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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० ___२५. 'वेदो य को भवे' त्ति जं गाहासुत्तस्स चरिमं पदं तस्सेदाणिमत्थविहासा कीरदि त्ति भणिदं होइ। ___ * अण्णदरो वेदो।
२६. तिण्हं वेदाणमण्णदरो वेदपरिणामो सम्मत्तुप्पत्तीए वावदस्स होइ, दव्वभावेहिं तिण्हं वेदाणमण्णदरपज्जाएण विसेसियस्स तदुप्पायणे विरोहाभावादो । 'दसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे' त्ति एत्तिएणेव सुत्तेण पज्जत्तं जोग-कसायोवजोग-लेस्सा-वेदाणं पि परिणाममेदाणं तत्थेवंतब्भावो ति णासंकणिज्जं, संकिलेसविसोहिभेदाणं चेव परिणामग्गहणेण तत्थ विवक्खियत्तादो । एदं च सुत्तं देसामासयं, तेण गदि-इंदियादिविसया च विहासा एत्थ कायव्वा । एवमेदीए पढमगाहाए दंसणमोहउवसामगस्स विसोहिलक्खणो परिणामो जोग-कसायोवजोगादिविसेसा च परूविदा । एदेणेव गाहासुत्तेणेदस्स खओवसम-विसोहि-देसण-पाओग्गसण्णिदाओ चत्तारि लद्धीओ करणलद्धिसव्वपेक्खाओ सूचिदाओ, ताहि विणा दंसणमोहोवसामणाए पवुत्तिविरोहादो ।
5२५. 'वेदो य को भवे' यह जो गाथासूत्रका अन्तिम पद है उसके अर्थका इस समय विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* कोई एक वेद होता है।
६२६. सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें व्याप्त हुए जीवके तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेदपरिणाम होता है, क्योंकि द्रव्य और भावकी अपेक्षा तीन वेदोंमेंसे अन्यतर वेदपर्यायसे युक्त जीवके सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें व्याप्त होनेमें विरोधका अभाव है।
शंका-'दर्शनमोहके उपशामकके परिणाम कैसा होता है।' इतना मात्र सूत्र पर्याप्त है, क्योंकि योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेद ये जितने भी परिणामभेद हैं इनका उसीमें अन्तर्भाव हो जाता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उक्त सूत्रमें संक्लेश और विशुद्धिरूप परिणामभेद ही परिणामपदके ग्रहण करनेसे विवक्षित किये गये हैं। यह सूत्र देशामर्षक है, 'इसलिये गति, इन्द्रिय आदि विषयक विशेष व्याख्यान यहाँ पर करना चाहिए ।
इस प्रकार इस प्रथम गाथा द्वारा दर्शनमोहके उपशामकके विशुद्धिलक्षण परिणाम तथा योग, कषाय, उपयोग आदि भेदोंका व्याख्यान किया। तथा इसी गाथासूत्रद्वारा इस जीवके करणलब्धि सव्यपेक्ष क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्यसंज्ञक चार लब्धियाँ सूचित की गई हैं, क्योंकि उनके विना दर्शनमोहके उपशम करनेरूप क्रियामें प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
विशेषार्थ-वेद निरूपणके प्रसंगसे यहाँ पर टीकाकारने द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकारके वेदोंका निर्देश किया है। यह ठीक है कि जो द्रव्यसे स्त्री, पुरुष और नपुंसक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव है वह भी प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य है और जो भावसे स्त्री, पुरुष और नपुंसक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव है वह भी प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य है । परन्तु मूल गाथासूत्र में और उसका विशेष व्याख्यान करनेवाले चूर्णिसूत्रमें मात्र भाववेदकी अपेक्षा