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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दार १० (४४) उवसामगो च सव्वो णिवाघादो तहा णिरासाणो। .. उवसंते भजियव्वो णीरासाणो य खीणम्मि॥९७॥
१९४. एसा तदियगाहा दंसणमोहोवसामगस्स तीहि करणेहिं वावदावत्थाए णिव्याघादत्तं णिरासाणभावं च पदुप्पाएदि । तं जहा--सव्यो चेव उवसामगो णिव्वापादो होइ, दंसणमोहोवसामणं पारभिय उवसामेमाणस्स जइ वि चउव्यिहोवसग्गवग्गो जुगवमुवइट्ठाइंतो वि णिच्छएण दंसणमोहोवसामणमेत्तो पडिबंधेण विणा समाणेदि त्ति वुत्तं होइ । एदेण दंसणमोहोवसामगस्स तदवत्थाए मरणाभावो वि महर्धिको बार-बार देखनेसे उन्हें आश्चर्य नहीं होता तथा तीसरे वहां शुक्ललेश्या होनेसे उनके संक्लेशरूप परिणाम नहीं होते, इसलिये वहाँ देवर्धिदर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति का साधन नहीं स्वीकार किया गया है। नौ प्रेवेयकवासी देवोंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पतिके दो साधन हैं-जातिस्मरण और धर्मश्रवण । यहाँ ऊपरके देवोंका आगमन नहीं होता, इसलिए देवर्धिदर्शन साधन नहीं है। नन्दीश्वर द्वीप आदिमें इनका गमन नहीं होता, इसलिए वहाँ जिनबिम्बदर्शन साधन भी नहीं है। वहाँ रहते हुए वे अवधिशानके द्वारा जिन महिमाको जानते हैं, इसलिए भी उनके जिन महिमादर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रागसे मुक्त होते हैं, इसलिये उन्हें जिन महिमा देखकर विस्मय नहीं होता। उनके अहमिन्द्र होते हुए भी उनमें परस्पर अनुप्राह्य-अनुप्राहक भाव होनेसे उनमें धर्मश्रवण प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन स्वीकार किया गया है। इससे आगे अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देव नियमसे सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिये वहाँ प्रथम सम्यक्त्वको उत्पत्ति कैसे होती है यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। यहाँ प्रत्येक गतिमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके जो साधन बतलाये हैं उनमेंसे किसीके कोई एक प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन है और किसीके कोई दूसरा प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। प्रत्येक गतिमें प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्तिके जितने साधन बतलाये हैं वे सब उस-उस गतिमें प्रत्येकके होने चाहिए ऐसा नहीं है। शेष कथन सुगम है।
दर्शनमोहका उपशम करनेवाले सब जीव व्याघातसे रहित होते हैं और उस कालके भीतर सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होते । दर्शनमोहके उपशान्त होने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्ति भजितव्य है। किन्तु क्षीण होने पर सासादनगुणस्थानकी प्राप्ति नहीं होती ॥ ३-९७ ॥
६ १९४. यह तीसरी गाथा दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके तीन करणोंके द्वारा व्याप्त अवस्थारूप होनेपर निर्व्याघातपने और निरासानपनेका कथन करती है । यथासभी उपशामक जीव व्याघातसे रहित होते हैं, क्योंकि दर्शनमोहके उपशमको प्रारम्भ करके उसका उपशम करनेवाले जीवके ऊपर यद्यपि चारों प्रकारके उपसर्ग एक साथ उपस्थित होवें तो भी वह निश्चयसे प्रारम्भसे लेकर दर्शनमोहकी उपशमनविधिको प्रतिबन्धके बिना समाप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस कथन द्वारा दर्शनमोहके उपशामकका उस अवस्थामें मरण भी नहीं होता यह कहा हुआ जानना चाहिए, क्योंकि मरण भी