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गाथा १०० ]
दंसणमोहोवसामणा
(४८) सव्र्व्वहिं ट्ठिदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिष्णि कम्मंसा ।
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कहि य अणुभागे णियमा सव्वे ट्ठिदिविसेसा ॥१००॥
$ १९९. एत्थ 'तिणि कम्मंसा' त्ति भणिदे मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं गहणं कायव्वं, दंसणमोहोवसामणाए पयट्टत्तादो । एदे तिणि कम्मंसा सव्वेहि चेव ट्ठिदिविसेसेहि उवसंता बोद्धव्वा । ण तेसिमेक्का विट्ठिदी अणुवसंता अस्थि त्ति भावत्थो । तदो मिच्छत्त- सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णट्ठिदिप्पहुडि जावुक्कस्सट्ठिदित्ति देसु सव्वेसुट्ठिदिविसेसे दिसव्वपरमाणू उवसंता त्ति सिद्धं । एवमुवसंताणं तेसिं हिदिविसेसाणं सव्वेसिमणुभागो किमेयवियप्पो चेव आहो णाणावियप्पो त्ति भणिदे एयवियप्पो चेवेत्ति जाणावणट्ठमुवरिमो गाहासुत्तावयवो - 'एक्कम्हि य अणुभागे' एकम्हि चेवाणुभागविसेसे' तिन्हमेदेसि कम्मंसाणं सव्वे द्विदिविसेसा दट्ठव्वा । अंतर - बाहिरा - णंतरजहण्णट्ठिदिविसेसे जो अणुभागो सो चेव तत्तो उवरिमासेसट्ठिदिविसेसेसु उकस्स
'नहीं' इतने वाक्यशेषके योगसे यह अर्थ फलित किया है कि उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थानवालेके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता । यहाँ 'नहीं' इस वाक्य शेषकी योजना 'तेण परं होइ भजियन्बो' पदको ध्यान में रखकर की गई है। तीसरे अर्थको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होने पर मिथ्यात्वका उदय भजनीय है । अर्थात् यदि ऐसा जीव मिध्यात्वको प्राप्त होता है तो उसके मिथ्यात्व कर्मका उदय रहता है | यदि सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय रहता है और यदि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय रहता है। इस प्रकार इस गाथासूत्र द्वारा तीन अर्थोंको स्पष्ट किया गया है ।
दर्शन मोहनीयकी तीनों कर्म प्रकृतियाँ सभी स्थिति विशेषोंके साथ उपशान्त ( उदय के अयोग्य ) रहती हैं तथा सभी स्थितिविशेष नियमसे एक अनुभाग में अवस्थित रहते हैं ।। ६-१०० ।।
$ १९९. इस गाथासूत्र में 'तिणि कम्मंसा' ऐसा कहनेपर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दर्शनमोहकी उपशामनाका प्रकरण है । ये तीनों ही कर्म प्रकृतियाँ सभी स्थिति विशेषोंके साथ उपशान्त जाननी चाहिए। उनकी एक भी स्थिति अनुपशान्त नहीं होती यह उक्त कथनका भावार्थ है । अतः मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक इन सब स्थिति विशेषों में स्थित सब परमाणु उपशान्त होते हैं यह सिद्ध हुआ । इसप्रकार उपशान्त हुए उन सब स्थितिविशेषका अनुभाग क्या एक प्रकारका ही है या नाना भेदोंको लिये हुए है ऐसा कहनेपर एक प्रकारका ही है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका गाथासूत्रका अवयव आया है'एक्कम्हि य अणुभागे' एक ही अनुभागविशेष में इन तीनों कर्मप्रकृतियोंके सब स्थितिविशेष जानने चाहिए । अन्तरायामके बाहर अनन्तरवर्ती जघन्य स्थितिविशेषमें जो अनुभाग है
१. ता० प्रती चेवाणुभागविसये इति पाठः ।