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गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
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* जाव गुणसंकमो ताव मिच्छत्तवज्जाणं कम्माणं ठिदिघादो अणुभागद्यादो गुणसेढी च ।
$ १६६. एत्थ मिच्छत्तवज्जाणमिदि णिद्देसो मिच्छत्तस्स उवसंतावत्थस्स तदवत्थाए ट्ठदिखंडयादीणमभावपदुप्पायणफलो । तम्हा जाव गुणसंकमो ताव एयंताणुवड्डिपरिणामेहिं दंसणमोहणीयवज्जाणं कम्माणं ठिदि - अणुभागघाद-गुणसेढिणिक्खेबलक्खणं कज्जसिसेसमेसो करेदि, णो परदो, तत्थ विज्झादविसोहियत्तादोत्ति सुतस्थणिच्छओ । कुदो वुण मिच्छाइट्ठिचरिमसमए चैवाणियट्टिकरणपरिणामेसु जिद्दिट्ठेसु गुणसंकमकालब्भंतरे ट्ठिदि-अणुभागघादादीणं संभवो ? ण एस दोसो, पुव्त्रपओगवसेण दुबरमे वित्तियं पि कालं तप्पवृत्तीए बाहाणुवलंभादो ।
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इस प्रकार इस स्थलपर सम्यग्मिथ्यात्व के भी विध्यातसंक्रमकी प्रवृत्तिका व्याख्यान करना चाहिए ।
* जब तक गुणसंक्रम होता रहता है तब तक इस जीवके मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मोंके स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणिरूप कार्य होते रहते हैं ।
$ १६६. यहाँपर ‘मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मों' इस पदके निर्देशका फल उपशान्त अवस्थाको प्राप्त मिथ्यात्वप्रकृतिके उस अवस्थामें स्थितिकाण्डकघात आदिके अभावका कथन करना है । इसलिये जबतक गुणसंक्रम होता है तबतक यह जीव एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोंके स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुणश्रेणिनिक्षेप लक्षणवाले कार्यविशेषको करता है, इससे आगे नहीं, क्योंकि आगे उसकी विशुद्धि विध्यात हो जाती है यह इस सूत्रके अर्थका निश्चय है ।
शंका - - परन्तु मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें ही अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके समाप्त हो जानेपर गुणसंक्रम कालके भीतर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात आदि कैसे सम्भव हैं ?
- समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व प्रयोगवश अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके उपरम हो जानेपर भी कितने ही कालतक उक्त कार्योंकी प्रवृत्ति में बाधा नहीं उपलब्ध होती ।
विशेषार्थ — जो जीव अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके रुकते ही अन्तरमें प्रवेशकर उपशमसम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके कितने कालतक किन कर्मोंके स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य होते रहते हैं, मिथ्यात्वप्रकृतिका गुणसंक्रम होकर क्या कार्य होता है, और इस कालमें किस प्रकारकी विशुद्धि होती है और उपशमसम्यग्दृष्टि के स्थितिकाण्डकघात आदि होनेका कारण क्या है इन सब बातोंका यहाँ निर्णय किया गया है। साथ में यह भी बतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके दूसरे समय से लेकर सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सम्यक्त्व प्रकृति में विध्यातसंक्रमके द्वारा प्रदेशनिक्षेप भी होता रहता है । इसप्रकार जबतक गुणसंक्रमकी प्रवृत्ति होती है तबके कार्यविशेषका सूचनकर उसके बाद विध्यातसंक्रमकी प्रवृत्ति होनेसे स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य रुक जाते हैं इस बातका सकारण निर्देश किया गया है ।