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गाथा ८५]
णिक्खेवत्थपरूवणा परिणामाणुववत्तीदो । तथा चोक्तं
क्षणिकाः सर्वसंस्काराः अस्थितानां कुतः क्रिया।
भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं चैव सोच्यते ॥ इति॥ तम्हा एदेण सुद्धपजवणयाहिप्पाएण पयोगट्ठाणस्स वि एत्थासंभवो चेवे त्ति । एवमेदेसि पि परिहारेण गाम-संजम-खेत्त-भावट्ठाणाणि चेव एसो इच्छदि ति सुत्ते वुत्तं । तं कधं १ णामट्ठाणमेसो ताव पडिवज्जइ, बज्झत्थणिरवेक्खट्ठाणसण्णामेत्तस्स तन्विसए पञ्चक्खमुवलंभादो । संजमट्ठाणं वि इमो इच्छदि, तस्स भावसरूवत्तादो। खेत्त-भावट्ठाणाणि पुण एसो पडिवज्जइ चेव, ण तत्थ विसंवादो अत्थि, वट्टमाणोगाहणलक्खणस्स खेत्तस्स कसायोदयसरूवभावस्स च तव्विसए परिप्फुडमुवलंभादो। तदो सिद्धमेदेसि णिक्खेवाणमेत्थ संभवो ति । एवं एदेसु णिक्खेवेसु केणेत्थ पयदमिथासंकाए इदमाह
* एत्थ भावहाणे पयदं ।
$ ४५. एदेसु णिक्खेवेसु अणंतरमेव पवंचिदेसु णोआगमदो भावणिक्खेवेण पयदं, लदासमाणादिट्ठाणाणं णिक्खेवंतरपरिहारेण तत्थेवावट्ठाणदंसणादो। एवं ताव परिणामकी उत्पत्ति नहीं बनती। कहा भी है
सब संस्कार क्षणिक हैं, अस्थित उनमें क्रिया कैसे बन सकती है ? जिनकी उत्पत्ति है वही क्रिया है और वही कारक कहा जाता है ॥१॥
___इसलिये इस शुद्ध पर्यायाथिक नयके अभिप्रायसे प्रयोगस्थान भी इसमें असम्भव ही है। इस प्रकार इन स्थानोंके परिहारद्वारा यह नय नामस्थान, संयमस्थान, क्षेत्रस्थान और भावस्थान इनको ही स्वीकार करता है ऐसा सूत्र में कहा है। . शंका-वह कैसे ?
समाधान-नामस्थानको तो यह स्वीकार करता है, क्योंकि बाह्य अर्थकी अपेक्षा किये विना स्थानसंज्ञामात्र उसके विषयरूपसे प्रत्यक्ष उपलब्ध होती है। संयमस्थानको भी यह स्वीकार करता है, क्योंकि वह (संयमस्थान ) भावस्वरूप है। क्षेत्रस्थान और भावस्थानको तो यह स्वीकार करता ही है, उसमें विसंवाद नहीं है, क्योंकि वर्तमान अवगाहनालक्षण क्षेत्रकी और कषायके उदयस्वरूप भावकी उसके विषयरूपसे स्पष्ट उपलब्धि होती है । इसलिए इन निक्षेपोंका इसमें सम्भव है यह सिद्ध हुआ।
__इस प्रकार इन निक्षेपोंमेंसे किस निक्षेपसे यहाँ ( इस अनुयोगद्वारमें ) प्रयोजन है इस प्रकारकी आशंका होनेपर इस सूत्रको कहते हैं
* प्रकृतमें भावस्थानसे प्रयोजन है।
$ ४५. अनन्तर पूर्व कहे गये इन निक्षेपोंमेंसे नोआगमभावनिक्षेपसे प्रयोजन है, क्योंकि लतासमान आदि स्थानोंका दूसरे निक्षेपोंके परिहारद्वारा नोआगम भावनिक्षेपमें
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