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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो७ अदिरित्तो होदि त्ति घेत्तव्वं । तस्सेसा संदिट्ठी ३ २ २ २। अथवा पढममसंखेज्जवारमवहिदपरिवाडीए गंतूण पुणो अंतिमवारे लोभो माया कोहो च होदूण पुणो णियत्तिय लोभमेव गंतूण तदो मायं कोधं च वोलिय माणं गदो । एवं पि लोभागरिसो अहिओ होइ त्ति वत्तव्वं । एवमेसा पढमपरिवाडी सुत्ते परूविदा।।
६५७. संपहि एदेणेव सूचिदाओ असंखेज्जाओ परिवाडीओ वत्तइस्सामो। तं जहा—एगवारं लोभागरिसे अहिये जादे पुणो वि पुत्वविहाणेण लोभो माया कोधो माणो त्ति होदूण ११११ पुणो वि तहा चेव होदण ११११ एवमेदेण विहिणा असंखेज्जवारे गंतूण तदो पच्छिमवियप्पे पुव्वुत्तविहिणा चेव लोभो माया च होदूण तदो जइ लोभं चेव णियत्तिदूण पडिवज्जइ, तो लोभादो मायमुल्लंघियूण कोधो होदूण पुणो माणो होदि त्ति लोभागरिसो विदियवारमदिरित्तो लब्भदे ३ २ २ २। अह जइ लोभो माया कोधो त्ति होदण तत्तो पडिणियत्तिय लोभं पडिवज्जदि तो पुव्वं व लोभादो मायं कोधं च वोलेयण पुणो माणं पडिवज्जदि त्ति । एवं पि लोभागरिसो विदियवारमदिरित्तो समुवलब्भदे । एवमेदेण विधिणा पुणो-पुणो भण्णमाणे असंखेज्जाओ लोभपरिवाडीओ अदिरित्ता लब्भंति । ताधे सव्वपरिवाडीणमेसा संदिट्ठी ९६ ६ ६ । संदृष्टि है ३ २ २२। अथवा पहले असंख्यातवार अवस्थित परिपाटीसे जाकर पुनः अन्तिम वारके समय लोभ, माया और क्रोध होकर पुनः लौटकर लोभको ही प्राप्त होकर उसके बाद
और क्रोधको उल्लंघन कर मानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार लोभका परिवर्तनवार अधिक होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । इस प्रकार यह प्रथम पारिपाटी सूत्रमें कही गई है।
६५७. अब इसी द्वारा सूचित हुई असंख्यात परिपाटियोंको बतलाते हैं। यथा-एक बार लोभपरिवर्तनवारके अधिक होनेपर फिर भी पूर्वविधिसे लोभ, माया, क्रोध, मान ११११ इस प्रकार होकर फिर भी उसी प्रकार होकर ११११ इस प्रकार इस विधिसे असंख्यातवार जाकर उसके बाद अन्तिम विकल्प पूर्वोक्त विधिसे ही लोभ और माया होकर उसके बाद यदि निवृत्त होकर लोभको ही प्राप्त होता है तो लोभके बाद मायाको उल्लंघन कर क्रोध होकर पुनः मान होता है। इस प्रकार लोभका परिवर्तनवार दूसरी बार अतिरिक्त प्राप्त होता है-३२२२। और यदि लोभ, माया, क्रोध इस प्रकार होकर उसके बाद लौटकर लोभको प्राप्त होता है तो पहलेके समान लोभके बाद माया और क्रोधको उल्लंघनकर पुनः मानको प्राप्त होता है। इस प्रकार भी लोभका परिवर्तनवार दूसरीबार अतिरिक्त प्राप्त होता है । इस प्रकार इस विधिसे पुनः पुनः कथन करनेपर असंख्यात लोभ परिपाटियाँ अतिरिक्त प्राप्त होती हैं । तब सब परिपाटियोंकी यह संदृष्टि ९६ ६६ होती है।
. विशेषार्थ-संसारमें सकषायी तिर्यञ्चों और मनुष्योंके क्रोधादि कषायोंके परिवर्तनक्रमका यहाँ निर्देश करते हुए बतलाया है कि लोभ, माया, क्रोध, मान इस क्रमसे कषायोंका स्वभावसे परिणमन होता है। ऐसा चारों कषायोंका एकवार परिणमन हुआ इसे संदृष्टिद्वारा ११११ इस प्रकार बतलाया गया है। इस प्रकार कषायोंके परिवर्तनका यह क्रम जब असंख्यातबार
१. प्रतिषु -मुल्लंघिय इति पाठः ।
पाया