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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चउट्ठाणं ८ मासाणमवट्ठाणदंसणादो। एत्थ वि पुव्वं व कसायपरिणामस्स सल्लीभूदस्स एत्तियमेत्तकालावट्ठाणं समत्थेयव्वं, अण्णहा सुत्तविरोहादो। एसो च कोहपरिणामो वेदिजमाणो जीवस्स संजमासंजमं घादिय सम्मत्तमेत्ते जीवं ठवेदि ति । एसो तदिओ कोहनेदो पुविल्लादो तिव्वाणुभागो दट्टव्वो। ....
* जो सव्वेसिं भवेहिं उवसमं ण गच्छइ सो पव्वदराइसमाणं कोहं वेदयदि।
५४. तं जहा.- एक्कस्स जीवस्स कम्हि वि जीवे समुप्पण्णो कोहो सन्लीभूदो होदण हियये द्विदो, पुणो संखेजासंखेजाणंतेहि भवेहिं तं चेव जीवं दळूण पको, गच्छइ, तजणिदसंसकारस्स णिकाचिदभावेण तेत्तियमेत्तकालावट्ठाणे विरोहाभावादो । सो तारिसो कोहपरिणामो पव्वयराइसमाणो त्ति भण्णदे, पव्वयसिलामेदस्सेव तस्सागंतेण वि कालेण पुणो संधाणाणुवलंभादो। एसो वुण कोहपरिणामो वेदिजमाणो जीवस्स सम्मत्तं पि घादिय मिच्छत्तभावे ठवेह त्ति । सव्वतिव्वाणुभागो एसो चउत्थो कोहमेदो त्ति जाणावणट्टमेत्थ सुत्तपरिसमत्तीए चउण्हमंकविण्णासो कओ। एवं ताव कोहस्स चउण्हं ठाणाणं कालेण णिदरिसणोवणयं कादूण संपहि एदीए दिसाए सेसाणं कसायाणं ठाणमेदेसु भावदो णिदरिसणोवणओ गाहासुत्ताणुसारेण अणुगंतव्वो ति
पृथिवीभेदके समान छह माहके भीतर तक अवस्थित देखा जाता है। यहाँपर भी कषायपरिणाम शल्यरूपसे मात्र इतने काल तक अवस्थित रहता है इसका पहलेके समान समर्थन करना चाहिए । अन्यथा सूत्रके साथ विरोध आता है। और यह क्रोध परिणाम अनुभवमें आता हुआ जीवमें संयमासंयमका घात कर जीवको सम्यक्त्वमें स्थापित करता है। यह तीसरा क्रोधभेद पूर्वके क्रोधसे तीव्र अनुभागवाला जानना चाहिए।
* जो सब भवोंके द्वारा उपशमको नहीं प्राप्त होता है वह पर्वतराजिके समान क्रोधका वेदन करता है।
५४. यथा-एक जीवके किसी भी जीवमें उत्पन्न हुआ क्रोध शल्य होकर हृदयमें स्थित हुआ, पुनः संख्यात, असंख्यात और अनन्त भवोंके द्वारा उसी जीवको देखकर प्रकृष्ट क्रोधको प्राप्त होता है, क्योंकि उससे उत्पन्न हुए संस्कारके निकाचितरूपसे उतने कालतक अवस्थित रहनेमें विरोधका अभाव है। वह उक्त प्रकारका क्रोधपरिणाम पर्वतराजिके समान कहा जाता है, क्योंकि पर्वत-शिलाभेदके समान उसका अनन्त कालके द्वारा भी पुनः सन्धान नहीं उपलब्ध होता। वेदनमें आता हुआ यह क्रोधपरिणाम जीवके सम्यक्त्वका भी घात कर उसे मिथ्यात्वभावमें स्थापित करता है। सबसे तीव्र अनुभागवाला यह चौथा क्रोधभेद है इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहाँ सूत्रके अन्तमें चार अंकका विन्यास किया है । इस प्रकार सर्वप्रथम क्रोधके चारों स्थानोंका कालकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधन करके अब इसी दिशाद्वारा शेष कषायोंके स्थानभेदोंमें भावकी मुख्यतासे उदाहरणद्वारा अर्थसाधन
५. ता०प्रती [प] कोघं इति पाठः ।