________________
२०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० ६ १७. जोगो णाम जीवपदेसाणं कम्मादाणणिबंधणो परिप्फंदपज्जाओ। सो च तिविहो-मणजोगो वचिजोगो कायजोगो चेदि । तत्थ मणजोगो चउन्विहो सच्चमोस-सच्चमोसासच्चमोसमेदेण । एवं वचिजोगो वि चउन्विहो वत्तव्यो । कायजोगो वि सत्तविहो होइ । एवमेदेसु जोगभेदेसु दंसणमोहोवसामगस्स कदमो जोगो होदि त्ति भणिदे मणजोगभेदेसु ताव अण्णदरो मणजोगो होइ, चउण्हं' पि तेसिमेत्थ संभवे विरोहाणुवलंभादो । एवं वचिजोगभेदाणं पि वत्तव्वं । कायजोगो पुण ओरालियकायजोगो वेउब्वियकायजोगो वा होइ, अण्णेसिमिहासंभवादो। एदेसि दसण्हं पज्जत्तजोगाणमण्णदरेण जोगेण परिणदो पढमसम्मत्तुप्पायणस्स जोग्गो होइ, ण सेसजोगपरिणदो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थणिण्णओ ।
* कसाये त्ति विहासा। ६१८. सुगमं । * अण्णदरो कसायो। 5 १९. दंसणमोहोवसामगस्स कोहादीणं चउण्हं कसायाणं मझे अण्णदरो
६ १७. जीवप्रदेशोंकी कर्मोके ग्रहणमें कारणभूत परिस्पन्दरूप पर्यायका नाम योग है। वह योग तीन प्रकारका है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। उनमेंसे सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्य-मृषामनोयोग और असत्य-मृषामनोयोगके भेदसे मनोयोग चार प्रकारका है। इसी प्रकार वचनयोग भी चार प्रकारका कहना चाहिए। काययोग भी सात प्रकारका है। इस प्रकार योगके इन भेदोंमेंसे दर्शनमोहके उपशामकके कौनसा योग होता है ऐसा कहने पर उसका यह समाधान है कि मनोयोगके भेदोंमेंसे तो अन्यतर मनोयोग होता है, क्योंकि उन चारोंके ही यहाँ प्राप्त होनेमें किसी प्रकारका विरोध नहीं पाया जाता । इसी प्रकार वचनयोगके भेदोंका भी कथन करना चाहिए। परन्तु काययोग औदारिककाययोग या वैक्रियिककाययोग होता है, क्योंकि अन्य काययोगोंका प्राप्त होना असम्भव है। इन दस पर्याप्त योगोंमेंसे अन्यतर योगसे परिणत हुआ जीव प्रथम सम्यक्त्वके प्राप्त करनेके योग्य होता है, शेष योगोंसे परिणत हुआ जीव नहीं इस प्रकार यहाँ पर सूत्रार्थका निर्णय है।
विशेषार्थ—जो जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है वह संज्ञी पञ्चन्द्रिय होनेके साथ पर्याप्त भी होना चाहिए यह इस कथनसे स्पष्ट ज्ञात होता है, क्योंकि उक्त दश प्रकारके योग पर्याप्त अवस्थामें ही पाये जाते हैं। • * 'कषाय' इस पदकी विभाषा। $ १८. यह सूत्र सुगम है। * अन्यतर कषाय होती है। $ १९. दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवके क्रोधादि चार कषायोंमेंसे अन्यवर
१. ता०प्रती चउन्विहं इति पाठः ।