।
विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणका जो अन्तर्मुहूर्त काल है उसके एक स्थितिबन्धापसरणके कालप्रमाण संख्यात हजार खण्ड करे । उनमेंसे प्रत्येक खंडका प्रमाण भी अन्तर्मुहूर्त होता है। इसप्रकार अधःप्रवृत्तकणके कालके जितने खण्ड हुए उतने उस कालमें स्थितिबन्धापसरण होते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थितिबन्धापसरणमें पूर्व-पूर्वके स्थितिबन्धके प्रमाणमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति कम हो-होकर बन्ध होता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है।
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
६१२५, एबमधापवत्तकरणे वावारविसेसं परूविय संपहि तमुल्लंघियूणापुव्वकरणविसोहीए परिणदस्स पढमसमयप्पहुडि वावारविसेसपदुप्पायणट्ट मुवरिमसुत्तषबंधमाह* अपुव्वकरणपढमसमये ट्ठिदिखंडयं जहण्णगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सगं सागरोवमपुधत्त ।
$ १२६. अणंतरपरूविदेण विधिणा अधापवत्तकरणद्ध वोलाविय पुणो अपुव्वकरणं पविट्टुस्स पढमसमए चैव द्विदि-अणुभागखंडयघादा दो वि कादुमाढत्ता, अपुव्वकरणविसोहिपरिणामस्स तदुभयघादणिबंधणत्तादो । तत्थ ताव पढमट्ठिदिखंडयमेत्तवियप्पमाहो अस्थि जहण्णु कस्सवियप्पसंभवो त्ति एवंविहाए पुच्छाए णिरारेगीकरणट्ठमिदं सुत्तमोइण्णं । तं जहा - जहणणेण ताव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागायामं ट्ठिदिखंडय - मागाएदि, दंसणमोहोव सामगपाओग्गसव्वजहण्णंतोकोडा कोडिमेत्तट्ठिदिसंतकम्मेणागदम्मि तदुवलंभादो । उक्कस्सेण पुण सागरोवमपुधत्तमेत्तायामं पढमट्ठि दिखंडय माढवेह, पुव्विल्लजहण्णट्ठिदिसंतकम्मादो संखेज्जगुण ट्ठिदिसंतकम्मेण सहागंतूण अपुव्वकरणं विस्स पढमसमये तदुवलंभादो । किं पुण कारणं दोन्हं पि विसोहिपरिणामेसु समाणेसु संतेसु घादिदसेसाणं द्विदिसंतकम्माणं एवं विसरिसभावो त्तिणासंकणिज्जं, संसार
२६०
$ १२५. इसप्रकार अधः प्रवृत्तकरणमें व्यापारविशेषका कथनकर अब उसको उल्लंघनकर अपूर्वकरणकी विशुद्धिरूपसे परिणत हुए जीवके प्रथम समयसे लेकर व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अपूर्वकरणके प्रथम समय में जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमका संख्यातवाँ भागप्रमाण होता है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण होता है ।
$ १२६. अनन्तर पूर्व कही गई विधिसे अधःप्रवृत्तकरणके कालको बिताकर अपूर्व - करणमें प्रविष्ट हुआ जीव प्रथम समयमें ही स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात इन दोनोंको करनेके लिये आरम्भ करता है, क्योंकि अपूर्वकरणके विशुद्धिसे युक्त परिणाम में इन दोनोंके घात करनेकी हेतुता है । वहाँ प्रथम स्थितिकाण्डक प्रमाण ही एक प्रकार है या उसमें जघन्य और उत्कृष्ट भेद भी सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिये यह सूत्र आया है । यथा— जघन्यरूपसे तो पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण आयामवाले स्थितिsaat ग्रहण करता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामना के योग्य सबसे जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिसत्कर्मके साथ आये हुए जीवमें स्थितिकाण्डकका आयाम उक्त प्रमाण पाया जाता है । परन्तु उत्कृष्टरूपसे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण आयामवाले प्रथम स्थितिकाण्डको आरम्भ करता है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थितिसत्कर्म से संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्म के साथ आकर अपूर्वकरण में प्रविष्ट हुए जीवके प्रथम समयमें उसकी उपलब्धि होती है।
शंका — दोनों जीवोंके ही विशुद्धिरूप परिणामोंके समान होनेपर घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मोंमें इस प्रकारकी विसदृशता होती है इसका क्या कारण है ?
समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए. क्योंकि संसार अवस्थाके योग्य अध
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दंसणमोहोवसामणा
२६१ पाओग्गाणं हेट्ठिमयिसोहीणं सव्वेसु समाणत्ते णियमाणुवलंभादो।
$ १२७. एवमपुव्वकरणपढमसमए पारद्धस्स द्विदिखंडयस्स पमाणविणिण्णयं कादूण संपहि तत्थेव द्विदिबंधपमाणावहारणहमिदमाह
* हिदिबंधो अपुवो।
$ १२८. अधापवत्तकरणचरिमसमयट्ठिदिबंधादो अपुव्वो अण्णो द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण हीणो एण्हिमाढत्तो ति भणिदं होइ । संपहि एत्थेवापुव्वकरणपढमसमए अणुभागखंडयं पि घादेदुमाढवेइ । तं पुण केसि कम्माणं किं पमाणं वा होइ त्ति जाणावणमुत्तरं पबंधमाह
* अणुभागखंडयमप्पसत्थकम्मंसाणमणंता भागा।
१२९. अणुभागकंडयमप्पसत्थाणं चेव कम्माणं होइ पसत्थकम्माणं विसोहीए अणुभागवढिं मोत्तण तम्यादाणुववत्तीदो। तस्स पमाणं तक्कालभाविविट्ठाणाणुभागसंतकम्मस्साणंता भागा, अणुभागखंडयस्स करणपरिणामेहिं घादिज्जमाणस्स सेसवियप्पा
स्तन विशुद्धियाँ सभी जीवोंमें समान होती हैं ऐसा कोई नियम नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँपर अपूर्वकरणमें प्राप्त विशुद्धियोंसे पूर्वकी सभी विशुद्धियोंको संसार अवस्थाके योग्य कहा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके जो अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशुद्धि होती है वह भी संसार अवस्थाके योग्य है। किन्तु इसका केवल इतना ही अर्थ है कि जातिकी अपेक्षा जिस लक्षणवाले परिणाम अधःप्रवृत्तकरणमें होते हैं उस लक्षणवाले परिणाम अन्य संसारी जीवोंके भी हो सकते हैं। इसलिए उनके तारतम्यसे कर्मकी स्थितियोंमें भी विभिन्नता बनी रहती है और इसी कारण अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिकाण्डक अनेक प्रकारकी स्थितियोंवाले बन जाते हैं।
६ १२७. इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्रारम्भ किये गये स्थितिकाण्डकके प्रमाणका निर्णयकर अब वहींपर स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* स्थितिबन्ध अपूर्व होता है।
$ १२८. अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके स्थितिबन्धसे पल्योपमका संख्यातवां भाग हीन अपूर्व अर्थात् अन्य स्थितिबन्धको यहाँ आरम्भ करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब यहीं अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अनुभागकाण्डकका भी घात करनेके लिये आरम्भ करता है। वह किन कर्मोंका होता है और उसका क्या प्रमाण है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* अनुभागकाण्डक अप्रशस्त कर्मोंका अनन्त बहुभागप्रमाण होता है ।
$ १२९. अनुभागकाण्डक अप्रशस्त कर्मोका ही होता है, क्योंकि विशुद्धि के कारण प्रशस्त कर्मोंको अनुभागवृद्धिको छोड़कर उसका घात नहीं बन सकता । उस अनुभागकाण्डकका प्रमाण तत्कालभावी द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभागप्रमाण है, क्योंकि करण
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० संभवादो । संपहि एदस्स अपुव्वकरणपढमाणुभागकंडयस्स माहप्पजाणावणमुत्तरपबंधमाह
* तस्स पदेसगुणहाणिहाणंतरफदयाणि थोवाणि ।
$१३०. तस्से त्ति वुत्ते अहियारवसेण अणुभागस्स गहणं कायव्वं, तदो अणुभागविसयएगपदेसगुणहाणिद्वाणंतरस्स अब्भंतरे जाणि फयाणि ताणि अभवसिद्धिएहिंतो अणंतगुणाणि सिद्धाणमणंतभागमेत्ताणि होदूण उवरि वुच्चमाणपदावेक्खाए थोवाणि त्ति वुचं होइ। ____ * अइच्छावणाफद्दयाणि अणंतगुणाणि।
5 १३१. उवरिमअणुभागफद्दयाणि ओकड्डेमाणो जत्तियाणि अणुभागफद्दयाणि जहण्णेणाइच्छाविय हेट्ठिमफद्दयसरूवेणोकड्डइ ताणि जहण्णाइच्छावणाविसयाणि अणंतगुणाणि त्ति जह वुत्तं होइ । किं कारणमेदेसिमणंतगुणत्तं जादमिदि चे ? ण, जहण्णाइच्छावणभंतरे अणंताणं पदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणमत्थित्तोवएसादो । __*णिक्खेवफद्दयाणि अणंतगुणाणि ।।
5 १३२. एवं भणिदे कंडयस्स हेट्ठा जहण्णाइच्छावणमेत्तफहयाणि मोत्तूण सेसहेट्ठिमसव्वफद्दयाणं गहणं कायव्वं । एदाणि जहण्णाइच्छावणाफद्द एहितो अणंतगुणाणि त्ति भणिदं होइ। परिणामोंके द्वारा घाते जानेवाले अणुभागकाण्डकके शेष विकल्पोंका होना असम्भव है। अब इस अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डककी दीर्घताका ज्ञान करानेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* उसके एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धक सबसे स्तोक हैं।
$ १३०. सूत्रमें 'तस्स' ऐसा कहनेपर अधिकारवश अनुभागका ग्रहण करना चाहिए, अतः अनुभागविषयक एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके भीतर जो स्पर्धक हैं वे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होकर आगे कहे जानेवाले पदोंकी अपेक्षा स्तोक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उनसे अतिस्थापनारूप स्पर्धक अनन्तगुणे हैं।
$ १३१. उपरिम अनुभागसम्बन्धी स्पर्धकोंका अपकर्षण करते हुए जितने अनुभागस्पर्धकोंको जघन्यरूपसे अतिस्थापितकर उनसे नीचेके स्पर्धकरूपसे अपकर्षित करता है वे जघन्य अतिस्थापनाविषयक स्पर्धक एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं यह पूर्वोक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका--ये अनन्तगुणे किस कारणसे हो जाते हैं ?
समाधान--नहीं, क्योंकि जघन्य अतिस्थापनाके भीतर अनन्त प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरोंके अस्तित्वका उपदेश पाया जाता है।
* उनसे निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धक अनन्तगुणे होते हैं। $ १३२. ऐसा कहनेपर अनुभागकाण्डकके नीचे जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण स्पर्धकोंको
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६३
गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा * आगाइदफद्दयाणि अणंतगुणाणि ।
६१३३. तस्सेव दंसणमोहोवसामगस्स अपुव्वकरणपढमाणुभागखंडए बट्टमाणस्स खंडयसरूवेणागाइदाणि जाणि फद्दयाणि ताणि पुन्चुत्तणिक्खेवफद्दएहितो अगंतगुणाणि। किं कारणं ? एत्थतणाणुभागसंतकम्मस्स विट्ठाणियस्साणंतिमभागं मोत्तूण सेसाणमणताणं भागाणं कंडयसरूवेणागाइदत्तादो । ____ १३४. एवमपुव्वकरणपढमसमए द्विदि-अणुभागखंडयतब्बंधोसरणाणमक्कमेण छोड़कर नीचेके शेष सब स्पर्धकोंका ग्रहण करना चाहिए। ये जघन्य अतिस्थापनासम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ___* उनसे काण्डकरूपसे ग्रहण किये गये स्पर्धक अनन्तगुणे होते हैं।
६ १३३. अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान दर्शनमोहका उपशम करनेवाले उसी जीवके काण्डकस्वरूपसे जो स्पर्धक ग्रहण किये गये वे पूर्वोक्त निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुण होते हैं क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्मके अनन्तवें भागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागको काण्डकरूपसे ग्रहण किया है।
विशेषार्थ--यहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अनुभागकाण्डकका प्रमाण कितना है तथा किन कर्मोंका अनुभागकाण्डक घात होता है यह सब स्पष्ट किया गया है। यह तो अपूर्वकरणके लक्षणको स्पष्ट करते हुए ही बतला आये हैं कि इस करणमें नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होकर भी प्रत्येक समयके वे परिणाम अपूर्वअपूर्व ही होते हैं और यह भी पहले बतला आये हैं कि करण परिणाम माड़नेके अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही अप्रशस्त कर्मोंका अनुभाग द्विस्थानीय हो जाता है तथा उन परिणामोंको निमित्तकर प्रशस्त कर्मोंका अनुभाग चनुःस्थानीय हो जाता है । अब यहाँ यह बतलाया गया है कि अपूर्व करणके प्रारम्भ होनेके पहले समयमें ही अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका काण्डकघात होने लगता है। किन्तु प्रशस्त प्रकृतियोंमें ऐसा नहीं होता, किन्तु वहाँ प्राप्त हुई विशुद्धिके कारण उनके अनुभागमें उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगती है। अब यह देखना है कि यहाँ एक अनुभागकाण्डकका क्या प्रमाण है ? इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ अनुभागविषयक एक गुणहानि, अतिस्थापना, निक्षेप और अणुभागकाण्डक इन चारोंके आश्रयसे अल्पबहत्वका निर्देश किया गया है । अनुभागविषयक एक गुणहानिमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक होते हैं। उनसे अतिस्थापनासम्बन्धी स्पर्धक अनन्तगुण होते हैं। ऊपरके जिन अनुभागस्पर्धकोंका अपकर्षण होता है उनसे नीचेके और निक्षपसम्बन्धी स्पर्धकोंसे ऊपरके जिन बीचके स्पर्धकोंमें निक्षेप नहीं होता उनकी अतिस्थापना संज्ञा है। इन अतिस्थापना सम्बन्धी स्पर्धकोंसे नीचेके सब स्पर्धकोंकी निक्षेप संज्ञा है। ये अतिस्थापनासम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं। तथा अतिस्थापनासे ऊपरके जिन स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है वे काण्डकगत स्पर्धक कहलाते हैं। वे निक्षेपसम्बन्धी स्पधकोंसे भी अनन्तगुणे होते हैं। इस अल्पबहुत्वसे स्पष्ट है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त कर्मोंका जो अनुभागकाण्डक उत्कीरणके लिये ग्रहण किया जाता है उसका प्रमाण अनन्त बहुभागस्वरूप होता है ।
६ १३४. इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समय में स्थितिकाण्डकघात अनुभागकाण्डकघात
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० पारंभं परूविय संपहि एत्थेवाउगवजाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवो वि आढत्तो त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोडण्णं
* अपुव्यकरणस्स चेव पढमसमए आउगवजाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवो अणियट्टिअद्धादो अपुव्वकरणद्धादो च विसेसाहिओ ।
१३५. तम्मि चेवापुव्वकरणस्स पढमसमए आउगवजाणं गुणसेढिणिक्खेवो वि आढत्तो ति भणिदं होइ । किमट्ठमाउगस्स गुणसेढिणिक्खेवो णत्थि ति चे? ण, सहावदो चेव । तत्थ गुणसेढिणिक्खेवपवुत्तीए असंभवादो। सो वुण' गुणसेढिणिक्खेवो केत्तिओ होइ चि पुच्छाए अणियट्टिकरणद्धादो अपुव्वकरणद्धादो च विसेसाहियो त्ति णिद्दिष्टुं । एत्थतण अपुल्याणियट्टिकरणद्धाणं समुदिदाणं पमाणमंतोमुहुत्तमेत्त होइ । तत्तो विसेसाहिओ एदस्स गुणसेढिणिक्खेवस्सायामो ति वुत्त होइ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? अणियट्टिअद्धाए संखेज्जदिभागमेत्तो ? कुदो एदं परिच्छिज्जदे ? उवरि भण्णमाणअप्पाबहुअसुत्तादो । स्थितिबन्धापसरण और अनुभागबन्धापसरणका युगपत् प्रारम्भकर अब यहींपर आयुकर्मके अतिरिक्त कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप भी प्रारम्भ करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* अपूर्वकरणके प्रथम समयमें ही आयुकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप होता है जो अनिवृत्तिकरण के कालसे और अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक
होता है।
१३५. वह जीव अपूर्वकरणके उसी प्रथम समयमें आयुकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप भी प्रारम्भ कर देता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-आयुकर्मका गुणश्रेणिनिक्षेप किसलिये नहीं करता है ?
समाधान-नहीं, इसका गुणश्रेणिनिक्षेप स्वभावसे ही नहीं करता है, क्योंकि आयुकर्ममें गुणश्रेणिनिक्षेपकी प्रवृत्ति असम्भव है।
परन्तु उस गुणश्रेणिनिक्षेपका प्रमाण कितना है ऐसी पृच्छा होनेपर वह अनिवृत्तिकरणके कालसे और अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक है ऐसा निर्देश किया है। यहाँ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके समुदित कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । उससे विशेष अधिक इस गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-ऊपर कहे जानेवाले अल्पबहुत्वविषयक सूत्रसे जाना जाता है।
१. ता० प्रती- च इति पाठः ।
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दसणमोहोवसामणा
२६५ ६१३६. संपहि एत्थ गुणसेढिविण्णासकमो वुच्चदे । तं जहा—अपुवकरणपढमसमए दिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धे ओकड्डकड्डणभागहारेण खंडेयूण तत्थेयखंडमेत्तदव्वमोकड्डिय तत्थासंखेज्जलोगपडिभागियं दव्वमुदयावलियम्भंतरे गोवुच्छायारेण णिसिंचिय पुणो सेसबहुभागदव्यमुदयावलियबाहिरे णिक्खिवमाणो उदयावलियबाहिराणंतरविदीए असंखेजसमयपबद्धमेत्तदव्वं णिसिंचदे । तत्तो उवरिमहिदीए असंखेजगुणं देदि । एवमसंखेजगुणाए सेढीए णिसिंचदि जाव अपुव्वाणियट्टिकरणद्धाहिंतो विसेसाहियगुणसेढिसीसयं ति । पुणो उवरिमाणंतरट्टिदीए असंखेजगुणहीणं देदि । तत्तो परं विसेसहीणं णिक्खिवदि जाव चरिमट्ठिदिमधिच्छावणावलियमेत्तेण अपत्तो ति । एवमपुत्वकरण विदियादिसमएसु वि गुणसेढिणिक्खेवकमो परूवेयव्यो। णवरि गलिदसेसायामेण णिसिंचदि त्ति वत्तव्वं ।
$ १३६. अब यहाँपर गुणश्रेणिकी रचनाके क्रमको बतलाते हैं। यथा-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजितकर वहाँ लब्धरूपसे प्राप्त एक खण्डप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकर उसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भाग द्रव्य प्राप्त हो उसे उदयावलिके भीतर गोपुच्छाकाररूपसे निक्षिप्तकर पुनः शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिके बाहर निक्षिप्त करता हुआ उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थितिमें असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करता है। तथा उससे उपरिम स्थितिमें असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इसप्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता है । पुनः गुणश्रेणिशीर्षकी उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणा हीन द्रव्य देता है। उसके बाद अतिस्थापनावलिको प्राप्त न होता हुआ उससे पूर्वकी अन्तिम स्थितितक क्रमसे विशेष हीन द्रव्यका निक्षेप करता है। इसीप्रकार अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयोंमें भी गुणश्रेणिके निक्षेपका कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि गलित होनेसे जो काल शेष रहे उसके आयामक अनुसार निक्षिप्त करता है।
विशेषार्थ—गुणश्रेणिका स्वरूप निर्देश हम पहले कर आये हैं। यहाँ गुणश्रेणिप्रमाण निषेकोंमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप किस प्रकार होता है इसका क्रम बतलाया गया है। यहाँ आयुकर्मको छोड़कर शेष कोंकी जिन प्रकृतियोंका वर्तमानमें उदय होता है उनकी उदय समयसे लेकर गुणश्रेणि रचना होती है और जिन कर्मप्रकृतियोंका उदय नहीं होता है उनकी उदयावलिके उपरिम समयसे लेकर गुणश्रेणि रचना होती है। ऐसा होते हुए भी गुणश्रेणि रचनाका प्रमाण अवस्थित होनेसे उसमें प्रत्येक समयमें एक-एक समयकी हानि होती जाती है, क्योंकि अपर्वकरणके प्रथम समयसे गुणश्रेणिरचनाके प्रारम्भ होनेपर जैसे-जैसे एक-एक समय अतीत होता जाता है वैसे-वैसे गुणश्रेणिका आयाम भी घटता जाता है, ऊपर गुणश्रेणि शीर्ष में वृद्धि नहीं होती। इसलिये इसकी अवस्थित गुणश्रेणि संज्ञा है। गुणश्रेणिरचनाके कालमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप किस क्रमसे होता है इसका विचार मूलमें किया ही है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि उदयावलिसे ऊपर प्रथम स्थितिसे लेकर अन्तिम स्थितितक प्रत्येक स्थितिमेंसे द्रव्यका अपकर्षण होकर गुणश्रेणिमें निक्षेप होता है। क्रम यह है कि उदयावलिसे उपरिम प्रथम स्थितिमेंसे अपकर्षित द्रव्यका एक समय कम आवलिके एक समय अधिक
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ १३७. संपहि अपुव्वकरणपढमसमए जुगवमाढत्ताणं ठिदि-अणुभागखंडय - डिदि - बंधाणं परिसमत्ती किमक्कमेण होइ, आहो कमेणे त्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमिदमाह -
२६६
* तम्हि ट्ठिदिखंडयद्धा ठिदिबंधगद्धा च तुल्ला ।
$ १३८. अपुव्वकरणे पढमट्टि दिखंडयद्धा पढमट्ठिदिबंधगद्धा च अंतोमुहुत्तमेत्ती होण अण्णोणेण तुल्ला भवदि । एवं विदियादिट्ठिदिखंडय-ट्ठिदिबंधद्वाणमण्णोष्णं समाणत्तं वत्तव्वं । वरि पढमट्ठिदिखंडयतब्बंधगद्धाहिंतो विदियादीणं जहाकमं विसेसहीणत्तमवगंतव्वं । सुत्तेणाणुवइङ्कं कथमेदमवगम्मदि त्ति णासंकणिजं, उवरिमअप्पाबहुअसुत्तवलेण तणिणयादो । तदो हिदिखंडय - द्विदिबंधाणं पारंभो पज्जवसाणं च जुगवं होदि ति सुत्तस्स भावत्थो । संपहि ठिदिखंडयद्धाए संखेज्जदिभागमेती चेत्र अणुभागखंडय -
त्रिभाग में उदय समयसे लेकर निक्षेप होता है तथा एक समयकम उदद्यावलिका दो त्रिभाग अतिस्थापनारूप रहता है । इससे उपरिम द्वितीय स्थितिके कर्मपुंजका अपकर्षण होनेपर निक्षेपका प्रमाण वही रहता है, मात्र अतिस्थापना में एक समयकी वृद्धि हो जाती है । पुनः इससे उपरिम तृतीय स्थितिके कर्मपुंजका अपकर्षण होनेपर निक्षेप तो वही रहता है, मात्र अतिस्थापना में एक समयकी और वृद्धि हो जाती है । इसप्रकार उत्तरोत्तर अतिस्थापनाके एक आवलिप्रमाण होनेतक उसमें वृद्धि होती जाती है, निक्षेपका प्रमाण वही रहता है । पुनः इससे ऊपर सर्वत्र अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण ही रहती है, मात्र निक्षेपमें प्रति समय वृद्धि होती जाती है। यहाँ जघन्य निक्षेपका प्रमाण एक समय कम एक आवलिका एक समय अधिक त्रिभागप्रमाण है और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण एक समय अधिक दो आवलि कम यहाँ गुणश्रेणि रचना कालके प्रत्येक समय में प्राप्त कर्म स्थितिप्रमाण है ।
$ १३७. अब अपूर्वकरणके प्रथम समय में काण्डक और स्थितिबन्धकी परिसमाप्ति अक्रमसे ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका विधान करनेके लिये
युगपत् प्राप्त हुए स्थितिकाण्डक, अनुभागअर्थात् युगपत् होती है या क्रमसे होती है। इस सूत्र को कहते हैं
* वहाँ स्थितिकाण्डकका काल और स्थितिबन्धका काल तुल्य है ।
$ १३८. अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकाण्डकका उत्कीरण काल और प्रथम स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्त होकर परस्पर तुल्य होता है । इसीप्रकार द्वितीयादि स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्धका काल परस्पर समान है ऐसा कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालसे और प्रथम स्थितिबन्धके कालसे द्वितीयादिको यथाक्रम विशेष हीन विशेष हीन जानना चाहिए ।
शंका – सूत्र में इस विशेषताका उपदेश नहीं दिया है, फिर यह किस प्रमाणसे जाना
जाता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व के प्रतिपादक सूत्रोंके बलसे इस विशेषताका निर्णय होता है ।
इसलिए स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्धका प्रारम्भ और समाप्ति एकसाथ होती है यह इस सूत्र का भावार्थ है । अब स्थितिकाण्डकघातके कालके संख्यातवें भागप्रमाण ही अनु
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ।
दंसणमोहोवसामणा
उक्कीरणद्धा होदि त्ति जाणावणमुत्तरमुत्तावयारो
* एक्कम्हि ट्ठिदिखंडए अणुभागखंडयसहस्साणि धादेदि ।
$ १३९. किं कारणं १ ट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धादो अणुभागखंडयउक्कीरणद्धाए संखेजगुणहीणत्तादो । संपहि एदस्सेवत्थस्स परिष्फुडीकरणट्ठमिमं परूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा - एगाणुभागकंडयउक्कीरणकालेण एगट्ठिदिखंडयउक्कीरणकालम्मि भागे हिदे संखेज्ज सहरसमेत्ताणि रूवाणि आगच्छंति । पुणो एदाणि विरलिय पढमट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धं समखंड काढूण दिण्णे तत्थ एक्केक्स्स रूवस्स अणुभागखंडयउक्कीरणकालपमाणं पावे । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं विरलिय पुध दुवेयव्वं । संपहि एवंविहपुधविरलणाए पढमसमयम्मि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागायामपढमट्ठिदिखंडयस्स पढमफालिमा गाएदूण णासे । अणुभागखंडयस्स वि जहण्णफद्दय पहुडि जाचुक्कस्सफद्दये त्ति ताव विरचिदफद्दयाणमणंताभागमेत्तपढमफालिं घेत्तूण तत्थेव णासेइ । तिस्से चैव पुधट्ठ विदविरलगाए विदियसमयम्मि तेणेव विधिणा ठिदिखंडयविदियफालिमणुभागखंडयविदियफालिं च समयं घेत्तूण घादेदि । एवं पुणो पुणो गेण्हमाणेण पुव्वुत्तेगरूवधरिदसमयमेत्तफालीसु घादिदासु पढमाणुभागखंडयं समप्पइ । णवरि पढमट्ठिदिखंडयमज विण समप्पइ, तदुक्कीरणद्धाए संखेज दिभागस्सेव गयत्तादो । पुणो एदेणेव विधिणा सेसविरलिदसंखेजभागकाण्डकका उत्कीरणकाल होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है
* एक स्थितिकाण्डकमें हजारों अनुभागकाण्डकोंका घात करता है ।
-
२६७
$ १३९. क्योंकि स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालसे अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल संख्यातगुणा हीन होता है । अब इसी अर्थको सुस्पष्ट करनेके लिये इस प्ररूपणाको बतलाते हैं। यथा— एक अनुभागकाण्डककालके उत्कीरणकालका एक स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालमें भाग देनेपर संख्यात हजारप्रमाण संख्या प्राप्त होती है । पुनः इनका विरलनकर प्रथम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालके समान खंड करके प्रत्येक विरलन अंकके प्रति देयरूप से देनेपर वहाँ एक-एक अंकके प्रति अनुभागकाण्डकके उत्कीरणकालका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहाँपर एक अंक के प्रति जो प्राप्त हुआ उसका विरलनकर पृथक् स्थापित करना चाहिए। अब इस प्रकारका जो पृथक् विरलन स्थापित किया उसके प्रथम समय में पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण यामवाले प्रथम स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिको ग्रहणकर उसका नाश करता है । अनुभागकाण्डककी भी जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धकतक विरचित स्पर्धकोंकी अनन्त बहुभागप्रमाण प्रथम फालिको ग्रहणकर उसका वहींपर नाश करता है । पृथ स्थापित हुए उसी विरलनके दूसरे समयमें उसी विधिसे स्थितिकाण्डककी दूसरी फालिको तथा अनुभागकाण्डकी दूसरी फालिको उसी समय ग्रहणकर उनका घात करता है। इसप्रकार पुनः पुनः उन दोनोंको प्रहण करनेसे पूर्वोक्त विरलनके एक अंकके प्रति समयका जितना प्रमाण प्राप्त हुआ था तत्प्रमाण फालियोंका घात करनेपर प्रथम अनुभागकाण्डक समाप्त होता है। इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकाण्डक अभी भी समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि उसके उत्कीरणका
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० सहस्सरूयमेत्ताणुभागखंडएसु घादिदेसु तदो अपुव्वकरणपढमट्टिदिबंधो पढमट्ठिदिखडयं संखेजसहस्समेत्ताणमेस्थतणाणुभागखंडयाणं परिमाणखंडयं च एदाणि तिण्णि वि जुगवं परिसमप्पंति । एवं होदि त्ति कट्ट एक्कम्हि द्विदिखंडए अणुभागसहस्साणि घादेदि त्ति सिद्ध। संपहि एदस्सेवत्थस्स उवसंहारमुहेण परिप्फुडीकरणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं--
* ठिदिखंडगे समत्त अणुभागखंडयं च द्विदिबंधगद्धा च समत्ताणि भवंति।
5 १४०. सुगमं चेदं, अणंतरादीदपबंधेणेव गयत्थत्तादो । संपहि एवंविहेसु द्विदिखंडयसहस्सेसु पादेक्कमणुभागखंडयसहस्साविणाभावीसु गदेसु तदो अपुव्वकरणद्धा समप्पदि त्ति पदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणइ
* एवं ठिदिखंडयसहस्सेहिं बहुएहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धा समत्ता भवदि।
$ १४१. गयत्थमिदं सुत्तं । णवरि पढमट्ठिदिखंडयादो विदियट्ठिदिखंडयं विसेसहीणं संखेजदिभागेण । एवमणंतराणंतरादो विसेसहीणं णेदव्वं जाव चरिमद्विदिखंडये त्ति । संख्यातवाँ भाग ही व्यतीत हुआ है। पुनः इसी विधिसे शेष विरलनोंके प्रति प्राप्त संख्यात हजार संख्याप्रमाण अनुभागकाण्डकोंका घात करनेपर उस समय अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिबन्ध, प्रथम स्थितिकाण्डक और यहाँ सम्बन्धी संख्यात हजार अनुभागकाण्डकोंके परिमाणसे युक्त अनुभागकाण्डक ये तीनों ही एकसाथ समाप्त होते हैं। इसप्रकार होता है ऐसा करके एक स्थितिकाण्डकके भीतर हजारों अनुभागकाण्डकोंका घात करता है यह सिद्ध हुआ। अब इसी उपसंहारद्वारा अर्थको सुस्पष्ट करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* स्थितिकाण्डकके समाप्त होनेपर अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्धकाल समाप्त होते हैं।
$ १४०. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अनन्तर पूर्व कहे गये प्रबन्धसे ही इसका ज्ञान हो जाता है। अब इस प्रकार जो प्रत्येक स्थितिकाण्डक हजारों अनुभागकाण्डकोंका अविनाभावी है ऐसे हजारों स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर तब अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है इस बातका कथन करनेकेलिये आगेके सूत्रको कहते कहते हैं___* इस प्रकार बहुत हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है।
१४१. यह सूत्र गतार्थ है । इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकाण्डकसे दूसरा स्थितिकाण्डक संख्यातवां भाग हीन है। इसप्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्राप्त होने तक पूर्व-पूर्वके स्थितिकाण्डकसे आगे-आगेका स्थितिकाण्डक विशेष हीन जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक आयुकर्मके १. ताप्रती परिमाणाणुखंडय इति पाठः :
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दंसणमोहोवसामणा
२६९ 5 १४२. संपहि अपुव्वकरणचरिमसमए घादिदसेसट्ठिदिसंतकम्मपमाणावहारण?मिदमाह
* अपुवकरणस्स पढमसमए हिदिसंतकम्मादो चरिमसमए हिदिसंतकम्मं संखेजगुणहीणं ।
$१४३. किं कारणं ? अपुव्वकरणपढमसमए पुव्यणिरुद्ध तोकोडाकोडिमेत्तसाग
अतिरिक्त शेष कर्मोंकी स्थितिमें उत्तरोत्तर हानि किसप्रकार होती है, अप्रशस्त कर्मोंके द्विस्थानीय अनुभागकी हानि भी किस विधिसे होती है और प्रत्येक स्थितिबन्धका काल कितना है इसका स्पष्टीकरण किया गया है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि गुणश्रेणिरचनाके समान ये तीनों ही कार्य अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही प्रारम्भ हो जाते हैं। इनमेंसे प्रत्येक स्थितिकाण्डकका उत्कीरण काल अन्तर्मुहूर्त है। ऐसे हजारों स्थितिकाण्डक अपूर्वकरणके कालके भीतर होते हैं। अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जितनी स्थिति होती है उसमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण उपरितन स्थितिको ग्रहणकर उसका फालिरूपसे प्रत्येक समयमें अपवर्तन करते हुए अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उसका अभाव करना एक स्थितिकाण्डकघात है। जैसे लकड़ीके एक कुन्देके कुछ भागके बराबर लम्बे अनेक फलक चीर लिये जाते हैं उसी प्रकार पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिके तत्प्रमाण आयामवाली उत्कीरणकालके जितने समय हों उतनी फालियाँ करके एक-एक समयमें उनका अपवर्तन करते हुए अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समयमें पूरी काण्डकप्रमाण स्थितिका अपवर्तन करना स्थितिकाण्डकघात है । पुनः दूसरे अन्तर्मुहूर्तमें दूसरे स्थितिकाण्डकका उक्त विधिसे अपवर्तन करना दूसरा स्थितिकाण्डकघात है। इसी प्रकार अन्तिम समय तक हजारों स्थितिकाण्डकोंका अपवर्तनविधिसे घात होता है। यह तो स्थितिकाण्डकघातकी प्रक्रिया है। अनुभागकाण्डकघातकी प्रक्रिया भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि एक-एक स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालमें हजारों अनुभागकाण्डकघात होते हैं। इनमेंसे प्रत्येक अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल भी अन्तर्मुहूतप्रमाण है। इसी प्रकार स्थितिबन्धापसरणके विषय में भी समझ लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एक स्थितिकाण्डकके उत्कीरणका जो काल है उतना ही एक स्थितिबन्धका काल है। अर्थात् इतने काल तक प्रति समय सदृश स्थितिका बन्ध होता है । स्थितिकाण्डकके बदलते ही दूसरा स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जितने स्थितिकाण्डकघात होते हैं उतने ही स्थितिबन्धापसरण होते हैं । इसके अतिरिक्त स्थितिकाण्डकोंके विषय में विशेष खुलासा मूलमें किया ही है । अर्थात् प्रथम स्थितिकाण्डकसे दूसरा स्थितिकाण्डक विशेष हीन होता है, दूसरेसे तीसरा, तीसरेसे चौथा इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डक तक पूर्व-पूर्व स्थितिकाण्डकसे आगे-आगेका स्थितिकाण्डक विशेष हीन होता है ।
$ १४२. अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें घात करनेसे शेष स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका निश्चय करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* अपूर्वकरणके प्रथम समयके स्थितिसत्कर्मसे अन्तिम समयमें स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है।
$ १४३. क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जो पहलेकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० रोवमाणं संखेज्जे भागे अपुव्वकरणविसोहिणिबंधणट्ठिदिखंडयसहस्सेहिं घादिय संखेजदिभागमेत्तस्सेव हिदिसंतकम्मस्स परिसेसिदत्तादो। संपहि अपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमयो त्ति ताव एदम्मि अंतरे घादिदासेससागरोवमाणमागमणमिच्छामो ति तेरासियं कादण जोइजदे । तं कथं ? तप्पाओग्गसंखेजरूवमेत्ताणं ठिदिखंडयाणं जइ एगं पलिदोवमं लब्भइ तो एत्तो संखेज्जसहस्सकोडिगुणट्ठिदिकंडएसु केत्तियाणि पलिदोवमाणि लहामो त्ति तेरासियं कादूण डिदिखंडयस्स डिदिखंडयं सरिसमवणिय हेडिमसंखेज्जरवेहि उवरिमसंखेज्जरूवाणि ओवट्टिय लखेण पलिदोवमे गुणिदे संखेज्जकोडाकोडिमेत्तपलिदोवमाणि आगच्छंति द्विदिखंडयगुणगारमाहप्पादो। पुणो एदाणि संखेज्जकोडाकोडिमेत्तपलिदोवमाणि तेरासियकमेण सागरोवमपमाणेण कीरमाणाणि संखेज्जकोडिमेत्तसारोवमाणि होति त्ति । होंताणि वि पव्वणिरुद्धंतोकोडाकोडीए संखेज्जाभागमेत्ताणि त्ति घेत्तव्वाणि। अण्णहा अपुव्वकरणपढमसमयढिदिसंतकम्मादो चरिमसमयहिदिसंतकम्मस्स संखेज्जगुणहीणत्ताणुववत्तीदो । ठिदिबंधोसरणस्स वि एसो चेव अत्थो जोजेयव्यो ।
प्रमाण स्थिति है उसके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका अपूर्वकरणसम्बन्धी विशुद्धिनिमित्तक हजारों स्थितिकाण्डकोंके द्वारा घातकर उसके अन्तिम समयमें संख्यातवें भागमात्र ही स्थितिसत्कर्म शेष रहता है । अब अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक इस कालके भीतर जितने सागरोपमप्रमाण स्थितियोंका घात हुआ है उन सबको प्राप्त करना चाहते हैं इसलिये त्रैराशिक करके योजना करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-तत्प्रायोग्य संख्यात संख्याप्रमाण स्थितिकाण्डकोंका यदि एक पल्योपम प्राप्त होता है तो इनसे संख्यात हजार कोटिगुणे स्थितिकाण्डकोंमें कितने पल्योपम प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिककर स्थितिकाण्डक स्थितिकाण्डकके सदृश है अतः उनका अपनयनकर तथा अधस्तान संख्यात संख्यासे उपरिम संख्यात संख्याको भाजितकर जो लब्ध आवे उससे पल्योपमके गुणित करनेपर स्थितिकाण्डकसम्बन्धी गुणकारके माहात्म्यसे संख्यात कोड़ाकोड़ीप्रमाण पल्योपम प्राप्त होते हैं। पुनः इन संख्यात कोड़ाकोड़ीप्रमाण पल्योपमोंको त्रैराशिकविधिसे सागरोपमके प्रमाणसे करनेपर संख्यात कोटिप्रमाण सागरोपम होते हैं। इतने होते हुए भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें विवक्षित अन्तःकोड़ाकोड़ीके संख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा अपूर्वकरणके प्रथम समयके स्थितिसत्कर्मसे अन्तिम समयका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन नहीं बन सकता। स्थितिबन्धापसरणके विषयमें भी इसी अर्थकी योजना करनी चाहिए।
विशेषार्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें विवक्षित कर्मोंका जितना स्थितिसत्त्व रहता है उसके अन्तिम समयमें वह संख्यातगुणा हीन कैसे हो जाता है इसी बातको यहाँ राशिक विधिसे स्पष्ट किया गया है। कारण यह है कि चूर्णिसूत्र में एक स्थितिकाण्डकका आयाम
१. ता. प्रतौ संखेज्जभागमेत्ताणि इति पाठः ।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७१
गाथा ९४]
दंसणमोहोवसामणा $ १४४. एवमेत्तिएण वावारविसेसेणापुव्वकरणद्ध समाणिय तदो अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स किरियाविसेसपदुप्पायणमुत्तरमुत्तमाह-- ____ * अणियहिस्स पढमसमए अण्णं ट्ठिदिखंडयं अण्णो हिदिबंधो अण्णमणुभागखंडयं।
१४५. अणियट्टिकरणपविठ्ठपढमसमए चेव अण्णमपुव्वकरणचरिमट्ठिदिखंडयादो विसेसहीणद्विदिखंडयमाढतं । द्विदिवंधो वि पविल्लादो ठिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागहीणो तत्थेवाढत्तो। अणुभागखंडयं पि धादिदसेसाणुभागस्साणंतभागमेनं तत्थेवागाइदं । गुणसेढिणिक्खेवो षुण पुचिल्लो' चेव गलिदसेसो पडिसमयम संखेज्जगुणपदेसविण्णासविसेसिदो हवइ । सेसो वि विही पुव्वुत्तो चेव दट्टव्वो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है और अपूर्वकरणके कालमें ऐसे स्थितिकाण्डक संख्यात हजार होते हैं मात्र इतना ही बतलाया गया है, इसलिए स्थितिकाण्डकोंका प्रमाण कितना होना चाहिए ताकि उसके आधारसे अपूर्वकरणके कालमें घटनेवाली विवक्षित स्थितिका प्रमाण प्राप्त किया जा सके। इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ एक पल्योपममें जितने स्थितिकाण्डक हों उनसे संख्यात हजार कोटिगुणे कुल स्थितिकाण्डक होते हैं यह स्वीकारकर अपूर्वकरणके कालमें घटनेवाली विवक्षित स्थितिका प्रमाण त्रैराशिक विधिसे प्राप्तकर वह संख्यात कोटि सागरोपमप्रमाण बतलाया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जितना स्थितिसत्त्व होता है उसके अन्तमें वह संख्यातगुणा हीन हो जाता है। इसी प्रकार स्थितिबन्धके विषयमें भी आगमानुसार समझ लेना चाहिए ।
६१४४. इस प्रकार इतने व्यापारविशेषके द्वारा अपूर्वकरणके कालको समाप्तकर उसके बाद अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके क्रियाविशेषका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* अनिवृतिकरणके प्रथम समयमें अन्य स्थितिकाण्डक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकाण्डक होता है।
६१४५. अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट होनेके प्रथम समयसे ही अपूर्वकरणके अन्तिम स्थितिकाण्डकसे विशेष हीन अन्य स्थितिकाण्डकका आरम्भ करता है। पूर्वके स्थितिबन्धसे पल्यो. पमके संख्यातवें भागप्रमाण हीन स्थितिबन्ध भी वहींपर आरम्भ करता है। तथा घात करनेसे शेष रहे अनुभागके अनन्त वहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकको भी वहींपर ग्रहण करता है। परन्तु गुणश्रेणिनिक्षेप पूर्वका ही रहता है, जो अधःस्तन स्थितियोंके गलनेपर जितना शेष रहे उतना होता है तथा प्रतिसमय असंख्यातगुणे प्रदेशोंके विन्याससे विशेषताको लिये हुए होता है। शेष विधि भी पूर्वोक्त ही जाननी चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ—यहाँ अनिवृत्तिकरणमें स्थितिकाण्डक आदिकी क्या व्यवस्था रहती है यह १. ता. प्रतो पुविल्लादो इति पाठः ।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० १४६. एवमेदीए परूवणाए बहूहि द्विदिखंडयसदस्सेहिं गदेहिं तदो कीरमाणकज्जविसेसपदुप्पायणद्वमुत्तरसुत्त माह-- .. * एवं हिदिखंडयसहस्सेहिं अणियटिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेदि।
$ १४७. एवमणंतरपरूविदविहाणेण बहूहिं द्विदिखंडयसहस्सेहिं पादेक्कमणुभागखण्डयसहस्साविणाभावीहि अणियट्टिअद्धाए संखेज्जे भागे गमिय तदद्धाए संखेज्जभागमेत्तावसेसे अंतरकरणमाढवेदि चि भणिदं होइ। किमंतरकरणं णाम ? विवक्खियकम्माणं हेट्ठिमोवरिमद्विदीओ मोत्तूण मज्झे अंतोमुहुरमेचीणं द्विदीणं परिणामविसेसेण णिसेगाणमभावीकरणमंतरकरण मिदि भण्णदे। संपहि एवं लक्षणमंतरकरणमाढविय पुणो केचियमेण कालेण केशियाओ द्विदीओ घेच णंतरं करेदि, केचियमेचि वा मिच्छतस्स पढमहिदि परिसेसेदि चि एवंविहस्स अत्थविसेसस्स परूवणट्ठमुचरसुत्तमोइण्णं
स्पष्टरूपसे बतलाया गया है। विशेष बात इतनी ही है कि दर्शनमोहनीयकी उपशमना करनेवाले जीवके अवस्थित गुणश्रेणिरचना न होकर गलितावशेष गुणणि रचना होती है। इसलिए अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर आगे भी गुणश्रेणिविन्यासके अन्तिम समय तक जो गुणश्रेणिका आयाम शेष रहता जाता है मात्र उतने प्रमाणमें ही प्रति समय असंख्यात गुणित प्रदेश विन्यासरूपसे उसकी रचना होती रहती है।
$ १४६. इसप्रकार इस प्ररूपणाके अनुसार बहुत हजार स्थितिकाण्डकोंके हो जानेपर उसके आगे किये जानेवाले कार्यविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
इस प्रकार हजारों स्थितिकाण्डकोंके द्वारा अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभागके व्यतीत होनेपर अन्तर करता है ।
$ १४७. इसप्रकार अनन्तरपूर्व कही गई विधिके अनुसार जो प्रत्येक स्थितिकाण्डक हजारों अनुभागकाण्डकोंका अविनाभावी है ऐसे बहुत हजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभागको विताकर उसके कालके संख्यातवें भागप्रमाण शेष रहनेपर अन्तरकरणका आरम्भ करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-अन्तरकरण किसे कहते हैं ?
समाधान-विवक्षित कर्मोकी अधस्तन और उपरिम स्थितियोंको छोड़कर मध्यकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियोंके निषेकोंका परिणामविशेषके कारण अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं।
___ अब इसप्रकारके लक्षणवाले अन्तरकरणका आरम्भकर पुनः कितने कालके द्वारा कितनी स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तर करता है तथा मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिको कितना शेष रहने देता है इसप्रकार इस अर्थविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ] दंसणमोहोवसामणा
२७३ * जा तम्हि टिदिबंधगद्धा तत्तिएण कालेण अंतरं करेमाणो गुणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागं खंडेदि ।
. १४८. एदेण सुत्तेण अंतरकरणं करेमाणस्स कालपमाणमंतरट्ठमागाइदठिदीणं पमाणावहारणं पढमट्ठिदिदीहत्तं च परूविदं होइ । तं जहा-अंतरं करेमाणो केत्तियमेत्तेण कालेणंतरं करेदि ति पुंच्छिदे 'जा तम्हि द्विदिबंधगद्धा तत्तिएण कालेण करेदि' त्ति णिद्दिढें । एदेण वयणेणेगसमएण दोहि तीहि वा समएहिं एवं जाव संखेज्जासंखेजेहिं वा समएहिं अंतरकरणसमत्ती ण होइ । किंतु अंतोमुहुत्तेणेव होइ ति जाणाविदं । __$१४९. संपहि एदेण कालेणंतरं करेमाणो केत्तियमेत्तीओ द्विदीओ घेत्तूण केत्तियमेति वा पढमहिदि ठविय अंतरं करेदि त्ति पुच्छाए णिण्णयं करिस्सामो । तं जहा—'गुणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो' एत्थ गुणसेढिणिक्खेवो त्ति वुत्ते जो अपुव्वकरणस्स पढमसमए अणियट्टिकरणद्धाहिंतो बिसेसाहियायामेण णिक्खित्तो गलिदसेससरूवेणेत्तियकालमागदो तस्स गहणं कायव्वं । तस्स अग्गग्गमिदि भणिदे गुणसेढिसीसयस्स गहणं कायव्वं । ततो प्पहुडि हेट्ठा संखेज्जदिभागं खंडेदि त्ति भणिदे सयलस्सगुणसेढिआयामस्स तकालं दीसमाणस्स संखेज्जदिभागभूदो जो अणियट्टिअद्धादो अच्छिदो
* उस समय जितना स्थितिबन्धककाल है उतने कालके द्वारा अन्तरको करता हुआ गुणश्रेणिनिक्षेपके अग्राग्रसे अर्थात् गुणश्रेणिशीर्षसे लेकर ( नीचे) गुणश्रेणि आयामके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिनिषेकोंका खण्डन करता है।
१४८. इस सूत्रद्वारा अन्तरकरण करनेवाले जीवके कालका प्रमाण, अन्तर करनेके लिये ग्रहण की गई स्थितियोंके प्रमाणका अवधारण तथा प्रथम स्थितिकी दीर्घता इन तीनका कथन किया गया है। यथा-अन्तर करनेवाला कितने कालके द्वारा अन्तर करता है ऐसी
र 'जो उस समय स्थितिबन्धका काल हैं उतने कालक द्वारा करता है' यह निर्दिष्ट किया है। इस वचनसे यह जताया गया है कि एक समयद्वारा अथवा दो या तीन समयोंद्वारा इसप्रकार संख्यात और असंख्यात समयोंद्वारा अन्तरकरणविधि समाप्त नहीं होती है, किन्तु अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा ही यह विधि समाप्त होती है।
६ १४९. अब इतने कालके द्वारा अन्तरको करता हुआ मात्र कितनी स्थितियोंको ग्रहणकर तथा कितनी प्रथम स्थितिको स्थापितकर अन्तर करता है ऐसी पृच्छा होनेपर निर्णय करते हैं । यथा-'गुणसेढिणिक्सेवस्स अग्गग्गादो' इस वचनमें 'गुणश्रेणिनिक्षेप' ऐसा कहने पर जो अपूर्वकरणके प्रथम समय में अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक आयामरूपसे निक्षिप्त द्रव्य गलित शेषरूपसे इतने काल तक आया है उसका ग्रहण करना चाहिए। उसका अग्राम ऐसा कहने पर गुणश्रेणिशीर्षका ग्रहण करना चाहिए । 'उससे लेकर नीचे संख्यातवें भागका खण्डन करता है ऐसा कहने पर जो उस समय दिखाई देता है ऐसे समस्त गुणश्रेणि आयामका संख्यातवाँ भागरूप जो अनिवृत्तिकरणके कालसे उपरिम विशेष अधिक निक्षेप है
३५
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
___ जयधवलासाहदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० उवरिमो विसेसाहियणिक्खेवो तं सव्वमंतरटुमागाएदि चि भणिदं होइ। किमेचियं चेव अंतरदीहत्तं ? ण, गुणसेढिसीसयादो उवरि अण्णाओ वि संखेज्जगुणाओ द्विदीओ घेत्त णंतरं करेदि । सुत्तेणाणुवइट्ठमेदं कथमवगम्मदे चे १ ण, पुरदो भणिस्समाणप्पाबहुअबलेण तदवगमादो । अथवा गुणसेढिअग्गग्गादो हेट्ठा संखेज्जदिभागं खंडेदि चि भणंतेण उवरि संखेज्जगुणाणं द्विदीणं खंडणं भणिदमेव । कुदो ? उवरि खंडिज्जमाणाणं द्विदीणं संखेज्जदिमागमेनं गुणसेढिअग्गग्गादो हेट्ठा खंदेदि चि सुत्तस्थसंबंधावलंबणादो । तदो अणियट्टिअद्धासेसस्स संखेज्जभागमेण कालेण अंतरं करेमाणो अंतरकरणद्धादो संखेज्जगुणं मिच्छत्तस्स पढमडिदिं परिसेसिय षुणो अणियट्टिकरणद्धादो उवरिमविसेसाहियगुणसेढिणिक्खेवेण सह तनो संखेज्जगुणाओ अण्णाओ वि ठिदीओ घेत्तणंतरमेसो करेदि चि सिद्धो सुत्तस्स समुदायत्थो। एत्थ अंतफालीओ पडिसमयमसंखेज्जगुणसरूवेण घेत्त ण पढमविदियहिदीसु समयाविरोहेण णिक्खिवमाणो अंतोमुहुरमेण कालेणंतरं समाणेदि चि वचव्वं।
उस सबको अन्तरके लिए ग्रहण करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-क्या अन्तरकी दीर्घता इतनी ही है ?
समाधान नहीं, क्योंकि गुणश्रेणिशीर्षसे ऊपर अन्य भी संख्यातगुणी स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तर करता है।
शंका-सूत्रमें निर्देश नहीं की गई यह विशेषता किस प्रमाणसे जानी जाती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वके बलसे इसका ज्ञान होता है।
अथवा गुणश्रेणिके अग्राग्रसे नीचे संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति निषेकोंका खण्डन करता है ऐसा कथन करनेवाले आचार्यदेवने ऊपर संख्यातगुणी स्थितियोंका खण्डन करता है यह कह ही दिया है, क्योंकि ऊपर खण्डित होनेवाली स्थितियोंके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंका गुणश्रेणिके अग्राग्रसे नीचे खण्डन करता है इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्धका अवलम्बन लिया है। इसलिये अनिवृत्तिकरणका जितना काल शेष है उसके संख्यातव भागप्रमाण कालके द्वारा अन्तरको करता हआ अन्तरकरणके कालसे संख्यातगुणी मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिको शेष रखकर पुनः अनिवृत्तिकरणके कालसे उपरिम विशेष अधिक गुणश्रेणि-निक्षेपके साथ उससे संख्यातगुणी अन्य स्थितियोंको भी ग्रहण कर यह जीव अन्तर करता है इस प्रकार सूत्रका समुदाय रूप अर्थ सिद्ध हुआ। यहाँ पर अन्तर फालियोंको प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणे रूपसे ग्रहण कर प्रथम और द्वितीय स्थितियोंमें आगमानुसार निक्षेप करता हुआ अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालके द्वारा अन्तरकरणको समाप्त करता है ऐसा कहना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ अन्तरकरणके करनेमें कितना काल लगता है, अन्तरके लिये ग्रहण की गई स्थितियोंका प्रमाण कितना है और अन्तरके पूर्वकी प्रथम स्थितिका प्रमाण कितना है इन तीन बातोंका मुख्यरूपसे निर्णय किया गया है। विवक्षित कर्मकी अधस्तन और उपरितन
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
• गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२७५
* तदो अंतरं कीरमाणं कदं ।
$ १५० अंतरकरणपारंभसमकालभाविद्विदिबंध गद्धामेत्रेण कालेण समयं पडि अंतरद्विदीओ फालिसरूवेणुक्कीरंतेण कमेण कीरमाणमंतरमतरकरणद्धाचरिमसमये अंतरचरिमफालीए पादिदाए कदं णिट्ठिदमिदि वृत्तं होइ । एदं च मिच्छत्तस्सेव अंतरकरणं, दंसणमोहोवसामणाए अण्णेसिं कम्माणमंतरकरणाभावादो । णवरि सम्मत - सम्मामिच्छतसंतकम्मिओ जदि उवसमसम्मतं पडिवज्जइ तो तेसिं पि अंतरकरणमे देणेव विहाणेण करेदि । णवरि तेसिमावलियबाहिरमुवरि मिच्छतंतरेण सरिसमंतरं करेदि गि घेराव्वं ।
स्थितियोंको छोड़कर मध्यकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियोंके निषेकोंका परिणाम विशेषके द्वारा अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं। अनादि मिध्यादृष्टि जीव अनिवृत्तिकरण के कालके बहुभाग व्यतीत होने पर जो एक भाग प्रमाणकाल शेष रहता है उसके एक स्थितिबन्धके योग्य संख्यातवें भागप्रमाण कालमें मिथ्यात्वके निषेकोंका अन्तरकरण करता है। इससे अन्तरकरण करने में कितना काल लगता है इसका ज्ञान हो जाता है। यह जीव जिस समय अन्तरकरणका प्रारम्भ करता है उस समय से लेकर अनिवृत्तिकरणका जितना काल शेष रहता है तत्काल प्रमाण मिथ्यात्वकी अधस्तन स्थितियोंकी प्रथम स्थिति होती है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणके इतने कालके मिथ्यात्वरूपसे व्यतीत होने पर यह जीव अन्तरमें प्रवेश कर नियमसे सम्यग्दृष्टि हो जाता है । अब अन्तरके लिये कितनी स्थितियोंको ग्रहण करता है इसका विचार करते हैं । गुणश्रेणिशीर्षके अग्रभागसे नीचे गुणश्रेणिशीर्षके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंका और उससे ऊपर संख्यातगुणी स्थितियोंका यह जीव अन्तर करता है । इस अन्तर के ऊपर मिथ्यात्व की जो स्थिति शेष रहती है वह सब उपरितन स्थिति कहलाती है । यहाँ मिथ्यात्वकी जिन स्थितियोंके निषेकों का अन्तर करता है उनका फालिक्रमसे उत्कीरणकर अन्तर्मुहूर्त कालमें प्रथम और आबाधाकाल से हीन द्वितीय स्थिति में निक्षेपण करता है । निक्षेपणकी पूरी विधि आगमसे जान लेनी चाहिए यह उक्त सूत्र और उसकी टीकाका आशय है ।
* इस प्रकार इस विधिसे किया जानेवाला अन्तरका कार्य किया ।
$ १५०. अन्तरकरणके प्रारम्भके समकालभावी स्थितिबन्धके कालप्रमाण काल द्वारा प्रत्येक समय में अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंका फालिरूपसे उत्कीरण करनेवाले जीवने क्रमसे किया जानेवाला अन्तर अन्तरकरणके कालके अन्तिम समयमें अन्तरसम्बन्धी अन्तिम फालिका पात करने पर किया अर्थात् सम्पन्न किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और यह मिथ्यात्व कर्मका ही अन्तरकरण है. क्योंकि दर्शनमोहनीयको उपशामनामें अन्य कर्मोंके अन्तरकरणका अभाव है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का सत्कर्म वाला जीव यदि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उन कर्मोंका भी अन्तरकरण इसी विधिसे करता है । इतनी विशेषता है उनका नीचेकी एक आवलिप्रमाण ( उदयावलिप्रमाण ) स्थितियोंके सिवाय स्थितिसे लेकर ऊपर मिथ्यात्वके अन्तर के सदृश अन्तर करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
विशेषार्थ – अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशमको उत्पन्न करते समय अनिवृत्तिकरण
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० * तदो प्पहुडि उवसामगो त्ति भण्णइ।
१५१ जइ वि एसो पुव्वं पि अधापक्तकरणपढमसमयप्पहुडि उवसामगो चेव तो वि एत्तो पाए विसेसदो चेव उवसामगो होइ नि भणिदं होइ । एदेण 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहि' ति एदिस्से पुच्छाए अत्थणिण्णओ को दट्टयो, अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु संखेज्जदिमागसेसे अंतरं कादूण तदो दंसणमोहणीयस्स पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसाणमुवसामगो होइ ति परूवणावलंबणादो । एवमंतरकरणाणंतरसुवसामगववएसं लद्ध ण मिच्छतमुवसामेमाणस्स मिच्छत्तपढमद्विदिवेदगावत्थाए हेट्ठिमपरूवणादो पत्थि गाणगं । णवरि पढमहिदीए समयूणादिकमेणोहट्टमाणीए जाधे आवलिय-पडिआवलियाओ सेसाओ ताधे को विसेसो अस्थि चि पदुप्पायणट्ठमुवरिमो सुचपबंधो
* पढमहिदीदो वि विदियट्ठिदीदो वि आगाल-पडिआगालो ताव जाव आवलिय-पडिआवलियाओ सेसाओ त्ति ।
के बहुभागको बिता कर एक भागके शेष रहने पर स्थितिबन्धके कालप्रमाण काल द्वारा मात्र मिथ्यात्वका अन्तरकरण करता हुआ प्रारम्भमें अन्तरके नीचे प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापित करता है। किन्तु यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है तो वह नीचे एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिको स्थापित कर ऊपर मिथ्यात्वकी जहाँ तककी स्थितिका अन्तरकरण करता है वहाँ तककी इन दोनों कर्मोंकी स्थितिका भी अन्तरकरण करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* वहाँसे लेकर यह जीव उपशामक कहलाता है ।
$ १५१. यद्यपि यह जीव पहले ही अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर उपशामक ही है तो भी यहाँसे लेकर यह विशेषरूपसे ही उपशामक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इतने कथन द्वारा 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं' इस पृच्छाके अर्थका निर्णय किया हुआ जानना चाहिए, क्योंकि प्रकृतमें अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभागोंके जाने पर तथा संख्यातवें भागके शेष रहने पर अन्तरको करके वहाँसे लेकर दर्शन मोहनीयकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका उपशामक होता है इस प्रकारकी प्ररूपणाका अवलम्बन लिया है। इस प्रकार अन्तरकरणके अनन्तर उपशामक संज्ञाको प्राप्त कर मिथ्यात्वकी उपशामना करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके वेदन करनेरूप अवस्थामें अधस्तन प्ररूपणासे कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिके एक समय कम आदिके क्रमसे गलित होती जाने पर जब आवलि-प्रतिआवलि शेष रहती हैं तब क्या विशेषता है इसका कथन करनेके लिये उपरिमसूत्र प्रबन्ध है
* प्रथम स्थितिसे भी और द्वितीय स्थितिसे भी तब तक आगाल-प्रत्यागाल होते रहते हैं जब तक आवलि-प्रत्यावलि शेष रहती हैं।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
$ १५२. आगालणमागालो, विदियट्ठिदिपदेसाणं पढमट्ठिदीए ओकडणावसेणागमणमिदि युतं' होइ । प्रत्यागलनं प्रत्यागालः, पढमंट्ठिदिपदेसाणं विदियट्ठिदीए उकड्डूणावसेण गमणमिदि भणिदं होइ । तदो पढम - विदियट्ठिदिपदेसाणमुक्कड्डुणोकडणावसेण परोप्परविसय संकमो आगाल-पडिआगालो त्ति घेत्तव्वो । एवंलक्खणो आगालपडिआगालो ताव ण पडिहम्मदे जाव पढमट्ठिदीए आवलिय-पडिआवलियाओ समयुत्तराओ सेसाओ ति आवलिय-पडिआवलियाणं तस्स मज्जादाभावेण सुत्ते णिद्दिट्ठत्तादो । तत्थावलिया त्ति वृत्ते उदयावलिया घेत्तव्वा । पडिआवलिया त्ति एदेण वि उदयावलियादो उवरिमविदियावलिया गहेयव्वा । किं पुण कारणमावलिय-पडिआवलियमेत्तसेसाए पढमट्ठिदीए आगाल - पडिआगालवोच्छेदणियमो १ ण, सहावदो चैव तदवत्थाए तप्पड - घादग्भुवगमादो । तदो चैव एत्तो पहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेढिणिक्खेवो णत्थि ि जाणावणट्ठमिदमाह -
२७७
* आवलिय-पडिआवलियासु सेसासु तदो पहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेढी णत्थि ।
$ १५२. आगालकी व्युत्पत्ति है-आगालनं आगालः, अर्थात् द्वितीय स्थिति के कर्म परमाणुओं का प्रथम स्थिति में अपकर्षणवश आना आगाल है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । प्रत्यागालकी व्युत्पत्ति है - प्रत्यागालनं प्रत्यागालः । प्रथम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका द्वितीय स्थितिमें उत्कर्षणवश जाना प्रत्यागाल है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अतः प्रथम और द्वितीय स्थिति के कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण और अपकर्षणवश परस्पर विषयसंक्रमका नाम आगालप्रत्यागाल है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकारके लक्षणवाले आगाल- प्रत्यागाल त तक नहीं व्युच्छिन्न होते हैं जब तक प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक आवलि - प्रत्यावलि शेष रहती हैं, अतएव आवलि प्रत्यावलिको उसकी मर्यादारूपसे सूत्र में निर्दिष्ट किया है। उनमें से आवलि ऐसा कहने पर उदद्यावलिको ग्रहण करना चाहिए। प्रत्यावलि इससे भी उदयावलिसे उपरिम दूसरी आवलिको ग्रहण करना चाहिए ।
शंका - प्रथम स्थितिके आवलि-प्रत्यावलिमात्र शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालके विच्छेदका नियम है इसका क्या कारण है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्वभावसे ही उस अवस्था में उनका विच्छेद स्वीकार किया
गया है ?
और इसीलिए यहाँसे लेकर मिथ्यात्वका गुणश्रणिनिक्षेप नहीं होता इस बातका ज्ञान करानेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर वहाँसे लेकर मिथ्यात्वकी गुणश्रेणि नहीं होती ।
१. ता. प्रतो भणिदं इति पाठः ।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ १५३. किं कारणं १ विदियट्ठिदीदो पढमट्ठिदीए तदवस्थाए पदेसागमणस्साणंतरमेव पडिसिद्धत्तादो | ण च पढमट्ठिदीए पडिआवलियपदेसग्गमोकड्डियूण गुणसेटिणिक्खेवो कीरदित्ति वोत्तु जुत्तं, उदयावलियन्तरे गुणसेढिणिक्खेवस्स एदम्मि विसए असंभवादो । ण च पडिआवलियादो ओकडिदपदेसग्गं तत्थेव गुणसेढीए णिक्खिवदि त्ति संभवो अस्थि, अप्पणो अइच्छावणाविसए णिक्खेवविरोहादो ।
$ १५३. क्योंकि दूसरी स्थितिसे प्रथम स्थितिमें उस अवस्थामें कर्म परमाणुओंके आनेका अनन्तर पूर्व ही निषेध कर आये हैं । यदि कहा जाय कि प्रत्यावलिके कर्मपरमाणुओंका प्रथम स्थिति में अपकर्षण करके गुणश्रेणिनिक्षेप किया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें उदद्यावलिके भीतर गुणश्रेणिनिक्षेपका होना असम्भव है । और प्रत्याबलिमेंसे अपकर्षित प्रदेशपुञ्जका वहीं गुणश्रेणिमें निक्षेप होता है यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि अपनी अतिस्थापनामें अपकर्षित द्रव्यके निक्षेपका निरोध है ।
विशेषार्थ —यहाँ यह बतलाया गया है कि अन्तरकरणके बाद जब मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति आवलि - प्रत्यावलिप्रमाण शेष रह जाती है तब वहाँसे लेकर द्वितीय स्थितिमेंसे अपकर्षित होकर मिथ्यात्वका द्रव्य प्रथम स्थिति में निक्षिप्त नहीं होता और प्रथम स्थितिके द्रव्यका उत्कर्षण होकर द्वितीय स्थितिमें निक्षेप नहीं होता और इसीलिए यहाँ से लेकर मिथ्यात्वके द्रव्यका गुणश्रेणिनिक्षेप भी रुक जाता है। इसपर शंकाकारका कहना है कि ऐसी स्थितिमें भले ही प्रथम स्थिति द्रव्यका द्वितीय स्थितिमें उत्कर्षण होकर निक्षेप मत होओ और द्वितीय स्थितिके द्रव्यका भले ही प्रथम स्थितिमें अपकर्षण होकर निक्षेप मत होओ, क्योंकि मिध्यात्वकी प्रथम स्थितिमें आवलि-प्रत्यावलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर आगाल - प्रत्यागालका सूत्रमें निषेध किया है । किन्तु जब तक प्रत्यावलिका द्रव्य सत्त्वरूपसे अवस्थित हैं तब तक प्रत्यावि द्रव्यका अपकर्षण होकर उसका गुणश्रेणिमें निक्षेप होना सम्भव है । यह एक शंका है। इसका समाधान यह है कि जब प्रथम स्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्र स्थिति शेष रहती है तबसे लेकर उदद्यावलिमें गुणश्रेणिनिक्षेपका होना सम्भब नहीं है । कारण यह है कि जब द्वितीय स्थिति में से द्रव्यका अपकर्षण होकर प्रथम स्थितिमें निक्षेप ही नहीं होता ऐसी अवस्थामें केवल प्रत्यावलिके आधारसे मिध्यात्वके द्रव्यकी गुणश्रेणिरचनाका होते रहना सम्भव नहीं है । कदाचित् शंकाकार यह कहे कि प्रत्यावलिकी उपरितन स्थितियोंका अपकर्षण होकर अधस्तन स्थितियों में निक्षेप होना बन जायगा सो भी बात नहीं हैं, क्योंकि उपरितन स्थितियोंका अपकर्षण होकर अधस्तन स्थितियों में निक्षेप मध्य में अतिस्थापनाको छोड़कर ही होता है ऐसी व्यवस्था है । यतः प्रत्यावलिको उपरितन स्थितियोंके लिये उसीकी अधस्तन स्थितियाँ अतिस्थापना रूप हैं, अतः प्रत्यावलिकी उपरिवन स्थितियोंका भी वहीं गुणश्रेणिमें निक्षेप नहीं हो सकता। इसलिये यही निश्चित हुआ कि मिध्यात्वकी प्रथम स्थितिके आवलि - प्रत्यावलिप्रमाण शेष रहनेपर मिथ्यात्वकी द्वितीय स्थितिका प्रथम स्थिति में और प्रथम स्थितिका द्वितीय स्थिति में क्रमसे अपकर्षण- उत्कर्षण नहीं होता। साथ ही प्रत्यावलिके निषेकोंका उदद्यावलिमें और प्रत्याafont उपरितन स्थितियोंका उसीकी अधस्तन स्थितियों में अपकर्षण होकर निक्षेप नहीं होता । इसलिए यहाँसे लेकर मिध्यात्वके कर्मपुंजका गुणश्रेणिनिक्षेप भी नहीं होता ।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२७९
$ १५४. सेसाणं पुण कम्माणमाउगवजाणं सा चेव पोराणिया गुणसेढी गलिदसेसा तथा चैव हवइ, ण तत्थ पडिसेहो अस्थि त्ति जाणावणफलमुत्तरमुत्तं -
* सेसाणं कम्माणं गुणसेढी अत्थि ।
$ १५५. यत्थमेदं सुत्तं । एवमेदम्मि अवस्थाविसेसे मिच्छत्तस्स गुणसेढिणिक्खेवासंभवं सेसकम्माणं च गुणसेढिणिक्खेवसंभवं पदुप्पाइय संपहि आवलिय-पांडआवलियमेसेसपादिस्स मिच्छत्तस्स तम्मि अवस्थाविसेसे पडिआवलियादो उदीरणासंभवपदुष्पायणट्ठमिदमाह -
* पडिआवलियादो चेव उदीरणा ।
$ १५६. तदवत्थस्स मिच्छत्तस्स पडिआवलियादो चेव पदेसग्गमसंखे जलोगपडिभागेणोकड्डिय उदयावलियन्तरे सययाविरोहेण णिक्खिवदित्ति वृत्तं होइ । एत्तो समयाहियावलियमेत्तसेसाए पढमट्ठिदीए मिच्छत्तस्स जहण्णिया ठिदिउदीरणा होदि, उदयावलियबाहिरेयट्ठिदिमोकड्डिय असंखेज लोग पडिभागेण आवलिय-वे-तिभागे अइच्छाविय तत्तिभागे उदय पहुडि समयाविरोहेण णिक्खेवदंसणादो |
* आवलियाए सेसाए मिच्छुत्तस्स घादो णत्थि ।
$ १५४. परन्तु आयुकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोंकी वही पुरानी गलितावशेष गुणश्रेणि उसी प्रकार होती है, उसके होनेमें प्रतिषेध नहीं है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* शेष कर्मोंकी गुणश्रेणि होती है ।
$ १५५ यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार इस अवस्थाविशेष में मिध्यात्वप्रकृतिका गुणश्रेणिनिक्षेप असम्भव है और शेष कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप सम्भव है इसका कथन करके अब जिसकी आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण प्रथम स्थिति शेष है ऐसे मिथ्यात्वकर्मकी उस अवस्थाविशेष में प्रत्यावलिमेंसे उदीरणा होना सम्भव है इसका कथन करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं—
* प्रत्यावलिमेंसे ही उदीरणा होती है ।
$ १५६. तदवस्थ मिध्यात्वकर्मकी जो प्रत्यावलि है उसके द्रव्यमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भागप्रमाण कर्मपुञ्ज लब्ध आवे उसका अपकर्षणकर उसे आगम में बतलाई गई विधि अनुसार उदयावलिमें निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रत्यावलिमेंसे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिकी जघन्य स्थिति उदोरणा होती है, क्योंकि उदद्यावलिके बाहर एक स्थितिके द्रव्य में असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उसका अपकर्षणकर एक समय कम आवलिके दो त्रिभागको अतिस्थापितकर एक समय अधिक उसके त्रिभागमें उदय समय से लेकर आगमविधिसे निक्षेप देखा जाता है ।
* आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिके शेष रहनेपर मिथ्यात्व कर्मका घात नहीं होता ।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० १५७. आवलियमेत्तसेसाए पढमट्ठिदीए मिच्छत्तस्स हिदि-अणुभागाणमुदीरणासरूवेण घादो पत्थि त्ति भणिदं होइ । द्विदि-अणुभागकंडयघादो पुण जाव पढमद्विदिचरिमसमयो ताव मिच्छत्तस्स संभवदि, चरिमद्विदिबंधेण सह तत्थ तेसिं परिसमत्तिदंसणादो । तदो उदीरणाघादस्सेव एसो पडिसेहो त्ति सद्दहेयव्वं । .
१५८, एवमेदेण विहाणेण मिच्छत्तपढमट्ठिदिमावलियपविट्ठ कमेण वेदयमाणो चरिमसमयमिच्छादिट्ठी जादो। तदणंतरसमए च मिच्छत्तपढमहिदि सव्वं गालिय पढमसम्मत्तमुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तर भणइ
* चरिमसमयमिच्छाइट्टी से काले उवसंतदसणमोहणीओ।
$ १५९. पढमसम्मत्तमुप्पाएदि ति वक्कविसेसो एत्थ कायव्यो। को एत्थ दंसणमोहणीयउवसमो णाम ? वुच्चदे-करणपरिणामेहिं णिसत्तीकयस्स दंसणमोह
६ १५७. प्रथम स्थितिके आवलिप्रमाण शेष रहनेपर मिथ्यात्वकर्मके स्थिति-अनुभागका उदीरणारूपसे घात नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु प्रथम स्थितिके अन्तिम समयतक मिथ्यात्वकर्मका स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात सम्भव है, क्योंकि वहाँपर अन्तिम स्थितिबन्धके साथ उनकी परिसमाप्ति देखी जाती है। इसलिये उदीरणाघातका ही यह निषेध है ऐसा श्रद्धान करना चाहिए ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयतक होता है, अतः उसका अविनाभावी स्थितिकाण्डकघात भी तथा एक स्थितिकाण्डकघातके कालमें हजारों अनुभागकाण्डकघात भी वहींतक समझने चाहिए। यह स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातकी क्रिया और उनका निक्षेप आवलि-प्रत्यावलिके शेष रहनेपर वहाँसे लेकर अन्तरसे उपरितन स्थिति और अनुभागमें ही जानना चाहिए, प्रथम स्थिति और उसके अनुभागमें नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६ १५८. इसप्रकार इस विधिसे उदयावलिमें प्रविष्ट हुई मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिका क्रमसे वेदन करता हुआ अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि हो जाता है। और मिथ्यात्वकी सम्पूर्ण प्रथम स्थितिको गलाकर तदनन्तर समयमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला होता है इस बातको बतलानेवाले आगेके सूत्रको कहते हैं
* पुनः वह अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव तदनन्तर समयमें उपशामन्त दर्शनमोहनीय होकर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है।
६ १५९. प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है इतने वाक्यविशेषकी यहाँ योजना करनी चाहिए।
शंका-यहाँपर दर्शनमोहनीयका उपशम किसे कहते हैं ?
समाधान—करणपरिणामोंके द्वारा निःशक्त किये गये दर्शनमोहनीयके उदयरूप पर्यायके बिना अवस्थित रहनेको उपशम कहते हैं।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
- २८१ णीयस्स उदयपञ्जाएण विणा अवट्ठाणमुवसमो त्ति भण्णदे । ण सव्वोवसमो एत्थ संभवइ, उवसंतस्स वि दंसणमोहणीयस्स संकमोकडणाकरणाणमुवलब्मदे। तम्हा अंतरपवेसपढमसमए चेव दंसणमोहणीयमुवसामिय उवसमसम्माइट्ठी जादो त्ति सिद्धो सुत्तस्स समुच्चयत्थो । संपहि तम्हि चेव पढमसमए कीरमाणकजभेदपदुप्पायणमुत्तरसुत्तावयारो-- ...* ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा।
१६०. तम्हि चेव उवसंतदसणमोहणीयपढमसमए तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा। के ते ? मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसण्णिदा । कुदो एवमेदेसिमुप्पत्ती चे १ ण, अणियट्टिकरणपरिणामेहिं पेलिज्जमाणस्स देसणमोहणीयस्स जंतेण दलिजमाणकोदवरासिस्सेव तिण्हं भेदाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।
5 १६१. संपहि उवसमसम्माइटिपढमसमयप्पहुडि मिच्छत्तपदेसाणं सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु गुणसंकमेण परिणमणक्कममप्पाबहुअमुहेण परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
___यहाँपर सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशमपनेको प्राप्त होनेपर भी दर्शनमोहनीयके संक्रमकरण और अपकर्षणकरण पाये जाते है। इसलिए अन्तरमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें ही दर्शनमोहनीयको उपशमाकर उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया इसप्रकार सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ सिद्ध हुआ। अब उसी प्रथम समयमें किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं
* उसी समय वह मिथ्यात्वकर्मके तीन खण्ड उत्पन्न करता है। 5 १६०. उसी उपशान्त-दर्शनमोहनीयके प्रथम समयमें तीन कर्मभेद उत्पन्न करता है। शंका-वे कौनसे ? समाधान-सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व संज्ञावाले। शंका-इनकी इसप्रकार उत्पत्ति कैसे होती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जैसे यन्त्रसे कोदोंके दलनेपर उनके तीन भाग हो जाते हैं वैसे ही अनिवृत्तिकरणपरिणामोंके द्वारा दलित किये गये दर्शनमोहनीयके तीन भेदोंकी उत्पत्ति होने में बिरोधका अभाव है।
विशेषार्थ--चक्की आदि यन्त्रसे कोदोंके दलनेपर उनके चावल, कण और तुष ऐसे तीन भाग हो जाते हैं वैसे ही अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंसे मिथ्यात्वकर्मको निःशक्त करके जिस समय यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसी समय मिथ्यात्वकर्मके तीन टुकड़े हो जाते हैं-सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व।
5 १६१. अब. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके प्रथम समयसे लेकर मिथ्यात्वकर्मके प्रदेशोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें गुणसंक्रमद्वारा परिणमनके क्रमको अल्पबहुत्वद्वारा कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
३६
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दा १०
* पढमसमयउवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्त े बहुगं पदेसग्गं देदि । समत्त े असंखेजगुणहीणं देदि ।
२८२
$ १६२. पढमसमयउ वसंतदंसणमोहणीयो णाम पढमसमयउवसमसम्माइट्ठी । सो मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुअं पदेसग्गं देदि । सम्मत्ते पुण तत्तो असंखेजगुणही पदेसग्गं देदि । दोहमेदेसिं दव्वाणमागमणडुं मिच्छत्तस्स को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज दिभागपमाणो गुणसंकमभागहारो । णवरि सम्मामिच्छत्तपदेस - गणणि मित्तगुण संकम भागहारादो सम्मत्तपदेसागमण णिबंधण गुण संकम भागहारो असंखेजगुणोति वेत्तव्वो । एवमेदेणप्पा बहुअविहिणा अंतोमुहुत्तमेत्तकालं मिच्छत्तादो सम्मतसम्मामिच्छत्ताणि पूरदि । णवरि समये ० असंखेज्जगुण मसंखेज्जगुणं मिच्छत्तादो पदेसग्गं कामेमाणो पढमसमए सम्मामिच्छत्तम्मि संकतदव्वादो विदियसमये सम्मत्तम्मि असंखेजगुणं दव्वं संका मेदि । तत्थेव सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं पदेसग्गं संकामेदि । एवं जाव गुण संकमचरिमसमयो ति । संपहि एवंविहस्स अत्थविसेसस्स जाणावणट्ठमुत्तरसुराप्पबंधमाह -
* प्रथम समयवर्ती उपशान्त-दर्शनमोहनीय जीव मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वमें बहुत प्रदेशपुंजको देता है। उससे सम्यक्त्वमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्जको देता है ।
$ १६२. प्रथम समयवर्ती उपशान्त-दर्शनमोहनीय जीव प्रथम समयवर्ती उपशमसम्यदृष्टि कहलाता है । वह मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वमें बहुत प्रदेश पुञ्जको देता है । परन्तु सम्यक्त्वमें उससे असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्जको देता है ।
शंका- इन दोनोंके द्रव्योंके आनेके लिये मिथ्यात्वका क्या प्रतिभाग है ?
समाधान -- गुणसंक्रम भागहार प्रतिभाग है, जो पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके प्रदेशोंके आनेके निमित्तरूप गुणसंक्रम भागहारसे सम्यक्त्वके प्रदेशोंके आनेका निमित्तरूप गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
इस प्रकार इस अल्पबहुत्वविधिसे अन्तर्मुहूर्त कालतक मिध्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरित करता है । इतनी विशेषता है कि प्रत्येक समय में मिध्यात्वके द्रव्यमें से असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे प्रदेश पुञ्जका संक्रम करता हुआ प्रथम समयमें सम्यग्मिध्यात्वमें संक्रान्त हुए द्रव्यसे दूसरे समय में सम्यक्त्वमें असंख्यातगुणे द्रव्यका संक्रम करता है । तथा उसी समय में सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका संक्रम करता है । इसप्रकार क्रम अन्तिम समयतक जानना चाहिए। अब इसप्रकार के अर्थविशेषका ज्ञान करानेके लिये आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८३
गाथा ९४ ]
दसणमोहोवसामणां * विदियसमए सम्मत्त असंखेज्जगुणं देदि । * सम्मामिच्छत्त असंखेज्जगुणं देदि । * तदियसमए सम्मत्त असंखेज्जगुणं देदि । * सम्मामिच्छत्त असंखेज्जगुणं देदि । * एवमंतोमुहुत्तद्धं गुणसंकमो णाम ।
5 १६३. एदाणि सुगाणि सुगमाणि । एदेहिं सुरोहिं परत्थाणप्पाबहुअं भणिदं । संपहि सत्थाणप्पाबहुए भण्णमाणे पढमसमए सम्मामिच्छचे संकमिदपदेसग्गं थोवं । विदियसमए असंखेज्जगुणं । एवं जाव गुणसंकमचरिमसमओ त्ति । एवं सम्मनस्स वि सत्थाणप्पाबहुअं णेदव्वं । एत्थ उवसमसमाहट्ठिविदियसमयप्पहुडि जाव मिच्छचस्स गुणसंकमो अस्थि ताव सम्मामिच्छतस्स वि गुणसंकमो भवदि, अंगुलस्सासंखेज्जमागपडिभागियविज्झादगुणसंकमेण सम्मामिच्छन्दव्वस्स सम्मचे तदवत्थाए संकमणोवलंभादो। सुरेणाणुवइट्ठमेदं कुदो लब्भदि त्ति णासंकणिज्जं; सुरास्सेदस्स देसामासयभावेण तहाविहत्थविसेससंसूचणे वावारब्भुवगमादो ।
* उससे दूसरे समयमें सम्यक्त्वमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको देता है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । * उससे तीसरे समयमें सम्यक्त्वमें असंख्यतागुणे प्रदेशपुञ्जको देता है। * उससे सम्यग्मिय्यात्वमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको देता है। * इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक गुणसंक्रम होता है ।
$ १६३ ये सूत्र सुगम हैं। इन सूत्रोंद्वारा परस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया। अब स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेपर प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित हुआ प्रदेशपुंज स्तोक है। दूसरे समयमें संक्रमित हुआ प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा है। इसप्रकार गुणसक्रमके अन्तिम समयतक जानना चाहिए। इसीप्रकार सम्यक्त्वका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व ले जाना चाहिए। यहाँपर उपशमसम्यग्दृष्टिके दूसरे समयसे लेकर जहाँतक मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है वहाँतक सम्यग्मिथ्यात्वका भी गुणसंक्रम होता है, क्योंकि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके प्रतिभागीरूप विध्यातगुणसंक्रमद्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका सम्यक्त्वमें उस अवस्थामें संक्रमण उपलब्ध होता है।
शंका--सूत्रमें इसका उपदेश नहीं दिया, फिर यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस सूत्रका देशामर्षकरूपसे उस प्रकारको अवस्थाविशेषके सूचन करनेमें व्यापार स्वीकार किया गया है।
विशेषार्थ--यहाँ उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्वके द्रव्यका सम्यग्भिथ्यात्व और सम्यक्त्वमें गुणसंक्रम भागहारद्वारा किस प्रकार
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૮૪
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ १६४. एवमेदेण विधिणा अंतोमुहुत्तकालं गुणसंकमणुपालिय तदो गुणसंकमकालपरिसमत्तीए मिच्छत्तस्स विज्झादसंकममाढवेदि ति पदुष्पाय णमुत्तरमुत्तारंभो -- * तत्तो परमंगुलस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण संकमेदि सो विज्झादसंकमो णाम ।
$ १६५. पुब्विल्लो उवसमसम्माइट्ठी पढमसमय पहुडि एगंताणुवडीए वड्ढमाणस्स अंतोमुहुत्तकालभाविओ गुणसंकमो णाम । एतो परमंगुलस्स असंखेजदिभागपडिभागिओ विज्झादसणिदो संकमविसेसो गुणसंकमपरिसमत्तिसमकालपारंभो होदूण जाव उवसमसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी च ताव णिप्पडिबंधं पयदृदि ति भणिदं होदि । कुदो वुण दस विज्झादसण्णा तिचे १ विज्झादविसेहियस्स जीवस्स ट्ठिदि-अणुभागखंडय - गुणसे ढिआदिपरिणामेसु थक्केसु पयट्टमाणत्तादो विज्झादसंकमो त्ति एसो भण्णदे । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि एदम्मि विसए विज्झादसंकमपवृत्ती वक्खाणेयव्वा ।
उत्तरोत्तर गुणित क्रमसे असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप होता है यह बतलाने के साथ यह भी बतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके दूसरे समय से लेकर सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्यका भी गुणसंक्रम होता है, क्योंकि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्य में भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने द्रव्यका विध्यात- गुणसंक्रम द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका सम्यक्त्व में उस अवस्थामें संक्रमण होता रहता है। यह द्रव्य सम्यक्त्वमें प्रति समय गुणितक्रमसे प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ ऐसे संक्रमका नाम बिध्यात संक्रम होते हुए भी उसे टीकाकारने गुणसंक्रम कहा है ऐसा प्रतीत होता है। श्री धवलाजीके इसी स्थलपर इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता ।
$ १६४. इस प्रकार इस विधिसे अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणसंक्रमका पालनकर इसके आगे गुणसंक्रमका काल समाप्त होनेपर मिथ्यात्वकर्मका विध्यातसंक्रम आरम्भ करता है इसका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* उससे आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके द्वारा संक्रमण करता है वह विध्यातसंक्रम है ।
$ १६५. जो पहलेका उपशमसम्यग्दृष्टि जीव प्रथम समयसे लेकर एकान्तानुवृद्धिसे वृद्धि प्राप्त हो रहा है उसके अन्तर्मुहूर्त कालतक होनेवाला संक्रम गुणसंक्रम कहलाता है । इससे आगे सून्यंगुलके असंख्यातवें भागरूप भागहारस्वरूप विध्यातसंज्ञावाला संक्रमविशेष गुणसंक्रमकी समाप्ति समकाल में प्रारम्भ होकर जबतक उपशमसम्यग्दृष्टि और बेदकसम्यदृष्टि है तब तक बिना किसी प्रतिबन्ध के प्रवृत्त रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- -इस संक्रमकी विध्यात संज्ञा किस कारणसे है ?
समाधान -- विध्यात हुई है विशुद्धि जिसकी ऐसे जीवके स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और गुणश्रेणि आदि परिणामोंके रुक जानेपर प्रवृत्त होनेके कारण इसे विध्यातसंक्रम कहते हैं ।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२८५
* जाव गुणसंकमो ताव मिच्छत्तवज्जाणं कम्माणं ठिदिघादो अणुभागद्यादो गुणसेढी च ।
$ १६६. एत्थ मिच्छत्तवज्जाणमिदि णिद्देसो मिच्छत्तस्स उवसंतावत्थस्स तदवत्थाए ट्ठदिखंडयादीणमभावपदुप्पायणफलो । तम्हा जाव गुणसंकमो ताव एयंताणुवड्डिपरिणामेहिं दंसणमोहणीयवज्जाणं कम्माणं ठिदि - अणुभागघाद-गुणसेढिणिक्खेबलक्खणं कज्जसिसेसमेसो करेदि, णो परदो, तत्थ विज्झादविसोहियत्तादोत्ति सुतस्थणिच्छओ । कुदो वुण मिच्छाइट्ठिचरिमसमए चैवाणियट्टिकरणपरिणामेसु जिद्दिट्ठेसु गुणसंकमकालब्भंतरे ट्ठिदि-अणुभागघादादीणं संभवो ? ण एस दोसो, पुव्त्रपओगवसेण दुबरमे वित्तियं पि कालं तप्पवृत्तीए बाहाणुवलंभादो ।
4
इस प्रकार इस स्थलपर सम्यग्मिथ्यात्व के भी विध्यातसंक्रमकी प्रवृत्तिका व्याख्यान करना चाहिए ।
* जब तक गुणसंक्रम होता रहता है तब तक इस जीवके मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मोंके स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणिरूप कार्य होते रहते हैं ।
$ १६६. यहाँपर ‘मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मों' इस पदके निर्देशका फल उपशान्त अवस्थाको प्राप्त मिथ्यात्वप्रकृतिके उस अवस्थामें स्थितिकाण्डकघात आदिके अभावका कथन करना है । इसलिये जबतक गुणसंक्रम होता है तबतक यह जीव एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोंके स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुणश्रेणिनिक्षेप लक्षणवाले कार्यविशेषको करता है, इससे आगे नहीं, क्योंकि आगे उसकी विशुद्धि विध्यात हो जाती है यह इस सूत्रके अर्थका निश्चय है ।
शंका - - परन्तु मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें ही अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके समाप्त हो जानेपर गुणसंक्रम कालके भीतर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात आदि कैसे सम्भव हैं ?
- समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व प्रयोगवश अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके उपरम हो जानेपर भी कितने ही कालतक उक्त कार्योंकी प्रवृत्ति में बाधा नहीं उपलब्ध होती ।
विशेषार्थ — जो जीव अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके रुकते ही अन्तरमें प्रवेशकर उपशमसम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके कितने कालतक किन कर्मोंके स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य होते रहते हैं, मिथ्यात्वप्रकृतिका गुणसंक्रम होकर क्या कार्य होता है, और इस कालमें किस प्रकारकी विशुद्धि होती है और उपशमसम्यग्दृष्टि के स्थितिकाण्डकघात आदि होनेका कारण क्या है इन सब बातोंका यहाँ निर्णय किया गया है। साथ में यह भी बतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके दूसरे समय से लेकर सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सम्यक्त्व प्रकृति में विध्यातसंक्रमके द्वारा प्रदेशनिक्षेप भी होता रहता है । इसप्रकार जबतक गुणसंक्रमकी प्रवृत्ति होती है तबके कार्यविशेषका सूचनकर उसके बाद विध्यातसंक्रमकी प्रवृत्ति होनेसे स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य रुक जाते हैं इस बातका सकारण निर्देश किया गया है ।
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
जयधवलासहिदे कसायपाहुदे [ सम्मन्ताणियोगद्दारं १०
$ १६७. एवमेत्तिएण संबंघेण दंसणमोहउवसामणाए परूवणं काढूण संपहि एत्थेव कालसंबंधियाणं पदाणं अप्पाबहुअपरूवणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* एदिस्से परूवणाए गिट्ठिदाए इमो दंडओ पणुवीसपडिगो ।
$ १६८. एदिस्से अणंतरपरूविदाएं दंसणमोहोवसामगपरूवणाए समत्ताए संपहि एतो 'दंसण-चरितमोहे' त्ति पदपडिपूरणं बीजपदमवलंबिय इमो पणुवीसपडिओ अप्पा बहुअदंडओ कादव्वो होइ। एदेण विणा जहण्णुक्कस्सट्ठिदि-अणुभागखंडणुकीरणद्धादिपदाणं पमाणविसयणिण्णयाणुप्पत्तीदो त्ति भणिदं होइ । एवमेदेण सुत्तेण कयावसरस्स पणुवीसपदियरंस अप्पा बहुअदंडयस्स जहाकममेसो णिद्देसो–
* सव्वत्थोवा उवसामगस्स जं चरिमअणुभागखंडयं तस्स उक्कीरणद्धा ।
$ १६९. एत्थ उवसामगो त्ति वृत्ते दंसणमोहउवसामगो घेत्तव्वो । तस्स चरिमाणुभागखंडयमिदि वृत्ते मिच्छत्तस्स पढमट्ठिदीए समप्पंतीए तत्थतणचरिमंतोनुहुत्तकालभावियस्स अणुभागखंडयस्स गहणं कायव्वं । सेसकम्माणं पुण गुणसंकमकालचरिमावत्थाभाविणो अणुभागखंडयस्स गहणं कायव्वं, तदुक्कीरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ती होण सव्वत्थोवा ति णिहिट्ठा | १ |
पढमस्स
अणुभागखंडयस्स
उक्कीरणकालो
* अपुव्वकरणस्स विसेसाहिओ ।
$ १६७, इसप्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा दर्शनमोहनीयकी उपशामनाका कथनकर अब यहीं पर कालसम्बन्धी पदोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं— * इस प्ररूपणा के समाप्त होनेपर यह पच्चीसपदिक दण्डक करने योग्य है ।
$ १६८. अनन्तरपूर्व कही गई दर्शनमोहके उपशामककी इस प्ररूपणाके समाप्त होनेपर अब 'दंसण-चरित्तमोहे' इस पदकी पूर्तिस्वरूप बीजपदका अवलम्बन लेकर यह पच्चीसपदिक अल्पबहुत्वदंडक करने योग्य है, क्योंकि इसके विना जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागसम्बन्धी उत्कीरणकाल आदि पदोंके प्रमाणका निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसप्रकार इस सूत्रद्वारा अवसर प्राप्त पच्चीसपदिक अल्पबहुत्वदण्डकका क्रमसे यह निर्देश है
* उपशामकका जो अन्तिम अनुभागकाण्डक है उसका उत्कीरणकाल सबसे तो है ।
$ १६९. यहाँ सूत्रमें 'उपशामक' ऐसा कहनेपर दर्शनमोहके उपशामकको ग्रहण करना चाहिए । 'उसके अन्तिम अनुभागकाण्डक' ऐसा कहनेपर मिध्यात्वकी प्रथम स्थिति के समाप्त होते समय वहाँ अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होनेवाले अनुभागकाण्डकका ग्रहण करना चाहिए। परन्तु • शेष कर्मोंका गुणसंक्रम कालको अन्तिम अवस्थामें होनेवाले अनुभागकाण्डकका ग्रहण करना चाहिए, उनका उत्कीरण काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर सबसे स्तोक है ऐसा निर्देश किया है | १| . * उससे अपूर्वकरण के प्रथम अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है।
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२८७ $ १७०. किं कारणं ? चरिमाणुभागकंडयुकीरणद्धादो विसेसाहियकमेण संखेजसहस्समेत्तीसु अणुभागखण्डयउक्कीरणद्धासु हेढा ओदिण्णासु एदस्स समुप्पत्तीदो। एत्थ विसेसपमाणं हेट्ठिमरासिस्स संखेजदिमागमेत्तं होद्ण संखेजावलियपमाणमिदि घेत्तव्वं।२।
* चरिमट्ठिदिखंडयउक्कीरणकालो तम्हि चेव द्विविधकालो च दो वि तुल्ला संखेजगुणा।
१७१. एवं भणिदे मिच्छत्तस्स पढमट्ठिदीए समप्पमाणाए तत्कालियचरिमडिदिखंडयउकीरणकालो तत्थतणचरिमट्ठिदिबंधकालो च गहेयव्वो । सेसकम्माणं पुण गुणसंकमकालचरिमद्विदिबंध-द्विदिखंडयकालाणं गहणं कायव्वं । एदे च दो वि सरिसपरिमाणा होदण पुम्विन्लादो अपुव्वकरणपढमसमयविसयाणुभागकंडयुक्कीरणद्धादो संखेजगुणा त्ति णिहिट्ठा । किं कारणं? एक्कम्मि डिदिखंडयकालभंतरे संखेजसहस्समेत्ताणि अणुभागखंडयाणि होति त्ति परमगुरूवएसादो । ३-४ । ___ * अंतरकरणद्धा तम्हि चेव हिदिवंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ।
१७२. किं कारणं ? पुग्विल्लदोकालेहितो हेट्ठा अंतोमुहुत्तकालमोसरियूण दोण्हमेदासिमद्धाणं पवुत्तिदंसणादो । ५-६ ।
६ १७०. क्योंकि अन्तिम अनुभागकाण्डकके उत्कीरणकालसे विशेष अधिकके क्रमसे संख्यात हजार अनुभागकाण्डकसम्बन्धी उत्कीरणकालोंके नीचे उतरने पर इसकी उत्पत्ति होती है। यहाँपर विशेषका प्रमाण अधस्तन राशिका संख्यातवां भागमात्र होकर संख्यात आवलिप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।२।।
* उससे अन्तिम स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल और वहींपर स्थितिबन्धकाल ये दोनों ही परस्पर तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं।
$ १७१. ऐसा कहनेपर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके समाप्त होते समय उस कालमें होनेवाले अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीकरणकालको और वहाँके अंन्तिम स्थितिबन्धकालको ग्रहण करना चाहिए। तथा शेष कर्मोंके गुणसंक्रमकालके अन्तिम स्थितिबन्धकालको और स्थितिकाण्डककालको ग्रहण करना चाहिए। ये दोनों सदश परिमाणवाले होकर पर्वोक्त अपूर्वकरणके प्रथम समयसम्बन्धी अनुभागकाण्डकके उत्कीरणाकालसे संख्यातगुणे हैं ऐसा यहाँ निर्देश किया है, क्योंकि एक स्थितिकाण्डकके कालके भीतर संख्यात हजार अनुभाग काण्डक होते हैं ऐसा परम गुरुका उपदेश है । ३-४।
* उन दोनोंसे अन्तरकरणका काल और वहीं पर स्थितिबन्धकाल ये दोनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं।
$ १७२. क्योंकि पूर्वोक्त दो कालोंसे नीचे अन्तर्मुहूर्त काल पीछे जाकर इन दोनों कालोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है । ५-६ ।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૮૮
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० * अव्वकरणे हिदिखंडयउक्कीरणद्धा हिदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ।
१७३. किं कारणं ? पुग्विन्लदोकालेहितो तत्तो हेट्ठा अंतोमुहुत्तमोसरिय अपुव्वकरणषढमट्ठिदिखंडयविसए एदासि पन्चुत्तिदंसणादो । ८।
__* उवसामगो जाव गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरेदि सो कालो संखेजगुणो। __ १७४. किं कारणं ? तकालब्भंतरे संखेजाणं डिदिखण्डयाणं द्विदिबंधाणं च संभवादो।
* पढमसमयउवसामगस्स गुणसेढिसीसयं संखेजगुणं । • ६१७५. एत्य पढमसमयउवसामगो त्ति भणिदे भाविनि भूतवदुपचारं कृत्वा पढमसमयउवसामगमाविस्स पढमसमयअंतरकारयस्स गहणं कायव्वं । तस्स गुणसेढिसीसगमिदि वुत्ते अंतरचरिमफालीए पदमाणियाए गुणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेजदिमागं खंडेयण जं फालीए सह णिल्लेविज्जमाणं गुणसेढिसीसयं तस्स गहणं कायव्वं । तं पुण पुस्विल्लादो गुणसंकमकालादो संखेज्जगुणं, गुणसेढिसीसयस्स संखेज्जदिमागे वेव गुणसंकमकालस्स पज्जवसाणदंसणादो। अधवा पढमसमयउवसामगस्स गुणसेढि
* उनसे अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धकाल ये दोनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं।
६ १७३. क्योंकि पूर्वोक्त दो कालोंसे उनसे नीचे अन्तर्मुहूर्त काल पीछे जाकर अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकाण्डकके समय इनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । ७८ ।
* उन दोनोंसे उपशामक जीव जब तक गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंको पूरता है वह काल संख्यातगुणा है।
5 १७४. क्योंकि उस कालके भीतर संख्यात स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्ध सम्भव
हैं।९।
* उससे प्रथम समयवर्ती उपशामकका गुणश्रेणिशीर्षे संख्यातगुणा है ।
$ १७५. यहाँ पर 'प्रथम समयवर्ती उपशामक' ऐसा कहने पर भावोंमें भूतके समान उपचार करके प्रथम समयवर्ती उपशामक होनेवालेका अर्थात् प्रथम समयवर्ती अन्तर करनेवालेका ग्रहण करना चाहिए। उसका गुणश्रेणिशीर्ष ऐसा कहनेपर अन्तरसम्बन्धी अन्तिम फालिका पतन होते समय गुणश्रेणिनिक्षेपके अग्रामसे संख्यातवें भागका खण्डन कर जो फालिके साथ निर्जीर्ण होनेवाला गुणाश्रेणिशीर्ष है . उसका ग्रहण करना चाहिए। वह पूर्वके गुणसंक्रमसम्बन्धी कालसे संख्यातगुणा है, क्योंकि गुणश्रेणिशीर्षके संख्यातवें भागमें ही गुणसंक्रमकालका अन्त देखा जाता है। अथवा सूत्रोंमें प्रथम समयवर्ती उपशामकसम्बन्धी मिथ्यात्वका गुणश्रेणिशीर्ष ऐसा विशेषण लगा कर नहीं कहा, किन्तु सामान्यरूपसे कहा है,
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२८९
सीसयंमिच्छत्तस्से त्ति विसेसियूण सुत्ते ण परूविदं, किंतु सामण्णेणोवइट्ठ, तेण सेसकम्माणं पढमसमय उवसामगस्स गुणसेढिसीसयं गहेयव्वं, तेसिमंतरकरणाभावेण पढमसमयउवसामगम्मि तस्संभवे विरोहाणुवलंभादो । १० ।
* पढमट्ठिदी संखेज्जगुणा ।
$ १७६. किं कारणं ? पढमट्ठिदीए संखेजदिभागमेत्तस्सेव गुणसेढिसीसयस्स अंतरदुमागाइदत्तादो । ११ ।
* उवसामगद्धा विसेसाहिया ।
$ १७७, केत्तियमेत्तो विसेसो ! समयूणदोआवलियमेत्तो । किं कारणं ? चरिम
इसलिये प्रथम समयवर्ती उपशामकके जो शेष कर्म हैं उनका गुणश्रेणिशीर्ष लेना चाहिए, क्योंकि उन कर्मों का अन्तरकरण न होनेसे प्रथम समयवर्ती उपशामकके उसके सम्भव होनेमें विरोध नहीं पाया जाता । १० ।
-
विशेषार्थ – यहाँ चूर्णिसूत्र में 'पढमसमय व सामगस्स गुणसेढिसीसयं' ऐसा कहा है । इसलिये प्रश्न होता है कि यहाँ पर किस गुणश्रेणिशीर्षका ग्रहण किया है ? क्या मिध्यात्वकर्मगुणश्रेणिशीर्षका या शेष कर्मोंके गुणश्रेणिशीर्षका ? यदि मिध्यात्वका गुणश्रेणिशीर्ष लिया जाता है तो जिस समय यह जीव उपशमसम्यदृष्टि होता है उसके प्रथम समय में तो मिथ्यात्वगुणश्रेणिशीर्ष बनता नहीं, क्योंकि उसका पतन अन्तरकरणके समय अन्तर सम्बन्धी अन्तिम फलिके पतनके साथ हो जाता है । इसलिये मिथ्यात्वका गुणश्रेणिशीर्ष यदि लेना ही है तो भावी भूतका उपचार करके जो प्रथम समय अन्तर करनेवाला है उसे यहाँ प्रथम समयवर्ती उपशामकरूपसे ग्रहण करना चाहिए । ऐसे जीवके मिध्यात्वका गुणश्रेणिशीर्ष पाया जाता है और वह उपशमसम्यग्दृष्टिके गुणसंक्रमकालसे संख्यातगुणा है । किन्तु यहाँ सूत्र में मिथ्यात्वका गुणश्रेणिशीर्ष ऐसा नहीं कहा है । ऐसी अवस्था में जो प्रथम समयवर्ती उपशामक है उसके शेष कर्मोंका गुणश्रेणिशीर्ष लिया जा सकता है । इसप्रकार सूत्रोक्त पदोंके ये दोनों अर्थ करने में संगति बैठ जाती है, क्योंकि अन्तरकरणके प्रथम समय में मिथ्यात्व के गुणश्रेणिशीर्षका जो प्रमाण है वही प्रमाण प्रथम समयवर्ती उपशामक के शेष कर्मोंके गुणश्रेणिशीर्षका है, क्योंकि यहाँ गलितावशेष गुणश्रेणि होती है, इसलिये उक्त दोनों स्थलोंमें दोनों गुणश्रेणिशीर्षोंके समान होने में कोई बाधा नहीं आती ।
* उससे प्रथम स्थिति संख्यातगुणी है ।
$ १७६. क्योंकि प्रथम स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाण हो गुणश्रेणिशीर्षको अन्तर के लिये ग्रहण किया गया है । ११ ।
* उससे उपशामकका काल विशेष अधिक है ।
$ १७७. शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान - एक समय कम दो आवलिकाल विशेषका प्रमाण है । शंका- इसका क्या कारण है ?
३७
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० समयमिच्छाइट्ठिणा बद्धमिच्छत्तणवकबंधस्स एगसमयो पढमद्विदीए चेव गलदि। पुणो इमं पढमद्विदिचरिमसमयं मोत्तूण उवसमसम्माइद्विकालब्भतरे समयूणदोआवलियमेतद्धाणमुवरिगंत्तूण तस्स उवसामणा समप्पइ, तेण कारणेण पढमट्टिदीए उवरिमाओ समयूणदोआवलियाओ पवेसियूण विसेसाहिया जादा ।१२। संपहि एदस्सेव विसेसाहियपमाणस्स णिण्णयकरणमुत्तरो सुत्तावयवो--
* वे आवलियाओ समयूणाओ । ६१७८. गयत्थमेदं सुत्तं ।। * अणियहिअद्धा संखेनगुणा ।
$ १७९. किं कारणं ? अणियट्टिअद्धाए संखेजदिमागे चेव पढमट्टिदीए सरूवोवलद्धीदो । १३ ।
* अपुवकरणद्धा संखेजगुणा। .
5 १८०. सबद्धमणियट्टिकरणद्धादो अपुव्वकरणद्धार तहाभावेणावट्ठाणदंसणादो । १४ ।
समाधान-क्योंकि अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके द्वारा बाँधे गये मिथ्यात्वसम्बन्धी नवकबन्धका एक समय प्रथम स्थितिमें ही गल जाता है। पुनः इस प्रथम स्थितिसम्बन्धी अन्तिम समयको छोड़कर उपशमसम्यग्दृष्टिके कालके भीतर एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल ऊपर जाकर उसकी उपशामना समाप्त होती है, इसलिए प्रथम स्थितिमें एक समय कम दो आवलिका प्रवेश कराकर वह विशेष अधिक हो जाता है । १२ ।
अब इसी विशेष-अधिक प्रमाणका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्रवचन है* वह विशेष एक समय कम दो आवलिप्रमाण है। 5 १७८. यह सूत्र गतार्थ है। * उससे अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है।
$ १७९. क्योंकि अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यातवें भागमें ही प्रथम स्थितिके स्वरूपकी उपलब्धि होती है । १३ ।
विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरणके प्रथम समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय तकका जितना काल है वही मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिका काल है जो कि अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। यही कारण है कि यहाँ टीकामें यह निर्देश किया है कि अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात भागमें ही प्रथम स्थितिकी उपलब्धि होती है।
* उससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है ।
$ १८०. क्योंकि सर्वदा अनिवृत्तिकरणके कालसे अपूर्वकरणके कालका उसी प्रकारसे अवस्थान देखा जाता है । १४ ।
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२९१
* गुणसेढिणिक्खेवो विसेसाहिओ ।
$ १८१. अपुब्वकरणपढमसमये आढत्तो जो गुणसेढिणिक्खेवो सो अपुव्वकरणद्वादो विसेसाहिओ ति भणिदं होइ । केत्तियमेतो विसेसो १ विसेसाहियअणिय डिअद्धामेचो । १५ ।
· * उवसंतद्धा संखेज्जगुणा ।
$ १८२. जम्मि काले मिच्छत्तमुवसंतभावेणच्छदि सो उवसमसम्मत्त कालो उवसंतद्धा ति भण्णदे | एसा गुणसेढिणिक्खेवादो संखेज्जगुणा । कुदो एदं णव्वदे ! दहादो चैव सुत्तादो । १६
* अंतरं संखेज्जगुणं ।
$ १८३. अंतरदीहत्तसुवसमसम्मत्तद्धादो संखेज्जगुणमिदि भणिदं होदि । किं कारणं १ अंतरस्स. संखेज्जदिभागे वेव उवसमसम्मतद्धं गालिय तदो तिन्हं कम्माण
1
* उससे गुणश्रेणिका निक्षेप विशेष अधिक है ।
$ १८१. क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समय में जो गुणश्र णिनिक्षेप उपलब्ध होता है वह अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ?
समाधान —अनिवृत्तिकरणके कालको विशेष अधिक करनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण है | १५ |
विशेषार्थ — प्रारम्भ में गुणश्र णिनिक्षेपका काळ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ अधिक बतला आये हैं । इसीलिये यहाँपर विशेषको उक्तप्रमाण बतलाया है । * उससे उपशान्ताद्धा संख्यातगुणा है ।
$ १८२. जिस कालमें मिध्यात्व उपशांतरूपसे रहता है वह उपशमसम्यक्त्वा काल उपशान्ताद्धा कहलाता है । यह गुणश्रेणिनिक्षेपसे संख्यातगुणा है ।
शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान – इसी सूत्रसे जाना जाता है । १६ ।
-
* उससे अन्तर संख्यातगुणा है ।
$ १८३. क्योंकि अन्तरका आयाम उपशमसम्यक्त्व के कालसे संख्यातगुणा ह यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- इसका क्या कारण है ?
समाधान - क्योंकि अन्तरके संख्यातवें भागमें ही उपशमसम्यक्त्वके कालको गलाकर
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
मदरमोक ड्डियूण वेदेमाणो अंतरं विणासेदिति परमगुरूवएसा दो । १७ ।
* जहण्णिया आबाहा संखेज्जगुणा ।
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ १८४. एसा जहणिया आबाहा कत्थ गहेयव्वा ? मिच्छत्तस्स ताव चरिमसमयमिच्छादिट्टिणा णवकबंधविसए गहेयव्वा । तत्तो अण्णत्थ मिच्छत्तस्स सव्वहावाहावलंभादो । सेसकम्माणं पुण गुणसंकमचरिमसमयणवकबंध जहण्णाबाहा घेत्तव्वा । उवरि किण्ण घेप्पदे १ ण, गुणसंकमकालं वोलिय विज्झादे पदिदस्स मंदविसोही ट्ठिदिबंधो वह ति तव्विसयाबाहाए सव्वजहण्णत्ताणुववत्तीदो । एसा च अंतरायामादो संखेज्जगुणा । कुदो एवं णव्वदे १ एदम्हादो चेव परमागमवक्कादो । १८ ।
उससे आगे तीनों कर्मोंमेंसे किसी एकका अपकर्षणकर उसका वेदन करता हुआ अन्तरको समाप्त करता है ऐसा परम गुरुका उपदेश है । १७ ।
विशेषार्थ — अन्तरकरण के समय प्रथम स्थिति और उपरितन स्थितिके मध्य की जितनी स्थितिको उक्त दोनों स्थितियोंमें निक्षेपकर अन्तर करता है उस अन्तर के काल में यह जीव उपशम सम्यक्त्वको प्राप्तकर अन्तरके संख्यातवें भागप्रमाण कालतक हीं यह जीव उपशमसम्यग्दृष्टि रहता है, इसलिये उपशान्ताद्धासे अन्तरके कालको संख्यातगुणा कहा है ऐसा परम्परासे गुरुका उपदेश चला आ रहा है ।
* उससे जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है ।
$ १८४. शंका — यह जघन्य आबाधा कहाँकी लेनी चाहिए ?
समाधान — अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके जो नवकबन्ध होता है उसकी लेनी चाहिए, क्योंकि उस स्थलके सिवाय अन्यत्र मिथ्यात्वको जघन्य आबाधा नहीं उपलब्ध होती । परन्तु शेष कर्मोंका गुणसंक्रमके अन्तिम समय में जो नवक बन्ध होता है उसकी जघन्य आबाधा लेनी चाहिए ।
शंका- इससे और आगेके कालकी क्यों नहीं ली जाती
समाधान — नहीं, क्योंकि गुणसंक्रमके कालको उल्लंघनकर विध्यात संक्रमको प्राप्त हुए जीव मन्द विशुद्धिवश स्थितिबन्ध वृद्धिंगत होता है, इसलिये वहाँकी आबाधा सबसे जघन्य नहीं हो सकती । और यह अन्तरायामसे संख्यातगुणी है ।
शंका- ऐसा किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — इसी परमागमके वाक्यसे जाना जाता है । १८ ।
-
विशेषार्थ – यहाँपर अन्तरायामसे जिस जघन्य आबाधाको संख्यातगुणा बतलाया गया है वह यदि मिथ्यात्वकर्मके बन्धकी ली जाती है तो प्रकृतमें अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में मिथ्यात्व कर्मका जो सबसे जघन्य बन्ध होता है उसकी लेनी चाहिए, क्योंकि प्रकृतमें मिथ्यात्व कर्म का इससे जघन्य बन्ध अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयको छोड़ अन्यत्र - तीनों
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
दंसणमोहोत्रसामणा
* उक्कस्सिया आबाहा संखेजगुणा ।
$ १८५. किं कारणं १ अपुव्यकरणपढमसमयट्ठिदिबंधविसए सव्वकम्माणमुकस्साबाहाए विवक्खियत्तादो । पुव्विल्लविसयजहण्णविदिबंधादो एत्थतणठिदिबंधो संखेज्जगुणो, तेण तदावाहा वि तत्तो संखेज्जगुणा त्ति वृत्तं होइ । १९ ।
गाथा ९४ ]
२९३
* जहण्णयं ट्ठिदिखंडयमसंखेज्जगुणं ।
$ १८६. मिच्छत्तस्स ताव पढमट्टिदीए थोवावसेसे आढत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडयस्स गहणं कायव्वं । सेसकम्माणं च गुणसंकमकालस्स थोवावसेसे आढत्तस्स चरिमडिदिखंडयस्य जहण्णभावेण संगहो कायव्वो । एदं च पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागपमाणत्तणेण' पुव्विल्लादो असंखेज्जगुणमिदि घेत्तव्वं । २० ।
करणों में कहीं भी नहीं पाया जाता। और यदि प्रकृतमें ज्ञानावरणादि शेष कर्मोंके जघन्य बन्धकी जघन्य आबाधा लेनी है तो वह इस जीवके गुणसंक्रमके अन्तिम समय में इन कर्मोंका जो अपने पूर्व कालकी अपेक्षा जघन्य विवक्षित बन्ध होता है उसकी लेनी चाहिए, क्योंकि इससे कम प्रमाणवाला बन्ध अन्यत्र सम्भव नहीं है । यद्यपि गुणसंक्रमके समाप्त होनेके बाद भी यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि बना रहता है, किन्तु इसके मन्दविशुद्धिके कारण स्थितिबन्ध अधिक होने लगता है, इसलिये प्रकृतमें गुणसंक्रमके अन्तिम समय में होनेवाले जघन्य स्थितिबन्धकी जघन्य आबाधा ही लेनी चाहिए। अतः उक्त दोनों स्थलोंकी जघन्य आबाधा अन्तरके कालसे संख्यातगुणी होती है यही आशय प्रकृतमें लेना चाहिए ।
* उससे उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणी है ।
$ १८५ क्योंकि सब कर्मों की अपूर्वकरण के प्रथम समयमें होनेवाली स्थितिबन्धविषयक उत्कृष्ट आबाधा यहाँ विवक्षित है, क्योंकि पूर्व में कहे गये जघन्य स्थितिबन्धसे इस स्थलका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है, इसलिये उसकी आबाधा भी पूर्व में कही गई जघन्य आबाधासे संख्यातगुणी होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । १९ ।
विशेषार्थ — स्थितिकाण्डकघात आदि कार्यविशेष अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही प्रारम्भ होते हैं । तदनुसार अपूर्वकरणके प्रथम समय में होनेवाला स्थितिबन्ध ही यहाँपर लिया गया है । वह आगे होनेवाले सब कर्मोंके स्थितिबन्धोंकी अपेक्षा सबसे अधिक होता है, इसलिये उसकी आबाधा भी आगे होनेवाले स्थितिबन्धोंकी आबाधाओं की अपेक्षा सबसे अधिक होगी यह स्पष्ट ही है । वही यहाँ उत्कृष्ट आबाधारूपसे विवक्षित है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* उससे जघन्य स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा है ।
$ १८६. मिथ्यात्वके तो प्रथम स्थितिके स्तोक शेष रहनेपर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकण्डकका ग्रहण करना चाहिए और शेष कर्मोंके गुणसंक्रमकालके स्तोक शेष रहनेपर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकका जघन्यरूपसे संग्रह करना चाहिए। और यह पल्योपमके संख्यातवें
१. आदर्शप्रलौ पलिदोवमासंखज्जदिभागपमाणत्तणेण इति पाठः ।
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४
जयंधवलासाहदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
* उक्कस्यं द्विदिखंडथं संखेज्जगुणं ।
$ १८७. किं कारणं १ सागरोवमपुधत्तपमाणत्तादो । २१ ।
* जहण्णगो द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ।
$ १८८. किं कारणं ? मिच्छत्तस्स चरिमसमयमिच्छाइट्ठिजहण्णट्ठिदिबंधस्स अंतोकोडा कोडियमाणस्स सेसकम्माणं पि गुणसंकमचरिमसमयजहण्णट्ठिदिबंधस्स गहदो । २२ ।
* उक्कस्सगो द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ।
$ १८९. किं कारणं ? सव्वकम्माणं पि अपुव्वकरणपढमसमयडिदिबंधस्स पुव्विल्लजहणट्ठिदिबंधादो संखेज्जगुणत्त सिद्धीए णिव्वाहमुवनंभादो | २३ |
भागप्रमाण होनेसे पूर्व में कही गई उत्कृष्ट आबाधासे असंख्यातगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । २० ।
विशेषार्थ – पूर्व में जो उत्कृष्ट आबाधा बतला आये हैं वह संख्यात काल प्रमाण होती है और जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिये ही प्रकृतमें उत्कृष्ट आबाधासे जघन्य स्थितिकाण्डकको असंख्यातगुणा बतलाया है ।
* उससे उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है ।
$ १८७. क्योंकि यह सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है । २१ ।
विशेषार्थ -- अपूर्वकरणके प्रथम समयमें किन्हीं जीवोंके सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थितिकाण्डक होता हैं यह पहले ही बतला आये हैं । उसीको यहाँ ग्रहण किया है। यह पूर्वके पल्योपमके संख्यातर्वे भागप्रमाण स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणा होता है यह स्पष्ट ही है ।
* उससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ।
$ १८८. क्योंकि अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टि के मिध्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा कोडीप्रमाण और शेष कर्मोंका भी गुणसंक्रमके अन्तिम समयका जघन्य स्थितिबन्ध लिया है । २२ ।
विशेषार्थ -- पूर्व में उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण बतला आये हैं और यहाँ जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोडीप्रमाण बतलाया है, इसलिए यह उससे संख्यातगुणा ही होगा यह स्पष्ट है ।
* उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ।
$ १८९. क्योंकि सभी कर्मोंका अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जो स्थितिबन्ध होता है वह पूर्व में कहे गये जघन्य स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा होता है इसकी सिद्धि निर्बाध पाई जाती है । २३ ।
विशेषार्थ – अपूर्वकरणके प्रथम समय में सब कमका जो स्थितिबन्ध होता है वहाँसे
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा ___* जहण्णयं हिदिसंतकम्म संखेनगुणं ।
१९०. किं कारणं १ मिच्छत्तस्स मिच्छाइट्ठिचरिमसमयजहण्णट्ठिदिसंतकम्मस्स सेसकम्माणं पि गुणसंकमकालचरिमसमयजहण्णट्ठिदिसंतकम्मस्स बंधादो संखेज्जगुणत्ते विरोहाणुवलंभादो । २४ ।
लेकर संख्यात हजारों स्थितिबन्धभेदोंका अपसरण होकर अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका और गुणसंक्रमके अन्तिम समयमें शेष छह कर्मोंका प्राप्त होनेवाला स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन हो जाता है। यही कारण है कि यहाँपर उक्त दोनों स्थलोंपर होनेवाले मिथ्यात्व और शेष छह कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धसे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला उक्त सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा बतलाया है।
* उससे जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
६ १९०. क्योंकि मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका जो जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है और शेष कर्मोंका भी गुणसंक्रमकालके अन्तिम समयमें जो जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है उनके वहाँके बन्धको अपेक्षा संख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता । २४।
विशेषार्थ--यद्यपि सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में प्रथमोपशम सम्यक्त्वके योग्य कौन जीव होता है इस प्रसंगसे किसी शिष्यने यह प्रश्न किया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवके कर्मोके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए दर्शनमोहनीयका और चार अनन्तानुबन्धीका उपशम . कैसे होता है ? इसी प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्यदेवने बतलाया है कि काललब्धि आदिके कारण उनका उपशम होता है। वहाँ प्रथम काललब्धिका निरूपण करते हुए बतलाया है कि कर्मयुक्त भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामवाले कालके अवशिष्ट रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं। इससे संसारमें रहनेका अधिकसे अधिक कितना काल शेष रहनेपर भव्य जीव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके लिये पात्र होता है इसका नियम किया गया है। यह एक काललब्धि है। दूसरी कर्मस्थितिक काललब्धि है। न तो ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी पात्रता होती है और न ही जघन्य स्थिति के रहते हुए प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी पात्रता होती है। किन्तु जिसके परिणामोंकी विशुद्धिवश उस समय बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा-कोड़ी सागरोपम हो रहा हो और जिसने सत्तामें स्थित कोंकी स्थिति उससे संख्यात हजार सागरोपमोंसे न्यून अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम स्थापित कर ली हो वह जीव प्रथम सम्यकत्वके ग्रहणके योग्य होता है। इस प्रकार यद्यपि यहाँपर बन्धस्थितिकी अपेक्षा सत्कर्मोकी स्थिति न्यून बतलाई गई है, परन्तु यह काललब्धि उस जीवकी अपेक्षा बतलाई गई है जो क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंसे सम्पन्न होकर प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके सन्मुख होता है। किन्तु यहाँ पर जो उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे जघन्य स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा बतलाया जा रहा है वह मिथ्यात्वकर्मकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयको लक्ष्यमें लेकर तथा ज्ञानावरणादि छह कर्मोकी अपेक्षा गुणसंक्रमके अन्तिम समयको लक्ष्यमें लेकर बतलाया जा रहा है, इसलिये सर्वार्थसिद्धि आदिके उक्त कथनसे इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती। शेष कथन सुगम है।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० * उक्कस्सयं हिदिसंतकम्मं संखेजगुणं ।
5 १९१. सव्वकम्माणं पि अपुव्वकरणपढमसमयविसयस्स उकस्सट्ठिदिसंतकम्मस्सेहावलंबियत्तादो । २५ ।
* एवं पणुवीसदिपडिगो दंडगो समत्तो।
$ १९२. एवं पणुवीसदिपडिगमप्पाबहुअदंडयं समाणिय एत्तो अदीदासेसपबंधेण विहासिदत्थाणं गाहासुत्ताणं सरूवणिदेसं कुणमाणो विहासासुत्तयारो इदमाह
* एत्तो सुत्तफासो कायव्वो भवदि ।
5 १९३. पुव्वं परिभासिदत्थाणं गाहसुत्ताणमेण्हि समुक्त्तिणा जहाकम कायव्वा त्ति भणिदं होइ । . (४२) दसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो।
पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो॥९५॥ * उससे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
$ १९१. क्योंकि सभी कर्मोंके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे सम्बन्ध रखनेवाले उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका प्रकृतमें अवलम्बन लिया गया है । २५ ।
. विशेषार्थ--अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकघात नहीं होता। परन्तु संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण अवश्य होते हैं। इसलिए अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में होनेवाले स्थितिबन्धसे उसके अन्तिम समयमें संख्यातगुणा हीन स्थितिबन्ध होने लगता है । इसलिये अपूर्वकरणके प्रथम समयमें वहाँ प्राप्त स्थितिबन्धसे स्थितिसत्कर्मका संख्यातगुणा होना न्याय प्राप्त है। ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिककर्म अपने जघन्यसे संख्यातगुणा होता है ऐसा भी निर्णय करना उचित ही है।
* इसप्रकार पच्चीस पदवाला दण्डक समाप्त हुआ।
$ १९२. इसप्रकार पच्चीस पदवाले अल्पबहुत्वदण्डकको समाप्तकर आगे अतीत समस्त प्रबन्धके द्वारा जिनके अर्थका विशेष व्याख्यान किया गया है ऐसे गाथासूत्रोंका स्वरूपनिर्देश करते हुए विभाषासूत्रकार इस सूत्रको कहते हैं
* अब आगे गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तना करने योग्य है।
$ १९३. जिनके अर्थका पहले स्पष्टीकरण कर आये हैं उन गाथासूत्रोंकी क्रससे इस समय समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए । वह नियमसे पञ्चेन्द्रिय, संजी और पर्याप्तक होता है ॥ ९५ ॥
१. ता. प्रती 'पंचिंदिय सण्णी [ पुण ] णियमा' इति पाठः ।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९७
गाथा ९५ ]
दसणमोहोवसामणा $ १९२. एसा पढमगाहा दंसणमोहोवसामणपट्ठवणाए को सामिओ होइ किमविसेसेण चदुसु वि गदीसु वट्टमाणो, आहो अत्थि को विसेसो त्ति पुच्छाए णिण्णयविहाणट्ठमवइण्णा। एदिस्से किंचि अवयवत्थपरामसं कस्सामो। तं जहादंसणमोहस्स उवसामगो अविसेसेण चदुसु वि गदीसु होदि त्ति बोद्धव्वो। एवं चदुगदिविसयत्तसामण्णेणावहारिदस्स पाओग्गलद्धिमुहेण विसेसपदुप्पायणफलो गाहापच्छद्धणिद्देसो । तं कथं ? 'पंचिंदियसण्णी' इच्चादि । एत्थ पंचिंदियणिद्देसेण तिरिक्खगदीए एइंदियवियलिंदियाणं पडिसेहो कओ दट्ठव्यो । तत्थ वि सण्णिपंचिंदिओ चेव सम्मत्तुप्पत्तीए पाओग्गो होदि, णासण्णिपंचिंदिओ त्ति जाणावणट्ठ सण्णिविसेसणं कदं । एवं चदुगदिविसयत्तेण सण्णिपंचिंदियविसयत्तेण अवहारिदस्सेदस्स पजत्तावत्थाए चेव सम्मत्तुप्पत्तिपाओग्गभावो, णापजत्तावत्थाए त्ति जाणावणटुं "णियमा सो होइ पजत्तो' त्ति णिद्दिष्टुं । लद्धिअपज्जत्त-णिव्वत्तिअपज्जत्तए मोत्तूण णियमा णिव्वत्तिपज्जत्तो चेव सम्मत्तुप्पत्तिपाओग्गो होदि त्ति एसो एदस्स भावत्थो।।
$ १९२. यह प्रथम गाथा दर्शनमोहनीयकर्मकी उपशामना प्रस्थापनाका कौन जीव स्वामी है, क्या अविशेषरूपसे चारों ही गतियोंमें विद्यमान जीव स्वामी है या कोई विशेषता है ऐसी पृच्छा होनेपर निर्णयका विधान करनेके लिये आई है । अब इसके पदोंके अर्थका कुछ परामर्श करेंगे। यथा-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाला जीव सामान्यरूपसे चारों
तियोंमें होता है ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार चारों गतियाँ दर्शनमोहनीय कर्मकी उपशमनाका विषय हैं इस बातका सामान्य रूपसे निश्चय होने पर प्रायोग्य लब्धिद्वारा विशेषका कथन करनेके लिये गाथाके उत्तरार्धका निर्देश है।
शंका-वह कैसे ? समाधान-'पंचिंदियसण्णी' इत्यादि ।
इस पदमें 'पञ्चेन्द्रिय' पदके निर्देश द्वारा तिर्यञ्चगतिसम्बन्धी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंका प्रतिषेध किया हुआ जानना चाहिए। उसमें भी संज्ञो पञ्चेन्द्रिय जीव ही प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव नहीं इस बातका ज्ञान करानेके लिये उसका 'संज्ञी' विशेषण दिया है। इस प्रकार चारों गतियाँ इसका विषय है और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव इसका विषय हैं इस रूपसे निश्चय किये गये इसके पर्याप्त अवस्थामें ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यता होती है, अपर्याप्त अवस्थामें नहीं इस बातका ज्ञान कराने के लिये 'णियमा सो होइ पज्जत्तो' इस वचनका निर्देश किया है। लब्ध्यपर्याप्त और नित्यपर्याप्त अवस्थाको छोड़कर नियमसे निवृत्ति पर्याप्त जीव ही प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य होता है यह इसका भावार्थ है।
विशेषार्थ-यहाँ पर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके लिये कौन जीव योग्य होता है इसका निर्देश किया गया है । जो जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके सन्मुख होता है वह चारों गतियोंका होकर भी संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त होना चाहिए। इसका यह तात्पर्य है कि यदि वह नारकी या देवगतिका जीव है तो उसके संजी पञ्चेन्द्रिय होनेपर भी नित्यपर्याप्त
३/
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० (४३) सव्वणिरय-भवणेसु दीव-समुद्दे गह-जोदिसि-विमाणे। __ अभिजोग्गमणभिजोग्गे' उवसामो होइ बोद्धव्वो॥१६॥
5 १९३. एसा विदियसुत्तगाहा पुव्वसुत्तुद्दिद्वत्थविसेसपरूवणाए पडिबद्धा । तं जहा-णिरयगदीए ताव सव्वासु णिरयपुढवीसु सव्वेसु णिरइंदएसु सव्वसेढीबद्धपइण्णएसु च वट्टमाणा णेरइया जहावुत्तसामग्गीए परिणदा वेयणाभिभवादीहिं कारणेहिं सम्मत्तमप्पाएंति त्ति जाणावणटुं सम्वणिरयग्गहणं । तहा सव्वभवणेसु त्ति वुत्ते जत्तिया नहीं होना चाहिए। किन्तु छहों पर्याप्तियोंकी पूर्णता होनेपर अन्तमुहूर्तके बाद ही वह प्रथम 'सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है। यदि मनुष्यगतिका जीव है तो उसके भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होनेपर भी वह लब्ध्यपर्याप्त और नित्यपर्याप्त नहीं होना चाहिए। वह पर्याप्त ही होना चाहिए । उसमें भी यदि कर्मभूमिज मनुष्य है तो पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आठ वर्षका होना चाहिए और यदि भोगभूमिज है तो उनचास दिनका होना चाहिए। ऐसा होनेपर ही वह प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है। यदि तिर्यश्चगतिका जीव है तो वह एकेन्द्रिय, विकलत्रय और असंझी न होकर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही होना चाहिए। उसमें भी ऐसा जीव यदि लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त है तो वह प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य नहीं होता। वह छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होना चाहिए। उसमें तिर्यञ्च दो प्रकारके होते हैं-भोगभूमिज और कर्मभूमिज । कर्मभूमिज भी दो प्रकारके होते हैं -गर्भज और सम्मूर्छन । सो इनमेंसे गर्भज ही प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सकते हैं सम्मूच्छन नहीं। उसमें भी दिवसपृथक्त्व अवस्थाके होनेपर ही वे प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होते हैं। विशेष आगमसे जान लेना चाहिए। यहाँ पर प्रथम सम्यक्त्बके ग्रहणके योग्य जो अन्य विशेषताएँ बतलाई हैं, जैसे संसारमें रहनेका इस जीवका अधिकसे अधिक अर्धपुद्गलपरिर्तन नामवाला काल शेष रहे तब अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है। यदि सादि मिथ्यादृष्टि जीव है तो वेदक कालके समाप्त होनेपर ही वह प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है । तथा वह क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंसे सम्पन्न होना चाहिए इत्यादि सर्व साधारण विशेषताओंके साथ ही चारों गतियोंका संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव ही प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है यह उक्त गाथासूत्रका तात्पर्य है।
सब नरकोंमें रहनेवाले नारकियोंमें सब भवनोंमें रहनेवाले भवनवासी देवोंमें, सब द्वीपों और समुद्रोंमें विद्यमान संजी पश्शेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यश्चोंमें, ढाई द्वीप-समुद्रोंमें रहनेवाले पर्याप्त मनुष्योंमें, सब व्यन्तरावासोंमें रहनेवाले व्यन्तर देवोंमें, सब ज्योतिष्क देवोंमें, विमानोंमें रहनेवाले नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें तथा अभियोग्य और अनभियोग्य देवोंमें दर्शनमोहनीयका उपशम होता है ऐसा जानना चाहिए । .
• ६ १९३. यह दूसरी सूत्रगाथा पूर्व गाथा सूत्रमें कहे गये अर्थविशेषके कथनमें प्रतिबद्ध है। यथा-नरकगतिके सब नरक पृथिवी सम्बन्धी सब इन्द्रकबिलोंमें, सब श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंमें विद्यमान नारकी जीव यथोक्त सामग्रीसे परिणत होकर वेदना अभिभव आदि कारणोंसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये, गाथासूत्रमें 'सन्वणिरय' पदका ग्रहण किया है तथा 'सन्वभवणेसु' ऐसा कहनेपर .. १. ताप्रती -मणभिजोग्गो इति पाठः ।
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९६ ]
दंसणमोहोवसामणा
दसविहाणं भवणवा सियाणमावासा तेसु सव्वेसु चैव समुप्पण्णा जीवा जिणबिंब-देविद्धिदंसणादीहि कारणेहिं सम्मत्तमुप्पाएंति, ण तत्थ विसेसणियमो अस्थि त्ति भणिदं होइ । तहा दीव-समुद्दे त्ति वुत्ते सव्वैसु दीवसमुद्देसु वट्टमाणा जे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खपञ्जत्ता जेच अड्डाइजेसु दीव- समुद्देसु मणुसा संखेजवस्साउआ गब्भोवक्कतिया असंखेजवस्साउआ च ते सव्वे वि जाईभरत्त - धम्मसवणादिपच्चएहिं अष्पष्पणो विसए सव्वत्थ सम्मत्तमुप्पाति । ण तत्थ देसविसेसणियमो अस्थि त्ति घेत्तव्वं । तसजीवविरहिएस असंखेखेसु समुद्देसु कथं ? ण, तत्थ वि पुव्ववेरियदेवपओगेण णीदाणं तिरिक्खाणं सम्मत्तप्पत्तीए पयट्टंताणमुवलंभादो । गहसद्दो जेण वेंतरदेवाणं वाचओ तेणासंखेज्जेसु दीव - समुद्देसु जे वंतरावासा तेसु सव्वेसु वट्टमाणा वाणवेतरा जिणमहिमादंसणादीहिं कारणेहिं सम्मत्तमुप्पाएंति, ण तत्थ विसेसणियमो अस्थि त्ति गहेयव्वं । तहा 'जोदिसिय' चि जोदिसियदेवाणं चंदाइच्च-गह-णक्खत्त-तारामेयभिण्णाणं गहणं कायव्वं । तेसु वि जिणबिंबिद्धिदंसणादीहिं कारणेहिं सम्मत्तप्पत्ती सव्त्रत्थ ण विरुद्धा त्ति घेत्तव्वं । 'विमाणे' त्ति वृत्ते विमाणवासियदेवाणं गहणं कायव्वं । तेसु वि सोहम्मादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति सव्वत्थ वट्टमाणा सगजाइपडिबद्धसम्मत्तप्पत्तिकारणेहि परिणदा
३९९
दस प्रकारके भवनवासियोंके जितने आवास हैं उन सबमें ही उत्पन्न हुए जीव जिनबिम्बदर्शन और देवर्धिदर्शन आदि कारणोंसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, वहाँ विशेष नियम नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा 'दीव- समुद्दे' ऐसा कहने पर सब द्वीप - समुद्रोंमें वर्तमान जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यन पर्याप्त हैं और ढाई द्वीप - समुद्रों में जो संख्यात वर्षकी आयुवाले गर्भज और असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य हैं वे सभी जातिस्मरण और धर्मश्रवण आदि निमित्तोंसे अपने-अपने लिये सर्वत्र सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं । वहाँ देशविशेषका नियम नहीं है ऐसा यहाँपर ग्रहण करना चाहिए ।
शंका-स जीवोंसे रहित असंख्यात समुद्रों में तिर्यञ्चोंका प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करना कैसे बन सकता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि वहाँ पर भी पूर्वके वैरी देवोंके प्रयोगसे ले जाये गये तिर्यञ्च सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें प्रवृत्त हुए पाये जाते हैं ।
'ग' शब्द यतः व्यन्तर देवोंका वाचक है अतः असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें जो व्यन्तरावास हैं । उन सबमें वर्तमान वानव्यन्तर देव जिनमहिमादर्शन आदि कारणोंसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं वहाँ विशेष नियम नहीं है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। तथा 'जोदिसिय' इससे चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंके भेदसे अनेक प्रकारके ज्योतिषी देवोंको ग्रहण करना चाहिए। उनमें भी जिनबिम्बदर्शन और देवर्द्धिदर्शन आदि कारणोंसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति सर्वत्र विरुद्ध नहीं है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । 'विमाणे' ऐसा कहनेपर विमानवासी देवोंका ग्रहण करना चाहिए। उनमें भी सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम मैवेयक तक सर्वत्र विद्यमान और अपनी-अपनी जाति से सम्बन्ध रखनेवाले सम्यक्त्वोत्पत्तिके कारणोंसे
१. ता० प्रतौ दीव इति पाठो नास्ति ।
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० सम्मत्तं उप्पाएंति त्ति घेत्तव्वं । तत्तो उवरिमअणुदिसाणुत्तरविमाणवासियदेवेसु सम्मत्तुप्पत्ती किण्ण होदि ति चे? ण, तत्थ सम्माइट्ठीणं चेव उप्पादणियमदंसणादो । एत्थेवावंतरविसेसपदुप्पायणट्ठमाह--'अभिजोग्गमणभिजोग्गे' इदि। अभियुज्यंत इत्यभियोग्याः, वाहनादौ कुत्सिते कर्मणि नियुज्यमाणा वाहनदेवा इत्यर्थः । तेभ्योऽन्ये किन्विषिकादयोऽनुत्तमदेवाः, उत्तमाश्च पारिषदादयोऽनभियोग्याः। तेसु सर्वेषु यथोक्तहेतुसन्निधाने सम्यक्त्वोत्पत्तिरविरुद्धेति याक्व । 'उवसामो होइ बोद्धव्वो' एवं भणिदे एदेसु सव्वेसु दंसणमोहस्स उवसामगो होइ ति णायव्यो, विरोहाभावादो त्ति भणिदं होइ।
परिणत हुए देव सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
शंका-उनसे उपरिम अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती?
समाधान-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीवोंके ही उत्पन्न होनेका नियम देखा जाता है।
अब यहीं पर अवान्तर भेदोंका कथन करनेके लिये कहते हैं-'अभिजोग्गमणभिजोग्गे'-'अभियुज्यन्ते इत्यभियोग्या' इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो वाहनदेव वाहन आदि कुत्सित कर्ममें नियोजित हैं वे अभियोग्य देव हैं यह इस पदका अर्थ है। उनसे अन्य किल्विषिक आदि अनुत्तम देव और पारिषद आदि उत्तम देव अनभियोग्य देव हैं। उन सबमें यथोक्त हेतुओंका सन्निधान होने पर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अविरुद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'उवसामो होइ बोद्धवो ऐसा कहने पर इन सबमं दर्शनमोहका उपशामक होता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ--पूर्व गाथासूत्र में सामान्यसे इतना ही कहा गया था कि चारों गतियोंके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव दर्शनमोहके उपशामक होते हैं । इस गाथासूत्रमें उन जीवोंका नाम निर्देश पूर्वक स्पष्ट रूपसे खुलासा किया गया है। किसी भी गतिका संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त कोई भी जीव क्यों न हो यदि वह प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके उस उस गतिसे सम्बन्ध रखनेवाले अपने-अपने कारणोंसे सम्पन्न है तो वह दर्शनमोहका उपशामक होता है यह इस गाथासूत्रके कथनका सार है। यहाँ टोकामें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधनोंसे कतिपय कारणोंका संकेत किया गया है, अतएव यहाँ उन सब साधनोंका खुलासा किया जाता है। प्रारम्भके तीन नरकोंमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव ये तीन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधन हैं। यद्यपि नारकियोंके विभंगज्ञान होनेसे उन सबको यथासम्भव पूर्वभवोंका स्मरण होता है। किन्तु यहाँ पर पूर्वभवोंका स्मरणमात्र प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन नहीं है। किन्तु पूर्व भवमें धार्मिक बुद्धिसे जो अनुष्ठान किये थे वे विफल क्यों हुए इसे जानकर जोआत्म-निरीक्षण कर जीवादि नौ पदार्थोके मननपूर्वक अपने उपयोगको आत्मामें युक्त करते हैं उनके जातिस्मरण सम्यकत्त्वकी उत्पत्तिमें बाह्य साधन है। धर्मश्रवण पूर्वभवके स्नेही सम्यग्दृष्टि देवोंके निमित्तसे होता है, क्योंकि वहाँ ऋषियोंका जाना सम्भव नहीं है। यहाँ पर वेदनाभिभवको प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका तीसरा बाह्य साधन कहा है। सो उससे ऐसा समझना चाहिए कि वेदनासामान्य प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०१
गाथा ९७ ]
दसणमोहोवसामणा बाह्य साधन नहीं है । किन्तु जिनका ऐसा उपयोग होता है कि यह वेदना इस मिथ्यात्व तथा असंयमके सेवनसे उत्पन्न हुई है उनके वह वेदना सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन होता है। अन्तके चार नरकोंमें मात्र जाति-स्मरण और वेदनाभिभव ये दोही प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधन हैं । यहाँ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन धर्मश्रवण सम्भव नहीं, क्योंकि इन नरकोंमें एक तो देवोंका गमनागमन नहीं होता । दूसरे वहाँके नारकियोंमें भवके सम्बन्धवश या पूर्वके वैरवश परस्परमें अनुग्राह्य-अनुग्राहक भाव नहीं पाया जाता । अतः वहाँ उक्त दो ही प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके निमित्त हैं।'
तिर्यञ्चोंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधन तीन हैं-जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन । ये ही तीन मनुष्योंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधन हैं। किन्हीं मनुष्योंको जिन महिमा देखकर प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है। पर इसे अलगसे चौथा साधन माननेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसका जिनबिम्बदर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। कदाचित् किन्हीं मनुष्योंको लब्धिसम्पन्न ऋषियोंके देखनेसे भी प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है। पर इसे भी अलगसे साधन माननेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसका भी जिन बिम्बदर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। सम्मेदाचल, गिरनार, चम्पापुर औह पावापुर आदिका दर्शन भी जिनबिम्बदर्शनमें ही गर्भित है, क्योंकि वहाँ भी जिनबिम्बदर्शन तथा मुक्तिगमनसम्बन्धी कथाका सुनना या कहना आदिके बिना प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती।
देवोंमें भी भवनवासी, वानव्यन्तर,ज्योतिषी और बारहवें कल्पतकके कल्पवासी देवोंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके चार मुख्य साधन हैं-जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमा दर्शन और देवर्धिदर्शन । जिनमहिमादर्शन जिनबिम्बदर्शनके बिना बन नहीं सकता, इसलिए जिनमहिमादर्शनमें ही वह गर्भित है। यद्यपि जिनमहिमादर्शनमें स्वर्गावतरण और जन्माभिषेक आदि गर्भित हैं, पर इनमें जिनबिम्बदर्शन नहीं होता, इसलिए यह कहा जा सकता है कि जिनमहिमादर्शनके साथ जिनबिम्बदर्शनका अविनाभाव नहीं है सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ भी ये आगामी कालमें साक्षात् जिन होनेवाले हैं ऐसा बुद्धिमें स्वीकार करके ही उक्त कल्याणक किये जाते हैं, अतः इन कल्याणकोंमें भी जिनबिम्बदर्शन बन जाता है। अथवा ऐसे कल्याणकोंको निमित्तकर जो प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसे जिनगुणश्रवणनिमित्तक समझना चाहिए । देवर्धिदर्शन जातिस्मरणसे भिन्न साधन है, क्योंकि अपनी-अपनी अणिमादि ऋद्धियोंको देखकर ऐसा विचार होना कि ये ऋद्धियाँ जिनदेवद्वारा उपदिष्ट धार्मिक अनुष्ठानके फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं, जातिस्मरणस्वरूप होनेसे इसको निमित्तकर उत्पन्न हुआ प्रथम सम्यक्त्व जातिस्मरणनिमित्तक है और ऊपरके देवोंकी महा ऋद्धियोंको देखकर जो ऐसा विचार करता है कि इन देवोंके ये ऋद्धियां सम्यग्दर्शनसे युक्त संयमधारणके फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं और मैं सम्यग्दर्शनसे रहित द्रव्यसंयम पालकर वाहन आदि नीच देवोंमें उत्पन्न हुआ हूँ उस जीवके ऊपरके देवोंकी ऋद्धिको देखकर उत्पन्न हुए प्रतिबोधसे जो प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है वह देवर्धिदर्शननिमित्तक प्रथम सम्यक्त्व है। इसप्रकार जातिस्मरण और देवर्धिदर्शन इन दोनोंमें अन्तर है। दूसरे जातिस्मरण देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही होता है और देवधिदर्शन कालान्तरमें होता है, इसलिये भी इन दोनोंमें अन्तर है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें देवधिदर्शनको छोड़कर प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पूर्वोक्त तीन साधन हैं। एक तो इन देवोंमें ऊपरके महर्धिक देवोंका आगमन नहीं होता। दूसरे वहींके देवोंकी
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दार १० (४४) उवसामगो च सव्वो णिवाघादो तहा णिरासाणो। .. उवसंते भजियव्वो णीरासाणो य खीणम्मि॥९७॥
१९४. एसा तदियगाहा दंसणमोहोवसामगस्स तीहि करणेहिं वावदावत्थाए णिव्याघादत्तं णिरासाणभावं च पदुप्पाएदि । तं जहा--सव्यो चेव उवसामगो णिव्वापादो होइ, दंसणमोहोवसामणं पारभिय उवसामेमाणस्स जइ वि चउव्यिहोवसग्गवग्गो जुगवमुवइट्ठाइंतो वि णिच्छएण दंसणमोहोवसामणमेत्तो पडिबंधेण विणा समाणेदि त्ति वुत्तं होइ । एदेण दंसणमोहोवसामगस्स तदवत्थाए मरणाभावो वि महर्धिको बार-बार देखनेसे उन्हें आश्चर्य नहीं होता तथा तीसरे वहां शुक्ललेश्या होनेसे उनके संक्लेशरूप परिणाम नहीं होते, इसलिये वहाँ देवर्धिदर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति का साधन नहीं स्वीकार किया गया है। नौ प्रेवेयकवासी देवोंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पतिके दो साधन हैं-जातिस्मरण और धर्मश्रवण । यहाँ ऊपरके देवोंका आगमन नहीं होता, इसलिए देवर्धिदर्शन साधन नहीं है। नन्दीश्वर द्वीप आदिमें इनका गमन नहीं होता, इसलिए वहाँ जिनबिम्बदर्शन साधन भी नहीं है। वहाँ रहते हुए वे अवधिशानके द्वारा जिन महिमाको जानते हैं, इसलिए भी उनके जिन महिमादर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रागसे मुक्त होते हैं, इसलिये उन्हें जिन महिमा देखकर विस्मय नहीं होता। उनके अहमिन्द्र होते हुए भी उनमें परस्पर अनुप्राह्य-अनुप्राहक भाव होनेसे उनमें धर्मश्रवण प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन स्वीकार किया गया है। इससे आगे अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देव नियमसे सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिये वहाँ प्रथम सम्यक्त्वको उत्पत्ति कैसे होती है यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। यहाँ प्रत्येक गतिमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके जो साधन बतलाये हैं उनमेंसे किसीके कोई एक प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन है और किसीके कोई दूसरा प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। प्रत्येक गतिमें प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्तिके जितने साधन बतलाये हैं वे सब उस-उस गतिमें प्रत्येकके होने चाहिए ऐसा नहीं है। शेष कथन सुगम है।
दर्शनमोहका उपशम करनेवाले सब जीव व्याघातसे रहित होते हैं और उस कालके भीतर सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होते । दर्शनमोहके उपशान्त होने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्ति भजितव्य है। किन्तु क्षीण होने पर सासादनगुणस्थानकी प्राप्ति नहीं होती ॥ ३-९७ ॥
६ १९४. यह तीसरी गाथा दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके तीन करणोंके द्वारा व्याप्त अवस्थारूप होनेपर निर्व्याघातपने और निरासानपनेका कथन करती है । यथासभी उपशामक जीव व्याघातसे रहित होते हैं, क्योंकि दर्शनमोहके उपशमको प्रारम्भ करके उसका उपशम करनेवाले जीवके ऊपर यद्यपि चारों प्रकारके उपसर्ग एक साथ उपस्थित होवें तो भी वह निश्चयसे प्रारम्भसे लेकर दर्शनमोहकी उपशमनविधिको प्रतिबन्धके बिना समाप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस कथन द्वारा दर्शनमोहके उपशामकका उस अवस्थामें मरण भी नहीं होता यह कहा हुआ जानना चाहिए, क्योंकि मरण भी
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९७]
दंसणमोहोवसामणा
३०३
पदुप्पादो दट्ठव्वो, तस्स वि वाघादभेदत्तादो । ' तहा णिरासाणो' त्ति भणिदे दंसणमोहणीयमुवसामंतो तदवत्थाए सासणगुणं पि ण एसो पडिवज्जदि त्ति भणिदं होइ । 'उवसंते भजियव्वो' उपशान्ते दर्शनमोहनीये भाज्यो विकल्प्यः, सासादन परिणामं कदाचिद् गच्छेन्न वेति । किं कारणं १ उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए तदोपहुडि सासणगुणपडिवत्तीय केसु वि जीवेसु संभवदंसणादो । 'णीरासाणो य खीणम्मि' उवसमसम्मत्तद्धाए खीणाए सासादनगुणं णियमा ण पडिवज्जदि ति भणिदं होइ । कुदो एवं चे ! उवसमसम्मत्तद्धाए जहण्णेणेयसमयमेत्त सेसाए उकस्सेण छावलियमेतावसेसाए सासणगुणपरिणामो होइ, पण परदो त्ति नियमदंसणा दो । अथवा 'णीरासाणो य खीणम्मि' एवं भणिदे दंसणमोहणीयम्मि खीणम्मि णिरासाणो चेव, ण तत्थ सासणगुणपरिणाम संभवइ त्ति घेत्तव्वं, खइयस्स सम्मत्तस्सापडिवादिसरूवत्तादो, सासणपरिणामस्स उवसमसम्मत्त पुरं गमत्तणि यमदंसणादो च ।
व्याघातका एक भेद है । 'तहा णिरासाणो' ऐसा कहने पर दर्शनमोहका उपशम करनेवाला जीव उस अवस्थामें सासादन गुणस्थानको भी नहीं प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'उवसंते भजियव्वो' अर्थात् दर्शनमोहके उपशान्त होने पर भाज्य है - विकल्प्य है अर्थात् वह जीव कदाचित् सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है और कदाचित् प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके काल में छह आवलि शेष रहने पर वहाँसे लेकर सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति किन्हीं भी जीवोंमें सम्भव देखी जाती है । 'णीरासाणो य खीणम्मि' अर्थात् उपशम सम्यक्त्वका काल क्षीण होने पर यह जीव सासादन गुणस्थानको नियमसे नहीं प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- ऐसा किस कारण से है ?
समाधान — क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके कालमें जघन्यरूपसे एक समय शेष रहने पर और उत्कृष्टरूपसे छह आवलि काल शेष रहने पर सासादनगुणस्थान परिणाम होता है, इसके बाद नहीं ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा 'णीरासाणो य खीणम्मि' ऐसा कहनेपर दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर यह जीव निरासान ही है, क्योंकि उसके सासादन गुणस्थानरूप परिणाम सम्भव नहीं है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। कारण कि क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपातस्वरूप होता है और सासादन परिणामके उपशम सम्यक्त्व पूर्वक होने का नियम देखा जाता है ।
विशेषार्थ – यहाँ दर्शनमोहके उपशामन विधिके प्रारम्भ होनेके समय से लेकर उपशम सम्यक्त्वके कालके भीतर तथा उसके बाद किन कार्य विशेषका होना सम्भव है और कौन कार्यविशेष होते ही नहीं इन सब बातोंका इस गाथामें निर्देश किया गया है । यह जीव दर्शनमोहकी उपशामन विधिका प्रारम्भ अधःकरणके प्रथम समयसे करके अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में उसको पूर्ण करता है। इस कालके भीतर एक तो यह जीव देव, मनुष्य, तिर्योंद्वारा और अन्य कारणोंसे उपस्थित हुए उपसर्गोंके युगपत् या किसी एकके उपस्थित होनेपर उस ( उपशामन विधि ) से च्युत नहीं होता । यहाँ तक कि ऐसे जीवका
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
३०४
(४५) सागारे पट्टवगो णिट्ठवगो मज्झिमो य भजियव्वो । जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥ ६८ ॥
$ १९५. एदेण चउत्थगाहासुत्तेण दंसणमोहोवसामगस्स उवजोग-जोगलेस्सापरिणामगओ विसेसो पदुप्पादो दट्ठव्वो । तं जहा -- ' सागारे पट्ठवगो' एवं भणिदे दंसणमोहोवसामणमाढवेंतो अधापवत्तकरण पढमसमय पहुडि अंतोमुहुत्तमेतकालं पट्टवगो नाम भवदि । सो वुण तदवत्थाए णाणोवजोगे चेव उवजुत्तो होइ, तत्थ दंसणोवजोगस्सावीचारप्पयस्स पवृत्तिविरोहादो । तदो मदि- सुदविभंगणाणाण
मरण भी नहीं होता । बिना व्याघातके यह जीव उसे सम्पन्न करता है । इस काल में ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो जाय यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस जीवके इस काल के भीतर अनन्तानुबन्धीचतुष्क में से किसी एकके उदयके साथ सदा काल मिथ्यात्वका उदय बना रहता है ऐसा नियम है। जब कि सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति उपशम सम्यक्त्वके कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह आवलि कालके शेष रहनेपर मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क में से किसी एक प्रकृतिके उदय उदीरणा होनेपर होती है । वहाँ दर्शनमोहनीयकी किसी भी प्रकृतिका उदय न होनेसे दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा पारिणामिक भाव होता है। इसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालके भीतर भी ये सब विशेषताएँ जाननी चाहिए । मात्र ऐसा जीव अपने कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह आवलि काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय होनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है । किन्तु उपशम सम्यक्त्वका उक्त काल निकल जानेपर वह सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर वह या तो मिथ्यात्वके उदय उदीरणा के होनेसे मिध्यादृष्टि हो जाता है या सम्यग्मिथ्यात्वका उदय- उदीरणा होनेसे सम्यग्मिध्यादृष्टि हो जाता है या सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय उदीरणा होनेसे . वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है । यहाँ गाथा में 'खीणम्मि' पद आया है। उससे यह अभिप्राय भी फलित होता है कि दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर भी यह जीव सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होनेके पूर्व ही यह जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर लेता है, और ऐसे जीवके पुनः अनन्तानुबन्धीकी सत्ताका प्राप्त होना सम्भव नहीं है ।
दर्शनमोहके उपशमनका प्रस्थापक जीव साकार उपयोगमें विद्यमान होता है । किन्तु उसका निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है । तीनों योगों मेंसे किसी एक योग में विद्यमान तथा तेजोलेश्याके जघन्य अंशको प्राप्त वह जीव दर्शनमोहका उपशामक होता है ।। ४-९८ ।।
$ १९५. इस चौथे गाथा सूत्र द्वारा दर्शनमोहके उपशामकके उपयोग, योग और लेश्या परिणामगत विशेषका कथन जानना चाहिए। यथा - 'सागारे पट्टवगो' ऐसा कहने पर दर्शनमोहकी उपशमविधिका आरम्भ करनेवाला जीव अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रस्थापक कहलाता है । परन्तु वह जीव उस अवस्थामें ज्ञानोपयोग में ही उपयुक्त होता है, क्योंकि उस अवस्थामें अवीचारस्वरूप दर्शनोपयोगकी प्रवृत्तिका विरोध
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा ९८] दसणमोहोवसामणा
३०५ मण्णदरो सागारोवजोगो चेव एदस्स होइ, णाणागारोवजोगो त्ति घेत्तव्वं । एदेण जागरावत्थापरिणदो चेव सम्मत्तप्पचिपाओग्गो होदि, णाण्णो चि एवं पि जाणाविदं, णिहापरिणामस्स सम्मत्तुप्पत्तिपाओग्गविसोहिपरिणामेहिं विरुद्धसहावत्तादो। एवं पट्टवगस्स सागारोवजोगत्तं णियामिय संपहि णिट्ठवग-मज्झिमावत्थासु सागराणागाराणमण्णदरोवजोगेण भयणिज्जत्तपदुप्पायणमिदमाह-णिट्ठवगो मज्झिमो य भजिदव्यो ।' एत्थ णिट्ठवगो त्ति भणिदे दंसणमोहोवसामणाकरणस्स समाणगो घेत्तव्यो। सो वुण कम्हि उद्देसे होदि त्ति पुच्छिदे पढमहिदि सव्वं कमेण गालिय अंतरपवेसाहिमुहावत्थाए होइ । सो च सागारोवजुत्तो वा अणागारोवजुत्तो वा होदि ति भजियव्वो, दोण्हमण्णदरोवजोगपरिणामेण णिट्ठवगत्ते विरोहाभावादो । एवं मज्झिमस्स वि वत्तव्वं । को मज्झिमो णाम ? पट्टवग-णिट्ठवगपज्जायाणमंतरालकाले पयट्टमाणो मज्झिमो त्ति भण्णदे, तत्थ दोण्हं पि उवजोगाणं कमपरिणामस्स विरोहाभावादो भयणिज्जत्तमेदमवगंतव्वं ।
5 १९६. संपहि एदस्स चेव जोगविसेसावहारणमिदमाह-'जोगे अण्णदरम्हि है, इसलिए मति, श्रुत और विभंगज्ञानमेंसे कोई एक साकार उपयोग ही इसके होता है, अनाकार उपयोग नहीं होता ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इस वचन द्वारा जागृत अवस्थासे परिणत जीव ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य होता है, अन्य नहीं इस बातका भी ज्ञान करा दिया है, क्योंकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य विशुद्धिरूप परिणामोंसे विरुद्ध स्वभाववाला है। इस प्रकार प्रस्थापकके साकारोपयोगपनेका नियम करके अब निष्ठापकरूप और मध्यम (बीचकी ) अवस्थामें साकार उपयोग और अनाकार उपयोग मेंसे अन्यतर उपयोगके साथ भजनीयपनेका कथन करनेके लिये यह वचन कहा है'णिट्रवगो मज्झिमो य भजिद-वो'। इस वचनमें निष्ठापक ऐसा कहने पर दर्शनमो शामनाकरणको समाप्त करनेवाला जीव लेना चाहिए। परन्तु वह किस अवस्थामें होता है ऐसा पूर र समस्त प्रथम स्थितिको क्रमसे गलाकर अन्तर प्रवेशकी अभिमुख अवस्थाके होनेपर होता है। और वह साकार उपयोगमें उपयुक्त होता है या अनाकार उपयोगमें उपयुक्त होता है, इसलिए भजनीय है, क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एक परिणामके साथ निष्ठापकपनेके होनेमें विरोधका अभाव है। इसी प्रकार मध्यम अवस्थावालेके भी कहना चाहिए ।
शंका-मध्यम कौन है ?
समाधान-प्रस्थापक और निष्ठापकरूप पर्यार्योंके अन्तराल कालमें प्रवर्तमान जीव मध्यम कहलाता है।
वहाँ पर दोनों ही उपयोगोंका क्रमसे परिणाम होनेमें विरोधका अभाव होनेसे यह भजनीयपना जानना चाहिए।
$ १९६. अब इसीके योग विशेषका निश्चय करनेके लिये यह कहते हैं-'जोगे
३९
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
य मणजोग - वचिजोग- कायजोगाणमण्णदरे जोगे वट्टमाणो दंसणमोहोत्रसामणाए पट्टवगो होइ । एवं णिट्ठवगो मज्झिमो य वत्तव्वो, तत्थ तदण्णदरणियमाणुवलद्धीदो । चदुण्हण्णदरमण जोगेण वा चदुण्हमण्णदखचिजोगेण वा, ओरालिय- वेउब्वियाणमदरायजोगेण वा, परिणदो संतो दंसणमोहोसामणमाढवेदि त्ति एसो एदस्स तावत्थो ।
$ १९७, संपहि तस्सेव लेस्सा मेदुप्पायणमुत्तरो सुन्तावयवो - ' जहण्णगो तेउलेस्साए ' । जइ वि सुट्टु मंदविसोहीए परिणमिय दंसणमोहणीयमुवसामेदुमाढवेइ तो वि तस्स तेउलेस्साए परिणामो चेव तप्पा ओग्गो होइ णो हेट्ठिमलेस्सापरिणामो तस्स सम्मत्तप्पत्तिकारणकरणपरिणामेहिं विरुद्धसरूवत्तादोति भणिदं होइ । एदेण तिरिक्ख-मणुस्सेसु किण्ह-णील- काउलेस्साणं सम्मत्तप्पत्तिकाले पडिसेहो कदो, विसोहिकाले अमुह - तिलेस्सापरिणामस्स संभवाणुववत्ती दो । देवेसु पुण जहारिहं सुहतिल्लेस्सापरिणामो चेव, [ण] तेण तत्थ वियहिचारो । रइएस वि अवट्ठिदकिण्हणील- काउलेस्सापरिणामेसु सुहतिलेस्साणमसंभवो चेवे त्ति ण तत्थेदं सुत्तं पयट्टदे । तदो तिरिक्ख-मणुसवियमेवेदं सुत्तमिदि गहेयव्वं ।
दरम् ।' मनोयोग, वचनयोग और काययोग इनमें से किसी एक योगमें वर्तमान जीव दर्शनमोहकी उपशमविधिका प्रस्थापक होता है । इसी प्रकार निष्ठापक और मध्यम. अवस्थावाले जीवके भी कहना चाहिए, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओंमें प्रस्थापकसे भिन्न नियमकी उपलब्धि नहीं होती । चार प्रकारके मनोयोगोंमेंसे अन्यतर मनोयोगसे, चार प्रकारके वचनयोगों में से अन्यतर वचनयोगसे तथा औदारिक काययोग और वैक्रियिक काययोग इनमें से अन्यतर काययोगसे परिणत हुआ जीव दर्शनमोहकी उपशमविधिका आरम्भ करता है यह इसका भावार्थ है ।
$ १९७. अब उसीके लेश्याभेदका कथन करनेके लिये आगेका सूत्रवचन आया है'जहण्णगो तेउलेस्साए' यद्यपि अत्यन्त मन्द विशुद्धिसे परिणमकर दर्शनमोहकी उपशमन - विधिका प्रारम्भ करता है तो भी उसके तेजोलेश्याका परिणाम ही उसके योग्य होता है, उससे नीचेका लेश्यापरिणाम नहीं, क्योंकि वह सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के कारणरूप करणपरिणामोंसे विरुद्ध स्वरूप है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे तिर्यच्चों और मनुष्यों में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंका सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय प्रतिषेध कर दिया है, क्योंकि विशुद्धिके समय अशुभ तीन लेश्यारूप परिणाम सम्भव नहीं है । देवोंमें तो यथायोग्य शुभ तीन लेश्यारूप परिणाम ही होता है, इसलिए उक्त कथनका वहाँ पर कोई व्यभिचार नहीं आता । नारकियों में भी अवस्थितस्वरूप कृष्ण, नील और कापोतलेश्यापरिणाम होते हैं, वहाँ शुभ तीन श्यारूप परिणाम असम्भव ही हैं, इसलिए उनमें यह सूत्र प्रवृत्त नहीं होता । अतः तिर्यञ्चों और मनुष्योंको विषय करनेवाला ही यह सूत्र है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
विशेषार्थ दर्शनमोहका उपशम करते समय इस जीवके प्रथम समय से लेकर
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०७
गाथा ९९ ]
दसणमोहोवसामणां (४७) मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्वं ।
उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो ॥१९॥ $ १९८. एदेण गाहासुत्तेण दंसणमोहोवसामगस्स जाव अंतरपवेसो ण होइ ताव णियमा मिच्छत्तकम्मोदओ होइ । तत्तो परमुवसमसम्मत्तकालब्भंतरे तदुदओ गत्थि चेव । उवसमसम्मत्तकाले णिट्ठिदे पुण मिच्छत्तोदयस्स भयणिजत्तमिदि । एदेण तिण्णि अत्थविसेसा परूविदा । तं जहा–'मिच्छत्तवेदणीयं कम्म' एवं भणिदे मिच्छत्तं वेदिआदि जेण कम्मेण तं मिच्छत्तवेदणीयं कम्ममुदयावत्थाविसेसिदमुवसामगस्स णियमा होदि ति णायव्वमिदि गाहापुव्वद्धे पदसंबंधो, तेण मिच्छत्तकम्मोदयो दंसण
अन्तिम समय तक इस कालमें कौन उपयोग होता है, योग कौन होता है और लेश्या कौन होती है इन तथ्योंका इस गाथामें विचार करते हुए बतलाया है कि दर्शनमोहके उपशमनविधिके प्रस्थापकका प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक साकार उपयोग होता है, क्योंकि दर्शनोपयोग अविचारस्वरूप होनेसे उसके प्रारम्भमें इसकी प्रवृत्ति नहीं बन सकती। उसके बाद मध्यकी और अन्तको अवस्थामें यह यथासम्भव दर्शनोपयोगी भी हो जाता है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि दर्शनमोहके उपशमनाके कालसे मति-श्रतज्ञानका काल अल्प है, अतएव बीच में अनाकार उपयोग हो जाता है । परन्तु ऐसा होनेपर भी उपयोगका आलम्बन जीव पदार्थ ही रहता है, क्योंकि इसकी सन्मुखतामें ही दर्शनमोहका उपशम होकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि दर्शनमोहका उपशामक जीव नियमसे जागृत होता है, क्योंकि सुप्त अवस्थामें इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। योगकी अपेक्षा विचार करने पर इसके दस पर्याप्त योगोंमेंसे यथासम्भव कोई भी योग होता है । लेश्या कम से कम मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके पीत लेश्याका जघन्य अंश होता है। इससे नीचे की अन्य अशभ लेश्याएं नहीं होतीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। देवों और नार
पर्य है। देवों और नारकियों अवस्थित लेश्याके रहते हुए भी दर्शनमोहका उपशम होकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव है इसलिए पूर्वोक्त लेश्याका नियम तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी अपेक्षा यहाँ किया गया है ऐस यहाँ उा चाहिए।
दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकर्मका उदय जानना चाहिए । किन्तु दर्शनमोहकी उपशान्त अवस्थामें मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं होता, तदन्तर उसका उदय भजनीय है ॥५-९९॥
$ १९८. इस गाथासूत्रद्वारा यह बतलाया गया है कि दर्शनमोहके उपशामक जीवका जबतक अन्तर प्रवेश नहीं होता है तबतक उसके मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है। उसके बाद उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर मिथ्यात्वका उदय नहीं ही होता। परन्तु उपशमसम्यक्त्वके कालके समाप्त होनेपर मिथ्यात्वका उदय भजनीय है। इसप्रकार इस गाथासूत्र द्वारा तीन अर्थविशेष कहे गये हैं। यथा-'मिच्छत्तवेदणीयं कम्म' ऐसा कहने पर जिस कर्मके द्वारा मिथ्यात्व वेदा जाता है वह मिथ्यात्व वेदनीय कर्म उदय अवस्थासे युक्त उपशामकके नियमसे होता है ऐसा जानना चाहिए, इसप्रकार गाथाके पूर्वार्धका पदसम्बन्ध है,
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० मोहोवसामगस्स णियमा होइ ति सुत्तत्थो गहेयव्वो । उदयविसेसणं सुत्तेणाणुवइ8 कथमुवलब्भदि त्ति णासंकणिज्जं, अत्थवसेणेव तहाविहविसेसणस्सत्थसमुवलद्धीदो। अथवा वेद्यत इति वेदनीयं मिथ्यात्वमेव वेदनीयं मिथ्यात्ववेदनीयं उदयावस्थापरिणतं मिथ्यात्वकर्मेति यावत् । तदुपशमकस्य भवतीति सूत्रोपात्तमेव तद्विशेषणमवगंतव्यम् । 'उवसंते आसाणे' एवं भणिदे दंसणमोहणीये उवसंते उवसमसम्मादिद्वित्तमुवगयस्स मिच्छत्तवेदणीयकम्मोदयस्स आसाणमेव विणासो चेव । किं कारणं ? अंतरपवेसावत्थाए तदुदयस्स अच्चंताभावेण णिसिद्धत्तादो तदणुदयस्सेव उवसंतभावेणेत्थ विवक्खियत्तादो च । अधवा उवसंते उवसमसम्मत्तकालब्भंतरे आसाणे सासणकालब्भंतरे च मिच्छत्तकम्मोदयो पत्थि चेवे त्ति वक्कसेसवसेण सुत्तत्थसंबंधो कायव्यो । 'तेण परं होइ भजियव्वो' एवं भणिदे उवसमसम्मत्तद्धाए समत्ताए तत्तो परं मिच्छत्तकम्मोदएण एसो भजियव्वो, मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमण्णदरोदयस्स तत्थाविरोहादो। इसलिये मिथ्यात्व कर्मका उदय दर्शनमोहके उपशामकके नियमसे होता है इसप्रकार सूत्रका अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
शंका-सूत्रद्वारा अनुपदिष्ट उदय विशेषण कैसे उपलब्ध होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थके सम्बन्धसे ही उस प्रकारके विशेषणकी यहाँ पर उपलब्धि होती है। अथवा जो वेदा जाय वह वेदनीय है। मिथ्यात्व ही वेदनीय मिथ्यात्व वेदनीय है। उदय अवस्थासे परिणत मिथ्यात्व कर्म यह इसका तात्पर्य है। वह उपशम करनेवाले जीवके होता है इसप्रकार उक्त विशेषण सूत्रोक्त ही जानना चाहिए । 'उससंते आसाणे' ऐसा कहनेपर दर्शनमोहनीयके उपशान्त अवस्थामें उपशमसम्यग्दृष्टिपनेको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्व वेदनीयकर्मके उदयका आसान ही अर्थात् विनाश ही रहता है, क्योंकि अन्तर प्रवेशरूप अवस्थामें उसके उदयका अत्यन्ताभाव होनेसे उसका उदय निषिद्ध ही है तथा उसका अनुदयही उपशान्तरूपसे यहाँ पर विवक्षित है । अथवा 'उवसंते' अर्थात् उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर तथा 'आसाणे' अर्थात् सासादन कालके भीतर मिथ्यात्वकमका उदय नहीं ही है इसप्रकार वाक्य शेषके वशसे सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । 'तेण परं होइ भजियव्वो' ऐसा कहनेपर उपशम सम्यक्त्वके कालके समाप्त होनेपर |तदनन्तर मिथ्यात्व कर्मके उदयसे यह भजनीय है, क्योंकि मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें से अन्यतरके उदयका वहाँ विरोध नहीं पाया जाता।
विशेषार्थ-इस गाथासूत्रद्वारा तीन अर्थ स्पष्ट किये गये हैं। प्रथम अर्थको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जो मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन मोहका उपशम करता है उसके मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है। दूसरे अर्थको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वकर्मका उदय नहीं होता । यहाँ गाथामें 'उवसंते आसाणे' पाठ है । तदनुसार 'आसाण' अवसान पाठका पर्यायरूप होनेसे विनाश अर्थ करके उक्त अर्थ फलित किया गया है। अथवा 'उवसंते आसाणे' इसका अर्थ उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादन करने पर
१. ता०प्रत्सै अथवा इति पाठो नास्ति ।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०० ]
दंसणमोहोवसामणा
(४८) सव्र्व्वहिं ट्ठिदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिष्णि कम्मंसा ।
३०९
कहि य अणुभागे णियमा सव्वे ट्ठिदिविसेसा ॥१००॥
$ १९९. एत्थ 'तिणि कम्मंसा' त्ति भणिदे मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं गहणं कायव्वं, दंसणमोहोवसामणाए पयट्टत्तादो । एदे तिणि कम्मंसा सव्वेहि चेव ट्ठिदिविसेसेहि उवसंता बोद्धव्वा । ण तेसिमेक्का विट्ठिदी अणुवसंता अस्थि त्ति भावत्थो । तदो मिच्छत्त- सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णट्ठिदिप्पहुडि जावुक्कस्सट्ठिदित्ति देसु सव्वेसुट्ठिदिविसेसे दिसव्वपरमाणू उवसंता त्ति सिद्धं । एवमुवसंताणं तेसिं हिदिविसेसाणं सव्वेसिमणुभागो किमेयवियप्पो चेव आहो णाणावियप्पो त्ति भणिदे एयवियप्पो चेवेत्ति जाणावणट्ठमुवरिमो गाहासुत्तावयवो - 'एक्कम्हि य अणुभागे' एकम्हि चेवाणुभागविसेसे' तिन्हमेदेसि कम्मंसाणं सव्वे द्विदिविसेसा दट्ठव्वा । अंतर - बाहिरा - णंतरजहण्णट्ठिदिविसेसे जो अणुभागो सो चेव तत्तो उवरिमासेसट्ठिदिविसेसेसु उकस्स
'नहीं' इतने वाक्यशेषके योगसे यह अर्थ फलित किया है कि उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थानवालेके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता । यहाँ 'नहीं' इस वाक्य शेषकी योजना 'तेण परं होइ भजियन्बो' पदको ध्यान में रखकर की गई है। तीसरे अर्थको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होने पर मिथ्यात्वका उदय भजनीय है । अर्थात् यदि ऐसा जीव मिध्यात्वको प्राप्त होता है तो उसके मिथ्यात्व कर्मका उदय रहता है | यदि सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय रहता है और यदि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय रहता है। इस प्रकार इस गाथासूत्र द्वारा तीन अर्थोंको स्पष्ट किया गया है ।
दर्शन मोहनीयकी तीनों कर्म प्रकृतियाँ सभी स्थिति विशेषोंके साथ उपशान्त ( उदय के अयोग्य ) रहती हैं तथा सभी स्थितिविशेष नियमसे एक अनुभाग में अवस्थित रहते हैं ।। ६-१०० ।।
$ १९९. इस गाथासूत्र में 'तिणि कम्मंसा' ऐसा कहनेपर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दर्शनमोहकी उपशामनाका प्रकरण है । ये तीनों ही कर्म प्रकृतियाँ सभी स्थिति विशेषोंके साथ उपशान्त जाननी चाहिए। उनकी एक भी स्थिति अनुपशान्त नहीं होती यह उक्त कथनका भावार्थ है । अतः मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक इन सब स्थिति विशेषों में स्थित सब परमाणु उपशान्त होते हैं यह सिद्ध हुआ । इसप्रकार उपशान्त हुए उन सब स्थितिविशेषका अनुभाग क्या एक प्रकारका ही है या नाना भेदोंको लिये हुए है ऐसा कहनेपर एक प्रकारका ही है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका गाथासूत्रका अवयव आया है'एक्कम्हि य अणुभागे' एक ही अनुभागविशेष में इन तीनों कर्मप्रकृतियोंके सब स्थितिविशेष जानने चाहिए । अन्तरायामके बाहर अनन्तरवर्ती जघन्य स्थितिविशेषमें जो अनुभाग है
१. ता० प्रती चेवाणुभागविसये इति पाठः ।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० द्विदिपजंतेसु होइ, गाण्णस्सो' त्ति भणिदं होदि । मिच्छत्तस्स ताव सव्वघादिविट्ठाणिओ घादिदसेसो अणुभागो सव्वेसु. ट्ठिदिविसेसेसु अविसिट्टसरूवेणावट्टिदो दट्टयो। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि णवरि मिच्छत्ताणुभागादो अणंतगुणहीणो । सम्मत्तस्स पुण तत्तो वि अणंतगुणहीणो देसघादिविट्ठाणसरूवो दारुअसमाणाणंतभागावट्ठाणो उक्कस्साणुभागो एयवियप्पो सव्वत्थ होदि त्ति घेत्तव्वं ।
$२००. संपहि सणमोहणीयमुवसामेमाणस्स तदवत्थाए किंपच्चएण णाणावरणादिकम्मबंधो होदि ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स णिद्धारणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमोइण्णंवही उससे उपरिम उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समस्त स्थितिविशेषों में होता है वह अन्य नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मिथ्यात्वका तो घात करनेसे शेष रहा सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग सब स्थिति विशेषोंमें अवस्थितरूपसे अवस्थित जानना चाहिए। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अनुभागसे यह अनन्तगुणा हीन होता है। सम्यक्त्वका अनुभाग तो उससे भी अनन्तगुणा हीन होता है, जो देशघाति द्विस्थानीय स्वरूप होकर दारुसमान अनुभागके अनन्तवें भागरूपसे अवस्थित उत्कृष्ट स्वरूप एक प्रकारका सर्वत्र होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-इस गाथासूत्र में दर्शनमोहनीयकी तीनों कर्म प्रकृतियोंकी उपशान्त अवस्थामें क्या व्यवस्था रहती है यह स्पष्ट किया गया है। अकेले मिथ्यात्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व या तीनों कर्म प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिके गल जानेके अनन्तर समयमें जीवके अन्तरायाममें प्रवेश करनेपर उक्त तीनों प्रकृतियोंकी अन्तरायामके ऊपर द्वितीय स्थितिमें अपने-अपने स्थितिविशेषोंके साथ जितनी स्थिति प्राप्त होती है वह सब उपशान्त रहती है अर्थात् प्रथमोपशमके कालके अन्तिम समय तक उदयके अयोग्य रहती है। यहाँ मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण तो होता है पर उन स्थितिविशेषोंकी अपकर्षणपूर्वक उदीरणा नहीं होती यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अनुभाग उन तीनों प्रकृतियोंके अपने-अपने स्थितिविशेषों में अपने-अपने योग्य द्विस्थानीय एक प्रकारका होता है। अर्थात मिथ्यात्व
का घात करनेसे शेष बचा सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग सब स्थितिविशेषोंमें समान होता है। अन्तरायामके ऊपर प्रथम जघन्य स्थितिमें जो सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग होता है वही उससे ऊपरकी मिथ्यात्वसम्बन्धी अन्य सब स्थितियोंमें होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके सब स्थितिविशेषोंमें भी इसीप्रकार एक प्रकारका द्विस्थानीय सर्वघाति अनुभाग होता है। किन्तु वह मिथ्यात्वके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है। सम्यक्त्व प्रकृति देशघाति है, इसलिये उसके सब स्थिति विशेषोंमें देशघाति द्विस्थानीय एक प्रकारका अनुभाग होकर भी वह सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है। साथ ही यह उत्कृष्ट होता है। यह सब उक्त गाथाका तात्पर्य है।
___5२००. अब दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके उस अवस्थामें ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध किंनिमित्तक होता है इसप्रकार इस अर्थविशेषका निर्धारण करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है
१. ता०प्रतौ णाण्णारिसो इति पाठः ।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०१ ]
दंसणमोहोवसामणा
(४८) मिच्छत्तपच्चयो खलु बंधो उवसामगस्स बोद्धवो । उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो ॥ १०१ ॥
३११
$ २०१. मिच्छत्तं पच्चओ कारणं जस्स सो मिच्छत्तपच्चओ खलु परिफुडं बंधो दंसणमोहोवसामगस्स जाव षढमट्ठिदिचरिमसमयो ति ताव बोद्धव्वो । केसिं कम्माणं बंधो ? मिच्छत्तस्स णाणावरणादिसेसकम्माणं च । जइ वि एत्थ सेसाणं असंजम - कसाय - जोगाणं पच्चयत्तमत्थि तो वि मिच्छत्तस्सेव षहाणभावविवक्खाए एवं परू विदमिदि घेत्तव्वं, उवरि मिच्छत्तपच्चयस्साभावपदुप्पायणपरत्तादो । 'उवसंते आसाणे' दंसणमोहणीए उवसंते अंतरं पविट्ठपढमसमयप्प हुडि मिच्छत्तपच्चयस्स आसाणमेव विणासो चेव, ण तत्थ मिच्छत्तपच्चओ अस्थि त्ति वृत्तं होइ । अधवा 'उवसंते' वसंतदंसणमोहणीये सम्माइट्ठिम्मि आसाणे' सासणसम्माइट्ठिम्मि यमिच्छत्तपच्चओ णत्थि विकसे काढूण सुत्तत्थो समत्थेयव्वो । 'तेण परं होइ भजियव्वो' तत्तो परमुवसंतद्धाए rिigate मिच्छत्तपच्चओ भजियव्वो । किं कारणं १ उवसमसम्मत्तद्धाए खीणाए तिन्ह
दर्शन मोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके नियमसे मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध जानना चाहिए । किन्तु उसके उपशान्त रहते हुए मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता तथा उपशान्त अवस्थाके समाप्त होनेके बाद मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध भजनीय है ॥ ७-१०१ ॥
२०१ मिथ्यात्व है प्रत्यय अर्थात् कारण जिसका बह मिथ्यात्वप्रत्यय बन्ध 'खलु' अर्थात् स्पष्टरूपसे दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक जानना चाहिए ।
शंका- किन कर्मोंका बन्ध ?
समाधान — मिथ्यात्व और ज्ञानावरणादि शेष कमका ।
यद्यपि यहाँपर ( मिध्यात्व गुणस्थान में ) शेष असंयम, कषाय और योगका प्रत्ययपना है तो भी मिध्यात्वकी ही प्रधानताकी विवक्षामें इस प्रकार कहा है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ऊपरके गुणस्थानों में मिथ्यात्वनिमित्तक बन्धके अभावका कथन परक यह वचन है । 'उवसंते आसाणे' दर्शनमोहनीयके उपशान्त होने पर अन्तरायाममें प्रवेश करनेके प्रथम समयसे लेकर मिध्यात्वनिमित्तक बन्धका आसान अर्थात् विनाश ही है । वहाँ मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा 'उवसंते' दर्शन मोहनीय के उपशान्त होनेपर सम्यग्दृष्टि जीवके और 'आसाणे' अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीवके 'मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता' इतना वाक्यशेषका योग करके सूत्रार्थक। समर्थन करना चाहिए । 'तेण परं होइ भजियव्वो' अर्थात् उसके बाद उपशम सम्यके काल के समाप्त होनेपर मिथ्यात्वनिमित्तिक बन्ध भजनीय क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके
१. ता० प्रती सम्माइट्ठिम्मि य मिच्छत्ते आसाणे इति पाठः ।
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
जयधवलासाहदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
मण्णदरस्स कम्मस्स उदयसंभवे सिया मिच्छत्तपच्चओ, सिया अण्णपच्चओ ति तत्थ भयणिजत्ते विरोहाणुवलंभादो ।
$ २०२. एवमुवसामगस्स पच्चयपरूवणं काढूण संपहि मिच्छत्तपच्चएणेव
कालके क्षीण होनेपर दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंमें से किसी एक कर्मका उदय सम्भव होनेपर कदाचित् मिध्यात्वनिमित्तक बन्ध होता है, कदाचित् अन्यनिमित्तक बन्ध होता है, इसलिये उस अवस्थामें भजनीय होनेमें विरोध नहीं उपलब्ध होता ।
विशेषार्थ कर्मबन्धके कारण चार हैं - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । तत्वार्थ सूत्र आदिमें बन्धके प्रमादसहित पाँच कारण बतलाये हैं । किन्तु यहाँ पर टीकामें प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव करके चार कारण परिगणित किये गये हैं । इनमें से पूर्व - पूर्वके कारणके रहनेपर आगे-आगेके कारण होते ही हैं । जैसे मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होनेपर वह अविरति, कषाय और योगनिमित्तक भी होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिए । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मिध्यात्वनिमित्तक बन्ध होता है, आगेके गुणस्थानोंमें नहीं । इसी प्रकार पाँचवें गुणस्थान तक अविरति निमित्तक बन्ध होनेपर वहाँ कषाय और योगकी निमित्तता है ही ऐसा समझना चाहिए । आगेके गुणस्थानों में अविरतिनिमित्तक बन्धका अभाव है । तथा दसवें गुणस्थान तक कषायनिमित्तक बन्ध होनेपर वहाँपर योगकी निमित्तता है ही, क्योंकि इससे आगेके गुणस्थानों में कषायनिमित्तक बन्धका अभाव है । आगे तेरहवें गुणस्थान तक एक मात्र योगनिमित्तक बन्ध होता है । वहाँ बन्धके अन्य कारणोंका अभाव है । इसप्रकार कर्मबन् धके कहाँ कितने कारण हैं इसे समझ कर मिथ्यात्व गुणस्थान में ही मिथ्यात्वनिमित्तक बन्धकी मुख्यता है यह बत - लानेके लिये उक्त गाथासूत्रकी रचना हुई है । वहाँ मिथ्यात्व और ज्ञानावरणादि जितने कर्मों का बन्ध होता है वह गाथासूत्र में मिथ्यात्वनिमित्तक इसी अभिप्राय से कहा है । इससे आगेके गुणस्थानोंमें मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं होता यह बतलाने के लिये गाथासूत्र में ‘उवसंते आसाणे' इस तृतीय चरणकी रचना हुई है । इसके दो अर्थ हैं, जिनका स्पष्टीकरण टीका में किया ही है। तथा उपशान्त अवस्थाके समाप्त होनेके बाद इस जीवके दर्शनमोहatest तीन प्रकृतियोंमेंसे जिस प्रकृतिका उदय होता है उसके अनुसार वहाँ यथासम्भव बन्धकारणकी मुख्यता होती है । यदि वह जीव मिथ्यात्वके उदयके साथ मिध्यादृष्टि हो जाता है तो मिथ्यात्व निमित्तक बन्धकी मुख्यता रहती है और यदि सम्यग्मिध्यात्वके उदयके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि या सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय के साथ वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो अविरतिनिमित्तक बन्धकी मुख्यता रहती है । यही कारण है कि उक्त गाथासूत्रके चौथे चरणमें उपशान्त अवस्था के समाप्त होनेके बाद मिध्यात्वनिमित्तक बन्धको भजनीय कहा है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए किवेदक सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान तक होता है, अतः जहाँ जिस कारणकी मुख्यता बने उसके अनुसार वहाँ उसकी मुख्यतासे बन्ध समझना चाहिए । यथा - चौथे-पाँचवें गुण-स्थानमें अविरतिकी मुख्यतासे बन्ध होता है तथा छटे - सातवें गुणस्थान में अविरतिका अभाव होकर कषायकी मुख्यता से बन्ध होता है ।
$ २०२. इस प्रकार उपशामकके बन्धके कारणका कथन करके अब दर्शनमोहनीयका
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०२]
दसणमोहोवसामणा दंसणमोहणीयस्स बंधो होई, तेण विणा सेसपच्चएहिं तब्बंधो पत्थि त्ति जाणावण?मुत्तरगाहासुत्तावयारो(४९) सम्मामिच्छाइट्ठी दसणमोहस्सऽबंधगो होइ।
वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ ॥१०२॥
६२०३. मिच्छाइट्ठी चेव दंसणमोहणीयस्स मिच्छत्तपच्चएण बंधगो होइ, णाण्णो। तेण सम्मामिच्छाइट्ठी वा वेदयसम्माइट्ठी वा खइयसम्माइट्ठी वा, अविसद्देण उवसमसम्माइट्टी वा सासणसम्माइट्ठी वाणियमा दंसणमोहस्स अबंधगो होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चयो घेत्तव्वो। अधवा जहा मिच्छाइट्ठी मिच्छत्तोदएण मिच्छत्तस्सेव बंधगो होदि त्ति भणिदो, किमेवं सम्मामिच्छाइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी च सम्मामिच्छत्त-वेदगसम्मत्ताणमुदएण ताणि चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि जहारिहं बंधइ आहो ण बंधदि त्ति भणिदे ताणि ण बंधदि त्ति जाणावणट्ठमेदं गाहासुत्तमवइण्णमिदि वक्खाणेयध्वं, सम्मामिच्छाइहि-वेदगसम्माइट्ठीसु दंसणमोहणीयबंधाभावस्स मुत्तकंठमिहोवइद्वत्तादो । णवरि 'खीणो वि अबंधगो होदि' त्ति एदं पदं खइयसम्माइडिम्मि दंसणमोहणीयबंधाबन्ध मिथ्यात्वके निमित्तसे ही होता है, उसके बिना शेष कारणोंसे दर्शनमोहनीयका बन्ध नहीं होता इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके गाथासूत्रका अवतार हुआ है
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका अबन्धक होता है। तथा वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा 'अपि शब्द द्वारा परिगृहीत उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव भी दर्शनमोहनीयका अबन्धक होता है । ८-१०२।
२०३. मिथ्यादृष्टि जीव ही दर्शनमोहनीयका मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्धक होता है, अन्य नहीं। इससे सम्यग्मिथ्यादृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा 'अपि' शब्दसे उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि दर्शनमोहका नियमसे अबन्धक होता है इस प्रकार यह सूत्रार्थका समुच्चय ग्रहण करना चाहिए। अथवा जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यात्वका ही बन्धक होता है ऐसा कहा है उसी प्रकार क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव.सम्यग्मिथ्यात्व और वेदकसम्यक्त्वके उदयसे उन्हीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको यथायोग्य बाँधता है या नहीं बाँधता ऐसा प्रश्न करने पर नहीं बांधता इस बातका ज्ञान करानेके लिये यह गाथासूत्र अवतीर्ण हुआ है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दर्शनमोहनीयके बन्धके अभावका मुक्तकण्ठ होकर इस गाथासूत्र में उपदेश दिया गया है । इतनी विशेषता है कि 'खीणो वि अबंधगो होदि' इस प्रकार इस पदका प्रयोजन झायिकसम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीय
१. ता०प्रत्स बंधो होइ इतोऽने 'मिच्छाइट्टी चेव दसणमोहणीयस्स मिच्छत्तपच्चयेण बंधणो होई'
अयं पाठः समुपलभ्यते। २. ता०प्रत्स-णतृगाहासुत्तावयारो इति पाठः । २. ता०प्रतो 'चेव' इति पाठो नास्ति ।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० भावपदुप्पायणफलमणुत्तसिद्धं पि मंदबुद्धिसिस्सजणाणुग्गहणम्सुवइट्ठमिदि गहेयव्वं । (५०) अंतोमुहुत्तमद्ध सव्वोवसमेण होइ उवसंतो।
तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेकदरस्स कम्मस्स ॥१०३॥
२०४. एसा गाहा दंसणमोहणीयस्स सव्वोवसमेणावट्ठाणकालपमाणावहारणट्ठमागया । तं जहा–एत्थंतोमुहुत्तमद्धमिदि वुत्ते अंतरदीहत्तस्स संखेजदिमागमेत्तो कालो गहेयव्वो। कुदो एदमवगम्मदे ? पुव्वपरूविदप्पाबहुआदो । सव्वोवसमेणे त्ति के बन्धके अभावका कथन करना है जो अनुक्तसिद्ध है, फिर भी मन्दबुद्धि शिष्यजनोंका अनुग्रह करनेके लिये इसका उपदेश दिया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-उक्त गाथासूत्र में किन जीवोंके दर्शनमोहनीयका बन्ध नहीं होता इसका निर्देश करते हुए बतलाया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका बन्ध नहीं करता। तथा गाथासूत्र में आये हुए 'अपि' शब्द द्वारा यह भी सूचित किया है कि उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भी दर्शनमोहनीयका बन्ध नहीं करता । टीकामें इस सूत्रकी रचनाका एक प्रयोजन यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादष्टि जीव मिथ्यात्वका बन्धक होता है उसीप्रकार क्या सम्यग्मिथ्यात्वके उदयसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वका और वेदकसम्यक्त्वके उदयसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वका बन्धक होता है या नहीं होता ऐसा प्रश्न होने पर उक्त गाथासूत्र इसका निषेध करनेके लिये आया है। तात्पर्य यह है उपशमसम्यक्त्वके कालमें ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी संक्रमद्वारा सत्ता प्राप्त होती है, अन्य भावके कालमें नहीं। अब यदि कोई यह प्रश्न करे कि जिस प्रकार मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वका बन्धक होता है उस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वका या सम्यक्त्वके उदयसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वका संक्रामक (कर्मबन्धक ) होता है क्या ? तो इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये उक्त गाथासूत्रमें यह कहा गया है कि सम्यग्मिध्यादष्टि जीव दर्शनमोहरूप सम्यग्मिथ्यात्वका अबन्धक है। उसी भी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहरूप सम्यक्त्वका अबन्धक है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उक्त तीनों प्रकृतियोंका क्षय कर चुका है, इसलिए वह इनका अबन्धक होता ही है। फिर भी मन्दबुद्धि शिष्योंको ज्ञान करानेके लिये गाथासूत्र में इस विषयका अलगसे विधान किया है। . सभी दर्शनमोहनीय कर्मोका उदयाभावरूप उपशम होनेसे वे अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहते हैं। उसके बाद तीनोंमेंसे किसी एक कर्मका नियमसे उदय होता है ॥९-१०३॥
६२०४. यह गाथा दर्शनमोहनीय कर्मके सर्वोपशमसे अवस्थान कालके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये आई है। यथा-यहाँ गाथासूत्रमें 'अंतोमुहुत्तमद्धं' ऐसा कहने पर अन्तरायामका संख्यातवाँ भागप्रमाण काल लेना चाहिए।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०३ ] दसणमोहोवसामणा
३१५ वुत्ते सव्वेसि दंसणमोहणीयकम्माणमुवसमेणे त्ति घेत्तव्वं, मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं तिण्णं पि कम्माणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविहत्ताणमेत्थुवसंतभावेणावट्ठाणदंसणादो । 'तत्तो परमुदयो खलु ततः परं दर्शनमोहभेदानां त्रयाणां कर्मणामन्यतमस्य नियमेनोदयपरिप्राप्तिरित्युक्तं भवति । तदो उवसंतद्धाए खीणाए तिण्हं कम्माणमण्णदरं जं वेदेदि तमोकड्डियणुदयावलियं पवेसेदि, असंखेजलोगपडिभागेण उदयावलियबाहिरे च एगगोवुच्छसेढीए णिक्खेवं करेइ । सेसाणं च दोण्हं कम्माणमुदयावलियबाहिरे एगगोवुच्छायारेण णिक्खेवं करेइ । एवं तिण्हमण्णदरस्स कम्मस्स उदयपरिणामेण मिच्छाइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी वेदयसम्माइट्टी वा होदि त्ति एसो गाहापच्छद्धे सुत्तत्थसमुच्चओ।
२०५. संपहि अणादियमिच्छाइट्ठी सम्मत्तमुप्पाएमाणो णियमा तिण्णि वि करणाणि कादूण सव्वोवसमेणेव परिणदो सम्मत्तमुप्पाएदि । सादियमिच्छाइट्ठी वि जो
समाधान-पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्वसे जाना जाता है।
गाथासूत्रमें 'सव्वोवसमेण' ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मोके उपशमसे ऐसा प्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे विभक्त मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कमोंका यहाँ पर उपशान्तरूपसे अवस्थान देखा जाता है । 'तत्तो परभुदयो खलु' अर्थात् उसके बाद दर्शनमोहके भेदरूप तीनों कर्मोंमेंसे किसी एकके नियमसे उदयकी प्राप्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसके बाद उपशान्त कालके क्षीण होने पर तीनों कोंमेंसे अन्यतर जिस कर्मका वेदन करता है उसको अपकर्षण कर उदयावलिमें प्रविष्ट करता है तथा असंख्यात लोकके प्रतिभागरूपसे उदयावलिके बाहर एक गोपुच्छाकार पंक्तिरूपसे निक्षेप करता है। तथा शेष दोनों कर्मोंका उदयावलिके बाहर एक गोपुच्छाकाररूपसे निक्षेप करता है । इस प्रकार तीनोंमेंसे किसी एक कर्मका उदयपरिणाम होनेसे मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि होता है इस प्रकार यह गाथाका उत्तरार्धसम्बन्धी सूत्रके अर्थका समुच्चय है।
- विशेषार्थ-इस गाथासूत्रमें दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियाँ कितने काल तक उपशान्त रहती हैं और उसके बाद इन तीनों प्रकृतियोंका क्या होता है इस बातका विचार करते हुए बतलाया गया है कि ये तीनों प्रकृतियाँ अन्तरायामके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशम होनेसे उपशान्त रहती हैं । गाथामें सर्वोपशम पाठ आया है। उसका इतना ही तात्पर्य है कि उपशम सम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीयकी सब प्रकृतियोंका उदयाभावरूप उपशम होता है। दर्शनमोहनीयकी सब प्रकृतियोंसम्बन्धी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश चारों ही अन्तर्मुहूर्त काल तक उदयके अयोग्य हो जाते हैं यही यहाँ सर्वोपशम है। उसके बाद तीनोंमेंसे किसी एक प्रकृतिका नियमसे उदय होता है। जिसका उदय होता है उसका उदय समयसे अपकर्षण होकर निक्षेप होता है और जिन दो प्रकृतियोंका उदय नहीं होता उनका उदयावलिके बाहर अपकर्षण होकर निक्षेप होता है।
$ २०५. अब अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ नियमसे तीनों ही करणोंको करके सर्वोपशमरूपसे ही परिणत होकर सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है तथा सादि
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सम्मत्ताणियोगहारं १० विपकिट्ठतरेण सम्मत्तमुप्पाएइ सो वि सव्वोवसमेणेव सम्मत्तं समुप्पाएदि । तदण्णो पुण देस-सव्वोवसमेहिं भजियव्वो त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरं गाहासुत्तमुवइ8
(५१) सम्मत्तपढमलंभो सब्वोवसमेण तह विय?ण। .
भजियव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥१०४॥
६ २०५ जो सम्मत्तपढमलंभो अणादियमिच्छाइट्ठिविसओ सो सव्वोवसमेणेव होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो । 'तह वियद्वेण' मिच्छत्तं गंतूण जो बहुअं कालमंतरिदण सम्मत्तं पडिवज्जइ सो वि सव्वोवसमेणेव पडिवज्जइ। एदस्स भावत्थी-सम्मत्तं घेत्तूण पुणो मिच्छत्तं पडिवज्जिय सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण वा अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालेण वा जो सम्मत्तं पडिवाइ, सो वि सव्वोवसमेणेव पडिवाइ त्ति भणिदं होइ । 'भजियव्वो य अभिक्खं' जो पुण सम्मत्तादो परिवडिदो संतो लहुमेव पुणो पुणो सम्मत्तग्गहणाभिमुहो होइ सो सव्योवसमेण वा देसोवसमेण वा सम्मत्तं पडिवज्जइ । किं कारणं ? जइ वेदगपाओग्गकाल
भतर चेव सम्मत्तं पडिवज्जइ तो देसोवसमेण अण्णहा वुण सव्वोवसमेण पडिवजह मिथ्यादृष्टि जीव भी विप्रकृष्ट अन्तरसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है वह भी सर्वोपशमद्वारा ही सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। उससे अन्य जीव तो देशोपशम और सर्वोपशमरूपसे भजनीय है इस तरह इस प्रकारके अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिए आगेके गाथासूत्रका उपदेश दिया है
सम्यक्त्वको प्रथम लाभ सर्वोपशमसे ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीवके द्वारा भी सम्यक्त्वका लाभ सर्वोपशमसे ही होता है। किन्तु शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव सर्वोपशम और देशोपशमसे भजनीय है ॥ १०-१०४ ॥
२०५. जो अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका प्रथम लाभ होता है वह सर्वोपशमसे ही होता है, क्योंकि उसके अन्य प्रकारसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । 'तह विय?ण' अर्थात् मिथ्यात्वको प्राप्त कर जो बहुत कालका अन्तर देकर सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशमसे ही प्राप्त करता है। इसका भावार्थ-सम्यक्त्वको ग्रहण कर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालद्वारा या अर्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालद्वारा जो सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशमसे ही प्राप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'भजियव्यो य अभिक्खं' अर्थात् जो सम्यक्त्वसे पतित होता हुआ शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्वके ग्रहणके अभिमुख होता है वह सर्वोपशमसे अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, क्योंकि यदि वह वेदक प्रायोग्य कालके भीतर ही सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो देशोपशमसे अन्यथा सर्वोपशमसे
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०५] दसणमोहोवसामणा
३१७ त्ति तत्थ भयणिज्जत्तदंसणादो। तत्थ सव्वोवसमो णाम तिण्हं कम्माणमुदयाभावो सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदओ देसोवसमो त्ति भण्णदे । (५२) सम्मत्तपढमलंभस्साणंतरं पच्छदो य मिच्छत्त।
लंभस्स अपढमस्स दु भजियव्वो पच्छदो होदि ॥१०५॥
$२०६. एसा गाहा सम्मत्तं गेण्हमाणस्साणंतरं पच्छदो मिच्छत्तोदयणियमो किमत्थि आहो पत्थि त्ति पुच्छाए णिण्णयकरणट्ठमागया। एदिस्से अत्थो उच्चदे । तं जहा–सम्मत्तस्स जो पढमलंभो अणादियमिच्छाइडिविसओ तस्साणंतरं पच्छदो अणंतरपच्छिमावत्थाए मिच्छत्तमेव होइ, तत्थ जाव पढमहिदिचरिमसमओ त्ति ताव मिच्छत्तोदयं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। 'लभस्स अपढमस्स दु' जो खलु अपढमो सम्मत्तपडिलंभो तस्स पच्छदो मिच्छत्तोदयो भजियव्वो होह। सिया मिच्छाइट्ठी होदूण वेदयसम्मत्तमुवसमसम्मत्तं वा पडिवज्जइ, सिया सम्मामिच्छाइट्ठी होदण वेदयसम्मत्तं पडिवज्जइ त्ति भावत्थो।
प्राप्त करता है इस प्रकार वहाँ भजनीयपना देखा जाता है। उनमेंसे तीनों कर्मोंके उदयाभावका नाम सर्वोपशम है और सम्यक्त्व देशघाति प्रकृतिके स्पर्धकोंका उदय देशोपशम कहलाता है ।
विशेषार्थ—इस गाथासूत्र में किसीके कौन सम्यक्त्व होता है इसका विधान किया गया है। अनादि मिथ्यादृष्टिके और जिसका वेदककाल व्यतीत हो गया है ऐसे किसी भी सादि मिथ्यादृष्टिके सर्वोपशमसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी ही प्राप्ति होती है। किन्तु जो सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक कालके भीतर अवस्थित है ऐसा सादि मिथ्यादृष्टि जीव देशोपशमसे वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त करता है । शेष कथन सुगम है।
सम्यक्त्वके प्रथम लाभके अनन्तर पूर्व पिछले समयमें मिथ्यात्व ही होता है । अप्रथम लाभके अनन्तर पूर्व पिछले समयमें मिथ्यात्व भजनीय है ॥ ११-१०५॥
5२०६. यह गाथा सम्यक्त्वको प्रहण करनेवाले जीवके अनन्तर पूर्व पिछले समयमें क्या मिथ्यात्वका उदय है अथवा नहीं है ऐसी पृच्छा होने पर उसका निर्णय करनेके लिए आई है । अब इसका अर्थ कहते हैं । यथा-अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वका जो प्रथम लाभ होता है उसके 'अणंतरं पच्छदों' अर्थात् अनन्तरपूर्व पिछली अवस्था में मिथ्यात्व ही होता है, क्योंकि उसके प्रथम स्थितिका अन्तिम समय प्राप्त होने तक मिथ्यात्वके उदयको छोड़ कर प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। 'लंभस्स अपढमस्स दु' अर्थात् जो नियमसे अप्रथम अर्थात् द्वितीयादि बार सम्यक्त्वका लाभ है उसके अनन्तरपूर्व पिछली अवस्थामें मिथ्यात्वका उदय भजनीय है। कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व या उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है और कदाचित् सम्यग्मिथ्यादष्टि होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है यह उक्त गाथासूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ-इस गाथासूत्रमें जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव पहली बार सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके अनन्तरपूर्व पिछली अवस्थामें कौनसा भाव होता
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ २०७. संपहि दंसणमोहोव सामणासंबंधेण दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स कदमम्मि अवत्थाविसेसे कथं संकमो होइ ण होइ ति एत्थ एवंविहस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमुवणं
३१८
(५३) कम्माणि जस्स तिण्णि दु णियमा सो संकमेण भजियव्वो एयं जस्स दु कम्मं संकमणे सो ण भजियव्वो ॥ १०६ ॥
1
हैं तथा जो सादि मिध्यादृष्टि द्वितीयादि बार सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करने के अनन्तर पूर्व पिछली अवस्था में कौनसा भाव होता है इसका विधान किया गया है । गाथा पूर्वार्ध में 'अनंतरं पच्छदो' पाठ आया है तथा उत्तरार्ध में मात्र 'पच्छदो' शब्द आया है । इनमें से 'अणंतरं' पाठ तो ऐसा है जिसे अन्य पदके साथ विवक्षित भावसे आंगेके भावको सूचित करनेके लिये भी लागू किया जा सकता है और अन्य पदके साथ विवक्षित भावसे पिछले भावको सूचित करनेके लिये भी लागू किया जा सकता है। जैसे 'अनन्तर पिछला' कहने से अव्यवहित पूर्व पिछले भावका ग्रहण होता है और 'अनन्तर उत्तर' कहनेसे अव्यवहित उत्तर भावका ग्रहण होता है । 'अनन्तर' पद स्वयं न तो पिछले भावको सूचित करता है और न ही उत्तर भावको । अतः प्रकृतमें 'पच्छदो' पाठका क्या अर्थ है इसका आगममें प्रयुक्त हुए 'पच्छ' तथा 'पच्छिम' शब्दोंका वहाँ जो अर्थ लिया गया है उसे ध्यानमें रख कर विचार होना चाहिए | इसके लिये सर्व प्रथम हम तीन आनुपूर्वियोंको लेते हैं। इनमें एक 'पच्छाणुपुब्वी' भी है । इस द्वारा गणना करनेपर अन्तिम भावसे गणनाक्रमसे पिछले भाव लिये जाते हैं । यहाँ 'पच्छ' शब्द गणनाक्रम से आगेके भावोंकी अपेक्षा पिछले भावोंको सूचित करता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी 'अनंतरं पच्छदों' का अर्थ करने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्वसे अव्यवहितपूर्व पिछले भावका ही ग्रहण होगा। इससे यह अर्थ सुतरां फलित हो जाता है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से अव्यवहित पूर्व पिछले समय में एकमात्र मिथ्यात्व भाव ही होता है । प्रथमोपशमके बाद कौन भाव होता है इसका सूचन करना इस गाथाका तात्पर्य नहीं है । इसका सूचन गाथा क्रमांक १०३ में पहले ही सूत्रकार कर आये हैं । तथा 'पच्छिम' शब्दको ध्यान में रख कर विचार करने पर भी यही अर्थ फलित होता है । उदाहरणार्थ जयधवला पु० ६ पृ० १६७ और २८३ के चूर्णिसूत्रों पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उन सूत्रोंमें 'अन्तिम' अर्थको सूचित करनेके लिये 'अपच्छिम' शब्दका प्रयोग हुआ है, 'पच्छिम' शब्दका नहीं। स्पष्ट है कि 'पच्छिम' शब्द विवक्षित भावसे पिछले भावको ही सूचित करता है। उक्त गाथामें आये हुए 'पच्छदो' शब्दका भी यही आशय लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है ।
$ २०७. अब दर्शनमोहकी उपशामनाके सम्बन्धसे दर्शनमोहनीय कर्मका किस अवस्थाविशेष में किस प्रकार संक्रम होता है अथवा नहीं होता है इसप्रकार इस अर्थविशेषका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेका गाथासूत्र आया है
जिस जीवके दर्शनमोहके तीन या दो कमें सत्तामें होते हैं वह नियमसे संक्रमकी अपेक्षा भजनीय है । किन्तु जिस जीवके एक ही कर्म सत्तामें होता है वह संक्रमकी अपेक्षा भजनीय नहीं है ।। १२-१०६ ।।
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०६ ]
दंसणमोहोवसामणा
३१९
$ २०८. अस्य गाथासूत्रस्यार्थ उच्यते— जस्स जीवस्स तिणि कम्माणि मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसण्णिदाणि, 'दु' सद्देण दोण्णि वा मिच्छत्त-सम्मत्ताणमण्णदरेण विणा जस्सत्थि सो णियमा णिच्छएण संकमेण भजियव्वो, सिया दंसणमोहस्स संकामओ होइ, सिया च ण होइ ति तत्थ भयणाए फुडमुवलंभादो । तं जहा – मिच्छाइट्ठि-सम्माहट्ठीसु तिण्णि संतकम्माणि होदूण दोन्हं संक्रमो भवदि, सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताणं च जहाकमं तत्थ संकंतिदंसणादो । पुणो सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइडीसु तिण्णि संतकम्माणि होदूण तत्थेगस्स विदंसणमोहम्मस्स संकमो त्थि, तत्थ तस्संकमणसत्तीए अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो । तहा सम्मत्तमुव्वेल्लेमाणस्स जाघे आवलियपविहं ताघे मिच्छाइट्ठिस्स तिणि संतकम्माणि होगस्सेव संकमो होइ । मिच्छत्तं वा खविजमाणं जाघे उदयावलियबाहिरं सव्वं खविदं ताघे सम्मादिट्ठिम्मि तिन्हं संतकम्मं होणेक्कस्सेव संकमो होइ । एदेण कारणेण दंसणमोहणीयस्स तिविहसंतकम्मिओ सिया दोन्हं एक्किस्से वा संकामओ होइ, सिया कस्स वि संकामओ त्ति भयणीयत्तं सिद्धं ।
$ २०९. संपहि दुविहसंतकम्मियस्स संकमावेक्खाए भयणिजत्तं वुच्चदे, खविदमिच्छत्त-वेदगसम्माइट्ठिम्मि सम्मत्तं वा उब्वेल्लेयूण ट्ठिदमिच्छाइट्टिम्मि दोणि संतकम्माण होणेकस्स संकमो भवदि जाव सम्मामिच्छत्त खविज्जमाणमुव्वेल्लिज्जमाणं
$ २०८. अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं - जिस जीवके मिथ्यात्व, सम्यक् सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञावाले तीन कर्म तथा गाथामें पठित 'तु' शब्द द्वारा सूचित जिस जीवके मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इनमें से किसी एकके विना दो कर्म हैं वह 'णियमा' अर्थात् निश्चयसे संक्रमकी अपेक्षा भजितव्य है, कदाचित् दर्शनमोहका संक्रामक होता है और कदाचित् नहीं होता है इसप्रकार वहाँ भजितव्यपनेकी स्पष्टरूपसे उपलब्धि होती है । यथा - मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीन सत्कर्म होकर दोका संक्रम होता है, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मि - ध्यात्वका तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका वहाँ क्रमसे संक्रम देखा जाता है। किन्तु सासादनं सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में तीनों कर्मोंकी सत्ता होकर वहाँ एक भी दर्शनमोहनीय कर्मका संक्रम नहीं होता, क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों में संक्रमण शक्तिका अत्यन्त अभाव होनेसे वहाँ उनका संक्रमण प्रतिषिद्ध है । तथा उद्वेलना करनेवाले जीवके जब सम्यक्त्व उदयावलि में प्रविष्ट होता है तब मिथ्यादृष्टि जीवके तीन सत्कर्म होते हुए भी एकका ही संक्रम होता है। अथवा क्षयको प्राप्त होता हुआ उदयावलिके बाहर का सब मिथ्यात्व कर्म जब क्षयको प्राप्त हो जाता है तब सम्यग्दृष्टि जीवके तीन कर्मोंकी सत्ता होते हुए एकका ही संक्रम होता है। इस कारण से दर्शनमोहनी की तीन प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव कदाचित् दोका और कदाचित् एकका संक्रामक है तथा कदाचित् एकका भी संक्रामक नहीं होता, इसलिये भजनीयपना सिद्ध होता है।
६ २०९. अब दोकी सत्तावालेके संक्रमकी अपेक्षा भजनीयपनेका कथन करते हैंजिसने मिथ्यात्वका क्षय किया है ऐसे वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके अथवा सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके स्थित हुए मिथ्यादृष्टि जीवके दो कर्मोंकी सत्ता होकर एकका संक्रम तबतक होता है।
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दार १० वा अणावलियपविट्ठति आवलियपविट्ठसम्मामिच्छत्तस्स वुण सम्माइडिस्स मिच्छाइटिस्स वा दुविहसंतकम्मियस्स एक्कस्स वि संकमो णत्थि । तदो एत्थ वि संकमेण भयणिजत्तं सिद्धं । 'एयं जस्स दु कम्म' एवं भणिदे जस्स सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइडिस्स वा खवणुव्वेन्लणावसेण सम्मत्त वा मिच्छत्तं वा एक्कमेव संतकम्मवसिटुं ण सो संक्रमण भयणिज्जो, संकमभंगस्स तत्थ अच्चंताभावेण असंकामगो चेव सो होइ ति भणिदं होइ। जबतक क्षयको प्राप्त होता हुआ या उद्वलनाको प्राप्त होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्व कर्म उदयावलिमें प्रविष्ट नहीं हुआ है। किन्तु जिसके सम्यग्मिथ्यात्व कर्म उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाता है ऐसे दो प्रकारके कर्मोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके एकका भी संक्रम नहीं होता, इसलिये यहाँ पर भी संक्रमकी अपेक्षा भजनीयपना सिद्ध हुआ। 'एयं जस्स दु कम्म' ऐसा कहने पर जिस सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके झपणावश और उद्वलनावश क्रमसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व एकही सत्कर्म शेष रहता है वह संक्रमकी अपेक्षा भजनीय नहीं है, क्योंकि उसके संक्रमरूप विकल्पका अत्यन्त अभाव होने से वह असंक्रामक ही होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ—इस गाथासूत्रमें दर्शनमोहनीयकी तीन, दो या एक कर्मकी सत्तावाले जीवके कहाँ कितनेका संक्रम होता है या नहीं होता है इसका विचार किया गया है। यहाँ टीका में यह सब विस्तारसे स्पष्ट किया ही है, इसलिये यहाँ मात्र कोष्टक दे देना चाहते हैं। यथास्वामी
संक्रम या असंक्रम १ मिथ्यादृष्टि ३ की सत्ता
२ का-सम्यक्त्व और
सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम , (सम्यक्त्व उदयावलिप्रविष्ट १का-सम्यग्मिथ्यात्वका
संक्रम सम्यक्व विना २ की सत्ता
, (सम्यग्मिथ्यात्व उ. आ. प्र.) संक्रम नहीं
१ मिथ्यात्वकी सत्ता ६ सासादन
३ को सत्ता ७ सम्यमिथ्यादृ० सम्यग्दृष्टि
२का-मिथ्यात्व और
सम्यग्मिथ्यात्वका सं० १का-सम्यग्मिथ्यात्वका
संक्रम मिथ्यात्व विना दो को सत्ता २ की सत्ता (सम्यग्मिथ्यात्व आ.प्र.) संक्रम नहीं
१ सम्यक्त्वकी सत्ता १. ता०प्रतो आवलियपविट्ठ इति पाठः ।
सत्ता
"
.
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०७ ]
दंसणमोहोव सामणा
(५४) सम्माइट्ठी सद्दहदि पवयणं णियमसा दु उवइट्ठ ं । सहदि अभाव अजाण माणो गुरुणिओगा ॥ १०७॥
$ २१०. एदस्स सम्माइट्ठिलक्खणविहाणद्रुमवइण्णस्स गाहासुत्तस्स अत्थविवरणं कस्साम । तं जहा — सम्माइट्ठी जो जीवो सो नियमसा दु णिच्छएणेव पवयणमुवइडुं सद्दहदि ति गाहापुव्वद्धे पदाहिसंबंधो । तत्थ पवयणमिदि वृत्ते पयरिसजुत्तं वयणं पवणं सव्वusोवएसो परमागमो ति सिद्धंतो त्ति एयट्ठो, तत्तो अण्णदरस्स पयरिसजुत्तस्स वयणस्साणुवलंभादो । तदो एवंविहं पवयणमुवइटुं सम्माइट्ठी जीवो णिच्छएण सद्दहइ ति सुत्तत्थसमुच्चओ । 'सहहह असम्भावं ' एवं भणिदे असन्भूदं पि अत्थं सम्माइट्ठी जीवो गुरुवयणमेव पमाणं काढूण सयमजाणमाणो संतो सद्दहदि ति भणिदं होदि । एदेण आणासम्मत्तस्स लक्खणं परूविदमिदि घेत्तव्वं । कथं पुनरसद्भूतमर्थ - मज्ञानात् प्रतिपद्यमानः सम्यग्दृष्टिरिति चेत् ? न, परमागमोपदेश एवायमित्यध्यवसायेन तथा प्रतिपद्यमानस्यानवबुद्धपरमार्थस्यापि तस्य सम्यग्दृष्टित्वाप्रच्युतेः । यदि पुनः सूत्रान्तरेणाविसंवादिना समयविद्भिर्याथात्म्येन प्रज्ञाप्यमानमपि तमर्थमसद्ग्रहान्न श्रद्धान करता है । तथा स्वयं न श्रद्धान करता है ।। १०७ ॥
सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका नियमसे जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भूत अर्थका भी
३२१
$ २१०. सम्यग्दृष्टिके लक्षणका कथन करनेके लिये आये हुए इस गाथासूत्रके अर्थका कथन करेंगे । यथा—जो सम्मदृष्टि जीव है वह 'णियमसा' निश्चय से ही उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान करता है इसप्रकार गाथाके पूर्वार्ध में पदोंका सम्बन्ध है । उनमेंसे 'पवणं' ऐसा कहने पर उसका अर्थ है - प्रकर्ष युक्त वचन । प्रवचन अर्थात् सर्वज्ञका उपदेश, परमागम और सिद्धान्त यह एकार्थवाची शब्द हैं, क्योंकि उससे अन्यतर प्रकर्षयुक्त वचन उपलब्ध नहीं होता । अतः इस प्रकार के उपदिष्ट प्रवचनका सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयसे श्रद्धान करता
इस प्रकार सूत्रार्थका समुच्चय है । 'सहहइ असम्भाव' ऐसा कहने पर असद्भूत अर्थका भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचनको ही प्रमाण करके स्वयं नहीं जानता हुआ श्रद्धान करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस गाथासूत्र वचन द्वारा आज्ञा सम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
शंका—अज्ञानवश असद्भूत अर्थको स्वीकार करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
समाधान — यह परमागमका ही उपदेश है ऐसा निश्चय होनेसे उस प्रकार स्वीकार करनेवाले उस जीवको परमार्थका ज्ञान नहीं होने पर भी सम्यग्दृष्टिपनेसे च्युति नहीं होती ।
यदि पुनः कोई परमागमके ज्ञाता विसंवाद रहित दूसरे सूत्र द्वारा उस अर्थार्थ
१ ता० प्रती पयरिमंजुत्तं इति पाः ।
४१
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोग द्दारं १०
प्रतिपद्यते तदाप्रभृति स एव जीवो मिध्यादृष्टिपदवीमवगाहते, प्रवचनविरुद्धबुद्धित्वादित्येष समयनिश्चयः । तथा चेक्तं
सुत्तादोतं सम्मं दरिसिज्जत्तं जदा ण सद्दहदि ।
सो चेब हवइ मिच्छाइट्ठि त्ति तदो पहुडि जीवो ॥ १ ॥ इति । ततः सूक्तमाज्ञाधिगमाभ्यां प्रवचनोपदिष्टार्थाऽवैपरीत्यश्रद्धानं सम्यग्दृष्टिलक्षणमिति ।
(५५) मिच्छाइट्ठी णियमा उवइट्ठ' पवयणं ण सदहदि ।
सहदि असम्भावं उवइट्ठ वा अणुवइट्ठ ॥ १०८ ॥
१ २११. एदस्स मिच्छाइट्ठिलक्खण परूवणट्टमागयस्स गाहासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । जहा - जो खलु मिच्छाइट्ठी जीवो सो णियमा णिच्छएण पवयणमुवइङ्कं ण सद्दहदि ।
रूपसे बतलावें फिर भी वह जीव असत् आग्रहवश उसे स्वीकार करता है तो उस समय से लेकर वह जीव मिथ्यादृष्टि पदका भागी हो जाता है, क्योंकि वह प्रवचन विरुद्ध बुद्धिवाला है यह परमागमका निश्चय है । कहा भी है—
सूत्रसे समीचीनरूपसे दिखलाये गये उस अर्थका जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता है उस समय से लेकर वही जीव मिथ्याष्टि हो जाता है ॥ १ ॥
इसलिये यह ठीक कहा है कि प्रवचनमें उपदिष्ट हुए अर्थका आज्ञा और अधिगमसे विपरीतताके विना श्रद्धान करना सम्यग्दृष्टिका लक्षण है ।
विशेषार्थ -- इस गाथासूत्रमें जो यह बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीब सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो नियमसे श्रद्धान करता है । किन्तु कदाचित् स्वयं न जानता हुआ गुरुके निमित्तसे असद्भूत अर्थका भी श्रद्धान करता है । सो उसका यह अर्थ नहीं है कि सम्यग्दृष्टि जीवको जीवादि नौ पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको छोड़कर गुरुके निमित्तसे विपरीतरूपसे भी उनकी श्रद्धा हो जाती है । किन्तु उक्त कथनका इतना ही तात्पर्य है कि जिनागम में जिन सूक्ष्म अर्थोंका विवेचन हुआ है, कदाचित् गुरुके निमित्तसे उनमें से किसी एकका विपरीत ज्ञान हो जाय और अविसंवादी शास्त्रान्तरसे जब तक सम्यक् अर्थकी प्रतिपत्तिका योग न मिले तब तक वह वैसी श्रद्धा करता हुआ भी सम्यग्दृष्टि ही है । हाँ यदि समयज्ञ कोई विशेष ज्ञानी अविसंवादी दूसरे शास्त्रसे उसे उक्त विषयका सम्यक् परिज्ञान करा दे, फिर भी वह असत् आग्रह वश अपनी हट न छोड़े तो उस समय से लेकर वह नियमसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है ऐसा यहाँ स्पष्टरूप से समझना चाहिए ।
मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे उपदिष्ट प्रवचनका 'श्रद्धान नहीं करता है तथा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असदुद्भत अर्थका श्रद्धान करता है ॥ १०८ ॥
$ २११. मिथ्यादृष्टिके लक्षणका कथन करनेके लिये आये हुए इस गाथासूत्रके अर्थका कथन करते हैं । यथा— जो नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव है वह 'णियमा' निश्चयसे उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता है ।
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०८] दसणमोहोवसामणा
___३२३ किं कारणमिदि चे ? दंसणमोहणीयोदयजणिदविवरीयाहिणिवेसत्तादो। तदो चेव 'सद्दहइ असब्भाव', असद्भुतमेवार्थमपरमार्थरूपमयं श्रद्दधाति मिथ्यात्वोदयादित्यर्थः । 'उवइ8 वा अणुवइटुं' उपदिष्टमनपदिष्टं वा दुर्मार्गमेष दर्शनमोहोदयाच्छद्दधातीति यावत् । एतेन व्युद्ग्राहितेतरभेदेण मिथ्यादृशो द्वैविध्यं प्रतिपादितमिति द्रष्टव्यं । उक्तं च
मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होइ। ण य धम्म रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥ २॥ तं मिच्छत्तं जमसदहणं तच्चाण होइ अत्थाणं ।
संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं ति तं तिविहं ॥ ३ ॥ इति । शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान-क्योंकि वह दर्शनमोहनीयके उदयसे विपरीत अभिनिवेशवाला होता है।
और इसीलिये 'सहहइ असब्भाव' अपरमार्थस्वरूप असद्भूत अर्थका ही मिथ्यात्वके उदयवश यह श्रद्धान करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'उवइह वा अणुवइह' अर्थात् उपदिष्ट या अनुपदिष्ट दुर्मार्गका ही दर्शनमोहके उदयसे यह श्रद्धान करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस गाथासूत्र वचन द्वारा व्यग्राहित और इतरके भेदसे मिथ्यादृष्टि के दो भेदोंका प्रतिपादन किया गया जानना चाहिए। कहा भी है
मिथ्यात्वका अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला होता है। जैसे ज्वरसे पीड़ित मनुष्यको मधुर रस नहीं रुचता है वैसे ही उसे रत्नत्रय धर्म नहीं रुचता है॥२॥
__ जो जीवादि नौ तत्त्वार्थोंका अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है । संशयिक, अभिग्रहीत और अनभिग्रहीत इस प्रकार वह तीन प्रकारका है॥३॥
पार्थ—इस गाथासूत्रमें मिथ्यादृष्टि जीवके स्वरूपका निरूपण किया गया है। पहले 'प्रवचन शब्दके अर्थका स्पष्टीकरण कर आये हैं। जो सर्वज्ञदेवका उपदेश है वही प्रवचन कहलानेका अधिकारी है, अन्य नहीं। यतः मिथ्यादृष्टि जीव परमार्थके ज्ञानसे रहित होता है, अतः उसके प्रवचनका श्रद्धान किसी भी अबस्थामें नहीं बन सकता। वह कुमागियोंके द्वारा उपदिष्ट हो या अनुपदिष्ट हो, मिथ्या मार्गका अवश्य ही श्रद्धान करता रहता है, इसलिये उसे मिथ्या मार्ग ही रुचता है, सम्यग्मार्ग नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँ ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके तीन भेद किये गये हैं-संशयिक मिथ्यादृष्टि, अभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि
और अनभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि । जीवादि नौ पदार्थ हैं या नहीं हैं इत्यादि रूपसे जिसका श्रद्धान दोलायमान हो रहा है वह संशयिक मिथ्यादृष्टि जीव है। जो कुमागियोंके द्वारा उपदेशे गये पदार्थोंको यथार्थ मान कर उनकी उस रूपमें श्रद्धा करता है वह अभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि जीव है और जो उपदेशके विना ही विपरीत अर्थकी श्रद्धा करता आ रहा है वह अनभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि जीव है।
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सम्मत्ताणियोगदार १० (५६) सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो।
अध वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्वो ॥१५-१०९॥
$ २१२. सम्यग्मिथ्यादृष्टेलक्षणविधानं सुबोधमिति न तस्येह प्ररूपणं क्रियते, किंतु तदुपयोगविशेषप्ररूपणार्थमेतत्सूत्रमारब्धं । तद्यथा-जो सम्मामिच्छाइट्ठी जीवो सागारोवजुत्तो वा होइ, अणागारोवजुत्तो वा, दोहिं मि' उवजोगेहि तग्गुणपडिवत्तीए विरोहाभावादो। एदेण दंसणमोहोवसामणाए पयट्टमाणस्स पढमदाए जहा सागारोवजोगणियमो एवमेत्य पत्थि ति णियमो, किंतु दोहिं मि उवजोगेहिं सम्मामिच्छत्तगुणं पडिवज्जइ त्ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो । अधवा पडिवण्णसम्मामिच्छत्तगुणो सगकालभंतरे सागारोवजुत्तो वा होइ, अणागारोवजुत्तो वा ति सुत्तत्थो गहेयव्वो, णाण-दंसणोवजोगाणं दोण्हं पि तग्गुणकालब्भंतरे कमेण परावत्तणे विरोहाणुवलंभादो। एदेण गाण-दसणोवजोगकालादो सम्मामिच्छाइद्विगुणकालस्स बहुत्तं सूचिदमिदि दहव्वं । 'अध वंजणोग्गहम्हि दु' इच्चादि । अथेति पादपूरणार्थो निपातः वंजणोग्गहम्मि दु, विचारपूर्वकार्थग्रहणावस्थायामित्यर्थः। व्यंजनशब्दस्यार्थविचारवाचिनो
सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव साकारोपयोगवाला भी होता है तथा अनाकारोपयोगवाला भी होता है। किन्तु व्यञ्जनावग्रहमें अर्थात् विचारपूर्वक अर्थ ग्रहणकी अवस्थामें वह साकारोपयोगवाला ही होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिए ॥ १०९-१५ ॥
२१२. सम्यग्मिध्यादृष्टिके लक्षणका कथन सुबोध है, इसलिये उसका यहाँ पर कथन नहीं करते हैं, किन्तु उसके उपयोग विशेषोंका कथन करनेके लिये इस सूत्रका प्रारम्भ किया है। यथा-जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है वह या तो साकार उपयोगवाला होता है या अनाकार उपयोगवाला होता है, क्योंकि दोनों ही उपयोगोंके साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुणकी प्राप्ति होनेमें विरोधका अभाव है। इस वचन द्वारा दर्शनमोहकी उपशामनामें प्रवृत्त हुए जीवके प्रथम अवस्था में जिस प्रकार साकारोपयोगका नियम है उस प्रकार यहाँ पर नियम नहीं है। किन्तु दोनों ही उपयोगोंके साथ सम्यग्मिथ्यात्वगुणको प्राप्त होता है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान कराया गया है। अथवा जिसने सम्यग्मिथ्यात्व गुणको प्राप्त किया है वह अपने कालके भीतर साकार उपयोगसे उपयुक्त होता है या अनाकार उपयोगसे उपयुक्त होता है इस प्रकार सूत्रार्थको प्रहण करना चाहिए, क्योंकि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग इन दोनोंके ही उस गुणके कालके भीतर क्रमसे परिवर्तन होनेमें कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता। इससे ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके कालसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणका काल बहुव सूचित किया गया है ऐसा जानना चाहिए। 'अध वंजणोग्गहम्हि दु'। यहाँ 'अर्थ' यह पादपूर्तिके लिये निपात है। 'वंजणोग्गह म्हि दु' अर्थात् विचारपूर्वक अर्थ ग्रहणकी अवस्थामें यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि प्रकृतमें व्यञ्जन शब्द अर्थविचारवाची ग्रहण किया
१. ता. प्रत्स दोहिम्हि ( हिं पि ) इति पाठः ।
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा १०९] दसणमोहोवसामणा
३२५ ग्रहणात् । 'सागारो होइ बोद्धव्वो' तदवस्थायां ज्ञानोपयोगपरिणत एव भवति न दर्शनोपयोगपरिणत इति यावत् । कुतोऽयं नियम इति चेत १ न, अनाकारोपयोगेन सामान्यमात्रावग्राहिणा पूर्वापरपरामर्शशून्येनार्थविचारानुपपत्तितस्तत्र तथाविधनियमोपपत्तेः । एत्थ सुत्तपरिसमत्तीए पण्णारसण्हमंकविण्णासो किमटुं कदो ? दंसणमोहोवसामणाए पडिबद्धाओ एदाओ पण्णारस चेव गाहाओ, णादिरित्ताओ चि जाणावणहूँ ।
* एसो सुत्तप्फासो विहासिदो।
5 २१३. एवमेसो सुत्तप्फासो गाहासुत्ताणं सरूवणिद्देसो विहासिदो परूविदो त्ति भणिदं होदि । संपहि एत्थुद्देसे पुव्वमविहासिदो अण्णो अत्थो दसणमोहोवसामणासंबंधिओ एदेहिं चेव गाहासुत्तेहिं सूचिदो अत्थि त्ति तप्पदुप्पायणमुत्तरसुत्तमोइण्णंगया है। 'सागारो होइ बोद्धन्वो' अर्थात् उस अवस्थामें ज्ञानापयोगसे परिणत ही होता है, दर्शनोपयोगसे परिणत नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका—यह नियम किस कारण है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सामान्यमात्रग्राही अनाकारोपयोग पूर्वापरपरामर्शसे शून्य है, अतः उस द्वारा अर्थविचारकी उत्पत्ति न हो सकनेके कारण अर्थविचारके समय उस प्रकारका नियम बन जाता है।।
शंका-यहाँ पर सूत्रकी परिसमाप्ति होने पर '१५' अंकका विन्यास किसलिये किया है ?
समाधान—क्योंकि दर्शनमोहकी उपशमनामें प्रतिबद्ध ये पन्द्रह हो गाथाएं हैं, अधिक नहीं इसे बातका ज्ञान करानेके लिये यहाँ सूत्रकी परिसमाप्ति होने पर '१५' अंकका विन्यास किया है।
विशेषार्थ—यह दर्शनमोहकी उपशामनासे सम्बन्ध रखनेवाली अन्तिम गाथा है। इस द्वारा तीन अर्थोंको स्पष्ट किया गया है । १-सम्यग्मिथ्यात्व गुणकी प्राप्ति साकारोपयोगके कालमें भी सम्भव है और अनाकारोपयोगके कालमें भी सम्भव है। २-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें क्रमसे साकार और अनाकार दोनों उपयोगोंकी प्राप्ति सम्भव है। इससे प्रतीत होता है कि इन दोनों उपयोगोंके कालसे सम्यग्मिध्यात्व गुणस्थानका काल अधिक है । ३यहाँ अर्थविचारके समय ज्ञानोपयोग ही होता है, दर्शनोपयोग नहीं । शेष कथन सुगम है।
* इस प्रकार गाथासूत्रोंके स्वरूपका कथन किया।
5२१३ इस प्रकार यह सूत्रस्पर्श है अर्थात् गाथासूत्रोंका स्वरूपनिर्देश 'विहासिदो' अर्थात् कहा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब प्रकृतमें जिसका पहले व्याख्यान नहीं किया तथा जिसका इन गाथासून्नोंके द्वारा सूचन होता है ऐसा जो दर्शनमोहका उपशामनासम्बन्धी अन्य अर्थ है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
१. ता. प्रतौ सुत्तप्फासो विहासिदो गाहासुत्ताणं इति पाठः ।
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
* तदो उवसमसम्माइट्ठि - वेदयसम्माइट्ठि- सम्मामिच्छाइट्ठीहिं एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहिं भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहु चेदि ।
३२६
$ २१४. तदो सुत्तफासादो अणंतरमिदाणिं एयजीवेण सामित्तादीणि अप्पाबहुअपजवसाणाणि अणियोगद्दाराणि जहागममेत्थ णेदव्वाणि ति सुत्तत्थसंबंधो । ताणि पुण अणियोगद्दाराणि किंविसयाणि त्ति भणिदे सम्मत्तमग्गणावयवभूदउवसमसम्माइडिआदिविसयाणि त्ति जाणावणट्ठमुवसमसम्माइट्टि - वेदगसम्माइट्ठि- सम्मामिच्छाइट्ठीहिं ति णिeिs | देसि सम्माइट्टिभेदेहिं विसेसियाणि एदाणि अणियोगद्दाराणि दव्वाणि त्ति भणिदं होदि । एत्थ खइयसम्मादिट्ठीणं पि णिसो किमहं ण कीरदे १ ण, खइयसम्माइट्ठी मट्ठहिं अणियोगद्दारेहिं पुरदो दंसणमोहक्खवणाए भणिस्समाणत्तादो । तम्हा उवसमसम्माइ ट्ठि-वेदयसम्माइट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठीणमेदेहिं अणियोगद्दारेहिं देसामासयभावेण सूचिदभागाभाग परिमाण खेत्त - फोसणसहिदेहिं सवित्थरमेत्थ परूवणा कायव्वा, तप्परूवणाए विणा पयदत्थविसयणिण्णयाणुववत्तीदो । एदेसिं च परूवणा सुगमा ति ण एत्थ तप्पवंचो कीरदे ।
उसके बाद उपशमसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका आलम्बन लेकर एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व जानने चाहिए ।
$ २१४. ' तथा ' अर्थात् सूत्रस्पर्श के अनन्तर इस समय एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व से लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त अनुयोगद्वार आगमके अनुसार यहाँ कथन करने योग्य हैं यह सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । उन अनुयोगद्वारोंका विषय क्या है ऐसा पूछने पर सम्यक्त्व मार्गणा के अवयवरूप उपशमसम्यग्दृष्टि आदि विषय हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए सूत्रमें ‘उवसमसम्माइट्ठि-वेदगसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठीहिं' यह वचन कहा है । सम्यग्दृष्टि के इन भेदोंसे युक्त ये अनुयोगद्वार कहने चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- यहाँ पर क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका भी निर्देश किसलिए नहीं करते हैं ?
समाधान — नहीं, क्योंकि आठ अनुयोगद्वारोंके आलम्बनसे क्षायिक सम्यग्दष्टियोंका प्रयाख्यान आगे दर्शनमोहकी क्षपणा अनुयोगद्वार में करेंगे ।
इसलिए उपशमसम्यग्दष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी देशामर्षकरूपसे सूचित हुए भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन सहित इन अनुयोगद्वारोंके आलम्बनसे विस्तारके साथ यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि यह प्ररूपणा किये बिना प्रकृत अर्थविषयक निर्णय नहीं बन सकता । इनकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिये यहाँ पर उसका विस्तार नहीं करते हैं ।
•
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२७
गाथा १०९1.
दसणमोहोवसमणा २१५. संपहि पयदत्थोवसंहारकरणमुत्तरं सुत्तमाह
विशेषार्थ—यहाँ पर जिन अनुयोगद्वारोंका संकेत किया है उनके आलम्बनसे उपशमसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंका कुछ व्याख्यान करते हैं। इतना विशेष जानना कि उपशमसम्यक्त्वसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वका ही ग्रहण किया है। १ स्वामित्व-अपने-अपने भावसे युक्त जीव उपशमसम्यक्त्व आदिके स्वामी हैं। २ एक जीवकी अपेक्षा काल-उपशम सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। वेदक सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल छयासठ सागरोपमप्रमाण है। ३ अन्तर-(प्रथमोपशमकी अपेक्षा) उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, वेदक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर काल अन्तमुहर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन कालप्रमाण है। आगेके अनुयोगद्वार नाना जीवोंकी अपेक्षा हैं। ४ भंगविचय-उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं है, क्योंकि ये सान्तर मार्गणाएं हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सदा काल नियमसे हैं, क्योंकि यह निरन्तर मार्गणा है । ५ संख्या-उक्त तीनों मार्गणावाले जीव प्रत्येक पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । ६ क्षेत्र-(प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा) उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्वस्थानकी अपेक्षा वेदक सम्यग्दृष्टियोंका स्वस्थान, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदकी अपेक्षा तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका स्वस्थानकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके काल में मरण नहीं होता, इसलिए इनका क्षेत्र मात्र स्वस्थानकी अपेक्षा कहा है । ७ स्पर्शन-उपशमसम्यग्दृष्टि
और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और विहारवत्स्वस्थानको अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण है। वेदक सम्यग्दृष्टियों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतीत स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण है। तथा उपपादपदकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण है । ८ काल-उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा वेदकसम्यग्दृष्टियोंका काल सर्वदा है। ९ अन्तर-उपशमसम्यग्दृष्टियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा वेदकसम्यग्दृष्टियोंका अन्तरकाल नहीं है । १० भागाभाग-उपशमसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सब संसारी जीवराशिके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। ११ अल्पबहुत्व-उक्त तीनों राशियोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं। तथा उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं।
$ २१५. अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्थमद सुत्त ।
३२८
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं ___* एदेसु अणियोगदारेसु वण्णिदेसुदसणमोहउवसामणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं। ६२१६. गयत्थमेदं सुत्तं ।
तदो दंसणमोहउवसामणाए पण्णारसण्हं..
गाहासुत्ताणमत्थविहासा समत्ता होइ । इन अनुयोगद्वारोंका कथन करने पर दर्शनमोह उपशामना नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
$ २१६ यह सूत्र गतार्थ है। ... इसके बाद दर्शनमोहउपशामनासम्बन्धी पन्द्रह गाथासूत्रोंके अर्थका
विशेष व्याख्यान समाप्त होता है।
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिद्वाणि
१. उवजोग-अत्थाहियार-चुण्णिसुत्ताणि
'उवजोगे त्ति अणियोगद्दारस्स सुतं । तं जहा— (१०) केवचिरं उवजोगो कम्मि कसायम्मि को व केणहियो ।
को वा कम्मि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो ॥ ६३॥ (११) एकहि भवग्गहणे एक्ककसायम्हि कदि च उवजोगा ।
एक्कम्हि य उवजोगे एक्ककसाए कदि भवा च ॥६४॥ (१२) उवजोगवग्गणाओ कम्मि कसायम्मि केत्तिया होंति ।
करिस्से च गदीए केवडिया वग्गणा होंति ॥ ६५॥ (१३) एकहि य अणुभागे एक्ककसायम्मि एक्ककालेण ।
उवजुत्ता का च गदी विसरिसमुवजुज्जदे का च ॥६६॥ (१४) 'केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणा- कसा एसु ।
केवडिया च कसाए के के च विसिस्सदे केण ॥६७॥ (१५) जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुव्वा ते I होहिंति च उवजुत्ता एवं सव्वत्थ बोद्धव्वा ॥ ६८ ॥ (१६) 'उवजोग वग्गणाहि य अविरहिदं काहि विरहिदं चावि । पढमसमयोवजुत्तेहिं चरिमसमए च बोद्धव्वा ॥ ७६८॥
10.
दाओ सत्त गाहाओ । एदासि विहासा कायव्वा । 'केवचिरं उवजोगो कम्हि कसायम्हि ' ति एदस्स पदस्स अत्थो अद्धापरिमाणं । तं जहा - ' * कोधद्धा माणद्धा मायद्धा लोहद्धा जहणियाओ वि उक्कस्सियाओ वि अंतोमुहुत्तं । 'गदीसु णिक्खमणपवेसेण एगसमयो होज ।
'को व केणहिओ' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो अद्धाणमप्पाबहुअं । "तं जहा — ओषेण माणद्धा जहणिया थोवा । कोधद्धा जहण्णिया विसेसाहिया । मायद्धा
(१) पृ. १ । (२) पृ. २ । (३) पृ. ३ । (४) पृ. ६ । (५) पृ. ७ । ( ६ ) पृ. ९ । ( ७ ) पृ. १० । (८) पृ. ११ ॥ (९) पृ. १४ । (१० पृ. १५ । (११) पृ. १६ । (१२) पृ. १७ । .
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
जहणिया विसेसाहिया । लोभद्धा जहण्णिया विसेसाहिया । माणद्धा उक्कस्सिया संखेज्जगुणा । 'कोधद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया । मायद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया । लोभद्धा उक्कस्सिया विसेसाहिया ।
पवाइज्जंतेण उवदेसेण अद्धाणं विसेसो अंतोमुहुत्तं । तेणेव उवदेसेण चउगहसमासेण अप्पा बहुअं भणिहिदि । चदुर्गादिसमासेण जहण्णुक्कस्सपदेसेण निरयगदीए जहणिया लोभद्धा थोवा । देवगदीए जहण्णिया कोधद्धा विसेसाहिया । देवगदी जहणिया माणद्धा संखेज्जगुणा । णिरयगदीए जहणिया मायद्धा विसेसाहिया । णिरयगदीए जहणिया माणद्धा संखेज्जगुणा । देवगदीए जहणिया मायद्धा विसेसाहिया | मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहण्णिया माणद्धा संखेज्जगुणा | मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया । मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहणिया माया विसेसाहिया । मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जहण्णिया लोहद्धा विसेसाहिया ।
रियगदीए जहणिया कोधद्धा संखेज्जगुणा । "देवगदीए जहण्णिया लोभद्धा विसेसाहिया । णिरयगदीए उक्कस्सिया लोभद्धा संखेज्जगुणा । देवगदीए उक्कस्सिया का विसेसाहिया । देवगदीए उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । णिरयगदीए उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । णिरयगदीए उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । देवगदी उकस्सिया मायद्धा विसेसाहिया ।
1
मणुस-तिरिक्खजोणियाणमुक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । 'तेसिं चेव उक्कसियाकोधद्धा विसेसाहिया । तेसिं चेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । तेसिं चेव उकस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । णिरयगदीए उक्कस्सिया कोधद्धा संखेज्जगुणा । देवगदी उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
तेसिं चेव उवदेसेण चोदसजीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि । चोदसण्हं जीवसमासाणं देव - णेरइयवज्जाणं जहणिया माणद्धा तुल्ला थोवा । जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया । जहणिया मायद्धा विसेसाहिया । जहण्णिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
सुहुमस्स अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । 'उक्कस्सिया कोघद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
(१) पृ. १८ । (२) पृ. १९ । (३) पृ. २० । (४) पृ. २१ । (५) पृ. २२ । (६) पृ. २३ । (७) पृ. २४ । (८) पृ. २५ ।
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिट्ठाणि
३३१ सुहुमपज्जत्तयस्स उक्वस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
बादरेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
बेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । तेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया। चउरिदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा सिसेसाहिया।
बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कसिया कोधद्धा विसेसाहिया । तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। चउरिदियअपञ्जत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया।
बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कसिया मायद्धा विसेसाहिया । तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। चउरिदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया।
वेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । तेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया। चदुरिंदियअपञ्जत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया।
वेइंदियपञ्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । तेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया । चउरिदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा विसेसाहिया।
वेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। तेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया। चउरिंदियपज्जत्तयस्स उकक्कसिया कोधद्धा विसेसाहिया।
वेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। तेइंदियपञ्जत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। चउरिदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया ।
वेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कसिया लोभद्धा विसेसाहिया। तेइंदियपञ्जत्तयम्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । चउरिंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया।
असण्णिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । तस्सेव उक्कस्सिया (१) पृ. २६ । (२) पृ. २७।
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
कोद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
असणिपत्यस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । तस्सेव उक्कस्सिया hreat विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
सणिअपजत्तस्स उकस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । 'तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
सण्णिपञ्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा । तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
'को वा कम्हि कसाए अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' त्ति एत्थ अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा । ओघेण ताव लोभो माया कोधो माणो त्ति असंखेजेस आगरिसेसु गदेसु सई लोभा गरिस अदिरेगा भवदि । 'असंखेजेसु लोभाग रिसेसु अदिरेगेसु गदेसु कोधागैरिसेहिं मायागरसा अदरेगा होइ । 'असंखेजेहिं मायागरिसेहिं अदिरेगेहिं गदेहिं माणा गरिसेहिं कोधारिसा अदिरेगा होदि । एवमोघेण । एवं तिरिक्खजोणिगदीए मणुसगदीए च ।
freeगए कोहो माणो कोहो माणो त्ति बारसहस्साणि परियत्तिदूण सई माया परिवत्तदि । 'मायापरिवत्तेहिं संखेजेहिं गदेहिं:, सहं लोहो परिवत्तदि । देवगदीए लोभो माया लोभो माया त्ति वारसहस्साणि गंतूण तदो सई माणो परिवत्तदि । 'माणस्स संखेजेसु आगरिसेसु गदेसु तदो सई कोधो परिवत्तदि ।
'
एदी परूवणाए एक म्हि भवग्गहणे णिरयगदीए संखेज्जवासिगे वा असंखेजवासिगे वा भवे लोभागरिसा थोवा । 'मायागरिसा संखेजगुणा । माणागरिसा संखेजगुणा । कोहागरिसा विसेसाहिया । " देवगदीए कोहागरिसा थोवा । माणागरिसा संखेजगुणा । मायागरिसा संखेजगुणा । "लोभागरिसा विसेसाहिया । तिरिक्खम सगदी असंखेजवस्सिगे भवग्गहणे माणागरिसा थोवा । कोहागरिसा विसेसाहिया । "मायागरिसा विसेसाहिया । लोभागरिसा विसेसाहिया ।
१२
1
एतो विदियगाहाए विभासा । तं जहा – एकम्मि भवग्गहणे एककसायम्मि
(६) पृ. ३५ ॥
(१) पृ. २८ । (२) पृ. २९ । (३) पृ. ३१ । ( ४ ) पृ. ३२ । ( ५ ) पृ. ३४ । (७) पृ. ३७ । (८) पृ. ३८ । ( ९ ) पृ. ३९ । (१०) पृ. ४० । (११) पू. ४१ । (१३) पृ. ४३ ।
(
१२ ) पू. ४२ ।
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३३
परिसिट्ठाणि कदि च उवजोगा त्ति । एकम्मि णेरइयभवग्गहणे कोहोवजोगा संखेजा वा असंखेजा वा। 'माणोवजोगा संखेन्जा वा असंखेज्जा वा। एव सेसाणं पि। 'एवं सेसासु वि गदीसु।
णिरयगदीए जम्हि कोहोवजोगा संखेज्जा तम्हि माणोवजोगाणियमा संखेज्जा। एवं माया-लोभोवजोगा। जम्हि माणोवजोगा संखेज्जा तम्हि कोहोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । मायोवजोगा लोहोवजोगा णियमा संखेज्जा । जम्हि मायोवजोगा संखेज्जा तम्हि कोहोवजोगा माणोवजोगा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा । लोभोवजोगा णियमा संखेज्जा। जत्थ लोभोवजोगा संखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा माणोवजोगा मायोवजोगा भजियव्वा । जत्थ णिरयभवग्गहणे कोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ सेसा सिया संखेज्जा सिया असंखेज्जा । जत्थ माणोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा णियमा असंखेज्जा। सेसा भजियव्वा । जत्थ मायोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोहोवजोगा माणोवजोगा णियमा असंखेज्जा । 'लोभोवजोगा भजियव्वा । जत्थ लोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोह-माण-मायोवजोगा णियमा असंखेज्जा।
जहा रइयाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा । जहा रइयाणं माणोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं मायोवजोगाणं वियप्पा । जहा णेरइयाणं मायोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं माणोवजोगाणं वियप्पा । जहा जेरइयाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा ।
__ जेसु णेरइयभवेसु असंखेज्जा कोहोवजोगा माण-माया-लोभोव जोगा वा जेसु वा संखेज्जा एदेसिमट्ठण्डं पदाणमप्पाबहुअं । तत्थ उवसंदरिसणाए करणं । एक्कम्हि वस्से जत्तियाओ कोहोवजोगद्धाओ तत्तिएण जहण्णासंखेज्जयस्स भागोजं भागलद्धमेत्तियाणि वस्साणि जो भवो तम्हि असंखेज्जाओ कोहोवजोगद्धाओ।
"एवं माण-माया-लोभोवजोगाणं । "एदेण कारणेण जे असंखेन्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा थोवा । 'जे असंखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । जे असंखेज्जमाणोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । जे असंखेज्जकोहोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । जे संखेज्जकोहोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा ।
जे संखेज्जमाणोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया ।जे संखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया।" जे संखेज्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया ।
(१) पृ. ४४ । (२) पृ. ४५ । (३) पृ. ४६ । (४) पृ. ४७ । (५) पृ. ४८ । (६) पृ. ४९ । (७) पृ. ५०। (८) पृ. ५१ । (९) पृ. ५२ । (१०) पृ. ५३ । (११) पृ. ५५ । (१२) पृ. ५६ । (१३) पृ. ५८ । (१४) पृ. ५९।।
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
जहा इसुतहा देवेसु । णवरि कोहादो आढवेयव्वो । तं जहा - जे असंखेज्जकोहोवजोगिगा भवा ते भवा थोवा । जे असंखेज्जमाणोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । जे असंखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । जे असंखेज्जलोभोवजोगिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । 'जे संखेज्जलोभोवजो गिगा भवा ते भवा असंखेज्जगुणा । जे संखेज्जमायोवजोगिगा भवा ते विसेसाहिया । जे संखेज्ज - माणोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । जे संखेजकोहोवजोगिगा भवा ते भवा विसेसाहिया । विदियगाहाए अत्थविहासा समत्ता ।
३३४
'उवजोगवग्गणाओ कम्हि कसायम्हि केत्तिया होंति' त्ति एसा सव्वा वि गाहा पुच्छासुतं । तस्स विहासा । तं जहा — उवजोगवग्गणाओ दुविहाओ - कालोवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ य । कालोवजोगवग्गणाओ णाम कसायोवजोग - णाणि | भावोवजोगवग्गणाओ णाम कसायोदयट्ठाणाणि । एदासि दुविहाणं पि वग्गनाणं परूवणा पमाणमप्पाबहुअं च वत्तव्वं । तदो तदियाए गाहाए विहासा समत्ता ।
उत्थी गाहाए विहासा । 'एक्कम्हि दु अणुभागे एक्ककसायम्मि एक्ककालेण । उवजुत्ता का च गदी विसरिसमुवजुज्जदे का च ।' त्ति एदं सव्वं पुच्छासुत्तं । एत्थ विहासाए दोणि उवएसा । एक्केण उवएसेण जो कसायो सो अणुभागो । कोधो haryभागो । एवं माण- माया लोभाणं । तदो का च गदी एगसमएण एगकसायोवजुत्ता वा दुकसायोवजुत्ता वा तिकसायोवजुत्ता वा चदुकसायोवजुत्ता वा त्ति एदं पुच्छासुतं । तदो णिरिसणं । तं जहा - णिरय देवगदीणमेदे वियप्पा अत्थि । सेसाओ गदीओ णियमा चदुकसायोवजुत्ताओ ।
'णिरयगईए जइ एक्को कसायो, णियमा कोहो । जदि दुकसायो, कोहेण सह अणदरो दुसंजोगो । जदि तिकायो, कोहेण सह अण्णदरो तिसंजोगो । जदि चदुकसायो, सव्वे चैव कसाया । "जहा णिरयगदीए कोहेण तहा देवगदीए लोभेण कायव्वा । एक्केण उवदेसेण चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता भवदि ।
ܘܪ
पवाइज्जंतेण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा । " ' एक्कम्मि दु अणुभागे' चि कसाय - उदट्ठाणं सो अणुभागो नाम । एगकालेणे चि कसायोवजोगद्धट्ठाणे चि भणिदं होदि । एसा सण्णा । तदो पुच्छा । का च गदी एक्कम्हि कसाय-उदयट्ठाणे एक्कम्हि वा कसायुवजोगट्ठाणे भवे । ' अथवा अणेगेसु कसाय-उदयट्ठाणेसु अणेगेसु
93
१४
(१) पृ. ६० । (२) पृ. ६१ । ( ३ ) पृ. ६२ । ( ४ ) पृ. ६३ । ( ९ ) पृ. ६९ । (१०) पू. ७० । (११)
(७) पृ. ६७ । (८) पू. ६८ । (१३) पृ. ७३ ।
(१४) पृ. ७४ ।
(५) पृ. ६५ । (६) पृ. ६६ । पृ. ७१ । ( १२ ) पृ. ७२ ।
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिट्ठाणि
३३५ वा कसाय-उवजोगद्धट्ठाणेसु । एसा पुच्छा । अयं णिद्देसो। तसा एक्केक्कम्मि कसायुदयट्ठाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कसाय-उवजोगद्धट्ठाणेसु पुण उक्कस्सेण असंखेज्जाओ सेढीओ। एवं भणिदं होइ सव्वाओ गदीओ णियमा अणेगेसु कसायुदयट्ठाणेसु अणेगेसु च कसायउवजोगट्ठाणेसु त्ति ।
___ तदो एवं परूवणं कादूण णवहिं पदेहिं अप्पाबहुअं । 'तं जहा-उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा थोवा। जहणियाए माणोवजोग. द्धाए जीवा असंखेज्जगुणा । अणुक्कस्समजहण्णासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेज्जगुणा । 'जहण्णए कसायुदयट्ठाणे उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज्जगुणा। जहणियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज्जगुणा । अणुक्कस्समजहण्णासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेज्जगुणा । "अणुक्कस्समजहण्णेसु अणुभागट्ठाणेसु उक्कस्सियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज्जगुणा । जहणियाए माणोवजोगद्धाए जीवा असंखेज्जगुण । अणुक्कस्समजहण्णासु माणोवजोगद्धासु जीवा असंखेज्जगुणा । एवं सेसाणं कसायाणं । एत्तो छत्तीसपदेहि अप्पाबहुअं कायव्वं । एवं चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता।
''केवडिगा उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणा-कसायेसु' चेति एदिस्से गाहाए अत्यविहासा। एसा गाहा सूचणासुत्तं । एदीए सूचिदाणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि । "तं जहा–संतपरूवणा दव्वपमाणं खेत्तपमाणं फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुअं च । 'केवडिगा उवजुत्ता त्ति दव्वपमाणाणुगमो। 'सरिसीसु च वग्गणा-कसाएसु' त्ति कालाणुगमो । "केवडिगा च कसाए' त्ति भागाभागो । 'के के च विसिस्सदे केणे' ति अप्पाबहुअं । एवमेदाणि चत्तारि अणिओगद्दाराणि सुत्तणिबद्धाणि । सेसाणि सूचणाणुमाणेण कायव्वाणि ।
"कसायोवजुत्ते अट्टहिं अणिओगद्दारेहिं गदि-इंदिय-काय-जोग-वेद-णाण-संजमदसण-लेस्स-भविय-सम्मत्त-सण्णि-आहारा ति एदेसु तेरससु अणुगमेसु मग्गियूण । महादंडयं च कादृण समत्ता पंचमी गाहा ।
१४'जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुव्वा ते त्ति एदिस्से छट्ठीए गाहाए कालजोणी कायव्या । तं जहा–जे अस्सिं समए माणोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो इदि एवं तिविहो कालो । कोहे च तिविहो कालो।
(१) पृ. ७५ । (२) पृ. ७६ । (३) पृ. ७७ । (४) पृ. ७८ । (५) पृ. ७९ । (६) पृ. ८० ।(७) पृ. ८१ । (८) पृ. ८२ । (९) पृ. ८५ । (१०) पृ. ८६ । (११) पृ. ८७ । (१२) पृ. ८८ । (१३) पृ. ९० । (१४) पु. ९१ । (१५) पृ. ९३ । (१६) पृ. ९४ ।
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहर्द कसायपाहुडे
मायातिविहो कालो । लोभे तिविहो कालो । एवमेसो कालो माणोवजुत्ताणं बारसविहो ।
३३६
अस्सं सम कोहोजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो णत्थि णोमाणकालो मिस्सयकालो य । अवसेसाणं णवविहो कालो । एवं कोहोवजुत्ताणमेक्कारसविहो कालो विदिक्कतो ।
जे अस्सिं समए मायोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो कोहकालो दुविsो मायाकालो तिविsो लौमकालो तिविहो । एवं मायोवजुत्ताणं दसविहो कालो ।
जे अस्सिं समये लोभो जुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो कोहकालो दुवो मायाकालो दुविsो लोभकालो तिविहो । एवमेसो कालो लोहोवजुत्ताणं णवविहो । एवमेदाणि सव्वाणि पदाणि वादालीसं भवंति ।
'एतो बारस सत्थाणपदाणि गहियाणि । कथं सत्थाणपदाणि भवंति ? माणोवजुत्ताणं माणकालो जोमाणकालो मिस्सयकालो । कोहोवजुत्ताणं कोहकालो जोकोहकालो मिस्सकालो | एवं मायोवजुत्त लोहोवजुत्ताणं पि ।
एदेसिं बारसहं पदाणमप्पा बहुअं । 'त जहा — लोभोवजुत्ताणं लोभकालो थोवो । 'मायोवजुत्ताणं मायकालो अनंतगुणो । कोहोवजुत्ताणं कोहकालो अनंतगुण | माणोवजुत्ताणं माणकालो अनंतगुणो । लोभोवजुत्ताणं णोलोभकालो अनंतगुणो । “मायोवजुत्ताणं णोमायकालो अनंतगुणो । कोहोवजुत्ताणं णोकोहकालो अनंतगुणो । "माणोवजुत्ताणं णोमाणकालो अनंतगुणो । माणोवजुत्ताणं मिस्सयकालो अनंतगुणो । कोहोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहिओ । २ मायोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहिओ । "लोभोवजुत्ताणं मिस्सयकालो विसेसाहिओ ।
तो वादालीसपदप्पाबहुअं कायव्वं । १४ तदो छुट्टी गाहा समत्ता भवदि । 'उवजोगवग्गणाहि य अविरहिदं काहि विरहियं वा वि' त्ति एदम्भि अद्धे एक्को अथ विदिये अर्द्ध एक्को अत्थो एवं दो अत्था ।
१
" पुरिमद्धस्स च विहासा । एत्थ दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ - कसायउदयणाणि च उवजोगट्ठाणाणि च । " एदाणि दुविहाणि वि द्वाणाणि उवजोगवग्गणाओ त्ति वुच्चति ।
(१) पृ. ९५ । (२) पृ. ९६ ।
(३) पृ. ९७ । ( ४ ) पृ. ९८ । (५) पृ. ९९ । (६) पृ. १०० । (७) पृ. १०१ । (८) पृ. १०२ । ( ९ ) पृ. १०३ । (१०) पू. १०४ । (११) पू, १०५ । (१२) पृ. १०६ । (१३) पृ. १०७ । (१४) पृ. १०८ । (१५) पृ. १०९ । (१६) पृ. ११० ।
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३७
परिसिट्ठाणि उवजोगट्ठाणेहि ताव केत्तिएहिं विरहिदं केहिं कम्हि अविरहिदं १ एत्थ मग्गणा। 'णिरयगदीए एगस्स जीवस्स कोहोवजोगट्ठाणेसु णाणाजीवाणं जवमझं । तं जहा-ठाणाणं संखेज्जदिमागे। एगगुणवड्डि-हाणिहाणंतरमावलियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिमागो।
हेट्ठा जवमज्झस्स सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि सदा । सव्वअट्ठाणाणं पुण असंखेज्जभागा आवुण्णा । उवरिमजवमज्झस्स जहण्णेण गुणहाणिहाणंतराणं संखेज्जदिभागो आवुण्णो। उक्कस्सेण सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि । जहण्णेण अद्धट्ठाणाणं संखेज्जदिभागो आवुण्णो। उक्कस्सेण अद्धद्वाणाणमसंखेज्जा भागा आवुण्णा । एसो उवएसो पवाइज्जइ । अण्णो उवदेसो सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि अविरहियाणि जीवेहिं उवजोगद्धट्ठाणाणमसंखेज्जा भागा अविरहिदा । एदेहिं दोहिं उवदेसेहिं कसायउदयट्ठाणाणि णेदव्वाणि तसाणं । तं जहा—कसायुदयट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा । तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि आवुण्णाणि ।
कसायुदयट्ठाणेसु जवमझेण जीवा रांति । जहण्णए कसायुदयट्ठाणे तसा थोवा। विदिए वि तत्तिया चेव । "एवमसंखेज्जेसु लोगट्ठाणेसु तत्तिया चेव । तदो प्रणो अण्णम्हि द्वाणे एक्को जीवो अब्भहिओ। तदो पुण असंखेज्जेसु लोगेसु हाणे तत्तिया चेव । तदो अण्णम्हि द्वाणे एक्को जीवो अब्भहिओ। एवं गंतूण उक्कस्सेण जीवा एक्कम्हि द्वाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
जत्तिया एक्कम्मि हाणे उक्कस्सेण जीवा तत्तिया चेव अण्णम्हि हाणे । एवमसंखेज्जलोगट्ठाणाणि । एदेसु असंखेज्जेसु लोगेसु ठाणेसु जवमझं । तदो अण्णं ट्ठाणमेक्ष्ण जीवेण हीणं । एवमसंखेज्जलोगट्ठाणाणि तुन्लजीवाणि । एवं सेसेसु वि ठाणेसु जापाणेदव्वा ।
"जहण्णए कसायुदयट्ठाणे चत्तारि जीवा, उक्कस्सए कसायुदयट्ठाणे दो जीवा । "जवमज्झजीवा आवलियाए असंखेज्जदिभागो।"जवमझजीवाणं जत्तियाणि अद्धच्छेदणाणि तेसिमसंखेज्जदिभागो हेट्ठा जवमज्झस्स गुणहाणिट्ठाणंतराणि । तेसिमसंखेज्जभागमेत्ताणि उवरि जवमज्झस्स गुणहाणिट्ठाणंतराणि । "एवं पदुप्पण्णं तसाणं जवमज्छ ।
(१) पृ. १११ । (२) पृ. ११२ । (३) पृ. ११३ । (४) पृ. ११४ । (५) पृ. ११५ । (६) पृ. ११६ । (७) पृ. ११९ । (८) पृ. १२० । (९) पृ. १२१ । (१०) पृ. १२२ । (११) पृ. १२३ । (१२) पृ. १२४ । (१३) पृ. १२५ । (१४) पृ. १२६ । (१५) पृ. १२७ । (१६) पृ. १३३ । (१७) पृ. १३८ ।
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
ऐसा सुत्तविहासा | सत्तमीए गाहाए पढमस्स अद्धस्स अत्थविहासा समत्ता
भवदि ।
३३८
एत्तो विदियद्धस्स अत्थविहासा कायव्वा । चरिमसमए च बोद्धव्वा' ति एत्थ तिण्णि सेढीओ । दिया चरिमादिया ३ ।
तं जहा - 'पढमसमयोवजु तेहिं तं जहा -- विदियादिया पढमा -
विदियादिया साहणं । माणोवजुत्ताणं पवेसणयं थोवं । "कोहोवजुत्ताणं पवेसणगं विसेसाहियं । एवं माया - लोभोवजुत्ताणं । 'एसो विसेसो एक्केण उवदेसेण पलिदोवस असंखेज्जदिभागपडिभागो ।। पवाहजंतेण उवदेसेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
एवमुवजोगो त्ति समत्रमणिओगद्दारं ।
८. चउद्वाणअत्थाद्वियारो
―
'चउट्ठाणे ति अणियोगद्दारे पुव्वं गमणिज्जं सुत्तं । तं जहा(१७) कोहो . चउव्विहो वुत्तो माणो वि चउब्विहो भवे । माया चउव्विहा वृत्ता लोहो वि य चउब्विहो ॥७०॥ (१८) ० णग - पुढवि वालुगोदयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । सेलघण-अद्रि-दारुअ-लदासमाणो हवदि माणो ॥ ७१ ॥ (१९) "वंसीजण्डुगसरिसी मेंढविसाणसरिसी य गोमुत्ती ।
१०
अवलेहणीसमाणा माया वि चउव्विहा भणिदा ॥ ७२ ॥ (२०) किमिरागरत्तसमगो अक्खमलसमो य पंसुलेवसमो ।
हालिद्दवत्थसमगो लोभो वि चउव्विहो भणिदो ॥७३॥ (२१) "एदेसिंद्वाणाणं चदुसु कसाएस सोलसण्हं पि
1
कं ण होइ अहियं ट्ठिदि - अणुभागे पदे सम्गे ॥७४॥ (२२) "माणे लदासमाणे उक्कस्सा वग्गणा जहण्णादो । हीणा च पदेसग्गे गुणेण णियमा अणतेण ॥७५॥
( १ ) पू. १४० । (२) पृ. १४१ । (३) १४२ । (४) १४३ । (५) पृ. १४४ । (६) पृ. १४५ । (७) पृ. १४६ । (८) पृ. १५० । ( ९ ) पृ. १५१ । (१०) पृ. १५२ । ( ११ ) १५५ । ( १२ ) पृ. १५७ । ( १३ ) पृ. १५८ ।
पृ.
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिट्ठाणि
(२३) 'णियमा लदासमादो दारुसमाणो अनंतगुणहीणो । सेसा कमेण हीणा गुणेण नियमा अनंतेण ॥ ७६ ॥ (२४) णियमा लदासमादो अणुभागग्गेण वग्गणग्गेण ।
सेसा कमेण अहिया गुणेण नियमा अणतेण ॥७७॥ (२५) संधीदो संधी पुण अहिया नियमा च होइ अणुभागे ।
हीणा च पदेसग्गे दो वि य नियमा विसेसेण ॥७८॥ (२६) सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होइ दारुअसमाणे ।
हेट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं ॥ ७६ ॥ (२७) एसो कमो च माणे मायाए नियमसा दु लोभे वि ।
सव्वं च कोहकम्मं चदुसु ट्ठाणेसु बोद्धव्वं ॥ ८० ॥ (२८) 'पदेसिं द्वाणाणं कदमं ठाणं गदीए कद मिस्से ।
बद्धं च बज्झमाणं उवसंतं वा उदिष्णं वा ॥ ८१ ॥ (२८) सण्णी असण्णीसु य पज्जत्ते वा तहा अपज्जत्ते । सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेय बोद्धव्वा ॥ ८२ ॥ (३१) विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा अणागारे । सागारे जोगम्हि य लेस्साए चैव बोद्धव्वा ॥ ८३ ॥ (३१) 'कं ठाणं वेदतो कस्स व द्वाणस्स बंधगो होइ ।
कं ठाणमवेदंतो अबंधगा कस्स ट्ठाणस्स ॥ ८४ ॥ (३२) असण्णी खलु बंधइ लदासमाणं च दारुयसमगं च । तण्णी चदुसु विभज्जो एवं सव्वत्थ कायव्वं (१६) ॥८५॥
● एवं सुतं । एत्थ अत्थविहासा । चउट्ठाणे ति एक्कगणिक्खेवो चट्ठाण - जिक्खेव च । "एक्कगं पुव्वणिक्खित्तं पुव्वपरूविदं च ।
ट्ठाणं णिक्खिविदव्वं । १२ तं जहा - णामट्ठाणं ट्ठवणट्ठाणं दव्वद्वाणं खेत्तट्ठाणं अट्ठाणं पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं संजमट्ठाणं भावद्वाणं च । १२ गमो सव्वाणि ठाणाणि इच्छइ । संगह - ववहारा पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं च अवर्णेति । उजुसुदो
( १ ) पृ. १६० । ( २ ) १६१ ( ६ ) पृ. १६६ । (७) १६७ । (८) (१२) पू. १७४ । (१३) पृ. १७५ ।
३३९
। ( ३ ) पृ. (९) पू.
१६८ ।
१६३ । ( ४ ) पृ. १६४ । ( ५ ) पु. १६५ । १६९ । (१०) पृ. १७२ । ( ११ ) पू. १७३ ।
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
३४०
दाणि च ठेवणं च अद्धट्ठाणं च अवणेइ । भावद्वाणं च इच्छदि । एत्थ भावद्वाणे पयदं ।
'सहणयो णामट्ठाणं संजमद्वाणं खेत्तट्ठाणं
एतो सुत्तविहासा । तं जहा - आदीदो चत्तारि सुत्तगाहाओ एदेसिं सोलसहं ट्ठाणाणं निदरिसणउवणये । 'कोहडाणाणं वउन्हं पि कालेन निदरिसणउवणओ कओ । सेसाणं कसायाणं बारसण्डं द्वाणाणं भावदो निदरिसणउवणओ कओ ।
"जो अंतोमुहुत्तिगं णिधाय कोहं वेदयदि सो उदयराइसमाणं कोहं वेदयदि ! जो अंतोमुहुत्तादीदमंतो अद्धमासस्स कोधं वेदयदि सो वालुवराइसमाणं कोहं वेदयदि । जो अद्धमासादीदमंतो छण्हं मासाणं कोधं वेदयदि सो पुढविराइसमाणं कोहं वेदयदि । “जो सव्वेसिं भवेहिं उवसमं ण गच्छ सो पव्वदराइसमाणं कोहं वेदयदि । 'एदाणुमाणियं सेसाणं पि कसायाणं कायव्वं । एवं चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासिदाओ भवंति ।
एवं चउट्ठाणे त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
९ वंजण-अत्थाहियारो
'वंजणे ति अणिओगद्दारस्स सुतं । तं जहा -
(३३) कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण कलह वड्ढी य । झंझा दोस विवादो दस को ट्टिया होंति ॥ ८६ ॥
१२
(३४) "माण मद दप्प थंभो उक्कास पगास तथ समुक्कासो । अत्करिसो परिभव उस्सिद दसलक्खणो माणो ॥ ८७॥ (३५) माया य सादिजोगो णियदी वि य वचणा अणुज्जुगदा । गहणं मणुण्णमग्गण कक्क कुहक गूहण च्छण्णो ॥८८॥ "कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज्ज दोसो य ।
हाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य ॥ ८८ ॥ सासद पत्थण लालस अविरदि तन्हा य विज्ज जिब्भा य । लोभस णामधेज्जा वीसं एगट्टिया भणिदा ॥ ९० ॥ एवं वंजणे त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
(१) पृ. १७६ । (२) पृ. १७७ । (३) पृ. १७८ । (६) पृ: १८१ । (७) पृ. १८२ । (८) पृ. १८३ । (९) पृ. १८५ । (१२) पृ. १८८ । (१३) पृ. १८९ ।
(४) पृ. १७९ । (५) पृ. १८० । (१०) पू. १८६ । ( ११ ) पू. १८७
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिट्ठाणि
१०. सम्मत्त - अत्याहियारो
१
"कसा पाहुडे सम्मत्ते त्ति अणिओगद्दारे अधापवंतकरणे इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयव्वाओ । तं जहा
(३८) दंसणमोह उवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे । जोगे कसा उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥८१॥ (३८) काणि व पुव्वबद्धाणि के वा असे णिबंधदि ।
कद आवलियं पविसंति कदिहं वा पवेसगो ॥ ६२ ॥ (४०) के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उण वा ।
अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ॥ ६३ ॥ (४१) किं द्विदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवण सेसाणि कं ठाण ं पडिवज्जदि ॥ ६४ ॥
एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पढमसमए परूविदव्वाओ । तं जहा - 'दंसणमो उवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे' त्तिविहासा । तं जहापरिणामो विसुद्धो । पुव्वं पि अंतो मृहुत्त पहुडि अनंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो आगदो ।
'जोगे त्तिविहासा । अण्णदरमणजोगो वा अण्णदरवचिजोगो वा ओरालियकायजोगो वा वेव्वियकायजोगो वा । कसायेति विहासा । अण्णदरो कसायो । "" किं सो वडमाणो हायमाणो त्ति १ णियमा हायमाणकसायो । उवजोगे त्तिविहासा । “णियमा सागारुवजोगो । लेस्सा ति विहासा । तेउ-पम्म- सुक्कलेस्साणं णियमा वड्ढमाणलेस्सा । "वेदो य को भवे' त्ति विहासा । " अण्णदरो वेदो ।
१३
पयडिसंतकम्मं द्विदिसंतकम्म
"काणि वा पुव्वबद्धाणि' त्ति विहासा । एत्थ
मणुभागसंतकम्मं पदेससंतकम्मं च मग्गियव्वं ।
३४१
"के वा अंसे णिबंधदि' ति विहासा । "एत्थ पयडिबंधो द्विदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो च मग्गियव्वो ।
(४) पृ. १९७ ।
(१०) पृ. २०३
।
(१५) पृ. २१० ।
(१) पृ. १९४ । ( २ ) पू. १९५ । ( ३ ) पृ. १९६ । (६) पृ. १९९ । (७) पू. २०० । (८) पू. २०१ । (९) पृ. २०२ (१२) पू. २०५ । (१३) पू. २०६ ।
।
(१४) पू. २०७ ।
(५) पृ. १९८
(११) पृ. २०४ ।
(१६) पृ. २११ ।
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 'कदि आवलियं पविसंति' त्ति विहासा । मूलपयडीओ सव्याओ पविसंति । उत्तरपयडीओ वि जाओ अत्थि ताओ पविसंति । णवरि जइ परभवियाउअमत्थि तं ण पविसदि।
'कदिण्हं वा पवेसगो' त्ति विहासा । मूलपयडीणं सव्वासिं पवेसगो। उत्तरपयडीणं पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-मिच्छत्त-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीरवण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरथिराथिर-सुभासुभ-णिमिण-पंचंतराइयाणं णियमा पवेसगो। सादासादाणमण्णदरस्स पवेसगो। चदुण्हं कसायाणं तिण्हं वेदाणं दोण्हं जुगलाणमण्णदरस्स पवेसगो । भय-दुगुंछाणं सिया पवेसगो। चउण्हमाउआणमण्णदरस्स पवेसगो। चदुण्हं गइणामाणं दोण्हं सरीराणं छण्हं संठाणाणं दोण्हमंगोवंगाणमण्णदरस्स पवेसगो । छण्हं संघडणाणं अण्णदरस्स सिया । उज्जोवस्स सिया । दोविहायगइ-सुभग-भगसुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसगित्ति-अजसगित्तिअण्णदरस्स पवेसगो। 'उच्चाणीचगोदाणमण्णदरस्स पवेसगो। ___ 'के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा' त्ति विहासा। असादावेदणीय-इत्थिणवंसयवेद-अरदि-सोग-चदुआउ-णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठाण-पंचसंघडण-णिरयगहपाओग्गाणुपुग्वि-आदाव-अप्पसत्थविहायगइ-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारण-अथिर-असुभभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्तिणामाणि एदाणि बंधेण वोच्छिण्णाणि ।
पंचदंसणावरणीय-चदुजादिणामाणि चदुआणुपुग्विणामाणि 'आदाव-थावर-सुहुमअपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणि एदाणि उदएण वोच्छिण्णाणि ।
'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहि' ति विहासा । ण ताव अंतरं उवसामगो वा, पुरदो होहिदि त्ति ।
"किं द्विदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टेयूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि' त्ति विहासा । द्विदिघादो संखेज्जा भागे घादेदूण संखेज्जदिमागं पडिवज्जइ । अणुभागपादो अणंते भागे घादेदण अणंतभागं पडिवज्जइ । तदो इमस्स चरिमसमय-अधापवत्तकरणे वट्टमाणस्स पत्थि द्विदिघादो वा अणुभागपादो वा । से काले दो वि घादा पवत्तीहिंति ।
. (१) पृ. २१३ । (२) पृ. २१४ । (३) पृ. २१५ । (४) पृ. २१६ । (५) पृ. २१७ । (६) पृ. २१८ । (७) पृ. २२१ । (८) पृ. २२६ । (९) पृ. २२७ । (१०) पृ. २३०। (११) पृ. २३१ । (१२) पृ. २३२ ।
.
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिट्ठाणि
३४३
दाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ अधापवत्तकरणस्स पढमसमए परूविदाओ । दंसणमो उवसामगस्स तिविहं करणं । तं जहा - अधापवत्तकरणमपुव्वकरणमणियट्टिकरणं च । चउत्थी उवसामणद्धा ।
एदेसिं करणाणं लक्खणं । अधापवत्तकरणपढमसमए जहण्णिया विसोही थोवा । विदियसमए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा । एवमंतोमुहुतं । तदो पढमसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । जम्हि जहण्णिया विसोही णिट्टिदा तदो उवरिमसमए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा । विदियसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । एवं णिव्वग्गण खंडयमंतोमुहुत्तद्धमेचं अधापवत्त करण चरिमसमयो ति । तदो अंतोमुहुत्तमोसरियूण जम्हि उक्कस्सिया विसोही णिट्टिदा तत्तो उवरिमसमए उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । एवमुक्कस्सिया विसोही णेदव्वा जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति । एदमधापवत्तकरणस्स लक्खणं ।
१
अपुव्वकरणस्स पढमसमए जहण्णिया विसोही थोवा । " तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । विदियसमए जहण्णिया विसोही अनंतगुणा । "तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अनंतगुणा । समये समये असंखेज्जा लोगा परिणामट्ठाणाणि । एवं णिव्वगणा च । एदं अपुव्वकरणस्स लक्खणं ।
१२
.
अणियकिरणे समए समए एक्केकपरिणामट्ठाणाणि अनंतगुणाणि च । एदमणिकिरणस्स लक्खणं ।
93
१४
अधा
"अणादियमिच्छादिट्ठिस्स उवसामगस्स परूवणं बतइस्सामो ! तं जहा - ' पवत्तकरणे ट्ठिदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा गुणसेढी वा गुणसंकमो वा णत्थि, केवलमणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झदि । अप्पसत्थकम्मंसे जे बंधइ ते दुट्ठाणिये अनंतगुणहीणे च, पसत्थकम्मंसे जे बंधइ ते चउट्ठाणिए अनंतगुणे च समये समये । "ट्ठिदिबंधे पुणे पुणे अण्णं ट्ठिदिबंधं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागहीणं बंधदि ।
” ܟ
"अपुव्यकरण पढमसमए ट्ठिदिखंडयं जहण्णगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो उक्कस्सगं सागरोवमपुधत्तं । "ट्ठिदिबंधो अपुव्वो । अणुभागखंडयमप्पसत्थकम्मंसाणमणंता भागा । " तस्स पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणि थोवाणि । अइच्छावणाफ६याणि अनंतगुणाणि । णिक्खेवफद्दयाणि अनंतगुणाणि । "आगाइदफद्दयाणि अनंत
१८
(१) पृ. २३३ । (२) पृ. २३४ । ( ३ ) पृ. २४५ ।
।
(४) पृ. २४६ । (६) पृ. २४८ । (७) पृ० २४९ । (८) पृ. २५० । (९) पृ. २५२ । (१०) पू. २५३ (१२) पृ. २५६ । (१३) पृ. २५७ । (१४) पृ. २५८ । (१७) पू. २६१ । (१८) पृ. २६२ । (१९) पृ. २६३ ।
(१५) पृ. २५९ ।
(५) पू. २४७ ।
(११) पृ. २५४ । (१६) पृ. २६० ।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे गुणाणि । 'अपुव्वकरणस्स चेव पढमसमए आउगवज्जाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवो अणियट्टिअद्धादो अपुव्वकरणद्धादो च विसेसाहिओ। तम्हि द्विदिखंडयद्धा ठिदिबंधगद्धा च तुल्ला । 'एक्कम्हि ट्ठिदिखंडए अणुभागखंडयसहस्साणि घादेदि । डिदिखंडगे समत्ते अणुभागखंडयं च द्विदिबंधगद्धा च समत्ताणि भवंति । एवं ठिदिखंडयसहस्सेहिं बहुएहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धा समत्ता भवदि । 'अपुवकरणस्स पढमसमए हिदिसंतकम्मादो चरिमसमए ट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणहीणं । .. 'अणियट्टिस्स पढमसमए अण्णं द्विदिखंडयं अण्णो द्विदिबंधो अण्णमणुभागखंडयं । एवं द्विदिखंडयसहस्सेहिं अणियट्टिअद्धाए सखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेदि । जा तम्हि डिदिबंधगद्धा तत्तिएण कालेण अंतरं करेमाणो गुणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिमागं खंडेदि । तदो अंतरं कीरमाणं कदं । तदो पहुडि उवसामगो ति भण्णइ ।
पढमट्ठिदीदो वि विदियट्ठिदीदो वि आगाल-पडिआगालो ताव जाव आवलियपडिआवलियाओ सेसाओ ति । 'आवलिय-पडिआवलियासु सेसासु तदो पहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेढी णत्थि । 'सेसाणं कम्माणं गुणसेढी अत्थि। पडिआवलियादो चेव उदीरणा । आवलियाए सेसाए मिच्छत्तस्स घादो गस्थि ।
चरिमसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसंतदसणमोहणीओ। "ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा । "पढमसमयउवसंतदसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि । सम्मत्ते असंखेजगुणहीणं पदेसग्गं देदि । विदियसमए सम्मत्ते असंखेजगुणं देदि । सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं देदि । तदियसमए सम्मत्ते असंखेज्जगुणं देदि । सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणं देदि । एवमंतोमुहुत्तद्धं गुणसंकमो णाम । १ तत्तो परमंगुलस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण संकमेदि । सो विज्झादसंकमो णाम | "जाव गुणसंकमो ताव मिच्छत्तवज्जाणं कम्माणं ठिदिघादो अणुभागघादो गुणसेढी च ।
__ "एदिस्से परूवणाए णिट्टिदाए इमो दंडओ पणुवीसपडिगो । सव्वत्थोवा उवसामगस्स जं चरिमअणुभागखंडयं तस्स उक्कीरणद्धा । अपुव्वकरणस्स पढमस्स अणुभागखंडयस्स उक्कीरणकालो विसेसाहिओ। चरिमडिदिखंडयउक्कीरणकालो तम्हि चेव विदिबंधकालो च दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा । अंतरकरणद्धा तम्हि चेव द्विदिबंधगद्धा
(१) पृ. २६४ । (२) पृ २६६ । (३) पु. २६७ । (४) पृ. २६८ । (५) पृ. २६९ । (६) पृ. २७१ । (७) पृ. २७२। (८ पृ. २७३। (९) पृ. २७५। (१०) पृ. २७६ । (११) पृ. २७७ । (१२) पृ. २७९ । (१३) पृ..२८० । (१४) पृ. २८१ । (१५। पृ २८२ । (१६) प. २८३ । (१७) पृ. २८४ । (१८) पृ. २८५ । (१९) पृ. २८६ । (२०) पृ. २८५ ।
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४५
परिसिहाणि च दा वि तुल्लाआ विसेसाहियाओ । अपुव्वकरणे डिदिखंडयउक्कीरणद्धा द्विदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ। उवसामगो जाव गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरेदि सो कालो संखेज्जगुणो । पढमसमयउवसामगस्स गुणसेढिसोसयं संखेज्जगुणं । पढमट्ठिदी संखेज्जगुणा । उवसामगद्धा विसेसाहिया। वे आवलियाओ समग्रणाओ। अणियट्टि-अद्धा संखेज्जगुणा । अपुव्वकरणद्धा संखेज्जगुणा । "गणसेढिणिक्खेवो विसेसाहिओ। उवसंतद्धा संखेज्जगुणा । अंतरं संखेज्जगुणं। जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । 'उक्कस्सिया आबाहा संखेज्जगुणा । जहण्णयं द्विदिखंडयमसंखेज्जगुणं । "उकस्सयं द्विदिखंडयं संखेज्जगुणं । जहण्णगो डिदिबंधो संखेज्जगुणो । उक्कस्सगो द्विदिबंधो संखेजगुणो । जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं संखेजगणं । उक्स्सयं द्विदिसंतकम्मं संखेजगुणं । एवं पणुवीसदिपडिगो दंडगो समत्तो।
एत्तो सुत्तफासो कायब्वो भवदि। (४२) दसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्यो।
पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥६५॥ (४३)"सव्वणिरय-भवणेसु दीव-समुद्दे गह-जोदिसि-विमाणे।
अभिजोग्ग-अणभिजोग्गे उवसामो होइ बोद्धव्वो ॥६॥ (४४) "उवसामगो च सव्वो णिव्याघादो तहा णिरासाणो।
उवसंते भजियब्वो णीरासाणो य खीणम्मि ॥७॥ (४५) "सागारे पटुवगो णिटुवगो मज्झिमो य भजियव्वो।
जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥८॥ (४६) "मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्वं ।
उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियब्बो ॥८॥ (४७) "सव्वेहि द्विदिविसेसेहिं उवसता होंति तिण्णि कम्मंसा।
एक्कम्हि य अणुभागे णियमा सब्वे ट्ठिदिविसेसा ॥१०॥ (४८) "मिच्छत्तपच्चयो खलु बंधो उवसामगस्स बोद्धब्यो।
उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो॥१०१॥
(१) पृ. २८८ । (२) पृ. २८९ (३) पृ २९०। (४) पृ. २९१ । (५) पृ. २९२ । (६) पृ. २९३ । (७) पृ. २९४ । (८) पृ. २९५ । (९) पृ. २९६ । (१०) पृ. २९८ । (११) पृ. ३०२ । (१२) पृ. ३०४। (१३) पृ. ३०७ । (१४) पृ. ३०९। (१५) पृ. ३११ ।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
(४८) 'सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहस्सऽबंधगो होइ । वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ ॥ १०२ ॥ (५०) अंतमुत्तम' सव्वोवसमेण होइ उवसंतो ।
तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेगदरस्स कम्मस्स ॥ १०३॥ (५१) सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह वियट्ठेण ।
भजियो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥ १०४ ॥ (५२) सम्मत्तपढमलंभसाणं तरं पच्छदो य मिच्छत्तं ।
लभस्स अपढमस्स दु भजियव्वो पच्छदो होदि ॥ १०५ ॥ (५३) 'कम्माणि जस्स तिण्णि दु णियमा सो संकमेण भजियब्वो । एयं जस्स दु कम्मं संकमणे सो ण भजियव्वो ॥१०६ ॥ (५४) सम्माट्ठी सद्दहदि पवयणं णियमसा दु उवइट्ठ ।
सद्दहदि सब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥ १०७॥ (५५) मिच्छाइट्ठी णियमा उवइट्ठ पत्रयणं ण सद्दहदि ।
सद्दहदि असमावं उवइट्ठ वा अणुवइड ॥ १०८॥ (५६) सम्मामिच्छाडी सागारो वा तहा अणागारो ।
अध वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्वो ॥१०८॥
" एसो सुत्तफासो विहासिदो । तदो उवसमसम्माइट्ठि-वेदयसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीहिं एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहिं भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुअं चेदि । "एदेसु अणियोगद्दारेसु वण्णिदेसु दंसणमोहउवसामणे ति समत्त मणियोगद्दारं ।
(५) पृ. ३१८ ।
(१) पृ. ३१३ । (२) पृ. ३१४ । (३) पू. ३१६ । (४) पृ. ३१७ ॥ (६) पृ. ३२१ । (७) पृ. ३२२ । (८) पृ. ३२४ । (९) पृ. ३२५ । (१०) पृ. ३२६ । (११) पृ. ३२८ ।
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ.
२. अवतरण-सूची क्रमांक
क्रमांक पृ. क्रमांक क १. कामो राग-णिदाणे १९२ त ५. तं मिच्छत्तं जमसहहणं . स ९. सुत्तादो तं सम्म ३२२ २. क्रोधः कोपः कोषः १८७
३२३ १०. स्तम्भ-मद-मान १८८ ३. क्षणिकाः सर्व- म ६. मायाथ सातियोगो १८९ ११. श्रीमत्परमगम्भीर १८३ . संस्काराः १७७ ७. मिच्छत्तं वेदंतो ३२३ ज ४. जहण्णपरित्ता- स ८. साशता प्रार्थना तृष्णा १९२ संखेज्जयं........ १३४
३. ऐतिहासिक-नामसूची
स. सुत्तयार
१५८, २००
ग गुणहराइरिय १५२, १९५ भ. भयवंत अजमखु २३, ७२ च चुण्णिसुत्तयार १४, ६३, १७८ , , णागहत्थि २३, ७२
४. ग्रन्थनामोल्लेख
अ अपावइज्जत उवएस ७,६६, च चउट्ठाण
१५० प परियम्म
१३४ ७१ चुण्णिसुत्त ३, ११, १५, १२९ पवाइजंत उवएस ८, १९, अपवाइजमाण ७२, ११६ १४३, १७९, १९५, १९६ १७, १८, ६६, ७१, ७२, ७३ ११९, १४६
१९७, १९८, १९९ ८२, ११६, ११९, १४६ उ उवजोगअणि. १ ज जीवट्ठाण
१५ ४ कसायपाहुड १५०, १९४
५. न्यायोक्ति
ज. जहा उद्दसो तहा णिहेसो
११९, २३४
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
AA
२९८
६. सूत्रगाथा-चूर्णिगत शब्दसूची अ. अइच्छावणाफदय २६२ अपुवकरणद्धा २६४, २६८ उवजोगपरूवणा २८ अक्खम १८६
२९० उपजोगवग्गणा ६,११ अक्खमलसम १५५ अप्पसत्थकम्मंस २५८
६०, ६१, १०९, ११० अग्गग्ग २७३
२६१ उवदेस १८, २३, ७१, ११६ अट्रिसमाण १५२ अप्पाबहुअ ६३, ७६, ८२
११९, १४५ अणभिजोग्ग २९८
उवरिल्ल
१६४ अणागार १६७ अबंधक १६८ उवसम
.१८२ अणियट्टि २७१ अभिक्ख
२८ उवसाम अणियट्टिअद्धा
२६४ अभिजोग्ग
उवसामग . १९७, २३० अणियट्टिकरण २३३, २५५ अवलेहणीसमाणी १५५
२०६, ३०७, अणियोगद्दार १, ८७
अविरदि १६७, १८९ उवसामगद्धा २८९ अणुगम
अविरहिद
११
उवसामणद्धा २३४ अणुज्जगद १८८ अवेदंत
१६८
उवसंत १६६, ३०२, ३०७, अणुभाग ७,६५, ६६, ७२, असण्णी १६७, १६९
३०९ १५७, १६१ आ. आगरिस २९, ३८
उवसंतदंसणमोहणीय अणुभागखंडय २५८, २६१
२८०, २८२ आगाइदफहय २६२ २६७
उवसंतद्धा २९१ आगाल अणुभागग्ग
उवसंदरिसणा आबाहा २९२, २९३ अणुभागघाद २३१,२३२
उस्सिद
१८७ आवलियवग्गमूल ११३ अणुभागट्ठाण
ए. एक्कगणिक्खेव १७२ आसा
१८९ अणुभागबंध आसाण
११३ एगगुणवड्डिहाणंतर
३०७, ३११ अणुभागसंतकम्म २०७
१८९
एगगुणहाणिहाणंतर ११३ अणुमाणिय
एगट्ठिय उ. उक्कास अणुराग
ओ. ओरालियकायजोग २०१ अत्तुकरिस
उक्कीरणद्धा १८७
क. कक्क उच्चट्ठाण
१७५ अत्थविहासा ६०, १४०
कम्म १७५
१९८, २३१, उजुसुद अद्धच्छेद
कम्मंस उत्तरपयडि १३३
२८१, २१४, २१५ उदय
करण अट्ठाण ११४, ११५, १७५
१९७, २२१
५१, २३३,
कलह अद्धा उदयराइसमाण १८०
कसाअ • अद्धापरिणाम उदयराइसरिस
१५७, १९५ १५२ कसाय
२०२ अधापवत्तकरण १९४
उदिण्ण उवजुत्त २,९,१०, २८,६५
कसायपाहुड १९९, २३२, २३३
१९४, २०२
कसायोदयहाण ६२, ७२, अपज्जत्त उवजोग २, ३, ४, ५, ४३
७३, १०९, ११७ अपुव्व
१९५, २०३
कसायोवजोगहाण ६२, अपुवकरण २३३, २५२
उवजोगट्ठाण १०९, ११० __७२, ७३, ७५, ७६, १२१
११६ काम
२७६
२११
१८९
१८९
१८७ २८८
१८८
२०६
१६७
२६१
२५४
१८९
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
णेह
१८७
दीव दुट्ठाणिय
२५८
ख. खीण
३०२
२६४
परिसिट्ठाणि
३४९ काल ८६ छंद १८९
१८९ कालजोणी
९१ ज. जवमझ ११३, ११४ णोकोहकाल १००, १०४ कालाणुगम
१२१, १२५, १३३ ।। णोभावकाल १०४ कालोवजोगवग्गणा ६१,६२ जिब्मा
णोमाणकाल ९३,९६, १०० किमिरागरत्तसमग १५५ जीवसमास २३, २४ णोलोभकाल १०३ कुहग १८८ जोग १६७, १९५, २०१ त. तण्हा
१८९ कोधद्धा १५, १७, २० जोदिसि
२८९
२०४, ३०४ कोधागरिसा ३१, ३२, ३९ झ. झंझा ।
८६ थ. थंभ
१८७ कोधाणुभाग ६७ ट. ठाण ११२, १२३, १२४ द. दप
१८७ कोव
१८६
१५७, १६४, १६८, २७३ दव्वपमाण कोह १५१, १५२, १८६ हाणणिक्खेव १७२
दव्वपमाणाणुगम ८६ कोहकाल ९८, ९९, १०० हिदि १५२, १५७
दसलक्खण कोहेट्ठिय १८६ हिदिखंडय २५८, २६०,
दारुअसमाण १५२, १६४ कोहोवजोग ४३, ४५
२६६, २६७ कोहोवजोगद्धट्ठाण १११ हिदिखंडयद्धा २६६ दारुसमाण १६० कोहोवजोगद्धा हिदिघाद २३१, २३२
२९८ कोहोवजोगिग ५६, ५९ हिदिबंध २११, २५९, २६१
हिदिबंधगद्धा २६६ देसावरण खेत्तट्ठाण
१७६ द्विदिय१९८,२३१ दोस १८६, १८९ खेत्तपमाण द्विदिविसेस ३०९ दंडअ
२८६ ग. गह २९८ हिदिसंतकम्म २०७, २६९
२३, २९६ गहण १८८ २९५ दंसणमोहस्स
३१३ गाहासुत्त २०६ ठ. ठवण
१७५ दसणमोहोवसामग १९५ गिद्धि
ठाण २३१
१९९, २३३ गुणसेढि २५८, २७७, २७९ ण. णगराइसरिस १५२
पगास
१८७ गुणसेढिणिक्खेव २०३,
पज्जत्त १६७, २९६ णामट्ठाण २६४ २९१ णिक्खमण
पटुवग
३०४ गुणसेढिसीसग २८८ णिक्खेवफद्दय
पडिआगाल
२७६
२६२ गुणसंकम २८३, २५८ णिढवग
पडिभाग
१४५ २८५ णिदरिसण
पढमहिदि
२७६ गुणहाणिहाणंतर ११३ णिदरिसणउवणय - १७८ पढमादिया १४२ ११४, ११५,११६, १३५ णिदाण
पणुवीसपडिग २९६ ग्रहण
१८८ णियदि
१८८ पणुवीसदिपडिग
२९६ गोमुत्ती १५५ णिरय २९८ पत्थण
१८९ घ. घाद २३२, २७९ णिरासाण
३०२ पदुप्पण्ण
१३८ च. चउट्ठाण १५०, १७० णिव्वग्गणकंडय २४८ पदेसगुणहाणि २६२ चउट्ठाणिय २५८
णिव्वग्गणा
२५४ पदेसग्ग १५७, १५८, १६३ चरिमादिया १४२ णिव्वाघाद
३०२
२८२ छ. छण्ण १८८ णीरासाण ३०२ . पदेसबंध
२११ छत्तीसपद
१७५ पदेससंतकम्म २८७
दंडग
१७६
८२
णेगम
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
२११
२०४
· १८६
पमाण पम्मलेस्सा ..२०४ परिभव पयडिबंध पयडिसंतकम्म २०७ परभवियाउअ २१४ परिणाम १९५, १९९, २०० परूवणा
६३ पलिवीचिट्ठाण १७५ पवाइज्जंत १८, ७१, १४६ पवेसग १९६, २१५, २१६ पवेसण
१६ पवेसणय १४३, १४४ पव्वदराइसमाण १८२ पसत्थकम्मंस २५८ पुच्छा
७३, ७४ पुच्छासुत्त पुढविराइसरिस १५२ पुरिमद्ध पुव्वणिक्खित्त १७३ पुवपरूविद १७३ पुव्वबद्ध १९६, २०७ पेज्ज पंचिंदिय
२९६ पंसुलेवसम
१५५ फ. फोसण ब. बज्झमाण
१६६ बद्ध बंध १९, २२१, ३११
बंधग म. भवग्गहण ३, ३८, ४१ भवण
२९८ भागाभाग ८६, ८७ भावहाण १७६, १७७ भावोवजोगवग्गणा ६१, ६२
भूदपुव्व १०,९१ म. मज्झिम
३०२ मणजोग
२०१ मणुण्णमग्गण १८८ मद
१८७
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे महादंडय
लोहोवजोग ३, ४५, ४६ . माण १५१, १५२, १५८ १८७ लोहोवजोगिग ५५, ५९ माणकाल ९३, ९६, ९८
वग्गणग्ग वग्गणा ६, १५८
वग्गणाकसाअ. ८५, ८६ माणद्धा १५, १७, १८, २०
वग्गणाकसाय माणागरिसा ३२, ३९ माणोवजोग
वचिजोग ४४, ४५,
वडमाण माणोवजोगद्धा ७७, ७८
वड्डमाणलेस्सा वडि ववहार
१७५ माणोवजोगिग ५६, ५८,५९
वालुगराइसरिस १५२ मायद्धा १५, १७, १८, २०
वालुवराइसमाण १८१ माया १५१, १५५, १८८
विज्ज
१८९ मायाकाल ९८, ९९
विज्झादसंकम २७४ मायागरिसा ३२, ३९
विदियहिदि २७६ मायोवजोग ४५, ४६, ४७ विदियादिया १४२ मायोवजोगिग ५६, ५८,५९ विभज्ज मिच्छत्त
१६७ विभासा मिच्छत्तपच्चय
विमाण
२९८ मिच्छत्तवेदणीय ३०७
वियह
३१६ मिस्सग
विरदि
१६७ मिस्सयकाल ९३, १६, १०० विरदाविरद १६७
१०५ विरहिद मुच्छा
विवाद
१८६ मूलपयडि २१४, २१५
विसुज्झमाण २०० मेंढविसाणसरिसी १५५ विसुद्धि
२०० र. राग
विसोही २४५, २४६, २४७ रोस
२४९, २५२ ल. लक्ख ण २३४, २५६ विहासा ६१, ६५, ७१, लदासम १६०, १६१
१९८, २०१ लदासमाण १५२, १५८
वेउन्वियकायजोग २०१
वेद १९५, २०५, २०६ लालस
१८९ वेदयसम्माइटि ३१३ लेस्सा १६७, १९५, २०४ वेदंत
१६८ लोभट्ठाण
१२३ वंचणा लोभ १८९ वंजण
१८५ लोभकाल ८९, ९९ वंसीजण्हुगसरिसी लोभागरिसा २९, ३१, ३८ स. सण्णा
७३ लोह १५१, १५५ सण्णी १६७, १६९, २९६ लोहद्धा १५, १८, २० सत्थाणपद
१००
REERRESTERIES
१८९
१८८
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
सद्दणय समुक्कास
समुद्द
सम्मत्त सम्मत्तपढमलंभ
सम्मामिच्छा सव्वावरणीय
सागार
सादिजोग
३१३
१६४
सव्ववसम ३१४, ३१६
सागरुवजोग
१७६
१८७
अणुगम
अणुभाग अणुभागग्ग
२९८
१६७, १९४
३१६,
३१७
अणुराग
अर
अद्धट्ठाण
२०४
१६७, ३०४
१८८
अक्खम
अक्खमलसम
अग्ग
अणज्जुगद अणभिजोग्ग
३००
अणियट्टिकरण २३४, २५६
२३५
१९४
अवलेहणी
अविरदि
अंतरकरण
६२
१८७
१५६
१६२
१८९
७, ८
१६२
१९०
१८८
१७४
अद्धापरिणाम
१४
अधापवत्तकरण २३३, २४५ अनाकारोपयोग २०३, २०४
११६
अपवाइज्जंत उवएस अपुव्वकरण २३४, २५२
अभिजग्ग
३००
अभीक्ष्णोपयोग
२८
परिसिट्ठाणि
७. जयधवलागत - पारिभाषिक शब्दसूची
सूचना--यहाँ मात्र वे पारिभाषिक शब्द लिये गये हैं जिनकी मूलमें परिभाषा दी है या जिनका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है ।
अ. अइच्छावणाफद्दय
अंस
सासद
सुक्कलेस्सा
१८९
२००
सुत्त
१, १५०, १७२
सुत्तगाहा १७८, १८३, १९३
१९९, २३३
इ.
उ.
सुत्तणिबद्ध
सुत्तफास सुत्तविहासा
सुद
सूचणाणुगम
सूचणासुन्त C
आ. आगरिस
आगाइदफद्दय
आगाल
आव
आवलिया
आसा
इच्छा
उच्चट्ठाण
उदयराइस रिस
उद
उवक्कम उवजोग
उवजो गद्धट्ठाण उवजोगवग्गणा उपयोग
उवसामग
उवसामणद्धा
वसंत
उवसंदरिसणा
उस्सिद
८७
२९६
१४०, १७८
१८९
८७
८५
१४१
१५५
१९१ ए. एक्कगणिक्खेव
२७२ क. कक्क
१९७
२८
२६
२७७
१९४
११३
१९०
१९१
१७४
१५४
१६७
सेलघणसमाण
संकम
संकमण
संगह
१९४
२०३
१०९
६१
४, ५
२७६, २८६
२३४
१६७
५१
१८८
१७२
८९
संजमट्ठाण
संजलण
संतपरूवणा
संधि
ह. हायमाण
हाय माणकसाय हाद्दिवत्थसम
करण
कलह
कसायोदट्ठाण कसायोवजोगद्धा
काम
कायजोग
कालजोणी
कुहक
९१ कालोवजोगवग्गणा ६२
१८९
१५६
९४
९४
कृमिरागरत्तसमग कोहकाल
कोह मिस्स काल
ख. खेत्तट्ठाण
ग. गह
गहण
गिद्धि
गुणसे ढिक्वि
गूहण
३५१
१५२
३१८
३१८
१७५
१७६
१८६
८६
१६३
२०३
२०३
१५५
च. चरिमादिया
छ. छण्ण
छंद
ज. जवमज्झ
जिब्भा
२३३
१८७
१०९
६२
१८९
२०२
१७४
२९९
१८९
१९०
२६४
१८९
१४३
१८९
१९०
१११
१९२
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८७
१७२
वड्डि
परिणाम
१८८
०
३५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे जोग
२०२ पडिआगाल २७७ र. राग झ. झंझा
पडिआवलिया २७७ ल. लालस ट. ढवणणिक्खेव
पढमसमय १४१ व. वग्गणा ठ. ठवणट्ठाण १७४ पढमादिया १४२ वचिजोग . २०२ ण. णगराइसरिस १५३ पत्थण
१८७ णामट्ठाण
१७४ पदुप्पण्ण
१३८ वत्तव्वदा णिक्खेवफहय २६२
पयोगट्ठाण १७४ वालुगराइसरिस १५३ णिदरिसण
१९६ विज्ज
१९१ णिदरिसणोवणय १७४
परिभव
१८८ विज्झादसंकम २८४ णिदाण
पवाइज्जंतउवएस ११६ विदियादिया . १४२ णियदि
पवेसणय १४४ विवाद
१८. णिरासाण ३०३ पांसुलेवसम १५६
विसेसकोह णिव्वग्गणकंडय २३६ पुढविराइसरिस .२५३
विहासा पुण
१६५ णि वाघाद
पेज्ज
१९०
वंचणा णोआगमभावहाण १७५ ब. बज्झमाण
वंसीजण्हुगसरिसी १९० बद्ध
१६६ स. सव्वोवसम जोकोहकाल
भ. भावट्ठाण १७५ साकार ( उपयोग) णोमाणकाल ९२, ९३, १०५ भावोवजोगवग्गणा ६२ सादिजोग १८८ त. तण्हा १९१ म. मणजोग
२०२ सामण्णकोह थ. थंभ
१८८ मणुण्णमग्गण १८९ सासद द. दप्प १८८ मद १८८
१९० दव्वट्ठाण १७४ माण
१८७ सेढि देसावरण १६५ माणकाल
सेलघण
१५४ दोस १८७, १९० माया
१८८ संजमद्राण
१७४ दंसणोवजोग ३०४ मिस्सयकाल ९२, ९४
१८७ दसणमोहणीयउवसम २८०
संतकम्म १६६ प. पटुवग
मेंढविसाणसरिसी १५५ ह. हालिहवत्थसमग । १५७
२५४
वेद
३०२
नेह
१५२ १९१
१४२
संजलण
मुच्छा
३०४
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
_