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गाथा ९४]
दसणमोहोवसामणा णाओ, सेसाओ झीणाओ।
७३. गोदस्स जइ रइओ तिरिक्खो वा णीचागोदमुदयादो अज्झीणमुच्चागोदं झीणं । जइ मणुसो, णीचुच्चागोदाणमेक्कदरं झीणं । जइ देवो, उच्चगोदं उदएण अज्झीणं, णीचागोदं झीणं । चदुसु वि गदीसु पंचंतराइयाणि उदएण णो झीणाणि । एसा ताव पयडिउदयझीणदा सुत्ताणुसारेण मग्गिदा ।
६७४. जाओ पयडीओ जत्थ उदएण अज्झीणाओ तत्थ तासिमंतोकोडाकोडिमेत्ता द्विदी उदएण अज्झीणा। सेसाणं पयडीणं सव्वाओ द्विदीओ उदएण झीणाओ। एसा हिदिउदयझीणदा णाम । जाओ अप्पसत्थपयडीओ उदएण अज्झीणाओ तासिं विट्ठाणिओ अणुभागो संतादो अणंतगुणहीणो उदएण अज्झीणो । जाओ पसत्थपयडीओ उदएण अज्झीणाओ तासि पयडीणं चउहाणिओ अणुभागो बंधादो अणंतगुणहीणसरूवो उदयादो अज्झीणो, सेसाणं झीणत्तं । एसा अणुभागझीणदा णाम । पदेसझीणदा वि जाओ पयडीओ उदएण अज्झीणाओ तासिं पयडीणमणुकस्सयं पदेसग्गमुदयादो अज्झीणं, सेसाणि ज्झीणाणि । एत्थेव पयडिआदीणमुदीरणादो वि झीणाझीणत्तमेदीए दिसाए अणुगंतव्वं । एवं तदियगाहापुव्वद्धस्स अत्थविहासा समत्ता। विच्छिन्न हैं, अर्थात् उनका उदय नहीं होता।
६७३. यदि नारकी और तिर्यश्च है तो गोत्रकर्मकी नीचगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न नहीं हैं, उच्चगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न है। यदि मनुष्य है तो नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनमेंसे कोई एक प्रकृति उदयसे विच्छिन्न है। यदि देव है तो उच्चगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न नहीं है, नीचगोत्र प्रकृति उदयसे विच्छिन्न है। यह प्रकृति उदयविच्छिन्नता है जिसका सूत्रके अनुसार विचार किया।
७४. जो प्रकृतियाँ जहाँ पर उदयसे अविच्छिन्न हैं वहाँ उनकी अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थिति उदयसे अविच्छिन्न है । शेष प्रकृतियोंकी सब स्थितियाँ उदयसे विच्छिन्न हैं । यह स्थिति उदयविच्छिन्नता है। जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ उदयसे अविच्छिन्न हैं उनका द्विस्थानीय अनुभाग सत्त्वसे अनन्तगुणा हीन होकर उदयसे अविच्छिन्न है। जो प्रशस्त प्रक्रतियाँ उदयसे अविच्छिन्न हैं उन प्रकृतियोंका चतुःस्थानीय अनुभाग बन्धसे अनन्तगुणा हीनस्वरूप होकर उदयसे अविच्छिन्न है, शेष प्रकृतियोंका अनुभाग उदयसे विच्छिन्न है। यह अनुभाग विच्छिन्नता है। प्रदेशविच्छिन्नता-जो प्रकृतियाँ उदयसे अविच्छिन्न है उन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशपिण्ड उदयसे अविच्छिन्न है, शेष प्रकृतियाँ प्रदेशपिण्डकी अपेक्षा उदयसे विच्छिन्न हैं। यहीं पर प्रकृति आदिकी उदीरणाकी विच्छिन्नता और अविच्छिन्नताको भी इसी दिशासे जान लेना चाहिए। इस प्रकार तीसरी गाथाके पूर्वाधके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ।
विशेषार्थ—यहाँ चूर्णिसूत्र में दर्शनमोहके उपशमके सन्मुख हुए जीवके निद्रादिक पाँचका अनुदय बतलाया है। उसका कारण देते हुए टीकामें बतलाया है कि ऐसा जीव नियमसे जागृत होता है। किन्तु धवला टीकामें ऐसे जीवको दर्शनावरणकी चार या निद्रा