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( २९ ) इसी प्रकार संक्रम अधिकारकी जो 'अट्ठावीस' इत्यादि ३५ सूत्रगाथाएं आई हैं वे भी मूल कषायप्राभृत ही हैं और इसीलिए आचार्य यतिवृषभने उनके प्रारम्भमें 'एत्तो पयडिट्ठाणसंकमो । तस्स पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्कित्तणा' इस चूर्णिसूत्रको रचनाकर और उनके अन्तमें 'सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए' इस चणिसूत्रकी रचनाकर उन्हें सूत्ररूपमें स्वीकार किया है ।
इस प्रकार सब मिलाकर उक्त ४७ सूत्रगाथाओंके मूल कषायप्राभूत सिद्ध हो जानेपर क्रमांक १५ से लेकर 'आवलिय अणायारे' इत्यादि ६ सूत्रगाथाएँ भी मल कषायप्राभत ही सिद्ध होती हैं, क्योंकि यद्यपि आचार्य यतिवृषभने इनके प्रारम्भमें या अन्तमें इनकी स्वीकृति सूचक किसी चूणिसूत्रकी रचना नहीं की है । फिर भी समग्र कषायप्राभूतपर दृष्टि डालनेसे और खासकर उपशमना-क्षपणा प्रकरणपर दृष्टि डालनेसे यही प्रतीत होता है कि समग्र भावसे अल्पवहत्वकी सूचक इन सूत्रगाथाओंकी रचना स्वयं गुणधर आचार्यने ही की होगी। इसके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर्थाधिकारकी क्रमांक ९८ गाथापर दृष्टिपात कीजिए।
इतने विवेचनसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभको ये मूल कषायप्राभृत रूपसे ही इष्ट रही हैं । अतः सूत्रगाथाओंके संख्याविषयक उत्तरकालीन मतभेदोंको प्रामाणिक मानना और इस विषयपर टीक-टिप्पणी करना
।। आचार्य वीरसेनने गाथाओंके संख्याविषयक मतभेदको दूर करनेके लिये जो उत्तर दिया है उसे इसी संदर्भमें देखना चाहिए।
इस प्रकार श्वे. मनि हेमचन्द्र विजयजीने कषायप्राभतका परिमाण कितना है इस पर खवगसेढि ग्रन्थकी अपनी प्रस्तावनामें जो आशंका व्यक्त की है उसका निरसन कर अब आगे हम उनके उन कल्पित तर्कोपर सांगोपांग विचार करेंगे जिनके आधारसे उन्होंने कषायप्राभतको श्वेताम्बर आम्नायका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है।
(१) इस विषयमें उनका प्रथम तर्क है कि दिगम्बर ज्ञान भण्डार मडविद्री में कषायप्राभूत मूल और उसकी चणि उपलब्ध हई है, इसलिए वह दिगम्बर आचार्यकी कृति है यह निश्चय नहीं किया जा सकता। (प्र० पृ० ३०)
किन्तु कषायप्राभूत मूल और उसकी चूणि ये दोनों मडविद्रीसे दिगम्बर ज्ञानभण्डारमें उपलब्ध हुए हैं, मात्र इसीलिए तो किसीने उन दोनोंको दिगम्बर आचार्योंकी कृति लिखा नहीं है और न ऐसा है ही। व दिगम्बर आचार्योंकी कृति हैं इसके अनेक कारण हैं। उनमेंसे एक कारण एतद्विषयक ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर आचार्योंकी शब्दयोजना परिपाटीसे भिन्न उसमें निबद्ध शब्दयोजना परिपाटी है। यथा
(अ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये सप्ततिकाचणि कर्मप्रकृति और पंचसग्रह आदिमें सवत्र जिस अर्थमें 'दलिय' शब्दका प्रयोग हआ है उसी अर्थमें दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभृत्त आदिमें 'पदेसग्ग' शब्दका प्रयोग हुआ है । यथा'तं वेयंतो बितियकिट्टीओ ततियकिट्टीओ य दलियं घेत्तूणं सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेइ ।'
सप्ततिका चूर्णि पृ० ६६ अ०। ( देखो उक्त प्रस्तावना पृ० ३२ । ) 'इच्छियठितिठाणाओ आवलियं लंघऊण तद्दलियं । सव्वेसु वि निक्खिवइ ठितिठाणेसु उवरिमेसु ॥ २॥
. -पंचसंग्रह उद्वर्तनापवर्तनाकरण 'उवसंतद्धा अंते विहिणा ओकड्डियस्स दलियस्स। अज्झवसाणणुरूवस्सुदओ तिसु एक्कयरयस्स ॥ २२॥'
-कर्मप्रकृति उपशमनाकरण पत्र १७ अब दिगम्बर परम्पराके ग्रंथों पर दष्टि डालिए
'विदियादी पूण पढमा संखेज्जगणा भवे पदसग्गे। विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसाहिया ॥ १७० ॥' क० प्रा० मूल