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१९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वंजणं ९ मनोज्ञविषयाभिष्वंग इति द्वितीयः। जन्मान्तरसम्बन्धेण निधीयते संकल्प्यत इति निदानम् । परोपभोगसमृद्धिदर्शनात् संक्लिष्टतरस्यात्मनो जन्मान्तरेऽपि कथं नामैवं भोगसम्पन्नता मे स्यादित्यनागतप्रार्थनायामभिसन्धानमित्यर्थः । छंदनं छंदो मनोऽनुकूलविषयानुबुभूषायां मनःप्रणिधानमिति यावत् । सूयतेऽभिषिच्यते विविधविषयाभिलाषकलुषसलिलपरिषेकैरिति सुतो लोभः । अथवा स्वशब्दः आत्मीयपर्यायवाची, स्वस्य भावः स्वता ममता ममकार इत्यर्थः। सास्मिन्नस्तीति स्वतो लोभः । प्रिय व इति प्रेयः । प्रेयश्चासौ दोषश्च प्रेयदोषो लोभः । कथं पुनरस्य प्रेयत्वे सति दोषत्वम् , विप्रतिषेधादिति चेत्, १ न, आह्नादनमात्रहेतुत्वापेक्षया परिग्रहाभिलाषस्य प्रेयत्वे सत्यपि संसारप्रवर्धनकारणत्वाद्दोषतोपपत्तेः । स्नेहनं स्नेहः, इष्टे वस्तुनि सानुरागं मनसः प्रणिधानमित्यर्थः । एवमनुरागोऽपि व्याख्येयः। अविद्यमानस्याथेस्याशासनमाशेत्यपरो लोभपर्यायः। अथवा आश्यति तनूकरोत्यात्मानमित्याशा लोभ इति आदि परिग्रहकी अभिलाषाका नाम काम है। यह लोभका प्रथम पर्यायनाम है। रागशव्दकी व्युत्पत्ति है-रंजनं रागः । मनोज्ञ विषयके अभिष्वंगका नाम राग है । यह लोभका दूसरा पर्यायनाम है । जन्मान्तरके सम्बन्धसे निधीयते अर्थात् संकल्प करनेका नाम निदान है। दूसरेके उपभोगकी समृद्धिके देखनेसे जो अत्यन्त संक्लेशको प्राप्त होता है तथा ऐसा विचार करता है कि मेरे जन्मान्तरमें भी इस प्रकारकी भोगसम्पन्नता कैसे होगी इस प्रकार अनागत विषयकी प्रार्थनामें अभिसन्धानका होना निदान है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। छन्द शब्दकी व्युत्पत्ति है-छन्दनं छन्दः। मनके अनुकल विषयके बार-बार भोगनेमें मनके प्रणिधानका नाम छन्द है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। नाना प्रकारके विषयोंके अभिलाषरूप कलुषित जलके सिंचनोंद्वारा सूयते अर्थात् परिसिंचित करना सुत नामका लोभ है। अथवा 'स्व' शब्द आत्मीय पर्यायका वाची है। 'स्व' का जो भाव वह स्वता कहलाता है। इससे ममता या ममकार लिया गया है। वह जिसमें है वह स्वत नामका लोभ है। जो प्रिय के समान है वह प्रेय कहलाता है। प्रेय जो दोष वह प्रेय-दोष नामका लोभ है।
शंका-इसके प्रेयरूप होनेपर दोषपना कैसे बन सकता है, क्योंकि दोनोंके एक होनेका निषेध है ?
समाधान नहीं, आह्नादन मात्र हेतुपनेकी अपेक्षा परिग्रहकी अभिलाषाके प्रेयरूप होनेपर भी संसारके बढ़ानेका कारणपना होनेसे उसमें दोषपना बन जाता है ।
स्नेह शब्दकी व्युत्पत्ति है-स्नेहनं स्नेहः । इष्ट वस्तुमें अनुराग सहित मनका प्रणिधान होना स्नेह है यह इसका तात्पर्य है। इसी प्रकार अनुरागका भी व्याख्यान करना चाहिए । अविद्यमान अर्थकी आकांक्षा करना आशा नामका दूसरा लोभका पर्यायवाची नाम है। अथवा जो आश्यति अर्थात् आत्माको कृश करता है वह आशा नामका लोभ है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। इच्छा पदकी व्युत्पत्ति है-एषणं इच्छा। बाह्य और आभ्यन्तर
१. ता०प्रतौ-याननुभषायां इति पाठः। २. ता०प्रती प्रेयो दोषो इति पाठः । ३. ता०प्रती -दोषोपपत्तेः इति पाठः । ४. ता०प्रतो तमूत्करोत्या- इति पाठः ।