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प्राभृत और उसकी चूणिका भरपूर सहारा लेना पड़ा वहाँ उनके सहयोगी तथा प्रस्तावना लेखक श्री श्वे. मुनि हेमचन्द्र विजयजी कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको अपने मनगड़न्त तर्कों द्वारा श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका संवरण न कर सके। आगे हम उनके उन कल्पित तोपर संक्षेपमें क्रमसे विचार करेंगे जिनके आधारसे उन्होंने इन दोनोंको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है। उसमें भी सर्वप्रथम हम मूल कषायप्राभृतके ग्रन्थ परिमाणपर विचार करेंगे, क्योंकि श्वे. मुनि हेमचन्द्र विजयजीने अपनी प्रस्तावना ८ पृ. २९ में कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारोंमें विभक्त १८० गाथाओंके अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओंके प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्त की है। किन्तु उसके चणि सूत्रोंपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि आचार्य श्री यतिवृषभके समक्ष पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त १८० सूत्र गाथाओंके समान कषायप्राभूतके अंगरूपसे उक्त ५३ सूत्रगाथायें भी रही हैं। इनपर कहीं उन्होंने चूणिसूत्रोंकी रचना की है और कहीं उन्हें प्रकरणके अनुसार सूत्ररूपमें स्वीकार किया है। जिनके विषयमें श्वे, मुनि हेमचन्द्र विजयजीने प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्त की है उनमेसे 'पुवम्मि पंचमम्मि दु' यह प्रथम सूत्र गाथा है जो ग्रंथके नाम निर्देशके साथ उसकी प्रामाणिकता को सूचित करती है। इसपर चूर्णिसूत्र है-'णाणप्पवादस्स पूव्वस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहडस्स' इत्यादि । अब यदि इसे कषायप्राभृतकी मूल गाथा नहीं स्वीकार किया जाता है तो (१) एक तो ग्रंथका नामनिर्देश आदि किये विना ग्रंथके १५ अर्थाधिकारोंमें से कुछका निर्देश करनेवाली नं० १३ की 'पेज्ज-दोसविहत्ती' इत्यादि सूत्रगाथासे हमें ग्रंथका प्रारम्भ माननेके लिये बाध्य होना पड़ता है जो सङ्गत प्रतीत नहीं होता । (२) दूसरे उक्त प्रथम गाथाके अभावमें नं०१३ की उक्त सूत्रगाथाके पूर्व चूर्णिसूत्रों द्वारा पाँच प्रकारके उपक्रमके साथ 'अत्थाहियारो पण्णारसविहो' इस प्रकारका निर्देश भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उक्त प्रकारसे चणि सूत्रोंकी रचना तभी संगत प्रतीत होती है जब उनके रचे जानेवाले ग्रंथका मल या चूर्णिमें नामोल्लेख किया गया हो ।
___ इस प्रकार सूक्ष्मतासे विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' इत्यादि गाथा प्रक्षिप्त न होकर अन्य १८० गाथाओंके समान ग्रंथकी मूल गाथा ही है।
दूसरी सूत्रगाथा है-'गाहासदे असीदे' इत्यादि । इसके पूर्व पाँच प्रकारके उपक्रमके भेदोंका निर्देश करते हुए अन्तिम चूणिसूत्र है-'अत्थाहियारोपण्णारसविहो।' यह वही गाथा है जिसके आधारसे यह कहा जाता है कि कषायप्राभृतको कुल १८० सूत्र गाथाएं हैं। अब यदि इसे प्रक्षिप्त माना जाता है तो ऐसे कई प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका सम्यक् समाधान इसे मूल गाथा माननेपर ही होता है । यथा
(१) प्रथम तो गुणधर आचार्यको कषायप्राभृतके १५ ही अर्थाधिकार इष्ट रहे हैं इसे जाननेका एकमात्र उक्त सूत्रगाथा ही साधन है, अन्य नहीं । क्रमांक १३ और १४ सूत्र गाथाएँ मात्र अर्थाधिकारोंका नामनिर्देश करती है। वे १५ ही हैं इसका ज्ञान मात्र इसी सूत्र गाथासे होता है और तभी क्रमांक १३ और १४ सूत्रगाथाओंके बाद 'अत्थाहियारोपण्णारसविहो अण्णण पयारेण' इस प्रकार चूणिसूत्रकी रचना उचित प्रतीत होती है।
(२) दूसरे उक्त गाथासे ही हम यह जान पाते हैं कि कषायप्राभृतको सब गाथाएँ उसके १५ अर्थाधिकारोंके विवेचनमें विभक्त नहीं है। किन्तु उनमेंसे कुल १८० गाथाएँ ही उनके विवेचनमें विभक्त हैं। उक्त गाथा प्रकृतका विधान तो करती है, अन्यका निषेध नहीं करती। यहाँ प्रकृत १५ अर्थाधिकार हैं। उनमें १८० सूत्रगाथाएं विभक्त हैं इतना मात्र निर्देश करनेके लिए आचार्य गुणधरने इस सूत्रगाथाकी रचना की है। १५ अर्थाधिकारोंसे सम्बद्ध गाथाओंका निषेध करनेके लिए नहीं।
इस प्रकार इस दूसरी सूत्रगाथाके भी ग्रंथका मूल अंग सिद्ध हो जानेपर इससे आगेकी क्रमांक ३ से लेकर १२ तकको १० सूत्रगाथाएं भी कषायप्राभृतका मूल अंग सिद्ध हो जाती है, क्योंकि उनमें १५ अर्था
सम्बन्धी १८० गाथाओंमेंसे किस अर्थाधिकारमें कितनी सूत्रगाथाएँ आई है एकमात्र इसीका विवेचन किया गया है जो उक्त दूसरी सूत्रगाथाके उत्तरार्धके अनुसार ही है। उसमें उन्हें सूत्रगाथा कहा भी गया है । यथा-'वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ।