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गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२१९ अप्पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादेज-अजसगित्ति-णिमिणमिदि एदासि उणत्तीसहं पयडीणं वेदगो उदीरगो च । तहा णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णेरइओ वेदगो होइ।।
६५७. अह जइ तिरिक्खो तिरिक्खगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर० छण्हं संठाणाणमेकदरं ओरालियअंगोवंग० छसंघडणाणं एक्कदरं वण्णादि४अगुरुअलहुआदि४० उज्जोवं सिया दोण्हं विहायगदीणमेक्कदरं तसादि४-थिराथिर-सुभासुभसुभग-दूभगाणमेकदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं आदेजणादेज्जाणमेकदरं जसगित्तिअजसगित्तीणमेक्कदरं णिमिणं चेदि एदासि पयडीणं तीसेक्कत्तीससंखाविसेसिदाणं पवेसगो होइ । पुणो णीचागोद-पंचंतराइयाणं च पवेसगो होइ ।
५८. अह जइ मणुसो तदो एदाओ चेव पयडीओ उज्जोववज्जाओ मणुसगइसहगदाओ वेदयदि । णवरि णीचुचागोदाणमेकदरमिह वत्तव्वं ।।
५९. जइ देवो देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउन्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्बियसरीरअंगोवंग-वण्णादि४ -अगुरु०४ - पसत्थविहायगदि-तसादि४-थिरास्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और निर्माण इन उनतीस प्रकृतियोंका वेदक और उदीरक होता है।
६५७. और यदि तिर्यञ्च है तो तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिक शरीर आंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णादि चार, अगुरुलघु आदि चार, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, त्रसादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमेंसे कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय-अनादेयमेंसे कोई एक, यश-कीर्ति-अयशःकीर्तिमेंसे कोई एक और निर्माण इन तीस और इकतीस संख्याविशिष्ट प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है । तथा नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है।
विशेषार्थ-जिन संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंके उद्योतका उदय और उदीरणा होती है वे इकतीस प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं और जिनके नद्योत प्रकृतिका उदय और उदीरणा नहीं होती वे तीस प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं । शेष कथन सुगम है।
६५८. और यदि मनुष्य है तो उद्योतको छोड़कर मनुष्यगतिके साथ इन्हीं प्रकृतियोंका वेदन करता है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर नीचगोत्र और उच्चगोत्रमेंसे किसी एक प्रकृतिका कथन करना चाहिए ।
विशेषार्थ—मनुष्योंमें तिर्यश्चगतिका उदय न होकर मनुष्यगति नामकर्मका उदय होता है, इसलिये यहाँ टीकामें 'मणुसगइसहगदाओं' ऐसे पाठका उल्लेख किया है। शेष कथन सुगम है।
६५९. और यदि देव है तो देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्णादि चार, अगुरुलघु आदि