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( २६ ) सम्पन्न करता है । बीचमें यह जीव सासादन गुणस्थानको भी नहीं प्राप्त होता। किन्तु दर्शनमोहनीयके उपशान्त होने पर उपशम सम्यक्त्वके कालमें अधिक से अधिक छह आवलि और कम से कम एक समय शेष रहने पर यह जीव अनन्तानुबन्धीमें से किसी एक प्रकृतिके उदयसे सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है। किन्तु दर्शनमोहनीयके क्षीण होने पर सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति नहीं होती। चौथी गाथामें बतलाया है कि वर्शनमोहनीयके उपशमका प्रस्थापक साकार उपयोगवाला ही होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्यम अवस्थावालेके लिए यह नियम नहीं है। इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण इस सूत्रगाथाकी टीकाके अन्तमें किया ही है, अतः इसे वहाँसे जान लेना चाहिए। चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग और बक्रियिककाययोग इन वस योगोंमेंसे किसी भी योगमें तथा मनुष्यों और तिर्योंकी अपेक्षा कम से कम तेजो केश्याको प्राप्त यह जीव दर्शनमोहका उपशामक होता है। पांचवीं गाथामें बतलाया है कि उक्त मिथ्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहका उपशम करते समय नियमसे मिथ्यात्वकर्मका उदय होता है। किन्तु दर्शनमोहकी उपशांत अवस्थामें मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं होता। तदनन्तर उसका उदय भजनीय है-होता भी है और नहीं भी होता। छटी गाथामें बतलाया है कि उपशम सम्यग्दष्टिके दर्शनमोहनीयके तीनों कर्म सभी स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उपशान्त अर्थात् उदयके अयोग्य रहते हैं। इस कालमें किसी भी प्रकृतिका उदय नहीं होता तथा वे सब स्थितिविशेष नियमसे एक अनुभागमें अवस्थित रहते है। जघन्य स्थितिविशेषमें जो अनुभाग होता है वही सब स्थितिविशेषोंमें पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। सातवीं गाथामें बतलाया है कि जब तक यह जीव दर्शनमोहनीयका उपशम करता है तब तक मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होता है। किन्तु उसकी उपशान्त अवस्थामें मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता। बादमें जब उपशान्त अवस्थाके समाप्त हो जानेके बाद यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें वह जीव आता है तो मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध होता है अन्यथा मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं भी होता। आठवीं गाथामें दर्शनमोहनीयका अबन्धक कौन जीव है इसका नियम किया गया है। नौवीं गाथामें सर्वोपशमसे उपशान्त अन्तर्मुहर्तकाल तक रहकर बादमें वर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है यह बतलाया गया है। यहाँ सर्वोपशमका तात्पर्य दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंके उदयाभावरूप उपशमसे है। दसवीं गाथामें बतलाया है कि यदि अनादि मिथ्यादृष्टि प्रथमबार सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो वह सर्वोपशमसे ही उसे प्राप्त करता है। यदि एक बार सम्यकत्वको प्राप्त करनेके बाद बहुत काल व्यतीत हो गया है तो वह भी सर्वोपशमसे ही उसे प्राप्त करता है। और यदि जल्दी ही पुनः पुनः उसे प्राप्त करता है तो वह उसे देशोपशमसे भी प्राप्त करता है और.सर्वोपशमसे भी प्राप्त करता है। यदि वेदक कालके भीतर प्राप्त करता है तो देशोपशमसे उसे प्राप्त करता है और वेदक कालके निकल जानेके बाद प्राप्त करता है तो वह उसे सर्वोपशमसे प्राप्त करता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रसंगसे सर्वोपशमका अर्थ दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमें से किसी भी प्रकृतिका उदय न होकर अनुदयरूप रहना अर्थ लिया गया है। साथ ही अनन्तानुबन्धीका भी अनुदय होना चाहिये। ग्यारहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि सम्यक्त्वके प्रथम लाभके अनन्तर पूर्व नियमसे मिथ्यात्व होता है किन्तु द्वितीयादि बार लाभके अनन्तर पूर्व मिथ्यात्व भजनीय है । बारहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि जिसके दर्शन मोहनीयकी तीन या दो प्रकृतियोंकी सत्ता होती है उसके यथासंभव दर्शनमोहनीयका संक्रम होता भी है और नहीं भी होता। किन्तु जिसके एक ही प्रकृतिकी सत्ता होती है उसके उस
संक्रम नहीं होता। तेरहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि सम्यग्दष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका नियमसे प्रदान करता है और कदाचित् नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भावका भी श्रद्धान करता है। चौदहवीं सूत्र गाथामें बतलाया है कि मिथ्यादृष्टि जीव गुरुके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका नियमसे श्रद्धान नहीं करता। किन्तु असद्भावका उपदेश मिले चाहे न भी मिले तो भी श्रद्धान करता है। पन्द्रहवीं सूत्रगाथामें बतलाया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके साकार और अनाकार दोनों प्रकारका उपयोग पाया जाता है। किन्तु विचार पूर्वक अर्थको ग्रहण करते समय उसके साकार उपयोग ही होता है ।
यह दर्शनमोहोपशामनासे सम्बन्ध रखनेवाली १५ सूत्रगाथाओंका संक्षिप्त तात्पर्य है। विशेष स्पष्टी