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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० एकम्मि आउए गदिविसेससंबंधेण णिरुद्धे तत्थ सेसाणमुदएण झीणदा त्ति वत्तव्वं ।
७०. णामस्स जइ णेरइओ, णिरयगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-हुंडसंठाण-वेउब्वियअंगोवंग-वण्ण४ - अगुरुअलहुअ४ - अप्पसत्थविहाय० - तस४थिराथिर-सुहासुह-भग-दुस्सर-अणादेज-अजसगित्ति-णिमिणणामाओ एदाओ पयडीओ उदएण अज्झीणाओ, सेसाओ झीणाओ।
७१. जइ तिरिक्खो, तिरिक्खगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर० छण्हं संठाणाणमेक्कदरं ओरालियअंगोवंग० छण्हं संघडणाणमेक्कदरं वण्ण४-अगुरुलहुअ४ उज्जोवं सिया० दोण्हं विहायगदीणमेक्कदरं तसादिचउक्क० थिराथिर-सुभासुभ० सुभगदूभगाणमेक्कदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जस-अजसगित्तीणमेक्कदरं णिमिणं च एदाओ पयडीओ तिरिक्खस्स उदएण अझीणाओ। सेसाओ पयडीओ उदएण झीणाओ । मणुस्सस्स वि मणुसगदि-पंचिंदियजादि० एवं तिरिक्खभंगेण णेदव्वं । णवरि उज्जोववजं ।
5 ७२. जइ देवो, देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियअंगोवंग-वण्ण४ - अगुरुलहुअ४ - पसत्थविहायगइ - तस४ - थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-जसगित्ति-णिमिणमिदि एदाओ पयडीओ उदएण अज्झीप्रकृतियोंका उदयविच्छेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि गतिविशेषके सम्बन्धसे एक आयुके उदय रहनेपर उसके शेष आयुओंका उदय नहीं होता ऐसा कहना चाहिए।
७०. यदि नारकी है तो नामकर्मकी नरकगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोग ति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण नामवाली ये प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, शेष प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न हैं अर्थात् शेष प्रकृतियोंका उसके उदय नहीं होता।
७१. यदि तिर्यश्च है तो तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक, औदारिक शरीर आंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक,
सादिचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमेंसे कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय-अनादेयमेंसे कोई एक, यश कीर्ति-अयश कीर्तिमेंसे कोई एक और निर्माण ये प्रकृतियाँ तिर्यश्चके उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, शेष प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न हैं, अर्थात् शेष प्रकृतियोंका उसके उदय नहीं होता। मनुष्यके भी मनुष्यगति और पञ्चेन्द्रियजाति इत्यादि रूपसे तिर्यश्चके समान जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके उद्योत प्रकृतिका उदय नहीं होता।
७२. थदि देव है तो देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति और निर्माण नामवाली ये प्रकृतियाँ उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, शेष प्रकृतियाँ उदयसे