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लाकर रखनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। उक्त गाथाके साथ वहाँ जो 'चुण्णिस्सरूव' इत्यादि गाथा पाई जाती है उसमें आये हुए 'चुण्णिस्स' पदसे भी इस तथ्यका समर्थन होता है।
आचार्य वीरसेनने अपनी जयधवला टीकामें और इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें इसकी चर्चा नहीं की इसका कारण है। बात यह है कि कषायप्राभूत और उसके चणिसूत्रोंकी टीकाका नाम जयधवला है, अतः उसमें सम्बन्धित तथ्योंका ही खुलासा किया गया है। यही स्थिति श्रुतावतारमें इन्द्रनन्दिकी भी रही है। अतः इन दोनों आचार्योंने यदि अपनी-अपनी रचनाओंमें आचार्य यतिवृषभकी रचनारूपसे त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थका उल्लेख नहीं किया तो इससे उक्त तथ्यको फलित करने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। ( २ ) इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें आचार्य गुणधर और आचार्य धरसेनको लक्ष्यकर लिखा है
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ गुणधर और धरसेनके अन्वयस्वरूप गुरुओंके पूर्वापर क्रमको हम नहीं जानते, क्योंकि उनके अन्वय अर्थात् गुरुजनोंका कथन करनेवाले आगम ( लिखित ) और मुनिजनोंका अभाव है ।
आचार्य वीरसेनने भी श्रीधवलामें धरसेन आचार्यका और श्रीजयधवलामें गुणधर आचार्यका बहुमानके साथ उल्लेख किया है। किन्तु उन्होंने उनकी गणना पट्टधर आचार्यों में न होनेसे उनके गुरुओंका उल्लेख नहीं किया गया है। यह सम्भव है कि इसी कारणसे इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें उक्त वचन लिखा है।
किन्तु इन दोनों स्थलोंको छोड़कर अन्यत्र इन दोनों आचार्योंका तथा पुष्पदन्त और भूतवलि आचार्यका नामोल्लेख न मिलनेका कारण यह है कि एक तो दिगम्बर परम्परामें इस तरहके इतिहासके संकलित करनेकी पद्धति प्रायः इन आचार्योंके बहत काल बाद प्रारम्भ हई। कारण वनवासी निम्र दिगम्बर साधु होनेके कारण वे सब प्रकारकी लौकिक प्रवृत्तियोंसे मुक्त होकर अपना शेष जीवन स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययनमें ही व्यतीत करते रहते थे। कदाचित् ग्रन्थादिके निर्माणका विकल्प होने पर उनकी रचना करते भी थे तो उसमें नामादिके ख्यापनको प्रवृत्तिका प्रायः अभाव ही रहता था। यही कारण है कि पूर्व आचार्योंकी सभी कृतियाँ प्रायः प्रशस्तियोंसे रहित पाई जाती है। एक तो इस कारणसे उक्त आचार्यों के नामोंका उल्लेख अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है।
दूसरे ये कर्मसिद्धान्त जैसे सूक्ष्म और गहन दुरूह अर्थवाले विषयका प्रतिपादन करनेवाले पौर्व ग्रन्थ हैं। इनका अवधारण करना मन्दबुद्धिजनोंको सुगम न होनेसे अन्य साहित्यके समान इनका सर्वसुलभ प्रचार कभी भी नहीं रहा। गृहस्थोंकी बात तो छोड़िये, मुनिजनोंमें भी ऐसे मेधावी विरले ही मुनि होते आये जो इनका सम्यक् प्रकारसे अवधारण करने में समर्थ होते रहे। इसलिए भी इनके रचयिता आचार्योंका नामोल्लेख अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है। यह तो गनीमत है कि दिगम्बर परम्परामें इनका इतना इतिहास मिलता भी है। श्वेताम्बर परम्परा तो आचार्य गुणधर और यतिवृषभके नाम भी नहीं जानती। इतना ही क्यों, उस परम्परामें कर्मप्रकृति चणि, सप्ततिका, शतक तथा उनकी चणि आदि कतिपय जो भी कर्म विषयक मौलिक साहित्य उपलब्ध होता है उसका तो इतना भी इतिहास नहीं मिलता। प्रामाणिक ऐतिहासिक दृष्टिसे कल्पित अनेक उल्लेख न मिलनेकी अपेक्षा प्रामाणिक एक-दो उल्लेखका मिलना उससे कहीं अधिक हितावह है।
(३) श्रीजयधवलामें आचार्य गुणधरको पूर्वोके एकदेशके ज्ञाता होने पर भी उन्हें वाचक कहने में विसंवादकी कोई बात नहीं है। नन्दिसूत्र पट्टावलिमें आर्य नागहस्तिको पूर्वधर न लिखकर मात्र विवक्षित पूर्वके एकदेशरूप कर्मप्रकृति में प्रधान कहा गया है। फिर भी उसमें उनके यशःशील वाचकवंशकी अभिवृद्धिकी कामना की गई है।