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। २७ ) करणके लिए मूल पर दृष्टिपात करना चाहिए। यहाँ सूत्रगाथा ९८ और १०९ में कहाँ किस प्रकार कौनकौन उपयोग सम्भव है इस विषयका निर्देश किया है सो इसे समझनेके लिए अद्धापरिमाणका निर्देश करने वाली ( १५ से २० तक) सूत्रगाथाओं पर दृष्टिपात करके प्रकृत विषयको समझ लेना चाहिए । विशेष खुलासा उक्त सूत्रगाथाओंके व्याख्यानके समय कर ही आये हैं।
यहाँ इस अर्थाधिकारकी १५ सूत्र गाथाओंमें से कषायप्राभूतकी १०४, १०७, १०८ और १०९ क्रमांकवाली गाथाएँ कर्मप्रकृति (श्वे.) में २३, २४, २५ और २६ क्रमांकसे पाई जाती है। उनमेंसे १०४ क्रमांकवाली गाथाका पूर्वार्ष ही मिलता-जुलता है। उसमें भी द्वितीय चरणमें अन्तर है। जहां कषायप्राभूतमें 'वियट्टेण' पाठ है वहाँ कर्मप्रकृतिमें 'विगिट्ठो य' पाठ है। इससे दोनोंके अर्थ में भी अन्तर हो गया है। कषायप्राभूतके उक्त पाठसे जहाँ यह ज्ञात होता है कि सम्यग्दृष्टि जीव यदि मिथ्यात्वमें जाकर पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो वह बहुत वीर्घ कालके बाद ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेका अधिकारी होता है। वहाँ कर्मप्रकृतिके उक्त पाठका उसके चूणिकार और दूसरे टीकाकारोंने जो अर्थ किया है उससे मात्र यह ज्ञात होता है कि यह प्रथमोशम सम्यक्त्व बड़े अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। यहां यह अन्तर्महत किसकी अपेक्षा बड़ा लिया गया है इसका खुलासा मलयगिरिने इन शब्दों में किया है'प्रथमस्थित्यपेक्षया विप्रकर्षश्च' अर्थात् प्रथम स्थितिकी अपेक्षा प्रथमोपशम सम्यक्त्वका यह काल बड़ा है। इस प्रकार उक्त गाथाके पूर्वार्धमें पाठ भेद होनेसे उसका उत्तरार्ध भी बदल गया है।
कर्मप्रकृतिकी २४ क्रमांककी 'सम्मबिट्टी नियमा' और २५ क्रमांककी 'मिच्छद्दिट्टी नियमा' गाथाएँ रचना और अर्थ दोनों दृष्टियोंसे कषायप्राभृतकी १०७ और १०८ क्रमांककी गाथाओंका पूरा अनुसरण करती हैं । मात्र कर्मप्रकृतिकी २६ क्रमांककी गाथा कषाययाभूतकी १०९ क्रमांककी गाथाका लगभग शब्दशः अनुसरण करती हुई भी अर्थकी अपेक्षा कुछ अन्तर है।
जयधवला टीकाकारने इस गाथाके तीसरे चरणमें आये हुए 'वंजणोग्गहम्मि' 'पदका 'विचारपूर्वकार्थग्रहणावस्थायाम्'-'विचार पूर्वक अर्थ ग्रहणकी अवस्थामें' अर्थ किया है। जब कि कर्मप्रकृतिके चूर्णिकारने इस पदका अर्थ 'व्यञ्जनावग्रह किया है। चूर्णिका समग्र पाठ इस प्रकार है
'अह वंजणोग्गहम्मि उ' त्ति–जति सागारे होति वंजणोग्गहो होइ ण अत्थोग्गहो होइ। जम्हा संसयनाणी अव्यत्तनाणी वुच्चति ।
चूर्णिकारके इस कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ईहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी बात तो छोड़िये अर्थावग्रह भी स्वीकार नहीं करते रहे। यहाँ अव्यक्त स्वरूप संशयज्ञानके अर्थ में व्यंजनावग्रह शब्दका प्रयोग हुआ है ऐसा उसके उक्त चूर्णिमें किये गये विशेष व्याख्यानसे प्रतीत होता है। इस बातको मलयगिरिने अपनी टीकामें इन शब्दोंमें स्वीकार किया है-संशयज्ञानिप्रख्यता च व्यञ्जनावग्रह एवेति।
कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्योंकी ही कृति है
श्वेताम्बर मुनि श्रीगुणरत्न विजयजीने कर्म साहित्य तथा अन्य कतिपय विषयोंके अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। उनमेंसे एक खवगसेढी ग्रंथ है। इसकी रचनामें अन्य ग्रन्थोंके समान कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिका भरपूर उपयोग हुआ है। वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परामें ऐसा कोई एक ग्रन्थ नहीं है जिसमें क्षपकश्रेणीका सांगोपाङ्ग विवेचन उपलब्ध होता हो। श्री मुनि गुणरत्नविजयजीने अपने सम्पादकीयमें इस तथ्यको स्वयं इन शब्दोंमें स्वीकार किया है-समाप्त थया वाद क्षपकश्रेणीने विषय संस्कृतमा गद्यरूपे लखवो शरू कर्यो. ४थी ५ हजार श्लोक प्रमाण लखाण थयाबाद मने विचार आव्यो के जुदा ग्रन्थोंमां छूटी छपाई वर्णवायेली क्षपक श्रेणी व्यवस्थित कोई एक ग्रन्थमां जोवामा आवती नथी. जैनशासनमां महत्त्वनी गणती 'क्षपक श्रेणी' ना जुदा जुदा ग्रन्थोंमां संगृहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओंने घणो लाभदायी बने" उनके इस वक्तव्यसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस ग्रंथके प्रणयनमें जहाँ उन्हें कषाय