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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
५३. देसि पंचहं जुगलाणं पादेक्कमण्णदरस्स पवेसगो एसो होदि ति सुत्तत्थसमुच्चयो । सुगममण्णं ।
* उच्च-णीचागोदाणमण्णदरस्स पवेसगो ।
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५४. सुगममेदं । एवमोघेण पयडिउदीरणा परूविदा । एवं चेव पयडि - उदयस विमग्गणा कायव्वा, विसेसाभावादो ।
५५. संपहि सुतणिट्ठस्सेवत्थस्स पवंचीकरणट्टमादेससंबंधि किंचि परूवणं कस्साम । तं जहा - - आदेसेण चदुसु वि गदीसु णाणावरणीयस्स पंच वि पयडीओ उदयं पविसंति पवेसिजंति च । दंसणावरणीयस्स चत्तारि पयडीओ वेदणीयस्स सादासादाणमदरस चसु वि गदीसु उदयोदीरणाओ हवंति । मोहणीयस्स दस णव अहं वा पडीओ चदुसु गदीसु उदयोदीरणासरूवेण वेदिजंति । चदुण्हमाउआणं जत्थ गदीए जं जति तत्थ वेदगो उदीरगो च ।
$ ५६. णामस्स जइ रहओ तो णिरयगइ - पंचिदियजादि - वेडव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-हुंडसंठाण-वेउव्वियअंगोवंग - वण्ण-गंध-रस- फास - अगुरु अलहुअ -उवघाद- परघादुस्सास
$ ५३. यह जीव इन पाँच प्रत्येक युगलमें से किसी एक-एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है, इस प्रकार यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । शेष कथन सुगम है ।
विशेषार्थ — देवों में सूत्रोक्त सभी शुभ और नारकियों में अशुभ प्रकृतियोंका उदयउदीरणा होती है । किन्तु इनको छोड़कर अन्य दो गतिके जीवोंमें उक्त युगलों से प्रत्येक युगलसम्बन्धी प्रशस्त या अप्रशस्त किसी एक-एक प्रकृतिका उदय उदीरणा सम्भव है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है |
* उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनमेंसे किसी एक - एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है ।
$ ५४. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार ओघसे प्रकृति- उदीरणाका कथन किया । इसी प्रकार प्रकृत- उदयका भी अनुमार्गण कर लेना चाहिए, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता
विशेषार्थ — प्रकृत में ऐसा समझना चाहिए कि दर्शनमोहकी उपशमनाके सन्मुख हुए जीवके चारों गतियोंमें यथासम्भव अधःकरणके प्रथम समय में जिन प्रकृतियोंका उदय है उन्हींकी उदीरणा भी है. यही कारण है कि यहाँ उदय और उदीदणा में विशेषता न होनेका विधान किया है ।
$ ५५. अब सूत्रनिर्दिष्ट ही अर्थका विस्तार से कथन करनेके लिये आदेश सम्बन्धी कुछ प्ररूपणा करेंगे । यथा - आदेशसे चारों ही गतियोंमें ज्ञानावरणकी पाँचों ही प्रकृतियाँ उदय रूपसे प्रविष्ट होती हैं और प्रविष्ट कराई जाती हैं । दर्शनावरणकी चारों ही प्रकृतियोंका तथा सातावेदनीय और असातावेदनीयमेंसे किसी एकका चारों ही गतियोंमें उदय और उदीरणा होती है । मोहनीयकी दस, नौ या आठ प्रकृतियाँ चारों गतियोंमें उदय और उदीरणारूपसे वेदी जाती हैं। चारों आयुओंमेंसे जिस गतिमें जो आयु वेदी जाती है उसका उस गति में वेदक और उदीरक होता है ।
$ ५६. नामकर्मकी अपेक्षा यदि नारकी है तो नरकगति, पचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस,