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गाथा ८५] सोलसमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१७१ पुच्छाए णिण्णयमेदं चेव देसामासियसुत्तमस्सियूण सण्णिमग्गणाए कस्सामो । तं कथं ? असण्णी बिट्ठाणमणुभागं वेदंतो णियमा विट्ठाणमणुभागं बंधइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो। सण्णिपंचिंदियो एगट्ठाणमणुभागं वेदंतो णियमा एगट्ठाणमेव बंधइ, ण सेसाणि । विट्ठाणं वेतो' विट्ठाण-तिहाण-चउट्ठाणाणि बंधइ । तिहाणं वेदेंतो तिट्ठाणचउट्ठाणाणि बंधइ । चउट्ठाणं वेदेंतो णियमा चउट्ठाणं बंधइ, सेसाणमबंधगो त्ति एदेण 'कं ठाणमवेदेंतो अबंधगो कस्स हाणस्से' त्ति एवं पि वक्खाणिदं दट्टव्वं । किं कारणं ? एगट्ठाणमवेदेंतो एगट्ठाणस्स अबंधगो इच्चादिवदिरेगपरूवणाए एदेणेव गयत्थत्तदंसणादो।
३३. संपहि एदेणेव गयत्थाणं सेसमग्गणाणं पि एदीए दिसाए अणुगमो कायव्यो ति जाणावणद्वमुत्तरो सुत्तावयवो 'एवं सव्वत्थ कायवं'। जहा सण्णिमग्गणाए हाणाणमेसा अत्थमग्गणा कया, तहा चेव सेसगदियादितेरसमग्गणासु वि ट्ठाणाणमणुमग्गणा समयाविरोहेण कायव्वा त्ति भणिदं होइ । तं जहा—तिरिक्खगदीए सण्णि-असण्णिभंगं जाणियण वत्तव्वं । णिरय-मणुस-देवगदीसु वि सण्णिभंगं जाणियण णेदव्वं । णवरि मणुसगदीदो अण्णत्थ एगट्ठाणस्स बंधोदया सुद्धा ण निर्णय इसी देशामर्षक सूत्रका अवलम्बन लेकर संज्ञीमार्गणामें करेंगे।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-असंज्ञी जीव द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे द्विस्थानीय अनुभागको बाँधता है, क्योंकि उनमें प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। संजी पञ्चेन्द्रिय जीव एकस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे एकस्थानीय अनुभागको ही बाँधता है, शेष अनुभागोंको नहीं बाँधता। द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको बाँधता है। त्रिस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय अनुभागको बाँधता है। तथा चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे चतुःस्थानीय अनुभागको बाँधता है । 'वह शेष स्थानोंका अबन्धक होता है।' यहाँ इस कथन द्वारा 'कं ठाणमवेदंतो अबंधगो कस्स हाणस्स' इस प्रकार इस वचनका भी व्याख्यान कर दिया ऐसा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि एकस्थानीय अनुभागका वेदन नहीं करनेवाला जीव एकस्थानीय अनुभागका बन्धक नहीं होता इत्यादि व्य तिरेकमुखसे की गई प्ररूपणाका इसी कथनद्वारा ही सम्यक् प्रकारसे अर्थबोध देखा जाता है ।
३३. अब इसी कथन द्वारा ही जिनके अर्थका ज्ञान हो गया है ऐसी शेष मार्गणाओंका भी इसी दिशा द्वारा अनुगम कर लेना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका यह सूत्रवचन आया है-'एवं सव्वत्थ कायव्वं ।' जिस प्रकार संज्ञीमार्गणामें स्थानोंकी अर्थविषयक मार्गणा की उसी प्रकार शेष गति आदि तेरह मार्गणाओंमें भी स्थानोंकी मार्गणा परमागमके अविरोध पूर्वक करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यथा-तिर्यश्चगतिमें संझी और असंज्ञीके भंगको जानकर कथन करना चाहिए । नरकगति, मनुष्यगति और देवगतिमें भी संज्ञीमार्गणाके भंगको जानकर कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि
१. ता०प्रतौ विट्ठाणं बंधतो ( वेदंतो ) इति पाठः ।