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गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा
२३७ विसेसाहियाणि । एत्थ चरिमखंडभावेण ठवेयव्वाणि । एवं ठविदे विदियसमयए वि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि चेव परिणामखंडाणि लद्धाणि हवंति । एवं तदियादिसमएसु वि परिणामट्ठाणविण्णासो जहाकम कायव्यो जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति ।
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परिणामोंसे अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने विशेष अधिक होते हैं। उन्हें यहाँ अन्तिम खण्डरूपसे स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करने पर दूसरे समयमें भी अन्तमुहूर्तप्रमाण परिणामखण्ड प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार तृतीय आदि समयोंमें भी परिणामस्थानोंकी रचना अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक क्रमसे करनी चाहिए ।
विशेषार्थ-जिस करणमें ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम पिछले समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके सदृश होते हैं, उस करणको अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं। इसका काल अन्तमुहूर्त है और इस करणमें होनेवाले परिणामोंका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण है। फिर भी इसके प्रथम समयके योग्य परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं, दूसरे समयके योग्य परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इसी प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि ये प्रत्येक समयके परिणाम उत्तरोत्तर सदृश वृद्धिको लिये हुए विशेष अधिक हैं । यह अधःप्रवृत्तकरणके स्वरूपनिर्देशके साथ उसके काल और उसके प्रत्येक समयमें होनेवाले परिणामोंकी क्रमवृद्धिको लिये हुए किस प्रकार कहाँ कितने परिणाम होते हैं इसका सामान्य निर्देश है । आगे इस करणके प्रत्येक समयमें परिणामस्थानोंकी व्यवस्था किस प्रकार है इसे स्पष्ट करके बतलाते हैं। ऐसा नियम है कि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में जितने परिणाम होते हैं वे अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण खण्डोंमें विभाजित हो जाते हैं। जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक प्रमाणको लिये हुए होते हैं। यहाँ पर उन परिणामोंके जितने खण्ड हुए, निर्वर्गणाकाण्डक भी उतने समयप्रमाण होता है, जिसकी समाप्तिके बाद दूसरा निर्वर्गणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। आगे भी इसी प्रकार जानना चाहिए । इसका स्वरूपनिर्देश टीकामें किया ही है। यहाँ जो प्रथम खण्डसे दूसरे खण्डको और दूसरे आदि खण्डोंसे तीसरे आदि खण्डोंको विशेष अधिक कहा है सो उस विशेषका प्रमाण तत्प्रायोग्य अन्तमुहूर्तका भाग देने पर प्राप्त होता है। ये सब खण्ड परस्परमें समान न होकर विसदृश ही होते हैं, क्योंकि आगे-आगे प्रत्येक खण्ड विशेष अधिक प्रमाणको लिये हुए होता है। इन खण्डोंमेंसे प्रथम खण्डगत परिणाम तो अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें ही पाये जाते हैं। शेष अनेक खण्ड और तद्गत परिणाम दूसरे समयमें स्थित जीवोंके भी होते हैं। साथ ही यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण अन्य अपूर्व परिणाम भी होते हैं जो अन्तिम खण्डरूपसे दूसरे समयमें होते हैं। ये अपूर्व परिणाम प्रथम समयके अन्तिम खण्डमें तत्प्रायोग्य अन्तर्महर्तका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने अधिक तीसरे समयमें दूसरे समयके जितने खण्ड और तद्गत परिणाम हैं उनमेंसे प्रथम खण्ड
और तद्गत परिणामोंको छोड़कर वे सब प्राप्त होते हैं। साथ ही यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण अन्य अपूर्व परिणाम भी प्राप्त होते हैं जो अन्तिम खण्डरूपसे तीसरे समयमें पाये जाते हैं। इसी प्रकार इसी प्रक्रियासे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक चौथे आदि समयोंमें भी परिणामस्थानोंकी व्यवस्था जान लेनी चाहिए। आगे इस विषयको उदाहरण देकर संदृष्टि द्वारा और भी स्पष्ट किया गया है। अतः यहाँ मात्र संक्षेपमें निर्देश किया है।