________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
११३ २४९. संपहि जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च एगगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरमावलियाए असंखेजदिभागमेत्तं चेव होदि त्ति जाणावणट्ठमुवरिमसुत्तमोइण्णं
* एगगुणवड्डि-हाणिहाणंतरमावलियवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो।
$ २५०. आवलिया णाम पमाणविसेसो । तिस्से वग्गमूलमिदि वुत्ते तप्पढमवग्गमूलस्स गहणं कायव्वं । तस्स वि असंखेजदिभागो जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च एगगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरमवद्विदं होइ । णाणागुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ वुण असंखेजावलियपढमवग्गमूलमेत्ताओ एदम्हादो चेव साहेयव्वाओ त्ति पुध ण वुत्ताओ। एदं सव्वमदीदकालमस्सियूण परूविदं । संपहि वट्टमाणकालमस्सियूण विसेसपरूवणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
___* हेट्ठा जवमज्झस्स सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि सदा।
२५१. जवमज्झस्स हेट्ठा ताव सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि सव्वकालमवि. रहिदसरूवेण जीवहिं आबुण्णाणि चेव होति ति णिच्छओ कायव्यो, एकस्स वि गुणहाणिहाणंतरस्स जीवसुण्णस्स तत्थ संभवाणुवलंभादो। संपहि तत्थतणसव्वअद्धट्ठाणाणि हैं और उसके आगे कितनी द्विगुणहानियाँ होती हैं इस प्रमाणका निर्देश करते हुए यह बतलाया गया है कि यवमध्यस्थान जहाँ अवस्थित हैं वहाँ तक जितनी द्विगुणवृद्धियाँ होती हैं उससे आगे द्विगुणहानियाँ संख्यातगुणी होती हैं।
$ २४९. अब यवमध्यसे पूर्वमें और आगे एक गुणवृद्धिस्थान और एक गुणहानिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र आया है
* एक गुणवृद्धिस्थानान्तर और एक गुणहानिस्थानान्तर आवलिके वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
. $२५०. आवलि प्रमाणविशेषका नाम है। उसका वर्गमूल ऐसा कहनेपर उसके प्रथम वर्गमूलको ग्रहण करना चाहिए। उसके भी असंख्यातवें भागप्रमाण यवमध्यसे पूर्व एक गुणवृद्धिस्थानान्तर और उसके आगे एक गुणहानिस्थानान्तर अवस्थितस्वरूप है। अर्थात् एक आवलिके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागका जो प्रमाण है उतना प्रकृतमें एक गुणवृद्धिस्थान और एक गुणहानिस्थानका प्रमाण है। नाना गुणहानिस्थानान्तरशलाकाऐं तो असंख्यात आवलियोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं यह इसी वचनसे साध लेना चाहिए, इसलिए उनका कथन अलगसे नहीं किया है । यह सब अतीत कालका आश्रय लेकर कहा है। अब वर्तमान कालका आश्रय लेकर विशेषका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* यवमध्यके अधस्तन (पूर्व ) वर्ती सब गुणहानिस्थानान्तर सर्वदा आपूर्ण हैं अर्थात् जीवोंसे भरे हुए हैं।
$२५१. यवमध्यके पूर्ववर्ती तो सर्व गुणहानिस्थानान्तर सर्वदा अन्तरालके विना जीवोंसे आपूर्ण ही होते हैं ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए, क्योंकि उनमें एक भी गुणहानि