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गाथा ८५] सुत्तविभासा
१८३ जाणावणमुवरिमं सुत्तमाह
* एदाणुमाणियं सेसाणं पि कसायाणं कायव्वं ।
६५५. एदीए दिसाए सेसकसायाणं पि भावेण णिदरिसणोवणओ गाहासुत्ताणुसारेण णेदव्वो त्ति भणिदं होह । एवं चउण्हं सुत्तगाहाणमत्थविहासणं कादूण पयदत्थमुवसंहरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एवं चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासिदाओ भवंति।
$ ५६. एवं ताव आदीदो प्पहुडि चत्तारि सुत्तगाहाओ सोलसण्हं हाणाणं काल-भावेहिं णिदरिसणोवणए पडिबद्धाओ विहासियाओ । एदीए दिसाए सेसवारसगाहाओ वि जाणियूण विहासियव्वाओ ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो।
एवं चउट्ठाणे ति समत्तमणिओगद्दारं । श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलांछनम् ।
जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ गाथासूत्रोंके अनुसार जानना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार उदाहरणों द्वारा अनुमान करके शेष कषायोंका भी अर्थसाधन करना चाहिए।
६५५. इस दिशाद्वारा शेष कषायोंका भी भावकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधन गाथासूत्रोंके अनुसार कर लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार चार सूत्रगाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हए आगेके सूत्रको कहते हैं
* इस प्रकार चार सूत्रगाथाओंका विशेष व्याख्यान किया।
६५६. इस प्रकार सर्वप्रथम आदिसे लेकर जो चार सूत्रगाथाऐं सोलह स्थानोंके काल और भावकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधनमें प्रतिबद्ध हैं उनका विशेष व्याख्यान किया । इसी पद्धतिसे शेष बारह गाथाओंका भी जानकर विशेष व्याख्यान करना चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है।
इस प्रकार चतुःस्थान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।