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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदार १० ___ * णियमा सागारुपजोगो ।
___$ २२. कुतोऽयं नियमश्चेत् १ अनाकारोपयोगेनाविमर्शकेन सामान्यमात्रावग्राहिणा विमर्शात्मकतत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिं प्रत्यभिमुखीभावानुपपत्तेः । मदि-सुदअण्णाणेहिं विभंगणाणेण वा परिणदो होदूग एसो पढमसम्मत्तुप्पायणं पडि तेण पयह त्ति सिद्धं ।
* लेस्सा त्ति विहासा। ६२३. सुगमं । * तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणं णियमा वड्डमाणलेस्सा। * नियमसे साकार उपयोग होता है। $ २२. शंका-यह नियम किस कारणसे है?
समाधान—क्योंकि अविमर्शक और सामान्यमात्रप्राही चेतनाकार उपयोगके द्वारा विमर्शकस्वरूप तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता । इसलिए मति-श्रुत अज्ञानरूपसे या विभंगज्ञानरूपसे परिणत होकर यह जीव प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके प्रति उस उपयोगद्वारा प्रवृत्त होता है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ—सर्व प्रथम यहाँ दर्शनके स्वरूपका निर्देश करके यह बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति सन्मुखपना ज्ञानोपयोग कालमें ही सम्भव है दर्शनोपयोग कालमें नहीं, क्योंकि जब यह जीव जीवादि नौ पदार्थोके स्वरूपका निर्णय करनेके साथ अपने साकार उपयोग परिणामके द्वारा ज्ञायकस्वरूप त्रिकाली आत्माके सन्मुख होता है तभी उसके सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिकी सन्मुखता कही जा सकती है। ऐसे जीवके उस समय मति-श्रुताज्ञान होने पर भी वह कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासरूप न होकर आगम, गुरुउपदेश और तत्त्वको स्पर्श करनेवाली युक्तिके बलसे यथावस्थित जीवके स्वरूपको अनुगमन करनेवाला ही होता है। ऐसे जीवके चार लब्धियोंमें देशनालब्धिके स्वीकार करनेका प्रयोजन भी यही है। यहाँ टीकाकारने मति-श्रुत साकार उपयोगके साथ विभंगज्ञानका भी उल्लेख किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि टीकाकार मति-श्रुत साकार उपयोगके समान विभंगज्ञानके द्वारा भी सम्यग्दर्शनके सन्मुख होनेकी पात्रता मानते हैं। किन्तु धवलामें इसी प्रसंगसे 'मदि-सुदसागारवजुत्तो' पद द्वारा उसे मति-श्रुतसाकार उपयोगवाला ही बतलाया है। मतिज्ञान और श्रुवज्ञान अविनाभावी हैं और नय विकल्प श्रुवज्ञानमें ही सम्भव हैं, इसलिए ऐसे जीवको मति-श्रुत साकार उपयोगवाला कहना वो युक्तियुक्त है, परन्तु विभंग उपयोगवाला क्यों कहा यह विचारणीय है। मालूम पड़ता है कि जो नारकी आदि जीव विभंगज्ञानसे पूर्वभव आदिको जान कर पश्चात् मति-श्रुत साकार उपयोगके बलसे आत्माके सन्मुख होता है उसकी अपेक्षा टीकाकारने यह कथन किया है।
* लेश्या इस पदकी विभाषा । $ २३. यह सूत्र सुगम है। * पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंमेंसे नियमसे कोई एक वर्धमान लेश्या होती है।