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गाथा ९० ]
लोभकसायरस पज्जायणामाणि
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व्याख्येयम् । एषणमिच्छा, बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाभिलाष इत्यर्थः । मूर्च्छनं मूर्च्छा, तीव्रतरः परिग्रहाभिष्वंग इत्यर्थः । गर्द्धनं गृद्धिः परिग्रहेषूपात्तानुपात्तेष्वतितृष्णेत्यर्थः । $ ७. साम्प्रतं द्वितीयगाथार्थ उच्यते । 'सासण-पत्थण- लालसेत्यादि - सहाशया वर्तत इति शासस्तस्य भावः साशता, सस्पृहता सतृष्णतेत्ययमपरो लोभपर्यायः । अथवा शश्वद्भवः शाश्वतो लोभः । कथं पुनरस्य शाश्वतिकत्वमिति चेदुच्यतेपरिग्रहोपादानात्प्राक्पश्चाच्च सर्वकालमनपायात् शाश्वतो लोभः । aayi प्रार्थना धनोपलिप्सेत्यर्थः । लालसा गृद्धिरित्यनर्थान्तरम् । विरमणं विरतिः । न विद्यते विरतिरस्येति अविरतिः । अथवा अविरमणमविरतिरसंयम इत्यनर्थभेदः । तद्धेतुत्वादविरतिर्लोभ परिणामः, सर्वेषामेव हिंसानामविरमणभेदानां लोभकषायनिबन्धनत्वादिति । तर्षणं तृष्णा विषयपिपासेत्यर्थः । 'विज्ज जिब्भा य' विद्या जिह्वेत्यपि तस्यैव पर्यायद्वयमवगन्तव्यम् । तद्यथा— - वेदनं विद्या लोभ इत्यर्थः, तदधीनजन्मत्वाल्लोभोऽपि तथोपचर्यते, 'लोभो लामेन वर्धते' इति वचनात् । अथवा ' विद्येव विद्या । क इहोपपरिग्रहकी अभिलाषाका नाम इच्छा है यह इसका तात्पर्य है । मूर्च्छा पदकी व्युत्पत्ति हैमूर्च्छनं मूर्च्छा । परिग्रहसम्बन्धी अति तीव्र अभिष्वंगका नाम मूर्च्छा है यह इसका तात्पर्य है । गृद्धि की व्युत्पत्ति है - गर्द्धनं गृद्धिः । उपात्त और अनुपात्त परिग्रहोंमें, अत्यधिक तृष्णाका नाम गृद्धि है यह इसका अर्थ है ।
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§ ७. अब सासण-पत्थण-लालसा इत्यादि दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं- आशाके साथ जो रहता है वह शास कहलाता है और उसके भावका नाम शासता है । स्पृहा सहितपना और तृष्णा सहितपना इसका तात्पर्य है । यह लोभका दूसरा पर्यायनाम है । अथवा जो शश्वत हो वह शाश्वत कहलाता है । यह भी लोभका एक नाम है ।
शंका – इसका शाश्वतिकपना कैसे बन सकता है ?
७.
समाधान - परिग्रहके ग्रहण करनेके पहले और बादमें सदा बना रहनेके कारण लोभ शाश्वत कहलाता है ।
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प्रकृष्टरूपसे अर्थन अर्थात् चाहना प्रार्थना है, प्रकृष्टरूपसे धनकी चाह करना यह इसका अर्थ है । लालसा और गृद्धि ये एकार्थवाची शब्द हैं। विरति शब्दकी व्युत्पत्ति हैविरमणं विरतिः । जिसमें विरति नहीं है उसका नाम अविरति है । अथवा अविरति शब्दकी व्युत्पत्ति है - अविरमणं अविरतिः । अविरति और असंयम इनमें अर्थभेद नहीं है । उसका हेतु होनेसे अविरति लोभपरिणामस्वरूप है, क्योंकि हिंसासम्बन्धी अविरमण अर्थात् अविरतिके सभी भेद लोभकषायनिमित्तक होते हैं। तृष्णा शब्दकी व्युत्पत्ति है - तर्षणं तृष्णा । विषयसम्बन्धी पिपासाका नाम तृष्णा है यह इसका तात्पर्य है । विद्या और जिह्वा ये दोनों भी लोभके ही दो पर्याय नाम जानने चाहिए । यथा - विद्याकी व्युत्पत्ति है- वेदनं विद्या । यहाँ पर विद्या पदसे लोभ लिया गया है यह इसका अर्थ है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति वेदनके अधीन है, इसलिये लोभ भी विद्यारूपसे उपचरित किया गया है । लोभ लाभसे बढ़ता है
१. ता० प्रती - पादात्प्राक्पश्चाच्च इति पाठः । २. ता० प्रती अथवा इति पाठो नास्ति ।