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जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
थिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सरादेज्ज - जसगित्ति - णिमिणणामाणमुच्चागोद - पंचंतराइएहिं सह
पवेसगो वेदगो च होइ ।
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६०. संपहि देण सुत्तेण सूचिदट्ठिदि - अणुभाग - पदेसोदयोदीरणाणं पि किंचि अणुगमं कस्साम । तं जहा – एदासि चेव पयडीणमाउअवज्जाणं अंतोकोडाको डिमेत्तद्विदीओ आउआणं च तप्पाओग्गाओ हिदीओ ओकड्डियूणुदए देदि एसा ट्ठिदिउदीरणा । ६१. अणुभागुदीरणा वि पसत्थाणं पयडीणमेत्थ णिद्दिट्ठाणं चउट्ठाणिया बंधाणादो अनंतगुणहीणा, अप्पसत्थाणं विट्ठाणिया संतद्वाणादो अनंतगुणहीणा । पदेसुदीरणा वि एदासिं चैव पयडीणमजहण्णाणुकस्सिया होई । एवमुदयो वि अणुगंतव्व । एवं विदियाए सुत्तगाहाए अत्थविहासा समत्ता ।
चार, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, • यशःकीर्ति और निर्माणका उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके साथ प्रवेशक और वेदक होता है ।
$ ६० अब इस सूत्रद्वारा सूचित हुए स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन तीनोंके उदय और उदीरणाका कुछ अनुगम करेंगे । यथा आयुकर्मको छोड़कर इन्हीं प्रकृतियोंकी अन्त:कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितियाँ और आयुकर्मकी तत्प्रायोग्य स्थितियाँ अपकर्षित कर उदय में दी जाती हैं । यह स्थिति उदीरणा है ।
विशेषार्थ - - यहाँ चारों आयुओं की स्थितिकी अपकर्षण द्वारा उदीरणा कही गई है । इसपर यह प्रश्न होता है कि क्या नारकी, भोगभूमिज तिर्यन और मनुष्य तथा देवोंकी आयुकी भी अपकर्षणद्वारा उदीरणा होती है ? यदि होती है तो परमागममें इन जीवों को अनपवर्त्य आयुवाला क्यों कहा गया है ? समाधान यह है कि इन जीवों की भुज्यमान आयुका भोग तो पूरा होता है । परन्तु इन आयुओंके यथा सम्भव प्रत्येक निषेकमें कुछ ऐसे परमाणु होते हैं जो उपशम, निधत्त और निकाचितरूप नहीं होते, उनकी भोगकालमें उदीरणा सम्भव होनेसे यहाँ चारों आयुओंकी अपकर्षण द्वारा उदीरणा कही गई है। शेष कथन सुगम है।
$ ६१. अनुभाग उदीरणा भी यहाँ निर्दिष्ट की गई प्रशस्त प्रकृतियोंकी चतुःस्थानीय होती है जो बन्धस्थानसे अनन्तगुणी होन होती है । अप्रशस्त प्रकृतियोंकी द्विस्थानीय होती है, जो सत्त्वस्थानसे अनन्तगुणी हीन होती है । प्रदेश उदीरणा भी इन्हीं प्रकृतियोंकी अजघन्य अनुत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार उदय भी जानना चाहिए । इस प्रकार दूसरी गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ ।
विशेषार्थ -- प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके होता है, इसलिये यहाँ प्रशस्त प्रकृतियोंकी अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय होकर भी वह बन्धस्थान से अनन्तगुणी हीन बतलाई है । यहाँ उदयको भी उदीरणाके समान जाननेकी सूचना की है। उसका आशय यह है कि जिन प्रकृतियोंकी यहाँ उदीरणा है उन्हींका उदय भी है। जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षण आदि प्रयोगके विना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं उन कर्मस्कन्धोंकी उदय संज्ञा है और जो बड़ी स्थिति में स्थित कर्म अपकर्षण द्वारा फल देनेके सन्मुख किये जाते हैं उनकी उदीरणा संज्ञा है । प्रकृतमें ऐसा समझना चाहिए कि जिस गतिमें दर्शनमोहके उपशमके सन्मुख हुए जीवके जिन कर्मोंका उदय है उनकी उदीरणा अवश्य होती है। शेष कथन सुगम है ।