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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० १५७. आवलियमेत्तसेसाए पढमट्ठिदीए मिच्छत्तस्स हिदि-अणुभागाणमुदीरणासरूवेण घादो पत्थि त्ति भणिदं होइ । द्विदि-अणुभागकंडयघादो पुण जाव पढमद्विदिचरिमसमयो ताव मिच्छत्तस्स संभवदि, चरिमद्विदिबंधेण सह तत्थ तेसिं परिसमत्तिदंसणादो । तदो उदीरणाघादस्सेव एसो पडिसेहो त्ति सद्दहेयव्वं । .
१५८, एवमेदेण विहाणेण मिच्छत्तपढमट्ठिदिमावलियपविट्ठ कमेण वेदयमाणो चरिमसमयमिच्छादिट्ठी जादो। तदणंतरसमए च मिच्छत्तपढमहिदि सव्वं गालिय पढमसम्मत्तमुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तर भणइ
* चरिमसमयमिच्छाइट्टी से काले उवसंतदसणमोहणीओ।
$ १५९. पढमसम्मत्तमुप्पाएदि ति वक्कविसेसो एत्थ कायव्यो। को एत्थ दंसणमोहणीयउवसमो णाम ? वुच्चदे-करणपरिणामेहिं णिसत्तीकयस्स दंसणमोह
६ १५७. प्रथम स्थितिके आवलिप्रमाण शेष रहनेपर मिथ्यात्वकर्मके स्थिति-अनुभागका उदीरणारूपसे घात नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु प्रथम स्थितिके अन्तिम समयतक मिथ्यात्वकर्मका स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात सम्भव है, क्योंकि वहाँपर अन्तिम स्थितिबन्धके साथ उनकी परिसमाप्ति देखी जाती है। इसलिये उदीरणाघातका ही यह निषेध है ऐसा श्रद्धान करना चाहिए ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयतक होता है, अतः उसका अविनाभावी स्थितिकाण्डकघात भी तथा एक स्थितिकाण्डकघातके कालमें हजारों अनुभागकाण्डकघात भी वहींतक समझने चाहिए। यह स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातकी क्रिया और उनका निक्षेप आवलि-प्रत्यावलिके शेष रहनेपर वहाँसे लेकर अन्तरसे उपरितन स्थिति और अनुभागमें ही जानना चाहिए, प्रथम स्थिति और उसके अनुभागमें नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६ १५८. इसप्रकार इस विधिसे उदयावलिमें प्रविष्ट हुई मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिका क्रमसे वेदन करता हुआ अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि हो जाता है। और मिथ्यात्वकी सम्पूर्ण प्रथम स्थितिको गलाकर तदनन्तर समयमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला होता है इस बातको बतलानेवाले आगेके सूत्रको कहते हैं
* पुनः वह अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव तदनन्तर समयमें उपशामन्त दर्शनमोहनीय होकर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है।
६ १५९. प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है इतने वाक्यविशेषकी यहाँ योजना करनी चाहिए।
शंका-यहाँपर दर्शनमोहनीयका उपशम किसे कहते हैं ?
समाधान—करणपरिणामोंके द्वारा निःशक्त किये गये दर्शनमोहनीयके उदयरूप पर्यायके बिना अवस्थित रहनेको उपशम कहते हैं।